UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 11 HINDI SATY KI JEET सत्य की जीत
UP Board Solution for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य सत्य की जीत
कथावस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1 . “सत्य की जीत” खण्डकाव्य की किसी एक घटना का उल्लेख कीजिए जो आपको अच्छी लगी हो ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का सारांश लिखिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की कथावस्तु/कथानक अपने शब्दों में ” लिखिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य का कथानक संक्षेप में लिखिए । अथवा “सत्य की जीत” खण्डकाव्य की प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए ।
अथवा
सत्य की जीत खण्डकाव्य की किसी प्रमुख घटना का परिचय दीजिए । (2018, 16)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य का कथानक/कथावस्तु संक्षेप में लिखिए । (2018, 14, 12, 11, 10)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की कथावस्तु के आधार पर सिद्ध कीजिए कि जीत वहाँ होती है, जहाँ सत्य, धर्म और न्याय होता है ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की कथा महाभारत के द्रौपदी के चीर-हरण की संक्षिप्त, किन्तु मार्मिक घटना पर आधारित है । सिद्ध कीजिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं पर प्रकाश डालिए । (2014, 13, 12)
उत्तर:– प्रस्तुत खण्डकाव्य की कथा “महाभारत” के द्रौपदी चीर-हरण की अत्यन्त संक्षिप्त, किन्तु मार्मिक घटना पर आधारित है । यह एक अत्यन्त लघु काव्य है, जिसमें कवि ने पुरातन आख्यान को वर्तमान सन्दर्भो में प्रस्तुत किया है । दुर्योधन पाण्डवों को यूतक्रीड़ा (जुआ) के लिए आमन्त्रित करता है और छल-प्रपंच से उनका सब कुछ छीन लेता है । युधिष्ठिर जुए में स्वयं को हार जाते हैं । अन्त में वह द्रौपदी को भी दांव पर लगा देते हैं और हार आते हैं । इस पर कौरव भरी सभा में द्रौपदी को वस्त्रहीन करके अपमानित करना चाहते हैं ।
दुःशासन द्रौपदी के केश खींचते हुए उसे सभा में लाता है । द्रौपदी के लिए यह अपमान असह्य हो जाता है । वह सभा में प्रश्न उठाती है कि जो व्यक्ति स्वयं को हार गया है, उसे अपनी पत्नी को दाँव पर लगाने का क्या अधिकार है?
अतः मैं कौरवों द्वारा विजित नहीं हैं । दुःशासन उसका चीर-हरण करना चाहता है । उसके इस कुकर्म पर द्रौपदी अपने सम्पूर्ण आत्मबल के साथ सत्य का सहारा लेकर उसे ललकारती है और वस्त्र खींचने की चुनौती देती है ।
अरे-ओ! दु:शासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध ।
किसे कहते उसका अपमान
कराऊँगी मैं इसका बोध । । ”
तब भयभीत दुःशासन दुर्योधन के आदेश पर भी उसके चीर-हरण का साहस नहीं कर पाता । दुर्योधन का छोटा भाई विकर्ण द्रौपदी का पक्ष लेता है । उसके समर्थन से अन्य सभासद भी दुर्योधन और दुःशासन की निन्दा करते हैं, क्योंकि वे सभी यह अनुभव करते हैं कि यदि आज पाण्डवों के प्रति होते हुए अन्याय को नहीं रोका गया, तो इसका परिणाम बहुत बुरा होगा । अन्ततः धृतराष्ट्र पाण्डवों के राज्य को लौटाकर उन्हें मुक्त करने की घोषणा करते हैं । इस खण्डकाव्य में कवि ने द्रौपदी के चीर हरण की घटना में श्रीकृष्ण द्वारा चीर बढ़ाए जाने की अलौकिकता को प्रस्तुत नहीं किया हैं । द्रौपदी का पक्ष सत्य, न्याय का पक्ष है । तात्पर्य यह है कि जिसके पास सत्य और न्याय का बल हो, असत्यरूपी दुःशासन उसका चीर-हरण नहीं कर सकता ।
द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी ने इस कथा को अत्यधिक प्रभावी और युग के अनुकूल सृजित किया है और नारी के सम्मान की रक्षा करने के संकल्प को दोहराया है । इस प्रकार प्रस्तुत खण्डकाव्य की कथावस्तु अत्यन्त लघु रखी गई है । कथा का संगठन अत्यन्त कुशलता से किया गया हैं । इस प्रकार “सत्य की जीत को एक सफल “खण्ड काव्य” कहना सर्वथा उचित होगा ।
प्रश्न 2 . खण्डकाव्य की विशेषताओं के आधार पर सत्य जीत खण्डकाव्य की समीक्षा कीजिए । (2018)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की विशेषताएँ लिखिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए । 2018
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए । (2017)
उत्तर:—
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य की भावात्मक एवं कलात्मक विशेषताओं का विवरण इस प्रकार है । भावपक्षीय विशेषताएँ “सत्य की जीत” खण्डकाव्य की भावपक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं ।
आधुनिक युग आधुनिक युग “नारी-जागरण” का युग है । द्रौपदी के माध्यम से इस काव्य में पग-पग पर आज की जागृत नारी ही बोल रही है । यद्यपि इस खण्डकाव्य की कथा महाभारत की चीर-हरण घटना पर आधारित है, किन्तु कवि ने उसमें वर्तमान नारी की दशा को आरोपित किया है । साथ ही कुछ मौलिक परिवर्तन भी किए हैं । कवि का विचार है कि शक्ति का उपयोग युद्ध के लिए नहीं, अपितु शान्ति एवं विकास कार्यों के लिए होना चाहिए । जीवन में सत्य, न्याय, प्रेम, करुणा, क्षमा, सहानुभूति, सेवा आदि मूल्यों का विकास आवश्यक है ।
उदात्त आदर्शों का स्वर सम्पूर्ण भावात्मक क्षेत्रों से भारतीय नारियों के प्रति श्रद्धा, विनाशकारी आचरण एवं शस्त्रों के अंगीकरण का विरोध, प्रजातान्त्रिक आदशों तथा सत्य के आत्मबल की शक्ति का स्वर मुखरित होता है । इस खण्डकाव्य में द्रौपदी के चीर-हरण को प्रसंग बनाकर उदात्त आदशों की भावधारा प्रवाहित की गई है ।
रस योजना प्रस्तुत खण्डकाव्य में वीर एवं रौद्र रस की प्रधानता है । ओज गुण की प्रधानता भी दिखाई देती है । इस खण्डकाव्य का विषय एवं भाव नारी के शक्ति-रूप को चित्रित करना है । अत: उसके अनुरूप वीर एवं रौद्र रस की योजना की गई है ।
कलापक्षीय विशेषताएँ “सत्य की जीत” खण्डकाव्य की कलापक्षीय विशेषताएँ निम्न प्रकार है ।
1 . भाषा-शैली — प्रस्तुत खण्डकाव्य न घटना प्रधान है, न भाव प्रधान । यह एक विचारशील रचना है । इस कारण कवि ने इसे अत्यन्त सरल, प्रवाहपूर्ण और प्रसादगुण सम्पन्न खड़ी बोली हिन्दी में लिखा है । इसकी भाषा में न तो अलंकारों की प्रधानता है और न ही कृत्रिमता की ।
सह सका भरी सभा के बीच नहीं वह अपना यों अपमान ।
देख नर पर नारी का वार एकदम गरज उठी अभिमान । । ”
इस काव्य की भाषा बड़ी ओजपूर्ण है । द्रौपदी इसकी प्रमुख स्त्री पात्र है । वह सिंहनी सी निक, दुर्गा सी तेजस्विनी और दीपशिखा सी आलोकमयी है । दूसरी ओर पुरुष पात्रों में दुःशासन प्रमुख है, उसमें पौरुष का अहं है और भौतिक शक्ति का दम्भ भी । अतः दोनों पात्रों के व्यक्तित्व एवं विचारों के अनुरूप ही इस काव्य की भाषा को अत्यन्त वेगपूर्ण एवं ओजस्वी रूप प्रदान किया गया है ।
2 . संवाद योजना एवं नाटकीयता — “सत्य की जीत” खण्डकाव्य में कवि ने कथोपकथनों द्वारा कथा को प्रस्तुत किया है । इसके संवाद सशक्त, पात्रानुकूल तथा कथा को आगे बढ़ाने वाले हैं । कवि के इस प्रयास से काव्य में नाटकीयता का समावेश हो गया है, जिस कारण सत्य की जीत” काव्य अधिक आकर्षक बन गया है| “द्रौपदी बढ़-चढ़ कर मत बोल, कहा उसने तत्क्षण तत्काल । पीट मत री नारी का ढोल, उगल मत व्यर्थ अग्नि की ज्वाल । । ”
3 . अलंकार योजना — प्रस्तुत खण्डकाव्य में उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक अलंकारों का प्रयोग किया गया है । अनुभावों की चित्रोपमता की सजीव योजना की गई है—
और वह मुख! प्रज्वलित प्रचण्ड
अग्नि को खण्ड, स्फुलिंग का कोष । ”
इस प्रकार प्रस्तुत खण्डकाव्य की कथावस्तु अत्यन्त लघु रखी गई है । कथा का संगठन अत्यन्त कुशलता से किया गया है । द्रौपदी का चरित्र आदर्शमय है । इस प्रकार “सत्य की जीत” को एक सफल खण्डकाव्य कहना सर्वथा उपयुक्त हैं ।
4 . उद्देश्य– प्रस्तुत खण्डकाव्य में कवि का उद्देश्य असत्य पर सत्य की विजय दिखाना है । इस खण्डकाव्य का मूल उद्देश्य मानवीय सद्गुणों एवं उदात्त भावनाओं को चित्रित करके समाज में इनकी स्थापना करना और समाज के उत्थान में नर-नारी का समान रूप से सहयोग देना है ।
प्रश्न 3 . “सत्य की जीत आधुनिक युग की नारी-जागरण की झलक है । ” इस कथन की सार्थकता पर प्रकाश डालिए । (2016)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के शीर्षक (नामकरण) की सार्थकता (आशय) पर प्रकाश डालिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य में निहित सन्देश (उददेश्य) को स्पष्ट कीजिए । (2014, 13, 12, 10)
उत्तर:–
“सत्य की जीत” शीर्षक की सार्थकता—
श्री द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी द्वारा रचित “सत्य की जीत” खण्डकाव्य में द्रौपदी चीर-हरण के प्रसंग का वर्णन किया गया है, किन्तु यह सर्वथा नवीन है । अत्याचारों को द्रौपदी चुपचाप स्वीकार नहीं करती वरन् पूर्ण आत्मबल से उसके विरुद्ध संघर्ष करती है । चीर-हरण के समय वह दुर्गा का रूप धारण कर लेती है, जिससे दु:शासन सहम जाता है । सभी कौरव द्रौपदी के सत्य बल, तेज और सतीत्व के आगे कान्तिहीन हो जाते हैं । अन्ततः जीत उसी की होती है और पूरी राजसभा उसके पक्ष में हो जाती है । इस खण्डकाव्य के माध्यम से कवि का उद्देश्य सत्य को असत्य पर विजय प्राप्त करते हुए दिखाना है । खण्डकाव्य का मुख्य आध्यात्मिक भाव सत्य की असत्य पर विजय है । अतः खण्डकाव्य का शीर्षक सर्वथा उपयुक्त है ।
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य का उद्देश्य—
प्रस्तुत खण्डकाव्य में कवि का उद्देश्य असत्य पर सत्य की विजय दिखाना है । इस खण्डकाव्य का मूल उद्देश्य मानवीय सद्गुणों एवं उदात्त भावनाओं को चित्रित करके समाज में इनकी स्थापना करना है और समाज के उत्थान में नर-नारी का समान रूप से सहयोग देना है । इस खण्डकाव्य में निम्नलिखित विचारों का प्रतिपादन हुआ है ।
1 . नैतिक मूल्यों की स्थापना “सत्य की जीत” खण्डकाव्य में कवि ने दुःशासन और दुर्योधन के छल-कपट, दम्भ, ईष्र्या, अनाचार, शस्त्र बल आदि की पराजय दिखाकर उन पर सत्य, न्याय, प्रेम, मैत्री, करुणा, श्रद्धा आदि मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा की है । कवि का विचार है कि मानव को भौतिकवाद के गर्त से नैतिक मूल्यों की स्थापना करके ही निकाला जा सकता है ।
जहाँ है सत्य, जहाँ है धर्म, जहाँ है न्याय, वहाँ है जीत”
2 . नारी की प्रतिष्ठा-– प्रस्तुत खण्डकाव्य में कवि ने द्रौपदी को कोमलता व श्रृंगार की मूर्ति के रूप में नहीं वरन् दुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित किया है । कवि ने द्रौपदी को उस नारी के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अपने सतीत्व और मर्यादा की रक्षा के लिए चण्डी और दुर्गा बन जाती है । यही कारण है । कि भारत में नारी की शक्ति को दुर्गा के रूप में स्वीकार किया गया है । द्रौपदी दु:शासन से स्पष्ट कह देती है कि नारी का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, वह पुरुष की सम्पत्ति या भोग्या नहीं हैं । समय पड़ने पर वह कठोरता का वरण भी कर सकती है ।
3 . स्वार्थ एवं ईर्ष्या का विनाश –-आज को मनुष्य स्वार्थी होता जा रहा है । स्वार्थ भावना ही संघर्ष को जन्म देती है । इनके वश में होकर व्यक्ति कुछ भी कर सकता है । इसे कवि ने द्रौपदी चीर-हरण की घटना के माध्यम से दर्शाया है । दुर्योधन पाण्ड्वों से ईष्र्या रखता है तथा उन्हें छूतक्रीड़ा (जुआ) में छल से पराजित कर देता है और उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाता है । वह द्रौपदी को निर्वस्त्र करके उसे अपमानित करना चाहता है । कवि स्वार्थ और ईष्र्या को पतन का कारण मानता है । कवि इस खण्डकाव्य के माध्यम से यह सन्देश देता है कि स्वार्थपरता, बैर-भाय, ईष्र्या-द्वेष आदि को हमें समाप्त कर देना चाहिए और उसके स्थान पर मैत्री, सत्य, प्रेम, त्याग, परोपकार, सेवा-भावना आदि का प्रसार करना चाहिए ।
4, प्रजातान्त्रिक भावना का प्रतिपादन– प्रस्तुत खण्डकाव्य का सन्देश यह भी है कि हम प्रजातान्त्रिक भावनाओं का आदर करें । कवि ने निरंकुशता का खण्डन करके प्रजातन्त्र की उपयोगिता का प्रतिपादन किया है । निरंकुशता पर प्रजातन्त्र एक अंकुश है । राजसभा में द्रौपदी के प्रश्न पर जहाँ दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं, वहीं धृतराष्ट्र अपना निर्णय देते समय जनभावनाओं को पूर्ण ध्यान में रखते हैं ।
5 . विश्वबन्धुत्व का सन्देश “सत्य की जीत” खण्डकाव्य में कवि ने यह सन्देश दिया है कि सहयोग और सह-अस्तित्व से ही विश्व का कल्याण होगा ।
जिएँ हम और जिएँ सब लोग । ”
इससे सत्य, अहिंसा, न्याय, मैत्री, करुणा आदि को बल मिलेगा और समस्त संसार एक कुटुम्ब की भाँति प्रतीत होने लगेगा ।
6 . निरंकुशवाद के दोषों का प्रकाशन – रचनाकार ने स्वीकार किया है कि जब सत्ता निरंकुश हो जाती है, तो वह अनैतिक कार्य करने में कोई संकोच नहीं करती । ऐसे राज्य में विवेक कुण्ठित हो जाता है । भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र आदि भी दुर्योधन की सत्ता की निरंकुशता के आगे हतप्रभ है ।
इस प्रकार “सत्य की जीत” एक विचार प्रधान खण्डकाव्य है । इसमें शाश्वत भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है और स्वार्थ एवं ईष्र्या के समापन की कामना भी । कवि पाठकों को सदाचारपूर्ण जीवन की प्रेरणा देना चाहता है । वह उन्नत मानवीय जीवन का सन्देश देता है ।
प्रश्न 4 . “सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी और दुःशासन के वार्तालाप को अपने शब्दों में लिखिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी और दुःशासन के संवाद को अपने शब्दों में लिखिए । (2011)
उत्तर:—
कवि द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी कृत “सत्य की जीत” खण्डकाव्य का कथानक “महाभारत” के “सभा पर्व” से लिया गया हैं । इस खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में इस प्रकार है-दुर्योधन पाण्डवों को छूतक्रीड़ा का निमन्त्रण देता है । पाण्डवे उसके निमन्त्रण को स्वीकार कर लेते हैं और जुआ खेलते हैं । युधिष्ठिर जुए में निरन्तर हारते रहते हैं । अन्त में युधिष्ठिर द्रौपदी को भी दाँव पर लगा देते हैं और हार जाते हैं । प्रतिशोध की अग्नि में जलता हुआ दुर्योधन द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित करना चाहता है । अतः वह दुःशासन को भरी सभा में द्रौपदी को वस्त्रहीन करने का आदेश देता है । इस घटना को भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र एवं विदुर जैसे ज्ञानीजन भी मूकदर्शक बने देखते रहते हैं । केश पकड़कर द्रौपदी को सभा में लाया जाता है । इस अपमान से क्षुब्ध होकर वह एक सिंहनी के समान गर्जना करती हुई दु:शासन को ललकारती है । सभी सभासद उसकी ललकार सुनकर स्तब्ध रह जाते हैं । द्रौपदी कहती है-
अरे-ओ! दुःशासन निर्लज! देख तू नारी का भी क्रोध ।
किसे कहते उसका अपमान, कराऊँगी मैं इसका बोध । ”
द्रौपदी द्वारा नारी जाति पर पुरुषों के अत्याचार का विरोध किया जाता है । दुःशासन नारी को अबला, तुच्छ, महत्त्वहन एवं पुरुष की आश्रिता बताता है, परन्तु द्रौपदी उसे नारी-क्रोध से दूर रहने को कहती है । द्रौपदी कहती है कि संसार के कल्याण के लिए नारी को महत्त्व दिया जाना आवश्यक है ।
द्रौपदी और दु:शासन दोनों धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, सत्य-असत्य पर तर्क-वितर्क करते हैं । द्रौपदी उपस्थित सभासदों से तथा नीतिज्ञ, विद्वान् और प्रतापी व्यक्तियों से पूछती है कि जुए में हारे हुए युधिष्ठिर को मुझे दांव पर लगा देने का अधिकार कैसे हो सकता है? यदि युधिष्ठिर को उसे दांव पर लगाने का अधिकार नहीं है, तो उसे विजित कैसे माना गया और उसे भरी सभा में अपमानित करने का किसी को क्या अधिकार है? द्रौपदी के इस कथन के प्रति सभी संभाजन अपनी सहमति व्यक्त करते हैं । भीष्म पितामह इसका निर्णय युधिष्ठिर पर छोड़ते हैं । द्रौपदी भीष्म पितामह के वचन सुनकर कहती है कि दुर्योधन ने छल-प्रपंच करके सरल हदय वाले युधिष्ठिर को अपने जाल में फंसा लिया हैं । अत: धर्म एवं नीति के ज्ञाता स्वयं निर्णय लें कि उन्हें छल-कपट एवं असत्य की विजय स्वीकार है । अथवा धर्म, सत्य एवं सरलता की । द्रौपदी की बात सुनकर दुःशासन कहता है कि कौरवों को अपने शस्त्र बल पर भरोसा है न कि शास्त्र बल पर । कर्ण, शनि और दुर्योधन, दुःशासन के इस कथन का पूर्ण समर्थन करते हैं ।
सभा में उपस्थित एक सभासद विकर्ण को यह बात बुरी लगती है । वह कहता है । कि यदि शास्त्र बल से शस्त्र बल ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है, तो मानवता का विकास सम्भव नहीं है, क्योंकि शस्त्र बल मानवता को पशुता में बदल देता है । वह कहता है कि सभी विद्वान् एवं धर्मशास्त्रों के ज्ञाताओं को द्रौपदी के कथन का उत्तर अवश्य देना चाहिए, नहीं तो बड़ा अनर्थ होगा । विकर्ण द्रौपदी को विजित . नहीं मानता । विकर्ण की घोषणा सुनकर सभी सभासद दुर्योधन, दु:शासन आदि की निन्दा करने लगते हैं, परन्तु कर्ण उत्तेजित होकर कौरवों का पूर्ण समर्थन करता है । और द्रौपदी को निर्वस्त्र करने के लिए दु:शासन को आज्ञा देता है ।
सभी स्तब्ध रह जाती है । पांचों पाण्डव अपने वस्त्र-अलंकार उतार देते हैं । दुःशासन अट्टहास करता है और द्रौपदी के वस्त्र खींचने के लिए हाथ बढ़ाता है । द्रौपदी गरज उठती है और अपने पूर्ण बल के साथ उसे रोककर कहती है कि वह किसी भी तरह विजित नहीं है तथा दुःशासन उसके प्राण रहते उसका चीर-हरण नहीं कर सकता । यह सुनकर मदान्ध दुःशासन द्रौपदी के वस्त्रों की ओर पुनः हाथ बढ़ाता है । द्रौपदी दुर्गा का रूप धारण कर लेती हैं, जिसे देखकर दुःशासन सहम जाता है तथा अपने आपको चीर-हरण में असमर्थ अनुभव करता है ।
द्रौपदी दुःशासन को चीर-हरण के लिए ललकारती है, परन्तु वह दुर्योधन की चेतावनी पर भी द्रौपदी के रौद्र रूप से आतंकित बना रहता है । सभी कौरव द्रौपदी के सत्य बल, तेज और सतीत्व के आगे कान्तिहीन हो जाते हैं । कौरवों को अनीति की राह पर चलता देखकर सभी सभासद उनकी निन्दा करने लगते हैं । राजमदान्ध दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि को द्रौपदी फिर ललकारती हुई घोषणा करती है-
“और तुमने देखा यह स्वयं, कि होते जिधर सत्य और न्याय ।
जीत होती उनकी ही सदा, समय चाहे जितना लग जाय । । ”
सभी सभासद कौरवों की निन्दा करते हैं, क्योंकि वे यह अनुभव करते हैं कि यदि पाण्डवों के प्रति होते हुए इस अन्याय को नहीं रोका गया तो प्रलय हो जाएगा । अन्त में धृतराष्ट्र उठते हैं और सभा को शान्त करते हैं । वे अपने पुत्र दुर्योधन की भूल को स्वीकार करते हैं । धृतराष्ट्र पाण्डवों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि उन्होंने सत्य, धर्म एवं न्याय का मार्ग नहीं छोड़ा । वे दुर्योधन को आदेश देते हैं कि पाण्डवों का राज्य लौटा दिया जाए तथा उन्हें मुक्त कर दिया जाए । वे भरी सभा में “जियो और जीने दो” की नीति की घोषणा करते हैं-
नीति समझो मेरी यह स्पष्ट, जिएँ हम और जिएँ सब लोग । ” धृतराष्ट्र द्रौपदी के विचारों को उचित ठहराते हैं । वे उसके प्रति किए गए । दुर्व्यवहार के लिए उससे क्षमा माँगते हैं । पाण्डवों के गौरवपूर्ण व सुखद भविष्य की कामना करते हुए कहते हैं-
“जहाँ है सत्य, जहाँ है धर्म, जहाँ है न्याय, वहाँ है जीत ।
तुम्हारे यश-गौरव के दिग्-दिगन्त में गूंजेंगे स्वर गीत । । ”
इस प्रकार “सत्य की जीत” खण्डकाव्य की कथा द्रौपदी चीर-हरण की अत्यन्त संक्षिप्त, किन्तु मार्मिक घटना पर आधारित है । कवि ने इस कथा को अत्यधिक प्रभावी और युगानुकूल बनाकर नारी के सम्मान की रक्षा करने का अपना संकल्प दोहराया है ।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 5 . “सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी के चरित्र की विशेषताएँ बताइए । (2018, 17)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी का चरित्रांकन कीजिए । (2017)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर उसकी नायिका के चरित्र की विशेषताएँ बताइए । (2017)
अथवा
“सत्य की जीत” के आधार पर सिद्ध कीजिए कि “नारी अबला नहीं शक्ति स्वरूप है । ” (2016)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए । (2016)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर किसी स्त्री पात्र का चरित्रांकन कीजिए । (2016)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर नायिका द्रौपदी का चरित्र-चित्रण कीजिए । (2013, 12, 11, 10)
अथवा
“सत्य की जीत में द्रौपदी के चरित्र में वर्तमान युग के नारी जागरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । ” इस कथन को सिद्ध कीजिए ।
उत्तर:–
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी कृत खण्डकाव्य “सत्य की जीत” की नायिका द्रौपदी है । कवि ने उसे महाभारत की द्रौपदी के समान सुकुमार, निरीह रूप में प्रस्तुत न करके आत्मसम्मान से युक्त, ओजस्वी, सशक्त एवं वाक्पटु वीरांगना के रूप में चित्रित किया है । द्रौपदी की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं ।
1 . स्वाभिमानिनी – द्रौपदी स्वाभिमानिनी है । वह अपमान सहन नहीं कर सकती । वह अपना अपमान नारी जाति का अपमान समझती हैं । वह नारी के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने वाली किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकती । “सत्य की जीत” की द्रौपदी “महाभारत” की द्रौपदी से बिल्कुल अलग है । वह असहाय और अबला नहीं है । वह अन्याय और अधर्मी पुरुषों से संघर्ष करने वाली हैं ।
2 . निर्भीक एवं साहसी –द्रौपदी निर्भीक एवं साहसी है । दुःशासन द्रौपदी के बाल खींचकर भरी सभा में ले आता है और उसे अपमानित करना चाहता है । तब द्रौपदी बड़े साहस एवं निर्भीकता के साथ दुःशासन को निर्लज्ज और पापी कहकर पुकारती है ।
3 . विवेकशील-द्रौपदी पुरुष के पीछे-पीछे आँखें बन्द करके चलने वाली नारी नहीं है वरन् विवेक से काम लेने वाली हैं । वह भरी सभा में यह सिद्ध कर देती है कि जो व्यक्ति स्वयं को हार गया हो, उसे अपनी पत्नी को दाँव पर लगाने का अधिकार ही नहीं है । अत: वह कौरवों द्वारा विजित नहीं हैं ।
4 . सत्यनिष्ठ एवं न्यायप्रिय –द्रौपदी सत्यनिष्ठ है, साथ ही न्यायप्रिय भी है । वह अपने प्राण देकर भी सत्य और न्याय का पालन करना चाहती है । जब दुःशासन द्रौपदी के सत्य एवं शील का हरण करना चाहता है, तब वह उसे ललकारती हुई कहती है-
न्याय में रहा मुझे विश्वास,
सत्य में शक्ति अनन्त महान् ।
मानती आई हूँ मैं सतत्,
सत्य ही है ईश्वर, भगवान । ”
5 . वीरांगना द्रौपदी विवश होकर पुरुष को क्षमा कर देने वाली असहाय और अबला नारी नहीं है । वह चुनौती देकर दण्ड देने को कटिबद्ध वीरांगना है-
“अरे ओ! दु:शासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध ।
किसे कहते उसका अपमान,
कराऊँगी मैं उसका बोध । ”
6 . नारी जाति का आदर्श —द्रौपदी सम्पूर्ण नारी जाति के लिए एक आदर्श है । दुःशासन नारी को वासना एवं भोग की वस्तु कहता है, तो वह बताती है कि नारी वह शक्ति है, जो विशाल चट्टान को भी हिला देती है । पापियों के नाश के लिए वह भैरवी भी बन सकती है । वह कहती है-
पुरुष के पौरुष से ही सिर्फ,
बनेगी धरा नहीं यह स्वर्ग ।
चाहिए नारी का नारीत्व,
तभी होगा यह पूरा सर्ग । ”
सार रूप में कहा जा सकता है कि द्रौपदी पाण्डव-कुलवधू, वीरांगना, स्वाभिमानिनी, आत्मगौरव सम्पन्न, सत्य और न्याय की पक्षधर, सती-साध्वी, नारीत्व के स्वाभिमान से मण्डित एवं नारी जाति का आदर्श है ।
प्रश्न 6 . “सत्य की जीत” खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए । (2018)
अथवा
“सत्य की जीत के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण कीजिए । (2018)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए । (2018)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए । (2017)
अथवा
“सत्य की जीत” के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए । (2017)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य/नाटक के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए । (2018, 16)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर युधिष्ठिर की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए । (2016)
उत्तर:–
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के नायक रूप में युधिष्ठिर के चरित्र को स्थापित किया गया है । द्रौपदी एवं धृतराष्ट्र के कथनों के माध्यम से युधिष्ठिर का चरित्र प्रकट हुआ है । “सत्य की जीत” खण्डकाव्य में युधिष्ठिर का चरित्र महान् गुणों से परिपूर्ण है ।
उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं ।
1 . सरल-हृदयी – व्यक्तित्व युधिष्ठिर का व्यक्तित्व सरल हृदयी है तथा अपने समान ही सभी अन्य व्यक्तियों को भी सरल हृदयी समझते हैं । इसी गुण के कारण वे दुर्योधन और शकुनि के कपट रूपी माया जाल में फंस जाते हैं और इसका दुष्परिणाम भोगने के लिए विवश हो जाते हैं ।
2 . धीर-गम्भीर -युधिष्ठिर ने अपने जीवन काल में अत्यधिक कष्ट भोगे थे, परन्तु उनके स्वभाव में परिवर्तन नहीं हुआ । दुःशासन द्वारा द्रौपदी का चीर-हरण व उसका अपमान किए जाने के पश्चात् भी युधिष्ठिर का मौन व शान्त रहने का कारण उनकी कायरता या दुर्बलता नहीं थी, अपितु उनकी धीरता व गम्भीरता का गुण था । ।
3 . अदूरदर्शी —युधिष्ठिर सैद्धान्तिक रूप से अत्यधिक कुशल थे, परन्तु व्यावहारिक रूप से कुशलता का अभाव अवश्य है । वे गुणवान तो हैं, परन्तु द्रौपदी को दांव पर लगाने जैसा मूर्खतापूर्ण कार्य कर बैठते हैं । परिणामस्वरूप इस फर्म का दूरगामी परिणाम उनकी दृष्टि से ओझल हो जाता है और चीर-हरण जैसे कुकृत्य को जन्म देता है । इस प्रकार युधिष्ठिर अदूरदर्शी कहे जाते हैं ।
4 . विश्व-कल्याण के अग्रदूत-– युधिष्ठिर का व्यक्तित्व विश्व-कल्याण के प्रवर्तक के रूप में देखा गया है । इस गुण के सन्दर्भ में धृतराष्ट्र भी कहते हैं कि
“तुम्हारे साथ विश्व है, क्योंकि तुम्हारा ध्येय विश्व-कल्याण । ”
अर्थात् धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर के साथ सम्पूर्ण विश्व को माना है, क्योंकि उनका उद्देश्य विश्व-कल्याण मात्र है ।
5 . सत्य और धर्म के अवतार- युधिष्ठिर को सत्य और धर्म का अवतार माना गया है । इनकी सत्य और धर्म के प्रति अडिग निष्ठा है । युधिष्ठिर के इसी गुण पर मुग्ध होकर धृतराष्ट्र ने कहा कि हे युधिष्ठिर! तुम श्रेष्ठ व धर्मपरायण हो और इन्हीं गुणों को आधार बनाकर बिना किसी भय के अपना राज्य संभालो और राज करो ।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि युधिष्ठिर इस खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र व नायक हैं, जिनमें विश्व कल्याण, सत्य, धर्म, धीर, शान्त व सरल हृदयी व्यक्तित्व का समावेश है ।
प्रश्न 7 . “सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर दुःशासन के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए । (2018)
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर दुःशासन का चरित्रांकन कीजिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर दुःशासन के चरित्र पर सोदाहरण प्रकाश डालिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य के प्रमुख पुरुष पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए ।
अथवा
“सत्य की जीत” खण्डकाव्य में दुःशासन का चरित्र-चित्रण कीजिए ।
उत्तर:- प्रस्तुत खण्डकाव्य में दुःशासन एक प्रमुख पात्र है । यह दुर्योधन का छोटा भाई तथा धृतराष्ट्र का पुत्र है । उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं ।
1 . अहंकारी एवं बुद्धिहीन — दुःशासन अत्यन्त अहंकारी एवं बुद्धिहीन है । उसे अपने बल पर अत्यन्त घमण्ड हैं । वह बुद्धिहीन भी है, विवेक से उसे कुछ लेना-देना नहीं है । वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ एवं महत्त्वपूर्ण मानता है । वह पशुबल में विश्वास करता है । वह भरी सभा में पाण्डवों का अपमान करता है । सत्य, प्रेम, अहिंसा की अपेक्षा वह पाश्विक शक्तियों को ही सब कुछ मानता है ।
2 . नारी के प्रति उपेक्षा– भाव द्रौपदी के साथ हुए तर्क वितर्क से दुःशासन का नारी के प्रति रूढ़िवादी दृष्टिकोण प्रकट हुआ है । वह नारी को भोग्या और पुरुष की दासी मानता है । वह नारी की दुर्बलता का उपहास उड़ाता है । उसके अनुसार पुरुष ने ही विश्व का विकास किया है । नारी की दुर्बलता का उपहास उसने इन शब्दों में किया है
“कहाँ नारी ने ले तलवार, किया है पुरुषों से संग्राम ।
जानती है वह केवल पुरुष-भुजाओं में करना विश्राम । ”
3 . शस्त्र-बल विश्वासी– दुःशासन शस्त्र-बल को सब कुछ समझता है । उसे धर्मशास्त्र और धर्मज्ञों में विश्वास नहीं है । वह शस्त्र के समक्ष शास्त्र की अवहेलना करता है । शास्त्रज्ञाताओं को वह दुर्बल मानता हैं ।
4 . दुराचारी दुःशासन हमारे सम्मुख एक दुराचारी व्यथित के रूप में आता हैं । वह अपने बड़ों व गुरुजनों के सामने अभद्र व्यवहार करने में भी संकोच नहीं करता । द्रौपदी को सम्बोधित करते हुए दुःशासन कहता है
“विश्व की बात द्रौपदी छोड़,
शक्ति इन हाथों की ही तोल ।
खींचता हूँ मैं तेरा वस्त्र,
पीट मत न्याय धर्म का ढोल । ”
5 . सत्य एवं सतीत्व से पराजित दुःशासन के चीर-हरण से असमर्थता इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि हमेशा सत्य की ही जीत होती है । वह जैसे ही द्रौपदी का चीर खींचने के लिए हाथ आगे बढ़ाता है, वैसे ही द्रौपदी के सतीत्व की ज्वाला से पराजित हो जाता हैं ।
दु:शासन के चरित्र की दुर्बलताओं का उद्घाटन करते हुए डॉ० ओंकारप्रसाद माहेश्वरी लिखते हैं, “लोकतन्त्रीय चेतना के इस युग में अब भी कुछ ऐसे साम्राज्यवादी प्रकृति के दु:शासन हैं, जो दूसरों के बढ़ते मान-सम्मान को नहीं देख सकते तथा दूसरों की भूमि और सम्पत्ति को हड़पने के लिए प्रतिक्षण घात लगाए हुए बैठे रहते हैं । इस काव्य में दुःशासन उन्हीं का प्रतीक है ।
प्रश्न 8 . “सत्य की जीत” खण्डकाव्य के प्रमुख पात्रों का संक्षेप में परिचय दीजिए । (2016)
उत्तर:– इस खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र द्रौपदी और दुःशासन हैं । अन्य पात्रों में युधिष्ठिर, दुर्योधन, विकर्ण, विदुर और धृतराष्ट्र उल्लेखनीय हैं । जिनका संक्षेप में परिचय निम्नलिखित है ।
दुःशासन दुःशासन, दुर्योधन का छोटा भाई व धृतराष्ट्र का पुत्र है । यह अहंकारी एवं बुद्धिहीन हैं । सत्य, प्रेम, अहिंसा के स्थान पर वह पाश्विक शक्तियों को महत्त्व देता है । दु:शासन का नारी के प्रति उपेक्षित भाव है । वह दुराचारी व शस्त्र-बल विश्वासी है । वह शस्त्र के समक्ष शास्त्र की अवहेलना करता है तथा शास्त्रज्ञाताओं को दुर्बल मानता है ।
द्रौपदी “सत्य की जीत” खण्डकाव्य की नायिका द्रौपदी स्वाभिमानी, ओजस्वी, सशक्त एवं वाक्पटु वीरांगना के रूप में मुखरित हुई है । द्रौपदी पाण्डव-कुलवधू, सत्यनिष्ठ प्रिय, विवेकशील, निर्भक एव साहसी तथा न्याय की पक्षधर, सती साध्वी, नारीत्व के स्वाभिमान से मण्डित एवं नारी जाति का आदर्श है ।
दुर्योधन दुर्योधन, धृतराष्ट्र का सबसे बड़ा पुत्र है । इस खण्डकाव्य में दुर्योधन को भी दुःशासन के समान ही असत्य, अन्याय और अनैतिकता को समर्थक माना गया है । वह भी शस्त्रबल का पुजारी है । ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के कारण ही वह पाण्डवों की समृद्धि और मान-सम्मान से जलता रहा और इसी कारण उसने छल-कपट करके पाण्डवों के राज्य हड़प लिए । सत्ता लोलुपता दुर्योधन के चरित्र की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । ।
युधिष्ठिर पाण्डवों में सबसे बड़े युधिष्ठिर हैं । वह सरल हदयी व्यक्तित्व के हैं । धीर, गम्भीर, अदूरदर्शी, विश्व-कल्याण के अग्रदूत व सत्य और धर्म के अवतार आदि गुणों का समन्वय युधिष्ठिर के चरित्र में है । कवि ने युधिष्ठिर को आदर्श राष्ट्रनायक के रूप में प्रस्तुत किया है ।
धृतराष्ट्र इस खण्डकाव्य के आधार पर धृतराष्ट्र उदारता और विवेकपूर्णता के गुण से अभिभूत हैं । खण्डकाव्य के अन्तिम अंश में धृतराष्ट्र का उल्लेख हुआ है । वे दोनों पक्षों के समल तक को सुनते हैं और सत्य को सत्य तथा असत्य को असत्य घोषित कर उचित न्याय की प्रक्रिया को पूर्ण करते हैं ।
विकर्ण एवं विदुर विकर्ण और विदुर दोनों अस्त्र शस्त्र शक्ति के घोर विरोधी हैं । वे शान्तिप्रिय हैं तथा शस्त्र-बल पर स्थापित शान्ति को प्रान्ति मानते हैं । दोनों पात्र कौरव-कुल के होने के पश्चात् भी द्रौपदी के समर्थन में हैं । ये दोनों पात्र न्यायप्रिय, स्पष्टवादी और निर्भीक हैं ।
पृष 8- “सत्य की जीत” खण्डकाव्य के आधार पर दुर्योधन के चरित्र पर सोदाहरण प्रकाश डालिए ।
उत्तर – ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य में दुर्योधन का चरित्र एक तुच्छ शासक का चरित्र है । वह असत्य, अन्याय तथा अनैतिकता का आचरण करता है । वह छल विद्या में निपुण अपने मामा शकुनि की सहायता से पाण्डवों को छूतक्रीड़ा के लिए आमन्त्रित करता है और उनका सारा राज्य जीत लेता है । दुर्योधन चाहता है कि पाण्डव द्रौपदी सहित उसके दास-दासी बनकर रहे । वह द्रौपदी को सभा के बीच में वस्त्रहीन करके अपमानित करना चाहता है । उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(1) शस्त्रबल का पुजारी – दुर्योधन सत्य, धर्म और न्याय में विश्वास नहीं रखता । वह शारीरिक तथा तलवार के बल में आस्था रखता है आध्यात्मिक एवं आत्मिक बल की उपेक्षा करता है । दु:शासन के मुख से शस्त्रबल की प्रशंसा और शास्त्रबल की निन्दा सुनकर वह प्रसन्नता से खिल उठता है । ।
(2) अनैतिकता का अनुयायी – दुर्योधन न्याय और नीति को छोड़कर अनीति का अनुसरण करता है । भले-बुरे का विवेक वह बिलकुल नहीं करता । अपने अनुयायियों को भी अनीति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना ही उसकी नीति है । जब दु:शासन द्रौपदी का चीरहरण करने में असमर्थ हो जाता है तो दु:शासन की इस असमर्थता को वह सहन नहीं कर पाता है और अभिमान में गरज कर कहता है-
कर रहा क्या, यह व्यर्थ प्रलाप, भय वशं था दुःशासन वीर ।
कहा दुर्योधन ने उठ गरज, खींच क्या नहीं खिचेगी चीर॥
(3) मातृद्वेषी-दुर्योधन बाह्य रूप में पाण्डवों को अपना भाई बताता है किन्तु आन्तरिक रूप से उनकी जड़े काटता है । वह पाण्डवों का सर्वस्व हरण करके उन्हें अपमानित और दर-दर का भिखारी बनाना चाहता है । द्रौपदी के शब्दों में-
किन्तु भीतर-भीतर चुपचाप, छिपाये तुमने अनगिन पाश ।
फँसाने को पाण्डव निष्कपट, चाहते थे तुम उनका नाश । ।
(4) असहिष्णुता-दुर्योधन स्वभाव से बड़ा ईष्र्यालु है । पाण्डवों का बढ़ता हुआ यश तथा सुखशान्तिपूर्ण जीवन उसकी ईर्ष्या का कारण बन जाता है । वह रात-दिन पाण्डवों के विनाश की ही योजना बनाता रहता है । उसके ईष्र्यालु स्वभाव का चित्रण देखिए-
ईष्र्या तुम को हुई अवश्य, देख जग में उनका सम्मान ।
विश्व को दिखलाना चाहते, रहे तुम अपनी शक्ति महान् ॥
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि दुर्योधन का चरित्र एक साम्राज्यवादी शासक का चरित्र है ।
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