up board class 10 hindi full solution chapter 8 sanskrit khand भारतीय संस्कृति:
up board class 10 hindi full solution chapter 8 sanskrit khand भारतीय संस्कृति: सभी अवतरण का हिंदी अनुवाद
अवतरण -1
मानव-जीवनस्य संस्करणं संस्कृतिः। अस्माकं पूर्वजाः मानवजीवनं संस्कर्तुं महान्तं प्रयत्नम् अकुर्वन् । ते अस्माकं जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः।
कठिन शब्दों का अर्थ –
[ संस्करणं =संस्कार ( दोषों को दूर करना ) । संस्कर्तुं = सुधार करने के लिए। संस्करणाय = सँवारने के लिए। अदर्शयन् = दिखाया।]
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘संस्कृत-खण्ड’ के ‘भारतीया संस्कृतिः पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग-इसमें भारतीय संस्कृति की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।
अनुवाद-
मानव जीवन का संस्कार ही (दोष आदि को दूर करना) संस्कृति है। हमारे पूर्वजों ने मानव-जीवन के सुधार के लिए महान् प्रयत्न किये। उन्होंने हमारे जीवन के संस्कारों के लिए जिन आचारों और विचारों को दिखाया, वह सब हमारी संस्कृति है।
“विश्वस्य स्रष्टा ईश्वरः एक एव” इति भारतीय-संस्कृतेः मूलम्। विभिन्नमतावलम्बिनः विविधैः नामाभिः एकम् एव ईश्वरं भजन्ते । अग्निः, इन्द्रः, कृष्णः,करीमः, रामः, रहीमः,जिनः, बुद्धः, ख्रिस्तः, अल्लाहः इत्यादीनि नामानि एकस्य एव परमात्मनः सन्ति। तम् एव ईश्वरं जनाः गुरुः इत्यपि मन्यन्ते। अतः सर्वेषां मतानां समभावः सम्मानश्च अस्माकं संस्कृतेः सन्देशः।
कठिन शब्दों का अर्थ –
[ स्रष्टा = रचने वाला । विभिन्नमतावलम्बिनः (विभिन्न+मत + अवलम्बिन:) = विभिन्न मतों को मानने वाले। समभावः = समान भाव।।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘संस्कृत-खण्ड’ के ‘भारतीया संस्कृतिः पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण में भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व को बताया गया है।
अनुवाद-
“”विश्व को रचने वाला ईश्वर एक ही है | “”, यह भारतीय संस्कृति का मूल है। अनेक मतों को मानने वाले अनेक नामों से एक ही ईश्वर का भजन करते हैं । अग्नि, इन्द्र, कृष्ण, करीम, राम, रहीम, जिन, बुद्ध, ईसा, अल्लाह इत्यादि नाम एक ही परमात्मा के हैं। उसी ईश्वर को लोग ‘गुरु’ भी मानते हैं । अत: सब मतों के प्रति समान भाव और सम्मान ही हमारी संस्कृति का सन्देश है |
अवतरण 3-
भारतीय संस्कृतिः तु सर्वेषां मतावलम्बिन सङ्गमस्थली। काले-काले विविधाः विचाराः भारतीय-संस्कृतौ समाहिताः। एषा संस्कृतिः सामासिकी संस्कृतिः | यस्याः विकासे विविधानां जातीनां, सम्प्रदायानां, विश्वासानाञ्च योगदानं दृश्यते । अतएव अस्माकं भारतीयानाम् एका संस्कृतिः एका च राष्ट्रियता । सर्वेऽपि वयं एकस्याः संस्कृतेः समुपासकाः, एकस्य राष्ट्रस्य च राष्ट्रियाः । यथा भ्रातरः परस्परं मिलित्वा सहयोगेन सौहार्देन च परिवारस्य उन्नतिं कुर्वन्ति, तथैव अस्माभिः अपि सहयोगेन सौहार्देन च राष्ट्रस्य उन्नतिः कर्त्तव्या ।
[ काले-काले = समय-समय पर। समाहिताः = मिल गये हैं। सामासिकी = मिली-जुली। समुपासकाः = उपासक। सौहार्देन = मित्रभाव से। मिलित्वा=मिल कर के तथैव = उसी प्रकार, कर्तव्या:= करनी चाहिए ]
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘संस्कृत-खण्ड’ के ‘भारतीया संस्कृतिः पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में भारतीय संस्कृति की विशालता और राष्ट्र निर्माण में योगदान के बारे में बताया गया है |
अनुवाद-
भारतीय संस्कृति तो सभी मतों के मानने वालों कीसंगमस्थली (मिलन-स्थल) है । समय-समय पर अनेक प्रकार के विचार भारतीय संस्कृति में मिलते रहे हैं । यह संस्कृति मिली-जुली संस्कृति है, जिसके विकास में अनेक जातियों, सम्प्रदायों और विश्वासों का योगदान दिखाई देता है। इसलिए हम भारतवासियों की एक संस्कृति और एक राष्ट्रीयता है। हम सभी एक संस्कृति की उपासना करने वाले और एक राष्ट्र के नागरिक हैं। जैसे सब भाई आपस में मिलकर सहयोग और प्रेमभाव से परिवार की उन्नति करते हैं, उसी प्रकार हमें भी सहयोग और मित्रता के भाव से राष्ट्र की उन्नति करनी चाहिए ।
अवतरण 4
अस्माकं संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते । मानवजीवनं संस्कर्तुम् एषा यथासमयं नवां नवां विचारधारा स्वीकरोति, नवां शक्ति च प्राप्नोति। अत्र दुराग्रहः नास्ति, यत् युक्तियुक्तं कल्याणकारि च तदत्र सहर्ष गृहीतं भवति। एतस्याः गतिशीलतायाः रहस्यं मानवजीवनस्य शाश्वतमूल्येषु निहितम्, तद् यथा सत्यस्य प्रतिष्ठा, सर्वभूतेषु समभावः विचारेषु औदार्यम्, आचारे दृढता चेति ।
संस्कर्तुम् = सुधार करने के लिए। नवां = नयी। दुराग्रहः = हठ। युक्तियुक्तं = ठीक-ठीक, उचित। एतस्याः = इसकी। शाश्वतमूल्येषु = सदा रहने वाले मूल्यों में | निहितम् = स्थित है। औदार्यम् = उदारता।सर्व भूतेषु= सभी प्राणियों में ||
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘संस्कृत-खण्ड’ के ‘भारतीया संस्कृतिः पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में भारतीय संस्कृति की विचारधारा का वर्णन किया गया है ||
अनुवाद –
हमारी संस्कृति सदा गतिशील रही है । मानव-जीवन का सुधार करने के लिए यह समयानुसार नयी-नयी विचारधारा को स्वीकार कर लेती है, और नयी शक्ति को प्राप्त करती है। इसमें दुराग्रह (हठधर्मिता) नहीं है, जो युक्तिसंगत और कल्याणकारी है, वह इसमें हर्षपूर्वक ग्रहण किया जाता है । इसकी गतिशीलता का रहस्य मानव-जीवन में सदा रहने वाले मूल्यों में स्थित है; जैसे कि सत्य का सम्मान, सभी प्राणियों के प्रति समान भाव, विचारों में उदारता और आचरण में दृढ़ता।
अवतरण 5-
एषा कर्मवीराणां संस्कृतिः “”कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः””| इति अस्याः उद्घोषः। पूर्वं कर्म, तदनन्तरं फलम् इति अस्माकं संस्कृते नियमः । इदानीं यदा वयं राष्ट्रस्य नवनिर्माणे संलग्नाः स्मः, निरन्तरं कर्मकरणम् अस्माकं मुख्यं कर्त्तव्यम्। निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं, अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वथा वर्जनीयम् , यदि वयं विपरीतम् आचरामः तदा न वयं सत्यं भारतीय-संस्कृतेः उपासकाः। वयं तदैव यथार्थं भारतीया: यदास्माकम् आचारे विचारे च अस्माकं संस्कृतिः लक्षिता भवेत्। वयं अभिलषाम: यत विश्वस्य अभ्युदयाय भारतीयसंस्कृतेः एषः दिव्यः सन्देशः लोके सर्वत्र प्रसरेत्-
कर्मवीराणां =कर्मवीरों की (कर्म में संलग्न रहने वालों की)। कुर्वन्नेवेह (कुर्वन् + एव + इह) = यहाँ करते हुए ही। जिजीविषेच्छतं ( जिजीविषेत् + शतम् ) समाः = सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए । उद्घोषः = घोषणा । कर्मकरणम् = कर्म करना। वर्जनीयम् = त्यागने योग्य । विपरीतम् = विरुद्ध ।आचरामः = आचरण करते हैं । लक्षिता भवेत् = दिखाई दे । अभिलषामः = चाहते हैं ( अभिलाषा करते है ) । अभ्युदयाय = उन्नति के लिए । प्रसरेत् = प्रसारित हो ।।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘संस्कृत-खण्ड’ के ‘भारतीया संस्कृतिः पाठ से उद्धृत है।
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में हमारी संस्कृति को कर्मवीरों की संस्कृति बताया गया है। तथा कर्तव्य पथ पर चलने की सलाह दी गयी है |
अनुवाद —
यह कर्म में संलग्न रहने वालों (कर्मवीरों) की संस्कृति है । “”यहाँ कर्म करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए””। यही इसकी घोषणा है । पहले कर्म, बाद में फल–यह हमारी संस्कृति का नियम है । इस समय जब हम लोग राष्ट्र के नव-निर्माण में लगे हुए हैं, निरन्तर काम करना ही हमारा मुख्य कर्तव्य है। अपने परिश्रम का फल भोगने योग्य है, दूसरे के श्रम का शोषण त्याग करने योग्य है। यदि हम विपरीत आचरण करते हैं, तो हम भारतीय संस्कृति के सच्चे उपासक नहीं हैं । हम तभी वास्तविक रूप में भारतीय हैं, जब हमारे आचार और विचार में हमारी संस्कृति दिखाई दे । हम सब चाहते हैं कि संसार की उन्नति के लिए भारतीय संस्कृति का यह दिव्य सन्देश संसार में सब जगह फैले ।
श्लोक –
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मी कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥
निरामयाः = रोगरहित। भद्राणि = कल्याण। दुःखभाग् = दु:खी। भवेत् = होवे।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के संस्कृत खण्ड’के ‘भारतीय संस्कृतिः’नामक पाठ से लिया गया है ।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में भारतीयों लोगों की सोच पर प्रकाश डाला गया है।
अनुवाद-
“सब सुखी हों। सब रोगरहित (निरोगी) हों। सब कल्याण को देखें, अर्थात् सभी का कल्याण हो। कोई भी दुःखी न हो, अर्थात् किसी को कोई भी दुःख न हो।”
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