UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ
भारतीय साहित्य की विशेषताएँ (डॉ० श्यामसुन्दर दास)
लेखक पर आधारित प्रश्न
1— डॉ० श्यामसुन्दर दास का जीवन-परिचय देते हुए इनकी भाषा-शैली का वर्णन कीजिए।
उ०- लेखक परिचय- प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ० श्यामसुन्दर दास का जन्म एक खत्री परिवार में सन् 1875 ई० में काशी में हुआ था। इनके पिता का नाम लाला देवीदास खन्ना तथा माता का नाम देवकी था। सन् 1897 ई० में इन्होंने स्नातक की उपाधि ‘क्वीन्स कॉलेज’ काशी से प्राप्त की। इन्होंने कुछ समय चालीस रुपए मासिक वेतन पर ‘चन्द्रप्रभा’ प्रेस में नौकरी की। इसके बाद वाराणसी के हिन्दू स्कूल में अध्यापन कार्य किया। विश्वविद्यालय की उच्च कक्षाओं के लिए पाठ्य-पुस्तकों का सृजन सर्वप्रथम डॉ० श्यामसुन्दर दास जी ने ही किया। सन् 1912 ई० में इन्होंने लखनऊ के कालीचरण हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक के पद को सुशोभित किया व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रथम अध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया। कुछ साहित्य-प्रेमी व मित्रों के सहयोग से सन् 1893 ई० में इन्होंने काशी में ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की। इनकी महत्वपूर्ण साहित्य-सेवा को दृष्टिगत रखते हुए सन् 1927 ई० में इन्हें अंग्रेजी सरकार ने ‘राय बहादुर’ की उपाधि प्रदान की। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें ‘डी. लिट्’ तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन ‘प्रयाग’ द्वारा सन् 1938 ई० में ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से विभूषित किया गया। डॉ० श्यामसुन्दर दास जी आजीवन साहित्य साधना में संलग्न रहे। इसी सेवा में सदैव तत्पर रहते हुए अन्तत: यह महान् साहित्यकार सन् 1945 ई० में चिरनिद्रा में लीन होकर इस असार संसार से सदा-सदा के लिए विदा हो गया।
भाषा-शैली- बाबू श्यामसुन्दर दास ने अपनी भाषा का गठन विषयों के अनुकूल किया है। विषय के अनुकूल कहीं इन्होंने शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया है तो कहीं सरल एवं व्यावहारिक भाषा का। साहित्यिक ग्रन्थों में इन्होंने शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया है। इस प्रकार की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है। इनके स्फुट निबन्धों में सरल तथा व्यावहारिक भाषा का प्रयोग हुआ है। इन्होंने फारसी तथा उर्दू शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं किया है। प्रचलित विदेशी शब्दों को हिन्दी जैसा ही बनाकर प्रस्तुत किया गया है। बाबू जी ने पहली बार हिन्दी को इस योग्य बनाया कि बिना किसी विदेशी भाषा की सहायता के अपनी भाव-अभिव्यक्ति में पूर्ण समर्थ हो सके। बाबू श्यामसुन्दर दास ने अपने व्यक्तित्व के अनुरूप विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया है। बाबू जी ने अपने विचारात्मक निबन्धों में विवेचनात्मक शैली का प्रयोग किया है। डॉ० श्यामसुन्दर दास ने आलोचनात्मक विषयों की समीक्षा समीक्षात्मक शैली में की है। इसमें विचारों के स्पष्टीकरण के कारण कहीं-कहीं तर्क और गाम्भीर्य की अधिकता है। बाबू जी ने वैचारिक गम्भीरता से युक्त निबन्धों में गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया है। इसमें विशुद्ध तत्समप्रधान भाषा का प्रयोग किया गया है। बाबू जी गम्भीरता के साथ-साथ भावात्मक शैली का प्रयोग करने में भी सफल रहे हैं। इन्होंने ‘मेरी आत्मकहानी’ तथा अन्य जीवनीपरक निबन्धों में विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में वाक्य छोटे हैं तथा भाषा प्रवाहपूर्ण है।
प्रश्न— डॉ० श्यासुन्दर दास की कृतियों पर प्रकाश डालिए तथा हिन्दी साहित्य में उनका स्थान निर्धारित कीजिए।
उ०- कृतियाँ- बाबू श्यामसुन्दर दास आजीवन साहित्य-सेवा में लगे रहे। इनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं
निबन्ध- ‘गद्य-कुसुमावली’। इसके अतिरिक्त ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में इनके लेख भी प्रकाशित हुए।
आलोचना ग्रन्थ- साहित्यालोचन, गोस्वामी तुलसीदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, रूपक-रहस्य।
भाषा-विज्ञान-भाषा-विज्ञान, हिन्दी भाषा का विकास, हिन्दी भाषा और साहित्य।।
सम्पादन- हिन्दी-शब्द-सागर, वैज्ञानिक कोश, हिन्दी-कोविद रत्नमाला, मनोरंजन पुस्तकमाला, पृथ्वीराज रासो, नासिकेतोपाख्यान, छत्र-प्रकाश, वनिता-विनोद, इन्द्रावती, हम्मीर रासो, शाकुन्तल-नाटक, श्रीरामचरितमानस, दीनदयाल गिरि की ग्रन्थावली, मेघदूत, परमाल रासो। इन्होंने ‘सरस्वती’ तथा ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का भी सम्पादन किया।
अन्य विशिष्ट रचनाएँ- इनके अतिरिक्त भाषा-रहस्य, मेरी आत्मकहानी, हिन्दी-साहित्य-निर्माता, साहित्यिक लेख आदि इनकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं।
हिन्दी साहित्य में स्थान- बाबू श्यामसुन्दर दास ने निरन्तर साहित्य-साधना करते हुए हिन्दी-साहित्य के भण्डार में अभूतपूर्व वृद्धि की। भाषा को परिष्कृत रूप प्रदान करने की दृष्टि से भी इन्होंने अविस्मरणीय योगदान किया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपने युग के गद्य लेखकों में बाबू श्यामसुन्दर दास एक प्रकाश-स्तम्भ के समान थे। हिन्दी साहित्य जगत सदैव इनका ऋणी रहेगा।
व्याख्या संबंधी प्रश्न
1– निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) समस्त भारतीय……….. …………….की ओर रही है।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘डॉ० श्यामसुन्दर दास’ द्वारा भारतीय साहित्य की विशेषताएँ’ नामक निबन्ध से उद्धृत है।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में विद्वान् लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि धर्म, समाज, साहित्य एवं कला के क्षेत्र में भारत की प्रवृत्ति समन्वय की रही है।
व्याख्या- अपने सारगर्भित विचारों को साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए श्यामसुन्दर दास जी कहते हैं कि भारतीय साहित्य का विश्व-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। उसमें अनेक ऐसी विशेषताएँ हैं, जो उसे विश्व-साहित्य में प्रमुखता प्रदान करती हैं और उसकी अलग पहचान बनाती हैं। इन विशेषताओं में ‘समन्वय की भावना’ भारतीय साहित्य की पहली और महान् विशेषता है। यह प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति के स्वतंत्र और पृथक अस्तित्व की वास्तविकता को भी सिद्ध करती है। अपनी इसी समव्यय-भावना के कारण ही हमारा भारतीय साहित्य विश्व के अन्य साहित्यों से भिन्न, किन्तु सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित दिखाई देता है। चाहे धर्म का क्षेत्र हो या सामाजिक क्षेत्र, चाहे साहित्य का क्षेत्र हो या अन्य कलाओं का, परन्तु समन्वय अथवा सामंजस्य की यह भावना सर्वत्र दिखाई देगी। यदि हम भारत के धार्मिक क्षेत्र का अवलोकन करें तो पाएंगे कि इस क्षेत्र में ज्ञान, भक्ति और कर्म में समन्वय है। यहाँ की सामाजिक संरचना पर दृष्टिपात करें तो यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण मिलते हैं। ये चारों एक-दूसरे पर निर्भर हैं तथा एक के बिना दूसरा पंगु है। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में गहरा तालमेल दिखाई देता है। प्रत्येक आश्रम किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किसी-न-किसी रूप में दूसरे से जुड़ा हुआ दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार भारतीय साहित्य तथा कलाओं का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उनमें सुख-दुःख, हर्ष-विषाद और इसी प्रकार के विरोधी भावों को जब एक साथ सँजोकर प्रस्तुत किया जाता है, तभी उस समन्वित स्वरूप से असीम आनन्द की प्राप्ति होती है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) भारतीय जीवन की समन्वयात्मक प्रवृत्ति का सुन्दर अंकन हुआ है।
(2) यहाँ विद्वान लेखक की बहुज्ञता एवं अध्ययनशीतला की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है।
(3) भाषा- शुद्ध परिमार्जित साहित्यिक खड़ी बोली।
(4) शैली- संयत, प्रवाहपूर्ण एवं विवेचनात्मक।
(ख) साहित्यिक समन्वय से ………. ……में ही किया गया है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में भारतीय साहित्य में समन्वय की भावना पर गंभीरता से विचार हुआ है।
व्याख्या- अपने गंभीर विचारों को साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए विद्वान् लेखक का कहना है कि समन्वय की भावना भारतीय साहित्य की पहली विशेषता है। हमारे साहित्य की किसी भी विधा में सुख-दुःख में समन्वय दिखाया जाता है। इसी प्रकार उन्नति और अवनति में तथा हर्ष और विषाद जैसे विरोधी भावों में भी समन्वय दिखाकर एक अलौकिक आनंद में इन सबका अंत हो जाता है। यह आनन्द सबको अपने में विलीन कर देता है। यही साहित्यिक समन्वय है। हमारे नाटकों में, कहानियों में और साहित्य की किसी भी विधा में सर्वत्र यही समन्वय पाया जाता है। हमारे नाटकों में सुख और दुःख के प्रबल घात-प्रतिघात दिखाए जाते हैं, पर सबका अंत आनन्द में ही किया जाता है; क्योंकि हमारा ध्येय जीवन का आदर्श रूप उपस्थित कर उसे उन्नत बनाना रहा है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) समन्वय की भावना को भारतीय साहित्य की पहली विशेषता बताया गया है।
(2) भाषा- शुद्ध साहित्यिक हिन्दी।
(3) शैली- गंभीर विषय को बोधगम्य विचारात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है।
(4) वाक्य-विन्यास सुगठित एवं शब्द-चयन उपयुक्त है।
(ग) इसका प्रधान …… …………. अनुकरणमात्र है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- यहाँ पर भारतीय साहित्य की समन्वयकारी विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लेखक ने बताया है कि अधिकांश भारतीय नाटक सुखान्त क्यों हैं।
व्याख्या- भारतीय संस्कृति की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए विद्वान् लेखक ने स्पष्ट किया है कि उसमें जीवन के आदर्श स्वरूप को उपस्थित करके जीवन को उन्नति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचाने की चेष्टा की जाती है। इसी कारण प्रत्येक भारतीय अपने-अपने क्षेत्र में जीवन के आदर्श प्रतिमान को प्रस्तुत करता है। उसके पीछे उसका उद्देश्य यह होता है कि वह जिस प्रतिमान की स्थापना कर रहा है, लोग उससे प्रेरणा लेकर अपने जीवन की उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने में सफल होंगे। इस कारण हमारे प्रयासों में भविष्य की सम्भावित उन्नति की चिंता निहित होती है। इसी चिन्ता के कारण हमारे साहित्य में पाश्चात्य शैली के दुःखान्त नाटकों का अभाव पाया जाता है; क्योंकि दुःख व्यक्ति को अवसादग्रस्त कर देता है और अवसादग्रस्त मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता। हमारे नाटकों की विशेषता यह होती है कि उनमें दुःख का भी आनन्द से समन्वय करके उसके अवसादी प्रभाव को समाप्त कर दिया जाता है। अपवादस्वरूप कुछ नाटककारों ने दो-चार दुःखान्त नाटकों का प्रणयन अवश्य किया है, परन्तु वास्तव में ये नाटक और नाटककार हमारी संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते, वरन् ये भारतीय संस्कृति के आदर्श से कोसों दूर होते हैं और इन्हें पाश्चात्य आदर्श का अनुकरण-मात्र कहा जा सकता है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) यहाँ भारतीय संस्कृति के आनन्दात्मक स्वरूप को परिपुष्ट करने के लिए सुखान्त भारतीय नाट्य साहित्य को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
(2) भारतीय साहित्य और संस्कृति के दुःख-सुख समन्वयात्मक स्वरूप का उद्घाटन किया गया है।
(3) भाषा- शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली।
(4) शैली- गंभीर और विचारात्मक।
(घ) हमारे दर्शन-शास्त्र.. …………. परम उद्देश्य है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- लेखक ने भारतीय साहित्य और भारतीय कलाओं में सामान्य रूप से समन्वय की भावना के रहस्य का खोज खोज भारतीय दर्शन से की है और उसके मूल स्वर को पहचानने का प्रयास किया है।
व्याख्या- भारतीय साहित्य और कलाओं में आदर्श समन्वय की भावना को देखकर उसका रहस्य जानने की इच्छा होती है। लेखक ने इसका समाधान भारतीय दर्शन के आधार पर किया है। भारत में प्रमुख रूप से छ: दर्शन माने जाते हैं। सभी में समन्वय की भावना व्याप्त है। सभी दर्शनों में आत्मा और परमात्मा में स्वरूप की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं माना गया है। दोनों को सत्, चित् और आनन्दमय बताया गया है। आत्मा परमात्मा का ही एक अंश है। जीव माया के कारण ही अपने सत्, चित् और आनन्दस्वरूप को भुला हुआ है। वह अपने को संसार के बन्धनों में बँधा अनुभव करता है। आत्मा के प्रति इस अज्ञान का कारण माया ही है। जीवात्मा यदि माया से मुक्त हो जाए, तो वह अपने स्वरूप को पहचान सकता है। जब तक माया से उत्पन्न अज्ञान बना रहेगा, तब तक जीवात्मा को अपने सच्चे स्वरूप की अनुभूति नहीं होगी। जब माया से उत्पन्न अज्ञान दूर हो जाता है, तब जीवात्मा अपने स्वरूप को पहचानकर आनन्दमय परमात्मा में लीन हो जाता है। इससे उसके दुःखों का अन्त हो जाता है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जीवात्मा द्वारा अपने स्वरूप को पहचानकर आनन्दमय परमात्मा में लीन हो जाना ही मानव-जीवन का मुख्य उद्देश्य है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) आत्मा और परमात्मा का एक सच्चिदानंद स्वरूप में विलीन होना ही भारतीय दर्शन का समन्वय सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के अनुसार भारतीय साहित्य और कलाओं का उद्देश्य विभिन्न विपरीत भावों और मतों का समन्वय स्थापित कर आनन्द की सृष्टि करना है।
(2) भारतीय दर्शन के माध्यम से भारतीय साहित्य और कलाओं में समन्वय की भावना की पुष्टि हो जाती है।
(3) भारतीय दर्शन के छ: रूप इस प्रकार हैं- न्याय, सांख्य, वैशेषिक, योग, वेदान्त और मीमांसा।
(4) भाषा- प्रवाहपूर्ण एवं परमार्जित खड़ी बोली।
(5) शैली- गवेषणात्मक एवं विवेचनात्मक।
(ङ) भारतीय साहित्य… ……….हम यही बात पाते हैं।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने यह बताया है कि धर्म में धारण करने की शक्ति होती है और धर्म ने हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है।
व्याख्या- लेखक का मत है कि भारतीय दर्शन में धर्म की इतनी व्यापक व्याख्या की गई है कि उससे जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के औचित्य-अनौचित्य पर हमारे धर्म में बड़ी बेबाक टिप्पणी की गई है। हमारे दर्शन के अनुसार धर्म हमको धारण किए रहता है। धर्म वह है, जो धारण करने योग्य है, इसीलिए हम धर्म को धारण किए हुए हैं। अपने आदर्श प्रतिमानों के कारण ही हमारे सामान्य सामाजिक आचारों-विचारों और राजनीति पर धार्मिक नियन्त्रण की आवश्यकता पर प्रत्येक देशकाल में बल दिया जाता रहा है। धर्म केवल हमारे आध्यात्मिक जीवन पर ही प्रभाव नहीं छोड़ता वरन् सामान्य आचार-व्यवहार के अलावा वह हमारे साहित्य को भी अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। हमारे वेदों, पुराणों तथा दूसरे धर्मग्रन्थों में जो कुछ लिखा गया है, उसका प्रभाव सारे समाज के आचार-व्यवहार पर पड़ा है। एक ही ईश्वर की अवधारणा, ब्रह्म विषयक सोच, अवतारों में आस्था या अनेक देवी-देवताओं के प्रति मान्यता दृष्टिकोण धर्म-भावना का ही प्रभाव है। धार्मिक भावों की अधिकता ने एक ओर हमारे साहित्य में पवित्र भावनाएँ भरकर जीवन के विषय में गहराई से सोचना सिखाया तो दूसरी ओर इसी कारण से लौकिक भावों की कमी दिखाई देने लगी। यही कारण है कि वैदिक काल में रचित सामवेद की मधुर ऋचाओं से लेकर सूरदास अथवा मीराबाई के पदों तक में लौकिक भावों की न्यूनता और अलौकिक भावों की ही अधिकता है। यह सब धार्मिक भावों की अधिकता का ही परिणाम है; अर्थात् धार्मिक प्रभाव के कारण हमारा साहित्य आदर्शात्मक अधिक और व्यवहारिक कम है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक अपने धर्म की मात्र प्रशंसा ही नहीं करता वरन् ईमानदारी से उसकी त्रुटियाँ भी लक्षित करता है।
(2) धर्म ने हमारे साहित्य, राजनीति, सामाजिक जीवन एवं व्यक्तिगत चरित्र के साथ-साथ चिंतन को भी प्रभावित किया है।
(3) भाषा- परिमार्जित खड़ी बोली।
(3) शैली- विवेचनात्मक।
(च) राधाकृष्णन को…………………….. परिणत हो गया।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने बताया है कि धार्मिक भावों के दुरुपयोग के कारण हमारे भारतीय साहित्य में अनर्थ भी हुआ है।
व्याख्या- लेखक का कथन है कि धर्म से प्रेरणा लेकर भक्तिकाल का जो साहित्य रचा गया, वह निश्चित ही हमारे गौरव की वस्तु है; परन्तु रीतिकाल के श्रृंगारी कवियों ने धर्म के नाम पर राधा-रानी और गिरिधर लाल को आधार बनाकर जो कविताएँ रची, उनमें वासना का कलुष स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसे वासनाजन्य उद्गार समाज का भला तो नहीं कर सकते, पर उसे बिगाड़ते अवश्य हैं। अब कुछ ऊँचे विचारों वाले ऐसे भी आलोचक हैं, जो बुराई में भी भलाई खोज ही लेते हैं और इसी आधार पर गन्दी और कलुषित शृंगारी कविता में भी उच्च आदर्श के दर्शन कर लेते हैं। पर सच्चाई से किसी भी स्थिति में मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। यद्यपि कुछ शृंगारिक कविताओं में पवित्र भावना एवं शुद्ध प्रेम की अभिव्यक्ति भी हुई है, तथापि ऐसी कविताएँ बहुत कम हैं। इससे यह सत्य उद्घाटित होता है कि भक्तिकाल के साहित्य में पवित्र भक्ति का जो ऊँचा आदर्श था, वह आगे चलकर रीतिकाल में शारीरिक वासनाजन्य प्रेम के रूप में बदलकर कलंकित हो गया। भारतीय साहित्य पर धार्मिक भावों की अधिकता का ही यह दुष्प्रभाव है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) धार्मिक भावों की अतिशयता ने शृंगरी कवियों की भावना को प्रदूषित किया है जिससे भक्ति का पवित्र आदर्श उनके लिए बहानामात्र बनकर रह गया, तभी तो उन्होंने कहा कि
आगे न सुकवि रीझि हैं तो कविताई,
न तु राधिका कन्हाई सुमिन को बहानो है।
(2) भाषा- परिमार्जित साहित्यिक खड़ी बोली।
(3) शैली- प्रौढ, प्रवाहपूर्ण तथा विवेचनात्मक।
(छ) यों तो प्रकृति की. …………….. का सौभाग्य प्राप्त है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में भारतीय साहित्य की भौगोलिक विशेषताओं तथा भारतीय साहित्य पर भारत की प्राकृतिक सुषमा के प्रभाव का उल्लेख किया गया है।
व्याख्या- भारत की प्राकृतिक रमणीयता के प्रति भारतीय कवियों का प्राचीनकाल से ही विशेष अनुराग रहा है। यद्यपि प्रकृति की प्रत्येक देन मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करती है, परन्तु फिर भी प्रकृति के सुन्दरतम रूपों में मानव का मन अधिक रमता है। इस दृष्टि से अरब एवं भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य और दोनों देशों के कवियों की सौन्दर्यनुभूति में पर्याप्त अन्तर है। अरब देश में सौन्दर्य के नाम पर केवल रेगिस्तान, रेगिस्तान में प्रवाहित होते हुए कुछ साधारण से झरने अथवा ताड़ के कुछ लंबे-लंबे वृक्ष एवं ऊँटों की चाल ही देखने को मिलती हैं यही कारण है कि अरब के कवियों की कल्पना मात्र इतने से सौन्दर्य तक सीमित रह जाती है। इसके विपरीत भारत में प्रकृति के विविध मनोहारी रूपों में अपूर्व सौन्दर्य के दर्शन होते है। उदाहरणार्थ- हिमालय की बर्फ से आच्छान्दित पर्वतश्रेणियाँ, सन्ध्या के समय उन पर्वतश्रेणियों पर पड़ने वाली सूर्य की सुनहली किरणों से उत्पन्न अद्भुत शोभा, सघन आम के बागों की छाया में कल-कल निनाद करते हुए बहने वाली छोटी-छोटी नदियाँ, इन्हीं के निकट लताओं के पल्लवित एवं पुष्पित होने से उत्पन्न वसंत की अनुपम छटा तथा भारत के वनों में विचरण करने वाले विशालकाय हाथियों की मतवाली चाल आदि। भारत में इस प्रकार के अनेक रमणीय प्राकृतिक दृश्य देखने को मिलते हैं, जिनके समक्ष अरब के सीमित प्राकृतिक सौन्दर्य में केवल नीरसता, शुष्कता और भद्देपन की ही अनुभूति होती है। इसके विपरीत भारतीय कवियों को प्रकृति की सुन्दरता का रसास्वादन करने तथा उसकी गोद में रहने का सौभाग्य प्राप्त है क्योंकि भारत में प्राकृतिक सुन्दरता भरी पड़ी है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) भारत में प्रकृति की विविधता एवं उसके विभिन्न अनुपम रूपों की अनुभूति कराई गई है।
(2) रूप एवं विविधता की दृष्टि से भारत एवं अरब की प्रकृति का यथार्थ चित्रण किया गया है।
(3) भाषा- परिमार्जित, प्रवाहयुक्त एवं साहित्यिक।
(4) शैली- विवेचनात्मक।
(ज) भारतीय कवि……………………….. उच्च कोटि का होता है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने स्पष्ट किया है कि हमारे सारे देश में प्रकृति की अनन्त सुषमा बिखरी पड़ी है। इसीलिए
भारतीय साहित्य में प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है।
व्याख्या- भारतीय कवियों का यह सौभाग्य है कि उन्होंने प्रकृति की सुन्दर क्रीड़ास्थली भारतभूमि में जन्म लिया है और उन्हें प्रकृति की सुन्दर गोद में खेलने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। वे भारत की शस्य-श्यामला भूमि में, यहाँ के हरे-भरे उपवनों में विचरण करते रहे हैं और उन्होंने यहाँ की मनोहर सरिताओं, झीलों और सागर-तटों के मनोमुग्धकारी रूप का साक्षात्कार किया है। अपने इसी अनुभव के कारण वे अपने साहित्य में प्रकृति के विभिन्न दृश्यों का सजीव, उत्कृष्ट और हृदयस्पर्शी चित्रण प्रस्तुत कर सके हैं। भारतीय कवियों ने उपमा-उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के लिए सुन्दर-सुन्दर उपमान भी प्रकृति से ही ग्रहण किए हैं। ऐसा सुन्दर वर्णन और ऐसी अलंकार योजना उन उद्देशों के साहित्य में संभव नहीं है, वहाँ की प्रकृति इतनी सुन्दर नहीं हैं। रूखी-सूखी जलवायु वाले प्राकृतिक सौन्दर्य से विहीन देशों के कवि ऐसे सौन्दर्य का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर पाते है; अत: उनके साहित्य में ऐसा मनोरम प्रकृति-चित्रण भी नहीं मिल पाता है। भारत की समृद्ध प्रकृति के कारण ही यहाँ के कवियों का प्रकृति वर्णन और प्राकृतिक सौन्दर्य का ज्ञान उच्च स्तर का है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने भारतीय साहित्य के मनोरम प्राकृतिक वर्णन का कारण भारत की शस्त्र-श्यामला भूमि की निसर्ग-सिद्ध सुषमा को माना है।
(2) भाषा- चिन्तनप्रधान साहित्यिक खड़ी बोली।
(3) शैली- विवेचनात्मक।
(झ) प्रकृति के रम्य .. ……………..भावमग्न होते हैं।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने स्पष्ट किया है कि भारतीय कवियों के लिए प्रकृति का रमणीय रूप रहस्यमयी भावनाओं के संचार का स्रोत रहा है।
व्याख्या- भारत की प्रकृति में अनन्त सौन्दर्य विद्यमान है। भारतीय कवि प्रकृति के इस सौन्दर्य में तन्मय होकर एक विशेष प्रकार के आनन्द का अनुभव करते हैं और आनन्द के इसी अनुभव को अपनी कविता में व्यक्त करते हैं। भारतीय कवियों ने प्रकृति के इस सौन्दर्य का उपयोग अपनी रहस्यवादी भावनाओं को प्रकट करने में भी किया है। संपूर्ण पृथ्वी, अन्तरिक्ष, नक्षत्र, तारे, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, आकाश, अग्नि आदि प्रकृति की नाना वस्तुएँ मनुष्य मात्र के लिए रहस्यमयी बनी हुई हैं। इनके रहस्य को जान पाना बड़ा कठिन है। प्रकृति के क्रिया-कलाप किससे संचालित होते हैं? इसको जानने के लिए वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने जिन तत्वों की खोज की है, वे बुद्धि और ज्ञान से संबंधित होने के कारण नीरस हैं। काव्य सरस होता है, उसमें नीरस वर्णन करने से काम नहीं चलता है। इसीलिए हमारे कविगण नीरसता से दूर रहे हैं। उन्होंने बुद्धिवाद के चक्कर में न पड़कर प्रकृति ने नाना रूपों के पीछे एक अव्यक्त, किन्तु सजीव सत्ता की कल्पना कर ली है। रहस्यवादी कवि उस अव्यक्त सत्ता को देखते हैं और उसके चिन्तन में खो जाते हैं। इसे प्रकृति सम्बन्धी रहस्यवाद कहा जाता है। प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूप हमारे मान में विविध भाव जगाते हैं, परंतु रहस्यवादी कवि का संबंध केवल प्रकृति के मधुर स्वरूप से ही होता है। यह भारतीय साहित्य की देशगत विशेषता है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) प्रकृति में इस संसार को संचालित करने वाली असीम सत्ता के दर्शन करना ही हिन्दी-साहित्य में ‘रहस्यवाद’ कहलाता है।
(2) प्रकृति के रमणीय रूपों में तल्लीनता के कारण ही हमारे भारतीय साहित्य में प्राकृतिक रहस्यवाद का जन्म हुआ।
(3) भाषा- गंभीर, परिमार्जित, शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली।
(4) शैली- गंभीर और विवेचनात्मक।
(5) भावसाम्य- ऐसा ही भाव महादेवी वर्मा की निम्नलिखित पंक्तियों में भी झलकता है
कनक से दिन मोती-सी रात, सुनहली साँझ गुलाबी प्रात।
मिटाता रँगता बारम्बार, कौन जग का यह चित्राधार?
(ज) अंग्रेजी में इस ………………. कमी पाई जाती है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने भारतीय साहित्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालने के लिए अंग्रेजी साहित्य से उसकी तुलना की है।
व्याख्या- श्यामसुन्दर दास जी ने भारतीय साहित्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए भारतीय कवियों की शैलियों पर विचार किया है। भारतीय कवि प्रथम पुरुष एवं अन्य पुरुष में काव्य-रचनाएँ करते हैं, किन्तु इससे उनकी कविता के आदर्शों में भिन्नता नहीं आती ओर न ही इस आधार पर कविता का वर्गीकरण किया गया है, जबकि अंग्रेजी कविता में इस प्रकार की विभिन्नता के आधार पर व्यक्तिगत तथा अव्यक्तिगत भेद किए गए हैं; किन्तु ये विभेद कविता के नहीं, उसकी शैली के हैं। दोनों ही प्रकार की कविताएँ कवि के आदर्शों को व्यक्त करती हैं। एक में यह अभिव्यक्ति आत्मकथन के रूप में होती है तो दूसरी में वर्णनात्मक रूप में। भारतीय कवियों में वर्णनात्मक शैली की ही प्रचुरता है, दूसरी शैली की कविताओं का प्रायः अभाव ही है। लेखक की दृष्टि में यह भारतीय कविता का दुर्बल पक्ष हैं। इससे कविता की ‘गीतिकाव्य’ जैसे महत्वपूर्ण कलात्मक विधा का विकास नहीं हो पाया और इसी कारण पदों के रूप में लिखे गए गीतिकाव्यों का अभाव परिलक्षित होता है।
साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने अंग्रेजी एवं भारतीय कविता का तुलनात्मक विश्लेषण करके भारतीय कविता के दुर्बल पक्ष को उजागर किया है।
(2) भाषा-सरल, सुबोध एवं साहित्यिक खड़ी बोली।
(3) शैली- गम्भीर और विवेचनात्मक।
1–निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) समस्त भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता, उसके मूल में स्थित समन्वय की भावना है।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘डॉ० श्यामसुन्दर दास’ द्वारा लिखित ‘भारतीय साहित्य की विशेषताएँ’ नामक निबंध से अवतरित है।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में लेखक ने स्पष्ट किया है कि भारतीय साहित्य की मूल प्रवृत्ति समन्वयवादी रही है।
व्याख्या- श्यामसुन्दर दास जी कहते हैं कि भारतीय साहित्य में अनेक ऐसी विशेषताएँ हैं, जो विश्व-साहित्य में उसकी एक अलग पहचान बनाती हैं। इनमें भारतीय साहित्य में निहित समन्वयवादी भावना ऊपर है। इसी भावना के कारण भारतीय साहित्य सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित दिखाई देता है। यह समन्वय भावना केवल साहित्यिक क्षेत्रों में ही नहीं अपितु धार्मिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक आदि सभी क्षेत्रों में दृष्टिगोचर होती है। जिस प्रकार नदियाँ अपना पृथक उद्गम, पृथक अस्तित्व और पृथक वैशिष्टय रखते हुए अन्ततः समुद्र में ही विलीन होती हैं, वैसे ही भारत में विद्यमान समस्त पार्थक्य अन्ततः भारतीयता में ही विलीन हो जाते हैं, जो समन्वयवादी प्रवृत्ति के कारण ही संभव है। (ख) आनन्द में विलीन हो जाना ही मानव-जीवन का परम उद्देश्य है। सन्दर्भ- पूर्ववत्। प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में लेखक ने भारतीय दर्शन के आधार पर मानव-जीवन के चरम उद्देश्य का प्रतिपादन किया है। व्याख्या- भारतीय दर्शन में परमात्मा को आनन्दमय बताया गया है। आत्मा, परमात्मा का ही अंश है; अत: दोनों एक ही हैं, किन्तु मायाजन्य अज्ञान के कारण जीवात्मा अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाता है। जीवात्मा, परमात्मा के आनन्दमय स्वरूप को जानकर ही माया से मुक्त होता है और सत्, चित्, आनन्दस्वरूप परमात्मा में विलीन होकर जीवन-मरण के बन्धनों से छुटकारा पाता है। इस प्रकार आनन्दस्वरूप परमात्मा में विलीन होना ही मानव-जीवन का मुख्य लक्ष्य है। साहित्य के अनुशीलन से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे भी ब्रह्मानंद सहोदर कहा जाता है। साहित्य हमें आनंद के धरातल पर खड़ा कर समरसता का अनुभव एवं अखंड विराटत्व से हमारा परिचय कराता है।
(ग) धर्म में धारण करने की शक्ति है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में धर्म के लक्षण तथा भारतीय साहित्य पर उसके प्रभाव को समझाया गया है।
व्याख्या- विद्वान् लेखक के अनुसार धर्म में धारण करने की अद्भुत शक्ति होती है। इसीलिए जिस धर्म की हम रक्षा करते, वह रक्षित धर्म हमें भी धारण करता है। वह हमारी भी रक्षा करता है। इसी गुण के कारण आध्यात्मिक पक्ष से लेकर लौकिक आचार-विचार और राजनीति तक में धर्म का नियन्त्रण स्वीकार किया जाता है। हमारा भारतीय साहित्य भी धर्म से प्रभावित है, इसलिए उसमें आध्यात्मिकता की अधिकता और पवित्र भावों की प्रचुरता तो है, किन्तु लौकिक विचारों की न्यूनता भी हैं।
(घ) हमारी कल्पना अध्यात्म-पक्ष में तो निस्सीम तक पहुँच गई; परन्तु ऐहिक जीवन का चित्र उपस्थित करने में वह कुछ कुण्ठित-सी हो गई है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्। प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में लेखक ने स्पष्ट किया है कि भारतीय साहित्य में प्राय जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा की गई है।
व्याख्या- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में भारतीय साहित्य में अध्यात्म-पक्ष की प्रधानता और लौकिक जीवन की उपेक्षा का प्रकाश डाला गया है। भारत धर्मप्रधान देश है; अत: उसके साहित्य में धर्म-भावना की अधिकता पाई जाती है। भारतीय कवियों ने अपने साहित्य में धार्मिकता का पुट देते हुए आध्यात्मिकता से प्रेरित होकर पवित्र और गंभीर भावनाओं की अधिक अभिव्यक्ति की है। उन्होंने पवित्र भावनाओं का इतना वर्णन अपने साहित्य में किया है कि वे सीमा को भी लाँघ गए हैं और वास्तविक दृश्यमान् जगत् का चित्र यथार्थ रूप में प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। उनके साहित्य में लौकिक और व्यावहारिक पक्ष उपेक्षित बना रहा। साहित्यकार कल्पना जगत् में ही अधिक विचरण करते रहे, जबकि आवश्यकता यह थी कि वे वर्तमान सामाजिक समस्याओं को दृष्टिगत करके, उनके ऊपर भी अपनी लेखनी चलाते।
(ङ) भारत की शस्य-श्यामला भूमि में जो निसर्ग-सिद्ध सुषमा है, उस पर भारतीय कवियों का रहा है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्। प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में इस बात को बताया गया है कि भारत की अनुपम प्राकृतिक सुषमा ने भारतीय कविता को किस प्रकार से प्रभावित किया है।
व्याख्या- भारत की वसुन्धरा शस्य-श्यामला है। यहाँ की धरती नैसर्गिक सुन्दरता से भरपूर है और वह वहाँ के कवियों के मन को अपनी ओर सदैव आकर्षित करती रही है। यहाँ बर्फ से ढकी शैलमालाओं का श्रृंगार, कल-कल करती नदियाँ, झर-झर झरनों, कमलों से शोभित सरोवरों और पुष्पित वृक्षों से लिपटी लताओं का सौन्दर्य किसके मन को नहीं हर लेगा? प्रकृति ने इन्हीं रम्य रूपों में रमकर भारतीय कवि, प्रकृति का सजीव ओर मार्मिक वर्णन कर सके हैं।
(च) प्रकृति के विविध रूपों में विविध भावनाओं के उद्रेक की क्षमता होती है।
सन्दर्भ- पूर्ववत्।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में लेखक ने स्पष्ट किया है कि प्रकृति ने अनेकानेक रूप विभिन्न भावनाओं में वृद्धि करते है।
व्याख्या- श्यामसुन्दर दास जी का कहना है कि व्यक्ति के सम्मुख प्रकृति अपने विभिन्न रूपों में उपस्थित होती है; उदाहरणार्थ- कभी आर्द्र रूप में तो कभी शुष्क रूप में, कभी शीत ऋतु के रूप में तो कभी ग्रीष्म ऋतु के रूप में, कभी वसंत के रूप में तो कभी पतझड़ के रूप में, कहीं घनी अमराइयों की छाया में कल-कल ध्वनि से बहती हुई निर्झरिणी के रूप में तो कहीं नीरसता, शुष्कता और भद्देपन के रूप में, आदि आदि। जिस प्रकार प्रकृति के विभिन्न रूप हैं, उसी प्रकार व्यक्ति के मनमस्तिष्क में भी विभिन्न भावनाएँ विद्यमान होती हैं, इनमें से कुछ दमित होती है तो कुछ मुक्त। यही कारण है कि प्रकृति के विभिन्न रूप व्यक्ति के मन में विविध भावनाओं की वृद्धि करते हैं। प्रकृति के नाना रूपों में एक अव्यक्त किन्तु सजीव सत्ता का आभास होता है। विविध और विभिन्न भावनाओं में वृद्धि होने के कारण ही व्याक्ति के अभिव्यक्ति के माध्यम में भी विविधता और विभिन्नता की विद्यमानता रहती है।
1– ‘भारतीय साहित्य की विशेषताएँ’ पाठ का सारांश लिखिए।
उ०- भारतीय साहित्य की विशेषताएँ निबन्ध में डॉ० श्यामसुन्दर दास जी ने भारतीय साहित्य की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है।
लेखक कहते हैं कि भारतीय साहित्य का विश्व साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। उसकी बहुत सी विशेषताएँ है जो उसकी उसको अलग पहचान बनाती है। समन्वय की भावना भारतीय साहित्य की पहली और महान् विशेषता है। अपनी इस विशेषता के कारण ही हमारा भारतीय साहित्य विश्व के अन्य साहित्यों से भिन्न, किन्तु सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित दिखाई देता है। भारत की सामाजिक संरचना को देखें तो यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्ण मिलते हैं। ये चारों एक-दूसरे पर निर्भर है तथा एक के बिना दूसरा पंगु है। इसी तरह ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संयास आश्रम में गहरा तालमेल दिखाई देता है। इसी प्रकार साहित्य तथा मूर्तिकला, वास्तुकला, काव्य, चित्रकला, संगीत का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उनमें सुख-दुःख, हर्ष-विषाद तथा विरोधी भावों को एक साथ संजोकर प्रस्तुत किया जाता है। हमारे साहित्य में किसी भी विद्या में सुख-दुःख में समन्वय दिखाया जाता है। इसी तरह उन्नति और अवनति में तथा हर्ष और विषाद जैसे विरोधी भावों में भी समन्वय दिखाकर एक आलौकिक आनन्द में इन सबका अंत हो जाता है। यही आनन्द सबको अपने में विलीन कर देता है। यही साहित्यिक समंवय है। हमारे नाटकों में, कहानियों में और साहित्य में सर्वत्र यही समन्वय दिखता है। हमारे नाटकों में सुख और दुःख के प्रबल घात-प्रतिघात दिखाए जाते हैं, पर सबका अंत आनन्द में ही किया जाता है। क्योंकि हमारा ध्येय जीवन का आदर्श रूप उपस्थित कर उसे उन्नत बनाना रहा है। इस कारण हमारे प्रयासों में भविष्य की सम्भावित उन्नति की चिंता निहित होती है। इसी कारण हमारे साहित्य में पाश्चात्य शैली के दुखान्तः नाटकों का अभाव पाया जाता है। क्योंकि दुःख व्यक्ति को अवसादग्रस्त कर देता है और अवसादग्रस्त मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता।
हमारे नाटकों की विशेषता है कि उनमें दुःख का भी आनंद से समन्वय करके उसके अवसादी प्रभाव को समाप्त कर दिया जाता है। अपवादस्वरूप कुछ नाटककारों ने दो-चार दुःखान्त नाटकों का प्रणयन अवश्य किया है, परन्तु इन्हें पाश्चात्य आदर्श का अनुकरण मात्र कहा जा सकता है। लेखक कहता है कि भारतीय साहित्य में आनन्द की भावना अत्यधिक महान् हैं पूर्व में मन ने यदि किसी आनन्द का अनुभव किया है तो उसे स्मरण कर नृत्य मग्न होने के लिए उद्यत रहता है। यद्यपि हिन्दी साहित्य के विकास का समस्त युग विदेशीय तथा विजातीय शासकों का था लेकिन साहित्य ने आनन्द में इस कारण कोई व्यवधान नहीं आया। विदेशी शासकों के अधीन होने के कारण भी कभी समन्वय की भावना को अनदेखा नहीं किया गया। आधुनिक युग के हिन्दी कवियों में पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करने की छटपटाहट दिखाई देती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी कवि एक तरह के हैं उनमें कुछ कवि ऐसे भी हैं जो भारतीय संस्कृति के पोषक हैं और भारतीय साहित्य की धारा को वर्तमान में अक्षुण्ण रख रहे हैं। थोड़ा सा समझने पर ही साहित्यिक समन्वयवाद का रहस्य हमारी समझ में आ सकता है। अगर हम भारतीय कलाओं का विश्लेषण करें तो उनमें भी समन्वय की भावना दिखाई पड़ती है। लेखक ने सारनाथ की भगवान बुद्ध की प्रतिमा का उल्लेख किया है। भारतीय साहित्य और कलाओं के समन्वय की भावना को देखकर उसका रहस्य जानने की इच्छा होती है। लेखक ने इसका समाधान भारतीय दर्शन के आधार पर किया है। भारत में सभी दर्शनों में आत्मा और परमात्मा में स्वरूप की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं माना जाता है। दोनों एक ही है, दोनों को सत्, चित् और आनन्द स्वरूप बताया गया है। जीवात्मा द्वारा अपने बालक स्वरूप को पहचानकर आनन्दमय परमात्मा में लीन हो जाना ही मानव-जीवन का मुख्य उद्देश्य है।
लेखक का मत है कि भारतीय दर्शन में धर्म की इतनी व्यापक व्याख्या की गई है कि उससे जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है। धर्म केवल हमारे आध्यात्मिक जीवन पर ही प्रभाव नहीं छोड़ता वरन् सामान्य आचार व्यवहार के अलावा वह हमारे साहित्य को भी अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। हमारे वेदों, पुराणों तथा दूसरे धर्मग्रन्थों में जो कुछ लिखा गया है, उसका प्रभाव सारे समाज के आचार-व्यवहार पर पड़ा है। एक ही ईश्वर की अवधारणा, ब्रह्म विषयक सोच, अवतारों में आस्था या अनेक देवी-देवताओं के प्रति मान्यता संबंधी दृष्टिकोण धर्म-भावना का ही प्रभाव है। यह सब धार्मिक भावों की अधिकता का ही परिणाम है, अर्थात् धार्मिक प्रभाव के कारण हमारा साहित्य आदर्शात्मक अधिक और व्यावहारिक कम है। इस मनोवृति के कारण ही साहित्य में लौकिक जीवन की अनेक रूपता का प्रदर्शन न हो सका। धार्मिक भावना से प्रेरणा लेकर जिस प्रकार सुन्दर साहित्य की सृष्टि हुई, वह वास्तव में हमारे लिए गौरव की वस्तु है। परन्तु जैसे समाज में धर्म के नाम पर अनेक दोष होते हैं, ऐसे ही साहित्य में भी धर्म के नाम पर अनेक दोष होते हैं। हिन्दी साहित्य में हम ये दोष दो रूपों में देखते हैं, एक तो साम्प्रदायिक कविता एवं नीरस उपदेश तथा दूसरा कृष्ण को आधार बनाकर की गई श्रृंगारी कविता।
लेखक कहते हैं कि शृंगारी कवियों ने धर्म के नाम राधा-रानी और गिरिधर लाल को आधार बनाकर जो कविताएँ लिखी, उनमें वासना का कलुष स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसे वासनाजन्य उद्गार समाज का भला नहीं कर सकते, पर उसे बिगाड़ते अवश्य है। यद्यपि कुछ कवियों ने पवित्र भावना एवं शुद्ध प्रेम की अभिव्यक्ति भी की है, तथापि ऐसी कविताएँ बहुत कम है। भक्तिकाल के साहित्य में पवित्र भक्ति का जो ऊंचा आदर्श था, वह आगे चलकर रीतिकाल में शारीरिक वासनाजन्य प्रेम के रूप में बदलकर कलंकित हो गया। लेखक कहता है कि प्रत्येक देश की जलवायु, दशाओं, स्थिति का प्रभाव वहाँ के साहित्य पर अवश्य पड़ता है। विश्व में सभी देशों की स्थिति एक समान नहीं है, उनमें जलवायु तथा वातावरण का अन्तर होता है। यहाँ कही मरूस्थल, कहीं विस्तृत मैदान, कहीं जलावृत द्वीप तथा कहीं विस्तृत भूखंड है। भारत की रमणीयता के प्रति कवियों का विशेष अनुराग रहा है। यद्यपि प्रकृति प्रत्येक रूप में मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करती है, परन्तु फिर भी प्रकृति के सुन्दरतम रूपों में मानव का मन अधिक रमता है। अरब देश में सौन्दर्य के नाम पर केवल रेगिस्तान, कुछ साधारण झरने अथवा ताड़ के कुछ लम्बे-लम्बे वृक्ष एवं ऊँटों की चाल ही देखने को मिलती है। यही कारण है उनकी कल्पना मात्र इतने सौन्दर्य तक सीमित रह जाती है। इसके विपरीत भारत में प्रकृति के विभिन्न मनोहारी रूपों में अपूर्व सौन्दर्य के दर्शन होते है जैसे- हिमालय की बर्फ से ढकी पर्वतश्रेणियाँ, उन चोटियों पर पड़ने वाली सुनहरी किरणों से उत्पन्न शोभा, आम के बागों की छाया में बहने वाली छोटी-छोटी नदियाँ, वसन्त की छटा तथा वनों में विचरण करने वाले विशालकाय हाथियों की मतवाली चाल आदि।
भारत के इन रमणीय दृश्यों के समक्ष अरब के सीमित प्राकृतिक सौन्दर्य में केवल नीरसता, शुष्कता और भद्देपन की अनुभूति होती है। भारतीय कवियों को इस सौन्दर्य का रसास्वादन करने का सौभाग्य प्राप्त है यही कारण है कि भारतीय कवि प्रकृति के जितने मार्मिक व सजीव चित्र अंकित करते है वैसे रुखे-सूखे देश के निवासी नहीं कर सकते। लेखक कहता है कि भारत की प्रकृति में अनन्त सौन्दर्य विद्यमान है। भारतीय कवि प्रकृति के इस सौन्दर्य में तन्मय होकर एक विशेष प्रकार के आनंद कर अनुभव करते हैं और इसी आनंद को अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं। संपूर्ण पृथ्वी, अन्तरिक्ष, नक्षत्र, तारे, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, आकाश, अग्नि आदि प्रकृति की नाना वस्तुएँ मनुष्य मात्र के लिए रहस्यमयी बनी हुई है। जिसे जान पाना कठिन है। इनको जानने के लिए दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने जिन तत्वों की खोज की है, वे बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्धित होने के कारण नीरस है। काव्य सरस है इसलिए हमारे कविगण नीरसता से दूर रहे हैं। इन्होंने बुद्धिवाद के चक्कर में न पड़कर प्रकृति के नाना रूपों के पीछे एक अव्यक्त, सजीव सत्ता की कल्पना कर ली।
लेखक कहता है कि प्रकृति के विभिन्न रूपों में मानव-मन की अनुभूतियों को जगाने की सामर्थ्य होती है। प्रकृति के माध्यम से रहस्यवादी भावों को व्यक्त करने की परम्परा हमारे साहित्य की देशगत विशेषता है, जो भारत की मनमोहन प्रकृति से प्रभावित है। ये विशेषताएँ हमारे साहित्य में भावों का समावेश करती है। अंग्रेजी कविता मे इस प्रकार की भिन्नता के आधार पर व्यक्तिगत तथा अव्यक्तिगत भेद किए गए हैं। किन्तु ये भेद कविता के नहीं, उसकी शैली के हैं। ये दोनों कविताएँ कवि के आदर्शों को व्यक्त करती है। भारतीय कवियों ने वर्णात्मक शैली का प्रयोग अधिक किया है। कुछ भक्त कवियों ने नीतिकाव्य का भी सृजन किया है। यहाँ गीतिकाव्यों का अभाव परिलक्षित होता है। साहित्य की अतिरिक्त विशेषताओं से परिचित होने के लिए हमें उसके शब्द समुदाय पर ध्यान देना पड़ेगा। वाक्य निर्माण के भेदों, अलंकारों, अक्षरों, मात्रिक एवं लघुमात्रिक छन्दों को जानना होगा। ये विभिन्न अन्तर स्पष्ट रूप से प्रत्येक देश के साहित्य में दिखाई पड़ते है।
प्रश्न– भारतीय साहित्य धर्म से किस प्रकार प्रभावित है?
उ०- धर्म केवल हमारे आध्यात्मिक जीवन पर ही अपना प्रभाव नहीं छोड़ता वरन् सामान्य आचार-व्यवहार के अलावा वह हमारे साहित्य को भी अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। हमारे वेदों, पुराणों तथा दूसरे धर्मग्रन्थों में जो कुछ लिखा गया है, उसका प्रभाव सारे समाज के आचार-व्यवहार पर पड़ा है। एक ही ईश्वर की अवधारणा, ब्रह्म विषयक सोच, अवतारों में आस्था या अनेक देवी-देवताओं के प्रति मान्यता सम्बन्धी दृष्टिकोण धर्म-भावना का ही प्रभाव है। इन भावों की अधिकता ने एक ओर हमारे साहित्य में पवित्र भावनाएँ भरकर जीवन के विषय में गहराई से सोचना सिखाया तो दूसरी ओर इसी कारण से लौकिक भावों की कमी होने लगी। धार्मिक प्रभाव के कारण हमारा साहित्य आदर्शात्मक अधिक और व्यवहारिक कम है।
प्रश्न– साहित्य पर जलवायु तथा भौगोलिक स्थिति का प्रभाव क्यों पड़ता है?
उ०- प्रत्येक देश की जलवायु तथा भौगोलिक स्थिति भिन्न है, जिसका प्रभाव वहाँ के साहित्य पर पड़ता है, जो बहुत स्थायी होता है। स्थानों की प्राकृतिक सुन्दरता भिन्न-भिन्न होती है, कहीं मरूस्थल है, तो कहीं विशाल मैदान तथा कहीं बर्फ से ढकी चोटियाँ। कवि इनका वर्णन अपने साहित्य में करते हैं, जो प्रत्येक देश में भिन्न-भिन्न है इसलिए जलवायु तथा भौगोलिक स्थिति का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है।
प्रश्न– भारतीय नाटकों का अवसान आनन्द में ही किया जाता है क्यों?
उ०- भारतीय नाटकों में सर्वत्र समन्वय भाव पाया जाता है। सुख और दुःख के प्रबल घात-प्रतिघात दिखाए जाते हैं, पर सबका अन्त आनन्द में इसलिए किया जाता है क्योंकि इनका ध्येय जीवन का आदर्श रूप उपस्थित कर उसे उन्नत बनाना है। जिससे लोग उससे प्रेरणा लेकर अपने जीवन को उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने में सफल हो सके। हमारे प्रयासों में भविष्य की सम्भावित उन्नति की चिन्ता निहित होती है। हमारे नाटकों की विशेषता यह होती है कि उनमें दुःख का भी आनंद से समन्वय करके उसके अवसादी प्रभाव को समाप्त कर दिया जाता है।
प्रश्न—भारतीय साहित्य, अंग्रेजी साहित्य से किस प्रकार भिन्न है? ।
उ०- भारतीय साहित्य में कवि प्रथम पुरुष एवं अन्य पुरुष में काव्य रचनाएँ करते हैं किन्तु इससे उनकी कविता के आदर्शों में भिन्नता नहीं आती और न ही इस आधार पर कविता का वर्गीकरण किया गया है। जबकि अंग्रेजी साहित्य में इस प्रकार की विभिन्नता के आधार पर व्यक्तिगत तथा अव्यक्तिगत भेद किए गए है। किन्तु ये भेद कविता के नहीं, उसकी शैली के हैं। दोनों ही कविताएँ कवि के आदर्शों को व्यक्त करती है।
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