UP BOARD CLASS 12 SANSKRIT SUMMERY OF CHANDRAPEED KATHA चन्द्रापीडकथा कथा-सार
प्रिय छात्रों आज यहाँ पर यूपी बोर्ड कक्षा 12 की संस्कृत के लिए महाकवि वाणभट्ट प्रणीतम चन्द्रपीड कथा उत्तरार्द्ध भाग का कथा का सार उपलब्ध कर रहे है । उम्मेद करते है की आपको यह सार अच्छा लगेगा ।
चन्द्रापीडकथा कथा-सार
प्राचीनकाल में शूद्रक नामक एक राजा था। विदिशा नाम की नगरी उसकी राजधानी थी। एक बार जब वह सभा मण्डप में बैठा हुआ था कि दक्षिण दिशा से एक चाण्डाल कन्या पिंजड़े में एक तोता लिए हुए आयी और उसके समीप जाकर बोली, “महाराज यह तोता सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता और पृथ्वी का एक रत्न है। इसे आप स्वीकार करें।” राजा के पूछने एवं उनकी उत्सुकता को सन्तुष्ट करने हेतु शुक ने बताया कि बाल्यकाल में वह एक मुनि कुमार के द्वारा जाबालि के आश्रम में पहुँच गया। मेरे विषय में मुनियों की जिज्ञासा जानकर जाबालि ऋषि ने इस प्रकार बताया-
अवन्ति में उज्जयिनी नाम की एक नगरी में तारापीड नाम का एक राजा हुआ था शुकनास नाम का एक ब्राह्मण उसका मन्त्री था। देवताओं की आराधना, पूजापाठ के बाद तारापीड को चन्द्रापीड नाम का और मन्त्री शुकनास को वैशम्पायन नाम का पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। विद्याध्ययन एवं युवावस्था प्राप्त होने पर चन्द्रापीड को युवराज और वैशम्पायन को उसका मन्त्री नियुक्त किया गया। विजय में मिली कुलूत राजा की पुत्री राजकन्या पत्रलेखा को चन्द्रापीड की सेवा में नियुक्त किया गया। दिग्विजय अभियान में चन्द्रापीड किरात की नगरी सुवर्णपुर पहुँचा। अपने इन्द्रायुध पर सवार वह एक दिन शिकार खेलते समय किन्नरों के एक युगल का पीछा करते हुए अच्छोद सरोवर के तट पर पहुँच गया। वहाँ शिव मन्दिर में एक कन्या को पूजा करते हुए देखा। चन्द्रापीड के पूछने पर उस कन्या ने बताया कि वह गन्धर्वराज हंस की पुत्री महाश्वेता है। महर्षि श्वेतकेतु के पुत्र पुण्डरीक ने एक दिन उसे देखा और वे इतने आसक्त हो गये कि उनका जीवन खतरे में पड़ गया। पुण्डरीक के मित्र कपिंजल से सूचना पाकर रात्रि में जब मैं उनसे मिलने यहाँ पहुंची तब तक वे अपना प्राण त्याग चुके थे। मैंने उनके शरीर के साथ सती होने का निर्णय लिया तभी कोई उनके शरीर को लेकर आकाश में उड़ गया। उसी समय मुझे आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि शाप का अन्त होने पर यह फिर तुमसे मिलेगा। तब तक तुम यहीं रहकर तपस्या करो। कुछ देर के बाद पुण्डरीक का मित्र कपिंजल भी जो हमारे निकट खड़ा था, अचानक मुझे अकेला छोड़कर दूर आसमान में उड़ता हुआ विलीन हो गया।
महाश्वेता अपनी आपबीती चन्द्रापीड को सुनाकर उसका उचित अतिथि सत्कार किया। महाश्वेता एक दिन चन्द्रापीड को साथ लेकर अपनी प्रिय सखी कादम्बरी को समझाने के लिए हेमकूट गयी। सखी के दुःख से प्रभावित होकर कादम्बरी विवाह नहीं करना चाहती थी किन्तु महाश्वेता के साथ पहुँचे युवराज चन्द्रापीड को देखते ही वह उस पर आसक्त हो गई। कुछ दिनों उपरान्त अपनी सेविका पत्रलेखा को वहीं रुकने के लिए कहकर चन्द्रापीड अपनी सेना में लौट आया। किन्तु वहाँ आये पत्रवाहक से मिले पत्र को पढ़कर वैशम्पायन एवं सेवक को पत्रलेखा के साथ जाने का आदेश देकर अपनी राजधानी लौट आया। कुछ दिनों बाद एक दूत के माध्यम से कादम्बरी का सन्देश पाकर वैशम्पायन की खोज के बहाने चन्द्रापीड कादम्बरी से मिलने चल पड़ा। यात्रा के बीच में ही चन्द्रापीड को जानकारी प्राप्त हुई कि अच्छोद सरोवर के किनारे वैशम्पायन पड़ा हुआ है। वह वापस आना ही नहीं चाहता है।
चन्द्रापीड के वहाँ पहुँचने पर महाश्वेता ने उसे बताया कि वैशम्पायन ने उसके प्रति दुर्व्यवहार किया जिसके कारण उसने उसे शुक हो जाने का शाप दे दिया है। चन्द्रापीड इतना सुनते ही वहीं गिरकर मर गया। यह दृश्य देखकर पत्रलेखा भी इन्द्रायुध को लेकर अच्छोद सरोवर में कूद पड़ी। तदन्तर सरोवर से एक पुरुष निकला। सारी कथा कादम्बरी और महाश्वेता को सुनाकर दोनों को अपने प्रेमियों से पुनर्मिलन के लिए आश्वस्त किया। राजा शूद्रक शुक के मुख से इतना सुनते ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। इस घटना के बाद चन्द्रापीड जीवित हो गया और फिर चन्द्रलोक से पुण्डरीक भी आ गया। परिणामस्वरूप चन्द्रापीड का कादम्बरी के साथ और पुण्डरीक का महाश्वेता के साथ विवाह सम्पन्न हो गया।