UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 12TH SAMANY HINDI CHAPTER 2 भाग्य और पुरूषार्थ

UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 12TH SAMANY HINDI CHAPTER 2 भाग्य और पुरूषार्थ

UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 12TH SAMANY HINDI CHAPTER 2 भाग्य और पुरूषार्थ
भाग्य और पुरूषार्थ
भाग्य और पुरूषार्थ पाठ का  सम्पूर्ण हल 

1- जैनेन्द्र कुमार का जीवन-परिचय देते हुए इनकी कृतियों का वर्णन कीजिए ।।


उत्तर – – लेखक परिचय- सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार का जन्म 2 जनवरी सन् 1905 ई० को कौड़ियागंज, अलीगढ़ में हुआ था ।। इनके पिता का नाम श्री प्यारे लाल तथा माता का नाम श्रीमती रमादेवी था ।। बचपन में ही ये पिता की छत्रछाया से वंचित हो गए थे ।। इनकी माता तथा नाना के संरक्षण में इनका बाल्यकाल व्यतीत हुआ ।। इनका मूल नाम आनन्दी लाल था ।। हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल “ऋषि ब्रह्मचर्याश्रम” से इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की ।। पंजाब से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्होंने उच्च शिक्षा के लिए “काशी हिन्दू विश्वविद्यालय” में प्रवेश लिया ।। सन् 1921 ई० में महात्मा गाँधी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन में इनका सकारात्मक योगदान रहा और इसी कारण इनका शिक्षा का क्रम टूट गया ।। इन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से साहित्य की विविध-विधाओं के क्षेत्र की श्रीवृद्धि की, लेकिन कहानीकार व उपन्यासकार के रूप में इनको विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई ।। गाँधी जी से प्रभावित होने के कारण ये अहिंसावादी व गाँधीवादी दर्शन के प्रतीक के रूप में जाने जाते हैं ।। इन्होंने कुछ राजनीतिक पत्रिकाओं का भी सम्पादन किया; जिस कारण इनको जेल भी जाना पड़ा ।। जेल में ही स्वाध्याय करते हुए ये साहित्य-सृजन में संलग्न रहे ।। 24 दिसम्बर सन् 1988 ई० को माँ सरस्वती का यह महान् सुपुत्र इस संसार से विदा हो गया ।।

कतियाँ-जैनेन्द्र जी द्वारा रचित कतियाँ निम्न प्रकार हैं–
निबन्ध-सोच विचार, जड़ की बात, प्रस्तुत प्रश्न, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेम, मन्थन, परिवार, काम-क्रोध, विचारवल्लरी, साहित्य-संचय ।।
कहानी- “खेल” (सन् 1928 ई० में “विशाल भारत” में प्रकाशित पहली कहानी) ।। फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, जयसन्धि, एक रात, वातायन, दो चिड़ियाँ, पाजेब, ध्रुवयात्रा, जाह्नवी, अपना-अपना भाग्य, ग्रामोफोन का रिकॉर्ड, पान वाला, मास्टर साहब, पत्नी ।।
उपन्यास- सुखदा, जहाज का पंछी, त्यागपत्र, व्यतीत, सुनीता, कल्याणी, विवर्त, परख, मुक्तिबोध, जयवर्धन ।।
संस्मरण-ये और वे ।।
अनुवाद- पाप और प्रकाश (नाटक), मन्दाकिनी (नाटक), प्रेम में भगवान (कहानी संग्रह) ।।
इनके प्रथम उपन्यास ‘परख” पर साहित्य अकादमी द्वारा ‘पाँच सौ रुपये के पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया ।।

2- जैनेन्द्र कुमार की भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए ।।

उत्तर – – भाषा-शैली की विशेषताएँ- कथाकार और निबन्धकार दोनों ही रूपों में अपने दायित्वों को निभाने के कारण जैनेन्द्र जी की भाषा को भी हम दो वर्गों में विभाजित सकते हैं ।। इनकी भाषा का एक स्वरूप इनके उपन्यासों और कहानियों में उपलब्ध होता है तथा दूसरे स्वरूप का विकास इनके निबन्धों में हुआ है ।। इनके द्वारा रचित उपन्यासों और कहानियों में विचारों के स्थान पर भावों को ही प्रधानता दी गई है ।। अतः इनकी कथात्मक रचनाओं की भाषा में सरलता है ।। विचार और चिन्तन की प्रधानता होने के कारण इनके निबन्धों में भाषा का गम्भीर रूप ही मिलता है; अतः इनकी भाषा में कहीं-कहीं दुरूहता भी आ गई ।। जैनेन्द्र जी की भाषा विषय के अनुरूप स्वयं परिवर्तित हो जाती है ।।

इनके विचारों ने जिस स्थान पर जैसा स्वरूप धारण किया है, इनकी भाषा वहाँ उसी प्रकार का रूप धारण कर लेती है ।। गम्भीर स्थलों पर भाषा का रूप गम्भीर हो गया है ।। ऐसे स्थलों पर वाक्य बड़े-बड़े हैं तथा तत्सम शब्दों की प्रचुरता दिखाई देती है, किन्तु जहाँ वर्णनात्मकता आई है अथवा उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं, वहाँ इनकी भाषा व्यावहारिक और सरल हो गई है ।। ऐसे स्थलों पर वाक्य भी छोटे-छोटे है ।। यद्यपि जैनेन्द्र जी ने साहित्यिक हिन्दी का प्रयोग किया है, तथापि इनकी भाषा में संस्कृत के शब्दों की अधिकता नहीं है ।। इन्होंने अरबी, फारसी, उर्दू तथा अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों का स्वच्छन्दतापूर्वक प्रयोग किया है, इससे इनकी भाषा ने व्यावहारिक और स्वाभाविक रूप धारण कर लिया है ।। भावों को प्रकट करने की शक्ति, सहजता, चमत्कार और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए जैनेन्द्र जी ने अपनी भाषा में मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग किया है ।। दर-दर भटकना, मन का ठिकाना नहीं होना, हाथ फैलाना, गया बीता होना, पूँछ हिलाना, ठनठन गोपाल होना, मुँह उठाकर चलना आदि कितने ही मुहावरे इनकी भाषा में देखे जा सकते हैं ।। इस प्रकार जैनेन्द्र जी की भाषा प्रायः सीधी-सादी, सरल एवं स्वाभाविक है ।। हाँ, कुछ निबन्धों में अवश्य ही संस्कृतनिष्ठता अधिक मात्रा में मिलती है ।।

जैनेन्द्र जी ने प्रायः दो प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया है-
1- विचारात्मक शैली, 2- वर्णनात्मक शैली ।।
जैनेन्द्र जी के निबन्धों में प्रायः विचारात्मक शैली का प्रयोग हुआ है ।। इस शैली में गम्भीरता और विचार-बहुलता है ।। चिन्तन के क्षणों में इस शैली में दुरूहता भी आ गई है ।। जिस क्षण जैनेन्द्र जी विचारों के क्षेत्र से नीचे उतर आते हैं, इनकी शैली वर्णनात्मक रूप धारण कर लेती है ।। ऐसे स्थलों पर निबन्धों में भी कथात्मकता आ गई है, वाक्य छोटे हो गए हैं तथा भाषा ने सरल रूप धारण कर लिया है ।। हिन्दी-साहित्य के विद्वानों के समक्ष जैनेन्द्र ऐसी उलझन हैं, जो पहेली से भी अधिक गूढ़ हैं ।। इनके व्यक्तित्व का यह सुलझा हुआ उलझाव इनकी शैली में भी लक्षित होता है ।।

3- “जैनेन्द्र की निबन्धशैली चिन्तनपरक है ।। ” पठित निबन्ध के आधार पर इसकी पुष्टि कीजिए ।।

उत्तर – – जैनेन्द्र कुमार जी एक विचारात्मक और चिन्तनशील लेखक हैं ।। प्रस्तुत निबन्ध ‘भाग्य और पुरुषार्थ” के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इनकी शैली चिन्तनपरक है ।। इस निबन्ध में लेखक ने भाग्य और पुरुषार्थ अर्थात् कर्म पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं ।। लेखक ने भाग्य के उदय होने का मार्ग पुरुषार्थ को बताया है और चिन्तन किया है कि “विधाता अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति होने पर अर्थात् संसारिक मोह से विरक्ति के बाद ही व्यक्ति का भाग्योग्य संभव है ।। जैनेन्द्र कुमार जी ने अपने निबन्ध में विचारात्मक शैली का प्रयोग किया है ।। इनकी यह शैली चिन्तन की प्रधानता होने के कारण दुर्बोध है ।। इस शैली में इन्होंने दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन किया है ।। इन्होंने अपने निबन्ध में तत्समयुक्त साहित्यिक भाषा का तथा अपेक्षाकृत अधिक लम्बे तथा जटिल वाक्यों का प्रयोग किया है जिससे इनकी भाषा में उलझाव दृष्टिगोचर होता है ।।

4- जैनेन्द्र कुमार का हिन्दी साहित्य में स्थान निर्धारित कीजिए ।।

उत्तर – – श्रेष्ठ उपन्यासकार, कहानीकार एवं निबन्धकार जैनेन्द्र कुमार अपनी चिन्तनशील विचाराधारा तथा आध्यात्मिक और सामाजिक विश्लेषण पर आधारित रचनाओं के लिए निरन्तर स्मरणीय रहेंगे ।। हिन्दी कथा-साहित्य के क्षेत्र में जैनेन्द्र कुमार का विशिष्ट स्थान है ।। इन्हें हिन्दी के युगप्रवर्तक मौलिक कथाकार के रूप में जाना जाता है ।। हिन्दी-साहित्य जगत में ये एक श्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं ।।

1- निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) एक शब्द है सूर्योदय.. ……………………………………………………………………….भाग्योदय कहना चाहिए ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्यपुस्तक ‘गद्य गरिमा” के “जैनेन्द्र कुमार” द्वारा लिखित ‘भाग्य और पुरुषार्थ” नामक निबन्ध से अवतरित है ।।

प्रसंग-लेखक ने कहा है कि सूर्य अपनी जगह स्थिर रहता है और पृथ्वी चलती-फिरती रहती है, फिर भी सूर्योदय शब्द हमको सार्थक लगता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि पृथ्वी का रुख जब सूर्य की ओर हो जाए तो वही सूर्योदय समझा जाता है ।।

व्याख्या- लेखक भाग्योदय को सूर्योदय के समान ही मानता है ।। जैसे हम जानते हैं कि उदय सूर्य का नहीं होता ।। सूर्य तो अपनी जगह स्थिर रहता है, घूमती पृथ्वी है ।। जब धरती का रुख घूमकर सूर्य की ओर हो जाता है, तब उसे हम सूर्योदय कहते हैं ।। इसी प्रकार भाग्योदय भी है ।। जब हमारा रुख विधाता की ओर हो जाता है, तब वही हमारे लिए भाग्योदय कहलाता है ।। यह भाग्य एक घूमते हुए चक्र की तरह है; जैसे- पहिया घूमता है तो उसकी कभी एक अर ऊपर आती है तो कभी दूसरी, उसी प्रकार भाग्य भी निरन्तर समय की गति के अनुसार परिवर्तनशील रहता है ।। जब सूर्य हमारे समक्ष होता है तो कहा जाता है कि सूर्योदय हो गया है, परन्तु वास्तव में उसका उदय हुआ ही नहीं ।। वह तो अपनी जगह स्थिर है ।। अपनी यात्रा में पृथ्वी उसके मार्ग से होकर गुजरती है, जिसके परिणामस्वरूप वह हमें दिखाई देता है ।। इसी प्रकार विधाता सभी प्राणियों और सभी जीवों में व्याप्त है; उसकी स्थिति भी सदा बनी रहती है ।। ऐसा नहीं होता कि ईश्वर किसी समय न रहे ।। जब उसका अस्त नहीं होता, तो उदय कैसे हो सकता है ।। हम अपनी अपेक्षा से ही भाग्य का उदय मानते हैं ।। इस प्रकार भाग्य का उदय सूर्य के उदय की तरह अपनी अपेक्षा से है ।। भाग्योदय का सच्चा अर्थ है; हमारा मुख सांसारिक माया-मोह से विरत होकर ईश्वर की ओर हो जाए ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1-भाषा- व्यावहारिक खड़ी बोली ।। 2- भाषा- व्याख्यात्मक और विवेचनात्मक ।। 3- वाक्य-विन्याससुगठित ।। 4-शब्द-चयन-विषय के अनुरूप ।। 5- लेखक ने भाग्योदय की व्याख्या सूर्योदय के आधार पर ही की है और भाग्य को ईश्वर का दूसरा रूप माना है ।।

(ख) वह शून्यावस्था भगवत्………………………………………………………..सदा-सर्वदा है ही ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने दुःख को ईश्वर का वरदान और अमृत माना है; क्योंकि दुःख में मनुष्य का अहंकार समाप्त हो जाता है और प्राणी ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाता है ।।

व्याख्या- लेखक कहता है कि भगवान द्वारा दिए जाने वाले दु:ख अपने न होने का भाव अर्थात् अहंकार का भाव नष्ट कर देता है इसलिए जीवन में दुःख का आना ईश्वर का दिया वरदान है ।। जब कभी कोई गहरा दुःख आ पड़ता है, तब कुछ क्षणों के लिए हमारा अहं समाप्त हो जाता है ।। अहंकार का विनाश भी ईश्वर की कृपा से ही होता है, अत: हमें दुःख में ईश्वर की कृपा की आकांक्षा रहती है और हम ईश्वर का स्मरण करने लगते है ।। यदि दुःख नहीं होगा तो व्यक्ति का पतन ही होगा ।। दुःख में यदि हम अपने कार्यकलापों को कुछ परिवर्तित कर दें, अपने अहंकार को भूलकर परिस्थितियों से समझौता कर लें और दुष्काल में भी अपने कर्त्तव्य-निर्वाह का ध्यान रखें तो अति शीघ्र ही भाग्योदय की संभावना रहती है ।। मनुष्य का अहंकार केवल दुःख में ही नष्ट होता है ।। दुःख जाने पर हमें ऐसा लगता है कि हम कुछ नहीं हैं ।। लेखक ने दुःख को भगवान् का अमृत कहा है ।। अमृत से मनुष्य में चेतना आती है ।। अमृत पीकर वह सजग होता है ।। सुख में वह ईश्वर को भूल जाता है ।। दुःख में यदि हमें भगवान् की कृपा का अनुभव हो जाए तो वास्तव में वही क्षण हमारे लिए भाग्योदय का समय है ।। उस समय हम अपने अहंकार से छूट जाते हैं और भगवान् का स्मरण करने लगते हैं ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा-परिष्कृत साहित्यिक खड़ी बोली ।। 2- शैली- विवेचनात्मक ।। 3- पुराणों में कथा है कि कुन्ती ने भगवान् कृष्ण से दुःख का ही वरदान माँगा था, क्योंकि प्रायः दुःख में ही ईश्वर-स्मरण कर पाना सम्भव हो पाता है ।।

(ग) वहाँ दिशाएँ तक ………………………………..विस्मय ही क्या है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक भाग्य और ईश्वर की सत्ता को सर्वत्र व्याप्त बताते हुए कहता है कि मनुष्य जब अपने कम्र के नशे में ईश्वर की उपेक्षा करने लगता है, तब भाग्य भी उसका साथ नहीं देता ।।

व्याख्या- लेखक का कहना है कि कुछ लोग बहुत अधिक श्रम करते हैं फिर भी निष्फल रह जाते हैं ।। इस स्थिति में वे मानने लगते हैं कि उनका भाग्य ही विपरीत है ।। जबकि भाग्य के तो विपरीत होने का प्रश्न ही नहीं; क्योंकि उसकी सत्ता तो सर्वत्र व्याप्त है ।। जिसकी सत्ता सर्वत्र व्याप्त हो, उसके लिए दिशाओं का, सम्मुख-विपरीत होने का अर्थ ही नहीं रह जाता ।। इस प्रकार के निष्फल प्रयत्न वाले स्वयं भाग्य से ही विपरीत हो जाते हैं ।।

आशय यह है कि वे स्वयं को ज्यादा महत्व देने लगते हैं ।। उनमें अहं-भाव आ जाता है और वे अपने को ही सब-कुछ मानकर दूसरों की उपेक्षा करने लगते हैं ।। उनका नशा इतना बढ़ जाता है कि वे ईश्वर को भूल जाता है ।। जब अपने को सब-कुछ मानने का नशा अधिक चढ़ा होता है तो मनुष्य भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है ।। इस समय उसे एक ही धुन सवार होती है और वह यह कि मुझसे बढ़कर कार्यकुशल व्यक्ति कोई है ही नहीं ।। उस समय फल-प्राप्ति की इच्छा उस पर सवार रहती है ।। उसके अन्दर विनय का अभाव हो जाता है ।। वह दूसरों का अनादर और तिरस्कार करने लगता है ।। वह अज्ञान के वशीभूत हो भाग्य को भी कुछ नहीं गिनता है, उसकी भी उपेक्षा करने लगता है ।। ऐसी दशा में वह जान-बूझकर भाग्य से मुँह मोड़ लेता है ।। ऐसी स्थिति में यदि भाग्य उसका साथ नहीं देता है तो इसमें भाग्य का क्या दोष? वास्तव में सारा दोष ईश्वर को विस्मृत कर देने का और भाग्य से मुँह फेरने का है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- भाषा- शुद्ध परिमार्जित खड़ी बोली ।। शैली- चिन्तनप्रधान और विचारात्मक ।। वाक्य-विन्याससुगठित ।। शब्द-चयन- विषय के अनुरूप ।।
भावसामय- यह सर्वप्रसिद्ध उक्ति है कि अभिमान और भगवान दोनों कभी साथ-साथ नहीं रह सकते

पीया चाहै प्रेमरस, राखा चाहे मान ।।
एक म्यान में दो खडग, देखा सुना न कान॥

(घ) पुरुषार्थ वह है जो……………………………………अकर्त्तव्य भावना है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने पुरुषार्थ का अर्थ स्पष्ट किया है ।। उसके अनुसार हमें निरन्तर कर्म करते हुए स्वयं को भाग्य के सम्मुख ले आना चाहिए क्योंकि भाग्योदय के लिए पुरुषार्थ आवश्यक होता है ।।

व्याख्या- लेखक कहता है कि पुरुषार्थ वह है, जिसमें व्यक्ति प्रयत्नशील रहे और उसमें सहयोग की भावना जाग्रत हो ।। पुरुषार्थ तो सात्त्विक वृत्ति है ।। इसलिए मानव में सहयोग की भावना होनी चाहिए ।। दूसरों से सहयोग लेना भाग्य में सहयोग लेना ही है ।। जब तक व्यक्ति में “मैं ही करने वाला हूँ” यह भाव रहेगा तब तक उसमें अहंकार भी बना रहेगा और वह भाग्य की उपेक्षा करता रहेगा ।। अहंकार से मुक्त होने पर ही भाग्य व्यक्ति का साथ देता है ।। जब व्यक्ति पुरुषार्थ को भाग्य से पृथक् कर देता है तथा यह सोचने लगता है कि जो भाग्य में होगा वह तो मिलेगा ही, फिर पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है; तो ऐसा व्यक्ति पुरुषार्थ और भाग्य को एक-दूसरे से अलग नहीं करता, वरन् वह पुरुषार्थ को सही अर्थ में नहीं समझ पाता है ।। पुरुषार्थ और भाग्य अलगअलग भाव नहीं है, दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं ।। बल-पराक्रम को पुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि यह तो पशु में अधिक होता है ।। पुरुषार्थ में शारीरिक शक्ति के अतिरिक्त स्नेह और सहयोग जैसी सात्त्विक भावनाएँ अनिवार्य हैं ।। केवल हाथपैर चलाने अथवा क्रिया-कौशल दिखाने को ही पुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता ।। दूसरों को सहयोग देने के लिए प्रेरित करना भी पुरुषार्थ की श्रेणी में है ।।
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साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा- परिष्कृत साहित्यिक खड़ी बोली ।। 2- शैली- विवेचनात्मक ।। 3- वाक्य-विन्यास- सुगठित ।। 4-शब्द-चयन- विषय के अनुरूप ।। 5- विचार-सौन्दर्य- विनयशीलता ही सच्ची विजय है ।। अहंकारी की हार सुनिश्चित है; क्योंकि सांसारिक दृष्टि से स्वयं को कर्ता मानकर व्यक्ति अहंकारी ही हो जाता है ।।

(ङ) भाग्यवादी बनना दूसरी…………………………………. का अनुभव होता है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने भाग्योदय और भाग्यवाद का अन्तर स्पष्ट किया है ।। भाग्यवाद भाग्य का प्रधान मानकर कर्म से विरत हो जाना है, किन्तु भाग्य के प्रति आत्मीयता का भाव जाग्रत हो जाना ही भाग्योदय है ।। ।।

व्याख्या- भाग्योदय और भाग्यवाद एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं ।। भाग्योदय के लिए व्यक्ति स्नेह और सहयोग के साथ क्रियाशील रहता है, किन्तु भाग्यवादी भाग्य को ही सब कुछ मानते हुए निष्क्रिय हो जाता है ।। वह भाग्य के अधीन हो जाता है ।। भाग्य के विषय में उसकी यह धारणा कि जो भाग्य में होगा, मिल पाएगा, निश्चित रूप से क्षुद्र और संकुचित है ।। व्यक्ति में इस प्रकार की धारणा बन जाने से पुरुषार्थ की हानि होती है ।। हमें अपने को भाग्य से अलग नहीं मानना चाहिए ।। यदि हम भाग्य के प्रति आत्मीय बन जाएँ- भाग्य के प्रति आत्मीय बनने का अर्थ है कि हम निरन्तर प्रयत्नशील रहकर इष्ट-मित्रों का सहयोग प्राप्त कर और ईश्वर पर विश्वास रखकर अपने कर्तव्य का निर्वाह फल की इच्छा के बिना करते रहें- तो भाग्य के साथ हमारा कोई विवाद ही न रहेगा ।। फिर भाग्योदय के लिए हम चिन्तित भी नहीं होंगे ।। उस समय हमें प्रत्येक पल भाग्य के उदित होने का आभास होगा ।। इस प्रकार भाग्य हमारे जीवन को सर्वत्र प्रकाशमय कर देगा और व्यक्ति की यह सोच होगी कि वह जो कर्म कर रहा है, उसे भाग्य ही करा रहा है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- परिष्कृत और परिमार्जित खड़ी बोली ।। 2- शैली- विवेचनात्मक ।। 3- वाक्य-विन्याससुगठित ।। 4-शब्द-चयन- विषय के अनुरूप ।।
5- भावसाम्य- व्यक्ति यदि परम सत्ता के प्रति आस्थावान नहीं है तो उसका भाग्योदय उसी प्रकार आड़ में छिप जाता है जैसे लोहे और पारस के मध्य कोई परदा आ जाए

साँच बिना सुमिरन नहीं, भय बिन भक्ति न होय ।।
पारस में परदा रहै, कंचन केहि बिधि होय॥

(च) भाग्य के प्रति ……………………………….. सीमाहीन भाव से है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने भाग्य के प्रति समर्पित होकर पुरुषार्थ करने का सुझाव दिया है ।।

व्याख्या- जो मनुष्य भाग्य के प्रति समर्पित होकर परिश्रम करता है, वह सफलता की ओर बढ़ने लगता है और उसे निरन्तर लाभ होता है ।। अतः मनुष्य को कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए भाग्य और ईश्वर पर विश्वास रखकर अपने कार्य करने चाहिए ।। भाग्य पर विश्वास करने से उसके परिश्रम का परिणाम सुखद होता है और व्यक्ति निरन्तर शक्तिशाली एवं बन्धनमुक्त होता जाता है ।। इसके साथ ही जो मनुष्य केवल अपने परिश्रम पर भरोसा रखता है और भाग्य की उपेक्षा करता है, वह विधाता के प्रति ही उपेक्षा की भावना नहीं रखता, अपितु स्वयं के प्रति भी उपेक्षा-भाव रखता है ।। जो भाग्य की उपेक्षा करता है, वह सबसे उपेक्षित हो जाता है; क्योंकि भाग्य के सम्मुख व्यक्ति का अस्तित्व ही क्या है? अपने पुरुषार्थ के बल पर व्यक्ति जिस दृष्टि को नकारता है, उसमें उसका स्थान कुछ भी नहीं होता ।। वह अपने जीवन के गिनती के वर्ष बिताकर काल के गोल में समा जाता है, परन्तु सृष्टि फिर भी अनवरत चलती रहती है ।। उसके रहने-न-रहने का सृष्टि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।। इस प्रकार संसार में रहकर भाग्य और सृष्टि को नकारना व्यक्ति का पागलपन ही कहा जाएगा ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-
1-भाषा- परिमार्जित और परिष्कृत खड़ी बोली ।।
2-शैली-विचारात्मक ।।
3- वाक्य विन्यास-सुगठित ।।
4- शब्द-चयन- विषय के अनुरूप ।।
5- लेखक का मन्तव्य है कि अपनी सामर्थ्यनुसार पूर्ण पुरुषार्थ करते हुए भी, परम अस्तित्व के प्रति व्यक्ति का यह विश्वास होना चाहिए कि उसे उसके कर्मानुसार फल अवश्य प्राप्त होगा ।।
6- भाग्य की उपेक्षा करना बुद्धि की निष्क्रियता का प्रतीक है ।।

(छ) इच्छाएँ नाना हैं………………………………………. उसे हाथ आती है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि मनुष्य अपनी अनेक इच्छाओं के कारण प्रवृत्ति और निवृत्ति के चक्र में फँसकर दुःखी होता रहता है ।।

व्याख्या-लेखक का कथन है कि मनुष्य के मन में विविध प्रकार की अनेक इच्छाएँ हैं ।। ये इच्छाएँ ही मनुष्य को संसार के कार्यों में लगाए रखती हैं ।। इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अनेक कार्यों में प्रवृत्त होता है, परन्तु जब एक के बाद दूसरी इच्छा उभरकर सामने आ जाती है तो वह थकान और टूटन महसूस करता है और अपने को इच्छाओं के जाल से मुक्त करना चाहता है ।। इस प्रकार वह इच्छाओं की पूर्ति के लिए कार्यों में प्रवृत्त होने और फिर उनसे ऊबकर निवृत्ति चाहने के प्रयत्न में बहुत थक जाता है ।। कभी वह इच्छाओं की पूर्ति के लिए संसार के कार्यों में प्रवृत्त होता है और दूसरे ही क्षण उनसे छुटकारा पाने के लिए संसार से दूर जाकर शान्ति का अनुभव करना चाहता है ।। इस प्रकार वह राग-द्वेष के जाल में फँसा रहता है ।। द्वन्द्व और संशय की इस स्थिति से वह दुःखी हो जाता है ।। इनसे ऊबकर वह झुंझलाहट और छटपटाहट का अनुभव करने लगता है ।। ऐसी दशा में यदि वह भाग्य अथवा विधाता के साथ स्वयं को जोड़कर कर्त्तव्य का पालन करेगा तो निश्चित रूप से उसका भाग्योदय होगा ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा- मुहावरेदार, परिमार्जित खड़ी बोली ।। 2-शैली- विवेचनात्मक ।। 3- मनुष्य सांसारिक कार्यो में लगने और उनसे विरक्त होने के चक्र में फँसकर दुःख का अनुभव करता है ।।

निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) हमारा मुख सही भाग्य की तरफ हो जाए, तो इसी को भाग्योदय कहना चाहिए ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘गद्य गरिमा” में संकलित ‘भाग्य और पुरुषार्थ” नामक निबन्ध से अवतरित है ।। इसके लेखक “जैनेन्द्र कुमार” जी हैं ।।

प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में सूर्योदय और भाग्योदय का साम्य स्थापित किया गया है ।।

व्याख्या- लेखक का कहना है कि सूर्य अपनी जगह स्थिर रहता है और पृथ्वी घूमती रहती है ।। जब पृथ्वी का रुख घूमकर सूर्य की ओर हो जाता है तो इसी को हम सूर्योदय कहते हैं ।। भाग्य विधाता का ही एक दूसरा नाम है ।। भाग्योदय को भी सूर्योदय के समान ही समझना चाहिए ।। यह तो सभी जानते हैं कि उदय सूर्य का नहीं होता, इसी प्रकार उदय भाग्य का भी नहीं होता ।। जब हमारा रुख भाग्य अर्थात् विधाता की ओर हो जाता है, तो उसी को भाग्योदय समझना चाहिए ।। इस प्रकार भाग्य का उदय सूर्य के उदय की तरह अपनी अपेक्षा से मानना चाहिए ।। भाग्योदय का सच्चा अर्थ है, हमारा मुख सांसारिक मोह-माया से विरत होकर ईश्वर की ओर हो जाए ।।

(ख) दुःख ही भगवान का अमृत है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इसमें दुःख के महत्व का विचार करते हुए उसे ईश्वर का वरदान बताया गया है ।। व्याख्या- विद्वान लेखक ने कहा है जो लोग दुःख को अभिशाप समझते हैं, उनकी सोच गलत है; क्योंकि दुःख तो भगवान् का अनोखा वरदान है ।। यह ऐसा अमृत है, जो मनुष्य के अहंकार को गलाकर उसे भाग्य से अर्थात् विधाता से जोड़ देता है ।। इससे मनुष्य अहं से वियुक्त होकर परमात्मा से संयुक्त होता है ।। इस प्रकार दुःख व्यक्ति के लिए अभिशाप नहीं, वरन् भगवान् द्वारा दिया हुआ वह अमृत है, जो उसे सचेत और सजग करता है ।।

(ग) अकर्म का आशय कर्म काअभाव नहीं, कर्त्तव्य का क्षय है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में लेखक ने अकर्म की व्याख्या मौलिक ढंग से की है ।।

व्याख्या- लेखक कहता है कि “अकर्म” का अभिप्राय ‘कर्म न करना नहीं है, अपितु “मैं कार्य कर रहा हूँ” इस भाव को समाप्त कर देना ही है ।। ‘अकर्म” में कर्म करने के अहंकार-त्याग का भाव छिपा हुआ है ।। जब व्यक्ति यह सोचता है कि कर्म कर रहा हूँ तो उसके मन में अहंकार होता है ।। अकर्म में कर्त्तापन के नशे का अभाव या कर्त्तापन के अहंकार के त्याग का भाव निहित है ।। अहंकार के भाव को समाप्त कर देना ही सही अर्थों में अकर्म है ।।

(घ) पुरुषार्थ वह है जो पुरुष को सप्रयास रखे, साथ ही सहयुक्त भी रखे ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- यहाँ पर लेखक ने पुरुषार्थ को परिभाषित किया है ।।

व्याख्या- लेखक के विचार में पुरुषार्थ का आशय केवल किसी कर्म में लगे रहना ही नहीं है ।। यदि ऐसा होता तो पशुओं और बालकों को सर्वाधिक पुरुषार्थी कहा जाता; क्योंकि वे ही विभिन्न क्रियाकलापों में अधिक सक्रिय रहते हैं ।। वस्तुत: पुरुषार्थ का प्रमुख लक्षण यह है कि व्यक्ति परिश्रम की भावना से निरन्तर प्रयास करता रहे तथा साथ-साथ अहंकार भावना से मुक्त होकर, भाग्य के साथ सम्बद्ध भी हो जाए ।। अहं भाव से विमुक्त होते ही व्यक्ति का भाग्योदय हो जाता है और वह स्नेह व सहयोग की भावना से प्ररित होता है ।। इस प्रकार का प्रयास ही पुरूषार्थ कहलाता है ।।

(ङ) पुरुष अपने अहं से वियुक्त होता है, तभी भाग्य से सयुंक्त होता है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में लेखक ने भाग्य और पुरुषार्थ के समन्वय पर बल दिया है ।।

व्याख्या-विद्वान लेखक का कथन है कि पुरुषार्थ में प्रयत्न का होना आवश्यक है, किन्तु प्रयत्न करते समय जो अहंकार का भाव रहता है, वह नहीं होना चाहिए ।। अहं को नष्ट कर स्नेह और सहयोग की भावना से प्रयत्नशील रहकर ही भाग्य अर्थात् परमात्मा से साक्षात्कार हो सकता है और भाग्य से साक्षात्कार होना ही परम पुरुषार्थ है ।। तात्पर्य यह है कि भाग्य से संयुक्त होने .के लिए मनुष्य को अहं भाव से वियुक्त होना चाहिए ।। अन्यत्र कहा भी गया है

माया तजी तो क्या भया, मान तजा नहिं जाय ।।
मान बड़े मुनिवर गले, मान सबन को खाय॥

वस्तुत: संसार का सबसे बड़ा पुरुषार्थ अहंकार या “मैं” भावना का त्याग है ।।

(च) यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में यह स्पष्ट किया गया है कि राग-द्वेष की भावनाओं से छटपटाहट ही हाथ आती है ।।

व्याख्या- विद्वान लेखक का कहना है कि अनेक प्रकार की सांसारिक इच्छाएँ मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त रखती हैं और उस प्रवृत्ति के कारण जब मनुष्य बहुत थक जाता है, तब वह सांसारिक इच्छाओं से निवृत्ति चाहता है ।। प्रवृत्ति और निवृत्ति के इस द्वन्द्व के कारण कभी तो वह इस संसार को राग-भाव से देखता है तो कभी विराग भाव से ।। इस द्वन्द्व से बचने के लिए उसे चाहिए कि वह भाग्य अर्थात् विधाता से जुड़ जाए और निष्काम कर्म में लीन हो जाए ।। ऐसी दशा में विराग भाव जागने पर यदि उसका रुख भाग्य (ईश्वर) की ओर हो जाता है तो वह उसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा ।।

1- “भाग्य और पुरुषार्थ” पाठ का सारांश लिखिए ।।

उत्तर – – प्रस्तुत पाठ ‘भाग्य और पुरुषार्थ” लेखक “जैनेन्द्र कुमार” द्वारा लिखित हैं, इस पाठ में लेखक ने भाग्य और पुरुषार्थ पर अपने मौलिक विचार प्रकट किए है ।। लेखक के अनुसार ‘भाग्य और पुरुषार्थ” विपरित तत्व नहीं है, ये दोनों पारस्परिक रूप से सहवर्ती हैं ।। लेखक कहता है कि भाग्योदय सूर्योदय के समान है, जैसे हम जानते हैं कि उदय सूर्य का नहीं होता ।। सूर्य तो अपने स्थान पर स्थिर रहता है, पृथ्वी घूमती है ।। जब पृथ्वी का रूख घूमकर सूर्य की तरफ हो जाता है, तब उसे सूर्योदय कहते हैं इसी प्रकार भाग्योदय है, जब हमारा रुख विधाता की ओर होता है, तब वही हमारे लिए भाग्योदय कहलाता है ।। भाग्य तो घूमते हुए चक्र की तरह होता है ।। विधाता सभी प्राणियों और सभी जीवों में व्याप्त है; उसकी स्थिति सदा बनी रहती है क्योंकि जब उसका अस्त नहीं होता, तो उदय कैसे हो सकता है ।। हम अपनी अपेक्षा से ही भाग्य का उदय मानते हैं ।। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता, इसी जगह पुरुषार्थ (उद्यम) का औचित्य है ।। हमें भाग्य को कहीं से खींचकर नहीं लाना है अपितु अपना मुँह ही उस तरफ मोड़ लेना है ।। हमारे अंदर अहंकार का भाव होता है, हम चाहते हैं सब कुछ हमारे अनुकूल हो, परन्तु अचानक आने वाला दुःख हमें अंदर तक भेद देता है ।। यह दुःख हमारे अहंकार को नष्ट कर देता है, इसलिए दुःख ईश्वर का वरदान और अमृत है; क्योकि दुःख में मनुष्य का अहंकार समाप्त हो जाता है और प्राणी ईश्वर का स्मरण करने लगता है ।। दुःख में यदि हमें ईश्वर की कृपा का अनुभव हो जाए तो वास्तव में वही क्षण हमारे लिए भाग्योदय का समय है ।।

पुरुषार्थ का भी यही लक्ष्य होता है, यदि हम पुरुषार्थ का लक्ष्य कोई ओर मानते हैं तो यह हमारी भूल है, लेखक कहते हैं कि कुछ लोग बहुत अधिक श्रम करते हैं फिर भी निष्फल रह जाते हैं ।। इस स्थिति में वे मानने लगते हैं कि उनका भाग्य ही विपरीत है, परन्तु भाग्य के विपरीत होने का तो प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि ईश्वर की सत्ता तो सर्वत्र व्याप्त है ।। और जिसकी सत्ता सर्वत्र व्याप्त हो, उसके लिए दिशाओं का, सम्मुख विपरीत होने का अर्थ ही नहीं रह जाता ।। इस प्रकार के निष्फल प्रयत्न वाले स्वयं भाग्य से ही विपरीत हो जाते हैं अर्थात् वे स्वयं को ज्यादा महत्व देने लगते हैं ।। उनका अहं का नशा इतना बढ़ जाता है कि वे ईश्वर को भी भूल जाते हैं ।। वह दूसरों का अनादर व तिरस्कार करने लगता है ।। वह अज्ञान के वशीभूत हो भाग्य को भी कुछ नहीं गिनते हैं, उसकी भी उपेक्षा करने लगते हैं ।। ऐसी दशा में वह भाग्य से मुँह मोड़ लेते हैं ।। ऐसी स्थिति में यदि भाग्य उसका साथ नहीं देता तो इसमें भाग्य का क्या दोष? वास्तव में सारा दोष तो ईश्वर को भुला देने को और भाग्य से मुँह फेरने का है ।।

लेखक कहते हैं कि अकर्म से तात्पर्य कर्म की अनुपस्थिति या करने योग्य कर्मों के न किए जाने से कदापि नहीं है ।। इसका आशय यह है कि व्यक्ति कर्म करते हुए अपने मन में यह भावना रखे कि उसने कोई काम किया ही नहीं, अर्थात् वह किसी कार्य का कर्त्ता नहीं ।। घमण्ड और अहंकार की भावना से किया जाने वाला कार्य सफलता और सिद्धि के स्थान पर यदि बन्धन और क्लेश को उत्पन्न करता है तो इसमें तर्क की संगति नहीं हो सकती ।। लेखक का कहना है कि पुरुषार्थ का अर्थ स्वयं के लिए शारीरिक श्रम करना ही नहीं है, वरन् दूसरे के कार्यों में उनका सहयोग करना भी है ।। जब व्यक्ति अहंकार को मानकर कोई कार्य करता है तो उसके मन में सहयोग की भावना क्षीण हो जाती है ।। ऐसी स्थिति में उसे पुरुषार्थ कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।। पुरुषार्थ वह है, जिसमें व्यक्ति प्रयत्नशील रहे और उसमें सहयोग की भावना जाग्रत हो ।। पुरुषार्थ एक सात्विक वृत्ति है ।। इसलिए मानव में सहयोग की भावना होनी चाहिए ।। दूसरों से सहयोग लेना भाग्य से सहयोग लेना ही है ।। जब व्यक्ति पुरुषार्थ को भाग्य से अलग कर देता है तथा यह सोचने लगता है कि जो भाग्य में होगा वह तो मिलेगा ही, फिर पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है; तो ऐसा व्यक्ति पुरुषार्थ और भाग्य को एक दूसरे से अलग नहीं करता, वरन् वह पुरुषार्थ को सही अर्थ में समझ ही नहीं पाता है ।।

पुरुषार्थ और भाग्य अलग-अलग भाव नहीं है ।। वरन् एक-दूसरे पर निर्भर है ।। भाग्योदय और भाग्यवाद एक-दूसरे से बहुत भिन्न है ।। भाग्योदय के लिए व्यक्ति स्नेह और सहयोग के साथ क्रियाशील रहता है, किन्तु भाग्यवादी भाग्य को ही सब कुछ मानते हुए निष्क्रिय हो जाता है ।। वह भाग्य के .अधीन हो जाता है ।। उसकी यह धारणा जो भाग्य में होगा मिल जाएगा, निश्चित रूप से क्षुद्र और संकुचित है ।। मनुष्य की ऐसी धारण से पुरुषार्थ की हानि होती है ।। हमें अपने भाग्य को अलग नहीं मानना चाहिए ।। यदि हम भाग्य के प्रति आत्मीय बन जाएँ और ईश्वर पर विश्वास रखकर अपने कर्तव्य का निर्वाह फल की इच्छा के बिना करते रहें- तो भाग्य के साथ हमारा कोई विवाद नहीं रहेगा ।। हमें प्रत्येक पल भाग्य के उदित होने का आभास होगा ।। मनुष्य का सहयोग की भावना से किया गया प्रत्येक पुरुषार्थ मनुष्य के भाग्य के मार्ग को फैलाता है ।। जो मनुष्य भाग्य के प्रति समर्पित होकर परिश्रम करता है, वह सफलता की ओर बढ़ने लगता है और उसे निरन्तर लाभ होता है ।। इसके साथ ही जो मनुष्य केवल अपने परिश्रम पर भरोसा करता है और भाग्य की उपेक्षा करता है, वह विधाता के प्रति ही नहीं वरन् स्वयं के प्रति भी उपेक्षा के भाव रखता है ।। वह अपने जीवन की गिनती के वर्ष बिताकर काल के गाल में समा जाता है, परन्तु सृष्टि फिर भी अनवरत चलती रहती है ।। उसके रहने या न रहने से सृष्टि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।।

संसार में रहकर भाग्य और सृष्टि को नकारना व्यक्ति की मूर्खता है ।। भाग्य को विनीत होकर स्वीकार करना ही पुरुषार्थ का परम उद्देश्य है ।। यदि हम केवल स्वार्थ के वशीभूत ही रहेंगे तो केवल भाग्योदय की प्रतीक्षा ही करते रह जाएंगे ।। क्योंकि भाग्य तो उदित है ही मनुष्य का केवल मुख उस तरफ नहीं है ।। मनुष्य नहीं समझ पाता कि जो उसका वर्तमान है वह उसी भाग्योदय के प्रकाश से चमक रहा है ।। मनुष्य की अनेक इच्छाएँ है, जो मनुष्य को संसार के कार्यों में लगाए रखती है, इन इच्छाओं की पूर्ति करते-करते मनुष्य थक जाता है और स्वयं को इच्छाओं के जाल से मुक्त करना चाहता है ।। वह इनसे छुटकारा पाने के लिए संसार से दूर जाकर शांति का अनुभव करना चाहता है ।। इनसे ऊबकर वह झुंझलाहट और छटपटाहट का अनुभव करने लगता है ।। ऐसी दशा में यदि वह भाग्य के साथ स्वयं को जोड़कर कर्त्तव्य का पालन करेगा तो निश्चित रूप से उसका भाग्योदय होगा और इस भाग्योदय को ही वह अपने पुरुषार्थ को अंत मानेगा ।।

लेखक के दृष्टिकोण से भाग्य और पुरुषार्थ एक दूसरे के सहयोगी हैं ।। क्या आप इस दृष्टिकोण से सहमत हैं? उत्तर – – भाग्य और पुरुषार्थ एक दूसरे के सहयोगी हैं ।। पुरुषार्थ वह है जिसमें व्यक्ति प्रयत्नशील रहे और उसमें सहयोग की भावना जाग्रत हो ।। पुरुषार्थ तो सात्त्विक वृत्ति है, दूसरों से सहयोग लेना भाग्य से सहयोग लेना ही है ।। यदि व्यक्ति पुरुषार्थ और भाग्य को अलग कर देता है तथा यह तो सोचने लगता है कि जो भाग्य में होगा वह तो मिलेगा ही, फिर पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है, तो ऐसा व्यक्ति पुरुषार्थ और भाग्य को एक-दूसरे से अलग नहीं करता, वरन् यह पुरुषार्थ को सही अर्थ में समझ ही नहीं पाता है ।। पुरुषार्थ और भाग्य अलग-अलग भाव नहीं हैं वरन् एक दूसरे पर निर्भर तथा सहवर्ती हैं ।। भाग्य के बिना पुरुषार्थ और पुरुषार्थ के बिना भाग्योदय नहीं हो सकता है ।।

3- “दुःख भगवान का वरदान है ।। अहं और किसीऔषध से गलता नहीं” से लेखक का क्या तात्पर्य है?

उत्तर – – लेखक का तात्पर्य है कि जो लोग दुःख को अभिशाप समझते हैं, उनकी सोच गलत हैं, क्योंकि दुःख तो भगवान का अनोखा वरदान है ।। दुःख ऐसी औषध या अमृत है जो मनुष्य के अहंकार का नाश कर देता है और मनुष्य को भाग्य से अर्थात् विधाता से जोड़ देता है ।।

4- क्या मनुष्य के अहंकारयुक्त कर्म बंधन और क्लेश उत्पन्न करते हैं? विवेचना कीजिए ।।

उत्तर – – मनुष्य के अहंकारयक्त कर्म बंधन और क्लेश उत्पन्न करते हैं क्योंकि अहंकार की भावना से किया जाने वाला कार्य सदैव सफलता को प्रदान करने वाला नहीं होता, वरन् क्लेश को जन्म देने वाला भी होता है ।। क्योकि विनयशीलता ही सच्ची विजय है ।। अहंकारी की हार स्वाभाविक है ।। परन्तु सांसारिक दृष्टि से स्वयं को कर्त्ता मानकर व्यक्ति अहंकारी हो ही जाता है और उसके अहंकारयुक्त कर्म क्लेश को बढ़ावा देते हैं ।।

5- पुरुषार्थ पशु-चेष्टा से कैसे भिन्न है?स्पष्ट कीजिए ।।

उत्तर – – बल-पराक्रम को पुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता है, क्योकि बल-पराक्रम तो पशुओं में अधिक होता है ।। पुरुषार्थ में शारीरिक शक्ति के अतिरिक्त स्नेह और सहयोग जैसी सात्त्विक भावनाएँ अनिवार्य है ।। केवल पशुओं की तरह हाथ-पैर चलाने अथवा क्रिया-कौशल दिखाने को ही पुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता ।। दूसरों को सहयोग देने के लिए प्रेरित करना भी पुरुषार्थ ही कहलाता है ।।

6- मनुष्य को अपना सबसे बड़ा पुरुषार्थ क्या समझना चाहिए?

उत्तर – – मनुष्य को दूसरों के सहयोग की भावना को अपना सबसे बड़ा पुरुषार्थ समझना चाहिए ।। पुरुषार्थ में प्रयत्न का होना आवश्यक है, किन्तु प्रयत्न करते समय जो अहंकार का भाव रहता है, वह नहीं होना चाहिए ।। अहं को नष्ट कर स्नेह और सहयोग की भावना से प्रयत्नशील रहकर ही भाग्य अर्थात् ईश्वर से साक्षात्कार हो सकता है और भाग्य से साक्षात्कार होना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है ।।

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