up board class 12th civics solution chapter 20 Global Scenario after the World War II द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक परिदृश्य

up board class 12th civics solution chapter 20 Global Scenario after the World War II द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक परिदृश्य

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Principles of Origin of State

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक परिदृश्य (Global Scenario after the World War II)

लघु उत्तरीय प्रश्न
1– शीत-युद्ध से क्या आशय है?
उत्तर— शीत-युद्ध युद्ध’ न होते हुए भी युद्ध की सी परिस्थितियों को बनाए रखने की कला थीं जिसमे प्रत्येक विषय पर विश्व-शान्ति के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि अपने संकीर्ण स्वार्थों को ध्यान में रखकर विचार और कार्य किया जाता था । शीत-युद्ध सोवियत संघअमरीकी आपसी संबंधों की वह स्थिति थी जिसमें दोनों पक्ष शान्तिपूर्ण राजनयिक संबंध रखते हुए भी परस्पर शत्रुभाव रखते थे तथा शस्त्र-युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे की स्थिति और शक्ति को निरन्तर दुर्बल करने का प्रयत्न करते थे । यह एक ऐसा युद्ध था जिसका रणक्षेत्र मानव का मस्तिष्क था, यह मनुष्य के मनों में लड़ा जाने वाला युद्ध था । इसे स्नायु युद्ध भी कहा जा सकता है ।

इसमें रणक्षेत्र का सक्रिय युद्ध तो नहीं होता, परन्तु विपक्षी राज्यों के सभी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक संबंधों में शत्रुता भरे तनाव की स्थिति रहती थी । शीत युद्ध वस्तुतः युद्ध के नर-संहारक दुष्परिणामों से बचते हुए युद्ध द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक नूतन शस्त्र था । शीत-युद्ध एक प्रकार का वाक-युद्ध था जिसे कागज के गोलों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियों तथा प्रचार साधनों से लड़ा गया । इसमें प्रचार द्वारा विरोधी गुट के देशों की जनता के विचारों को प्रभावित करके उनके मनोबल को क्षीण करने का प्रयत्न किया गया तथा अपनी श्रेष्ठता, शक्ति और न्यायप्रियता का तार्किक दावा किया जाता था । वस्तुतः शीत-युद्ध एक प्रचारात्मक युद्ध था जिसमें एक महाशक्ति दूसरे के खिलाफ घृणित प्रचार का सहारा लेती थी । यह एक प्रकार का कूटनीतिक युद्ध भी था जिसमें शत्रु को अकेला करने और मित्रों की खोज करने की चतुराई का भी प्रयोग किया गया ।

2– शीत-युद्ध के अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर कोई चार मुख्य प्रभाव बताइए ।

उत्तर— शीत-युद्ध के अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर चार मुख्य प्रभाव निम्नलिखित हैं
(i) सैनिक संधियों एवं सैनिक गठबंधनों का बाहुल्य ।
(ii) आणविक युद्ध की संभावना का भय ।
(iii) विश्व का दो गुटों में विभाजित हो जाना ।
(iv) आतंक और अविश्वास के दायरे में विस्तार ।

3– शीत-युद्ध के कोई चार प्रमुख कारण बताइए ।

उत्तर— शीत-युद्ध के कोई चार कारण निम्नलिखित हैं_
(i) सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते की अवहेलना ।
(ii) ईरान से सोवियत सेना का न हटाया जाना ।
(iii) सोवियत संघ द्वारा बाल्कन समझौते का अतिक्रमण ।
(iv) टर्की पर सोवियत संघ का दबाव ।

4– शीत-युद्ध का प्रारंभ कब से माना जाता है?संक्षेप में बताइए ।
उत्तर— द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व यद्यपि अमरीका और सोवियत संघ में बुनियादी मतभेद थे फिर भी युद्ध के दौरान उनमें मित्रतापूर्ण संबंध दिखाई पड़ते हैं । द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् सोवियत संघ-अमरीकी संबंधों में कटुता, तनाव, वैमनस्य और मनोमालिन्य में अनवरत वृद्धि हुई । दोनों महाशक्तियों में राजनीतिक प्रचार का तुमुल संग्राम छिड़ गया और दोनों एक-दूसरे का विरोध, आलोचना और सर्वत्र अपना प्रचार करने में लग गए । दोनों एक दूसरे को कूटनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक राजनीतिक और सैनिक मोर्चे पर भी पराजित करने में संलग्न हो गए और चारों ओर भय, अविश्वास और तनाव का वातावरण बन गया । इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् एक नए युग का प्रादुर्भाव हुआ जिसे ‘सशस्त्र शांति का युग’ अथवा ‘शीत युद्ध’ कहा जा सकता है ।

5– तनाव शैथिल्य से आप क्या समझते हैं?
उत्तर— अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते समीकरण में सोवियत संघ अमरीकी संबंधों में सन् 1962 ई० के क्यूबा संकट के उपरान्त एक नया मोड़ आया; शीत युद्ध के वैमनस्यपूर्ण संबंध सौमनस्य और मधुर-मिलन की दिशा में बढ़ने लगे । परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों में तनाव, वैमनस्य, मनोमालिन्य, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास के संबंध तनाव-शैथिल्य, मित्रता, सामजस्य, शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और परस्पर विश्वास में परिवर्तित होने लगे । शीत युद्ध के नकारात्मक संबंध आपसी विचार-विमर्श की उत्कण्ठा, समझौतावादी दृष्टिकोण एवं मैत्रीपूर्ण सहयोग की ओर उन्मुख होने लगे । अमरीका और सोवियत संघ के संबधों में इस नवीन परिवर्तन को तनाव शैथिल्य या दितान्त के नाम से जाना जाता है ।

6– शीत-युद्ध की शिथिलता के कोई चार प्रमुख कारण बताइए ।
उत्तर— शीत-युद्ध की शिथिलता के चार प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(i) शीत-युद्ध का तनाव पूर्ण वातावरण ।
(ii) आणविक आतंक और आणविक युद्ध का भय ।
(iii) शीत-युद्ध की शिथिलता सोवियत संघ के आर्थिक विकास की आवश्यकताएँ पूरी करता था ।
(iv) यूरोपीय राष्ट्र युद्ध की परिकल्पना से भयभीत थे ।

7– शीत-युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की दो प्रवृत्तियाँ बताइए ।
उत्तर— शीत-युद्धोत्तर अंतराष्ट्रीय राजनीति की प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं
(i) महाशक्तियों को आचरण में विनय और सद्व्यवहार के लक्षण- अमरीकी और सोवियत गुट के राष्ट्र एक-दूसरे के
प्रति सभ्य राष्ट्रों की भाँति व्यवहार करने लगे, पारस्परिक सद्व्यवहार का पालन करने लगे और उनके आचरण में विनय
के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे ।
(ii) सहयोगी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का अनुभव- दोनों गुटों के राष्ट्रों के मध्य मनोमालिन्य समाप्त होने लगा तथा व्यापार,
आवागमन, संचार विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्रों में सामान्य तकनीकी सहयोग विकसित होने लगे ।

8– एक ध्रुवीय-विश्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर— विश्व में मानव शक्ति संसाधन, प्राकृतिक संसाधन, औद्योगिक एवं प्रौद्योगिकी क्षमता, आर्थिक क्षमता, तथा सैनिक शक्ति एवं विज्ञान प्रोद्यौगिकी का एक देश विशेष में ध्रुवीकरण को एक ध्रुवीय-विश्व कहते हैं । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो शक्ति गुटों में विभाजित हो गया था, जिसमें एक गुट का नेता संयुक्त राज्य अमरीका और दूसरे गुट का नेता सोवियत संघ था । परंतु 20 वीं शताब्दी के अंत में सोवियत संघ के विघटन के बाद ऐसा लगने लगा कि विश्व में एकमात्र महानतम शक्ति है और वह है संयुक्त राष्ट्र अमरीका । वह विश्व का एकमात्र पुलिसमैन, दादा या महानायक है । उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता है । उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है, उसे कोई ललकार नहीं सकता है । आज अमरीका चाहता है कि प्रत्येक देश उसके समक्ष नतमस्तक हों । परंतु ऐसा संभव नहीं क्योंकि जनसंख्या एवं उससे जनित मानव शक्ति संसाधन, प्राकृतिक संसाधन, औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक क्षमता अपने वृहद अर्थ में आर्थिक शक्ति आदि कुछ ऐसे तत्व हैं जहाँ एक ध्रुवीयता का अंत हो जाता है और विश्व बहुध्रुवीय हो जाता है ।

9– समकालीन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उदीयमान दो नएसंगठनों के बारे में संक्षेप में बताइए ।
उत्तर— समकालीन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उदीयमान दो नए संगठन निम्नलिखित हैं
(i) दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क)- यह दक्षिण एशिया के आठ देशों का आर्थिक और राजनीतिक संगठन है । संगठन के सदस्य देशों की जनसंख्या को देखा जाए तो यह किसी भी क्षेत्रीय संगठन की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली है । इसकी स्थापना 8 दिसम्बर 1985 ई० को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा मिलकर की गई थी । अप्रैल 2007 में संघ के 14 वें शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान इसका आठवाँ सदस्य बना ।

(ii) एशिया प्रशान्त आर्थिक सहयोग संगठन (एपेक)- यह प्रशान्त महासागरीय परिधि के 21 सदस्य देशों एवं अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक सहयोग एवं मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने का एक साझा आर्थिक मंच है । इस आर्थिक संगठन की स्थापना सन् 1989 में की गई थी ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

1– शीत-युद्ध से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख कारण बताइए ।
उत्तर— शीत-युद्ध- इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
शीत-युद्ध के कारण-द्वितीय महायुद्ध ने दो महाशक्तियों संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ को जन्म दिया । महायुद्ध की समाप्ति के बाद दोनों महाशक्तियाँ युद्ध से प्राप्त लाभ की स्थिति को बनाए रखना चाहती थी और अपने प्रभाव के विस्तार के लिए उत्सुक थीं । उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति के मार्ग में एक शक्ति दूसरे के लिए बाधक थी । दोनों की पक्षों को एक-दूसरे से कुछ शिकायतें थीं । वे शिकायतें ही मूल रूप में शीत-युद्ध की उत्पत्ति का कारण थीं । शीत-युद्ध के कारण-शीत-युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

(i) ऐतिहासिक कारण- कतिपय पर्यवेक्षक शीत-युद्ध का कारण सन् 1917 ई० की बोल्शेविक क्रान्ति में ढूँढते हैं । सन् 1917 ई० की बोल्शेविक क्रान्ति के समय से ही पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ को समाप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे, क्योकि
साम्यवाद एक विश्वव्यापी आन्दोलन था जिसका अन्तिम उद्देश्य पूँजीवाद को समाप्त करके पूरे विश्व में साम्यवाद का प्रसार करना था । ब्रिटेन ने सोवियत संघ को सन् 1924 ई० और अमरीका ने उसे सन् 1933 ई० में ही मान्यता दी थी । पश्चिमी देश साम्यवादी रूस को नाजी जर्मनी की अपेक्षा अधिक आशंका की दृष्टि से देखते रहे । पश्चिमी देश हिटलर को सोवियत संघ पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करते रहे ।

(ii) सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते की अवहेलना- याल्टा सम्मेलन सन् 1945 ई० में रूजवेल्ट, स्टालिन और चर्चिल ने कुछ समझोते किए थे । पौलेण्ड में सोवियत संघ द्वारा संरक्षित लुबनिन शासन और पश्चिमी देशों द्वारा संरक्षित लन्दन शासन के स्थान पर स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन पर आधारित एक प्रतिनिध्यात्मक शासन स्थापित करने का निर्णय लिया । लेकिन जैसे ही युद्ध का अन्त निकट दिखाई देने लगा स्टालिन ने अपने वचनों से मुकरना प्रारम्भ कर दिया । उसने अमरीकी और ब्रिटिश प्रेक्षकों को पोलेण्ड में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी तथा पोलेण्ड की जनतंत्रवादी पार्टियों को मिलाने की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी । उसने पोलैण्ड में अपनी संरक्षित लुबनिन सरकार को लादने का प्रयत्न किया ।

हंगरी, बुल्गारिया, रोमानिया और चेकोस्लोवाकिया में भी सोवियत संघ द्वारा युद्ध-विराम समझौतों तथा याल्टा व पोट्सडाम संधियों का उल्लघन किया गया । सोवियत संघ ने इन सभी देशों में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना में मित्र-राष्ट्रों के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया और सोवियत संघ समर्थक सरकारें स्थापित कर दीं । सोवियत संघ की जापान के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित होने की अनिच्छा और उसके द्वारा मित्र राष्ट्रों को साइबेरिया में अड्डों की सुविधा प्रदान करने में हिचकिचाहट ने भी पश्चिमी राष्ट्रों के रूस के प्रति सन्देह को बढ़ाया । मंचूरिया स्थित सोवियत फौजों ने सन् 1946 ई० के प्रारम्भ में राष्ट्रवादी सेनाओं को तो वहाँ प्रवेश तक नहीं करने दिया जबकि साम्यवादी सेनाओं को प्रवेश संबधी सुविधाएँ प्रदान की और उनको संपूर्ण युद्ध सामग्री सौंप दी, जो जापानी सेना भागते समय छोड़ गई थी । याल्टा समझौतों के विरुद्ध की गई सोवियत कार्यवाहियों से पश्चिमी राष्ट्रों के हृदय में सोवियत संघ के प्रति संदेह उत्पन्न होने लगा ।

(iii) ईरान से सोवियत सेना का न हटाया जाना- द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान सोवियत सेना ने ब्रिटेन की सहमति से उत्तरी ईरान पर अधिकार जमा लिया था । यद्यपि युद्ध की समाप्ति के बाद आंग्ल-अमरीकी सेना तो दक्षिणी ईरान से हटा ली गई, पर सोवियत संघ ने अपनी सेना हटाने से इनकार कर दिया । संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव के फलस्वरूप ही सोवियत संघ ने बाद में वहाँ से अपनी सेनाएँ हटाईं । इससे भी पश्चिमी देश सोवियत संघ से नाराज हो गए ।

(iv) युद्धोत्तर उदेश्यों में अन्तर– अमरीका और सोवियत संघ के युद्धोत्तर उद्देश्यों में भी स्पष्ट भिन्नता थीं । भविष्य में जर्मनी के विरुद्ध सुरक्षित रहने के लिए सोवियत संघ, यूरोप के देशों को सोवियत प्रभाव क्षेत्र में लाना चाहता था, तो पश्चिमी देशों के मत में जर्मनी की पराजय से सोवियत संघ के अत्यंत शक्तिशाली हो जाने का भय था । यह देश सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव क्षेत्र को सीमित रखने के लिए कटिबद्ध थे । इसके लिए आवश्यक था कि पूर्वी यूरोप के देशों में लोकतांत्रिक शासनों की स्थापना हो जिसके लिए स्वतंत्र निर्वाचन कराने आवश्यक थे । स्टालिन के मत में इन देशों में स्थापित साम्यवादी सरकारें ही वास्तविक जनतांत्रिक सरकारें थीं ।

(v) द्वितीय मोर्चे का प्रश्न- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब हिटलर ने सोवियत संघ को भारी जन-धन की क्षति पहुँचाई तो सोवियत नेता स्टालिन ने मित्र-राष्ट्रों से यूरोप में नाजी फौजों को विरुद्ध दूसरा मोर्चा खोल देने का अनुरोध किया ताकि नाजी सेना का रूसी सीमा में पड़ा दबाव कम हो सके । परन्तु रूजवेल्ट और चर्चिल महीनों तक इस अनुरोध को टालते रहे । सोवियत इतिहासकारों के मत में यह देरी अमरीका और ब्रिटेन की योजनाबद्ध नीति का परिणाम थी जिससे नाजी जर्मनी, साम्यवादी रूस को पूर्णतया ध्वस्त कर दे । इससे स्टालिन को यह समझने में देर नहीं लगी कि पश्चिमी देशों की आन्तरिक भावना सोवियत संघ को विनष्ट हुआ देखने की हैं ।

(vi) सोवियत संघ द्वारा बाल्कन समझौते का अतिक्रमण- सोवियत संघ ने अक्टूबर 1944 ई० में चर्चिल के पूर्वी यूरोप के विभाजन के सुझाव को स्वीकार कर लिया था । इसके अन्तर्गत यह निश्चित हुआ था कि सोवियत संघ का बल्गारिया तथा रूमानिया में प्रभाव स्वीकार किया जाए और यही स्थिति यूनान में ब्रिटेन की स्वीकार की जाए । हंगरी और यूगोस्लाविया में दोनों का बराबर प्रभाव माना जाए, किन्तु युद्ध की समाप्ति के बाद इन देशों में बाल्कन समझौते की उपेक्षा करते हुए सोवियत संघ ने साम्यवादी दलों को खुलकर सहायता दी और वहां सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करा दी गई । इससे पश्चिमी देशों को नाराज हो जाना स्वाभाविक था ।

(vii) अणुबम का आविष्कार- शीत-युद्ध के सूत्रपात का एक अन्य कारण अणु बम का आविष्कार था । यह कहा जाता है कि अणु बम ने हिरोशिमा का ही विध्वंस नहीं किया, अपितु युद्धकालीन मित्र-राष्ट्रों की मित्रता का भी अन्त कर दिया । संयुक्त राज्य अमरीका में अणु बम पर अनुसन्धान कार्य और उसका परीक्षण बहुत पहले से चल रहा था । अमरीका ने इस अनुसन्धान की प्रगति से ब्रिटेन को तो पूरा परिचित रखा, लेकिन सोवियत संघ से इसका रहस्य जान-बूझकर गुप्त रखा गया । सोवियत संघ को इससे जबर्दस्त सदमा पहुँचा और उसने इसे एक घोर विश्वासघात माना । उधर अमरीका और ब्रिटेन को अणु बम के कारण यह अभिमान हो गया कि अब उन्हें सोवियत सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है । अतएव इस कारण भी दोनों पक्षों में मन-मुटाव बढ़ा ।

(viii) पश्चिम की सोवियत विरोधी नीति और प्रचार अभियान- पश्चिम की सोवियत विरोधी नीति और प्रचार अभियान ने जलती आहुति में घी का काम किया । 18 अगस्त, 1945 ई० को बर्नेज (अमरीकी राज्य सचिव) तथा बेविन (ब्रिटिश विदेश मंत्री) ने अपनी विज्ञप्ति में सोवियत नीति के संदर्भ में कहा कि “हमें तानाशाही के एक स्वरूप के स्थान पर उसके दूसरे स्वरूप के संस्थापन को रोकना चाहिए । ” 5 मार्च, 1946 ई० को अपने फुल्टन भाषण में चर्चिल ने कहा कि “बाल्टिक में स्टेटिन से लेकर एड्रियाटिक में ट्रीस्टे तक, महाद्वीप (यूरोप) में एक लौह आवरण छा गया है । ये सभी प्रसिद्ध नगर और सोवियत क्षेत्र में बसने वाली जनता न केवल सोवियत प्रभाव में हैं वरन् सोवियत नियंत्रण में है ।


” उसने आगे कहा कि “स्वतंत्रता की दीप-शिखा प्रज्वलित रखने एवं ईसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए” एक आंग्ल-अमरीकी गठबन्धन की आवश्यकता है । चर्चिल के फुल्टन भाषण के दूरगामी परिणाम हुए । अप्रैल 1946 के उपरान्त दोनों पक्षों के संबंध में कहा गया कि
“ब्रिटेन के युद्धकालीन नेता के फुल्टन भाषण ने शीत-युद्ध का वास्तव में प्रारम्भ न ही किया हो, तो भी वह प्रथम बुलन्द उद्घोषणा थी । ” ।

(ix) टर्की पर सोवियत संघ का दबाव- युद्ध के तुरन्त बाद सोवियत संघ ने टर्की पर कुछ भू-प्रदेश और वास्फोरस में नाविक अड्डा बनाने का अधिकार देने के लिए दबाव डालना शुरु किया । परन्तु पश्चिमी राष्ट्र इसके विरुद्ध थे । जब टर्की पर सोवियत संघ का हस्तक्षेप बढ़ने लगा तो अमरीका ने उसे चेतावनी दी कि टर्की पर किसी भी आक्रमण को सहन नहीं किया जाएगा और मामला सुरक्षा परिषद् में रखा जाएगा ।
(x) यूनान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप- सन् 1944 ई० में एक समझौते के द्वारा यूनान ब्रिटेन के अधिकार क्षेत्र में स्वीकार कर लिया गया था । द्वितीय महायुद्ध में ब्रिटेन की स्थिति बहुत कमजोर हो गई थी जिससे ब्रिटेन ने यूनान के अपने सैनिकअड्डे समाप्त करने की घोषणा कर दी । यूनान के शक्ति-शून्य प्रदेश को भरने के लिए पड़ोसी साम्यवादी देशों-अल्बानिया, यूगोस्लाविया, बुल्गारिया आदि द्वारा सोवियत संघ की प्रेरणा से यूनानी कम्युनिस्ट छापामारों को परम्परागत राजतंत्री शासन उखाड़ फेंकने के लिए सहायता दी जाने लगी । परिणामस्वरूप टूमैन सिद्धान्त और मार्शल योजना के तत्वाधान में अमरीका का हस्तक्षेप किया जाना अपरिहार्य हो गया अन्यथा यूनान का साम्यवादी खेमे में जाना निश्चित सा ही हो गया था ।

(xi) सोवियत संघ द्वारा अमरीका विरोधी प्रचार अभियान- द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के कुछ समय पूर्व से ही प्रमुख सोवियत पत्रों में अमरीका की नीतियों के विरुद्ध घोर आलोचनात्मक लेख प्रकाशित होने लगे । इस ‘प्रचार अभियान’ से अमरीका के सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में बड़ा विक्षोभ फैला और अमरीका ने अपने यहाँ बढ़ती हुई साम्यवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाना प्रारम्भ कर दिया ताकि अमरीका में साम्यवाद के प्रभाव को बढ़ने से रोका जा सके । सोवियत संघ ने अमरीका में भी साम्यवादी गतिविधियों को प्रेरित किया ।
सन् 1945 ई० प्रारम्भ में ‘स्ट्रेटजिक सर्विज’ के अधिकारियों को यह ज्ञात हुआ कि उनकी संस्था के गुप्त दस्तावेज साम्यवादी संरक्षण में चलने वाले पत्र ‘अमेरेशिया’ के हाथों में पहुँच गये हैं । सन् 1946 ई० में कैनेडियन रॉयल कमीशन’ की रिपोर्ट में कहा गया कि कनाडा का साम्यवादी दल ‘सोवियत संघ की एक भुजा’ हैं । ऐसी स्थिति में अमरीकी प्रशासन साम्यवादी सोवियत संघ के प्रति जागरूक हो गया और उन्होंने साम्यवाद का हौवा खड़ा कर दिया । सोवियत संघ ने अमरीका की इस कार्यवाही को अपने विरुद्ध समझा और उसने भी अमरीका की कटु आलोचना करने का अभियान प्रारम्भ कर दिया, परिणामस्वरूप शीत-युद्ध में वृद्धि हुई ।

(xii) शक्ति संघर्ष- मॉरगेन्थाऊ के अनुसार, “अर्न्तराष्ट्रीय राजनीति शक्ति-संघर्ष की राजनीति है । ” विश्व में जो भी परम शक्तिशाली राष्ट्र होते हैं उनमें प्रधानता के लिए संघर्ष होना अनिवार्य होता है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ तथा अमरीका ही दो शक्तिशाली राज्यों के रूप में उदय हुए, अतः इनमें विश्व-प्रभुत्व स्थापित करने के लिए आपसी संघर्ष होना अनिवार्य था । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यह माना हुआ सिद्धान्त है कि शक्ति-राजनीति को सैद्धान्तिक आदर्शों का जामा पहनाया जाता है । अत: कई विचारक तो शीत-युद्ध को पुरानी शक्ति-संतुलन की राजनीति का नया संस्करण मानते हैं, जिसमें दोनों परम शक्तियाँ अपना प्रभुत्व बढ़ाने में जी-जान से लगी हुई थीं । धीरे-धीरे इसे सैद्धान्तिक आधार दे दिया गया ।

(xiii) सोवियत संघ कीलैण्ड-लीज सहायता बन्द किया जाना- लैण्ड-लीज एक्ट के अन्तर्गत अमरीका द्वारा सोवियत संघ को जो आशिंक आर्थिक सहायता दी जा रही थी उससे वह असन्तुष्ट तो था ही क्योंकि यह सहायता अत्यंत अल्प थी, किन्तु इस अल्प सहायता को भी राष्ट्रपति ट्रमैन ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एकाएक बन्द कर दिया जिससे सोवियत संघ का नाराज होना स्वाभाविक था ।

(xiv) हित-संघर्ष- शीत-युद्ध वस्तुतः राष्ट्रीय हितों का संघर्ष था । द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त अनेक मुद्दों पर सोवियत संघ और अमरीका के स्वार्थ आपस में टकराते थे । ये विवादास्पद मुद्दे थे- जर्मनी का प्रश्न, बर्लिन का प्रश्न, पूर्वी यूरोप में साम्यवादी शासन की स्थापना करना आदि । बर्लिन की नाकेबन्दी- सोवियत संघ द्वारा लन्दन प्रोटोकोल (जून 1948)का उल्लंघन करते हुए बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी गई । इससे पश्चिमी देशों ने सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ की नाकेबन्दी के विरुद्ध शिकायत की और इस कार्यवाही को शान्ति के लिए घातक बताया ।

(xvi) सैद्धान्तिक या वैचारिक संघर्ष- शीत-युद्ध एक प्रकार का वैचारिक या सैद्धान्तिक संघर्ष भी था । सैद्धान्तिक दृष्टि से
अमरीका और सोवियत संघ में बहुत अधिक अन्तर था । अमरीका एक पूँजीवादी, उदार, लोकतंत्रात्मक देश है जबकि सोवियत संघ मार्क्सवादी और एकदलीय व्यवस्था वाला देश था । विश्व के मजदूरों एक हो जाओ का साम्यवादी घोषणापत्र विश्व से बुर्जुआ पूँजीवादी व्यवस्था को नष्ट करने का खुला ऐलान था । एम०जी० गुप्ता के शब्दों में, “शीत-युद्ध अपनी प्रभुसत्ता की स्थापना के लिए अपनी विचारधारा को थोपने के लिए किया जाता है । “

(xvii) सोवियत संघद्वारा वीटो का बार-बार प्रयोग- सोवियत संघ ने अपने वीटो के अनियन्त्रित प्रयोगों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों में बाधाएँ डालना प्रारम्भ कर दिया, क्योंकि वह संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व शान्ति और सुरक्षा स्थापित करने वाली एक विश्व-संस्था न मानकर अमरीका के विदेश विभाग का एक अंग समझता था । इसलिए वीटो के बल पर उसने अमरीका और पश्चिमी देशों के लगभग प्रत्येक प्रस्ताव को निरस्त करने की नीति अपना ली । सोवियत संघ द्वारा वीटो के इस प्रकार दुरुपयोग करने से पश्चिमी राष्ट्रों की यह मान्यता बन गई कि वह इस संगठन को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील है । इस कारण पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ की कटु आलोचना करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप उनमें परस्पर विरोध और तनाव का वातावरण और अधिक विकसित हो गया ।

2– शीत-युद्ध की प्रकृति एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में इसके प्रभाव बताइए ।
उत्तर— शीत-युद्ध की प्रकृति- इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर शीत-युद्ध के प्रभाव-विश्व राजनीति को शीत-युद्ध ने अत्यधिक प्रभावित किया है । इसने विश्व में भय ओर आतंक के वातावरण को जन्म दिया जिससे शस्त्रों की होड़ बढ़ी । इसने संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था को पंगु बना दिया और विश्व को दो गुटों में विभक्त कर दिया । शीत-युद्ध के प्रभाव निम्न प्रकार हैं

(i) सैनिक सन्धियों एवं सैनिक गठबन्धनों का बाहुल्य- शीत-युद्ध ने विश्व में सैनिक सन्धियों एवं सैनिक गठबन्धनों को जन्म दिया । नाटो, सीटो, सेण्टो तथा वारसा पैक्ट जैसे सैनिक गठबन्धनों का प्रादुर्भाव शीत-युद्ध का ही परिणाम था । इसके कारण शीत-युद्ध में उग्रता आई, इन्होंने नि:शस्त्रीकरण की समस्या को और अधिक जटिल बना दिया । वस्तुतः इन सैनिक संगठनों ने प्रत्येक राज्य को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद निरन्तर युद्ध की स्थिति में रख दिया । आणविक युद्ध की सम्भावना का भय- सन् 1945 ई० आणविक शस्त्र का प्रयोग किया गया था । शीत युद्ध के वातावरण में यह महसूस किया जाने लगा कि अगला युद्ध भयंकर आणविक युद्ध होगा । क्यूबा संकट के समय आणविक युद्ध की सम्भावना बढ़ गई थी । अब लोगों को आणविक आतंक मानसिक रूप से सताने लगा । आणविक शस्त्रों के निर्माण की होड़ में वृद्धि हुई । आणविक शस्त्रों के परिप्रेक्ष्य में परम्परागत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की संरचना ही बदल गई ।

(iii) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का पोषण- शीत-युद्ध से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का पोषण हुआ । अब शान्ति की बात करना भी सन्देहास्पद लगता था । अब ‘शान्ति’ का अर्थ ‘युद्ध के सन्दर्भ’ में लिया जाने लगा । ऐसी स्थिति में शान्तिकालीन युग के अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का संचालन दुष्कर कार्य समझा जाने लगा ।

(iv) विश्व का दो गुटों में विभाजित होना- शीत-युद्ध के कारण विश्व राजनीति का स्वरूप द्विपक्षीय बन गया । संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ के दो पृथक-पृथक गुटों का नेतृत्व करने लगा गए । अब विश्व की समस्याओं को इसी गुटबन्दी के आधार पर आँका जाने लगा जिससे अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएँ उलझनपूर्ण बन गईं । चाहे कश्मीर समस्या हो अथवा कोरिया समस्या, अफगानिस्तान समस्या हो या अरब-इजराइल संघर्ष, अब उस पर गुटीय स्वार्थों के परिप्रेक्ष्य में सोचने की प्रवृत्ति बढ़ी ।

(v) सुरक्षा परषिद् को लकवा लग जाना- शीत-युद्ध के कारण सुरक्षा परिषद् को लकवा लग गया । सुरक्षा परिषद् जैसी संस्था, जिसके कन्धों पर अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा स्थापित करने का त्वरित निर्णय लेने का भार डाला गया था सोवियत संघ और अमरीका के, पूरब और पश्चिम के संघर्ष का अखाड़ा बन गई । इसमें महाशक्तियाँ अपने परस्पर विरोधी स्वार्थों के कारण विभिन्न शान्ति प्रस्तावों को वीटो द्वारा बेहिचक रद्द करती रहती थीं; वस्तुतः यहाँ इतना अधिक विरोध और वीटो का प्रयोग दिखाई देता था कि इसे संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थान पर विभक्त और विरोधी दलों में बँटा हुआ राष्ट्र संघ कहना अधिक उपयुक्त है ।
(vi) आतंक और अविश्वास के दायरे में विस्तार- शीत-युद्ध ने राष्ट्रों को भयभीत किया, आतंक और अविश्वास का दायरा बढ़ाया । अमरीका और सोवियत संघ के मतभेदों के कारण अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में गहरे तनाव, वैमनस्य, मनोमालिन्य, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास की स्थिति आ गई । विभिन्न राष्ट्र और जनमानस इस बात से भयभीत रहने लगे कि कब एक छोटी-सी चिनगारी तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन जाए? शीत-युद्ध ने ‘युद्ध के वातावरण’ को बनाए रखा । पं० नेहरू ने ठीक ही कहा था कि हम लोग निलम्बित मृत्युदण्ड के युग में रह रहे हैं ।

(vii) शस्त्रीकरण की अविरल प्रतिस्पर्धा- शीत-युद्ध ने शस्त्रीकरण की होड़ को बढ़ावा दिया जिसके कारण विश्व-शान्ति और नि:शस्त्रीकरण की योजनाएँ धूमिल हो गईं । कैनेडी ने कहा था कि “शीत-युद्ध ने शस्त्रों की शक्ति, शस्त्रों की होड़ और विध्वंसक शस्त्रों की खोज को बढ़ावा दिया है । अरबों डॉलर शस्त्र प्रविधि और शस्त्र-निर्माण पर प्रति वर्ष खर्च किए जाते हैं । “
(viii) संयुक्त राष्ट्र संघ को पंगु करना- शीत-युद्ध के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विश्व संगठन के कार्यों में भी अवरोध उत्पन्न हुआ और महाशक्तियों के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण के कारण संघ कोई कठोर कार्यवाही नहीं कर सका । यहाँ तक कि कई बार तो संघ की स्थिति केवल एक मूकदर्शक से बढ़कर नहीं रही । संयुक्त राष्ट्र का मंच महाशक्तियों की राजनीति का अखाड़ा बन गया और इसे शीत-युद्ध के वातावरण में राजनीतिक प्रचार का साधन बना दिया गया । एक पक्ष ने दूसरे पक्ष द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों का विरोध किया जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ वाद-विवाद का ऐसा मंच बन गया जहाँ सभी भाषण देते हैं, किंतु सुनता कोई भी नहीं । शीत-युद्ध के वातावरण में वाद-विवाद बहरों के संवाद बनकर रह गए ।

(ix) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यान्त्रिकीकरण- शीत-युद्ध का स्पष्ट अर्थ लिया जाता है कि दुनिया दो भागों में विभक्त हैएक खेमा देवताओं का है तो दूसरा दानवों का, एक तरफ काली भेड़े हैं तो दूसरी तरफ सभी सफेद भेड़ें हैं । इनके मध्य कुछ भी नहीं है । इससे जहाँ इस दृष्टिकोण का विकास हुआ कि जो हमारे साथ नहीं है वह हमारा विरोधी है वहीं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एकदम यान्त्रिकीकरण हो गया ।

(x) जनकल्याण योजनाओं को आघात- शीत-युद्ध से जनकल्याण की योजनाओं को गहरा आघात पहुँचा । दोनों महाशक्तियाँ शक्ति की राजनीति में विश्वास रखने के कारण तीसरी दुनिया के देशों में व्याप्त समस्याओं के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाती रहीं ।

3– तनाव शैथिल्य का अर्थ व परिभाषा बताइए तथा उन विविध कारणों को भी बताइए जिनके कारण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में तनाव शैथिल्यका जन्म हुआ ।
उत्तर— तनाव शैथिल्य या दितान्त का अर्थ एवं परिभाषा- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते समीकरण में सोवियत संघ अमरीकी संबंधों में सन् 1962 ई० के क्यूबा संकट के उपरान्त एक नया मोड़ आया; शीत युद्ध के वैमनस्यपूर्ण संबंध सौमनस्य और मधुर-मिलन की दिशा में बढ़ने लगे । परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों में तनाव, वैमनस्य, मनोमालिन्य, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास के संबंध तनाव-शैथिल्य, मित्रता, सामजस्य, शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और परस्पर विश्वास में परिवर्तित होने लगे । शीत युद्ध के नकारात्मक संबंध आपसी विचार-विमर्श की उत्कण्ठा, समझौतावादी दृष्टिकोण एवं मैत्रीपूर्ण सहयोग की ओर उन्मुख होने लगे ।

अमरीका और सोवियत संघ के संबंधों में इस नवीन परिवर्तन को तनाव शैथिल्य या दितान्त के नाम से जाना जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अधुनातन परिप्रेक्ष्य में दितान्त का अर्थ इस प्रकार से किया जा सकता है- कि अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य शीत-युद्ध के बजाय सांमजस्यपूर्ण संबंधों को दितान्त कहते हैं । अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य मतभेद के बजाय शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के संबंधों को दितान्त कहते हैं । दितान्त का यह अर्थ कदापि नहीं कि दोनों महाशक्तियों के मतभेद पूर्णतः समाप्त हो गए या उनमें वैचारिक मतभेद नहीं पाए जाते थे या उनमें कोई राजनीतिक, आर्थिक व सैनिक प्रतियोगिता नहीं थी । दितान्त की विशेषता यह थी कि सैद्धान्तिक मतभेदों एवं प्रतियोगिता के बावजूद इसने महाशक्तियों में आर्थिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग में बाधा प्रस्तुत नहीं होने दी ।

ऑक्सफोर्ड इंग्लिश शब्दकोष के अनुसार, “तनाव शैथिल्य दो राज्यों के तनावपूर्ण संबंधों की समाप्ति है । डॉ०बी०के० श्रीवास्तव के अनुसार, संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ ने शीत-युद्ध के संघर्षपूर्ण संबंधों को समाप्त करने का निश्चय किया जिसे प्रायः तनाव शैथिल्य या दितान्त कहते हैं ।

तनाव शैथिल्य के कारण– अमरीका और पूर्व सोवियत संघ के संबंधों में यह बुनियादी परिवर्तन क्यों आया कि वे शीत-युद्ध से तनाव शैथिल्य के मार्ग की ओर उन्मुख हए? इसके निम्नलिखित कारण हैं

(i) शीत-युद्ध का तनाव पूर्ण वातावरण- शीत-युद्ध एक मनोवैज्ञानिक युद्ध था । यह निलम्बित मृत्युदण्ड के समान था । इसे गरम-युद्ध से भी अधिक भयानक माना गया । दोनों महाशक्तियों को यह आशंका होने लगी कि शीत-युद्ध कभी भी सशस्त्र युद्ध में परिवर्तित हो सकता है और उसका परिणाम होगा भंयकर विध्वंस । इसलिए वे पारस्परिक टकराव से बचने की दिशा में सोचने पर बाध्य हुए ।

आणविक आतंक और आणविक युद्ध का भय– अमरीका और सोवियत संघ दोनों ने आणविक आयुधों का निर्माण कर लिया, किन्तु वे दोनों इन शस्त्रों की मारक शक्ति से चिन्तित रहे । न्यूट्रॉन बम के नाम से कंपकंपी छूटती है । न्यूट्रॉन गोलियों से मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं के लिए तुरन्त या निलम्बित मृत्यु निश्चित है । इसकी संहारकता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि हाइड्रोजन बम जैसे भयंकर बम से भी मरने वाले और घायलों का अनुपात एक और तीन होता है मगर न्यूट्रॉन बम में इसके उल्टे यदि एक जखमी होगा तो तीन मरेंगे । कहने का मतलब यह है कि नाभिकीय अस्त्रों ने युद्ध को इतना भयानक और विनाशकारी बना दिया कि कोई भी महाशक्ति इसका खतरा मोल नहीं ले सकती थी । कोई भी महाशक्ति परमाणु युद्ध में सैनिक लाभ अर्जित करने का दावा नहीं कर सकती थी । अत: टकराव और परमाणु संघर्ष से बचने के लिए दितान्त संबंध अमरीका और सोवियत संघ की मजबूरी थे ।

दितान्त संबंध सोवियत संघ के आर्थिक विकास की आवश्यकताएँ पूरी करता था- दितान्त का एक कारण सोवियत संघ के आर्थिक विकास की आवश्यकताएँ भी थी । तकनीकी ज्ञान के अभाव में सोवियत संघ कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया, साइबेरिया में उपलब्ध विशाल गैस भण्डारों का दोहन नहीं कर पाया । सोवियत संघ को अतिरिक्त खाद्य पदार्थों की अनवरत आवश्यकता रही है जिसे वह अमरीका से सौहार्दपूर्ण संबंधों के वातावरण में आसानी से प्राप्त कर सकता था चूंकि अमरीका के पास हमेशा अतिरिक्त खाद्यान्न उपलब्ध रहे हैं । निश्चित ही अमरीकी तकनीकी ज्ञान और सहायता के आधार पर सोवियत विकास को नया आयाम प्राप्त हो सकता था, किन्तु इसके लिए शीत-युद्ध की वैमनस्यता को दफनाना आवश्यक था । यह अमरिका के प्रति सह-अस्तित्व एवं माधुर्य की नीति अपनाकर ही संभव था । सोवियत नेता पोडगोर्नी के शब्दों में वस्तुगत तथ्यों के आधार पर सोवियत संघ चाहता था कि सोवियत-अमरीकी संबंधों से शीत-युद्ध के अवशेष समाप्त कर दिए जाएँ ।

(iv) यूरोपीय राष्ट्र युद्ध की परिकल्पना से भयभीत थे- क्यूबा के संकट (1962) का एक दोहरा और विचित्र प्रभाव पड़ा । एक ओर जहाँ इसने शीत-युद्ध की पराकाष्ठा की अनुभूति करवाई, दूसरी ओर इसने शिथिलता की आवश्यकता को भी उग्र रूप से रेखांकित किया । इस घटना के बाद यूरोपीय राष्ट्र विशेषत:युद्ध की कल्पना से भयभीत रहे । दूसरा विश्व युद्ध उनकी धरती पर लड़ा गया था, अत: उसका उन्हें अत्यधिक कटु अनुभव था । किसी प्रकार से वे विश्व-स्तरीय तनाव में डूबने को तैयार नहीं थे । यूरोपीय राष्ट्रों की इस उग्र अनुभूति का अमरीकी विदेश नीति पर सीधा दबाव पड़ा और वह शिथिलता की नीति को और अधिक तत्परता से लागू करने को बाध्य हुई । यूरोपीय परिवेश को देखते हुए यह कदापि आश्चर्यजनक नहीं था कि दितान्त के वास्तविक प्रचलन की पहल यूरोप से ही हुई । पश्चिमी जर्मनी के चान्सलर विली ब्रांट ने यूरोपीय राष्ट्रों में शिथिलता की प्रक्रिया को लागू करने का विचार रखा ।

(v) आणविक शस्त्रों के क्षेत्र में सन्तुलन- आणविक शस्त्रों के क्षेत्र में असन्तुलन का परिणाम था शीत-युद्ध और इस क्षेत्र में स्थापित सन्तुलन ने दितान्त संबंधों को विकसित करने में योगदान दिया । प्रारम्भ में संयुक्त राज्य अमरीका आणविक शस्त्रों से संपन्न राष्ट्र था और जब सोवियत संघ ने अणु विस्फोट कर लिया जो सोवियत संघ और अमरीका के बीच जो सैनिक असन्तुलन था वह समाप्त हो गया एवं दोनों सन्तुलन की स्थिति में आ गए । अमरीका अब यह महसूस करने लगा कि साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए सशस्त्र संघर्ष की नीति घातक रहेगी । बर्लिन की घेराबन्दी, कोरिया युद्ध और क्यूबा संकट के समय आणविक शस्त्रों के घातक परिणाम किसी की भी कल्पना के बाहर नहीं थे । आणविक विनाश से भविष्य में बचने के लिए दोनों महाशक्तियों में संवाद प्रारम्भ किए जाने की आवश्यकता थी । दितान्त युग के संवादों का ही परिणाम था कि दोनों महाशक्तियों में साल्ट वार्ताएँ चलती रही और साल्ट-1 और साल्ट-2 के समझौते हुए ।

(vi) द्वि-गुटीय विश्व राजनीति का बहुकेंद्रवाद में परिवर्तन- द्वितीय महायुद्ध के तुरंत बाद विश्व द्वि-ध्रुवीयता की ओर बढ़ा और सन् 1950 ई० आते-आते इस द्वि-ध्रुवीयता के बंधन शिथिल पड़ने लगे और विश्व शनै-शनै बहुकेंद्रवाद की ओर अग्रसर होने लगा । सन् 1963-79 ई० की कालावधि में शक्ति के केवल दो ही केंद्र नहीं अपितु बहुत सारे केंद्र हो गए । अमरीका और सोवियत संघ के साथ-साथ ब्रिटेन, फ्रांस और चीन भी अणु-शक्ति के स्वामी बन चुके थे । जापान, पश्चिमी जर्मनी, यूरोपीय आर्थिक समुदाय, भारत और गुटनिरेपक्ष मंच भी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के केंद्र थे । ये शक्ति-केंद्र अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में अधिकाधिक स्वतंत्र आचरण करने लगे । इस बहु-केंद्रवाद ने महाशक्तियों के संबंधों में दितान्त की प्रवृत्ति को जन्म दिया ।

(vii) साम्यवादी गुटबन्दी का ढीलापन तथा सोवियत संघ-चीन मतभेद- सोवियत संघ के प्रति अमरीकी दृष्टिकोण में परिवर्तन का एक कारण साम्यवादी गुटबन्दी का ढीला होना भी था । बदले अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में साम्यवादी गुट की एकजुटता टूटने लगी और साम्यवादी दुनिया में शक्ति के अनेक प्रतिस्पर्धी केंद्रों का उदय हुआ जो मास्को से स्वतंत्र रहने की चेष्टा करने लगे । साम्यवादी दुनिया की ठोस एकता के बजाय वहाँ बहुध्रुवीयता के तत्व दृष्टिगोचर होने लगे । यह स्थिति अमरीका के लिए लाभ की स्थिति थी चूंकि वह साम्यवादी देशों से अपनी सहूलियत के अनुसार उनके मतभेदों का लाभ उठाकर समझौते कर सकता था । इसी प्रकार चीन-सोवियत रूस संघर्ष के फलस्वरूप सोवियत संघ के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह चीन के मुकाबले में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए पश्चिमी देशों से मुख्यतः उनके नेता अमरीका से शान्तिपूर्ण संबंध विकसित करे ।

(viii) अमरीकी उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकताएँ- अमरीकी नेताओं ने यह महसूस किया कि सोवियत संघ में कच्चे माल के विशाल भंडार है और अमरीकी उद्योगों के लिए उन्हें आसान शर्तों पर प्राप्त किया जा सकता है । निक्सन प्रशासन का यह विश्वास था कि अमरीका और सोवियत संघ की अर्थव्यवस्थाएँ अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के परिप्रेक्ष्य में एकदूसरे की प्रतियोगी न होकर पूरक हैं । सोवियत संघ के पास गैस, पेट्रोलियम और क्रोम के विशाल भण्डार हैं जिन्हें व्यापारिक आधार पर प्राप्त किया जाए तो अन्य देशों पर अमरीकी निर्भरता कम होगी ।

(ix) राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में बुनियादी परिवर्तन- शीत-युद्ध काल में संयुक्त राज्य अमरीका की राष्ट्रीय नीति और प्राथमिक आवश्यकता थी- ‘साम्यवाद का अवरोध’, साम्यवाद का समूलोन्मूलन और सोवियत संघ की सर्वोच्च प्राथमिकता थीसाम्यवाद का विस्तार और पूँजीवाद का अन्त करना । इसके लिए दोनों देशों ने लोक-कल्याणकारी योजनाओं, गरीबी उन्मूलन, जीवन-स्तर ऊँचा करने जैसे अपरिहार्य कार्यक्रमों की कीमत पर अस्त्रों की शक्ति, परमाणु शस्त्रों के निर्माण तथा सैनिक गठबन्धनों पर बल दिया था । धीरे-धीरे दोनों महाशक्तियों ने यह अनुभव किया कि उन्हें अपने संसाधन और तकनीकी ज्ञान का प्रयोग अपने नागरिकों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए करना चाहिए । इसके लिए तनाव शैथिल्य का वातावरण अधिक उपयोगी और उत्साहवर्धक समझा गया ।

(x) दितान्त संबंध पारस्परिक राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करते थे- डॉ० एम०एस० राजन के अनुसार, शीत-युद्ध के संघर्षपूर्ण मार्ग से दितान्त के सपाट रास्ते पर चलने का कारण महाशक्तियों के पारस्परिक हितों में ढूंढा जा सकता है । दोनों महाशक्तियों के नेताओं एवं अभिजन ने यह सोचा कि अस्त्र-शस्त्रों पर धन खर्च करने के बजाय अपने-अपने देश में आम आदमी के भविष्य को सुखद बनाने के लिए धन खर्च करना अधिक लाभकारी है । शीत-युद्ध के युग में सोवियत संघ ने खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता को प्राथमिकता नहीं दी और अमरीका ने नीग्रो के कल्याण के लिए धन खर्च करने मे कंजूसी की । इससे दोनों देशों में जन-असन्तोष बढ़ा । दितान्त संबधों से अमरीका और सोवियत संघ की शक्ति और धन अपने नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति में लगने की गुन्जाइश बढ़ी जिससे विश्व शान्ति के स्थायी आधार के पुख्ता होने की संभावना बढ़ी ।

(xi) गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की भूमिका- शीत-युद्ध को दितान्त अर्थात् तनाव-शैथिल्य की स्थिति में लाने का श्रेय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ही है । गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने शीत-युद्ध को बढ़ावा देने वाली गुटबन्दी को तोड़ने में सहयोग दिया । गुटनिरपेक्षता का दायरा इतना बढ़ता गया कि दोनों ही गुटों में दरारें पड़ने लगीं, गुटों में संलग्न राष्ट्र भी धीरे-धीरे गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने लगे । पाकिस्तान, पुर्तगाल, रूमानिया, ईरान जैसे देश अपने-अपने गुटों को छोड़कर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल हो गए । गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने धीरे-धीरे स्वतंत्र विदेश नीति पर ही नहीं, बल्कि शान्ति और सहयोगी की आवश्यकता पर भी बल दिया । इससे महाशक्तियों में प्रतिद्वन्द्विता के स्थान पर सहयोग को बल मिला । डॉ० ए०पी० राणा के अनुसार, “गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने अपनी गुटनिरपेक्ष पहचान को बनाए रखते हुए महाशक्तियों को अपने सहयोगी-प्रतिद्वन्द्वी व्यवहार को सतर्कतापूर्वक संचालित करने में मदद की । “

(xii) संयुक्त राष्ट्र संघ में तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की भूमिका- संयुक्त राष्ट्र संघ में भी महाशक्तियों की स्थिति पहले जैसी नहीं रही । तीसरी दुनिया और अफ्रेशियाई राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी आवाज बुलन्द करना शुरू कर दिया । संयुक्त राष्ट्र संघ में उनकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई संख्या ने भी शीत-युद्ध की उग्रता को कम किया ।

(xiii) महाशक्तियों को अपने गुटीय मित्रों से निराशा और यथार्थवादी चिन्तन की प्रवृत्ति- शीत-युद्ध की राजनीति में अमरीका और सोवियत संघ ने अपने-अपने मित्रों की संख्या बढ़ाने की होड़ प्रबल थी, किन्तु उन्हें यह समझते देर न लगी कि उनके मित्र उनके लिए बोझ बनते जा रहे हैं । दक्षिण वियतनाम, दक्षिण कोरिया और फारमोसा अमरीका पर भार थे, पूर्वी जर्मनी और उत्तरी कोरिया सोवियत संघ पर भार साबित हुए, फ्रांस ने अमरीका के लिए मुसीबतें खड़ी की और चीन, रूमानिया, अल्बानिया ने सोवियत संघ के लिए मुसीबतें खड़ी की । गुटनिरपेक्ष देशों ने दोनों की महाशक्तियों से सहायता लेकर दोनों का आर्थिक एवं सैनिक शोषण किया । डॉ० एम०एस० राजन के शब्दों में, “फ्रांस का अमरीका विरोधी दृष्टिकोण और चीन द्वारा सोवियत संघ को दी जाने वाली खुली चुनौती विशेष रूप से महाशक्तियों के संबंधों में दितान्त के विकास के लिए उत्तरदायी है । ” महाशक्तियों ने यथार्थवादी रुख अपनाते हुए यह महसूस किया कि अन्य देशों की मित्रता के स्थान पर पारस्परिक संबधों में दितान्त अधिक विश्वसनीय, लाभकारी एवं कम खर्चीला है ।

4– दितान्त आचरण के निर्धारक तत्व बताइए ।
उत्तर— दितान्त आचरण अथवा तनाव शैथिल्य के निर्धारक तत्वों के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 में तनाव शैथिल्य के कारणों का अवलोकन कीजिए ।

5– तनाव शैथिल्य पर एक निबंध लिखिए ।
उत्तर— उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

6– शीत युद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की नई प्रवृत्तियाँ लिखिए ।
उत्तर— शीत युद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की नई प्रवृत्तियाँ- सोवियत संघ-अमरीका तनाव शैथिल्य ने शीत-युद्ध के तनावपूर्ण वातावरण को समाप्त किया, शस्त्रीकरण की होड़ को सीमित किया; संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य को आसान बनाया; परमाणु युद्ध के आतंक से मानव जाति को उन्मुक्त किया और विरोधी विचार प्रणालियों वाले राष्ट्रों में संवाद और मेल-मिलाप प्रारम्भ करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव प्रस्तुत किया । शीत युद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की नई प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित है
(i) गुटबन्दी में लिप्त राष्ट्रों के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता- शीत-युद्ध के युग में गुटबन्दी में लिप्त राष्ट्रों की स्वतंत्र निर्णय-शक्ति धूमिल हो गई थी । उन्हें किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न पर अपने-अपने गुटीय नेता की दृष्टि से सोचना पड़ता था । दितान्त व्यवहार से जहाँ एक ओर पश्चिमी जर्मनी, जापान, फ्रांस, फिलिपाइन्स, पाकिस्तान जैसे अमरीकी गुट से संबद्ध देशों के दृष्टिकोण में पर्याप्त लचीलापन एवं स्वतंत्रता दिखाई देने लगी वहाँ दूसरी तरफ रोमानिया, पूर्वी जर्मनी, वियतनाम, क्यूबा जैसे सोवियत गुट से संबद्ध राष्ट्र भी स्वतंत्र दृष्टि से सोचने-विचारने लगे थे । दितान्त व्यवहार का ही परिणाम था कि पुर्तगाल, पाकिस्तान, रोमानिया जैसे देश गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल हो गए; जापान ने अपने राष्ट्रीय हितों के कारण वाली खुला अपनाते हुए यह मला है । फरवरी 1972 ई० में मंगोलिया गणराज्य को मान्यता दी और मई 1973 ई० में उत्तरी वियतनाम के साथ भी उसने राजनयिक संबंध स्थापित कर लिए ।

(ii) महाशक्तियों के आचरण में विनय और सद्व्यवहार के लक्षण- अमरीकी और सोवियत गुट के राष्ट्र एक-दूसरे के प्रति सभ्य राष्ट्रों की भाँति व्यवहार करने लगे, पारस्परिक सद्व्यवहार का पालन करने लगे और उनके आचरण में विनय के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे ।

(ii) महाशक्तियों के मध्य सहयोग और मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व राजनीति में गुटीय विभाजन स्पष्ट रूप से दिखाई देता था । दितान्त व्यवहार की शुरुआत के बाद महाशक्तियों एवं उनके पिछलग्गू राज्यों में आपसी आदान-प्रदान, सामंजस्य और समझौतापूर्ण संबंधों का नया उभरता हुआ आचरण दिखाई देता है । कभी निक्सन मॉस्को जाते हैं, तो कभी ब्रेझनेव वाशिंगटन, कभी ग्रोमिको अमरीका की यात्रा करते तो कभी कीसिंजर सोवियत संघ की । ऐसा नहीं लगता था कि अमरीका और सोवियत संघ के अलग-अलग गुट हैं और यह गुट एक-दूसरे के विरोधी और दुश्मन हैं । यूरोप, पश्चिमी एशिया, दक्षिणी-पूर्वी एशिया अथवा दुनिया के अन्य भागों में ये महाशक्तियाँ टकराहट की स्थिति में अब नहीं लगती थीं ।

(iv) संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर शालीन व्यवहार की प्रवृत्ति- डॉ० एम०एस० राजन के अनुसार- शीत-युद्धकाल में संयुक्त राष्ट्र संघ प्रचार, आलोचना और छींटाकशी का मंच बन गया था । महाशक्तियों में दितान्त आचरण की शुरुआत के बाद एक बार पुन: संयुक्त राष्ट्र संघ शालीन और गरिमामय अन्तर्राष्ट्रीय मंच के रूप में उभरने लगा । अब महाशक्तियाँ संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही में अडंगा नहीं डालती, इसकी विभिन्न एजेन्सियों की कार्यवाही में सहजता और शालीनता देखने को मिलने लगीं । वीटो का भी अब बार-बार प्रयोग नहीं किया गया और गुटीय आधार पर किसी नए राष्ट्र के प्रवेश को भी टाला नहीं गया ।

(v) सहयोगी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का अभ्युदय- दोनों गुटों के राष्ट्रों के मध्य मनोमालिन्य समाप्त होने लगा तथा व्यापार, आवागमन, संचार विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्रों में सामान्य तकनीकी सहयोग विकसित होने लगा ।

(vi) यूरोपीय महाद्वीप अब विभाजित नहीं लगता- सन् 1945 ई० के बाद ऐसा लगता था कि यूरोपीय महाद्वीप दो भागों-पश्चिमी यूरोप और पूर्वी यूरोप में विभाजित-सा हो गया है । पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के देशों में न तो नागरिकों का आदान-प्रदान होता था और न व्यापार होता था । जर्मनी और बर्लिन की समस्याओं ने यूरोप का कठोरतापूर्वक विभाजन कर दिया था । दितान्त संबंधों की शुरुआत के बाद पूर्वी और पश्चिमी यूरोप के देशों में व्यापार की वृद्धि हुई, सांस्कृतिक आदान-प्रदान का विस्तार हुआ और ऐसा लगा कि अब यूरोपीय देशों की एकजुटता में वृद्धि हो रही है ।

(vii) परमाणु शस्त्रों के नियंत्रण के लिए प्रयत्न- शीत-युद्ध में महाशक्तियों की शक्ति परमाणु शस्त्रों के निर्माण पर लगी हुई थी । दितान्त व्यवहार के बाद परमाणु शस्त्रों के बारे में महाशक्तियों के रुझान में परिवर्तन आया । परमाणु शस्त्रों की विनाशकारी शक्ति से सोवियत संघ और अमरीका का समान रूप से चिन्तित होना प्रतीत हुए । सन् 1972 ई० की साल्टप्रथम संधि, और सन् 1979 ई० की साल्ट-द्वितीय संधि वस्तुतः सोवियत रूस-अमरीकी दितान्त व्यवहार के ही परिणाम

(viii) गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता पर प्रश्न-चिह्न- कुछ लोगों का विचार था कि गुटनिरपेक्षता शीत-युद्ध के सन्दर्भ में उत्पन्न हुई और पली, इसलिए अब शीत-युद्ध में ढील आ जाने के कारण दितान्त युग में गुटनिरपेक्षता बेमानी हो गई ।

(ix) तीसरे महायुद्ध के भय से मुक्ति-सन् 1950-60 ई० के दशक में सोवियत रूस-अमरीका शस्त्र प्रतिस्पर्धा को देखते हुए ऐसा लगता था कि दुनिया पर तृतीय महायुद्ध का खतरा मंडरा रहा है । दितान्त व्यवहार ने इस खतरे को लगभग समाप्त कर दिया । किसी भी संकट के समय सोवियत रूस-अमरीकी नेता हॉट लाइन से बात कर सकते थे और आसन्न खतरे को टाला जा सकता था ।
(x) दितान्त यथास्थितिवाद की समर्थक धारणा है- दितान्त धारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व और उसके बने रहने पर बल देता है । रूस-अमरीका का हित इसी में था कि उन्होंने वर्तमान यथास्थिति को बरकरार रखने के लिए आपसी समझौता कर लिया । इस धारणा में स्थायित्व’ और अनुरक्षण की परिस्थितियों पर अत्यधिक ध्यान दिया गया । इसका अनेक लोग यह अर्थ लगाते हैं कि दितान्त यथास्थिति का रक्षक, रूढ़िवादी और सामाजिक व अन्य प्रकार के पर्यावरणी परिवर्तनों के प्रति उदासीन रहा । संक्षेप में, दितान्त अथवा युद्ध शैथिल्य के कारण शीत-युद्ध ठण्डे सह-अस्तित्व का रूप धारण कर चुका था और वह अब लावा नहीं उगलता था । दितान्त संबंधों के विकसित होने से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से शत्रुतापूर्ण युद्धरत स्थिति का अन्त हुआ । रचनात्मक पुननिर्माण और सहयोग के नूतन युग का सूत्रपात हुआ । दितान्त की उभरती हुई प्रवृत्तियों के कारण विश्व युद्ध के सम्भाव्य कारणों का अन्त होने लगा और महाशक्तियों के नागरिक शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए आशान्वित हुए । निःशस्त्रीकरण के क्षेत्र में सहयोग की वृद्धि हुई, सैनिक भिड़न्त और आणविक-युद्ध के खतरे कम होने लगे ।

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