Up board social science class 10 chapter 25 जनपदीय न्यायालय एवं लोक अदालत
पाठ - 25 जनपदीय न्यायालय एवं लोक अदालत (न्यायिक सक्रिता-जनहितवाद एवं लोकायुक्त)
लघुउत्तरीय प्रश्न
प्रश्न—1. राजस्व न्यायालय पर एक टिप्पणी लिखिए।
उ०- राजस्व न्यायालय- लगान, मालगुजारी, सिंचाई तथा बंदोबस्त आदि से संबंधी मुकदमों को राजस्व के विवाद कहा जाता है। राजस्व संबंधी मुकदमों की सुनवाई के लिए जनपद में जिन न्यायालयों की व्यवस्था की जाती है, उन्हें राजस्व न्यायालय कहते हैं। राजस्व न्यायालय के अंतर्गत आयुक्त, जिलाधिकारी, अपर जिलाधिकारी, उपजिलाधिकारी, तहसीलदार के राजस्व न्यायालय होते हैं। ये न्यायालय अपने-अपने क्षेत्र में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखते हैं।
प्रश्न—2. लोक अदालत से आप क्या समझते हैं? इसकी दो विशेषताएँ बताइए ।
उ०- लोक अदालत का शाब्दिक अर्थ ‘जन अदालत’ या ‘जनता की अदालत’ है। भारत में लोक अदालत का शुभारंभ भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री पी.एन. भगवती ने किया। भारत सरकार ने शीघ्र, सस्ता और सुलभ न्याय का लाभ जन-जन तक पहुँचाने के लिए लोक अदालत की व्यवस्था की है। लोक अदालत में न्यायाधीश, एक परामर्शदाता के रूप में कार्य करके सरल ढंग से परस्पर सुलह-समझौते के आधार पर मुकदमों का निबटारा करवाता है। लोक-अदालत की दो मुख्य विशेषताएँ निम्न है
(i) लोक अदालत दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व आदि सभी विवादों की सुनवाई करती है।
(ii) लोक अदालतों में विवादों का निबटारा समझौतों के आधार पर होता है। फैसलों को कोर्ट फाइल में अंकित कर दिया
जाता है।
प्रश्न—3. लोक अदालतों का गठन क्यों किया जाता है? इसकी स्थापना के दो कारण लिखिए।
मुकदमे के बोझ से दबे भारतीय न्यायालयों के कार्यभार को घटाकर जनसामान्य की शीघ्र और सस्ता न्याय सुलभ कराने के लिए लोक अदालतों का गठन किया जाता है। लोक अदालतों की स्थापना के दो कारण निम्नलिखित हैं(i) देश में न्यायाधिशों की कम संख्या होने के कारण।
(ii) आए दिन होने वाली वकीलों की हड़तालों से मुकदमें में हो रहे विलंब के कारण। 4. लोक अदालत का मुख्य उद्देश्य क्या है? क्या इसके निर्णय के विरुद्ध अपील हो सकती है? उ०- लोक अदालत का उद्देश्य मुकदमों के बोझ से लदे भारतीय न्यायालयों के कार्यभार को घटाकर जनसामान्य को शीघ्र और
सस्ता न्याय सुलभ कराना है। लोक अदालतों के निर्णय को विधिक न्यायलयों के समान ही मान्यता प्राप्त है। इसके निर्णय
के विरूद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है।
प्रश्न—5. जिला स्तर की अदालतों के गठन पर प्रकाश डालिए और इनके दो कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उ०- जिला स्तरीय न्याय प्रणाली के अंतर्गत जिले के दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व न्यायालयों (अदालतों) का गठन किया गया
है। इन पर राज्य के उच्च न्यायालयों का प्रशासनिक नियंत्रण होता है। जिलास्तर के न्यायालयों के दो कार्य निम्न प्रकार हैं(i) जनपद के नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा करना तथा विवादों का निबटारा करना।
(ii) अपराधियों को दंडित करना।
प्रश्न—6. जिला न्यायालय के तीन कार्य लिखिए।
उ०- जिला न्यायालय के तीन कार्य निम्नलिखित हैं
(i) जिले के नागरिकों की जान-माल की सुरक्षा करना। (ii) विवादों का निबटारा करना। (iii) अपराधियों को दंडित करना।
प्रश्न—7. जिले में राजस्व न्यायालय के रूप में सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है? उसके निर्णय के विरूद्ध कहाँ अपील की
जा सकती है?
उ०- जिले में राजस्व न्यायालय के रूप में सर्वोच्च अधिकारी जिलाधीश होता है। उसके विरूद्ध कमिश्नर के न्यायालय में अपील की जा सकती है।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न—1. जिला स्तर की न्याय व्यवस्था की विवेचना कीजिए और जिला स्तर पर कार्यरत तीनों प्रकार के न्यायालयों का
संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उ०- जनपदीय न्यायालय- ग्राम, कस्बे, नगर तथा तहसीलों से मिलकर एक जनपद बनता है। जनपद का सर्वोच्च प्रशासनिक
अधिकारी जिलाधिकारी होता है। उसका कार्य जिले में न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद बनाए रखते हुए, वहाँ शांति और सुरक्षा की स्थापना करना है। जनपद में नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा करने, विवादों का निबटारा करने तथा अपराधियों को दंडित करने के उद्देश्य से जनपद न्यायालयों की व्यवस्था की गई है। जनपद न्यायालय का अधिकार क्षेत्र संपूर्ण जनपद होता है। राज्य का सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय है, अतः उसके अधीन प्रत्येक जनपद में जिन न्यायालयों की स्थापना की गई है, उन्हें जनपद न्यायालय कहा जाता है।? न्यायालय के प्रकार- अधिकांश देशों में दो प्रकार के न्यायालय होते हैं- दीवानी तथा फौजदारी न्यायालय। दीवानी न्यायालय वे होते हैं जो उन वादों की सुनवाई करते हैं, जो संपत्ति के लेन-देन, जायदाद के बँटवारे, साझेदारी, ट्रेडमार्क या वस्तुओं के क्रय-विक्रय से संबंधित होते हैं। फौजदारी न्यायालय वे होते हैं, जो मार-पीट, चोरी हत्या, डकैती या अपहरण से संबंधित मुकदमों की सुनवाई करते हैं। इसके अलावा सभी राज्यों में स्थापित राजस्व न्यायालय लगान वसूली
से संबंधित मामलों को देखते हैं उच्च न्यायालय के अधीन जिले में दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व तीन प्रकार के न्यायालय होते हैं। इन न्यायालयों में नीचे से ऊपर की ओर एक क्रम बनाया गया है, प्रत्येक निचली अदालत के निर्णय के विरुद्ध ऊपर की अदालत में अपील की जा सकती है तथा ऊपरी अदालतों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील करने की व्यवस्था की गई है। जनपदीय न्याय प्रणाली- जनपद के दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व न्यायालयों को निम्नवत् दर्शाया जा सकता है
(i) जनपद में निम्नलिखित दीवानी न्यायालय कार्यरत हैं
(क) जिला जज का न्यायालय- यह जनपद का सबसे बड़ा दीवानी न्यायालय है। जिले में न्याय व्यवस्था को सुचारु बनाए रखना इसका कर्तव्य है। जिला जज की नियुक्ति राज्यपाल उच्च न्यायालय के परामर्श से करता है। यह प्रारंभिक तथा अपील के रूप में दोनों प्रकार के मुकदमों की सुनवाई कर सकता है। 2 हजार रुपए से 5 लाख रुपए तक के मुकदमे सीधे इस न्यायालय में दायर किए जाते हैं। यह न्यायालय इतनी ही धनराशि वाले मुकदमों की अपीलें भी सुनता है। बड़े जिलों में काम की अधिकता होने पर अतिरिक्त जिला न्यायाधीश की भी
नियुक्ति की जा सकती है।
(ख) सिविल जज का न्यायालय- जिला जज के नीचे सिविल जज का न्यायालय होता है। इस न्यायालय को
जिला जज के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। यह न्यायालय 1 लाख रुपए तक के मुकदमों की अपीलें सुन
सकता है। इसके निर्णय के विरुद्ध जिला जज के न्यायालय में अपील की जा सकती है।
(ग) मुंसिफ का न्यायालय- सिविल जज के न्यायालय के नीचे मुंसिफ का न्यायालय होता है। यह न्यायालय
2000 से लेकर 1 लाख रुपए तक के मुकदमे सुन सकता है। इसे अपीलें सुनने का अधिकार नहीं होता।
(घ) खफीफा न्यायालय- मुंसिफ के नीचे खफीफा न्यायालय की व्यवस्था की गई है। इसे 5 हजार रुपए तक के
मुकदमे सुनने का अधिकार है। यह न्यायालय किराया-वसूली तथा किराएदार की बेदखली आदि के मुकदमों की सुनवाई कर सकता है। इस न्यायालय की स्थापना बड़े नगरों में कार्यभार कम करने के लिए की गई है। इस
न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती है।
(ङ) न्याय पंचायत- न्याय पंचायत को 500 रुपए तक के मुकदमे सुनने का अधिकार होता है। इसमें कोई भी
वकील मुकदमे की पैरवी नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि भोली-भाली जनता को निष्पक्ष
और सस्ता न्याय मिल सके। न्याय पंचायत के निर्णय के विरुद्ध अपील करने का प्रावधान नहीं रखा गया है।
(ii) जनपद के फौजदारी न्यायालय- जनपद में मार-पीट, लड़ाई-झगड़ों, धोखाधड़ी के अपराधों के साथ-साथ हत्या
होना आम बात है। ये सभी अपराध फौजदारी के अंतर्गत आते हैं। जनपद में इन मुकदमों की सुनवाई के लिए निम्नलिखित न्यायालयों की व्यवस्था की गई है
(क) सेशन जज का न्यायालय- जनपद में फौजदारी का सबसे बड़ा न्यायालय सेशन जज का न्यायालय (सत्र
न्यायालय) होता है। जिला जज ही सेशन जज के रूप में कार्य करता है। दीवानी मुकदमों की सुनवाई करते समय इसे जिला जज तथा फौजदारी के मुकदमों की सुनवाई करते समय सेशन जज कहा जाता है। सेशन जज को प्रारंभिक तथा अपील संबंधी मुकदमे सुनने का अधिकार है। इसे मृत्यु दंड देने का अधिकार है, परंतु मृत्यु दंड देने के लिए इसे उच्च न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ती है।
(ख) न्यायालय मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी- कलेक्टर या डिप्टी कलेक्टर प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करते हैं। ये 3 वर्ष तक की कैद तथा 5000 रुपए तक का जुर्माना कर सकते हैं। इनके निर्णय के विरुद्ध सेशन जज के यहाँ अपील की जा सकती है।
(ग) न्यायालय मजिस्ट्रेट द्वितीय श्रेणी- तहसीलदार द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करता है, जिसे 1
वर्ष तक की कैद तथा 2000 रुपए तक का जुर्माना करने का अधिकार होता है। इसके निर्णय के विरुद्ध
मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के यहाँ अपील की जा सकती है।
(घ) न्यायालय मजिस्ट्रेट तृतीय श्रेणी- नायब तहसीलदार तृतीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करता है। इसे
1 माह की कैद तथा 500 रुपए तक का जुर्माना करने का अधिकार होता है। इसके निर्णय के विरुद्ध मजिस्ट्रेट
प्रथम श्रेणी के यहाँ अपील की जा सकती है।
(ङ) अवैतनिक मजिस्ट्रेट- जनपद में नियुक्त किए गए कुछ अवैतनिक मजिस्ट्रेट फौजदारी के मुकदमों का निर्णय
करते हैं। अब इनकी नियुक्ति की व्यवस्था बंद कर दी गई है।
(च) न्याय पंचायत- गाँवों में फौजदारी के छोटे-मोटे मुकदमे न्याय पंचायत सुनती है। यह 500 रुपए तक जुर्माना
कर सकती है। इसे कारावास करने का अधिकार नहीं है। इसके निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।
(iii) जनपदीय राजस्व न्यायालय- लगान, मालगुजारी, सिंचाई आदि के मुकदमों को राजस्व के विवाद कहा जाता है।
इनसे संबंधित मुकदमे सुनने के लिए जनपद में निम्नलिखित न्यायालयों की व्यवस्था की गई है(क) राजस्व परिषद्- यह राजस्व संबंधी मुकदमों का निर्णय करने वाली राज्य-स्तरीय सबसे बड़ी अदालत है। यह
जनपद के राजस्व न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनती है। राजस्व परिषद् के निर्णयों के विरुद्ध उच्च
न्यायालय में अपील की जा सकती है।
प्रश्न— 2. परिवार न्यायालय का अर्थ और उद्देश्य बताइए।
उ०- परिवार न्यायालय- परिवार समाज की एक लघु इकाई है। परिवार में सुख और शांति होने का अर्थ है, ‘सुखी समाज और
खुशहाल राष्ट्र’। परिवार के छोट-मोटे झगड़े कभी-कभी विकराल रूप ले लेते हैं। अतः केंद्र सरकार ने पारिवारिक समस्याओं के समाधान हेतु, जो न्यायिक व्यवस्था की, उसे परिवार न्यायालय कहा गया। भारतीय संसद ने 1984 ई० में अधिनियम पारित करके देश के विविध राज्यों में परिवार न्यायालयों की स्थापना की है। उत्तर प्रदेश में परिवार न्यायालय कानून 2 अक्टूबर, 1986 ई० में लागू किया गया। 10 फरवरी, 1986 ई० में इलाहाबाद में प्रथम विशेष महिला न्यायालय ने कार्य प्रारंभ किया। उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में अब तक 16 परिवार न्यायालय स्थापित हो चुके हैं, जिनमें हजारों पारिवारिक विवाद प्रेमपूर्वक निबटाए जा चुके हैं। परिवार न्यायालय स्थापित करने के उद्देश्य- परिवार न्यायालय स्थापित करने के उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(i) स्त्रियों और बालकों के हित में पारिवारिक विवादों में यथाशीघ्र समझौता कराना।
(ii) शादी-विवाह विच्छेद, संपत्ति, भरण पोषण तथा चरित्र आदि से संबंधित विवादों को मधुर वातावरण में निबटाना।
(iii) परिवार के सदस्यों को न्यायालयों की लंबी, खर्चीली तथा उबाऊ प्रक्रिया से बचाना।
(iv) स्त्रियों और बच्चों को उनके कानूनी अधिकार दिलवाना।
(v) सामान्य विवादों के कारण परिवार में उत्पन्न होने वाले मतभेदों की दरारों को रोकना।
(vi) परिवार में पुनः प्रेम, सहयोग और सौहार्द उत्पन्न करना।
(vii) परिवारों को शीघ्र और सस्ता न्याय सुलभ कराना।
केंद्र सरकार ने परिवार न्यायालयों की व्यवस्था करके समाज को प्रेम, सहयोग और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने का स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है। परिवार जैसे-जैसे विकसित होगा, राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का सपना उतना ही साकार बनेगा। परिवार न्यायालय सुखी जन, बढ़े धन के सिद्धांत का अनुपालन करते हुए उपयोगी तथा महत्वपूर्ण बन गए हैं।
प्रश्न—3. जिला न्यायालय पर एक टिप्पणी लिखिए।
उ०- उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।
प्रश्न—4. लोक अदालतों के गठन, उद्देश्यों तथा महत्व पर प्रकाश डालिए।
उ०- लोक अदालत- लोक अदालत का शाब्दिक अर्थ ‘जन न्यायालय या जनता की अदालत’ है। भारत में लोक अदालत
का शुभारंभ करने का श्रेय भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री पी०एन० भगवती को है, जिनकी अध्यक्षता में भारत सरकार ने ‘कानूनी सहायता योजना कार्यान्वयन समिति’ का गठन किया। उन्होंने शिविर रूप में लोक अदालतों की श्रृंखला प्रारंभ की। भारत में प्रथम लोक अदालत 1982 ई० में गुजरात के जूनागढ़ जिले में लगाई गई। इसकी सफलता से प्रभावित होकर देश के विभिन्न भागों में लोक अदालत लगाने का क्रम ही चल निकला। लोक अदालत लगाने का उद्देश्य मुकदमों के बोझ से दबे भारतीय न्यायालयों के कार्यभार को घटाकर जनसामान्य को शीघ्र और सस्ता न्याय सुलभ कराना है। न्यायाधीशों की व्यवस्था तथा वकीलों की हड़ताले मुकदमों के निर्णयों में रोड़ा अटकाकर न्याय-प्रक्रिया को बाधा पहुँचाते हैं। अत: भारत सरकार ने शीघ्र, सस्ता और सुलभ न्याय का लाभ जन-जन तक पहुँचाने के लिए लोक अदालत की व्यवस्था की है। लोक अदालत में न्यायाधीश, एक परामर्शदाता के रूप में कार्य करके सरल ढंग से परस्पर सुलह-समझौते के आधार पर मुकदमों का निबटारा करवाता है। दिल्ली में लगी एक लोक अदालत ने एक दिन में 150 विवादों का निबटारा करके सबको चौंका दिया था। वर्तमान में केंद्र तथा राज्य सरकारें स्थायी लोक अदालतों की स्थापना के लिए कार्यरत हैं। लोक अदालत की विशेषताएँ- लोक अदालत अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के लिए जानी जाती हैं
(i) लोक अदालतें दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व आदि के सभी विवादों की सुनवाई करती हैं।
(ii) लोक अदालतों में विवादों का निबटारा आपसी समझौतों के आधार पर होता है। फैसलों को कोर्ट फाइल में अंकित कर
दिया जाता है।
(iii) लोक अदालतों में वकीलों को लाना मना होता है। वादी तथा प्रतिवादी परस्पर वार्तालाप करके विवाद का निबटारा करते
(iv) लोक अदालतों में वैवाहिक, पारिवारिक, सामाजिक झगड़े, किराया, बेदखली, वाहनों के चालान तथा बीमा क्लेम आदि के विवादों का निबटारा किया जाता है
(v) लोक अदालतों में सेवानिवृत न्यायाधीश, राजपत्रित अधिकारी तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति परामर्शदाता के रूप में
भूमिका निभाकर विवादों का निबटारा करते हैं।
(vi) लोक अदालतें न्यायालय द्वारा बंदी बनाए गए व्यक्ति को नहीं छुड़वा सकतीं। इन्हें समझौता कराकर या जुर्माना करके
या चेतावनी देकर छोड़ने का ही अधिकार है।
(vii) लोक अदालतों के निर्णयों को विधिक न्यायालयों के समान ही मान्यता प्राप्त है। इनके निर्णयों के विरुद्ध किसी भी
न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती।
(viii) लोक अदालत अभी तक जनता की अदालत ही बनी हुई हैं। इन्हें कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं हो पाई है। (ix) केंद्र सरकार संसद में विधेयक पारित करके इन्हें कानूनी अधिकार देने के लिए प्रयासरत है।
(x) लोक अदालतों में मुकदमों की सुनवाई के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता। लोक अदालत का महत्व- कहावत है, “देर से मिलने वाला न्याय, न्याय न होकर एक राहत मात्र होती है।” इस कहावत के आलोक में भारत के जन-सामान्य को सस्ता और शीघ्र न्याय दिलवाने में लोक अदालतें बड़ी उपयोगी सिद्ध हो रही हैं। इनके महत्व को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है(i) लोक अदालत ‘जन-अदालत’ बनकर भारत के निर्धन तथा सामान्य लोगों को सस्ता और शीघ्र न्याय दिलवाने में ब्रह्मास्त्र सिद्ध हुई है।
(ii) लोक अदालतों ने शीघ्र न्याय सुलभ कराने की व्यवस्था देकर न्यायालयों के विस्तृत कार्य भार को घटा दिया है।
(iii) लोक अदालतों ने वादी और प्रतिवादी को, न्याय की कठिन प्रक्रिया से निकालकर, आपसी समझौते द्वारा वाद निबटाने का शुभ अवसर प्रदान किया है।
(iv) लोक अदालतों ने अब तक लाखों विवाद सुलझाकर न्याय विभाग तथा राष्ट्र की महती सेवा की है।
(v) लोक अदालतों में वकीलों की व्यवस्था पर रोक होने से, लोग न्याय के दाँव-पेंच तथा खर्चों से बच जाते हैं।
(vi) लोक अदालतों का निर्णय विधिवत् मान्य है। उसके विरुद्ध अपील की व्यवस्था न होने के कारण विवाद का निबटारा अंतिम रूप से हो जाता है।
(vii) लोक अदालतें भारत के निर्धन, सरल-स्वभावी तथा अल्पज्ञानी लोगों के लिए ‘न्यायिक वरदान’ बन गई हैं।
(viii) भारत की बढ़ती जनसंख्या के लिए न्याय की सुलभ-व्यवस्था में इन अदालतों का योगदान अद्वितीय माना जाता है।
लोक अदालतों को अधिक शक्तिसंपन्न और सुदृढ बनाकर इनके महत्व में चार चाँद लगाए जा सकते हैं। अतः इनके महत्व को एक पंक्ति में इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, “जनसामान्य को शीघ्र एवं सस्ता न्याय सुलभ कराने की दिशा में लोक अदालतें एक प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी कदम हैं।
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