Up Board Class 12th Civics Solution Chapter 16 indian Judiciary : Supreme Court, Public Interest Litigations and Lok Adalat भारतीय न्यायपालिका सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत

Up Board Class 12th Civics Solution Chapter 16 indian Judiciary : Supreme Court, Public Interest Litigations and Lok Adalat भारतीय न्यायपालिका सर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Principles of Origin of State
लोक अदालत

पाठ-16 भारतीय न्यायपालिकासर्वोच्च न्यायालय, जनहित याचिकाएँ तथा लोक अदालत
(Indian Judiciary : Supreme Court, Public Interest Litigations and Lok Adalat)

लघु उत्तरीय प्रश्न
1– भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के कोई दो निर्णायक कारक बताइए ।
उत्तर— भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के निर्णायक दो कारक निम्नलिखित हैं
(i) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है और राष्ट्रपति इस संबंध में उक्त न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों से अनिवार्यतः परामर्श लेता है ।
(ii) संसद और राज्य के विधानमंडलों में सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के ऐसे कार्यों पर वाद-विवाद नहीं किया जा सकता, जिन्हें उसने अपने कर्तव्य निर्वहन में किया हो ।

2– उच्चतम न्यायालय के मुख्य कार्य क्या हैं?
उत्तर— उच्चतम न्यायालय के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं
(i) संविधान की व्याख्या करना
(ii) सामाजिक क्रांति का अग्रदूत
iii) मौलिक अधिकारों का रक्षक
(iv) सलाहकारी निकाय के रूप में
(v) विशिष्ट परामर्श देना ।


3– भारतीय उच्चतम न्यायालय के दो प्रारम्भिक क्षेत्राधिकारों को लिखिए ।
उत्तर— निम्नलिखित विवादों के संबंध में उच्चतम न्यायालय को प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं
(i) भारत सरकार और उसके साथ एक या एक से अधिक राज्यों तथा एक या अधिक राज्यों के बीच विवाद ।
(ii) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच कोई ऐसा विवाद हो जिसमें कि कानून या तथ्य का कोई प्रश्न अन्तर्निहित हो, जिस पर किसी संवैधानिक अधिकार के अस्तित्व का विस्तार निर्भर करता हो ।

4– उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में किन अर्हताओं का होना आवश्यक है?
उत्तर— उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के लिए आवश्यक अर्हताएँ निम्नलिखित हैं
(i) वह भारत का नागरिक हो । (ii) कम-से-कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयों का न्यायाधीश रह चुका हो । या किसी उच्च न्यायालय में दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो या राष्ट्रपति के मतानुसार वह विधिशास्त्र का विशिष्ट ज्ञाता हो ।

5– उच्चतम न्यायालय का परामर्शदात्रीक्षेत्राधिकार क्या है? इसका एक उदाहरण दीजिए ।
उत्तर— परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार- संविधान के अनुच्छेद 143 की व्यवस्था के अनुसार यदि राष्ट्रपति किसी संवैधानिक या कानूनी प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेना चाहे तो वह राष्ट्रपति को परामर्श दे सकता है परन्तु राष्ट्रपति उसके परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है । अभी तक राष्ट्रपति ने 9 बार सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श प्राप्त किया है परन्तु दसवीं बार अयोध्या काण्ड के किसी बिन्दु पर राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँगा तो सर्वोच्च न्यायालय ने परामर्श देने से इन्कार कर दिया । इस प्रकार अब यह बात स्पष्ट हो गई कि सर्वोच्च न्यायालय किसी विषय विशेष पर राष्ट्रपति को परामर्श देने से इनकार भी कर सकता है ।

6– सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशको उसके पद से हटाने के आधारों एवं प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को 65 वर्ष की आयु से पूर्व भी असमर्थता का आरोप सिद्ध हो जाने पर हटाया जा सकता है । इसके लिए यह विधि है कि संसद के दोनों सदन अपने सदस्यों के बहुमत से तथा उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति से यह प्रार्थना करें कि कोई न्यायाधीश कदाचार या अयोग्यता के कारण अपने पद के योग्य नहीं रहा है अतः उसे न्यायाधीश के पद से पृथक कर दिया जाना चाहिए । ऐसा प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा एक ही सत्र में पारित हो जाना आवश्यक है । ऐसा प्रस्ताव प्रस्तुत होने पर न्यायाधीश को इस बात का पूरा अवसर दिया जाएगा कि वह अपनी पैरवी कर सके । न्यायाधीश तब तक अपने पद से पृथक नहीं किया जा सकता जब तक कि वह वास्तविक रूप से अयोग्य अथवा दुराचारी न हो ।

7– न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ समझाइए ।
उत्तर— न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ- न्यायिक पुनरावलोकन का तात्पर्य न्यायालय द्वारा कानूनों तथा प्रशासकीय नीतियों की संवैधानिकता की जाँच तथा ऐसे कानूनों तथा प्रशासकीय नीतियों की संवैधानिकता की जाँच तथा ऐसे कानूनों एवं नीतियों को असंवैधानिक घोषित करना है, जो संविधान के किसी अनुच्छेद का अतिक्रमण करती हैं ।

कारविन के शब्दों में- “न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ न्यायालयों की उस शक्ति से है, जो उन्हें अपने न्याय-क्षेत्र की अन्तर्गत लागू होने वाले व्यवस्थापिका के कानूनों की वैधानिकता का निर्णय देने के संबंध में तथा कानूनों को लागू करने के संबंध में प्राप्त है और जिन्हें वे अवैधानिक तथा व्यर्थ समझे । “


अमेरिकी न्यायाधीश मार्शल ने सन् 1803 ई० में ‘मार्वरी बनाम मेडिसन’ के मामले में न्यायिक पुनरावलोकन की व्याख्या करते हुए कहा था- “न्यायिक पुनरावलोकन न्यायालय द्वारा अपने समक्ष प्रस्तुत विधायी कानूनों तथा कार्यपालिका अथवा प्रशासकीय कार्यों का वह निरीक्षण है जिसके द्वारा वह निर्णय करता है कि क्या यह एक लिखित संविधान द्वारा निषिद्ध किए गए हैं अथवा उन्होंने अपनी शक्तियों का अतिक्रमण कर कार्य किया है या नहीं । “

8– न्यायपालिका की स्वतंत्रता हेतु उठाए गए दो कदमों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

9– भारतीय न्याय व्यवस्था में जनहित याचिकाओं के महत्व पर संक्षेप में प्रकाश डालिए ।
उत्तर— जनहित याचिकाओं का महत्व
(i) जनहित याचिकाओं से लाखो-करोड़ों निर्धन तथा ज्ञान व साधन हीन व्यक्तियों को सस्ता व तुरन्त न्याय मिल जाता है । (ii) अपने कर्त्तव्य के प्रति शासन की उपेक्षा, मनमानी व लापरवाही पर रोक लगती है ।
(iii) जनहित याचिकाओं द्वारा पीड़ित व कमजोर वर्गों को केवल कानूनी न्याय ही नहीं, अपितु सामाजिक व आर्थिक न्याय भी प्रदान किया जाता है । उदाहरण के लिए बन्धुआ मुक्ति मोर्चा के पत्र को याचिका मानकर सर्वोच्च न्यायालय ने बन्धुआ मजदूरों की मुक्ति के आदेश दिए ।
(iv) सर्वोच्च न्यायालय जनहित याचिकाओं की न्यायिक सक्रियता के आधार पर राज्य अथवा केंद्र सरकार को आवश्यक निर्देश तथा आदेश भी देता है । जिनका पालन न करने पर उन पर कोर्ट की अवमानना का मामला बन जाता है ।
(v) जनहित याचिकाएँ कार्यपालिका प्रशासन को सदा जागरूक व सक्रिय बनाए रखने का कार्य करती हैं ।

10– भारत में न्यायिक समीक्षा के अर्थ एवं महत्व का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-7 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

11– उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों की रक्षा के लिए कौन-कौनसे आदेश जारी कर सकता है?
अथवा
अधिकार के लेख से आप क्या समझते हैं?

उत्तर— भारतीय उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है । संविधान के भाग-3 द्वारा भारतीयों को अनेक मूल अधिकार दिए गए हैं । नागरिकों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से ये मूल अधिकार अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा का दायित्व संविधान के अनुच्छेद 13 तथा 32 द्वारा उच्चतम न्यायालय पर डाला गया है । उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण तथा अधिकार पृच्छा आदि विभिन्न प्रकार के न्यायादेश जारी कर सकता है ।
अधिकार पृच्छालेख- अधिकार पृच्छा लेख नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा हेतु जारी एक आदेश है । जिसके द्वारा यह किसी भी नागरिक को पूछ सकता है कि किसी प्रकार उसने कानून के विरुद्ध पद अधिकार प्राप्त किया हुआ है ।

12–उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का क्या अर्थ है? इसमें किस प्रकार के विवाद आते हैं?
उत्तर— उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का अर्थ ऐसे मामले या विवाद हैं जिनको केवल उच्चतम न्यायालय में ही सुना जा सकता है, किसी अन्य न्यायालय में नहीं । उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार में निम्नलिखित विवाद आते हैं ।
(i) भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद ।
(ii) भारत सरकार, राज्य या कई राज्यों तथा एक या अधिक राज्यों के बीच विवाद ।
(iii) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच कोई ऐसा विवाद जिसमें कानून या तथ्य का कोई प्रश्न अन्तर्निहित हो, जिस पर किसी संवैधानिक अधिकार के अस्तित्व का विस्तार निर्भर करता हो ।

13– भारतीय न्याय व्यवस्था में लोक अदालत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर— लोक अदालत- भारत में न्याय व्यवस्था की दशा बड़ी शोचनीय है । देश के न्यायालयों में लाखों की संख्या में मुकदमें लम्बित पड़े हुए हैं । दीवानी न्यायालयों में तो 15-20 वर्ष पुराने मुकदमें आज भी निर्णय की प्रतीक्षारत हैं । इलाहाबाद उच्च न्यायालय में ही विचारधीन मुकदमों की संख्या ढाई लाख से ऊपर पहुँच चुकी है । आज भारत में मुकदमेबाजी एक अभिशाप बन कर रह गई है । अत: जनता को सस्ता, सरल तथा यथाशीघ्र न्याय दिलाने के उद्देश्य से न्यायमूर्ति पी०एन० भगवती ने इस ओर केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित किया, जिसके फलस्वरूप न्यायमूर्ति पी०एन० भगवती की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की गई, जिसने लोक अदालतें स्थापित करने तथा नि:शुल्क विधिक सहायता देने की सिफारिश की ।

वास्तव में लोक अदालत कानूनी विवादों के मैत्रीपूर्ण समझौते के लिए एक वैधानिक मंच है, जिसमें अवकाश प्राप्त न्यायाधीश, राजपत्रित अधिकारी एवं समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति परामर्शदाता के रूप में आसीन होते हैं । इन अदालतों में वादी और प्रतिवादी द्वारा वकील नहीं किए जाते हैं ।


विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम (1987 ई०), जिसका संशोधन 2002 ई० में हो चुका है,द्वारा स्थायी लोक अदालतों की स्थापना का प्रावधान किया गया है । वर्तमान में देश के लगभग सभी जनपदों में लोक अदालतें स्थापित की गई हैं । इन अदालतों द्वारा अब तक एक करोड़ 43 लाख से भी अधिक वादों का निपटारा किया जा चुका है । ऐसे फौजदारी मामलों को छोड़कर जिनमें समझौता होना संभव नहीं है, दीवानी, फौजदारी और राजस्व न्यायालयों में लम्बित सभी मुकदमों को मैत्रीपूर्ण समझौते के लिए लोक अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है । लोक अदालत के निर्णय अन्य किसी दीवानी न्यायालय के समान ही दोनों पक्षों पर लागू होते हैं । यह निर्णय अन्तिम होते हैं और उनके विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती है ।

14– जनपदीय न्यायप्रणाली का संक्षेप में वर्णन कीजिए ।
उत्तर— जनपदीय न्याय प्रणाली– उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के अधीन राज्य के प्रत्येक जनपद में निम्नलिखित न्यायालय कार्य करते हैं
(i) दीवाना न्यायालय
(ii) फौजदारी न्यायालय
(iii) राजस्व या माल न्यायालय

(i) दीवानी न्यायालय-जिले का दीवानी न्यायालय चल या अचल सम्पत्ति, धनराशि आदि से संबंधित मुकदमों की सुनवाई करता है और उन पर निर्णय देता है । जिले के दीवानी न्यायालय की ऊपर से नीचे तक की कई श्रेणियाँ हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार है- जिला जज या जिला न्यायाधीश, सिविल जज, मुन्सिफ न्यायालय, खलीफा न्यायालय, न्याय पंचायत आदि ।
(ii) फौजदारी न्यायालय- फौजदारी के अन्तर्गत हत्या, मारपीट, लड़ाई व जालसाजी आदि के मुकदमें आते हैं । जिले में फौजदारी न्यायालय की क्रमिक श्रृंखला इस प्रकार है- सेशन जज, तीन श्रेणियों में मजिस्ट्रेट, अवैतनिक मजिस्ट्रेट, न्याय पंचायत आदि । राजस्व या माल न्यायालय- राजस्व संबंधी मामलों में सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय के नीचे राजस्व परिषद् होती है । इसके नीचे क्रमश: कमिश्नर, कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर, तहसीलदार तथा नायब तहसीलदार के माल न्यायालय होते हैं । ये सब न्यायालय लगान, माल गुजारी, सिंचाई तथा बन्दोबस्त के मुकदमों की सुनवाई करते हैं तथा अपने-अपने क्षेत्र में शांति व व्यवस्था भी बनाए रखते हैं ।

15– जनहित याचिकाओं के दो महत्व बताइए ।
उत्तर— उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-9 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

16– लोक अदालतों के दो गुणों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— लोक अदालतों के दो गुण निम्नलिखित हैं
(i) लोक अदालतों में विवादों का आपसी मैत्रीपूर्ण समझौतों से निपटारा किया जाता है ।
(ii) इन अदालतों में रियाटर्ड जज, राजपत्रित अधिकारी तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति परामर्शदाता के रूप में बैठते हैं ।

17– परिवार न्यायालय पर टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर— परिवार न्यायालय- सन् 1984 में संसद ने कानून बनाकर देश के विभिन्न भागों में परिवार न्यायालयों की स्थापना की है । इन न्यायालयों की स्थापना के उद्देश्य निम्न प्रकार हैं

(i) महिलाओं व बच्चों के हित में पारिवारिक विवादों के संबंध में यथाशीघ्र समझौते कराना ।
(ii) विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, सम्पत्ति, भरण-पोषण तथा चरित्र आदि में संबंधित विवादों का मधुर वातावरण में निपटारा कराना ।
(iii) कानूनी न्यायालयों की न्याय की लंबी व खचीर्ती प्रक्रिया से परिवारों को बचाना ।
(iv) महिलाओं व बच्चों का उनके कानून-सम्मत अधिकार दिलाना ।
(v) परिवारों में पड़ने वाली दरारों को रोकना । देश में फरवरी, 2006 तक कुल 156 तथा उत्तर प्रदेश में 16 परिवार न्यायालय स्थापित किए जा चुके हैं, जिनमें हजारों पारिवारिक विवाद सौहाद्रपूर्ण वातावरण में निपटाए जा चुके हैं । परिवारों को सस्ता व शीघ्र न्याय दिलाने की दृष्टि से जनता में इनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ रही है ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

1– उच्चतम न्यायालयको अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? उसके क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए ।
अथवा
नगरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय किसी प्रकार के लेख (रिट)
जारी कर सकते हैं? किन्हीं दो उदहारणों को देते हुए समझाइए ।

उत्तर— उच्चतम न्यायालय की समस्त कार्यवाही एवं निर्णय लिखित रूप में होते हैं और प्रकाशित किए जाते हैं, जिन्हें अभिलेखों के रूप में रखा जाता है । इसलिए उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय भी कहते हैं । इन अभिलेखों को आवश्यकतानुसार भविष्य में अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष उदाहरण या नजीर के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार,शक्तियाँ एवं कार्य- उच्चतम न्यायलय का क्षेत्राधिकार और शक्तियों का क्षेत्र विस्तृत है । उसकी शक्तियों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है
(i) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार,
(ii) अपीलीय क्षेत्राधिकार, तथा
(iii) परामर्शदात्री ।

इन शक्तियों का वर्णन निम्नलिखित है
(i) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार- निम्नलिखित प्रकार के विवादों के संबंध में उच्चतम न्यायालय को प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं
(क) भारत सरकार और उसके साथ एक या एक से अधिक राज्यों तथा एक या अधिक राज्यों के बीच विवाद ।
(ख) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच कोई ऐसा विवाद हो जिसमें कि कानून या तथ्य का कोई प्रश्न अन्तर्निहित हो, जिस पर किसी संवैधानिक अधिकार के अस्तित्व का विस्तार निर्भर करता हो ।
(ग) केंद्र सरकार व एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद ।

समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार- ऊपर जिन विवादों का वर्णन किया गया है, उनको केवल उच्चतम न्यायालय में ही सुना जा सकता है, किसी अन्य न्यायालय में नहीं । इस प्रकार उच्चतम न्यायालय का उपर्युक्त क्षेत्राधिकार उसका अनन्य क्षेत्राधिकार है । इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों का संरक्षक भी स्वीकार किया गया है । संविधान ने मूल अधिकारों की सुरक्षा का भार राज्यों के उच्च न्यायालयों को भी सौंपा है । इस प्रकार मूल अधिकारों को लागू कराने के लिए समुचित कार्यवाही करना, उच्चतम न्यायालय का समवर्ती प्रारम्भिक अधिकार है । यदि सरकार या नागरिक किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों का अपहरण करे तो वह व्यक्ति उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है । संविधान के द्वारा उच्चतम न्यायालय को निर्देशित किया गया है कि वह मूल अधिकारों को लागू कराने के लिए समुचित कार्यवाही करे । उच्चतम न्यायालय इस हेतु कुछ लेख व आदेश जारी कर सकता है जैसे- बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण, अधिकार-पृच्छा ।


(ii) अपीलीय क्षेत्राधिकार- उच्चतम न्यायालय भारत का अन्तिम अपीलीय न्यायालय है । उच्चतम न्यायालय अधीनस्थ उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अपील भी सुनता है । इसके निर्णय के विरुद्ध कहीं भी अपील नहीं की जा सकती है । सन् 1935 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत जिस संघीय न्यायालय की स्थापना की गई थी, वह भारत का अन्तिम अपीलीय न्यायालय नहीं था, क्योंकि उसके निर्णय के विरुद्ध ब्रिटेन में प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी ।

उच्चतम न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित चार भागों में बाँटा जा सकता है
(क) दीवानी मामले- इस संबंध में मूल संविधान के अंतर्गत जो व्यवस्था थी, उसे सन् 1972 ई० में हुए संविधान के 30वें संशोधन द्वारा परिवर्तित कर दिया गया । वर्तमान समय में अनुच्छेद 133 को संशोधित करके 20 हजार की धनराशि की सीमा को समाप्त कर दिया गया है । अब यह निश्चित किया गया है कि उच्च न्यायालय से उच्चतम न्यायालय में ऐसे सभी दीवानी विवादो की अपील की जा सकेगी जिनमें उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रमाणित कर दिया जाए कि इन विवादों में कानून की व्याख्या से संबंधित सारभूत प्रश्न निहित हैं ।
(ख) फौजदारी मामले- फौजदारी मामलों में उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में निम्नलिखित बातों के आधार पर अपील की जा सकती है

(अ) यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि विवाद उच्चतम न्यायालय के विचार के योग्य है ।
(ब) यदि उच्च न्यायालय ने अपील में किसी अपराधी की मुक्ति के आदेश को उलटकर उसे मृत्युदण्ड दिया हो ।
(स) यदि उच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय से विवाद अपने विचारार्थ मँगाकर, अभियुक्त को मृत्युदण्ड दिया हो ।
(ग) संवैधानिक मामले- उच्चतम न्यायालय किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध संवैधानिक मामले में अपील उस स्थिति में सुन सकता है, जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि उस मामले में संविधान की व्याख्या से संबंधित कानून का कोई सार भूत प्रश्न अन्तर्निहित है । यदि उच्च न्यायालय इस प्रकार का प्रमाण-पत्र देने से इनकार कर दे तो भी उच्चतम न्यायालय अपील करने की विशेष अनुमति दे सकता है, यदि इसे ज्ञात हो जाए कि उस मामले में संविधान की व्याख्या का प्रश्न अन्तर्निहित हैं ।


(घ) विशिष्ट मामले- उपर्युक्त के अतिरिक्त संविधान का अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को कुछ विशेष मामलों की अपीलें सुनने का अधिकार भी देता है इस अनुच्छेद में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय भारत के राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए किसी भी निर्णय, विज्ञप्ति निर्धारण दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील करने की आज्ञा प्रदान कर सकता है ।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि उच्चतम न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार अत्यधिक विस्तृत है उच्चतम न्यायालय सैनिक न्यायालय के विरुद्ध अपील नहीं सुन सकता है ।
“यह कहना सत्य होगा कि स्वरूप तथा विस्तार की दृष्टि से इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार तथा शक्तियाँ राष्ट्रमण्डल के किसी भी देश के उच्चतम न्यायालय तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के उच्चतम न्यायालय के कार्य क्षेत्र तथा शक्तियों से अधिक व्यापक है । “——–एम०सी० सीतलवाड़

(iii) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार- संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार राष्ट्रपति किसी कानूनी या तथ्य के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँग सकता है । उच्चतम न्यायालय को परामर्श देने के लिए खुली सुनवाई का भी प्रबन्ध करता है । अमेरिका के संविधान में उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को परामर्श दिए जाने की व्यवस्था नहीं है । इस न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श देना ही पड़े । राष्ट्रपति के लिए भी यह आवश्यक नहीं है कि वह उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए परामर्श के अनुसार ही कार्य करें ।


(iv) विविध शक्तियाँ- उच्चतम न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय के रूप में भी कार्य करता है । इसका अर्थ यह है कि इसके निर्णय और इसकी समस्त न्यायिक कार्यवाहियाँ प्रकाशित होती है और सदैव साक्ष्य के रूप में सभी न्यायालयों में स्वीकार की जाती है । किसी भी न्यायालय में उन्हें प्रस्तुत करने पर प्रामाणिकता के विषय में सन्देह नहीं किया जा सकता है । अवहेलना करने वाले को न्यायालय की अवमानना के लिए दण्डित किया जा सकता है । इस न्यायालय को संसद द्वारा बने कानून तथा स्वयं अपने द्वारा बनाए गए नियमों, निर्णयों व आदेशों की समीक्षा करने की शक्ति प्राप्त है । न्यायालयों के अधिकारियों तथा अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा मनोनीत किसी अन्य न्यायाधीश द्वारा की जाती है ।

2– भारत के सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।


3– भारत के उच्चतम न्यायालय के संगठन तथा क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— उच्चतम न्यायालय का संगठन- संविधान के अनुसार देश में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई है । वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश हैं । आवश्यकतानुसार राष्ट्रपति तदर्थ न्यायाधीशों की भी नियुक्ति कर सकता है ।


(i) न्यायाधीशों की योग्यता- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए योग्यताएँ आवश्यक हैं
(क) वह भारत का नागरिक हो ।
(ख) कम-से-कम 5 वर्ष तक वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयों का लगातार न्यायाधीश रह चुका हो ।

या किसी उच्च न्यायालय में अथवा दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता (advocate) रह चुका हो, या राष्ट्रपति के मतानुसार वह विधिशास्त्र का विशिष्ट ज्ञाता हो । वर्तमान में न्यायमूर्ति श्री जगदीश सिंह खेहर भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं । इन्होंने 4जनवरी, 2017 को पदभार ग्रहण किया है ।

(ii ) न्यायाधीशों की नियुक्ति- संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों के ऐसे अन्य न्यायाधीशों से परामर्श लेता है, जिनसे वह इस संबंध में परामर्श लेना आवश्यक समझता है ।

अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में जुलाई 1998 ई० को राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय में भेजे गए स्पष्टीकरण प्रस्ताव पर विचार करते हुए नौ सदस्यीय खण्डपीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि उच्चतम न्यायालय में किसी न्यायाधीश की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा किसी न्यायाधीश के स्थानान्तरण के विषय में अपनी संस्तुतियाँ प्रेषित करने से पूर्व उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श किया जाना आवश्यक है । यदि दो न्यायाधीश भी विपरीत मत प्रकट करते हैं तो मुख्य न्यायाधीश को सरकार को अपनी संस्तुति नहीं भेजनी चाहिए । भारत का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से उच्चतम न्यायालय के किसी अवकाश प्राप्त न्यायाधीश को भी आवश्यक कार्य के लिए नियुक्त कर सकता है ।

(iii) शपथ- अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान की तीसरी अनुसूची में निर्धारित प्रपत्र के अनुसार प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति के समक्ष शपथ ग्रहण करता है । उच्चतम न्यायालय की कार्य-विधि- उच्चतम न्यायालय की कार्य-विधि के संबंध में संविधान में कुछ व्यवस्थाएँ की गई हैं । इस संबंध में नियम बनाने का अधिकार संविधान द्वारा संसद को दिया गया है और जिन बातों पर संविधान और संसद ने कोई व्यवस्था न की हो, ऐसी बातों पर स्वयं उच्चतम न्यायालय की अनुमति से कानून बन सकता है ।

(iv )उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के संबध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई हैं
(क) उच्चतम न्यायालय के सम्मुख किसी ऐसे मुकदमें की अपील भी पेश की जा सकती है, जिसकी सुनवाई के पश्चात यह अनुभव किया जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या करना अनिवार्य है या कानून के अभिप्राय को तात्विक रूप से प्रकट करना होगा । इसी प्रकार के मुकदमें आरम्भ में 5 से कम न्यायाधीशों के सम्मुख प्रस्तुत किए जा सकते हैं परन्तु यदि यह स्पष्ट हो जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या का स्पष्टकरण होना आवश्यक है तो उसको भी कमसे-कम 5 न्यायाधीशों के सम्मुख उपस्थित किया जाएगा और उसकी व्याख्या के अनुसार उसका निर्णय किया जाएगा ।

(ख ) उच्चतम न्यायालय के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे । परन्तु यदि निर्णय से कोई न्यायाधीश सहमत नहीं है तो वह अपना पृथक निर्णय दे सकता हैं, परन्तु बहुमत से हुआ निर्णय ही मान्य समझा जाएगा ।
(ग) उच्चतम न्यायालय के सभी निर्णय खुले तौर पर सम्पन्न होते हैं ।
(घ) जिन विषयों का संबंध संविधान की व्याख्या के साथ हो या जिनमें कोई संवैधानिक प्रश्न उपस्थित हो या कानून के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो अथवा जिन विषयों पर विचार करने का कार्य राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय को सौंपा गया हो, उनकी सुनवाई उच्चतम न्यायालय के कम-से-कम 5 न्यायाधीशों द्वारा की जाती है ।
(v) न्यायाधीशों का कार्यकाल-उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं । 65 वर्ष की आयु पूर्ण होने के पश्चात् उन्हें अवकाश दिया जाएगा । इस अवस्था से पहले भी कोई न्यायाधीश अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को संबोधित करके अपनी इच्छा से त्यागपत्र दे सकता है ।

(vi) न्यायाधीशों को प्राप्त उन्मुक्तियाँ- न्यायाधीशों द्वारा दिए गए निर्णयों या आचरण को लेकर संसद में किसी प्रकार की बहस नहीं की जा सकती है । ऐसा करने पर उनके विरुद्ध न्यायालय को मानहानि का मुकदमा चलाने का अधिकार है ।

(vii) न्यायाधीशों की पदच्युति- उच्चतम न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को 65 वर्ष की आयु से पूर्व भी असमर्थता का आरोप सिद्ध हो जाने पर हटाया जा सकता है । इसके लिए यह विधि है कि संसद के दोनों सदन अपने सदस्यों के बहुमत से तथा उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति से यह प्रार्थना करें कि कोई न्यायाधीश कदाचार या अयोग्यता के कारण अपने पद से योग्य नहीं रहा है अतः उसे न्यायाधीश के पद से पृथक कर दिया जाना चाहिए । ऐसा प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा एक ही सत्र में पारित हो जाना आवश्यक है । ऐसा प्रस्ताव प्रस्तुत होने पर न्यायाधीश को इस बात का पूरा अवसर दिया जाएगा कि वह अपनी पैरवी कर सके । न्यायाधीश तब तक अपने पद से पृथक नहीं किया जा सकता जब तक कि वह वास्तविक रूप से अयोग्य अथवा दुराचारी न हो ।

(viii) न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते- संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 1 लाख रुपए मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों को 90 हजार रुपए मासिक वेतन दिया जाता है । इसके अतिरिक्त न्यायाधीशों को रहने के लिए बिना किराए का आवास तथा अन्य भत्ते मिलते हैं । अवकाश-ग्रहण करने के पश्चात् उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को पेंशन भी प्राप्त होती है । उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को निष्पक्ष तथा स्वतंत्र बनाने के लिए संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि किसी न्यायाधीश की नियुक्ति के पश्चात उसके वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाओं में कमी नहीं ही जा सकती, परन्तु आर्थिक संकट की घोषणा के अंतर्गत राष्ट्रपति न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते आदि में कटौती करने संबंधी आदेश दे सकता है ।

उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

4– भारत के उच्चतम न्यायालय के गठन व उसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए ।
उत्तर— उच्चतम न्यायालय का गठन- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
उच्चतम न्यायालय के कार्य- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

5– भारत के उच्चतम न्यायालय की संरचना का उल्लेख कीजिए । उसे संविधान का संरक्षक क्यों कहा जाता है?
अथवा
भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय के महत्व पर प्रकाश डालिए ।


उत्तर— उच्चतम न्यायालय की संरचना- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
उच्चतम न्यायालय संविधान का संरक्षक- संविधान के भाग-3 द्वारा भारतीयों को अनेक मौलिक अधिकार दिए हैं । नागरिकों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से ये मौलिक अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण है । भारतीय उच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक भी है । अत: लोगों के इन मूलाधिकारों की राज्य अथवा अन्य व्यक्तियों संस्थाओं तथा समूहों इत्यादि के अतिक्रमण से सुरक्षा अत्यावश्यक है । इस रक्षा का दायित्व संविधान के अनुच्छेद 13 तथा 32 द्वारा उच्चतम न्यायालय पर डाला गया है ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार कोई नागरिक अपने अधिकारों को प्रवर्तन हेतु उच्चतम न्यायालय में सीधे याचिका दायर कर सकता है । उच्चतम न्यायालय इन अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए बंदी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण तथा अधिकार-पृच्छा इत्यादि विभिन्न प्रकार के न्यायादेश जारी कर सकता है । इस प्रकार मूल अधिकारों के लिए सांविधानिक आश्वासन उच्चतम न्यायालय के माध्यम से ही पूर्ण किया जाता है । यदि कोई भी राज्य ऐसा कानून बनाता है अथवा ऐसा कोई आदेश जारी करता है जिससे भाग-3 में प्रदत्त मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है, तो ऐसे कानून अथवा शासकीय आदेश को संविधान-विरुद्ध होने के कारण अनुच्छेद 13 के अनुसार उच्चतम न्यायालय द्वारा शून्य घोषित किया जा सकता है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत का उच्चतम न्यायालय संविधान के अभिभावक तथा नागरिक अधिकारों के संरक्षक के रुप में महत्वपूर्ण अधिकार रखता है ।

सर्वोच्च या उच्चतम न्यायालय : आवश्यकता तथा महत्व- संघात्मक व्यवस्था में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब राज्यों एवं केंद्र के बीच विवाद उत्पन्न हो जाता है । ऐसी अवस्था में एक शक्तिशाली न्यायपालिका ही दोनों के मध्य उत्पन्न विवाद को सुलझाकर संविधान की रक्षा करती है । देश में सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता एवं महत्व के निम्नलिखित कारण रहे हैं

(i) शासन का सन्तुलन चक्र- सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका एक सन्तुलन चक्र के समान है, क्योंकि जहाँ शासन के अन्य अंग जनता की उत्तेजित भावना से प्रभावित हो सकते हैं, वहाँ सर्वोच्च न्यायालय शासन का एक अंग है जो निष्पक्षता के साथ सरकार के कार्यों की व्याख्या संविधान के अनुसार करके सरकार के विभिन्न अंगों में संतुलन स्थापित कर सकता है ।

(ii) संघात्मक शासन व्यवस्था के कारण- शासकीय सत्ता का संघीय तथा राज्यों की सरकारों के मध्य विभाजन संघीय संविधान की विशेषता है । किसी भी शक्ति-विभाजन की प्रक्रिया में क्षेत्राधिकारी के प्रश्न को लेकर संघ तथा राज्यों में वादविवाद उत्पन्न होना स्वाभाविक है । शक्ति विभाजन संविधान के अनुसार होता है । इसलिए इन समस्त विवादों का निर्णय एक निष्पक्ष एवं स्वतंत्र प्राधिकारी के द्वारा किया जाए । संघीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय ही एक ऐसा प्राधिकारी हो सकता है । “संघात्मक शासन में अनेक सरकारों का समन्वय होने के कारण संघर्ष अवश्यम्भावी है । अत: संघीय नीति का यह आवश्यक गुण है कि देश में ऐसी न्यायिक संस्था हो जो संघीय कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका तथा इकाइयों की सरकारों से स्वतंत्र हो । ” -जी०एन० जोशी

(iii) संविधान की व्याख्या का कार्य- सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा संविधान के रक्षक और संविधान के अधिकारिक व्याख्याता के रूप में कार्य किया जाता है । संविधान-निर्मात्री सभा में कहा गया था, “यह संविधान का व्याख्याकार और संरक्षक होगा । ” भारतीय संविधान की भावना की अधिकारिक व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही की जाएगी ।

(iv) सामाजिक क्रान्ति का अग्रदूत- भारत में सर्वोच्च न्यायालय केवल लोकतंत्र का प्रहरी ही नहीं है बल्कि साधारण और संवैधानिक कानूनों की प्रगतिवादी व्याख्या करके सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन के अग्रदूत के रूप में भी कार्य करता है ।

(v) मौलिक अधिकारों का रक्षक- संविधान निर्माताओं का कथन था कि, “सर्वोच्च न्यायालय नागरिक के मौलिक अधिकारों का संरक्षक होगा । ” संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत यह न्यायालय संविधान द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है । संघीय अथवा राज्यों की सरकारों द्वारा इन अधिकारों का अतिक्रमण होने पर उपचार करना इस न्यायालय का कर्त्तव्य है ।

“इन अधिकारों का महत्व एवं सत्ता समय-समय पर न्यायालय द्वारा दिए विनिर्णयों से घोषित होती है, जिससे कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता तथा विधानमंडल की सवैधानिकता से नागरिकों की रक्षा होती है । ” -पायली

विशिष्ट परामर्श देने के लिए- गंभीर तथा जटिल कानूनी उलझनों पर सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श देने का कार्य भी करता है । सार्वजनिक महत्व के जिन कानूनों तथा तथ्यों के विषय के विषय में राष्ट्रपति इस न्यायालय के विचार जानना चाहते हैं, उन विषयों में यह राष्टपति को परामर्श देता है ।

6– उच्चतम न्यायालय को संविधान का रक्षक और नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक कहा जाता है । विवेचना कीजिए ।
उत्तर— उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-5 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

7– उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के महत्व की विवेचना कीजिए । उदाहरण देकर समझाइए ।
उत्तर— न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति एवं उसका महत्व- न्यायिक पुनरावलोकन अथवा न्यायिक समीक्षा अंग्रेजी भाषा ‘ज्यूडिशियल रिव्यू’ का हिन्दी अनुवाद है । इसका अभिप्राय यह है कि न्यायालय को व्यवस्थापिका द्वारा पारित कानूनों और कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिक निश्चितता करने का अधिकार प्राप्त होता है । यह संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखने, संघ एवं राज्य सरकारों द्वारा शक्तियों का अतिक्रमण न करने, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के निमित्त न्यायालय को अधिकृत करता है ।

न्यायिक पुनरावलोकन (अथवा पुनर्विलोकन) की परिभाषा करते हुए ई–ए– ओर्विन ने लिखा है कि “यह न्यायालय की ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा वह कानून की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है । यदि जाँच के पश्चात् कोई कानून संविधान की भावना के विरुद्ध पाया जाता है तो न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है ।

” सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ह्यूज ने एक अवसर पर कहा है कि, “हम संविधान के अन्तर्गत हैं, परन्तु संविधान वही है जो हम (न्यायाधीश) कहते हैं । “

भारत के सन्दर्भ में प्रो– एम– जी– गुप्ता ने लिखा है कि, “विधानमंडल ने जिन कानूनों का निर्माण अपनी विधि निर्माण की शक्तियों का उल्लघंन करके किया है, उन्हें अवैध घोषित करने की न्यायालयों को शक्ति ऐसे किसी भी विधान में अन्तर्निहित होती हैं, जिसमें सीमित शक्तियों द्वारा शासन की व्यवस्था की गई हो । “

इस प्रकार स्पष्ट है कि न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का तात्पर्य है- कानूनों को देखना कि वे संविधान के अनुकूल हैं अथवा प्रतिकूल और यदि प्रतिकूल हैं तो उन्हें असंवैधानिक घोषित करके लागू होने से रोकना । यह बात मंत्रिपरिषद् के कार्यों और आदेशों पर भी लागू होती है ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131 और 132 उच्चतम न्यायालय को संघीय तथा राज्य सरकारों द्वारा निर्मित कानूनों के पुनरावलोकन का अधिकार देते हैं । इसके अतिरिक्त, संविधान के अनुच्छेद 13 और 32 मौलिक अधिकारों के बारे में उच्चतम न्यायालय को ऐसी ही शक्ति प्रदान करते हैं । इस संबंध में अनुच्छेद 246 और 254 का भी उल्लेख किया जाना आवश्यक है जिनके द्वारा केंद्र और राज्यों में विधि-निर्माण की शक्तियों के विभाजन को निश्चित किया गया है । हम कह सकते हैं कि भारत में न्यायिक पुनरावलोकन के दो प्रमुख आधार हैं- संघात्मक शासन और नागरिकों के मौलिक अधिकार । उच्चतम न्यायालय को इन दोनों स्थितियों को बहाल रखने के लिए व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को नियन्त्रित करने का अधिकार प्राप्त है ।

8– भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है? न्यायालय की स्वतंत्रता का संरक्षण किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर— सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए । सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता का संरक्षण-संघात्मक शासन के लिए एक निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्यायपालिका अनिवार्य है । इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान में कुछ ऐसे उपबन्धों का प्रावधान किया है, जिनके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका और विधानपालिका के अवांछनीय प्रभाव से मुक्त रहें और निर्भीकतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें । ये उपबन्ध निम्नलिखित हैं–


(i) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है और राष्ट्रपति इस संबंध में उक्त न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों से अनिवार्यतः परामर्श लेता है ।
(ii) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते, पेंशन इत्यादि भारत सरकार के संचित निधि पर भारित रहते हैं । संसद उन पर वाद-विवाद कर सकती है, परन्तु मतदान नहीं कर सकती । साथ ही किसी भी न्यायाधीश के कार्यकाल में उसके वेतन भत्ते, पेंशन, छुट्टी की शर्तों आदि में कमी या परिवर्तन नहीं किया जा सकता । इस प्रकार न्यायाधीश मंत्रिमंडल के कोष एवं प्रभाव से मुक्त रहते हैं ।

(iii) सर्वोच्च न्याया लय के न्यायाधीश नियुक्त होने पर 65 वर्ष की आयु तक कार्य करते हैं । इस अवधि में उन्हें पदच्युत किया जा सकता है, परन्तु पदच्युत की प्रक्रिया बड़ी ही जटिल है । जब संसद के दोनों सदन अपने सदस्यों की बहुसंख्या और उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति से यह प्रार्थना करें कि न्यायाधीश अक्षमता या कदाचार के कारण अपने पद के योग्य नहीं हैं और वे पदच्युत कर दिए जाएँ तो राष्ट्रपति उन्हें पदच्युत कर सकता है ।
(iv) संसद और राज्य के विधानमंडलों में सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के ऐसे कार्यों पर वाद-विवाद नहीं किया जा सकता, जिन्हें उसने अपने कर्त्तव्य निर्वहन में किया हो ।
(v) सर्वोच्च न्यायालय के पदाधिकारियों की नियुक्ति, वेतन, भत्ते, पेंशन, सेवा की शर्तों इत्यादि के संबंध में राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से नियम बनाने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को ही प्राप्त है ।


(vi) संविधान में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् किसी न्यायालय में
वकालत नहीं कर सकते, अतएव न्यायाधीशों को कर्तव्य पालन के समय सरकार या किसी व्यक्ति के प्रति पक्षपात की आवश्यकता ही नहीं रहती । परन्तु न्यायपालिका कार्यपालिका से पूर्णतः स्वतंत्र भी नहीं हो सकती । यह बात भारत के सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही लागू है । न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है और राष्ट्रपति के कार्यों में मंत्रिमंडल का परामर्श ही निर्णायक होता है । अतः न्यायाधीशों की नियुक्ति में प्रधानमंत्री बहुत प्रभावपूर्ण होता है । वह ऐसे व्यक्ति को न्यायाधीश नियुक्त करने का परामर्श राष्ट्रपति को दे सकता है जो कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका का समर्थक हो । दूसरे, संसद को न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करने का अधिकार है और संसद इस अधिकार का उपयोग करते हुए सरकार के अनुकूल सम्मति रखने वाले व्यक्तियों को न्यायाधीश नियुक्त करा सकती है ।

9– लोक अदालत से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय व्यवस्था में इसकी भूमिका एवं महत्व की चर्चा कीजिए ।

उत्तर— लोक अदालत- इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-13 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
उत्तर – लोक अदालत की भूमिका एवं महत्व
(i) इनमें मुकदमों का आपसी समझौतों से निपटारा किया जाता है और समझौता कोर्ट फाइल में दर्ज कर लिया जाता है ।
(ii) ये जनता की अदालते हैं । इन्हें अभी कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है ।
(iii) इनमें मुवक्किल वकील नहीं कर सकते । देश के 15 लाख वकीलों को इनसे दूर रखा गया है ।
(iv) इनमें वैवाहिक, पारिवारिक व सामाजिक झगड़े, किराया, बेदखली, वाहनों के चालान, बीमा, बिजली, पानी, टेलीफोन, बैंक, श्रम आदि से संबंधित मुकदमों पर दोनों पक्षों को समझाकर समझौता करा दिया जाता है ।
(v) इन अदालतों में रियाटर्ड जज, राजपत्रित अधिकारी तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति परामर्शदाता के रूप में बैठते हैं ।


(vi) ये अदालतों किसी को रिहा नहीं कर सकती, केवल सुलह करा सकती हैं, जुर्माना कर सकती हैं या चेतावनी देकर छोड़ सकती है । परिणाम- लोक अदालतें देश में बहुत लोकप्रिय हो रही हैं । जून, 2004 तक देश में 2 लाख अदालतें लग चुकी हैं, जिनमें 16 लाख मुकदमों का निपटारा किया गया । विगत वर्षों में इन्होंने छोटी अदालतों में विचाराधीन लगभग 5 लाख से अधिक मुकदमों का निपटारा किया है जिनमें 2 लाख 80 हजार मुकदमें राजस्थान में निपटाए गए हैं ।

10– जनपद की न्याय-प्रणाली का वर्णन कीजिए और जिलास्तर पर कार्यरत तीनों प्रकार के न्यायालयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए ।
उत्तर— जनपदीय न्याय-प्रणाली के अन्तर्गत जनपद के दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व संबंधी सभी न्यायालय और न्यायाधीश आते हैं । इन पर राज्य के उच्च न्यायालय का प्रशासनिक नियंत्रण होता है । जिलास्तर पर कार्यरत तीनों प्रकार के न्यायालयों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है
(i) जिले में दीवानी न्यायालय-जिले का दीवानी न्यायालय चल या अचल सम्पत्ति, धनराशि आदि से संबंधित मुकदमों की सुनवाई करता है और उन पर निर्णय देता है । जिले के दीवानी न्यायालय की ऊपर से नीचे तक कई श्रेणियाँ हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार है


(क) जिला जज या जिला न्यायाधीश- उच्च न्यायालय के अधीन जिला न्यायाधीश का न्यायालय जिले में दीवानी का सबसे बड़ा न्यायालय होता है । जिला न्यायाधीश प्रारम्भिक तथा अपीलीय, दोनों प्रकार के दीवानी मुकदमों की सुनवाई कर सकता है । 2,000 रुपए से 5 लाख रुपए तक के मुकदमें सीधे इस न्यायालय में दायर किए जाते हैं और इतनी ही राशि तक के मुकदमों की यह अपीलें सुनता है । बड़े जिलों में काम अधिक होने पर अतिरिक्त जिला न्यायाधीश की भी नियुक्ति की जा सकती है ।


(ख) सिविल जज- जिला जज के न्यायालय के नीचे सिविल जज का न्यायालय होता है । इसके अधिकार जिला जज के समान होते हैं, किन्तु इसे अपील सुनने का अधिकार नहीं होता । इसके निर्णय के विरुद्ध जिला जज की अदालत में अपील की जा सकती है ।


(ग) मुन्सिफ न्यायालय- सिविल जज के नीचे मुन्सिफ का न्यायालय होता है । यह न्यायालय 2,000 रुपए से लेकर 10,000 रुपए तक के दीवानी मुकदमों की सुनवाई करता है । यह अपीलें नहीं सुन सकता ।
(घ) खफीफा न्यायालय- मुन्सिफ न्यायालय के नीचे खफीफा न्यायालय होता है । यह न्यायालय 5,000 रुपए तक के मुकदमें सुनता है । इसके निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती ।
(ङ) न्याय पंचायत- ग्रामीण क्षेत्र में सबसे प्राथमिक स्तर पर न्याय पंचायतें होती हैं । इन्हें 500 रुपए तक के मुकदमें सुनने का अधिकार होता है । इसके निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती । इस अदालत की एक विशेषता यह है कि कोई भी वकील इसमें मुकदमें की पैरवी कर सकता है । ऐसा इसलिए किया गया है ताकि भोली-भाली ग्रामीण जनता को निष्पक्ष और सस्ता न्याय मिल सके ।
(ii) जिले में फौजदारी न्यायालय- फौजदारी के अन्तर्गत हत्या, मारपीट, लड़ाई व जालसाजी आदि के मुकदमें आते हैं । जिले में फौजदारी न्यायालय की क्रमिक शृंखला इस प्रकार है
(क) सेशन जज- सेशन जज का न्यायालय जिले में फौजदारी का सबसे बड़ा न्यायालय होता है । अधिकांशतः एक ही व्यक्ति जिला और सेशन जज के रूप में कार्य करता है । जब वह दीवानी के मुकदमें की सुनवाई करता है तो जिला जज कहलाता है और जब फौजदारी के मुकदमें की सुनवाई करता है तो सेशन जज कहलाता है । सेशन जज को प्रारम्भिक और अपीलीय, दोनों तरह के मुकदमें सुनने का अधिकार है । सेशन जज उच्च न्यायालय के समान ही निर्णय करते हैं, किंतु मृत्यु-दण्ड का निर्णय करने पर उन्हें उच्च न्यायालय से उसकी अनुमति लेनी होती है । बड़े जिले में सेशन जज की सहायता के लिए अतिरिक्त सेशन जज नियुक्ति किए जाते हैं ।

(ख) तीन श्रेणियों का मजिस्ट्रेट- सेशन जज के नीचे तीन श्रेणियों के मजिस्ट्रेट या दण्डाधिकारी के न्यायालय होते हैं
(अ) प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट को तीन वर्ष की कैद तथा 5 हजार रुपए तक जुर्माना करने का अधिकार होता है । कलेक्टर तथा डिप्टी कलेक्टर प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट कहलाते हैं ।
(ब) द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट 1 वर्ष की कैद तथा दो हजार रुपए तक के जुर्माने की सजा दे सकता है । तहसीलदार द्वितीय श्रेणी का मजिस्ट्रेट होता है ।

(स) तृतीय श्रेणी का मजिस्ट्रेट एक माह की कैद तथा 500 रुपए तक के जुर्माने की सजा दे सकता है । नायब तहसीलदार फौजदारी के मामलों में तृतीय श्रेणी का मजिस्ट्रेट होता है । द्वितीय व तृतीय श्रेणी के मजिस्ट्रेटों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें प्रथम श्रेणी के न्यायालय में की जाती है और प्रथम श्रेणी के निर्णयों के विरुद्ध अपील सेशन जज के न्यायालय में की जाती है ।

(ग) अवैतनिक मजिस्ट्रेट- जिले में कुछ अवैतनिक मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति भी की जाती है जो फौजदारी के मुकदमें सुनते हैं । उत्तर प्रदेश में अब अवैतनिक मजिस्ट्रेट नियुक्त नहीं किए जाते हैं ।
(घ) न्याय पंचायत- ग्रामीण क्षेत्रों में न्याय पंचायतें फौजदारी के मुकदमें सुनाती हैं । यह कैद की सजा तो नहीं दे सकती, किन्तु 250 रुपए तक का जुर्माना कर सकती है । इनके निर्णयों के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती ।


(iii) राजस्व या माल न्यायालय- राजस्व संबंधी मामलों की सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय के नीचे राजस्व परिषद होती है । इसके नीचे क्रमश: कमिश्नर, कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर, तहसीलदार तथा नायब तहसीलदार के माल न्यायालय होते हैं । ये सब न्यायालय लगान, माल गुजारी, सिंचाई तथा बन्दोबस्त के मुकदमों की सुनवाई करते हैं तथा अपने-अपने क्षेत्र में शांति व व्यवस्था भी बनाए रखते हैं ।

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