Bhaswati Class 12th Sanskrit Bhaswati Chapter 2 न त्वं शोचितुमर्हसि full solution
Bhaswati Class 12th Sanskrit Bhaswati Chapter 2 न त्वं शोचितुमर्हसि full solution
1 — एकपदेन उत्तरत
क–अयं पाठ: कस्मात् ग्रन्थात् संकलित:?
. उत्तर:
अयं पाठः बुद्धचरितात् ग्रन्थात् संकलितः ।
ख-बुद्धचरितस्य रचयिता कः अस्ति?
उत्तर–
बुद्धचरितस्य रचयिता अश्वघोषः अस्ति।
ग–नृणां वरः कः अस्ति?
उत्तर– नृणाः वरः सिद्धार्थः अस्ति ।
घ–अश्वपृष्ठात् कः अवातरत्?
उत्तर–अश्वपृष्ठात् सिद्धार्थ: अवातरत् ।
ड—स्नापयत्रिव चक्षुषा प्रीतः कम् अब्रवीत्?
उत्तर– स्नापयन्निव चक्षुषा प्रीतः सिद्धार्थ: अब्रवीत्।
2 .पूर्णवाक्येन उत्तरत
क–स्वजनस्य विपर्यये का स्थितिः भवति ?
उत्तर– स्वजनस्य विपर्यये स्वजनः भूयिष्ठं जनीभवति।
2 (ख) .महाबाहुः संतप्तमनसे किं ददौ ?
उत्तर–महाबाहुः संतप्तमनसे भूषणानि ददौ।
(ग) .बुद्धः किमर्थं तपोवनं प्रविष्टः ?
उत्तर–बुद्धः जरामरणनाशार्थं तपोवनं प्रविष्टः।
(घ) त्वं कीदृशं मां न शोचितुमर्हसि ?
उत्तर–
त्वम् अभिनिष्क्रान्तं मां न शोचितुमर्हसि।
(ङ) .
कस्मिन् सति कस्य अकालः नास्ति ?
उत्तर–
जीविते चञ्चले सति धर्मस्य अकाल: नास्ति।
३– अधोलिखितेषु सन्धि कुरुत
त्यागात् + न , च + एव , विश्लेषः + तस्मात् , न + अस्नेहेन , बहुशः + नृपः
उत्तर:
त्यागात् + न → त्यागान्न
च + एव → चैव
विश्लेष: + तस्मात् → विश्लेषस्तस्मात्
न + अस्नेहेन → नास्नेहेन
बहुशः + नृपः → बहुशो नृपः
4– अधोलिखितेषु प्रकृतिप्रत्ययविभागं कुरुत –
सुप्तः , विश्रान्तः , दृष्ट्वा , अवतीर्य , भूयिष्ठम् , आदाय , विज्ञाप्यः , वाच्यम्
उत्तर:
सुप्तः → स्वप् + क्त
विश्रान्तः → वि + श्रम् + क्त
दृष्ट्वा → दृश् + क्त्वा
अवतीर्य → अव + तृ + ल्यप्
भूयिष्ठम् → भू + युक् + इष्ठन्
आदाय → आ + दा + ल्यप्
विज्ञाप्य → वि + ज्ञा + ल्यप्
वाच्यम् → वच् + यत्
5- अधोलिखित श्लोकयोः हिन्दी-आङ्लभाषया अनुवादः कार्यः
(क) मुकुटाद्दीपकर्माणं मणिमादाय भास्वरम्।
ब्रुवन्वाक्यमिदं तस्थौ सादित्य इव मन्दरः।।
हिन्दी अनुवाद:
भगवान् बुद्ध (सिद्धार्थ) ने अपने मुकुट से चमकीली मणि लेकर जो कि सूर्य के समान दीपित है, यह वाक्य बोलते स्थित हुए ,ठहरे।
ख – ख) जरामरणनाशार्थं प्रविष्टोऽस्मि तपोवनम्।
न खलु स्वर्गतर्षेण नास्नेहेन न मन्युना।।
हिन्दी अनुवाद:
मैं (सिद्धार्थ) बुढ़ापे और मृत्यु की शांति के लिए तपोवन में प्रविष्ट हुआ हूँ न कि स्वर्ग (मोक्ष) की इच्छा से, न ही अस्नेह से और न ही क्रोध से अर्थात् केवल जरामरण की शांति के लिए तपोवन आया हूँ।
6– ‘ न त्वं शोचितुमर्हसि ‘ इति पाठस्य सारांशः मातृभाषया लेखनीयः ।
न त्वं शोचितुमर्हसि पाठ का सारांश :–
इस पाठ में यह वर्णित है कि जब सिद्धार्थ महाभिनिष्क्रमण के लिए घर से निकलते हैं तब उनका सारथी जो कि उनका परम भक्त भी है, बहुत दुःखी मन से उन्हें भार्गव ऋषि के आश्रम तक पहुंचाता है। सारथी ‘छन्दक’ को सिद्धार्थ ने अपने राजमुकुट की चमकीली मणि दी। छंदक दुःखी हुआ। वह नहीं चाहता था कि सिद्धार्थ अभी तपोवन जाएँ। भार्गव ऋषि के आश्रम से आगे जाने से पहले उन्होंने छंदक को लौट जाने को कहा। तब वे छंदक को दु:खी न होने का उपदेश देते हैं कि तुम शोक न करो, दुःखी मत हो। राजमहल की ओर वापसी जाने को कहने से पूर्व सिद्धार्थ छंदक की प्रशंसा करते हैं।
7- रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) .न त्वं __________ अर्हसि ।
उत्तर–
न त्वं शोचितुम् अर्हसि।
(ख) .स ददर्श __ आश्रमपदम् ।
उत्तर–
स ददर्श भार्गवस्य आश्रमपदम्।
(ग) .
स विस्मयनिवृत्यर्थं __ च ।
उत्तर–
स विस्मयनिवृत्यर्थं तपःपूजार्थमेव च।
(घ) .जनीभवति भूयिष्ठम् _ विपर्यये ।
उत्तर–
जनीभवति भूयिष्ठम् स्वजनोऽपि विपर्यये।
(ङ) .अकालः_ धर्मस्य ।
उत्तर–
अकाल: नास्ति धर्मस्या
8– विशेष्य – विशेषणयोः योजनं कुरुत –
( क ) भास्करे ( i ) अभिमुखः
( ख ) जनः ( ii ) भास्वरम्
( ग ) मणिम् ( iii ) जगच्चक्षुपि
( घ ) जीविते ( iv ) अभिनिष्कान्तम्
( ड ) माम् ( v ) चञ्चले
उत्तर:
(क) भास्करे → (ग) जगच्चक्षुषि
(ख) जनः → (क) अभिमुखः
(ग) मणिम् → (ख) भास्करम्
(घ) जीविते → (ङ) चञ्चले
(ङ) माम् → (घ) अभिनिष्क्रान्तम्
9– उदाहरणानुसार विग्रहपदानि आवृत्य समस्तपदानि रचयत
आदित्येन सह – सादित्यः ……………………………
स्वर्गाय तर्षः – स्वर्गतर्षः ……………………………
न काल : – अकाल : ……………………………
महान्तौ बाहू यस्य सः – महाबाहुः ……………………………
वसुधायाः अधिपः – वसुधाधिपः ……………………………
उत्तर:
विग्रहपदानि……. समस्तपदानि
आदित्येन सह → सादित्यः
स्वर्गाय तर्षः → स्वर्गतर्षः
न काल:→ अकाल:
महान्तौ बाहू यस्य सः → महाबाहुः
वसुधायाः अधिपः → वसुधाधिपः
10–अधोलिखितपदानां विपरीतार्यकपदैः मेलनं कुरुत
ख ) अवतीर्य………..( ख ) रंकः
( ग ) स्वजनः……….( ग ) जागृतः
( घ ) नृपः…………..( घ ) आरुह्य
( ङ ) ध्रुवः……..( ङ ) परजनः
उत्तर:
पदानि विपरीतार्थकपदानि
(क) सुप्तः → (ग) जागृतः
(ख) अवतीर्य → (घ) आरुह्य
(ग) स्वजन: → (ङ) परजनः
(घ) नृपः → (ख) रंक:
(ङ) ध्रुवः → (क) चञ्चल:
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