UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? Bharat varsh Unnati kaise ho sakti hai

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? पाठ का सम्पूर्ण हल

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ?  (भारतेन्दु हरिशचन्द्र)

लेखक पर आधारितप्रश्न

1–भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए ।


उत्तर—- लेखक परिचय– हिन्दी साहित्य के प्रवर्तक व प्रसिद्ध कवि होने के साथ ही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी कुशल पत्रकार, नाटककार, आलोचक, निबन्धकार के रूप में भी प्रसिद्ध हैं । सेठ अमीचन्द के वंश में उत्पन्न हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 9 सितम्बर, सन् 1850 ई० में काशी में हुआ था । इनके पिता का नाम गोपालचन्द्र गिरिधरदास था । जब ये पाँच वर्ष की अवस्था में ही थे, माता की छत्रछाया से वंचित हो गए । सात वर्ष की अवस्था में एक दोहा लिखकर इन्होने अपने पिता को सुनाया, जिससे प्रसन्न होकर पिता ने इन्हें महान कवि होने का आशीर्वाद दिया । दस वर्ष की अवस्था में ही इनके पिता सदैव के लिए इस संसार से विदा हो गए । इन्होंने घर पर ही रहकर मराठी, बंगला, संस्कृत तथा हिन्दी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया । इसके बाद इन्होंने क्वीन्स कॉलेज में प्रवेश लिया किन्तु काव्य-रचना में रुचि के कारण इनका मन अध्ययन में नहीं लगा । इन्होंने कॉलेज छोड़ दिया । 13 वर्ष की अवस्था में मन्नो देवी से इनका विवाह हुआ । भारतेन्दु जी युग प्रवर्तक साहित्यकार थे । सन् 1868 ई० से 1900 ई० तक की अवधि में साहित्य क्षेत्र में इनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण इस अवधि को ‘भारतेन्दु युग’ कहा गया । भारतेन्दु जी ने समाज में व्याप्त कुरीतियों व विसंगतियों पर व्यंग्य बाणों का प्रहार किया । कविता व नाटक के क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा । अत्यधिक उदार व दानशील होने के कारण इनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई और ये ऋणग्रस्त हो गए । हर सम्भव प्रयास के बाद भी ये ऋण-मुक्त नहीं हो पाए । साथ ही इन्हें ‘क्षय रोग’ ने घेर लिया, जिसके चलते हिन्दी साहित्य की यह दीप्ति 6 जनवरी, सन् 1885 ई० को सदैव के लिए बुझ गई ।

हिन्दी-साहित्य जगत में भारतेन्दु जी का आविर्भाव एक ऐतिहासिक घटना थी । ये ऐसे युग में भारतीय साहित्य गगन के इन्द बनकर उदित हुए, जब प्रायः सभी क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन हो रहे थे । हिन्दी-गद्य के तो ये जन्मदाता समझे जाते हैं । भारतेन्दु जी के पूर्व विभिन्न गद्य-रचनाकार गद्य के विभिन्न रूपों को अपनाए हुए थे । उस समय हिन्दी-गद्य की भाषा के दो प्रमुख रूप थे- एक में संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों की अधिकता थी तथा दूसरे में उर्दू-फारसी के कठिन शब्दों का प्रयोग किया जाता था । भाषा का कोई राष्ट्रीय स्वरूप नहीं था । भारतेन्दु जी का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ । उस समय गद्य-साहित्य विकसित अवस्था में था; अत: भारतेन्दु जी ने बांग्ला के नाटक ‘विद्या सुन्दर’ का हिन्दी में अनुवाद किया और उसमें सामान्य बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करके भाषा के नवीन रूप का बीजारोपण किया । सन् 1868 ई० में इन्होंने ‘कवि-वचन-सुधा’ और सन् 1873 ई० में ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ का सम्पादन आरम्भ किया । हिन्दी-गद्य का परिष्कृत रूप सर्वप्रथम इसी पत्रिका में दृष्टिगोचर हुआ । तत्कालीन साहित्यकारों ने इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर सन् 1880 ई० में इन्हें ‘भारतेन्दु’ उपाधि से विभूषित किया ।

कृतियाँ- भारतेन्दु जी की प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैंनाटक- भारतेन्दु जी ने मौलिक तथा अनूदित दोनों प्रकार के नाटकों की रचना की है, जो इस प्रकार हैं
(क) मौलिक- सत्य हरिश्चन्द्र, नीलदेवी, श्रीचन्द्रावली, भारत-दुर्दशा, अंधेरनगरी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषय विषमौषधम्, सती-प्रताप, प्रेमजोगिनी ।
(ख) अनूदित- मुद्राराक्षस, रत्नावली, भारत-जननी, विद्या सुन्दर, पाखण्ड-विडम्बनम्, दुर्लभबन्धु, कर्पूरमंजरी, धनंजय विजय ।
उपन्यास- पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा ।
पत्र-पत्रिकाएँ (सम्पादन)- हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका, हरिश्चन्द्र मैगजीन (हरिश्चन्द्र मैगजीन का नाम आठ अंकों के बाद हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका हो गया था । ), कवि-वचन-सुधा ।
इतिहासवपुरातत्त्व सम्बन्धी- रामायण का समय, महाराष्ट्र देश का इतिहास, कश्मीर का राजवंश, अग्रवालों की उत्पत्ति, चरितावली । निबन्ध संग्रह-सुलोचना, परिहास-वंचक, मदालसा, लीलावती, दिल्ली दरबार दर्पण ।
काव्य कृतियाँ- वैजयन्ती, प्रेम-सरोवर, दान-लीला, कृष्ण-चरित्र, प्रेम-मालिका, प्रेम-तरंग, प्रेमाश्रु-वर्षण, सतसई शृंगार, प्रेम-प्रलय, प्रेम-फुलवारी, भारत-वीणा, प्रेम-माधुरी ।
यात्रा-वृत्तान्त-सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा ।
जीवनियाँ- सूरदास, जयदेव, महात्मा मुहम्मद ।

2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषा-शैली का वर्णन कीजिए ।
उत्तर– भाषा-शैली- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने हिन्दी भाषा को स्थायित्व प्रदान किया । इसे जनसामान्य की भाषा बनाने के लिए इन्होंने इसमें प्रचलित तद्भव एवं लोकभाषा के शब्दों का यथासम्भव प्रयोग किया और उर्दू-फारसी के प्रचलित शब्दों को भी इसमें स्थान दिया । लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग करके इन्होंने भाषा के प्रति जनसामान्य में आकर्षण उत्पन्न कर दिया । इन्होंने मुख्य रूप से यह ध्यान रखा कि यह भाषा सबकी समझ में आए और इस भाषा में प्रत्येक प्रकार के विचारों को सुस्पष्ट एवं प्रभावी ढंग से व्यक्त किया जा सके । इस प्रकार भारतेन्दु जी के प्रयासों से हिन्दी भाषा सरल, सुबोध एवं लोकप्रिय होती चली गई । भारतेन्दु जी की गद्य शैली व्यवस्थित और सजीव है । अपने वर्णप्रधान निबन्धों एवं इतिहास ग्रन्थों में भारतेन्दु जी ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है । ‘दिल्ली दरबार दर्पण’ की शैली वर्णनात्मक है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने यात्रा संस्मरणों में विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया है । यह शैली कवित्वपूर्ण आभा से मण्डित है । सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा आदि इसी शैली के उदाहरण हैं । वैष्णवता और भारतवर्ष, भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? आदि निबन्धों में भारतेन्दु जी की विचारात्मक शैली का परिचय मिलता है । भारतेन्दु जी द्वारा रचित जीवनी साहित्य व कई नाटकों में भावात्मक शैली का भी प्रयोग किया गया है । भारत-दुर्दशा, सूरदास की जीवनी, जयदेव की जीवनी आदि भावात्मक शैली में लिखी गई रचनाएँ हैं । कहीं-कहीं इनके निबन्धों, नाटकों आदि में हास्य-व्यंगयात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं । अँधेरनगरी’ तथा ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ जैसी इनकी हास्य-व्यंग्यात्मक शैली की रचनाएँ हैं ।

 व्याख्या सम्बन्धी प्रश्न


1— निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) आज बड़े…………. …………….. समय खौवें ।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ द्वारा लिखित ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? ‘ नामक पाठ से उद्धृत है ।
प्रसंग- इस गद्यांश में लेखक ने भारतीयों की उन्नति में प्रमुख बाधा, आलस्य की ओर संकेत करते हुए यह प्रेरणा दी है कि मूल रूप से समर्थ भारतीय यदि नेतृत्व के गुण तथा परिश्रम को अपना लें तो वे विश्व के किसी भी देश से पिछड़े नहीं रहेंगे ।
व्याख्या- इस गद्यांश में लेखक ने बलिया के ददरी मेले में अपार जनसमूह को उत्साह के साथ देखकर उनको होने वाले हर्ष तथा भारतवासियों की स्थिति के बारे में विचार व्यक्त किए हैं । भारतेन्दु जी कहते हैं कि यह भारत का महान् दुर्भाग्य है कि यहाँ के निवासी (भारतीय) अत्यन्त आलसी हैं । इस आलसी स्वभाव के कारण ही हम उन्नति नहीं कर पा रहे हैं । यही हमारे पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है । वास्तव में भारतीयों को रेलगाड़ी के डिब्बों की संज्ञा दी जा सकती है । जिस प्रकार रेलगाड़ी में अच्छे-से-अच्छे और मूल्यवान डिब्बे लगे रहने पर भी वे इंजन के अभाव में एक ही स्थान पर खड़े रहते हैं, उनमें गति उत्पन्न नहीं होती; उसी प्रकार भारतवासी विद्वान् भी हैं और शक्तिशाली भी, परन्तु उन्हें सही नेतृत्व नहीं मिलता है । यदि उन्हें सही नेतृत्व मिल जाए तो वे बड़े-से-बड़ा कार्य कर सकते हैं ।
भारतीयों को इस बात की आवश्यकता है कि कोई उन्हें उनके बल और पौरुष का स्मरण कराए और उनसे कहे कि कर्त्तव्य-मार्ग पर आगे बढ़ों, मौन साधे क्यों खड़े हुए हो ? इसके बाद उन्हें अपने बल और शक्ति का स्मरण उसी प्रकार हो आएगा, जिस प्रकार जाम्बवान् द्वारा याद दिलाए जाने पर हनुमान जी को अपने बल और शक्ति का स्मरण हो आया था । समस्या तो सही नेतृत्व की है । इसलिए भारतीयों को ऐसे नेता की आवश्यकता है, जो उनके बल और पौरुष का स्मरण कराकर उन्हें कर्तव्य-मार्ग की ओर अग्रसर करें । आज भारत में राजा, नवाब, रईस तथा अफसर लोग अपने कर्तव्यों का निर्वाह भली प्रकार से नहीं कर रहे हैं । राजा-महाराजा को तो पूजा-पाठ, भोजन तथा भोगविलास से समय ही नहीं मिलता जो वे अपने कर्तव्यों का पालन करें । सरकारी अफसरों को तो अनेकों सरकारी कार्य होते हैं, वे अपना समय थियेटरों आदि में व्यतीत करते हैं, तथा जो समय बचता है, उसमें वे सोचते है कि हम गन्दे लोगों के साथ अपना अनमोल स्वयं क्यों नष्ट करें ।

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? पाठ का सम्पूर्ण हल


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने -‘श्रीरामचरितमानस’ की पंक्ति का ‘का चुप साधि रहा बलवाना’ का बड़ा ही सटीक प्रयोग किया है ।
(2) भारतवासियों की उपमा रेलगाड़ी के डिब्बों से देकर उनकी स्थिति की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई है ।
(3) इन पंक्तियों में सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग कर देश-प्रेम की भावना से परिपूर्ण अभिव्यक्ति की गई है ।
(4) भाषाअन्य भाषाओं के शब्दों से युक्त, सरल, प्रवाहपूर्ण एवं मुहावरेदार ।
(5) शैली- उद्धरण ।
(6) गुण- प्रसाद ।
(7) शब्द- शक्ति, अभिधा ।


(ख) हम नहीं ……………….. …………………………………………..घुड़दौड़ हो रही है ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- भारतेन्दु जी ने लिखा है कि भारतवासी आलसी हो गए हैं । इस कारण भारत प्रगति की दौड़ में पिछड़ता जा रहा है । भारतवासियों ने अपने सुखमय और स्वर्णिम अतीत को भुला दिया है ।
व्याख्या- भारतेन्दु जी कहते हैं कि मैं तो इस बात पर आश्चर्यचकित हूँ कि भारतवासियों को अपनी वर्तमान दुर्दशा पर लज्जा क्यों नहीं आती । प्राचीनकाल में जब भारतीयों के पास विकास के पर्याप्त साधन नहीं थे, उन्होंने अपने ज्ञान और बुद्धि के बल पर अपने जीवन को सुखमय और उन्नत बनाने का प्रयास किया था । साधनहीनता की स्थिति में भी उन्होंने नक्षत्र-विज्ञान की खोज की तथा समय की गति के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । आज विदेशों में मूल्यवान दूरवीक्षण यन्त्र बनाए गए हैं और उनके सहयोग से नक्षत्र-समूहों की गति परखी जा रही है, किन्तु भारतीयों द्वारा बनाए गए प्राचीन सिद्धान्तों में आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया है । इसका कारण यह है कि हमारे पूर्वजों के जीवन में अकर्मण्यता नहीं थी । आज जबकि हम अंग्रेजी विद्या पढ़ रहे हैं, ज्ञान-विज्ञान पर आधारित अनेक प्रकार की पुस्तकों की रचना की जा चुकी है तथा विविध प्रकार के उपयोगी यन्त्र भी निर्मित किए गए है; ऐसी स्थिति में हम अनुपयोगी गाड़ी के समान तुच्छ हो गए हैं और हर क्षेत्र में विदेशियों पर आश्रित हैं । जबकि यह समय अग्रसर होने का है । आज के वैज्ञानिक युग में जब उन्नति की दिशा में बढ़ना आसान है । ऐसा लगता है कि जैसे उन्नति की दौड़ हो रही है ।


साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत पंक्तियाँ अतीत के गौरव का भावात्मक चित्र प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत करती हैं ।
(2) लेखक ने भारतीयों के आत्मगौरव को जाग्रत करने के लिए प्रभावशाली व्यंग्य का प्रयोग किया है ।
(3) भारतीयों को कूड़ा फेंकनेवाली गाड़ी की उपमा देते हुए उनके राष्ट्रीय गौरव को जगाने का प्रयास किया गया है ।
(4) भाषासरल एवं प्रवाहपूर्ण ।
(5) शैली- भावात्मक एवं लाक्षणिक ।
(6) गुण- प्रसाद ।
(7) शब्द- शक्ति लक्षण ।


(ग) अमेरिकन-अंगरेज……………. ………………..कहना चाहिए ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में भारतेन्दु जी ने भारतवासियों को सुझाव दिया है कि जब छोटे-छोटे देश भी अपने विकास में संलग्न हैं तब भारतवर्ष को भी अपनी उन्नति का पूरा प्रयास करना चाहिए ।

व्याख्या- भारतेन्दु जी का कहना है कि इस वैज्ञानिक युग में; जबकि उन्नति की दिशा में बढ़ना बहुत आसान है; अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि प्रत्येक देश के नागरिक अपनी-अपनी उन्नति के लिए प्रयासरत हैं । सभी का यह प्रयास है कि उन्नति के शिखर पर पहले वहीं पहुँच जाए । यहाँ तक कि जापानी भी, जो कि अधिक शक्तिशाली नहीं होते, वे भी अपनी उन्नति के लिए प्रयत्नशील हैं । ऐसी स्थिति में भी हमारे भारतवासी अपने ही स्थान पर खड़े-खड़े केवल पैरों से मिट्टी ही खोद रहे हैं । वे इन लघुकाय जापानियों को प्रगति-पथ पर बढ़ते देखकर भी लज्जित नहीं होते । भारतवासियों को यह समझना चाहिए कि ऐसे क्षणों में यदि वे एक बार पिछड़ जाएंगे तो फिर आगे नहीं बढ़ सकते । लेखक का मत है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में उन्नति के साधन इतनी सरलता से उपलब्ध हैं, जैसे वे अनायास प्राप्त वर्षा का जल हों । ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो लूट का माल बिखरा पड़ा हो और हमने आँखों पर पट्टी बाँध रखी हो अथवा वर्षा हो रही हो और हमने सिर पर छाता लगा रखा हो । तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष के लोग आलस्य अथवा अज्ञानवश उन्नति के सुलभ साधनों का न तो उपयोग ही कर पा रहे हैं और न ही उन्हें उपलब्ध करा पा रहे हैं ।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत अवतरण में भारतेन्दु जी ने कलात्मक ढंग से भारतवासियों को उनके पिछड़ेपन के लिए फटकार लगायी है ।
(2) भाषा- सरल और सुबोध । मुहावरों के प्रयोग से भाषा में प्रवाह उत्पन्न हुआ है ।
(3) शैलीप्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक ।

(घ) बहुत लोग…. …………………………व्यर्थ न जाए ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने विदेशियों की तुलना में भारतवासियों के निठल्ले बैठे रहने की आदत को स्पष्ट किया है ।
व्याख्या- लेखक कहता है कि यदि भारतवासियों से कार्य करने के लिए कहा जाए तो वे कहते हैं कि हमको पेट के धन्धे के मारे छुट्टी नहीं रहती है, हम उन्नति क्या करें । तुम्हारा पेट भरा है, तुमको दूर की सूझती है । लेकिन भारतवासियों को यह जानना चाहिए कि विश्व के किसी भी देश में सभी के पेट भरे हुए नहीं होते । पेट उन्हीं के भरे होते हैं, जो कर्म करते हैं । विदेशी लोग अपने खेतों को पैदावार के लिए जोतते और बोते समय भी यह सोचते रहते हैं कि वे ऐसा क्या नया करें, जिससे इसी खेत में पिछली फसल की तुलना में दुगुनी फसल उत्पन्न हो । इसी सन्दर्भ में लेखक विदेशी कोचवानों का भी उद्धरण देते हुए कहता है कि विदेशों में गाड़ी के कोचवान भी खाली समय में अखबार पढ़ते हैं अर्थात् अपने समय का सार्थक उपयोग करते हैं, जबकि भारतवासी अपने खाली समय को आलस्य, अकर्मण्यता और बेवजह की बकवास में बिता देते हैं । विदेशी लोग अपने खाली समय में भी ऐसी बात करते हैं जो उनके देश से सम्बन्धित होती है । वे अपने क्षणमात्र समय को भी व्यर्थ नहीं गँवाना चाहते ।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक ने भारतीयों में आलस्य के आधिक्य को उनकी उन्नति के मार्ग में बाधक माना है ।
(2) भाषा- सरल, स्वाभाविक एवं व्यावहारिक खड़ी बोली ।
(3) शैली- तुलनात्मक एवं उद्धरणात्मक ।


(ड़) जो लोग अपने ……………………….खोदकर फेक दो ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने देश-प्रेम की भावना से ओत प्रोत भारतीयों को देश के विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए बलिदान और त्याग की प्रेरणा दी है ।
व्याख्या- लेखक के अनुसार मनुष्य जिस देश या समाज में जन्म लेता है, यदि उसकी उन्नति में समुचित सहयोग नहीं देता तो उसका जन्म व्यर्थ है । देश-प्रेम की भावना ही मनुष्य को बलिदान और त्याग की प्रेरणा देती है । मनुष्य जिस भूमि पर जन्म लेता है और अपना विकास करता है, उसके प्रति प्रेम की भावना का उसके जीवन में सर्वोच्च स्थान होता है । जिन मनुष्यों में राष्ट्र के प्रति विशेष अनुराग होता है, उन्हें अपना सब कुछ बलिदान करते हुए राष्ट्र के विकास में आने वाली बाधाओं को जड़ से उखाड़ने का प्रयत्न करना चाहिए । अपनी कमियों को दूर करते हुए राष्ट्रविरोधी षड्यन्त्रकारियों को परास्त कर दें । जो बातें देश की उन्नति में अवरोध बने उन्हें समूल नष्ट करते हुए देश को विकास के मार्ग पर अग्रसर करें ।


साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने भारत की उन्नति के लिए देशवासियों को बलिदान और त्याग की प्रेरणा दी है ।
(2) देश के विकास में आने वाली बाधाओं को जड़ से उखाड़ने का सुझाव दिया है ।
(3) भाषा- सरल एवं प्रवाहपूर्ण ।
(4) शैली- भावात्मक ।


(च) सब उन्नतियों…….. …………. म्युनिसिपालिटी हैं ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने सभी प्रकार की उन्नतियों के मूल में धर्म है तथा मानव जीवन में त्योहारों के महत्व को इस तथ्य द्वारा प्रकट किया है ।
व्याख्या- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी कहते हैं कि यदि हमें अपने देश में किसी भी प्रकार की उन्नति करनी है तो हमारे सभी कार्य धर्म के अनुसार होने आवश्यक हैं । अतएव सबसे पहले हमें धर्म की उन्नति ही करनी होगी । यहाँ लेखक का धर्म से आशय उस आचरण से है, जो समाज अथवा राष्ट्र के कल्याण को ध्यान में रखकर किया जाए । प्रत्येक क्षेत्र में जब उसी कल्याणकारी भावना को ध्यान में रखकर कार्य किया जाएगा, तब ही सभी की समान रूप से उन्नति होगी । भारतेन्दु जी ने अंग्रेजों की नीति का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि अंग्रेजों की धर्मनीति और राजनीति परस्पर मिली हैं इस कारण वे लगातार उन्नति करते जा रहे हैं ।

हमारे यहाँ धर्म की आड़ में विविध प्रकार की नीति, समाज-गठन आदि भरे हुए हैं । ये उन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं करते । इसलिए धर्म की उन्नति से सभी प्रकार की उन्नति संभव है । लेखक कहते हैं कि यहाँ एक दो मिसालों के बारे में सुनो । लेखक बलिया के मेले का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यह स्थान इसलिए बनाया गया है कि जिससे दूर गाँवों से आए हुए लोग जो कभी आपस में नहीं मिलते थे, एक-दूसरे से मिलकर एक-दूसरे के सुख-दुःखों को जान सकें तथा गृहस्थी के काम में आने वाली जो चीजें इस मेले में मिलती है, उन चीजों को खरीद सकें । भारतेन्दु जी कहते हैं कि एकादशी का व्रत क्यों रखा जाता है, जिससे महीने में एक-दो व्रत करने से शरीर शुद्ध हो जाएँ । जब हम गंगाजी में नहाते है, तो पहले पानी सिर पर डालकर पैरों तक इसलिए डालते हैं, जिससे पैरों की गरमी सिर पर चढ़कर विकार उत्पन्न न कर पाएँ । दीवाली त्योहार के बहाने वर्ष में एक बार घर की सफाई हो जाती है तथा होली इस कारण मनाई जाती है जिससे इसकी अग्नि से वसंत ऋतु की बिगड़ी हुई हवा स्वच्छ हो जाएँ । लेखक कहते हैं कि ये त्योहार तुम्हारी नगरपालिका का कार्य करते हैं जो वातावरण, तथा शरीर को शुद्ध करते हैं ।


साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक ने सभी प्रकार की उन्नतियों के मूल में धर्म को निहित माना है ।
(2) अंग्रेजों की उन्नति के कारण के पीछे धर्म और राजनीति का परस्पर मिलना है ।
(3) भाषा- सरल एवं प्रवाहपूर्ण ।
(4) शैली- भावात्मक ।


निम्नलिखित सूक्तिपरकवाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) हमारे हिन्दुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ द्वारा लिखित ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? ‘ नामक निबन्ध से अवतरित है ।
प्रसंग- इस सूक्ति में आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छाशक्ति खो चुके भारतीयों की तुलना रेलगाड़ी से की गई है ।
व्याख्या- इस सारगर्भित सूक्तिपरक वाक्य में भारतेन्दु जी ने भारतीयों को रेलगाड़ी की संज्ञा दी है; क्योंकि जैसे रेलगाड़ी बिना इंजन के नहीं चलती, वैसे ही भारतीयों को भी प्रत्येक कार्य को पूरा करने के लिए एक कुशल नेतृत्व की आवश्यकता होती है । वे स्वयं कुछ नहीं कर सकते । उन्हें कोई जगाने वाला, उत्साहित करने वाला या मार्ग दिखाने वाला तो मिलना ही चाहिए । भारतीयों को अपना काम स्वयं करने के लिए आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छाशक्ति पैदा करनी ही होगी; क्योंकि काम करने की प्रेरणा हृदय की गहराइयों से ही उत्पन्न होती है ।


(ख) हम लोग निरी चुंगी के कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में भारतेन्दु जी ने अकर्मण्यता के कारण भारतवासियों की होने वाली अवनति पर प्रकाश डाला है ।
व्याख्या- भारतेन्दु जी कहते हैं कि बहुत पहले हमारे पूर्वजों ने बिना किसी साधन के ग्रह-नक्षत्रों के बारे में जो सूक्ष्म-अध्ययन किए थे और निष्कर्ष निकाले थे वे ही निष्कर्ष अब विदेशों में अनेक यन्त्रों की स्थापना के बाद निकाले जा सके हैं । आज जो ज्ञान-विज्ञान पर आधारित अनेक पुस्तकें और विविध यन्त्र भी सुलभ हैं, फिर भी हम कूड़ा-करकट फेंकने की गाड़ी के समान ही प्रतीत हो रहे हैं । भारतेन्दु जी के कहने का आशय यह है कि भारतवासी व्यर्थ के सामानों को इकट्ठा करने और ढोने वाले वाहन के समान हैं, जो मौलिक रूप से कुछ भी नहीं कर रहे हैं । प्रस्तुत सूक्ति के माध्यम से लेखक ने भारतवासियों को कर्मशील बनने की प्रेरणा दी है ।

(ग) जापानी टटुओं को हाँफते हुए दौड़ते देख करके भी लाज नहीं आती ।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग- जापानवासियों को टट्ट की भाँति परिश्रमी बताते हुए इस सूक्ति-वाक्य से भारतीयों में आत्मगौरव को जगाने का प्रयास किया गया है ।

व्याख्या- उन्नति की दौड़ में सभी देशों के नागरिक घोड़ों की भाँति तीव्रगति से दौड़ रहे हैं । जापान के निवासी शारीरिक शक्ति में अन्य देशवासियों की अपेक्षा कमजोर समझे जाते हैं, इसीलिए लेखक यहाँ जापानियों को टटू की संज्ञा दे रहा है । टटूओं की तरह दुर्बल होते हुए भी जापानी विकास के लिए निरन्तर प्रयास कर रहे है और अपनी शक्ति तथा सामर्थ्य के अनुरूप आगे-ही- आगे बढ़ते जा रहे हैं । जापानी आलस्य में विश्वास नहीं करते, वे अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्ण रूप से सजग हैं तथा अपनी शारीरिक दुर्बलता को उन्नति के मार्ग में बाधा नहीं बनने देते । उन्हें देखकर भारतवासियों को अपने आलस्य और निकम्मेपन पर लज्जा आनी चाहिए । आशय यह है कि भारतीयों को जापानियों से प्रेरणा लेनी चाहिए ।


(घ) इंग्लैण्ड का पेट भी कभी यों ही खाली था । उसने एक हाथ से अपना पेट भरा, दूसरे हाथ से उन्नति के काँटों को साफ किया ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग– इस सक्ति के अंतर्गत प्रारंभ में इंग्लैंण्ड की निर्धनतापूर्ण स्थिति एवं उसको दर करने हेतु वहाँ के निवासियों के कर्मठतापूर्ण प्रयासों को स्पष्ट किया गया है ।
व्याख्या- भारतवासियों को प्रेरित करते हुए भारतेन्दु जी ने कहा है कि भारत की भाँति पहले इंग्लैण्ड जैसा विकसित देश भी निर्धन था, लेकिन उसने निर्धनता के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं किया । वहाँ के निवासियों ने कभी अपने आप को भाग्य के भरोसे पर नहीं छोड़ा, वरन् चुनौतियों का डटकर सामना किया । उसने अकर्मण्यता के स्थान पर कर्मशीलता को अपना लक्ष्य बनाया । उसने एक ओर अपनी भूख एवं निर्धनता को मिटाने का प्रयास किया तो दूसरी ओर अपनी उन्नति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को समाप्त करने का प्रयास किया । परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड एक धनी, साधन संपन्न तथा उन्नत देश बना । इसी प्रकार निर्धनता का बहाना लेकर अकर्मण्य बने रहने के स्थान पर भारत को भी अपनी कर्मठता का परिचय देना चाहिए । इंग्लैण्ड का उदाहरण उसके सामने है । भारत को उससे प्रेरणा लेनी चाहिए ।


(ङ) सब उन्नतियों का मूल धर्म है ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में धर्म के महत्व पर प्रकाश डाला गया है ।
व्याख्या- विद्वान् लेखक का कहना है कि सर्वप्रथम हमें धर्म की उन्नति करनी चाहिए; क्योंकि धर्म की उन्नति होने पर सभी प्रकार की उन्नति स्वतः होने लगती है । इसीलिए कहा गया है कि ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अर्थात् जिस धर्म की हम रक्षा करते हैं, वही धर्म हमारी रक्षा करता है । किसी भी देश की उन्नति तभी संभव है जब उस देश के रहने वालों में धर्म के अनुसार आचरण करने की प्रवृत्ति का विकास हो । धर्म का अर्थ उस आचरण से है जो समाज अथवा राष्ट्र के कल्याण को ध्यान में रखकर किया जाए ।


(च ) परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति के द्वारा भारतवासियों को विदेशी वस्तुओं एवं विदेशी भाषा को त्यागकर; स्वदेशी वस्तुओं तथा स्वदेशी भाषा को अपनाने की प्रेरणा दी गई है । व्याख्या- भारतवासियों की निष्क्रियता और दूसरों पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति पर दुःख प्रकट करते हुए भारतेन्दु जी ने उन्हें कर्म करने तथा अपनी भाषा के माध्यम से उन्नति करने की प्रेरणा दी है; क्योंकि अपनी भाषा के अभाव में हम एक-दूसरे की भावनाओं को नहीं समझ सकते और न ही अपने विचारों का आदान-प्रदान सरलता से कर सकते है; अत: ऐसी परिस्थितियों में विकास असंभव प्रतीत होता है । भारतेन्दु जी ने कहा है कि हमें विदेशी वस्तुओं के प्रति अपना मोह त्यागना होगा और अपने देश में ही अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का निर्माण करना होगा । उन्नति के लिए अपनी भाषा का विकास भी परम आवश्यक है; क्योंकि ज्ञान-विज्ञान को अपनी भाषा में ही सरलता से सीखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त स्वदेशी भाषा एवं स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग से अपने देश के प्रति सम्मान एवं गौरव की भावना का विकास तो होता है, साथ ही आत्मनिर्भरता भी आती है ।

अन्य परीक्षोपयोगीप्रश्न__


1— ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? ‘पाठ का सारांश लिखिए ।
उत्तर—- प्रस्तुत निबन्ध भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी के द्वारा दिसम्बर 1884 में बलिया के ददरी मेले के अवसर पर आर्य देशोपकारणी सभा में भाषण देने के लिए लिखा गया है । लेखक कहते हैं कि आज का दिन बड़ी खुशी का है, जब मैं इतने अपार जनसमूह को उत्साह के साथ एक स्थान पर एकत्र देखता हूँ । भारतेन्दु जी कहते हैं कि यह देश का बड़ा दुर्भाग्य है कि भारतवासियों में विविध गुणों तथा योग्यता होने के बाद भी, सही नेतृत्व के अभाव में वे उन्नति नहीं कर सके हैं । हमारे देश के लोगों को रेलगाड़ी की संज्ञा दी जा सकती है, जिस प्रकार रेलगाड़ी में ऊँचे किराए तथा सामान्य किराए के डिब्बे लगे रहते हैं परन्तु इंजन के अभाव में वे स्थिर खड़े रहते हैं, उसी प्रकार भारत के लोग उच्च व मध्यम श्रेणी के विद्वान, वीर एवं शक्ति सम्पन्न लोग है,परन्तु नेतृत्वहीनता के कारण वे अपनी उन्नति नहीं कर पाते । यदि कोई मार्गदर्शक भारतीयों को बल, पौरुष और ज्ञान का स्मरण दिला सके, तो वे कठिन-से-कठिन तथा बड़ा-से-बड़ा कार्य आसानी से कर सकते हैं । जिस प्रकार जाम्बवान् ने हनुमान जी को उनका बल याद दिलाया था । हिन्दुस्तानी राजा, महाराजा तथा हाकिमों को तो अपने भोग विलास से समय ही नहीं मिलता । सरकारी अफसरों को तो हजारों काम होते है जो समय बचता है उसमें वे सोचते है कि गन्दे व्यक्तियों से मिलकर व्यर्थ समय क्यों नष्ट किया जाए । आर्य जब भारत आए थे तब भी भारत की उन्नति का दायित्व राजा तथा ब्राह्मणों का था । परन्तु भारत का दुर्भाग्य इन्हीं लोगों को निकम्मेपन ने घेर रखा है ।

लेखक कहते हैं कि आज संपूर्ण भारतीय समाज को निकम्मेपन ने घेर रखा है और इनको अपनी इस पिछड़ी दशा पर लज्जा का अनुभव भी नहीं होता । इन्हीं के पूर्वजों ने मिट्टी की झोपड़ियों ने बैठकर पेड़-पौधों के नीचे अध्ययन कर बिना साधनों तथा यन्त्रों के केवल बाँस की नलिकाओं के द्वारा नक्षत्र-मण्डल एवं सौर-परिवार का इतना सूक्ष्म अध्ययन किया कि विदेशों में लाखों रूपए की लागत से बनने वाली दूरबीनों की मदद से किया गया अध्ययन और हमारे पूर्वजों द्वारा किया गया अध्ययन समान रूप से सत्य प्रतीत होते हैं । हमारी अकर्मण्यता हमें पीछे धकेल रही है । आज वैज्ञानिक युग में उन्नति की दिशा में बढ़ना आसान है । अमेरिका, इंग्लैण्ड फ्रांस आदि प्रत्येक देश के नागरिक अपनी-अपनी उन्नति के लिए प्रयास कर रहे हैं । सभी उन्नति के शिखर पर पहले पहुँचना चाहते हैं । यहाँ तक कि जापानी लोग भी अपनी उन्नति के लिए प्रयत्नशील है । ऐसी स्थिति में हम भारतवासी अपने स्थान पर खड़े होकर पैरों से मिट्टी खोद रहे हैं । यह उन्नति का समय है इसमें जो पीछे रह जाएगा वह कोटि उपाय करने पर भी आगे नहीं बढ़ सकेगा । ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे लूट का माल बिखरा पड़ा है और हमने आँखों पर पट्टी बाँध ली हो अथवा वर्षा हो रही है और हम छाता लगाने के कारण वर्षा का आनन्द नहीं ले पा रहे हैं ।

लेखक ने भागवत् के श्लोक का उदाहरण देते हुए कहा है कि भगवान कहते हैं कि मनुष्य जन्म बड़ा कठिनता से प्राप्त होता है, उसके मिलने पर गुरु की कृपा और मेरी अनुकूलता पाकर भी जो मनुष्य इस संसार सागर के पार न जाय उसको आत्महत्यारा कहना चाहिए । ऐसी ही स्थिति इस समय हिन्दुस्तान की है । लेखक कहता है कि यदि भरतवासियों से कार्य करने के लिए कहा जाए तो वे कहते हैं कि हमें तो पेट के धंधे के कारण छुट्टी ही नहीं मिलती, हम क्या उन्नति करें । तुम्हारा पेट भरा हुआ है इसलिए तुमको दूर की सूझती है । लेकिन भारतवासियों को जानना चाहिए कि इंग्लैंण्ड का पेट भी कभी यों ही खाली था, उसने एक हाथ से अपने पेट को भरा, तथा दूसरे हाथ से अपने उन्नति के काँटे साफ किए । विदेशी लोग अपने खेतों को जोतते तथा बीते समय भी यह सोचते है कि वे क्या नया करें, जिससे पैदावार दुगुनी हो जाए । वहाँ के गाड़ी के कोचवान भी खाली समय में अखबार पढ़कर समय का सदुपयोग करते हैं जबकि भारत अपने खाली समय को आलस्य, अकर्मण्यता और बेवजह की बकवास में बिता देते हैं । विदेशी लोग अपने क्षणमात्र समय को भी बर्बाद नहीं करना चाहते । इसके विपरीत भारत में निकम्मेपन को अमीर समझा जाता है । आज भारत में चारों तरफ देखने पर काम न करने वाले दिखाई पड़ते हैं । जिनका कोई रोजगार नहीं है । काम नहीं है तो खर्च करने के लिए पैसे भी नहीं है । ऐसे लोगों की पंक्ति लंबी है जिनके पास काम है, मगर वे करना नहीं चाहते । किसी ने ठीक ही कहा है कि दरिद्र व्यक्ति की दशा बिलकुल वैसी ही है जैसी लज्जाहीन बहू, जो कपड़े फटे होने के कारण अपने अंगों को उनसे छुपाने का प्रयास करती है । ऐसी दशा ही हिन्दुस्तानियों की भी है । जनगणना के अनुसार यहाँ जनसंख्यवा बढ़ रही है तथा रूपया कम हो रहा है । अब बिना रूपया बढ़ाए काम नहीं चलेगा । तुम इसके लिए किसी चमत्कार की आशा छोड़कर स्वयं ही तैयार हो जाओ, कब तक स्वयं को जंगली, हूस, मूर्ख, बोदे जैसे उपनामों से पुकरावाओगे । तुम इस उन्नति की दौड़ में दौड़ों, अगर अबकी बार पीछे रह गए तो रसातल में ही पहुँच जाओगे । अगर तुम लोग अब भी स्वयं को न सुधारों तो तुम ही रहो । तुम ऐसा सुधार करो जिससे सब तरफ उन्नति हो । जो बातें तुम्हारे मार्ग में बाधा बने उनको छोड़ दो । चाहे तुम्हें इसके लिए लोग कुछ भी कहे । जो लोग देश का हित चाहते हैं उन्हें अपने सभी प्रकार के सुख, धन और सम्मान का बलिदान करने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए । देश की उन्नति के लिए सबसे पहले उन बाधाओं एवं बुराईयों का पता लगाना होगा, जिनके कारण हमारा विकास अवरूद्ध हो गया है । देश की उन्नति में बाधा पहुँचाने वाले इन सभी तत्वों को नष्ट करना होगा, तभी देश की उन्नति संभव है ।

यदि हमें अपने देश में किसी भी प्रकार की उन्नति करनी है तो हमारे सभी कार्य धर्म के अनुसार होने आवश्यक है । इसलिए हमें सबसे पहले धर्म की उन्नति करनी चाहिए । भारतेन्दु जी ने अंग्रेजों की नीति का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि अंग्रेजों की धर्मनीति और राजनीति परस्पर मिली है । इस कारण वे लगातार उन्नति करते जा रहे हैं । हमारे यहाँ धर्म की आड़ में विविध प्रकार की नीति, समाज-गठन आदि भरे हुए हैं । ये उन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं करते । इसलिए धर्म की उन्नति से सभी प्रकार की उन्नति संभव है । लेखक ने त्योहारों को म्युनिसिपालिटी बताया है जिनके द्वारा घर, शरीर तथा वातावरण शुद्ध हो जाते हैं । उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया है कि होली की अग्नि से वसंत की बिगड़ी हवा स्वच्छ हो जाती है, दीवाली के बहाने घर की सफाई हो जाती है तथा एकादशी का व्रत करने से शरीर शुद्ध हो जाता है । भारतेन्दु जी कहते हैं कि हमारे देश में प्रचलित त्योहार, व्रत, नियम, आदि समाज-धर्म है । परन्तु बदलती हुई परिस्थितियाँ और समय के अनुसार इनमें भी परिवर्तन की आवश्यकता है । हमारे पूर्वजों ने जो नियम बनाए थे, उनका आशय न समझ उन्हीं की उत्तराधिकारी पीढ़ी ने अपनी सुविधा और स्वार्थपूर्ति के लिए मनमाने नियम और धर्म बना लिए हैं । ऐसे सभी नियमों और धर्मों के पुनर्निरीक्षण की आवश्यकता है, जिससे सच्चाई की पहचान की जा सके । ऋषि-मुनियों ने नियमों और धर्मों को क्यों बनाया है इसकी हमें वैज्ञानिक खोज करनी चाहिए और उनमें से जो बातें हमारे समाज और देश के लिए उपयोगी हो उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए । जिनको छोड़ने की आवश्यकता है उन्हें छोड़ देना चाहिए । सभी जातियों के लोग ऊँच-नीच छोड़कर भाईचारे से रहे । भारतेन्दु जी कहते हैं कि हम अपने उपभोग की सामान्य वस्तु भी स्वयं निर्मित करने का प्रयास नहीं करते । हमें अमेरिका में बनी धोती पहनते हैं, अंगा इंग्लैंड का तथा कंघी फ्रांस की प्रयोग करते हैं । छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए आत्मनिर्भर होने के लिए हमें अपने आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा । भारतेन्दु जी भारतीयों में स्वदेशी की भावना को बल देते हुए कहते हैं कि एक बार इज्जत का ख्याल न रखने वाले एक महाशय एक महफिल में किसी के कपड़े पहनकर चले गए तथा उनके कपड़ों को पहचान लिया । इस पर भारतेन्दु जी ने दुःख जताते हुए कहा है कि आज भारतीय इतने अकर्मण्य और परालंबी हो गए हैं कि हम दैनिक उपयोग की वस्तु का भी निर्माण नहीं कर सकते । अपने देश को स्वावलंबी राष्ट्र बनाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं और अपनी भाषा का प्रयोग करना होगा । विदेशी भाषा और वस्तुओं पर अपनी निर्भरता को समाप्त करना होगा । तभी भारतवर्ष की उन्नति संभव है ।

2–भारतेन्दु के अनुसार देश किस प्रकार उन्नति कर सकता है ?
उत्तर—- भारतेन्दु जी के अनुसार अपने दैनिक उपभोग की वस्तुओं का निर्माण स्वयं करके, अपने लड़कों को शिक्षा, रोजगार, कारीगरी सिखाकर देश की संपदा को देश में रखकर, जो विभिन्न मार्गों के द्वारा विदेशों को जाती है, से देश की उन्नति संभव है । अपने धर्म की उन्नति करके सब प्रकार की उन्नति हो सकती है । विदेशी वस्तु तथा विदेशी वस्तु का निषेध करके तथा राष्ट्र करके तथा राष्ट्र को स्वावलंबी बनाकर हमारी उन्नति निश्चित है ।

3- भारतेन्दु ने इंग्लैण्ड की उन्नति का क्या कारण बताया ?
उत्तर-.- लेखक कहते हैं कि इंग्लैण्ड भी कभी खाली पेट अर्थात् उन्नत नहीं था । उसने अपने प्रयासों से अपना पेट भी भरा तथा अपने उन्नति के काँटों को भी दूर किया । वहाँ के लोग अपने खेतों को पैदावार के लिए जोतते और बीते समय भी यही सोचते रहते हैं कि वे ऐसा क्या नया करें, जिससे इसी खेत में पिछली फसल की तुलना में दुगुनी फसल उत्पन्न हो । वहाँ के कोचवान भी खाली समय में अखबार पढ़ते है तथा अपने समय का सार्थक उपयोग करते हैं । वहाँ लोग खाली समय में ऐसी बात करते हैं जो उनके देश से सम्बन्धित होती है । वे अपने क्षणमात्र समय को भी व्यर्थ नहीं गँवाना चाहते । यही उनकी उन्नति का कारण है ।

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