Shaswati class 12 solutions chapter 1 विद्यायाऽमृतमश्नुते
1-संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत
(क)- ईशावास्योपनिषद् कस्या: संहिताया: भाग:?
ईशावास्योपनिषत् शुक्लयजुर्वेदसंहितायाः भागः अस्ति।
(ख) जगत्सर्व कीदृशम् अस्ति?
जगत्सर्वम् ईशावास्यम् अस्ति।
(ग) पदार्थभोग: कथं करणीय:?
पदार्थभोगः त्यागभावनया करणीयः।
(घ) शतं समा: कथं जिजीविषेत् ?
शतं समाः कर्माणि कुर्वन् जिजीविषेत् |
(ङ) आत्महनो जना: कीदृशं लोकं गच्छन्ति ?
आत्महनो जनाः असूर्या नामकं लोकं गच्छति।
(च) मनसोऽपि वेगवान् क:?
मनसोऽपि वेगवान् परमात्मा।
(छ) तिष्ठत्रपि क: धावत: अन्यान् अत्येति?
तिष्ठन्नपि आत्मा धावतः अन्यान् अत्येति।
(ज) अन्धन्तम: के प्रविशन्ति?
ये अविद्यामुपासते ते अन्धन्तमः प्रविशन्ति।
(झ ) धीरेभ्य: ऋषय: कि श्रुतवन्त:?
धीरेभ्यः ऋषयः वयं श्रुतवन्तः।
(ञ) अविद्यया कि तरति?
अविद्यया/व्यावहारिकज्ञानेन मनुष्यः मृत्युं तरति।
(ट) विद्यया किं प्राप्नोति?
विद्यया अमृतं प्राप्नोति। विद्ययामृतमश्नुते।
2- ‘ईशावास्यम् …………. कस्यस्विद्धनम् ‘ इत्यस्य भावं सरलसंस्कृतभाषया विशदयत
सर्वम् इदं जगत् परमात्मना आच्छादितो वर्तते।
३- ‘अन्धन्तम: प्रविशन्ति ……… विद्यायां रताः’ इति मन्रस्य भावं हिन्दीभाषया आंग्लभाषया वा विशदयत ।
अविद्या कि उपासना नहीं करनी चाहिए |
4- ‘विद्यां चाविद्यां च…… ऽमृतमश्नुते’ इति मन्रस्य तात्पर्यं स्पष्टयत
विद्यायाः अविद्यायाः च भेदं ज्ञात्वा अविद्यारूपी अन्धकारं, मृत्युं वितीर्य विद्यारूपी अमृतरूपी अपार अनुपम सत्यज्ञानमयं प्रकाशमयं परमात्मां प्रति गन्तव्यम्।
5- (क) रिक्तस्थानानि पूरयत ।
इदं सर्वं जगत् ‘ ………………
इदं सर्वं जगत् ‘ईशावास्यमिदं ।
मा गृधः …………….
मा गृधः कस्य स्विद् धनम्
शतं समा:…………. जिजीविषेत्।
शतं समा कर्माणि कुर्वन् जिजीविषेत्।
असुर्या नाम लोका …………… आवृता:
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः
अविद्योपासका : ……………….. प्राविशन्ति
अविद्योपासका अन्धन्तमः प्रविशन्ति
6 (क) अधोलिखितानां सप्रसङ्ग हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः।
त्याग पूर्वक जीवनयापन करना चहिए |
प्रसंग– प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “शाश्वती” के प्रथम अध्याय “विद्यामृतमश्नुते” से ग्रहीत है। यह पाठ शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है जिसे ईशावास्योपनिषत् के नाम से जाना जाता है। इस पंक्ति के माध्यम से बताया गया है कि संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक उपभोग करना चाहिए।
व्याख्याः–यह सम्पूर्ण संसार परमपिता परमात्मा द्वारा आच्छादित है। इसीलिए हे मनुष्य तू परमपिता परमात्मा द्वारा दिए गए पदार्थों का त्याग पूर्वक उपभोग कर। किसी के धन की लालसा मत कर।
(ख) न कर्म लिप्यते नरे।
शुभ कर्मो को करना चहिए और अशुभ कर्मो का त्याग करना चहिए |
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “शाश्वती” के प्रथम अध्याय “विद्यामृतमश्नुते” से ग्रहीत है। यह पाठ शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है जिसे ईशावास्योपनिषत् के नाम से जाना जाता है। इस पंक्ति के माध्यम से बताया गया है कि कैसे कर्म में लिप्त न होते हुए भी कर्म किया जाए, और कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीने की इच्छा की जाए।
व्याख्याः
मनुष्य आलस्य को छोड़कर सब के द्रष्टा न्यायाधीश परमात्मा को और आचरण करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ-कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को त्यागते हुए, ब्रह्मचर्य के द्वारा विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त करके उपस्थेन्द्रिय के संयम से वीर्य को बढाकर, अल्पायु में मृत्यु को हटावें और युक्त आहार-विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करें।
(ग) तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।
ब्रह्म सर्वत्र पहले से विद्यामान है |
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “शाश्वती” के प्रथम अध्याय “विद्यामृतमश्नुते” से ग्रहीत है। यह पाठ शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है जिसे ईशावास्योपनिषत् के नाम से जाना जाता है। इस पंक्ति के माध्यम से ब्रह्म के स्वरूप को बताया गया है व किस प्रकार जीव उसका साक्षात्कार कर सकता है।
व्याख्याः
ब्रह्म अनन्त है, अतः जहाँ जहाँ मन जाता है, वहाँ वहाँ वह पूर्व ही व्यापक एवं आगे आगे स्थित है, उस ब्रह्म का ज्ञान शुद्ध मन से ही होता है। उसे चक्षु आदि इन्द्रियाँ और अविद्वान् लोग नहीं देख सकते। वह स्वयं स्थिर रहता हुआ सब जीवों को नियम में चलाता है और उनको धारण करता है उस ब्रह्म के अतिसूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय होने से धार्मिक, विद्वान्, योगी को ही उसका साक्षात्कार होता है, अन्य को नहीं।
(घ) अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।
जो विद्या एवं अविद्या को जानता है | वह सब जानता है ब्रह्म को जानता है |
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “शाश्वती” के प्रथम अध्याय “विद्यामृतमश्नुते” से ग्रहीत है। यह पाठ शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है जिसे ईशावास्योपनिषत्के नाम से जाना जाता है। इस पंक्ति के माध्यम से बताया गया है कि मनुष्य विद्या और अविद्या को जानकर दुःखों से निवृत्त होकर अमृत रूपी अविनाशी आत्मस्वरूप को परमात्मा को प्राप्त करें।
व्याख्याः
जो विद्या और अविद्या को जानता है, वह शरीर आदि जड़ पदार्थों के द्वारा किये पुरुषार्थ से (मृत्युम्) प्राण त्याग में होने वाले दुःख के भय को पार करके आत्मा और शुद्ध अन्तःकरण के संयोग रूप धैर्य से उत्पन्न यथार्थ ज्ञान से (अमृतम्) अविनाशी आत्मस्वरूप को अथवा परमात्मा को प्राप्त करता है।
(ङ) एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति।
मनुष्य को आलस्य क त्याग कर के कार्य करते रहना चहिए |
प्रसंग:–प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “शाश्वती” के प्रथम अध्याय “विद्यामृतमश्नुते” से ग्रहीत है। यह पाठ शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है जिसे ईशावास्योपनिषत् के नाम से जाना जाता है। इस पंक्ति के माध्यम से बताया गया है कि कैसे कर्म में लिप्त न होते हुए भी कर्म किया जाए, और कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीने की इच्छा की जाए।
व्याख्याः– मनुष्य आलस्य को छोड़कर सब के द्रष्टा न्यायाधीश परमात्मा को और आचरण करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ-कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को त्यागते हुए, ब्रह्मचर्य के द्वारा विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त करके उपस्थेन्द्रिय के संयम से वीर्य को बढाकर, अल्पायु में मृत्यु को हटावें और युक्त आहार-विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करें।
(च) तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।
मनुष्य अविद्या रूपी दुःख सागर को पार कर विद्या रूप अनुपम सुख को प्राप्त करें।
प्रसंग:–प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “शाश्वती” के प्रथम अध्याय “विद्यामृतमश्नुते” से ग्रहीत है। यह पाठ शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है जिसे ईशावास्योपनिषत् के नाम से जाना जाता है। इस पंक्ति के माध्यम से बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य अविद्या रूपी दुःख सागर को पार कर विद्या रूप अनुपम सुख को प्राप्त करें।
व्याख्याः
वे ही मनुष्य असुर, दैत्य, राक्षस, पिशाच एवं दुष्ट हैं, जो आत्मा में और वाणी में और तथा कर्म में कुछ और ही करते हैं। वे कभी अविद्या रूप दुःख सागर से पार होकर आनन्द को नहीं प्राप्त कर सकते। और जो लोग जो आत्मा में सो मन में, जो मन में सो वाणी में, जो वाणी में सो कर्म में कपटरहित आचरण करते हैं, वे ही देव, आर्य, सौभाग्यवान् जन सब जगत् को पवित्र करते हुए इस लोक तथा परलोक मेअनुपम सुख को प्राप्त करते हैं।
(छ) अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
अज्ञान को पार कर ज्ञान प्राप्त कर के ब्रह्म को पहचान कर सकता है |
प्रसंग:–प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “शाश्वती” के प्रथम अध्याय “विद्यामृतमश्नुते” से ग्रहीत है। यह पाठ शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है जिसे ईशावास्योपनिषत् के नाम से जाना जाता है। इस पंक्ति के माध्यम से ब्रह्म के स्वरूप को बताया गया है व किस प्रकार जीव उसका साक्षात्कार कर सकता है।
व्याख्याः
हे विद्वान् मनुष्यो! जो अद्वितीय ब्रह्म है, वह (अनेजत्) कम्पन रहित अर्थात् अपनी अवस्था-स्वरूप से कभी विचलित नही होता, वह मन के वेग से भी अति वेगवान् सब का अग्रणी, पूर्ण सर्वत्र मन से पहले पहुँचा हुआ ब्रह्म है। इस ब्रह्म को अविद्वान् अथवा चक्षु आदि इन्द्रियाँ नहीं प्राप्त कर सकती हैं। वह स्वयं अपने स्वरूप में स्थिर हुआ अपनी अनन्त व्यापकता से विषयों की ओर भागने वाले उसके अपने स्वरूप से भिन्न मन, वाणी, इन्द्रियों को प्राप्त नहीं होता।
7-उपनिषन्मन्त्रयो: अन्वयं लिखत
अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनददेवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥
उत्तर – क. विद्यया अन्यत् एव आहुः सम्भवात्, अविद्यया अन्यत् आहुः असम्भवात्, इति शुश्रुम धीराणां ये नः तत् विचचक्षिरे ।
ख. तत् अनेजत् एकं मनसः जवीयः न एनत् आप्नुवन् पूर्वमर्षत् धावतः अन्यान् अत्येति तिष्ठत् तस्मिन् अपः मातरिश्वा दधाति
8- प्रकृतिं प्रत्ययं च योजयित्वा पदरचनां कुरुत ।
त्यज् + क्त; कृ + शतृ; तत् + तसिल्
तत् + तसिल् = ततः
त्यज् + क्त = त्यक्तः (भूतकाले)
कृ + शतृ = कुर्वन् (वर्तमाने) उभयपदि /परस्मैपदी
9 प्रकृतिप्रत्ययविभाग: क्रियताम
प्रेत्य, तीर्त्वा, धावत:, तिष्ठत्, जवीय:
उत्तर- प्रेत्य = प्र + इण् + ल्यप्
तीर्त्वा = तृ + क्त्वा (क्त्वा प्रत्ययस्य प्रयोगः निरूपसर्गधातूना सह भवति।)
धावतः = धाव् + शतृ प्रत्यय
तिष्ठत् = स्था + शतृ प्रत्यय (नपुंसकलिङ्ग)
जवीयः = जव् + ईयसुन्(ईयस्) (वेगयुक्तः)
10- अधोलियितानि पदानि आश्रित्य वाक्यरचनां कुरूत
जगत्यां, धनम्, भुञ्जीथा:, शतम्, कर्माणि, तमसा, त्वयि, अभिगच्छन्ति, प्रविशान्ति, धीराणां , विद्यायाम् , भूय:, समाः।
उत्तर – जगत्यां = जगत्याम् अनेके जन्तवः सन्ति
धनम् = याचकः धनं याचते
भुञ्जीथाः = परेषां धनं, वस्तूं न भुञ्जीथाः।
शतम् = मह्यं शतं रूप्यकाणि देयम्
कर्माणि = सुकर्माणि कुरुत्वम्
तमसा = को मार्गः तमसावृताः
त्वयि = अहं त्वयि विश्वसिमि
अभिगच्छन्ति = सज्जनाः सज्जनान् अभिगच्छन्ति
प्रविशन्ति = सुप्तस्य सिंहस्य मुखे मृगः न प्रविशन्ति
धीराणां = धीराणां मनांसि न विचलन्ति
विद्यायां = विद्यायामेव सर्वं सुखं निहितम्।
भूयः = ज्ञानात् भूयः न किमपि
समाः = कर्माणि कुर्वन् शतं समाः जिजीविषेत्।
11-सन्धि सन्धिविच्छेद वा कुरूत
(क) ईशावास्यम् …………………………. + …………………………
(ख) कुर्वत्रेवेह ………………………… + ………………………… + …………………………
(ग) जिजीविषेत् + शतं …………………………
(घ) तत् + धावत: …………………………
(ङ) अनेजत् + एकं …………………………
(च) आहु: + अविद्यया …………………………
(छ) अन्यथेतः ………………………… + …………………………
(ज) तांस्ते ………………………… + …………………………
उत्तर — (क)ईशावास्यम् = ईश् + आवास्यम्
(ख) कुर्वन्नेवेह = कुर्वन्+ एव + इह
(ग) जिजीविषेत् + शतं = जिजीविषेच्छतं
(घ) तत् + धावतः = तद्धावतः
(ङ)अनेजत् + एकं = अनेजदेकं
(च) आहुः + अविद्यया = आहुरविद्यया
(छ) अन्यथेतः = अन्यथा+ इतः
(ज)तांस्ते = तान् + ते
12- अधोलिखितानां समुचितं योजनं कुरूत
धनम् – वायु:
समा: – आत्मानं ये छ्नन्ति
असुर्या: – श्रुतवन्त: स्म
आत्महन: – तमसाऽऽवृताः
मातरिश्वा – वर्षाणि
शुश्रुम – अमरतां
अमृतम् – वित्तम्
धनम् = वित्तम्
समाः = वर्षाणि
असुर्याः = तमसावृताः
आत्महनः = आत्मानं ये घ्नन्ति
मातरिश्वा = वायुः
शुश्रुम् = श्रुतवन्तः स्म
अमृतम् = अमरता
13- अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदानि लिखत
नरे, ईशः, जगत्, कर्म, धीरा:, विद्या, अविद्या
उत्तर – नरे = मनुष्ये
ईशः = परमात्मा
जगत् = संसारः
कर्म = कार्यम्
धीराः = धैर्यशालिनः
विद्या = आध्यात्मज्ञानम् अलौकिक
अविद्या = व्यावहारिकज्ञानम्
लौकिक ज्ञानम्
14- अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि लिखत ।
एकम्, तिष्ठत्, तमसा, उभयम्, जवीय:, मृत्युम्
उत्तर एकम् = अनेकम्
तिष्ठत् = धावतः
तमसा = प्रकाशेन
उभयम् = एकम्
जवीयः = तिष्ठत्/शितिलः
मृत्युम् = जीवनम्/अमृतम्