Up board solution for class 10 sanskrit chapter 5 विश्वकवि: रवीन्द्र:

10 संस्कृत

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बोर्ड यूपी बोर्ड
पाठ्य पुस्तक संस्कृत
पाठ का नाम विश्वकवि: रवीन्द्र:
कक्षा 10
वेबसाइट mpboardinfo.in

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विश्वकवि: रवीन्द्र: पाठ का सारांश

प्रसिद्ध महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ का बांग्ला साहित्य में वही स्थान है जो अंग्रेजी-साहित्य में शेक्सपीयर का, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास का और हिन्दी-साहित्य में तुलसीदास का । इनका नाम आधुनिक भारतीय कलाकारों में भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । ये केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही नहीं, वरन् रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं ।

इन्होंने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य की नवीन रवीन्द्र-संगीत- शैली प्रारम्भ की । शिक्षाविद् के रूप में इनके नवीन प्रयोगात्मक विचारों को प्रतीक ‘विश्वभारती है, जिसमें आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है । ये दीन और दलित वर्ग की हीन दशा के महान् सुधारक थे ।


वैभव में जन्म रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ती नगर में 7 मई, सन् 1861 ईस्वी को एक सम्पन्न परिवार में हुआ था । इनके पिता जी का नाम श्री देवेन्द्रनाथ एवं माता का नाम श्रीमती शारदा था । इनके पास विपुल अचल सम्पत्ति थी । इनका प्रारम्भिक नौकर-चाकरों की देख-रेख में बीता । खेल और स्वच्छन्द विहार का समय न मिलने से इनका मन उदास रहता था ।


प्रकृति-प्रेम इनके भवन पीछे एक सुन्दर सरोवर था । उसके दक्षिणी किनारे पर नारियल के पेड़ और पूर्वी तट पर एक बड़ा वट वृक्ष था । रवीन्द्र अपने भवन की खिड़की में बैठकर इस दृश्य को देखकर प्रसन्न होते थे । वे सरोवर में स्नान करने के लिए आने वालों की चेष्टाओं और वेशभूषा को देखते रहते थे । शाम के समय सरोवर के किनारे बैठे बगुलों, हंसों और जलमुर्गों के स्वर को बड़े प्रेम से सुनते थे ।

शिक्षा रवीन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई । इन्होंने घर पर ही बांग्ला के साथ गणित, विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया । इस © बाद इन्होंने कलकत्ता के ‘ओरियण्टले सेमिनार स्कूल’ और ‘नॉर्मल स्कूल में प्रवेश लिया, लेकिन वहाँ अध्यापकों के स्वेच्छाचरण और सहपाठियों की हीन मनोवृत्तियों तथा अप्रिय स्वभाव को देखकर इनका मन वहाँ नहीं लगा । सन् 1873 ई० में पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें अपने साथ हिमालय पर ले गये । वहाँ हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियों और सामने हरे-भरे खेतों को देखकर इनका मन प्रसन्न हो गया । पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें प्रतिदिन नवीन शैली में पढ़ाते थे । कुछ समय बाद हिमालय से लौटकर इन्होंने विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की ।


सत्रह वर्ष की आयु में रवीन्द्र अपने भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लन्दन गये, परन्तु वहाँ वे बैरिस्टर की उपाधि न प्राप्त कर सके और दो वर्ष बाद ही कलकत्ता लौट आये ।
साहित्यिक प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ में साहित्य रचना की स्वाभाविक प्रतिभा थी । उनके परिवार में घर पर गोष्ठियाँ,
चित्रकला की प्रदर्शनी, नाटक-अभिनय ओर देश सेवा से संबंधित कार्य होते रहते थे । इन्होंने अनेक कथाएँ और निबन्ध लिखकर उनको ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ द पारिवारिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया ।


रचनाएँ इन्होंने संगीत, प्रभात संगीत, सान्ध्य संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, प्रतिभा [गीतिनाट्य], विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि आदि अनेक रचनाएँ लिखीं । इनकी प्रतिभा कथा, कविता, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि में समान रूप से उत्कृष्ट थी । गीताञ्जलि पर इन्हें साहित्य का ‘नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था ।

महात्मा गाँधी जी के प्रेरक गुरु सन् 1932 ई० में गाँधी जी पूना जेल में थे । अंग्रेजों की हिन्दू-जाति के विभाजन की नीति के विरुद्ध ५ जेल में ही आमरण अनशन करना चाहते थे । उन्होंने इसके लिए रवीन्द्र से ही अनुमति माँगी और उनको समर्थन प्राप्त करके आमरण अनशन किया । रवीन्द्रनाथ का जीवन उनके काव्य के समान मनोहारी और लोक-कल्याणकारी था उनकी मृत्यु 7 अगस्त, 1941 ई० को हो गयी थी, लेकिन उनकी वाणी आज भी काव्य रूप में प्रवाहित है ।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

आङ्ग्लवाङ्मये काव्यधनः शेक्सपियर इव, संस्कृतसाहित्ये कविकुलगुरुः कालिदास इव, हिन्दीसाहित्ये महाकवि तुलसीदास इव, बँग साहित्ये कवीन्द्रो रवीन्द्रः केनाविदितः स्यात् । आधुनिक भारतीय शीलपिशु रवीन्द्रस्य स्थानं महत्त्वपूर्णमास्ते इति सर्वैः ज्ञायत एव । तस्य बहूनि योगदानानि पार्थक्येन वैशिष्ट्यं लभन्ते । न केवलमाध्यात्मिकसांस्कृतिक क्षेत्रेषु तस्य महत्त्वपूर्णमपि रचनात्मकसाहित्यकारतयापि नाम लोकेषु सुविदितमेव सर्वैः । ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य- भारती’ में संकलित ‘विश्वकविः रवीन्द्रः’ शीर्षक पाठ से उधृत है ।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के महत्त्वपूर्ण योगदानों का उल्लेख किया गया है ।

अनुवाद – अंग्रेजी साहित्य में काव्य के धनी शेक्सपियर के समान, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास के समान, हिन्दी-साहित्य में महाकवि तुलसीदास के समान बांग्ला साहित्य में कवीन्द्र रवीन्द्र कि अपरिचित हैं अर्थात् सभी लोगों ने उनका नाम सुना है । आधुनिक भारतीय कलाकारों में रवीन्द्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है, यह सभी जानते हैं । उनके बहुत-से योगदान अलग से विशेषता प्राप्त करते हैं । केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही उनका योगदान महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी उनका नाम में सबको विदित ही है ।


2- सांस्कृतिकक्षेत्रे सङ्गीतविधासु नृत्यविधासु च स: नूतनां शैली प्राकटयत् । सा शैली ‘रवीन्द्र सङ्गीत’ नाम्ना ख्याति लभते । एवं नृत्यविधासु परम्परागत शैलीमनुसरताऽनेन नवीना नृत्यशैली आविष्कृता । अन्यक्षेत्रेष्वपि शिक्षा विद्र पेण तेन नवीनानां विचाराणां सूत्रपातो विहितः तेषां प्रयोगतम कवि राणां पुजीभूतः निरुपमः प्रासादः ‘विश्वभारती’ रूपेण सुसज्जितशिरस्कः राजते । यत्र आश्रमशैल्याः नवीन शैल्या साकं समन्वयो वर्तते । दीनानां दलितवर्गाणां दशासमुद्धर्तृरूपेणाऽसौ अस्माकं भारतीयानां पुरः प्रस्तुतोऽभवत् ।


प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश-द्वय में रवीन्द्र जी के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख किया गया है ।
अनुवाद सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत – विधा और नृत्य – विधाओं में उन्होंने नवीन शैली प्रकट की । वह शैली ‘रवीन्द्र-संगीत’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है । इस प्रकार नृत्य – विधाओं में परम्परागत शैली का अनुसरण करते हुए इस कलाकार ने नवीन नृत्य शैली का आविष्कार किया । क्षेत्रों में भी शिक्षाविद् के रूप में नवीन विचारों का सूत्रपात किया । प्रयोगात्मक विचारों का एकत्रीभूत स्वरूप अनुपम भवन रूप में सजे हुए सिर वाला होकर सुशोभित है, जहाँ पर श्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है । दीनों और दलित वर्गों की दशा सुधारक के रूप में वे हम भारतीयों के सामने ‘थे ।

3- रवीन्द्रनाथस्य जन्म कलिकाता नगरे एकषष्ट्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे मईमासस्य सपटने दिवसे [7 मई, 1861] अभवत् । अस्य जनकः देवेन्द्र नाथ जननी शारदा देवी चास्ताम् । रवीन्द्रस्य जन्म एकस्मिन् संभ्रांते समृद्धे ब्राह्मणकुले जातम् । यस्य सविधे अचला विशाला संपत्ति आसीत । अतो भृत्यबहुलं भृत्यैः परिपुष्टं संरक्षितं जीवनं बन्धनपूर्णमन्वभवत् । अतः स्वच्छन्दविचरणाय, क्रीडनाय सुलभोऽवकाशः नासीत्तेन मनः खिन्नमेवास्त ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के वैभवसम्पन्न प्रारम्भिक जीवन का वर्णन किया गया है ।
अनुवाद रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ता नगर में सन् 1861 ईस्वी में मई मास की 7 तारीख को हुआ था । इनके पिता देवेन्द्रनाथ और माता शारदा देवी थीं । रवीन्द्र का जन्म एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पास विशाल अचल सम्पत्ति थी, अतः उन् नौकरों की अधिकता से पूर्ण, सेवकों से पुष्टे किये देखभाल किये गये जीवन को बन्धनपूर्ण अनुभव किया । ‘स्वच्छन्द विचरण के लिए, खेलने के लिए उनके पास इच्छित समय नहीं था, इस कारण से उनका मन दुःखी रहता था ।


4- वैभव शालिभवनस्य पृष्ठभागे एकं कमनीयं सरः आसीत् । , यस्य दक्षिण तटे नारिकेलतरूणां पङ्क्ति राजते स्म । पूर्वस्मिन् तटे जटिलस्तपस्वी इव महान् जीर्णः पुरातनः एकः वट वृक्षों अनेक शाखा समनन्नो अंतरीक्षम परिमातुमिव समुद्यतः आसीत् । । भवनस्य वातायाने समुपविष्टः बालकः दृश्यमिदं दशैं दशैं परां मुदमलभत ।
अस्मिन्नेव सरसि तत्रत्याः निवासिनः यथासमयं स्नातुमागत्य स्नानञ्च कृत्वा यान्ति स्म । तेषां परिधानानि विविधाः क्रियाश्च दृष्ट्वा बालः किञ्चित्कालं प्रसन्नः अजायत मध्याह्वात् पश्चात् सरोवरेः शून्यतां भजति स्म । सायं पुनः बकाः हंसाः जलकृकवाकवः विहंगाः कोलहलं कुर्वाणाः स्थानानि लभन्ते स्म तस्मिन् काले इदमेव कम्न सरः बालकस्य मनोरञ्जनमकरोत् । [2015]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के प्रकृति प्रेम का मनोहारी वर्णन किया गया है ।
अनुवाद – वैभवपूर्ण भवन के पिछले भाग में एक सुन्दर तालाब था । जिसके दक्षिण किनारे पर नारियल के वृक्षों की पंक्ति सुशोभित थी । पूर्वी किनारे पर जटाधारी तपस्वी के समान बड़ा, बहुत पुराना एक वट का वृक्ष । अनेक शाखाओं से सम्पन्न वह [वृक्ष] मानो आकाश को माप के लिए तैयार था । भवन की खिड़की में बैठा हुआ बालक [रवीन्द्र] इस दृश्य को देख-देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त करता था । इसी सरोवर में वहाँ के निवासी समयानुसार स्नान के लिए आते और स्नान करके जाते थे । उनके वस्त्रों और विविध क्रियाओं को देखकर बालक कुछ समय के लिए प्रसन्न हो जाता था । दोपहर के बाद सरोवर निर्जन [जन-शून्य] हो जाता था । शाम को फिर बगुले, हंस, जलमुर्गे, पक्षी कोलाहल करते हुए [अपना-अपना] स्थान प्राप्त कर लेते थे । उस समय यही सुन्दर सरोवर बालक [रवीन्द्र] का मनोरंजन करता था ।

शिक्षा-रवीन्द्रस्य प्राथमिकी शिक्षा गृहे एव जाता । शिक्षणं बङ्गभाषायं प्रारभत । प्रारम्भिकं विज्ञानं, संस्कृतं, गणितमिति त्रयो पाठ्यविषयाः अभूवन् । प्रारम्भिकगृहशिक्षायां समाप्तायां बालकः उत्तरकलिकातानगरस्य ओरियण्टल सेमिनार विद्यालये प्रवेशमलभत् । तदनन्तरं नार्मलविद्यालयं गतवान् परं कुत्रापि मनो न रमते स्म । सर्वत्र अध्यापकानां स्वेच्छाचरणं सहपाठिनां तुच्छारुची: अप्रियान् स्वभावांश्च विलोक्य मनो न रेमे । अतः शून्यायां घटिकायां मध्यावकाशेऽपि च ऐकान्तिकं जीवनं बालकाय रोचते स्म । बालकस्य मनः विद्यालयेषु रमते इति विचिन्त्य जनको देवेन्द्रनाथः त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे [1873] सूनोरुपनयनसंस्कारं विधाय सार्धमेव हिमालयमनयत् । तत्र पितुः सम्पर्केण बालक्सी मनः स्वच्छतामभज तत्रत्यस्य भवनस्य पृष्ठभागे हिमाच्छादिताः पर्वतश्रेणयः आसन् । भवनाभिमुखं शोभनानि सुशाद्वलानि क्षेत्राणि राजन्ते स्म । अत्रत्यं प्राकृतिकं जीवनं बालक्य मनो नितरामरमयत् । जनको देवेन्द्रनाथः प्रतिदिवसं नवीनया पद्धतया पाठयति स्म । पितुः पाठनशैली बालकाय रोचते स्म । कालांतरे हिमालयात् प्रतिनिवृत्य पुनः विद्यालयीयां शिक्षा लेभे ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बालक रवीन्द्र का पढ़ने में मन न लगने एवं पिता के साथ हिमालय पर जाकर पढ़ने का वर्णन है ।

अनुवाद रवीन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई । पढ़ाई बांग्ला भाषा में प्रारम्भ हुई । प्रारम्भ में विज्ञान, संस्कृत और गणित ये तीन विषय थे । प्रारम्भिक गृह-शिक्षा समाप्त होने पर बालक ने उत्तरी कलकत्ता नगर के ‘ओरियण्टल सेमिनार सकू में प्रवेश लिया इसके बाद नॉर्मल विद्यालय में गया, परन्तु [उसका मन नहीं लगता था । सब जगह अध्यापकों के स्वेच्छाचरण, सहपाठियों की तुच्छ इच्छाओं और बुरे स्वभावों को देखकर इनका मन नहीं लगा । इसलिए खाली घण्टे और मध्य अवकाश में भी बालक को एकान्त का जीवन अच्छा लगता था । का मन विद्यालयों में नहीं लगता है-ऐसा सोचकर पिता वेन्द्रनाथ सन् 1873 ईस्वी में पुत्र का उपनयन संस्कार अपने साथ ही हिमालय पर ले गये । वहाँ पिता के सम्पर्क से बालक का मन स्वस्थ हो गया । वहाँ के भवन के पिछले भाग में बर्फ से ढकी पर्वत-श्रेणियाँ थीं । भवन के सामने सुन्दर हरी घास से युक्त खेत सुशोभित थे । यहाँ के प्राकृतिक जीवन ने बालक के मन को बहुत प्रसन्न कर दिया । पिता देवेन्द्रनाथ प्रतिदिन नवीन पद्धति द्वारा पढ़ाते थे । पिता की पाठन-शैली बालक को अच्छी लगती थी । कुछ समय पश्चात् हिमालय से लौटकर पुन: विद्यालयीय शिक्षा प्राप्त की ।

सप्तदशवर्षदेशीयो रवीन्द्रनाथः अष्टसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे ख्रीष्टाब्दे सितम्बरमासे भ्रात्रा न्यायाधीशेन सत्येन्द्रनाथेन सार्धं विधिशास्त्रमध्येतुं लन्दननगरं गतवान् । दैवयोगाद् रवीन्द्रस्य बैरिस्टरपदवी पूर्णतां नागात् । सः पितुराज्ञया भ्रात्रा सत्येन्द्रनाथेन साकम् अशीत्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे [1880] फरवरीमासे लन्दननगरात् कलिकातानगरमायातः । इङ्ग्लैण्डदेशस्य वर्षद्वयावासे पाश्चात्यसङ्गीतस्य सम्यक् परिचयस्तेन लब्धः ।


प्रसंग -प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ द्वारा लन्दन जाने और वकालत की शिक्षा प्राप्त न करने का वर्णन किया गया है ।

अनुवाद – सत्रह वर्ष की अवस्था में रवीन्द्रनाथ सन् 1878 ईस्वी में सितम्बर महीने में भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ न्याय-शास्त्र [वकालत] पढ़ने के लिए लन्दन नगर गये । दैवयोग से रवीन्द्र की बैरिस्टर की उपाधि पूर्ण नहीं हुई । वे पिता की आज्ञा से भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1880 ईस्वी में फरवरी के महीने में लन्दन नगर से कलकत्ता नगर आ गये । इंग्लैण्ड देश के दो वर्ष के निवास में उन्होंने पाश्चात्य संगीत का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर लिया ।

7- साहित्यिक प्रतिभायाः विकासः-रवीन्द्रस्य साहित्यिकरचनायां नैसर्गिकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा तु प्रधानकारणमासीदेव । परं तत्रत्या पारिवारिकपरिस्थितिरपि विशिष्टं कारणमभूत् । यथा—गृहे । प्रतिदिनं साहित्यिकं वातावरणं, कलासाधनायाः गतिविधयः, नाटकानां मञ्चनानि, सङ्गीतगोष्ठ्यः, चित्रकलानां प्रदर्शनानि, देशसेवाकर्माणि सदैव भवन्ति स्म । किशोरावस्थायामेव रवीन्द्रः अनेकाः कथाः निबन्धाश्च लिखित्वा पारिवारिकपत्रिकासु भारती-साधना-तत्त्वबोधिनीषु मुद्रयति स्म ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक रुचि एवं रचनात्मक प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है ।

अनुवाद रवीन्द्र की साहित्यिक रचना में स्वाभाविक नये-नये विकास वाली प्रतिभा तो प्रधान कारण थी ही, परन्तु वहाँ की पारिवारिक परिस्थिति भी विशेष कारण थी; जैसे—घर में प्रतिदिन साहित्यिक वातावरण, कला–साधना की गतिविधियाँ, नाटकों का अभिनय, संगीत-गोष्ठियाँ, चित्रकलाओं का प्रदर्शन, देश-सेवा के कार्य सदा होते थे । किशोर अवस्था में ही रवीन्द्र अनेक कथाओं और निबन्धों को लिखकर पारिवारिक पत्रिकाओं ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ में छपवाते थे ।


8- तेन च शैशवसङ्गीतम्, सान्ध्यसङ्गीतम्, प्रभातसङ्गीतम्, नाटकेषु रुद्रचण्डम्, वाल्मीकि-प्रतिभा गीतिनाट्यम्, विसर्जनम्, राजर्षिः, चोखेरबाली, चित्राङ्गदा, कौडी ओकमल, गीताञ्जलिः इत्यादयो बहवः ग्रन्थाः विरचिताः । गीताञ्जलिः वैदेशिकैः नोबलपुरस्कारेण पुरस्कृतश्च । एवं बहूनि प्रशस्तानि पुस्तकानि बङ्गसाहित्याय प्रदत्तानि । कवीन्द्ररवीन्द्रस्य प्रतिभा कथासु, कवितासु, नाटकेषु, उपन्यासेषु, निबन्धेषु समानरूपेण उत्कृष्टा दृश्यते । सत्यमेव गीताञ्जलिः चित्राङ्गदा च कलादृष्ट्या महाकवेरुभेऽपि रचने वैशिष्ट्यमावहतः । ।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियों का विवरण दिया गया है ।

अनुवाद उन्होंने [रवीन्द्रनाथ ने] शैशव संगीत, सान्ध्य संगीत, प्रभात संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा [गीतिनाट्य], विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की । गीताञ्जलि को विदेशियों ने नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया है । इस प्रकार बहुत-सी सुन्दर पुस्तकें उन्होंने बांग्ला-साहित्य को प्रदान कीं । कवीन्द्र रवीन्द्र की प्रतिभा कथाओं में, कविताओं में, नाटकों में, उपन्यासों और निबन्धों में समान रूप से उत्कृष्ट दिखाई देती है । वास्तव में महाकवि की दोनों ही रचनाएँ गीताञ्जलि और चित्रांगदा कला की दृष्टि से विशिष्टता को धारण करती हैं ।

9- द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्दे महात्मागान्धी पुणे कारागारेऽवरुद्धः आसीत् । ब्रिटिशशासकाः अनुसूचितजातीयानां सवर्णहिन्दूजातीयेभ्यः पृथक् निर्वाचनाय प्रयत्नशीलाः आसन् ।

यस्य स्पष्टमुद्देश्यं हिन्दूजातीयानां परस्परं विभाजनमासीत् । बहुविरोधे कृतेऽपि ब्रिटिशशासकाः शान्ति ने लेभिरे विभाजयितुं च प्रयतमाना एवासन् । तदा महात्मागान्धी हिन्दूजातिवैक्यं स्थापयितुं कारागारे आमरणम् अनशनं प्रारभत । गुरुदेवस्य रवीन्द्रनाथस्य चानुमोदनमैच्छत् । यतश्च महात्मागान्धी गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य केवलमादरमेव नाकरोत्, अपि तु यथाकालं समीचीनसम्मत्यै मुखमपि ईक्षते स्महात्मा एनं कवीन्द्र रवीन्द्र गुरुममन्यता रवीन्द्रनाथः तन्त्रीपत्रे ‘भारतस्य एकतायै सामाजिकाखण्डतायै च अमूल्य-जीवनस्य बलिदानं सर्वथा समीचीनं, परं जनाः दारुणायाः विपत्तेः गान्धिनः जीवनमभिरक्षेयुः इति लिखित्वा प्रत्युदतरत् । रवीन्द्रः आमरणस्य अनशनस्य समर्थनमेव न कृतवानपि तु प्रायोपवेशने प्रारब्धे पुणे कारागारञ्चागतवान् ।


प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधी द्वारा कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानने एवं उनसे सम्मति लेने का वर्णन किया गया है ।

अनुवाद सन् 1932 ईस्वी में महात्मा गाँधी पुणे में जेल में बन्द थे । ब्रिटिश शासक अनुसूचित जाति वालों का सवर्ण हिन्दू जाति वालों से अलग निर्वाचन कराने के लिए प्रयत्न में लगे थे, जिसका स्पष्ट उद्देश्य हिन्दू जाति वालों का आपस में बँटवारा करना था । बहुत विरोध करने पर भी अंग्रेजी शासक शान्ति को प्राप्त न हुए । अर्थात् अपने प्रयासों को बन्द नहीं किया और [देश एवं हिन्दू जाति को] विभाजित करने के लिए प्रयत्नशील रहे । तब महात्मा गाँधी ने हिन्दू जातियों [moboardinfo.in] में एकता स्थापित करने के लिए जेल में आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के अनुमोदन की इच्छा की; क्योंकि महात्मा गाँधी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का केवल आदर ही नहीं करते थे, अपितु समयानुसार सही सलाह के लिए उनसे अपेक्षा भी करते थे । महात्मा इन कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानते थे । रवीन्द्रनाथ ने तार में भारत की एकता और सामाजिक अखण्डता के लिए अमूल्य जीवन का बलिदान सभी प्रकार से सही है, परन्तु लोग भयानक विपत्ति से गाँधी जी के जीवन की रक्षा करें” लिखकर उत्तर दे दिया । रवीन्द्र ने आमरण अनशन का समर्थन ही नहीं किया, अपितु उपवास के प्रारम्भ होने पर पुणे जेल में आ गये ।

10- एवं बहुवर्णिकं, गरिमामण्डितं साहित्यिक, सामाजिकं, दार्शनिकं, लोकतान्त्रिकं जीवनं तस्य काव्यमिव मनोहारि सर्वेभ्यः कल्याणकारि प्रेरणादायि चाभूत् । एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्देऽगस्तमासस्य सप्तमे दिनाङ्के [7 अगस्त, 1941] रवीन्द्रस्य पार्थिव शरीरं वैश्वानरं प्राविशत् । अद्यापि गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य वाक् काव्यरूपेण अस्माकं समक्षं स्रोतस्विनी इव सततं प्रवहत्येव । अधुनापि करालस्य कालस्य करोऽपि वाचं मूकीकर्तुं नाशकत् ।

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ।।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के जीवन का मूल्यांकन किया गया है, उनके देहान्त की बात कही गयी है और सुन्दर रचनाकार के रूप में उनके यश का गान किया गया है ।

अनुवाद इस प्रकार उनका बहुरंगी, गरिमा से मण्डित, साहित्यिक, सामाजिक, दार्शनिक, लोकतान्त्रिक जीवन उनके काव्य के समान सुन्दर, सबके लिए कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद था । सन् 1941 ईस्वी में अगस्त महीने की 7 तारीख को रवीन्द्र का पार्थिव शरीर अग्नि में प्रविष्ट हो गया । आज भी गुरुदेव रवीन्द्र की वाणी काव्य के रूप में हमारे सामने नदी के समान निरन्तर बह रही है । आज भी भयानक मृत्यु का हाथ भी [उनकी] वाणी को चुप करने में समर्थ नहीं हो सका । पुण्यात्मा, रससिद्ध वे कवीश्वर जयवन्त होते हैं, जिनके यशरूपी शरीर में बुढ़ापे और मृत्यु से उत्पन्न भय नहीं है । इसलिए कविगण हमेशा यशरूपी शरीर से ही जीवित रहते हैं ।

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