UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 6 आनन्द की खोज, पागल पथिक (राय कृष्णदास)

UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 6 आनन्द की खोज, पागल पथिक (राय कृष्णदास)

आनन्द की खोज, पागल पथिक (राय कृष्णदास)

UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 5 आनन्द की खोज, पागल पथिक (राय कृष्णदास)
UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 4

लेखक पर आधारित प्रश्न


प्रश्न 1 — राय कृष्णदास का जीवन परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य में उनका स्थान बताइए ।।

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ
उत्तर— लेखक परिचय- गद्य-गीत के प्रवर्तक राय कृष्णदास का जन्म काशी के एक सम्भ्रान्त परिवार में 13 नवम्बर, सन् 1892 ई० को हुआ था ।। इनके पिता का नाम प्रहलाददास था ।। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त की ।। इसके बाद इन्हें शिक्षा-प्राप्ति के लिए विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया ।। लेकिन जब ये बारह वर्ष के ही थे, तब इनके पिता स्वर्गवासी हो गए, जिस कारण इनका शिक्षा का क्रम टूट गया ।। राय कृष्णदास जी ने स्वाध्याय द्वारा हिन्दी, अंग्रेजी व संस्कृत भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया ।। ये भारतेन्दु जी के निकट संबंधी थे; अत: इनके पिता हिन्दी भाषा-प्रेमी थे ।। पिता से प्रभावित होने के कारण राय कृष्णदास भी हिन्दी साहित्य से अगाध प्रेम करने लगे ।। आठ वर्ष की अल्पायु में ही ये छन्द-रचना करने लगे थे ।। साहित्य-क्षेत्र में निरन्तर संलग्न रहते हुए इनका सम्पर्क रामचन्द्र शुक्ल, जयंशकर प्रसाद तथा मैथिलीशरण गुप्त आदि साहित्यकारों से हुआ ।। भारतीय कला आन्दोलन में राय कृष्णदास का स्थान अद्वितीय है ।। उन्होंने ‘भारत-कला-भवन’ नामक एक विशाल संग्रहालय स्थापित किया था, जो अब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का एक विभाग है ।। यह संग्रहालय विश्व के प्रमुख संग्रहालयों में से एक है ।। भारत सरकार द्वारा सन् 1980 ई० में इन्हें ‘पद्मभूषण’ उपाधि से विभूषित किया गया ।। सन् 1985 ई० में ये इस नश्वर संसार से सदैव के लिए विदा हो गए ।।
हिन्दी साहित्य में स्थान- राय कृष्णदास भारतीय कला के पारखी और साहित्य के मनस्वी साधक थे ।। इन्हें गद्य-गीत विधा का प्रथम रचनाकार माना जाता है ।। गद्य-गीतकार के अतिरिक्त एक कहानीकार एवं निबन्धकार के रूप में भी इन्होंने अपार ख्याति अर्जित की है ।। भारतीय साहित्य में इन्हें हिन्दी के प्रतिनिधि कहानीकार के रूप में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है ।। हिन्दी साहित्य जगत में राय कृष्णदास जी का नाम सदैव अमर रहेगा ।।


2 — राय कृष्णदास की कृतियों का उल्लेख करते हुए उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए ।।
उत्तर— कृतियाँ- राय कृष्णदास जी की कृतियाँ इस प्रकार हैं
कविता-संग्रह- खड़ी बोली में भावुक’ तथा ब्रजभाषा में ‘ब्रजरज’ ।।
कहानी-संग्रह- अनाख्या, सुधांशु, आँखों की थाह ।।
कला-संबंधी- भारतीय मूर्तिकला, भारत की चित्रकला ।।
गद्य-काव्य-साधना, छायापथ ।।
निबन्ध-संलाप, प्रवाल ।।
अनूदित- खलील जिब्रान के ‘दि मैड मैन’ का ‘पगला’ नाम से हिन्दी-रूपान्तर ।।

भाषाशैली- राय कृष्णदास जी ने अपनी भाषा का गठन संस्कृत के तत्सम शब्दों के आधार पर किया है किन्तु तत्सम शब्दों का चयन करते समय इन्होंने व्यावहारिकता को विशेष महत्व प्रदान किया है ।। संस्कृत शब्दों के साथ-साथ इन्होंने उर्दू के व्यावहारिक शब्दों को भी ग्रहण किया ।। उर्दू के हमसाया, खैर, ताज्जुब, दुरुस्त आदि शब्द इनकी भाषा में बार-बार प्रयुक्त हुए हैं ।। इन्होंने अपनी भाषा में प्रान्तीय और ग्रामीण शब्दों का भी प्रयोग किया है ।। यत्र-तत्र पण्डिताऊ शब्दों के प्रयोग भी मिलते हैं, लेकिन ऐसे शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक नहीं किया गया है ।। राय कृष्णदास जी ने शुद्ध हिन्दी को स्वीकार किया ।। इसके लिए इन्होंने बहुत से उर्दू मुहावरों का रूप भी बदल दिया है ।। जैसे– ‘दिल का छोटा है’ का रूप इन्होंने ‘हृदय से लघुतर’ कर दिया है ।। राय कृष्णदास ने अधिकतर गद्य-गीतों की रचना की है, जिन्हें गद्य-काव्य भी कहा जाता है ।। राय कृष्णदास की भाषा उनकी कवित्वपूर्ण भावुकता को अभिव्यक्त करने में पूर्णतया समर्थ है ।। इन्होंने भावात्मक शैली का सर्वाधिक प्रयोग किया है ।।


इनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता चमत्कारप्रियता है ।। इस शैली में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है ।। प्रकृति के सुन्दर रूप का चित्रण करते समय राय साहब की शैली में चित्रात्मकता का गुण आ जाता है ।। प्राचीन इतिहास और भारतीय कला से संबंधित खोजपूर्ण निबन्धों में राय साहब की शैली गवेषणात्मक हो गई है ।। इन्होंने प्राय: सभी रचनाओं में सीधी-सादी बात को चमत्कारपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है ।। इससे इनकी शैली आलंकारिक हो गई है ।। कोमल भावनाओं को सजीव शब्दों में प्रकट करना राय कृष्णदास जी की गद्य-शैली की प्रमुख विशेषता है ।। इनकी गद्य-शैली भावात्मक, सांकेतिक और कवित्वपूर्ण है ।। इन्होंने हिन्दी-गद्य को एक नई दिशा प्रदान करके अपनी मौलिकता का परिचय दिया ।।


1 — निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए – UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ

(क) मुझे यह सोचकर …………………….मैं अवाकथा ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘राय कृष्णदास’ द्वारा लिखित ‘आनन्द की खोज, पागल पथिक’ नामक गद्यगीतों से उद्धृत है ।। प्रसंग- लेखक के विचारानुसार संसार का प्रत्येक प्राणी इस ब्रह्माण्ड के बाहर तक जाकर भी आनन्द की खोज करना चाहता है, परन्तु सच्चा सुख तो अपने भीतर ही है ।। व्याख्या- लेखक कहता है कि आनन्द की खोज में भटकते हुए समय व्यर्थ नष्ट करने पर मुझे यह अचरज हो रहा है कि इस आनन्द के भंडार को देने वाली संसार रूपी लता में मुझे कण मात्र का आनन्द भी प्राप्त नहीं हो पाया और मुझे आनन्द के बदले में रुदन ही प्राप्त हो पाया ।। बाह्य जगत में आनन्द की खोज में भटकते हुए थक जाने पर लेखक की आत्मा से अज्ञान का आवरण हट गया ।। अब उसने समझा कि उसने इतना मूल्यवान समय व्यर्थ के प्रयत्न में खो दिया हैं लेखक को ज्ञात हुआ कि आनन्द तो मनुष्य के भीतर ही निहित है ।। तब उसे ऐसा जान पड़ा कि सृष्टि का प्रत्येक कण उसकी हँसी उड़ाता हुआ उससे यही प्रश्न पूछ रहा था कि अरे मूर्ख! तुमने सारी दुनिया छान मारी है, पर कभी अपने अन्दर भी आनन्द को ढूँढ़ा है ? या सारी उम्र ऐसे ही व्यर्थ में गँवा दी है ।। प्रकृति के इस प्रश्न पर लेखक की आत्मा मौन और लेखक स्वयं चकित हो रहा था ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) संसार के सभी बाह्य पदार्थों से आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि आनन्द आन्तरिक भाव है, अतः उसे बाहर खोजना व्यर्थ है ।। (2) लेखक का संदेश है कि आनन्द की प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा को पहचानना होगा ।। (3) भाषा- शुद्ध साहित्यिक एवं कवित्वपूर्ण खड़ी बोली ।। (4)शैली- भावात्मक और अनुभूतियुक्त ।। (5) भावसाम्य- संत कबीर ने भी ऐसे ही भाव व्यक्त किए हैं
कस्तुरी कुंडी बसै, मृग ढूँदै.बन माहिं ।।
ऐसै घटि-घटि राम है, दुनिया देखै नाहिं ।।

(ख) सच तो यह है ।। जब ……………………. — अपने आप में मिली ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- लेखक ने इस गद्यगीत के माध्यम से मनुष्य को स्वयं में झाँककर देखने के लिए प्रेरित किया है ।।

व्याख्या– लेखक कहता है कि मैं आनन्द की खोज में बहुत समय तक भटकता रहा ।। परंतु वह मुझे नहीं मिला ।। जब मैंने उसे विश्व के अंश अर्थात् स्वयं में झाँककर नहीं देखा तो मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मैंने सारी सृष्टि में आनन्द की खोज की ? जिस आनन्द को मैं स्वयं को प्रदान नहीं कर सका भला उसे दूसरे व्यक्ति मुझे कैसे प्रदान करने में समर्थ होते ? परन्तु आनन्द की खोज का जो ज्ञान मुझे स्वयं न हो पाया वह मुझे संसार से मिल गया और आनन्द की खोज में भटकते हुए जो आनन्द मुझे संसार से न मिल सका वह मुझे स्वयं से ही मिल गया ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक का कहना है कि मनुष्य के स्वयं के अन्दर ही आनन्द विद्यमान है ।। (2) भाषा- शुद्ध साहित्यिक एवं कवित्तपूर्ण खड़ी बोली (3) शैली- भावात्मक और अनुभूतियुक्त ।।

(ग) मैंने सखेद कहा ………… — ………………छक जाओगे ।। ‘ UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 5 शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द)

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- लेखक ने अपने गद्यगीत के इस अंश में, संसार में पागल बने पथिक के समान दौड़ते मनुष्यों को सही मार्ग दिखाने का प्रयास किया है ।। वह नहीं चाहता कि मृगतृष्णा अर्थात् आनन्द की खोज में भटकता पथिक रूपी मनुष्य इस संसार में कष्ट उठाता रहे ।।

व्याख्या– लेखक आनन्द की खोज में भटके हुए प्राणी को समझाता हुआ कहता है कि हे पथिक! तुम भारी भ्रम में पड़ गए हो ? तुम इस विश्व के बाहर जाकर आनन्द की खोज तो करना चाहते हो, पर तुम संसार के बाहर कैसे पहुँच सकते हो ? क्योंकि यह पृथ्वी घड़े के समान गोलाकार है, इसलिए विश्वमण्डल में तुम जिस स्थान से चलोगे, लौटकर फिर वहीं पहुँच जाओगे ।। तुम इस संसार के बाहर ऐसे लोक की कल्पना कर रहे हो, जहाँ सुख-ही-सुख है एवं दुःख का नामोनिशान भी नहीं है, लेकिन तुम्हारी यह कल्पना निर्मूल है; क्योंकि तुम ब्रह्माण्ड के बाहर के सुख की कल्पना इसी संसार में पूर्ण सुख के आधार पर कर रहे हो और जब तुम्हें इसी संसार में पूर्ण सुख नहीं मिल रहा है तो उस काल्पनिक संसार में सुख कैसे मिल सकता है ? लेखक पथिक को सम्बोधित करते हुए कहता है कि यह संसार सुख और दुःख से परिपूर्ण है ।। इस संसार में सुख के साथ दु:ख भी जुड़ा हुआ है ।। सुख-दुःख में से दुःख को छोड़कर सुख को ग्रहण कर लो ।। इसी प्रयत्न में तुम्हें सुख मिलेगा ।। तुम्हारे द्वारा कल्पित एवं निरन्तर प्राप्त होने वाला सुख तो तुम्हारे लिए वेदना का विषय बन जाएगा ।। तुम सोचो कि बिना नवीनता के भी कहीं सुख मिलता है ? सुख के लिए नवीनता आवश्यक है; अतः तुम्हारी कल्पना बिलकुल झूठी और व्यर्थ है, इसलिए तुम पूर्ण सुख को प्राप्त करने की कल्पना त्याग दो ।। ऐसा करने से तुम्हें इसी संसार में इतना सुख मिलेगा कि तुम पूरी तरह सन्तुष्ट हो जाओगे, लेकिन वह सुख तुम्हें अपने अन्दर मिलेगा, बाहर नहीं ।। उसे अपने भीतर ही खोजना पड़ेगा ।। तुम यही करो ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) इस संसार के बाहर सुख की कल्पना करना भ्रामक और मिथ्या है ।। (2) सुख का सच्चा अनुभव इसी संसार में होता है, उसे अपने अन्दर ही खोजना चाहिए ।। (3) सुख के लिए नवीनता अपेक्षित है ।। (4) भाषा- शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली ।। (5) शैली- भावात्मक और सम्बोधनात्मक ।।
2 — निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) आनन्द के बदले में रूदन और शोच परिपोषित कर रहा था ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘राय कृष्णदास’ द्वारा लिखित ‘आनन्द की खोज, पागल पथिक’ नामक गद्यगीत से अवतरित है ।। प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में लेखक ने आनन्द की खोज की विवेचना प्रस्तुत की है ।। व्याख्या- प्रस्तुत पंक्ति में लेखक कहता है कि जीव जब तक बाह्य जगत् में आनन्द की खोज करता है, तब तक उसे आनन्द की प्राप्ति नहीं होती ।। आनन्द की खोज में वह कभी मंदिर, कभी मस्जिद तथा कभी किसी महात्मा की शरण में जाता है ।। इन सभी क्रियाओं से अन्तत: वह निराश हो जाता है और दुःख प्राप्त करता है, जिसका परिणाम रुदन और चिन्ता है ।। इन बाह्याचारों के . स्थान पर व्यक्ति यदि अपने भीतर ही आनन्द को खोजे तो निश्चय ही उसे आनन्द की प्राप्ति हो जाएगी ।।
कबीर ने कहा भी है-
कबीर खांडी छाड़ि कै, काँकर चुनि-चुनि खाय ।।
रतन गँवाया रेत में, फिर पाछे पछिताय॥

(ख) यहाँ तो सुख के साथ दुःख लगा है और उससे सुख को अलग कर लेने के उद्योग में भी एक सुख है ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में संसार की सुख और दुःखपूर्ण स्थिति पर प्रकाश डालते हुए सुख प्राप्ति का उपाय सुझाया गया है ।।
व्याख्या- प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि संसार सुख-दुःखमय है ।। यहाँ सुख के साथ दुःख और दुःख के साथ सुख जुडा हुआ है ।। व्यक्ति दुःखी इसलिए है कि वह केवल सुख चाहता है, जबकि संसार में वास्तविक सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसीलिए सुख भोगते समय भी व्यक्ति दुःख की कल्पना करके दुःखी होता है, जब कि सुख चाहने वाले को दुःख भोगते समय सुख की कल्पना करके सुख का अनुभव करना चाहिए ।। कहने का तात्पर्य यह है कि हमें सुख और दुःख में से सुख को अलग करके देखने की आवश्यकता है ।। जब हम दुःख में से सुख को अलग करने का प्रयास करेंगे, तब उस प्रयत्न में हमें इसलिए सुख का अनुभव होगा कि हमारे ध्यान में वह प्राप्तव्य सुख ही रहेगा ।। जब हम इस कला में निपुण हो जाएँगे, तब हमें अपार सुख की अनुभूति होगी ।। (ग) बिना नव्यता के सुख कहाँ ? सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- नवीनता को सुख का मूलाधार बताकर लेखक ने निरन्तर नवीनता की सृष्टि के लिए उत्प्रेरित किया है ।। व्याख्या- प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि नवीनता में सुख है ।। बिना नवीनता के सुख की प्राप्ति नहीं होती ।। यदि तुम निरन्तर एक जैसा सुख भोगते रहोगे, तो वही सुख तुम्हें दुःख रूप प्रतीत होने लगेगा; अत: निरन्तर प्राप्त होने वाले सुख से सुख की अनुभूति नहीं हो सकती ।। सुख के अस्तित्व के लिए भी परिवर्तन अत्यावश्यक है ।। यदि कोई नित्यप्रति अपना मनपसन्द स्वादिष्ट भोजन करता रहे तो एक दिन वह भी उसे अरुचिकर प्रतीत होगा ।। इसलिए परम सुख की अनुभूति के लिए दुःख परमावश्यक है ।। स्वर्ग में यद्यपि सभी सुख है किन्तु वहाँ नवीनता नहीं, इसलिए महादेवी वर्मा उसे भी ठुकरा देती हैं

क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करुणा का वरदान
रहने दो हे देव! अरे! यह मेरा मिटने का अधिकार ।।

अन्य परीक्षोपयोगीप्रश्न
1 — ‘आनन्द की खोज, पागल पथिक’ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।
उत्तर— प्रस्तुत गद्यगीत ‘आनन्द की खोज, पागल पथिक’ में राय कृष्णदास ने आनन्द की खोज कर अपने विचार व्यक्त किए है और आत्मा को ऐसा पथिक माना है जो आनन्द की खोज में भटकता रहता है ।। लेखक कहता है कि मैं आनन्द की खोज में जाने कहाँ-कहाँ नहीं भटका ।। परंतु जब हर जगह से मेरी आत्मा को उसी प्रकार विलाप करते हुए वापस लौटना पड़ा ।। जिस प्रकार चन्द्रमा की ओर से चकोर लड़खड़ाता हुआ जाता है ।। मुझे किसी भी यत्न से आनन्द की प्राप्ति न हो पाई ।। मुझे समझाने वाला कोई व्यक्ति न था और मैं बार-बार यही सोचकर विलाप करता रहा कि ईश्वर के होते हुए भी मैं अनाथ कैसे हो गया हूँ क्या मैं जगत से बाहर हो गया हूँ ?


मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता रहा है कि इस आनन्द के भंडार संसार में मुझे अणुमात्र भी आनन्द प्राप्त नहीं हो सका ।। मुझे आनन्द तो प्राप्त नहीं हो पाया बल्कि मैं रुदन और सोच में घिर गया ।। लेखक कहता है कि जब मैं आनन्द को खोजते-खोजते थक गया और मुझे कहीं भी आनन्द नहीं मिला, तब मेरी आत्मा से अज्ञान का आवरण हट गया ।। अब मैंने समझा कि मैंने इतना मूल्यवान समय नष्ट कर दिया ।। लेखक को जब ज्ञात हुआ कि आनन्द तो मनुष्य के भीतर ही समाहित है तब उसे ऐसा लगा जैसे सारी सृष्टि उसकी हँसी उड़ा रही है और उससे प्रश्न पूछ रही है कि अरे मूर्ख! तुने सारी सृष्टि ढूँढ़ मारी है, पर कभी अपने अंदर भी आनन्द को ढूँढ़ा है या सारी उम्र ऐसे ही व्यर्थ में गवाँ दी है ? इस प्रश्न पर लेखक की आत्मा मौन और वह चकित हो गया ।।

UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 5 शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द)
लेखक कहता है कि यह सच है कि जब मैंने स्वयं में आनन्द को न खोजा, जो स्वयं में विश्व का एक अंश है ।। तब मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मैंने सारी दुनिया छान मारी है ।। जो वस्तु अर्थात आनन्द मैं स्वयं को प्रदान नहीं कर सका ।। वह दूसरे अर्थात् सृष्टि में मुझे कैसे प्राप्त हो सकता था ।। परन्तु एक ज्ञान जो मैं स्वयं को कभी प्रदान नहीं कर सका उसके विषय में मुझे सृष्टि ने सिखाया कि सच्चा आनन्द तो स्वयं के भीतर छिपा हुआ है तथा जो आनन्द मुझे सृष्टि से नहीं मिल पाया वह मुझे स्वयं के भीतर झाँकर प्राप्त हुआ है ।। लेखक कहता है कि मैंने आनन्द की खोज में भटकते हुए आत्मा रूपी पथिक से पूछा कि तुम कहाँ से चले हो और कहाँ जा रहे हो ? तुम्हारी यात्रा बहुत लंबी मालूम हो रही है क्योंकि तुम्हारा तन बहुत दुर्बल हो रहा है और तुम्हारे वस्त्र फटकर तुम्हारे शोकग्रस्त हृदय की लाज रख रहे हैं ।। अथक चलते रहने के कारण तुम्हारे पैरों से रक्त बह रहा है ।। क्या बात है ? तुम इतने व्यथित क्यों हो ? .


उस पथिक ने दीनता ने उत्तर दिया, मित्र मै इस संसार में अपना मार्ग भूल गया हूँ ।। मैंने सुना है कि इस संसार से बाहर एक ऐसा स्थान है जहाँ सुख और विलास की सभी सामग्रियाँ प्राप्त होती है परंतु वहाँ लेशमात्र भी दुःख नहीं है ।। मेरे गुरु ने मुझे उसका पता बताया था और मैं उसी मार्ग पर सावधानीपूर्वक चला भी था किन्तु जाने मुझसे बार-बार कौन-कौन सी गलतियाँ हो गई जो मैं बार-बार घूमकर उसी स्थान पर आ जाता हूँ ।। जिस स्थान से चला था ।। परन्तु चाहे कुछ भी हो मैं अपने प्रयासों से वहाँ अवश्य पहुँचूगा ।। लेखक ने पथिक से कहा कि तुम भारी भ्रम में पड़ गए हो ।।


तुम इस विश्व से बाहर जाकर आनन्द की खोज करना चाहते हो, पर तुम संसार से बाहर कैसे पहुँच सकते हो ? यह पृथ्वी घड़े के समान है तुम जिस स्थान से चलोगे अंत में घूमकर उसी स्थान पर पहुँच जाओगे ।। जिस लोक की कल्पना तुम कर रहे हो वह आधारहीन है, जब तुम्हें इस संसार में सुख नहीं मिलता तब काल्पनिक संसार में सुख कैसे प्राप्त करोगे ? लेखक कहता है कि यह संसार सुख और दुःख से परिपूर्ण हैं सुख-दुःख में से तुम दुःख को छोड़कर सुख ग्रहण कर लो ।। इसी प्रयत्न में तुम्हें सुख मिलेगा ।। तुम सोचो कि बिना नवीनता के भी कहीं सुख मिलता है ? तुम्हारी यह कल्पना असत्य और सार रहित है इसलिए तुम इसे त्याग दो ।। ऐसा करने पर जो सुख तुम्हें मिलेगा, तुम पूरी तरह उसी में संतुष्ट हो जाओगे ।। लेकिन यह सुख तुम्हें तुम्हारे अंदर मिलेगा बाहर नहीं ।। तुम्हें उसे अपने भीतर ही खोजना पड़ेगा ।। परन्तु उस पर मेरी बात का कोई असर नहीं हुआ और वह अपनी पोटली उठाकर चला गया ।।


2 — लेखक को कब आनन्द की अनुभूति हुई ?
उत्तर— लेखक को स्वयं के अंतर्मन से झाँककर आनन्द की प्राप्ति हुई ।। जिस आनन्द को प्राप्त करने के लिए लेखक सारी दुनिया में घूम रहा था, जब प्रकृति के सम्बोधन करने पर उसने स्वयं के भीतर झाँककर देखा तब उसे सच्चे आनन्द की अनुभूति हुई ।।


3 — क्या कोई भी पथिक विश्व-मण्डल के बाहर जा सकता है ?
उत्तर— नहीं, कोई भी पथिक विश्व-मण्डल के बाहर नहीं जा सकता ।। यह पृथ्वी एक घड़े के समान है, इसलिए विश्व-मण्डल से कोई पथिक जिस स्थान से चलेगा घूम-फिरकर उसी स्थान पर वापस लौट आएगा ।। पथिक का विश्व मंडल से बाहर जाना मात्र एक कल्पना है, जो निर्मूल है ।।

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