UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2  महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन सम्पूर्ण हल

महाकवि माघ का प्रभात वर्णन  (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी)

लेखक पर आधारित प्रश्न


1—- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जीवन-परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य में इनका स्थान निर्धारित कीजिए ।।
उत्तर– लेखक परिचय– महान साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म रायबरेली जिले के दौलतपुर गाँव में सन् 1864 ई० में हुआ था ।। इनके पिता का नाम पं० रामसहाय दुबे था ।। ये कान्याकुब्ज ब्राह्मण थे ।। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण इनका शिक्षा का क्रम टूट गया; अतः इन्होंने घर पर ही स्वाध्याय द्वारा मराठी, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, बँगला व गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया ।। आरम्भ में इन्होंने रेलवे विभाग में नौकरी की ।। लेकिन कुछ समय बाद सन् 1903 ई० में नौकरी छोड़कर, ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादन का कार्यभार संभाल लिया ।। द्विवेदी जी से पहले साहित्यकार यथासम्भव साहित्यसृजन करते रहे, उन्हें उचित दिशा-निर्देश प्राप्त नहीं हो पाता था ।। माँ सरस्वती के वरद् पुत्र महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से हिन्दी साहित्य-जगत् को आलोकित किया ।। इन्होंने हिन्दी भाषा के परिमार्जन के लिए स्तुत्य प्रयास किए ।। भारतेन्दु युग के बाद हिन्दी भाषा का व्याकरण पुष्ट व सशक्त बनाने के लिए, उसके शब्द-भण्डार की श्रीवृद्धि के लिए द्विवेदी जी के अथक परिश्रम के लिए सन् 1931 ई० में ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ ने इन्हें ‘आचार्य’ की उपाधि प्रदान की तथा ‘हिन्दी साहित्य-सम्मेलन’ द्वारा इन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से अलंकृत किया गया ।। सन् 1938 ई० में सरस्वती का यह महान सुपुत्र चिरनिद्रा में लीन हो गया ।।

हिन्दी साहित्य में स्थान- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी-साहित्य के युगप्रवर्तक साहित्यकारों में से एक थे ।। उन्हें शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का वास्तविक प्रणेता माना जाता है ।। उनकी विलक्षण प्रतिभा ने सन् 1900 ई० से 1922 ई० तक हिन्दीसाहित्य के व्योम को प्रकाशित रखा, जिसकी ज्योति आज भी हिन्दी-साहित्य का मार्गदर्शन कर रही है ।। इसी कारण 1900 ई० से 1922 ई० तक के समय को हिन्दी-साहित्य के इतिहास में ‘द्विवेदी युग’ के नाम से जाना जाता है ।। हिन्दी-साहित्य जगत सदैव इनका ऋणी रहेगा ।।


प्रश्न— आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की कृतियों का वर्णन कीजिए ।।
उत्तर– कृतियाँ- द्विवेदी जी की रचना-सम्पदा विशाल है ।। इन्होंने 50 से भी अधिक ग्रन्थों तथा सैकड़ों निबन्धों की रचना की ।। इनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं।

मौलिक कृतियाँ– नाट्यशास्त्र, हिन्दी नवरत्न, रसज्ञ-रंजन, साहित्य-सीकर, विचार-विमर्श, वाग्विलास, साहित्य-सन्दर्भ, कालिदास और उनकी कविता, कालिदास की निरंकुशता, कौटिल्य कुठार, वनिता विलास, नैषध चरित चर्चा, वैज्ञानिक कोष, साहित्यालय, विज्ञान-वार्ता आदि ।।


अनूदित कृतियाँ– मेघदूत, बेकन-विचारमाला, शिक्षा, स्वाधीनता, विचार-रत्नावली, कुमारसम्भव, गंगालहरी, विनय-विनोद, रघुवंश, किरातार्जुनीय, हिन्दी महाभारत, वेणी संहार, अमृत लहरी, भामिनी-विलास, कवि तथा आख्यायिका सप्तक, प्राचीन पण्डित आदि ।।
विविध– जल-चिकित्सा, सम्पत्तिशास्त्र, वक्तृत्व-कला आदि ।। सम्पादन- ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका ।।
अन्य विशिष्ट रचनाएँ- अद्भुत आलाप, संकलन, हिन्दी भाषा की उत्पत्ति, अतीत-स्मृति आदि ।।
काव्य-संग्रह- काव्य-मंजूषा, सुमन, कवित कलाप ।।


3– आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाषा-शैली की विशेषताएँबताइए ।।
उत्तर– भाषा-शैली- द्विवेदी जी हिन्दी भाषा के सच्चे आचार्य थे ।। ये संस्कृत भाषा के भी पण्डित थे ।। अपनी आरम्भिक रचनाओं में इन्होंने जिस भाषा का प्रयोग किया, वह निरन्तर समृद्ध व व्याकरण-सम्मत होती चली गई ।। हिन्दी-संस्कृत के अतिरिक्त इन्होंने अन्य भाषाओं के भी प्रचलित शब्दों के प्रयोग पर बल दिया ।। द्विवेदी जी की भाषा विविधरूपिणी है ।। कहीं उनकी भाषा बोलचाल के बिलकुल निकट है तो कहीं शुद्ध साहित्यिक और क्लिष्ट संस्कृतमयी ।। द्विवेदी जी ने भाषा को प्रभावशाली बनाने की दृष्टि से संस्कृत की सूक्तियों का प्रयोग तो किया ही है, साथ ही लोकोक्तियों व मुहावरों से भी अपनी भाषा का श्रृंगार किया है ।। वे विषय के अनुसार भाषा का प्रयोग करने में सिद्धहस्त थे ।। इनके आलोचनात्मक निबन्धों की भाषा शुद्ध संस्कृतनिष्ठ है ।। समसामायिक आलोचनाओं में मिश्रित भाषा तथा गम्भीर व विवेचनात्मक निबन्धों में शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग द्विवेदी जी ने किया है ।। इनके भावात्मक निबन्धों की भाषा काव्यात्मक एवं आलंकारिक है ।।

इन्होंने भावात्मक शैली में अनेक निबन्ध लिखे हैं, जिनमें अनुप्रास की छटा व कोमलकान्त पदावली का प्रयोग दृष्टिपथ में आता है ।। द्विवेदी जी की विचारात्मक शैली में तत्समप्रधान भाषा का प्रयोग हुआ है ।। इस शैली में मुहावरों व हास्य-व्यंग्यों का प्रयोग कम हुआ है ।। इनके साहित्यिक निबन्धों में गवेषणात्मक शैली के दर्शन होते हैं ।। इस शैली के निबन्धों में अपेक्षाकृत अधिक गाम्भीर्य है और उर्दु के शब्दों का अभाव है ।। अपने निबन्धों के बीच-बीच में द्विवेदी जी ने बड़ी संख्या में वर्णनात्मक शैली में निबन्ध लिखे हैं ।। आत्मकथात्मक एवं कथात्मक निबन्ध भी इसी शैली में लिखे गए हैं; यथा- एक हिसाबी कुत्ता, दण्डदेव का आत्मनिवेदन, हंस-सन्देश आदि ।। सामाजिक कुरीतियों पर चोट करने के लिए द्विवेदी जी ने व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया है ।।


व्याख्या संबंधी प्रश्न
1– निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए


(क) पूर्व-दिशारूपिणी……………………………– लाल भी हैं ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’ द्वारा लिखित ‘महाकवि माघ का प्रभात वर्णन’ नामक निबंध से उद्धृत है ।।


प्रसंग- इस गद्यावतरण में आचार्य द्विवेदी जी ने प्रकृति का मानवीकरण करते हुए प्रभातकाल का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है ।। कठिन विषय को बोधगम्य शैली में प्रस्तुत करने वाले द्विवेदी जी ने जीवन के दो विपरीत पक्षों को, सूर्योदय तथा चन्द्रमा के अस्त होने की घटनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है ।।


व्याख्या– द्विवेदी जी कहते हैं कि प्रात:काल में पूर्व दिशारूपी नायिका प्रभात की लालिमा से रँग जाती है, तब ऐसा लगता है कि वह अनुरागवती है ।। अनुराग के प्रतीक लाल रंग (प्रभात की लाली) से उसके मुख पर नया तेज दिखाई देता है ।। उस समय ऐसा जान पड़ता है कि वह हँस रही है ।। पूर्व दिशा की भाँति ही लेखक ने पश्चिम दिशा को भी एक नायिका के रूप में चित्रित किया है तथा पूर्व दिशारूपी स्त्री के मन की प्रतिक्रिया दर्शायी है कि उसके मन में नारी-सुलभ ईर्ष्या जाग गयी है ।। चन्द्रमा के तेज के कम होने और उसके पतित होने पर उसके मुख पर जो मुसकान आयी है, उसमें उसके मन की ईर्ष्या ही प्रकट हुई है ।। चन्द्रमा की इस दीन-हीन स्थिति के विषय में पूर्व दिशारूपी नायिका सोच रही है कि यह चन्द्रमा जब तक मेरे साथ था, तब तक उदित भी हो रहा था और उसका प्रकाश भी खूब फैल रहा था ।। उसे उन्नति के साथ-साथ सुयश भी प्राप्त था, किन्तु रसिकता और चरित्रहीनता ने उसके विवेक को इतना कुण्ठित कर दिया है कि वह अपनी मर्यादा भूलकर पश्चिम दिशारूपी दूसरी नायिका से प्रेम करने लगा है ।। मुझे त्यागकर दूसरी स्त्री के पास जाते ही वह कान्तिहीन हो गया है ।। चन्द्रमा को उसके किए का फल प्राप्त हो गया है, यह सोचकर पूर्व दिशारूपी स्त्री मुसकरा रही है, किन्तु चन्द्रमा को पूर्व दिशा की इस व्यंग्यपूर्ण हँसी की कोई परवाह नहीं है ।। वह पश्चिम दिशारूपी स्त्री की रसिकता में ही निमग्न है ।। चन्द्रमा के अस्त होते समय उसका बिंब लाल रंग का हो गया है, परन्तु उसकी किरणें अभी भी कमल की नाल के टुकड़ों की भाँति सफेद है ।। जो बिंब की ललाईपन के कारण कुछ-कुछ लाल सी प्रतीत होकर मंत्रमुग्ध कर रही है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) भाषा- प्रवाहपूर्ण एवं अलंकृत साहित्यिक हिन्दी ।।
(2) शैली- चित्रात्मक एवं अलंकृत ।।
(3) अलंकार- मानवीकरण ।।
(4) पूर्व दिशा में नारी-सुलभ ईर्ष्या भाव तथा चन्द्रमा में रसिकता का गुण व्यंजित है ।।
(5) प्रभातकालीन सौन्दर्य का स्वाभाविक अंकन हुआ है ।।
(6) मनुष्यमात्र को प्रकृति से बहुत कुछ सीखने की प्रेरणा दी गई है ।।

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(ख) जब कमल ………………………….– प्राप्त हो रहे हैं ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने प्रात:काल के समय के विरोधाभासपूर्ण दृश्य का वर्णन किया है ।।

व्याख्या– प्रात:काल में सूर्य के उदित होने पर संसार में विरोधाभासपूर्ण दृश्य दिखाई देता है ।। दैव अर्थात् भाग्य की चेष्टाएँ किसी के लिए सुखकर हैं तो किसी के लिए दुःखदायी भी ।। इसी विरोधाभास को लक्षित करते हुए लेखक कहता है कि जब सूर्य उदित होता है तो सरोवरों में कमल खिलते हैं, जो सरोवरों की सुन्दरता को बढ़ाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ कुमुद की शोभा को उदित सूर्य हर लेता है ।। जब कुमुद शोभित होते हैं अर्थात् जब सूर्य अस्ताचल की ओर जाता है अर्थात् अस्त होता है तब कुमुदों की शोभा लौट आती है और कमल शोभाहीन हो जाते हैं ।। सूर्य के उदित होने अथवा चन्द्रमा के अस्त होने पर, चन्द्रमा के उदित होने अथवा सूर्य के अस्त होने पर कमल और कुमुद की दशा समान नहीं रहती ।। एक को सुख की अनुभूति होती है तो दूसरे को दुःख की ।। लेकिन प्रात:काल के समय, कमल और कुमद समान दशा में रहते हैं ।। सूर्य उदित होने पर कुमुद बंद होने को होता है लेकिन पूर्ण रूप से बंद नहीं होता है ।। कमल खिलने को है परन्तु अधखिला है ।। प्रातःकाल में एक की शोभा आधी रह जाती है और दूसरे को आधी प्राप्त होती है ।। भ्रमर प्रसन्नतापूर्वक दोनों पर ही मँडरा रहे हैं ।। मानो खुशी में दोनों को प्रसन्न करने के लिए ही उनके गीत गा रहे हैं ।। इसी कारण इस समय कुकुद और कमल दोनों ही समान हैं ।। तात्पर्य यह है कि प्रकृति की कोई भी चेष्टा सभी के लिए समान रूप से सुखकारक अथवा दुःखदायी नहीं होती ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) प्रकृति की एक ही चेष्टा से किसी को सुख मिलता है तो किसी को दुःख ।।
(2) लेखक ने सन्देश दिया है कि यह जगत् सुख-दुःख का समन्वित रूप है ।।
(3) भाषा- शुद्ध परिमार्जित साहित्यिक हिन्दी ।।
(4) शैली- भावात्मक ।।


(ग) अंधकार के. ……………………………………… आँखें जानिए ।।


सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- इस अवतरण में लेखक ने महाकवि माघ द्वारा वर्णित प्रातःकालीन छटा का मनोहारी वर्णन किया है ।। यहाँ चन्द्रमा के अस्त होने एवं सूर्योदय से पूर्व के दृश्य का आलंकारिक वर्णन किया गया है ।।


व्याख्या- अंधकार का विनाश करने वाले सूर्यदेव के उदित होने से पूर्व ही आकाश में सर्वत्र लालिमा छा गई है और अंधकार भयभीत होकर भागने लगा है ।। सूर्योदय से पूर्व ही उनका सारथि अरुण उपस्थित हो गया है और उसी ने जगत् के सम्पूर्ण अंधकार को समाप्त कर दिया है ।। अपनी बात की व्याख्या करते हुए लेखक ने स्पष्ट किया है कि शक्तिशाली, तेजस्वी और वीर पुरुषों के सेवक भी पराक्रमी, शक्तिशाली और वीर होते हैं ।। अनेक बार सूर्य के सारथि अरुण के समान; वे अपने स्वामियों को कष्ट न देकर उनके बहुत-से काम स्वयं ही कर देते हैं तथा उनके विरोधियों को भी वे स्वयं ही समाप्त कर डालते हैं ।। इसी प्रकार सूर्य के आगमन से पूर्व ही उसके सारथि अरुण ने भी सम्पूर्ण अंधकार को पराजित कर दिया है ।। अंधकार के पराजित होते ही असहाय रात्रि पर मानो विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा ।। ऐसी स्थिति में वह एक पल के लिए भी ठहर न सकी और असहाय होकर पलायन करने लगी ।। अब केवल प्रात:कालीन संध्या रह गई ।। जब सूर्य उदित होता है तथा रात का अन्त होता है ।। जब लाल कमल खिलते हैं, इन कमलों को ही आप छोटी आयु वाली पुत्री के हाथ-पैर समझ लीजिए तथा नील कमलों को इसके काजल लगे नयम समझ लीजिए, जो इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे हैं ।।


साहित्यिक सौन्दर्य
(1) यहाँ कवि ने महान् विभूतियों और उनके सेवकों की शक्ति का सजीव और काव्यात्मक चित्रण किया है ।।
(2) लेखक ने प्रकृति का मानवीकरण करके प्रातःकाल की शोभा में चार चाँद लगा दिए हैं ।।
(3) प्रकाश से डरकर रात्रि के भागने का चित्रण, लेखक की अनोखी कल्पना है ।।
(4) भाषा- संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक खड़ीबोली ।।
(5) शैली- आलंकारिक एवं भावात्मक ।।


(घ) अंधकार गया ……..– …………….खींच रही हैं ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में सहृदय साहित्यकार एवं अद्भुत कल्पना के धनी लेखक ने प्रात:काल की सुनहरी धूप को प्रचण्ड बड़वाग्नि के रूप में चित्रित करके, उसका मोहक एवं आलंकारिक वर्णन किया है ।।


व्याख्या- माघ कवि द्वारा वर्णित प्रभातकाल के सौन्दर्य की व्याख्या करते हुए आचार्य द्विवेदी जी कहते हैं कि अरुणोदय होते ही अंधकार समूल नष्ट हो गया ।। अंधकार के न रहने पर रात्रि भी मैदान छोड़कर भाग गई ।। रात और दिन के बीच की प्रात:कालीन संध्या भी चली गई ।। ये सभी अंधकार के पक्षधर थे ।। सूर्य के स्वामिभक्त सेवक अरुण ने जब इन सबको मार भगाया तब भगवान् दिनकर ने अपने उदित होने की तैयारी की ।। हाथों में वज्र धारण करने वाले देवराज इन्द्र की पूर्व दिशा में, सूर्य के तेज के रूप में सुनहरी किरणें बिखर गई ।। सूर्य के उदित होने से सम्पूर्ण वातावरण मनमोहक हो गया और समस्त दृश्य अद्भुत दिखाई देने लगा ।। उन लाल-पीली किरणों को देखकर ऐसा लगता था, मानो समुद्र के अन्दर रहने वाली बड़वाग्नि ने सारे समुद्र को जला दिया है और अब वह तीनों लोकों को जलाने के उद्देश्य से समुद्र के ऊपर उठ आई है ।। तात्पर्य यह है कि सूर्य के उदित होने से पहले, पूर्व दिशा का क्षितिज गहरे लाल रंग से अनुरंजित हो गया है ।। प्रभातकालीन सौन्दर्य की व्याख्या को और अधिक विस्तार देते हुए द्विवेदी जी कहते हैं कि अब धीरे-धीरे सूर्य का बिंब क्षितिज पर दिखाई देने लगा है ।। सूर्य का वह बिंब नीले स्वच्छ आकाश में ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो वह कोई बहुत बड़ा घड़ा हो, जिसे दिशारूपी वधुएँ पूरे प्रयास से आकाशरूपी सागर के अन्दर से खींच रही हों ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) युद्ध में विजय के क्षणों का उल्लास व्यंजित है ।।
(2) सूर्योदय से पूर्व लालिमा से रँगी पूर्व दिशा की शोभा का मनोहारी वर्णन कर लेखक ने अपनी अपूर्व कल्पना-शक्ति का परिचय प्रस्तुत किया है ।।
(3) भाषा- अलंकृत एवं परिष्कृत है, किन्तु ‘अजीब’ और ‘इरादा’ जैसे उर्दू शब्दों का भी प्रयोग हुआ है ।।
(3) शैली- आलंकारिक, काव्यात्मक एवं भावात्मक ।।
(4) अलंकार- रूपक और उत्प्रेक्षा ।।
(5) शब्दशक्ति- लक्षणा ।।

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(ङ) दिगंगनाओं के द्वारा .– ………..– हो सकता है ?
सन्दर्भ
– पूर्ववत् ।।
प्रसंग– प्रस्तुत पंक्तियों में प्रात:काल उदित होते सूर्य की ललिमा का वर्णन करते हुए लेखक ने सूर्य के इतना लाल होने की अद्भुत कल्पना की है ।। व्याख्या– सूर्योदय की कल्पना करता हुआ लेखक कहता है कि लगता है, दिशारूपी वधुओं ने मिलकर किसी तरह अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उसे समुद्र की अपार जलराशि से खींचकर बाहर निकाला है ।। कल सायंकाल वह समुद्र में डूब गया था; अत: दिशारूपी वधुओं ने उसकी रक्षा करने के लिए उसे जल से निकालकर बचाने का निश्चय किया और वे सभी मिलकर उसे समुद्र से बाहर निकालने के लिए प्रयत्नशील हो गई ।। सारी रात्रि के निरंतर और कठिन प्रयासों से उसे खींचकर बाहर निकाला है ।। समुद्र से बाहर निकालते समय सूर्य का बिंब अत्यधिक चमकीला और लाल दिखाई दे रहा है ।। क्या कभी किसी ने उसके इस रंग-रूप के विषय में जानने का प्रयास किया है कि वह ऐसा क्यों ? इस सन्दर्भ में लेखक अपने विचार व्यक्त करता हुआ कहता है कि मुझे तो ऐसा लगता है कि जब सारी रात यह सूर्य समुद्र के जल में डूबा रहा तो समुद्र की अग्नि ने इसे अपना ताप देकर खूब दहकाया, जिस कारण यह तपकर इतना लाल हो गया, मानो खैर की जलती हुई लकड़ी का कोयला (अंगार) दहक रहा हो ।। मुझे इसके अलावा सूर्य के इतना लाल चमकीला होने का कोई कारण नहीं दिखाई देता ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) बाडवाग्नि ने सूर्य को दहकाकर लाल और चमकीला बना दिया है ।।
(2) सम्पूर्ण अवतरण में उपमा और रूपक अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है ।।
(3) भाषा- शुद्ध साहित्यिक एवं आलंकारिक ।।
(4) शैली- काव्यात्मक, वर्णनात्मक एवं विवेचनात्मक ।।


(च) उदयाचल के शिखर……..– आकाश में आ गया ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में बाल सूर्य के उदित होने, कमलिनियों के खिलने, पक्षियों के चहचहाने एवं सूर्य के आकाश में पहुँचने का मनोहारी और कलात्मक वर्णन हुआ है ।।

व्याख्या- आचार्य द्विवेदी जी कहते हैं कि उदयाचल की चोटी पर सूर्य अभी-अभी उदित हुआ है तथा उदयाचलरूपी आँगन में बहुत धीरे-धीरे ऊपर आकाश की ओर जा रहा है ।। उसे देखकर ऐसा आभास होता है कि मानो कोई छोटा बालक घुटनों और हाथों के सहारे घर के आँगन में खेलता हुआ चल रहा है ।। बाल सूर्य की क्रीड़ा को देखकर कमलिनीरूपी स्त्रियाँ विकसित हो गई ।। जैसे छोटे बालक को आँगन में खेलते देखकर स्त्रियाँ स्वाभाविक रूप से प्रसन्न हो जाती हैं; वैसे ही प्रात:काल में सूर्य का दर्शन कर कमलिनियाँ खिलकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करती हैं ।। यह सब देखकर आकाश का हृदय उसी तरह वात्सल्य से भर आया, जिस प्रकार बाल-क्रीड़ा देखकर माँ का हृदय भर आता है ।। भोर होते ही पक्षियों का कलरव सुनकर ऐसा लगता है, जैसे कोई माँ अपने शिशु को अपने पास बुला रही हो ।। यहाँ आकाश माता के रूप में, सूर्य शिशु के रूप में तथा पक्षियों का कलरव माँ की पुकार के रूप में व्यंजित है ।। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अन्तरिक्षरूपी माता पक्षियों के चहचहाने के बहाने मानो अपने सूर्यरूपी शिशु को ‘आ बेटा आ’ कहती हुई हाथ फैलाकर गोद में उठाना चाहती हो ।। अन्तरिक्ष-माता को प्यार से बुलाते देखकर बाल सूर्य भी मानो अपने किरणरूपी कोमल हाथ फैलाकर, आकाशरूपी माता की गोद में कूदकर जा पहुँचा अर्थात् सूर्य कुछ ही समय में आकाश के मध्य में जा पहुंचा ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने सूर्य के उदित होने के दृश्य को घुटनों के बल चलने वाले शिशु के रूपक द्वारा प्रकट किया है ।।
(2) यहाँ पक्षियों के कूजने को माता की प्रेम-भरी पुकार कहकर सजीवता प्रदान की गई है ।।
(3) यहाँ पर बाल सूर्य, कमलिनी, आकाश और पक्षियों का मानवीकरण किया गया है ।।
(4) भाषा- प्रवाहमयी साहित्यिक खड़ी बोली ।।
(5) शैलीआलंकारिक, चित्रात्मक और काव्यात्मक ।।
(6) अलंकार- मानवीकरण, रूपक, उत्प्रेक्षा, अपहुति आदि ।।

(छ) आकाश में सूर्य के– …………….लाल हो गया हो ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में प्रात:कालीन सूर्य की लाल किरणों के नदियों के जल में प्रतिबिंबित होने के परिणामस्वरूप नदियों के लाल हुए जल की शोभा का आलंकारिक वर्णन इन पंक्तियों में किया गया है ।।


व्याख्या- उदयांचल पर उदित होने के पश्चात् सूर्य जैसे ही आकाश में थोड़ा ऊपर उठा तो उसकी लाल-लाल किरणें नदियों के जल पर पड़ने लगी ।। इसके परिणामस्वरूप नदियों ने एक अलग ही अद्भुत रूप धारण कर लिया ।। नदियों के दोनों तटों के मध्य बहती जलधारा सूर्य की लाल-किरणों के प्रभाव से मदिरा की धारा के रूप में परिवर्तित हो गई ।। अर्थात् नदियों का जल पक्की मदिरा के रंग के समान लालिमायुक्त हो गया अभी कुछ समय पहले तक जबकि सूर्य उगा नहीं था, सभी दिशाओं में अन्धकार इस प्रकार छाया हुआ था, मानो अन्धकार की घटा के रूप मे हाथियों का दल अड़ा खड़ा है ।। सूर्य ने उदय होते ही मानो अपनी किरणोंरूपी बाणों से उन हाथियों के समूह को मार डाला हो ।। बाण लगने के परिणामस्वरूप हाथियों के घावों से निकला हुआ रक्त इन नदियों के जल में आकर मिल रहा हो और उसे लाल बना रहा हो ।।


साहित्यिक सौन्दर्य- (1) सूर्य की किरणों के संपर्क के परिणामस्वरूप नदियों के जल के लाल रंग का मनोहारी चित्रण हुआ है ।।
(2) विलक्षण रूप धारण करने में नदियों का मानवीकरण किया गया है ।।
(3) नदियों के जल में हाथियों के रक्त के मिलने की कल्पना करके कवि ने वर्णन में स्वाभाविकता और तार्किकता का समावेश कर दिया है ।।
(4) भाषा- आलंकारिक एवं साहित्यिक होने के साथ-साथ अत्यन्त सरल है ।।
(5) शैली- चित्रात्मक ।।
(6) अलंकार- रूपक, उपमा तथा उत्प्रेक्षा ।।

(ज) सूर्योदय होते ही ……………………………..– कर डालते हैं ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- इस अवतरण में सूर्य की तेजस्विता के माध्यम से प्रतापी पुरुषों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है ।।


व्याख्या- सूर्य के उदय होते ही अंधकार डरकर भाग खड़ा होता है ।। वह अपने प्रबल शत्रु सूर्य से बचने के लिए पर्वतों की गुफाओं, घरों के कोनों और कोठरियों के भीतर जाकर छिप जाता है, किन्तु सूर्य उसे वहाँ भी चैन से नहीं रहने देता ।। यद्यपि सूर्य अंधकार से करोड़ों मील दूर आकाश में स्थित होता है, तथापि प्रबल तेज से युक्त उसकी किरणें अंधकार को उन गुफाओं, घरों और कोठरियों के भीतर से बाहर निकालकर उसका नामो-निशान मिटा देने को तत्पर रहती हैं ।। ऐसा हो भी क्यों न; क्योंकि तेजस्वी महापुरुषों के शत्रु उनसे चाहे कितनी ही दूरी पर स्थित क्यों न हों, वे तेजस्वियों की लम्बी बाँहों की पकड़ से नहीं बच सकते ।। तात्पर्य यह है कि सूर्य का शत्रु अंधकार चाहे घर के अंदर छिपे, अथवा कन्दराओं में, पर सूर्य उसे अपनी किरणरूपी लंबी बाँहों से वहीं नष्ट कर देने में समर्थ होता है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने इस शाश्वत सत्य को उजागर किया है कि तेजस्वियों की लंबी बाँहों की पकड़ से बच पाना, उनके शत्रुओं के लिए भी संभव नहीं होता ।।
(2) भाषा- संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली ।।
(3) शैली कवित्वपूर्ण सूक्ति शैली ।।

(झ) सूर्य और चन्द्रमा, …………………….– काना हो गया है ।।


सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने महाकवि माघ के प्रभात वर्णन की सुन्दर व्याख्या करते हुए सूर्योदय के समय का अनुपम चित्रण किया है ।। इस समय चन्द्रमा धूमिल और निस्तेज होकर पश्चिम में अस्त हो रहा है और सूर्य सहस्रों किरणों के साथ अपनी आभा बिखेर रहा है ।।


व्याख्या- प्रातःकालीन सौन्दर्य का सजीव चित्र प्रस्तुत करते हुए द्विवेदी जी कहते हैं कि प्रात:काल जब सूर्य अपनी सहस्रों किरणों की चमक बिखेरते हुए आसमान में ऊपर उठता है, तभी चन्द्रमा निस्तेज एवं किरणहीन होकर पश्चिम के आकाश में धूमिल हो चुका होता है; क्योंकि शक्तिशाली, तेजस्वी और वीर पुरुष के समक्ष सामान्य व्यक्ति प्रभावहीन हो जाता है ।। लेखक प्रकृति का मानवीकरण करते हुए कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा मानो आकाश की दो आँखें हैं ।। उसकी सूर्यरूपी एक आँख तेजयुक्त तथा चन्द्ररूपी दूसरी आँख निस्तेज हो गई है ।। ऐसा प्रतीत होता है, मानो आकाश में कानेपन का विकास उत्पन्न हो गया है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) प्रस्तुत पंक्तियों में प्रकृति का मानवीकरण करते हुए लेखक द्वारा सूर्य और चन्द्रमा को आकाश की दो आँखों के रूप में वर्णित किया गया है ।। यह वर्णन उनकी विलक्षण कल्पना-शक्ति का परिचायक है ।।
(2) भाषा– परिमार्जित, आलंकारिक एवं साहित्यिक ।।
(3) शैली- भावात्मक ।।


(अ) कुमदिनियों… ………… …………… ………… कोरुलाता है ।।


सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग-इन पंक्तियों में सूर्योदय के समय प्रकृति की विरोधाभासपूर्ण स्थिति का चित्रण किया गया है ।। लेखक ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि सूर्य के उदित होते ही संसार के अधिकांश प्राणियों के हृदय में नवजीवन का संचार हो जाता है, परन्तु वहीं दूसरी ओर चन्द्रमा का अस्त होना और सूर्य का उदित होना; कुमुदिनी और उल्लुओं के लिए दुःखदायी सिद्ध होता है ।।


व्याख्या- प्रात:काल सूर्य के उदित होते ही अनेक विरोधाभासपूर्ण दृश्यगोचर होते हैं ।। चन्द्रमा के अस्त होने और सूर्य के उदित होने का कुमुदिनियों और उल्लुओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।। इसका कारण यह है कि कुमुदिनी का पुष्प रात्रि में ही खिलता है ।। चन्द्रमा के अस्त होते ही वह कान्तिहीन होकर मुरझा जाता है ।। इसी प्रकार उल्लू भी रात्रि के समय चन्द्रमा का प्रकाश में ही देखने में समर्थ होते हैं, सूर्य का आगमन होते ही उन्हें दिखाई देना बन्द हो जाता है और वे असहाय होकर चुपचाप अंधकारयुक्त निर्जन स्थान पर जाकर बैठ जाते हैं ।। इस प्रकार सूर्योदय का समय कुमुदिनी और उल्लुओं के लिए कष्टदायी सिद्ध होता है ।। इसके विपरीत सरोवर में खिलने वाले कमल-समूह और चकवा-चकवी सूर्य के उदित होते ही हर्ष-विभोर हो जाते हैं ।। सूर्य का दर्शन करते ही कमल के पुष्प पूर्ण शोभायमान् होकर खिल उठते हैं ।। इसी प्रकार रात्रि होते ही चकवा-चकवी एक-दूसरे से बिछुड़ जाते हैं और वियोग से व्याकुल होकर सूर्योदय की प्रतीक्षा करते रहते हैं ।। प्रातःकाल होते ही उनका पुनः मिलन हो जाता है ।। इस प्रकार सूर्य का आगमन कुमुदिनी और उल्लुओं के लिए दुःखदायी सिद्ध होता है तो कमल के पुष्पों और चकवा-चकवी के लिए सुखदायी ।। इसी प्रकार एक उदय होता है तो दूसरा अस्त, अर्थात् सूर्य उदित होता है, जबकि चन्द्रमा अस्त हो जाता है ।। लेखक कहता है कि क्रुर विधाता की इन विरोधाभासपूर्ण चेष्टाओं के प्रभाव को शब्दिक रूप में व्यक्त कर पाने का साहस नहीं हो पाता ।। उसकी लीला अत्यन्त विचित्र है ।। वह एक ही समय में किसी को हर्ष-विभोर करता है तो किसी को शोकमग्न करके रोने के लिए विवश कर देता है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक ने प्रकृति के विरोधासपूर्ण दृश्यों का प्रभावपूर्ण चित्रण करते हए स्पष्ट किया है कि प्रकृति के एक ही क्रियाकलाप से किसी को सुख प्राप्त होता है तो किसी को दु:ख ।।
(2) भाषा- परिष्कृत, आलंकारिक, प्रतीकात्मक एवं प्रवाहमयी ।।
(3) शैली- भावात्मक, काव्यात्मक एवं चित्रात्मक ।।


(ट) महामहिम …………………………………..मौज कर रहे हैं ।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- सूर्य के उदय होते ही उसे शत्रु अर्थात अंधकार, तारागण और चन्द्रमा आदि दिखाई नहीं दे रहे हैं ।। कुमुदिनियों का समूह भी कान्तिहीन हो गया है तथा अब सूर्य अपने पूर्ण तेज के साथ आकाशमण्डल में चमक रहा है ।।
व्याख्या- सूर्य की भगवान् विष्णु से तुलना करते हुए लेखक ने कहा है कि सृष्टि के अन्त में प्रलय होती है ।। भगवान विष्णु अचानक ही यह प्रलय कर देते हैं ।। प्रलय के कारण सारी सृष्टि नष्ट हो जाती है ।। चारों ओर जल-ही-जल दिखाई देता है ।। प्रलयकाल में सृष्टि का कोई भी प्राणी जीवित नहीं रहता; केवल आकाश और जल शेष रह जाते हैं ।। ऐसे प्रजलय काल में भगवान विष्णु अकेले ही अपनी प्रिया लक्ष्मी के साथ क्षीरसागर में जाकर विश्राम करते हैं ।। ठीक उसी प्रकार भगवान भास्कर (सूर्य) भी क्षणभर में रात्रि और उसके सहायकों अंधकार, तारागण, चन्द्रमा आदि का संहार करके अपने पत्नी शोभा के साथ आकाशरूपी क्षीरसागर में विश्राम करते हुए प्रतीत हो रहे हैं ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) यहाँ सूर्य को भगवान् विष्णु, सूर्य की आभा को लक्ष्मी और आकाश को क्षीरसागर के समान बताया गया है ।।
(2) लेखक ने सम्पूर्ण दृश्य का पूरा बिंब ही हमारे समक्ष उपस्थित कर दिया है ।।
(3) भाषा- संस्कृतनिष्ठ, आलंकारिक और परिमार्जित खड़ी बाली ।।
(4) शैली- भावात्मक ।।


2– निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए ।।
(क) जो प्रतापी पुरुष अपने तेज से शत्रुओं का पराभव करने की शक्ति रखते हैं, उनके अग्रगामी सेवक भी कम पराक्रमी नहीं होते ।।


सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’ द्वारा लिखित ‘महाकवि माघ का प्रभात-वर्णन’ नामक निबंध में अवतरित है ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में सूर्योदय से पूर्व का चित्रण करते हुए सूर्य की तुलना वीरों से की गई है तथा यह भी स्पष्ट किया गया है कि तेजस्वी पुरुषों के सेवक भी प्रतापी और तेजस्वी होते हैं ।।

व्याख्या– द्विवेदी जी कल्पना करते हैं कि सूर्यदेव के उदित होने से पूर्व उनका सारथि अरुण उपस्थित हो गया है और उसने जगत् के सम्पूर्ण अंधकार को समाप्त कर दिया है ।। अपनी बात का समर्थन करते हुए लेखक ने स्पष्ट किया है कि शक्तिशाली, तेजस्वी और वीर पुरुषों में उनका प्रभाव देखने को मिलता है ।। अनेक बार वे अपने स्वामियों को कष्ट न देकर, उनके बहुत-से काम स्वयं ही कर देते हैं ।। उनके विरोधियों को भी वे स्वयं ही समाप्त कर डालते हैं ।। इसी प्रकार सूर्य के आगमन से पूर्व उनके सारथि (सेवक) अरुण ने सम्पूर्ण अंधकार को पराजित कर दिया है ।।


(ख) सूर्यदेव की उदारता और न्यायशीलता तारीफ के लायक है ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में भगवान् सूर्य की उदार हृदयता और न्यायप्रियता की प्रशंसा की गई है ।। व्याख्या- महावीर प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं कि सूर्य भगवान् अत्यधिक उदार हृदय वाले और न्यायप्रिय हैं ।। इसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए ।। उनके मन में पक्षपात की भावना जरा भी नहीं है ।। यदि वे किसी धनिक के विशाल आवास पर अपनी किरणें बिखेरते हैं तो अपनी वैसी ही किरणें वे किसी धनहीन के झोंपड़े पर भी फैलाते हैं ।। उनकी इस क्रिया में तनिक भी कमीवेशी नहीं होती ।। वे सभी का हित-साधन करते हैं और अपने आचरण से सभी को समान रूप से लाभान्वित करते हैं ।। इसीलिए कहा गया है कि “परोपकाराय सतां विभूतयः’ ।।


(ग) उदारशील सज्जन अपने चारूचरितों से अपने ही उदय देश को नहीं, अन्य देशों को भी आप्यायित करते हैं ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति-वाक्य में सज्जनों की उदारता पर प्रकाश डाला गया है ।। व्याख्या- इस सारगर्भित एवं प्रेरणाप्रद सूक्ति-वाक्य में विद्वान् लेखक ने कहा है कि सज्जनों के चरित्र में सूर्यदेव जैसी उदारता होती है ।। उनमें पक्षपात की तो गन्ध तक नहीं होती ।। जिस प्रकार सूर्य केवल अपने उद्भव-स्थान उदयाचल के पर्वत-शिखरों को ही अपनी किरणों से शोभित नहीं करता, अपितु समस्त पर्वत-शिखरों की शोभा बढ़ाता है; उसी प्रकार उदार हृदय वाले सज्जन अपने अच्छे आचरण से केवल अपने ही देश को नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व को लाभान्वित करते हैं ।।


(घ) तेजस्वियों का कुछ स्वभाव ही ऐसा होता है कि एक निश्चित स्थान में रहकर भी वे अपने प्रताप की धाक से दूर स्थित शत्रुओं का भी सर्वनाश कर डालते हैं ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में सूर्य के प्रकाश की तुलना तेजस्वियों के तेज से की गई है ।। व्याख्या- लेखक का मत है कि सूर्य आकाश में उदित होकर आकाश के अंधकार को ही नष्ट नहीं करता, वरन् दूर-स्थित घरों के कोनों और कोठरियों के अंधकार को भी नष्ट कर देता है ।। इसी प्रकार तेजस्वी व्यक्ति भी अपने तेज एवं प्रताप से अपने आस-पास की बुराइयों को ही नष्ट नहीं करते, वरन् दूर-दूर तक की बुराइयों को नष्ट करने में सफल होते हैं ।।


(ङ) दुष्ट दैव की चेष्टाओं का परिपाक कहते नहीं बनता ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति के भाग्य की विचित्र गति पर प्रकाश डाला गया है ।।
व्याख्या- प्रकृति की एक ही क्रिया किसी के लिए वरदान बनती है तो किसी के लिए अभिशाप ।। इन परस्पर विरोधी परिणामों की प्राप्ति को ही लोग भाग्य की संज्ञा प्रदान करते हैं ।। सूर्योदय होने पर कुमुदिनियाँ शोभाहीन हो गई हैं तो कमलों का समूह विकसित हो गया है ।। उल्लुओं के लिए सूर्योदय दुःख का सन्देश लाया है तो चक्रवाकों के लिए वह अत्यधिक आनन्द लेकर उपस्थित हुआ है ।। यह कुमुदिनी और उल्लू का दुर्भाग्य है कि सूर्योदय उनके लिए दुःख का कारण बनकर उपस्थित हुआ है ।। इसके विपरीत कमलों और चक्रवाकों का यह अपना सौभाग्य है कि सूर्योदय उनके लिए नवीनता, उत्साह और आनन्द के रूप में उपस्थित हुआ है भाग्य की गति भी निराली है, इसको समझना मानवीय बुद्धि से परे की बात है ।।


अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न


1– ‘महाकवि माघ का प्रभात-वर्णन’ पाठका सारांश लिखिए ।।


उत्तर– प्रस्तुत निबन्ध में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने महाकवि माघ के प्रभात-वर्णन का कलात्मक ढंग से प्रस्तुतीकरण किया है ।। लेखक कहते हैं सूर्य उदय होने में थोड़ा समय रह गया है ।। सप्तर्षि नाम के तारे आकाश में लंबे लेटे हुए है ।। यह तारामण्डल सात ऋषियों के नाम पर बनाया गया है ।। जिनका पीछे का भाग नीचे को है और आगे का ऊपर को ।। इनके नीचे छोटा सा ध्रुवतारा भी चमक रहा है ।। सप्तर्षि तारामण्डल का आकार बैलगाड़ी के जुवाँ की भांति ऊपर उठा हुआ है ।। इस दृश्य को देखकर लेखक को श्रीकृष्ण के बचपन की घटना याद आ गई, जिसमें शकटासुर नामक दानव बालक श्रीकृष्ण का वध करने के लिए गाड़ी का रूप बनाकर आया था ।। श्रीकृष्ण ने अपने लात के प्रहार से उसे धराशाही कर दिया जिससे उसका आगे का भाग ऊपर को उठ गया और पीछे का भाग खड़ा रह गया और श्रीकृष्ण उसके नीचे आ गए थे ।। ऐसी ही स्थिति इस समय सप्तर्षि तारामण्डल की है ।। प्रात:काल में पूर्व दिशारूपी नायिका प्रभात की लालिमा में रँगी हुई इस प्रकार हँसती प्रतीत होती है कि मानो उसके मन में चन्द्रमा के पश्चिम दिशारूपी नायिका के पास जाते हुए देखकर नारी सुलभ ईर्ष्या उत्पन्न हुई हो ।। वह सोचती है जब यह मेरे साथ था, तब तक उदित हो रहा था और उसका प्रकाश भी खूब फैल रहा था, परन्तु पश्चिम दिशारूपी नायिका के पास जाते ही कान्तिहीन हो गया है ।। उसे उसके किए का फल मिल गया, यही सोचकर वह मुस्करा रही है ।। परन्तु चन्द्रमा को उसकी कोई परवाह नहीं है ।। वह पश्चिम दिशारूपी स्त्री की रसिकता में निमग्न है ।। चन्द्रमा के अस्त होने पर उसका रंग लाल हो गया है तथा उसकी किरणें सफेद है जो कमल बाल के कटे टुकड़ों के समान है ।। तथा उसका ध्यान दिग्वधू के उपहास की ओर नहीं है ।।


लेखक कहते है कि प्रात:काल में सूर्य के उदित होने पर संसार में विरोधाभासपूर्ण दृश्य दिखाई देता है ।। सूर्योदय होने पर कमल खिल जाते है और कुमुदिनी मुरझा जाती है ।। जब कमल खिलते हैं कुमुदिनियाँ नहीं और जब कुमुदिनियाँ खिलती हैं तो कमल नहीं ।। परन्तु प्रात:काल होने पर कमल तथा कुमुदिनी की स्थिति एक समान होती है ।। कुमुद पूरी तरह से बंद नहीं हुए है और कमल पूरी तरह से नहीं खिले हैं और भँवरे दोनों पर मँडरा रहे हैं ।। सांयकाल को जब चन्द्रमा निकलता है वह सुन्दरता युक्त होता है, क्रमशः उसकी सुन्दरता में वृद्धि होती रहती है ।। लेखक ने चन्द्रमा को प्रेमी कहा है वह सोचता है क्यों न कुमुदनियों के साथ परिहास किया जाए ।। इस हास-परिहास में ही रात व्यतीत हो गई ।। चन्द्रमा थक कर चूर होकर दूसरी दिग्वधू (पश्चिम) की गोद में चला गया ।।

द्विवेदी जी कहते हैं भगवान् सूर्य अंधकार के प्रबल शत्रु है ।। उनके प्रताप से डरकर अंधकार भाग जाता है परन्तु वह तो उनके उदित होने से पहले ही भाग गया ।। अंधकार के भागने का कारण भगवान सूर्य के सारथी अरुण का आगमन था ।। अरुण सूर्यदेव के रथ के आगे चलने वाला स्वामिभक्त एवं पराक्रमी सेवक है ।। वह अपने स्वामी को कष्ट न देकर स्वयं ही शत्रुओं का नाश कर देता है ।। अरुण द्वारा अंधकार का नाश कर देने पर बेचारी रात पर आफत आ गई और वह भाग खड़ी हुई और सवेरा हो गया ।। इस प्रातःकालीन अल्पव्यस्क सुंदरी के हाथ-पैर लाल कमलों के समान है ।। नील कमल फूलों के समान उसके नेत्र है ।। पक्षियों की ध्वनि ही उसकी बोली है ।। वह भी रात के पीछे-पीछे चली गई ।। द्विवेदी जी कहते हैं अरुणोदय होते ही अंधकार नष्ट हो गया ।। सब विपक्षियों का अंत हो गया ।। अरुण द्वारा सब विपक्षियों को पस्त देखकर भगवान सूर्य ने निकलने की तैयारी की ।। हाथों में वज्र धारण करने वाले इन्द्र की पूर्व दिशा में, सुनहरी किरणें बिखर गई ।। जिससे संपूर्ण दृश्य अद्भुत हो गया, मानो समुद्र में रहने वाली बड़वाग्नि ने सारे समुद्र को जला दिया है और वह तीनों लोकों को जलाने के लिए ऊपर आई है ।। धीरे-धीरे सूर्य का बिंब क्षितिज पर दिखाई देने लगा ।। नीले आकाश में सूर्य का बिंब ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वह कोई बड़ा घड़ा है, जिसे दिशारूपी वस्तुएँ पूरे प्रयास से आकाशरूपी सागर से खींच रही है ।। सूर्य की किरणें इस घड़े को खींचने वाली रस्सियाँ हैं ।। वधुएँ एक साथ घड़े को ऊपर उठाकर लेने के लिए ऊँची आवाज में शोर कर रही है कि सब मिलकर जोर लगाओ तो यह शीघ्र ही बाहर निकल आएगा ।। जब दिशारूपी स्त्रियों के द्वारा सूर्यदेव को अगाध जलराशि से खींचकर बाहर निकाल लिया गया तो सूर्य का बिंब चमकता हुआ और रक्त वर्ण का दिखाई पड़ा ।। अब लेखक विचार करता है कि जल में डूबे रहने पर भी यह लाल रंग का क्यों हैं ?


लेखक स्वयं कहते हैं कि सारी रात समुद्र के जल में पड़ा रहा तो उसकी बड़वाग्नि अर्थात् जल के अंदर निहित अग्नि ने इसको तपाकर लाल कर दिया ।। द्विवेदी जी कहते हैं कि सूर्यदेव अत्यन्त उदार हृदय वाले तथा न्यायप्रिय हैं ।। उनमें तनिक भी भेदभाव की भावना नहीं है ।। वे सबको समान दृष्टि से देखते हैं और अपनी किरणों से सभी पर्वतों और दिशाओं की शोभा वृद्धि कर देते हैं ।। वे सबका हित साधन करते हैं और अपने आचरण से केवल अपनी ही जन्मभूमि को नहीं, अपितु दूसरे देशों को भी लाभ पहुंचाते हैं ।। द्विवेदी जी कहते हैं कि उदयाचल रूपी आँगन में सूर्य ऐसा लग रहा है मानो कोई छोटा बालक घुटनों और हाथों के सहारे आँगन में खेल रहा है ।। उसे खेलता देख कमलिनियाँ खिलकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करती है ।। वे वात्सल्यभाव से उसे देख रही है ।। भोर होते ही पक्षियों का कलरव सुनकर ऐसा लगता है जैसे माँ अपने शिशु को पास बुला रही हो और अन्तरिक्ष माता को बुलाता देख सूर्य भी कूदकर उसकी गोद में जा पहुँचा हो ।। द्विवेदी जी कहते है सूर्योदय होते ही नदियों ने अनोखा रूप धारण कर लिया ।। जब नदियों के दोनों किनारों पर बहते हुए जल पर प्रात:काल की धूप पड़ी, तो उस जल का रंग पकी हुई सुरा (मदिरा) के समान हो गया ।। ऐसा लगता है जैसे इन किरणों ने हाथियों के समूह को मार गिराया हो और उन हाथियों का रक्त बहकर नदियों में आ गया हो ।। तारों का समुदाय बहुत सभ्य मालूम पड़ता है परन्तु सूर्य द्वारा अंधकार का नाश करने के लिए उसे तारों को भी तेजहीन करना पड़ता है, क्योंकि इनकी श्रीवृद्धि अंधकार में ही संभव है ।। सूर्य के उदय होने पर अंधकार डर कर भाग गया ।। अपने शत्रु से बचने के लिए यह गुफाओं तथा कोठरियों आदि में छिपकर बैठ गया ।। परन्तु सूर्य ने उसे वहाँ न रहने दिया ।। उसने उसे वहाँ से निकालकर उसका नाश कर दिया ।।

द्विवेदी जी कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही आकाश की आँखें है ।। परन्तु सूर्य बहुत तेजवान तथा चमकीला दिखता है तथा चन्द्रमा कान्तिहीन होने के कारण धूमिल दिखता है ।। इससे आकाश के काना होने का आभास होता है ।। लेखक कहते हैं कि दैव की चेष्टाएँ किसी के लिए सुखकर हैं तो किसी के लिए दुःखदायी ।। प्रकृति की एक चेष्टा जहाँ कुमुदिनियों की शोभा हर लेती है, वही सरोवरों की शोभा संपन्न कर देती है ।। सवेरा होने पर उल्लू दुःखी होता है तथा चकवा-चकवी प्रसन्न ।। सूर्योदय का समय भाग्यशालियों को आनन्दित करता है, पर जो दुर्भाग्य के मारे हैं, उन्हें वह दु:खी करता है ।। ये सूर्यदेव मानो दिशारूपी सुन्दरियों के पति है जो पिछली रात को विदेश चला गया था ।। चन्द्रमा मौका पाकर उसके स्थान पर आ विराजा ।। परन्तु अपनी यात्रा समाप्त करके सूर्य के वापस आने पर चन्द्रमा के होश उड़ गए और वह अपने किरणरूपी वस्त्रों को छोड़कर पश्चिमी दिशारूपी खिड़की से बाहर निकल गया ।। लेखक कल्पना करता है कि कल्पान्त में भगवान विष्णु भी जब तीनों लोकों को नष्ट कर अपनी प्रेममयी पत्नी लक्ष्मी के साथ क्षीरसागर में अकेले ही शोभित होते हैं, उसी तरह सूर्यदेव भी पलभर में रात्रि और उसके सहायकों को नष्ट कर क्षीरसागर के समान स्वच्छ आकाश में अपनी आभा के साथ आनन्दमय समय बिताते हैं ।।


2– आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने पाठ में सप्तर्षि तारामण्डल का क्या वर्णन किया है ?
उत्तर– आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने पाठ में सप्तर्षि तारामण्डल के बारे में कहा है कि आकाश में उनकी स्थिति बैलगाड़ी के समान हैं ।। जिसका आगे वाला भाग बैलगाड़ी के जुवाँ की तरह ऊपर उठा हुआ है तथा पीछे वाला भाग नीचे को झुका हुआ है तथा उनके पीछे वाले भाग में ध्रुवतारा चमक रहा है ।। ।।
3– सूर्य के उदय होने से पहले उनके सारथि अरुण ने क्या किया ?
उत्तर– सूर्य के उदय होने से पहले उनके स्वामिभक्त तथा पराक्रमी सारथि अरुण ने पहले पहुँचकर अंधकार को भगा दिया ।। उसने अपने स्वामी को बिना कष्ट दिए उनके समस्त शत्रुओं का नाश कर दिया ।।


4– आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सूर्योदय का वर्णन किन-किन रूपों में किया है ?
उत्तर– आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने सूर्योदय को एक राजा की तरह प्रस्तुत किया है ।। जिसका सारथि अरुण उसके शत्रओं का नाश कर देता है ।। लेखक ने सूर्य को समुद्र की अग्नि के अंदर तपे हुए प्रस्तुत किया है जो तपकर लाल हो गया है ।। लेखक ने सूर्य को एक बड़े घड़े के रूप में प्रदर्शित किया है जिसे दिशारूपी वधुएँ अपनी तरफ खींच रही हैं ।। लेखक ने सूर्य को पक्षपात रहित बताया है जो सबको समान दृष्टि से देखते हैं ।। लेखक ने सूर्योदय के समय सूर्य को एक छोटे बालक के रूप में प्रस्तुत किया है जो घुटनों तथा हाथों की सहायता से आकाशरूपी आँगन में क्रीड़ा कर रहा है और जिसे अन्तरिक्ष रूपी माता पुकार रही है ।।


5– लेखक ने सूर्य की किन विशेषताओं का वर्णन किया है ?
उत्तर– लेखक ने सूर्य को अंधकार का शत्रु बताया है जो बहुत पराक्रमी और प्रतापी है ।। सूर्य पक्षपात रहित व न्यायप्रिय है जो सभी पर समान रूप से कृपा दृष्टि रखता है ।। सूर्य समुद्र की अग्नि में तपकर लाल हो गया है ।। सूर्य सभी को जीवन प्रदान करता है ।। इसका आगमन सूर्य कुछ के लिए सुखदायी तथा कुछ के लिए दुःखदायी होता है ।। सूर्य करोड़ों मील दूर आकाश में होकर भी कहीं भी छुपे बैठे अंधकार को नाश कर देता है ।।

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