UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 3 विनय, वात्सल्य, भ्रमर-गीत (सूरदास)

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 3 विनय, वात्सल्य, भ्रमर-गीत (सूरदास)
UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 4

विनय, वात्सल्य, भ्रमर-गीत (सूरदास)

कवि पर आधारित प्रश्न

1 — सूरदास जी का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर प्रकाश डालिए ।।
उत्तर— – कवि परिचय- वात्सल्य रस के महान् सम्राट एवं हिन्दी साहित्य-प्रकाश के सूर्य महात्मा सूरदास जी का जन्म सन् 1478 ई० में हुआ था ।। इनके जन्मस्थान के बारे में मतभेद हैं ।। कुछ विद्वान इनका जन्मस्थान आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क पर स्थित रूनकता नामक ग्राम को मानते हैं, जबकि कुछ इनका जन्मस्थान दिल्ली के निकट ‘सीही’ ग्राम को मानते हैं ।। सूरदास के माता-पिता एवं कुल के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद हैं ।। कुछ विद्वान इन्हें चन्द्रवरदाई का वंशज ब्रह्मभट्ट मानते हैं ।। सूरदास ने बालक कृष्ण की विभिन्न बाल-क्रीड़ाओं, प्रकृति तथा विभिन्न प्रकार के रंगों का जितना सूक्ष्म, यथार्थ और मार्मिक वर्णन किया है, उससे इनके जन्मांध होने पर भी संदेह होता है ।। सूरदास जी को वल्लभाचार्य के शिष्यों में प्रमुख स्थान प्राप्त था ।। इनकी मृत्यु सन् 1583 ई० में परसौली नामक स्थान पर हुई ।। कहा जाता है कि सूरदास ने सवा लाख पदों की रचना की ।। इनके पदों में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है ।। सूरदास जी हिन्दी की कृष्ण-भक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं ।। जिस प्रकार राम-भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं, उसी प्रकार कृष्ण-भक्त कवियों में सूरदास सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं ।।

रचनाएँ– ‘नागरी प्रचारिणी सभा, काशी’ की खोज तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के आधार पर सूरदास जी के ग्रन्थों की संख्या 25 मानी जाती है, किन्तु इनके तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुए हैं – सूरसागर- ‘सूरसागर’ एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे सभी विद्वानों ने प्रामाणिक माना है ।। इसके सवा लाख पदों में से लगभग 10 हजार पद ही उपलब्ध हुए हैं ।।

सूरसागर‘ पर ‘श्रीमद्भागवत’ का प्रभाव है ।। सम्पूर्ण ‘सूरसागर‘ एक गीतिकाव्य है ।। इसके पद तन्मयता के साथ गाए जाते हैं ।। सूरसारावला- यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति में है किन्तु कथावस्तु, भाव, शैली और रचना की दृष्टि से निस्सन्देह यह सूरदास की प्रामाणिक रचना है ।। इसमें 1,107 छन्द हैं ।। इसमें श्रीकृष्ण की संयोगलीलाओं का अत्यन्त मनोरम वर्णन किया गया है ।। सूरसारावली- यह ग्रन्थ अभी तक विवादास्पद स्थिति में है किन्तु कथावस्तु, भाव, शैली और रचना की दृष्टि से निस्सन्देह यह सूरदास की प्रामाणिक रचना है ।। इसमें 1,107 छन्द हैं ।। इसमें श्रीकृष्ण की संयोगलीलाओं का अत्यन्त मनोरम वर्णन किया गया है ।।

साहित्यलहरी– ‘साहित्यलहरी’ में सूरदास जी के 118 दृष्टकूट-पदों का संग्रह है ।। ‘साहित्यलहरी’ में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई है ।। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है ।। कहीं-कहीं पर श्रीकृष्ण की बाललीला का वर्णन हुआ है तथा एक-दो स्थानों पर ‘महाभारत’ की कथा के अंशों की झलक भी मिलती है ।। उपर्युक्त के अतिरिक्त सूरदास जी द्वारा रचित ‘गोवर्धन-लीला’, ‘नाग-लीला’, ‘पद-संग्रह’, ‘सू-पचीसी’ आदि ग्रन्थ भी प्रकाश में आए हैं, परन्तु सूरदास की ख्याति ‘सूरसागर’ से ही हुई है ।।

2 — सूरदास जी की भाषा-शैली की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।।
उत्तर
— भाषा-शैली- सूरदास जी की भाषा में कहीं-कहीं अवधी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के प्रयोग भी मिलते हैं, परन्तु भाषा सर्वत्र सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है ।। ब्रजभाषा में जो निखार सूरदास जी के हाथों आया है, वैसा निखार कदाचित् कोई अन्य कवि नहीं दे सका ।। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन करते समय जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का श्रीकृष्ण का चरित्र तो किसी को भी ईर्ष्यालु बनाने की क्षमता रखता है ।। बाल-हठ, गोचारण, वन से प्रत्यागमन, माखन-चोरी आदि के पदों का लालित्य सूरदास के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है ।। सूरदास ने मुक्तक काव्य-शैली को अपनाया है ।। कथा-वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है ।। अलंकारों की दृष्टि से सूरदास जी के काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, रूपक, दृष्टान्त तथा अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों के प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुए हैं ।। छन्दों में रोला, छप्पय, सवैया, घनाक्षरी आदि प्रमुख हैं ।। भावविभोर और आत्मविस्मृत गोपियों के ‘दही ले’ के स्थान पर ‘कृष्ण ले’ की पुकार लगाना, गोपियों का तीर-कमान लिए वनों-उपवनों में ‘पिक-चातकों’ को बसेरा न ले पाने के हेतु मारा-मारा फिरना, प्रेम की तल्लीनता के ऐसे सजीव उदाहरण सूर-साहित्य के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ हैं ।।

व्याख्या संबंधी प्रश्न
1 — निम्नलिखित पद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए.


(क) अब कैं राखि……………… कृपानिधान॥

अब कै राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम डरिया, पारधी साधे बान।
ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारै प्रान?
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय-जय कृपानिधान।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘सूरदास जी’ द्वारा रचित ‘सूरसागर’ ग्रन्थ से ‘विनय’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।। प्रसंग- इस पद में सूरदास जी ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण को अत्यधिक कृपालु बताया है ।। उनकी दृष्टि में श्रीकृष्ण अपने भक्त को विकट परिस्थिति में भी मृत्यु से मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं ।। इसीलिए वे उनसे मुक्ति की प्रार्थना करते हैं ।। व्याख्या- भक्त(पक्षी के रूप में) भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे भगवान्! इस बार मेरी रक्षा कीजिए ।। मैं अनाथ (संसाररूपी) वृक्ष की डाल पर बैठा हूँ ।। नीचे से (मायारूपी) शिकारी ने मेरे ऊपर बाण साध रखा है ।। उसके डर से मैं भागना चाहता हूँ तो ऊपर मुझ पर झपट पड़ने के लिए (विषय-वासनारूपी) बाज मँडरा रहा है ।। अब दोनों ओर से मेरे ऊपर यह संकट उपस्थित हुआ है ।। ऐसे समय में मेरे प्राणों की रक्षा कौन कर सकता है? तब (पक्षीरूपी) भक्त ने भगवान् का स्मरण किया ।। तत्काल उन्होंने (ज्ञानरूपी) सर्प को भेज दिया ।। जिसने आकर शिकारी को डस लिया, जिससे उसके हाथ से धनुष की डोरी पर चढ़ा बाण छूट गया, जो जाकर बाज को लगा ।। इस प्रकार शिकारी और बाज दोनों मर गए (अर्थात् ज्ञान के द्वारा माया-मोह और समस्त विषय-विकार नष्ट हो गए), जिससे भक्त दोनों ओर से संकट से बच गया ।। हे दया के भण्डार भगवान्! आपकी जय हो ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) भक्तप्रवर सूरदास जी जीव की दुरावस्था दर्शाते हुए भगवत्-स्मरण को उससे उबरने का एकमात्र उपाय बताते हैं, जिससे भगवान् कृपा करके उसे ज्ञान प्रदान करते हैं ।। इस ज्ञान के द्वारा ही माया और विषय-वासनाओं पर विजय पाकर जीव भगवान के निकट पहुँच सकता है ।।
(2) भाषा- ब्रज ।।
(3) शैली- मुक्तक-गीति ।।
(4) रस- शान्त ।।
(5) छन्दगेय-पद ।।
(6) गुण- प्रसाद ।।
(7) शब्द-शक्ति – लक्षणा, व्यंजना ।।
(8) अलंकार- सांगरूप व अन्योक्ति ।।

(ख) हरिजू की बाल………………… — लरखरनि॥

हरि जू की बाल-छबि कहौं बरनि।
सकल सुख की सींव, कोटि-मनोज-सोभा-हरनि।
भुज भुजंग, सरोज नैननि बदन बिधु जित लरनि।
रहे बिवरनि, सलिल, नभ, उपमा अपर दुरि डरनि।
मंजु मेचक मृदुल तनु, अनुहरत भूषन भरनि।
मनहुं सुभग सिंगार-सिसु-तरु, फरयौ अद्भुत फरनि।
चलत-पद प्रतिबिंब मनि आँगन घटुरुवनि करनि।
जलज-संपुट-सुभग-छबि भरि लेति उर जनु धरनि।
पुन्य फल अनुभवति सुतहिं बिलोकि कै नंद-घरनि।
सूर प्रभु की उर बसी किलकनि ललित लरखरनि।।

सन्दर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘सूरदास जी’ द्वारा रचित ‘सूरसागर’ ग्रन्थ से ‘वात्सल्य’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।

प्रसंग– प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की मनोहारी बाल-शोभा का सुन्दर एवं सरस वर्णन किया है ।।


व्याख्या – सूरदास जी कहते है कि मैं कृष्ण की बाल-शोभा का वर्णन करता हूँ ।। वह शोभा करोड़ों कामदेवों के सौन्दर्य को भी हरने वाली (अर्थात् उससे भी बढ़कर) है और समस्त सुखों की सीमा है (अर्थात् सुखों की जो ऊँची-से-ऊँची कल्पना की जा सकती है, वह उस सौन्दर्य को देखकर प्राप्त होती है) ।। उनकी भुजाओं (बाँहों) ने सर्प को, नेत्रों ने कमलों को तथा मुख ने चन्द्रमा को सौन्दर्य की लड़ाई में जीत लिया है; अर्थात् उनकी भुजाओं को सर्प के समान नहीं कहा जा सकता है, वे सर्प से भी अधिक सुन्दर हैं ।। नेत्र कमल से अधिक सुन्दर हैं ।। मुख चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर हैं ।। इसी कारण सर्प विवर (बिलों) में, कमल जल में और चन्द्रमा आकाश में जा छिपे हैं ।। दूसरे उपमान भी डरकर छिप गए हैं ।। उनका शरीर बड़ा सुन्दर, कोमल, श्याम वर्ण है, जो अपने अनुरूप आभूषणों से सुशोभित है ।। उनका शरीर ऐसा लगता है, मानो वह कोई श्रृंगाररूपी वृक्ष ही हो ।। सुन्दर शरीर पर आभूषण ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे उस पौधे पर अद्भुत फल लगे हुए हों ।। आशय यह है कि वे आभूषण सुन्दर शरीर की शोभा को और अधिक बढ़ा रहे हैं ।। जब शिशु कृष्ण मणिमय आँगन में घुटनों के बल चलते हैं तो उनके पैरों का प्रतिबिम्ब आँगन में झलकने लगता है, जो ऐसा प्रतीत होता है, मानो पृथ्वी कमलों के दोनों में कृष्ण की सुन्दर शोभा को भरकर हृदय में धारण किए है ।। नन्द-पत्नी यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को देखकर अनुभव करती हैं कि उनके अनन्त पुण्यों के फलस्वरूप ही ऐसा बालक उन्हें मिला है ।। सूरदास जी कहते हैं कि मेरे हृदय में तो प्रभु की मोहक किलकारियाँ और उनका लड़खड़ाकर चलना बस गया है ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) कृष्ण का बालरूप ही सूरदास का ईष्ट था, इसलिए वे उनकी शोभा को हृदय में धारण करने की बात कहते हैं ।।
(2) भाषा- ब्रज ।।
(3) शैली- मुक्तक-गीति ।।
(4) रस- वात्सल्य ।।
(5) छन्द- गेय-पद ।।
(6) शब्द-शक्ति – लक्षणा ।।
(7) गुण- माधुर्य ।।
(8) अलंकार- हेतूत्प्रेक्षा (सर्प, कमल और चन्द्रमा का बिल, जल और आकाश में छिप जाना प्रतीत), उत्प्रेक्षा और अनुप्रास ।।

(ग) ऊधौ मोहि ब्रज…………………………….. पछिताहीं॥

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं ।
हंस – सुता की सुंदर कगरी , अरु कुञ्जनि की छाँही ।
वै सुरभी वै बच्छ दोहिनी , खरिक दुहावन जाहीं ।
ग्वाल – बाल मिलि करत कुलाहल , नाचत गहि गहि बाहीं ।
यह मथुरा कंचन की नगरी , मनि – मुक्ताहत जाहीं ।
जबहिं सुरति आवति वा सुख की , जिय उमगत तन नाहीं ।
अनगन भाँति करी बहुत लीला , जसुदा नंद निबाहीं ।
सूरदास प्रभु रहे मौन हुदै , यह कहि – कहि पछिताहीं ॥


सन्दर्भ
– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘सूरदास जी’ द्वारा रचित ‘सूरसागर’ ग्रन्थ से ‘भ्रमर-गीत’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।

प्रसंग– उद्धव गोपियों को ज्ञान और योग का सन्देश देने के लिए गए थे, किन्तु वे स्वयं प्रेम और भक्ति के रंग में रंगकर मथुरा पहुँचे ।। उन्होंने श्रीकृष्ण को ब्रज की सम्पूर्ण स्थिति समझाई और माता यशोदा का समाचार दिया ।। इस पर श्रीकृष्ण को ब्रज की याद बहुत सताने लगी ।। श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा

व्याख्या– हे उद्धव! मैं अनेक प्रकार से ब्रज को भुलाने का प्रयत्न करता हूँ, किन्तु ब्रज को किसी भी प्रकार भुला नहीं पाता ।। यमुना का सुन्दर किनारा, कुंजों की (अलौकिक) छाँव, गायें, उनके बच्चे, दूध दुहने की मटकी और गोशाला में गाय को दुहने के लिए जाना भी मुझसे भुलाया नहीं जाता ।। बचपन में हम सब ग्वाल-बाल मिलकर कोलाहल करते थे और बाँहों में बाँहें डालकर नाचते थे ।। यह मथुरा स्वर्णिम नगरी है, यहाँ मणियों और मोतियों की कोई कमी नहीं है, किन्तु ब्रज के सुखों की याद आते ही हृदय उमड़ने लगता है; अर्थात् मेरा मन व्याकुल और उद्वेलित हो उठता है ।। परिणामस्वरूप मुझे अपने शरीर की सुधबुध भी नहीं रह जाती ।। ब्रज में रहकर मैंने अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ कीं ।। यशोदा और नन्दजी ने मेरी उन सभी नटखट- क्रीड़ाओं को सब प्रकार से सहन किया ।। सूरदास जी कहते हैं कि इतना कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गए और (ब्रज को छोड़कर मथुरा चले आने पर) पछताने लगे ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) श्रीकृष्ण के भावुक हृदय के सात्विक भावों की व्यंजना हुई है ।।
(2) ब्रज की स्मृतियों ने श्रीकृष्ण को व्याकुल कर दिया है ।।
(3) भाषा- ब्रजभाषा ।।
(4) अलंकार- ‘यह मथुरा ….. — तनु नाहीं’ में विरोधाभास; ‘कहि-कहि’ में वीप्सा; अनुप्रास ।।
(5) रस- विप्रलम्भ शृंगार ।।
(6) शब्द-शक्ति- अभिधा तथा व्यंजन ।।
(7) गुण- माधुर्य ।।
(8) छन्द- गेयपद ।।
(9) भावसाम्य- ‘उद्धव-शतक’ में रत्नाकरजी ने ब्रज के स्मरण-प्रसंग को इस प्रकार प्रस्तुत किया है

जमुनाकछारनि की,रंग रस-रासनिकी, बिपिन बिहारिनि की, हौंस हुमसावतीं ।।
सुधि ब्रजबासिनि, दिवैया सुखरासिनि की, ऊधौ नित हमकौं, बलावन कौं आवर्ती ।।

(घ) हमारे हरि हारिल……………… मन चकरी॥

हमारे हरि हारिल की लकरी ।
मनक्रम बचन नंद – नंदन उर , यह दृढ करि पकरी ।
जागत – सोवत स्वप्न दिवस – निसि , कान्ह – कान्ह जकरी ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ , ज्यौं करुई ककरी ।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी ।
यह तो सूर तिनहिं लै सौंपौ , जिनके मन चकरी

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- गोपियाँ भ्रमर को सम्बोधित करती हुई, उद्धव को कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति का स्वरूप समझाती हैं ।।

व्याख्या- गोपियाँ कहती हैं कि हे भ्रमर (उद्धव)! श्रीकृष्ण हमारे लिए हरियल पक्षी की लकड़ी (आधार) के समान हैं ।। जिस प्रकार हरियल पक्षी अपने पंजों में हर समय लकड़ी दबाए रहता है; अर्थात् उसका साथ नहीं छोड़ता है; उसी प्रकार नन्दजी के पुत्र अर्थात् श्रीकृष्ण को हमने अपने हृदय में मन, वचन और कर्म से धारण कर लिया है ।। अब तो हम जागते-सोते, स्वप्न में, दिन-रात कान्हा-कान्हा की हठ पकड़े रहती है; अर्थात् अब हम हर चेतन-अचेतन अवस्था में कृष्ण-कृष्ण जपती रहती हैं और हम खेदपूर्वक (यहाँ उद्धव पर कटाक्ष है) कहती है कि आपकी (उद्धव की) योग की चर्चा हमें कड़वी ककड़ी के समान लगती है; अर्थात् जिस प्रकार कड़वी ककड़ी चखते ही मुँह कड़वा हो जाता है, उसे और खाने की इच्छा रहती ही नहीं, उसी प्रकार आपका योग सम्बन्धी पहला शब्द सुनते ही हम विरक्त हो उठती हैं, तब पूरी चर्चा सुनना तो हमारे लिए असह्य ही है ।। सूरदासजी कहते हैं- गोपियाँ उद्धव को और भी छकाते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! आप तो हमारे लिए एक ऐसी बीमारी (योग) ले आए हैं जो न तो हमने कभी देखी, न कभी सुनी और न ही यह बीमारी हमें कभी हुई ।। यह योगरूपी बीमारी तो आप उन्हें ही ले जाकर सौंपिए, जिनके मन चलायमान हैं ।। गोपियों के कहने का तात्पर्य यह है कि योग-साधना उनके लिए आवश्यक होती, जिनका चित्त चंचल है ।। हमने तो प्रभु कृष्ण के स्मरण में चित्त को स्थिर कर लिया है ।।


काव्य-सौन्दर्य– (1) सूरदास जी ने ज्ञानयोग की प्रधानता का वर्णन किया है ।।
(2) सूरदास जी के ‘भ्रमर-गीत’ की यही अनुपम विशेषता है कि गोपियाँ अपनी भीषण प्रहारक परन्तु सुहासपूर्ण तर्क प्रस्तुति से एक ओर योग को अपने लिए अनुपयोगी सिद्ध करती हैं तो लगे हाथों उद्धव को बगलें झाँकने पर मजबूर भी कर देती है ।।
(3) हारिल- पक्षी-विशेष, जो हर समय अपने पंजों में सूखी लकड़ी दबाए रहता है ।।
(4) भाषा- ब्रजभाषा ।।
(5) अलंकार- अनुप्रास एवं उपमा ।।
(6) रस- वियोग शृंगार ।।
(7) शब्द-शक्ति – लक्षणा ।।
(8) छन्द- गेयपद ।।

(ङ) ऊधौ जोग जोग………… …………. परछाहीं॥

ऊधौ जोग हम नाहीं |
अबला सार-ज्ञान कह जानैं, कैसैं ध्यान धराहीं ||
तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं |
ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतैं सुनी न जाहीं ||
स्रवन चीरि सिर जटा बँधाबहु, ये दुख कौन समाहीं |
चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह-अनल अति दाहीं ||
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तो है अप माहीं |
सूरस्याम तैं न्यारी न पल-छिन , ज्यौं घट तै परछाहीं ||

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- प्रस्तुत पद में ब्रज की गोपियाँ उद्धव से श्रीकृष्ण की भक्ति में निष्ठा व्यक्त करती हैं और योग-साधना के लिए स्वयं को असमर्थ बताती है ।।

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव कहती हैं कि हम स्त्रियाँ योग-साधना के योग्य नहीं हैं ।। हम ज्ञान का सार (तत्व) कैसे जान सकती हैं
और उस परम ब्रह्म के ध्यान में भी कैसे जा सकती हैं, जिसका कोई रूप-रंग नहीं है? फिर तुम हमसे उन्हीं नेत्रों को मूंदने के लिए कहते हो, जिनमें हमारे प्यारे श्यामसुन्दर की छवि समायी हुई है ।। हे भ्रमर (उद्धव)! हमें ऐसी कपटभरी बातें न सुनाओ ।। हम उन्हें सहन नहीं कर सकतीं ।। (क्योंकि हमें पता है कि तुम हमारे सरस, सुन्दर श्याम को हमसे चालाकी से लेकर उसके बदले में अपना यह रूखा-सूखा ब्रह्मज्ञान हमारे पल्ले बाँध देना चाहते हो ।। ) तुम हमारे कान चिरवाकर सिर पर जटाजुट बँधवाना चाहते हो ।। भला यह दुःख कौन सह सकेगा? हम तो कृष्ण के वियोग की अग्नि में वैसे ही जल रही हैं और तुम हमें शरीर पर चन्दन-लेप लगाने के लिए कहने के स्थान पर भस्म रमाने का उपदेश दे रहे हो और फिर योगीजन जिस ब्रह्म को पाने के लिए भटकते फिरते हैं, वह तो अपने भीतर ही है (जहाँ तक हमारा प्रश्न है, हमें तो योग-साधना की कोई जरूरत ही नहीं है; क्योंकि हमें जिनसे मिलना है, वे कृष्ण तो हर क्षण, हर पल हमारे पास ही रहते हैं ।। ) वे उसी प्रकार हमसे अलग नहीं होते, जिस प्रकार परछाईं शरीर से अलग नहीं होती ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) गोपियों की सीधी-सादी दलीलें बड़े-बड़े ज्ञानियों को भी असमंजस में डाल निरुत्तर कर देने वाली हैं ।।
(2) शैली- मुक्तक-गीति ।।
(3) भाषा- ब्रज ।।
(4) रस- वियोग शृंगार ।।
(5) छन्द- गेय-पद ।।
(6) शब्द-शक्ति – लक्षणा और व्यंजना ।।
(7) गुण- माधुर्य ।।
(8) अलंकार- यमक (जोग योग), उपमा (ज्यौं घटते परछाही), रूपक (बिरह-अनल) तथा अनुप्रास ।।

UP Board class 11th padyansh Solution for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 3 सूरदास & padyansh ke question answer

(च) लरिकाई कौ प्रेम …………… सोवत जागत॥

लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहा कहौं ब्रजनाथ-चरित अब अंतरगति यों लूटत॥
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुन गावत।
नटवर भेस नंदनंदन को वह विनोद गृह वन तें आवत॥
चरनकमल की सपथ करति हौं यह संदेस मोहि विष सम लागत।
सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन मूरति सोवत जागत॥

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- एक गोपी उद्धव से कहती है कि श्रीकृष्ण से हमारा स्नेह बड़ा पुराना है, वह यूँ ही नहीं छूट सकता ।।

व्याख्या- हे उद्धव! श्रीकृष्ण से हमारा प्रेम कोई एक-दो दिन का नहीं है, बल्कि वर्षों पुराना है ।। हमारा और उनका यह प्रेम बचपन से चला आ रहा है, भला यह इतनी आसानी से कैसे छूट सकता है? हम तुम्हें उस ब्रजनाथ कृष्ण के चरित्र के विषय में कहाँ तक बताएँ और कितना बताएँ, उनके साथ बिताया गया एक-एक पल अन्तरात्मा को परमानन्द लुटाने जैसा है ।। उनकी वह तिरछी भौंहे, वह मनोमुग्धकारी चाल, वह मुस्कान और बाँसुरी के गाने की वह मधुर मन्द ध्वनि, उनका लीलाकारी वेश, उन नन्द के बेटे का वह हँसी-मजाक करते हुए वन से लौटने की छटा आदि मन को परमानन्द की प्राप्ति कराते हैं ।। मैं उन श्रीकृष्ण के चरणकमल की सौगन्ध खाकर कहती हूँ कि हमें तुम्हारा निर्गुण की उपासना का संदेश विष के समान लगता है ।। सूरदास कहते हैं कि मुझे उनकी मोहनी-मूर्ति, सोते अथवा जागते एक क्षण के लिए भी नहीं भूलती है, फिर उसको सदैव के लिए कैसे भूला जा सकता है ।।
काव्य-सौन्दर्य- (1) यहाँ गोपियों के श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को अभिव्यक्ति किया गया है ।।
(2) भाषा- ब्रजभाषा ।।
(3) अलंकार- अनुप्रास एवं प्रश्न ।।
(4) रस- शान्त ।।
(5) शब्दशक्ति – अभिधा एवं व्यंजना ।।
(6) छन्द- गेयपद ।।

(छ) निसि दिन बरषत … …………. काहैं बिसारे॥

निसि-दिन बरषत नैन हमारे ।
सदा रहति पावस-रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे ।
दृग अंजन न रहत निसि-बासर, कर-कपोल भए कारे ।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ।।
आँसू-सलिल सबै भइ काया, पल न जात रिस टारे ।
सूरदास प्रभु है परेखौ, गोकुल काहें बिसारे ।।


सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- इस पद में श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों की विरह-दशा का मार्मिक वर्णन किया गया है ।।

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! श्री कृष्ण के विरह में हमारे नेत्रों से रात-दिन आँसू बरसते रहते हैं ।। श्याम के जाने के बाद से हम पर तो पूरे साल वर्षा ऋतु ही छाई रहती है (अन्य किसी ऋतु को हम जानती ही नहीं) ।।
(भाव यह है कि श्याम मेघों के चले जाने पर संसार में वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है, किन्तु यहाँ उल्टी बात हुई कि श्यामघन के चले जाने से हर समय वर्षा ऋतु बनी रहती है ।। ) दिन या रात किसी समय हमारी आँखों में काजल नहीं रुक पाता; क्योंकि निरन्तर अश्रुप्रवाह के कारण बहकर वह हमारे गालों को काला कर जाता है और उसे पोंछते-पोंछते हमारे हाथ काले पड़ जाते हैं ।। आँसुओं की धाराएँ हमारे वक्षःस्थल पर हर समय बहती रहती है, जिससे हमारी चोली का वस्त्र कभी सूख नहीं पाता ।। अब तो लगता है कि हमारा सारा शरीर ही अश्रुमय हो गया है और एक पल को भी हमारा क्रोध दूर नहीं होता ।। वह हमें सताता रहता है ।। हमको तो इस बात का बड़ा पश्चात्ताप है कि आखिर किस कारण कृष्ण ने गोकुल को बिलकुल भुला दिया ।।


काव्य-सौंदर्य- (1) यहाँ गोपियों की विरह-व्यथा की अत्यन्त सहज और मार्मिक व्यंजना हुई है ।। प्रेम के मार्ग के हर पथिक को विरह का दंश झेलने ही पड़ते हैं ।।
(2) भाषा- ब्रज ।।
(3) शैली- मुक्तक-गीति ।।
(4) रस- वियोग शृंगार ।।
(5) छन्द- गेयपद ।।
(6) शब्दशक्ति- लक्षणा और व्यंजना ।।
(7) गुण- प्रसाद ।।
(8) अलंकार- बिना कारण के कार्य होना (बिना मेघों के वर्षा होने) में यहाँ विभावना का चमत्कार है ।।
(9) भावसाम्य- इस क्षेत्र में भक्त रवि सूरदास जी से लेकर उर्दू शायरों तक सभी के अनुभव समान है
कुछ याद करके आँख से आँसू निकल पड़े
मुद्दत के बाद गुजरे जो उनकी गली से हम ।।

(ज) अखियाँ हरि दरसन……………………………..…सरिता है सूखीं॥

अंखियां हरि-दरसन की भूखी।
कैसे रहैं रूप-रस रांची ये बतियां सुनि रूखी॥
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी।
अब इन जोग संदेसनि ऊधो, अति अकुलानी दूखी॥
बारक वह मुख फेरि दिखावहुदुहि पय पिवत पतूखी।
सूर, जोग जनि नाव चलावहु ये सरिता हैं सूखी॥

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- सूरदास जी ने इस पद में गोपियों की कृष्ण-भक्ति का भावात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया है ।। उद्धव निर्गुण भक्ति एवं योग की बातें करते हैं, जिन्हें सुनकर गोपियाँ कहती हैं कि उनकी योग की नीरस चर्चा वे नहीं सुनना चाहती; क्योंकि उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शनों की लालसा है, जिनके बिना उनके नेत्र प्यासे हैं ।।

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हमारी आँखें श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए व्याकुल हैं ।। ये श्रीकृष्ण के रूप और प्रेम में पगी हुई हैं ।। योग की तुम्हारी नीरस बातें सुनकर ये धैर्य कैसे धारण करें? जब ये आँखें श्रीकृष्ण के लौटकर आने की अवधि का एक-एक दिन गिनते हुए टकटकी बाँधे मार्ग की ओर देखकर प्रतीक्षा करती थी, उस समय भी इतनी अधिक दुःखी नहीं हुई थीं, परन्तु अब तुम्हारे इन योग के संदेशों को सुनकर ये अत्यन्त व्याकुल और दु:खी हो उठी हैं ।। हे उद्धव! हमारी यही प्रार्थना है कि हमें श्रीकृष्ण के उस मुख के एक बार दर्शन करा दो, जिस मुख से वह पत्ते के दोने में दूध दुहकर पिया करते थे ।। सूरदास जी कहते हैं- गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! हमें योग का उपदेश देकर तुम वैसा ही असंभव कार्य कर रहे हो, जैसे कोई व्यक्ति सूखी नदी की बालू में हठपूर्वक नाव चलाने का प्रयत्न करे, अर्थात् कृष्ण-प्रेम में अनुरक्त हमारे हृदय पर तुम्हारे योग सम्बन्धी उपदेश का प्रभाव पड़ना असंभव है ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) गोपियाँ श्रीकृष्ण का प्रेम और रूप-रस चाहती हैं, इसलिए वे योग के उपदेश को व्यर्थ मानती हैं ।। (2) भाषा- ब्रजभाषा (3) अलंकार- ‘बारक ….. — पतूखीं’ में स्मरण; ‘सूर ……. — सूखीं’ में निदर्शना; ‘ये सरिता हैं सुखी’ में रूपकातिश्यायोक्ति ।। (4) रस- विप्रलम्भ शृंगार ।। (5) शब्दशक्ति- लक्षणा एवं व्यंजना ।। (6) गुण- प्रसाद ।। (7) छन्द- गेयपद ।।

2 — निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) जैसे उडि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘सूरदास जी’ द्वारा रचित ‘विनय’ शीर्षक से अवतरित है ।।

प्रसंग- इस सूक्ति में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति का परिचय दिया है ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार समुद्र के बीच तैरते जहाज पर बैठा कोई पक्षी, कुछ समय के लिए इधर-उधर उड़ता है और पुनः जहाज पर ही आकर बैठ जाता है, वही स्थिति मेरी भी है ।। मेरा मन भी कुछ समय के लिए इधर-उधर की विभिन्न विषय-वासनाओं में भटकता है, परन्तु पुनः श्रीकृष्ण की भक्ति में ही लीन हो जाता है ।। उसे केवल श्रीकृष्ण की शरण में पहुँचकर ही शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होती हैं ।।

(ख) परम गंग को छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य को सांसारिकता में आनन्द की खोज करने के स्थान पर श्रीकृष्ण की भक्ति से प्राप्त आनन्द में ही तृप्त होने का प्रयास करना चाहिए ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार कोई प्यास से पीड़ित और बुद्धिहीन व्यक्ति गंगा की धारा के जल से अपनी प्यास बुझाने के स्थान पर, कोई नया कुआँ खोदकर उसके जल से अपनी प्यास बुझाने का प्रयास करता है, उसी प्रकार कुछ बुद्धिहीन व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो श्रीकृष्ण की पावन-भक्ति में तृप्त होने के स्थान पर सांसारिक विषय-वासनाओं से तृप्त होने का प्रयास करते हैं ।।

(ग) जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ,क्यौं करील-फल भावै॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- इस सूक्ति में बताया गया है कि बड़ी उपलब्धि के बाद छोटी उपलब्धि का कोई महत्व नहीं रह जाता ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते हैं कि जिस भौरे ने कमल का रस पान किया है, अर्थात् कमल के मकरन्द का स्वाद लिया है ।। वह भला करील के कसैले फल को क्यों पसंद करेगा ।। इसी प्रकार जिसे इस बार भगवत् -प्रेम का अमृतरूपी रस चखने का अवसर प्राप्त हो गया है, वह सांसारिक विषय-वासनाओं की पंक (कीचड़) में फँसने का प्रयास कभी नहीं करेगा ।।

(घ) हमारैहरिहारिल की लकरी॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘सूरदास जी’ द्वारा रचित ‘भ्रमर गीत’ शीर्षक से अवतरित है ।। प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम-भाव प्रदर्शित हुआ है ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार हारिल पक्षी को वह लकड़ी अत्यधिक प्रिय होती है, जिसे वह दृढ़ता से पकड़े रहता है, उसी प्रकार गोपियों को भी श्रीकृष्ण हारिल की लकड़ी के समान प्रिय हैं ।। गोपियों रूपी हारिल पक्षियों ने श्रीकृष्णरूपी लकड़ी को अपने तन-मन में बसा रखा है ।। वे एक क्षण के लिए श्री कृष्ण को अपने मन से दूर करना नहीं चाहती ।।

(ङ) सूर स्याम तें न्यारी न पल-छिन,ज्यौं घट तैं परछाहीं॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अत्यधिक अनुराग-भाव व्यक्त हुआ है ।।

व्याख्या- सूरदास जी का भ्रमर-गीत प्रसंग श्रेष्ठ संकेतात्मक व्यंग्य काव्य है ।। इस सूक्तिपरक पंक्ति में विरहिणी गोपियाँ श्रीकृष्ण के दूत ज्ञानी उद्धव से कहती हैं कि जिस प्रकार शरीर से उसकी परछाई को अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार वे भी श्रीकृष्ण से क्षण भर को भी अलग नहीं हो सकतीं ।। वे हर घड़ी प्रियतम कृष्ण की ही स्मृति में तल्लीन रहती है, इसलिए वे किसी प्रकार भी निराकार की उपासना को तैयार नहीं हैं ।।

(च) लरिकाई को प्रेम कहौ अलि, कैसे छूटत?
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- इस सूक्ति में राधा ने उद्धव से कृष्ण के प्रति अपने असीम अनुराग व प्रगाढ़ प्रेम को व्यक्त किया है ।।
जी उद्धव से कहती हैं कि श्रीकृष्ण से हमारा बचपन से ही असीम अनराग रहा है ।। हम दोनों बहत दिनों तक परस्पर मिलते रहे हैं और इस दीर्घकालिक सम्पर्क के कारण हमारा प्रेम और भी अधिक प्रगाढ़ हो गया है ।। हमारा यह प्रेम रूपासक्ति पर आधारित नहीं है, जो केवल रूप का आकर्षण रहने तक ही बना रहता है ।। हमारा प्रेम तो अत्यन्त प्रगाढ़ एवं स्थायी है, जिस पर पद, धन, रूप आदि का कोई प्रभाव नहीं हो सकता ।। फिर आप ही बताइए कि यह अटूट प्रेम किस प्रकार छूट सकता है; अर्थात् यह तो किसी भी दशा में कम नहीं हो सकता ।।

(छ) कहत कत परदेसी की बात॥

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत पद में गोपियों ने उद्धव के समक्ष, मथुरा गए कृष्ण के माध्यम से, परदेशियों की अविश्वसनीयता को स्पष्ट किया है ।।

व्याख्या– यह पंक्ति सूरदास जी द्वारा रचित एक कूट-पद की पंक्ति है ।। कृष्ण जब ब्रज से मथुरा (कंस के आमंत्रण पर) जा रहे थे तो उन्होंने गोपियों से पन्द्रह दिनों में ही लौट कर आने का वादा किया था ।। लेकिन जब कृष्ण ने एक बार ब्रज को छोड़ा तो पुनः कभी वापस नहीं आए ।। इसी बात की सूचना रूप में यह पंक्ति सूरदास जी द्वारा गोपियों से कहलवाई गई है ।। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हमसे उस परदेसी अर्थात् कृष्ण की बात ही क्यों करते हो, क्योंकि परदेसियों की बात पर तो कोई भी विश्वास नहीं करता है ।।

(ज) मंदिर अरध अवधि बदिहमसौं,हरिआहार चलि जात॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- ‘भ्रमर-गीत’ की प्रस्तुत पंक्ति सूर-साहित्य की एक क्लिष्ट-कूट पंक्ति है, जिसमें गोपियाँ उद्धव से कहती है

व्याख्या– श्रीकृष्ण ने हम से वादा किया था कि वे एक पखवाड़े के अन्दर (अर्द्ध मंदिर) अर्थात् आधे महीने में (15 दिन के अन्दर) ही लौटकर आएँगे ।। परन्तु हरि अर्थात् सिंह, सिंह आहार = सिंह का भोजन = माँस = एक महीना बीत गया है परन्तु वे नहीं लौटे ।। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने वचन देकर उसे निभाया नहीं है, क्योंकि ये परदेसी विश्वास के योग्य नहीं होते ।। उनकी कथनी और करनी में अन्तर होता है ।। इसलिए परदेसियों की बात ही हमसे मत करो ।।

(झ) मघपंचकलै गयौ साँवरौ,तातें अति अकुलात॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति सूरदास जी के भ्रमर-गीत की एक क्लिष्ट कूट पंक्ति है ।। इसमें गोपियाँ उद्धव के सम्मुख कृष्ण के प्रति अपना रोष प्रकट कर रही हैं ।।

व्याख्या– ‘मघ पंचक’ का अर्थ है- मघा से पाँचवाँ नक्षत्र (मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा) अर्थात् चित्रा ।। यहाँ पर चित्रा का अर्थ चित्त अर्थात् हृदय से है ।। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम हमसे साँवले-सलोने व परदेसी कृष्ण की बात ही मत करो, जो हमारे एकमात्र चित्त को हमसे चुराकर ले गया है ।। इस चोरी से हम अत्यन्त व्याकुल हैं ।। अब तुम्हीं बताओ कि क्या बिना चित्त के हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना कर सकती है? यदि ऐसा नहीं हो सकता है तो तुम भूल से भी उस कृष्ण का नाम हमारे सम्मुख मत लो ।।

(ञ) सूर सुकत हठि नाव चलावत,ये सरिता हैं सूखीं ।।
सन्दर्भ
– पूर्ववत् ।।
प्रसंग– प्रस्तुत सूक्ति में सूर की गोपियाँ उद्धव के निर्गुण की उपासना के उपदेश को व्यर्थ बताती हुई कहती हैं

व्याख्या– हे उद्धव आप ज्ञानी पुरुष हैं, फिर भी हमसे अज्ञानियों जैसी बातें कर रहे हैं ।। संसार का प्रत्येक व्यक्ति यह साधारणसी बात जानता है कि नाव सदैव ही जल से परिपूर्ण नदियों में चलाई जा सकती है, किन्तु आप हमें निर्गुण की उपासना का उपदेश देकर सूखी नदी में ही नाव चलाने का निरर्थक प्रयास कर रहे हैं ।। हमारे मन में प्रेम की जो नदियाँ बहती थी, कृष्ण की विरहाग्नि ने उनके प्रेमजल को सुखा दिया है, फिर उन सूखी नदियों में आपकी यह निर्गुणरूपी नाव कैसे चल सकती है ।। हमें तो यही लगता है कि आप निरा मूर्ख हैं ।।

अन्य परीक्षोपयोगीप्रश्न

1 — ‘विनय’शीर्षक के अन्तर्गत सूरदास जी ने किस प्रकार भगवान की भक्ति की है?
उत्तर— – ‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत सूरदास जी ने अपने अराध्य श्रीकृष्ण को अत्यधिक कृपालु बताया है ।। उनकी दृष्टि में श्रीकृष्ण अपने भक्त को विकट परिस्थितियों में भी मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं ।। इसलिए वे उनकी भक्ति करते हुए मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करते हैं ।। कवि कहते हैं कि हे भगवन! इस बार आप मेरी रक्षा कीजिए ।। मुझ पर (जीवात्मारूपी पक्षी) शिकारी ने अपना अविद्यारूपी बाण तान लिया है ।। उस अविद्यारूपी बाण के भय से मैं ऊपर उड़ जाना चाहता हूँ परंतु ऊपर अहंकाररूपी बाज मँडरा रहा है ।। मेरे लिए दोनों परिस्थितियाँ दुःखदाई है अब मुझे कौन बचा सकता है? परन्तु जब जीवात्मारूपी पक्षी ने भगवान का स्मरण किया तब मायारूपी शिकारी को ज्ञानरूपी सर्प ने डस लिया तथा उसके हाथ अविद्यारूपी बाण छूटकर अहंकाररूपी बाज को लग गया ।। कवि सूरदास जी ने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भाव व्यक्त किया है और उन्हें संसाररूपी सागर से पार उतारने वाला जहाज बताया है जो भक्तों को दुःखों से उबारते हैं तथा उनकी समस्त कामनाओं की पूर्ति करते हैं ।।

2 — सूरदास के वात्सल्य वर्णन की विशेषताएँ लिखिए ।।
उत्तर— – सूरदास जी के वात्सल्य वर्णन की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) इसमें सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की मनोहारी बाल-शोभा का बहुत ही सुंदर एवं सरस वर्णन किया है ।। (ii) सूरदास जी ने वात्सल्य के संयोग व वियोग दोनों पक्षों का चित्रण किया है ।। (iii) सूरदास जी ने वात्सल्यपूर्वक श्रीकृष्ण का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण के शारीरिक अंगों को अनेक उपमाएँ देकर उनका अत्यन्त सजीव व सुंदर वर्णन किया है ।। (iv) सूरदास जी ने वात्सल्य वर्णन में प्रतीप, उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है ।। (v) इसमें सूरदास जी ने गेयपद छन्द का प्रयोग किया है ।। (vi) उनकी भाषा ब्रजभाषा थी ।। सूर की भाषा ब्रज की ठेठ बोली न होकर कुछ साहित्यिकता लिए हुए है ।।

3 — ‘भ्रमर-गीत’ का सारांश अपने शब्दों मे लिखिए ।।
उत्तर— – ‘भ्रमर-गीत’ शीर्षक कवि सूरदास जी के काव्य ग्रन्थ ‘सूरसागर’ से लिया गया है ।। जिसमें सूरदास जी ने श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों को समझाने के लिए उद्धव को वृन्दावन भेजने का वर्णन किया है ।। उद्धव वहाँ से वापस आकर कृष्ण से गोपियों की मार्मिक अवस्था का वर्णन करते हैं, जिसे सुनकर कृष्ण को भी ब्रज की मधुर स्मृति हो जाती है ।। वे उद्धव से कहते है कि मुझसे ब्रज की स्मृति नहीं भुलाई जाती ।। यमुना का किनारा, कुंजों की छाँव, गायें, उनके बच्चे, दूध दुहने की मटकी आदि मुझसे भुला नहीं जाता ।। बचपन में हम सब ग्वाल-बाल मिलकर कोलाहल करते थे और बाँहों में बाँहें डालकर नाचते थे ।। यह मथुरा सोने की नगरी है, जिसमें रत्नों और मोतियों के ढेर लगे हैं, किन्तु ब्रज के सुखों की याद आते ही हृदय उमड़ने लगता है ।। मैंने वहाँ अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ की ।। यशोदा और नंदजी ने मेरी उन सभी नटखट क्रीड़ाओं को सब प्रकार से सहन किया ।।

सूरदास जी कहते हैं कि इतना कहकर प्रभु मौन हो गए और मथुरा आने पर पछताने लगे ।। गोपियाँ उद्धव से कहती है कि गोपाल के बिना ये कुंजे हमारी बैरिन हो गई है ।। जब श्रीकृष्ण यहाँ थे तब ये लताएँ शीतल लगती थी परंतु अब अग्नि की ज्वाला की तरह हमारे शरीर को जला रही है ।। यमुना का बहना, पक्षियों की ध्वनि, कमल के फूलों पर भौंरों का गूंजना सब व्यर्थ है ।। हे उद्धव तुम जाकर श्रीकृष्ण से कहना कि उनके विरह में कामदेव ने हमें मारकर अशक्त कर दिया है और उनकी राह देखते-देखते हमारी आँखों की दृष्टि शक्ति भी क्षीण हो गई है ।। गोपियाँ उद्धव से कहती है कि हमारे लिए श्रीकृष्ण हरियल पक्षी की लकड़ी के समान है जिसे हमने मन, वचन और कर्म से दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा है ।।

हम रात-दिन, जागते-सोते सपने में भी बस कृष्ण-कृष्ण की रट लगाते रहते हैं ।। तुम्हारी योग चर्चा हमें कड़वी ककड़ी के समान अप्रिय लगती है ।। योग के रूप में तुम हमारे लिए ऐसा रोग ले आए हो जिसके बारे में हमने कभी नहीं सुना है ।। यह बीमारी तो आप उन्हें ले जाकर सौंपिए जिनके मन चलायमान् हैं ।। गोपियाँ उद्धव से कहती है कि हम योग-साधना के योग्य नहीं है ।। हम ज्ञान का सार कैसे जान सकती हैं और उस परम ब्रह्म को ध्यान में भी कैसे ला सकती है ।। तुम हमसे उन नेत्रों को बंद करने को कह रहे हो, जिनमें भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति समाई हुई है ।। हम छल-प्रपंच से भरी हुई योग की ऐसी कहानी सुनने में असमर्थ हैं ।। तुम शीतल चंदन का त्याग करके अंगों पर भस्म लगाने को कह रहे हो ।। योगीजन जिस ब्रह्म को पाने की आशा में भ्रमित हो रहे हैं, वह वृक्ष तो हमारे भीतर ही निवास करता है ।। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि श्रीकृष्ण से हमारा प्रेम कोई एक-दो दिन का नहीं है, बल्कि वर्षों पुराना है, भला यह इतनी आसानी से कैसे छूट सकता है ।। हम तुमसे ब्रज के स्वामी श्रीकृष्ण का क्या वर्णन करे? वे तो अपनी दृष्टिमात्र से ही दूसरों का चित्त लूट लेते थे ।। उनका नटवर भेष धारण करके हँसना, क्रीडा करना हमारे मन में बस गया है ।।

हम उन श्रीकृष्ण के चरणों की सौगन्ध खाकर कहती है कि यह (योग का) संदेश मुझे विष के समान लगता है ।। कृष्ण की यह मोहनी सूरत सोते-जागते हमसे किसी भी क्षण भुलाई नहीं जाती ।। गोपियाँ उद्धव को उलाहना देती हुई कहती है कि तुम हमसे उस परदेशी (कृष्ण) की बात क्या करते हो? वो हमसे पन्द्रह दिनों में आने का वादा करके गए थे परंतु अब महीने बीते जा रहे हैं ।। उनके वियोग में दिन-रात हमें युगों के समान लंबे लग रहे हैं ।। श्याम चुपके से हमारा चित्त भी अपने साथ चुराकर ले गया है ।। अब तो विष खाकर मरने के अतिरिक्त हमारे पास कोई उपाय नहीं है ।। श्रीकृष्ण के वियोग में हमारे नेत्रों से दिन-रात अश्रु प्रवाहित होते रहते हैं ।। उनके जाने के बाद हम पर वर्षभर वर्षा ऋतु छाई रहती है ।। हमारी आँखों में काजल नहीं रुक पाता, क्योंकि निरन्तर अश्रुप्रवाह से वह हमारे मुख को काला कर देता है ।। अश्रुओं की धारा के कारण हमारी चोली का वस्त्र भी नहीं सूखता ।। अब तो हमारा शरीर की अश्रुमय हो गया है ।। हमको इस बात का बड़ा दुःख है कि कृष्ण ने गोकुल को क्यों भुला दिया ।।

गोपियाँ उद्धव से कहती है कि तुमने ब्रज आकर बहुत अच्छा किया ।। क्योंकि विधाता ने जिन हृदयरूपी घड़ों को कच्चा बनाया था उनको तुमने पका दिया ।। श्रीकृष्ण के मथुरा से जाने के बाद भी ये शरीररूपी घड़े हमारे अश्रुओं के वर्षा जल से भी नहीं गल पाए थे ।। अब तुमने ब्रज आकर सारे ब्रज को ऑवा बना दिया, जिसमे हमारे शरीररूपी सारे घड़े पक गए ।। सूरदास जी कहते हैं-गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! ये तो उन्हीं नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण के लिए सुरक्षित है, जब भी वे लौटेंगे, उन्हें ये घड़े पूर्णत: सुरक्षित मिलेंगे ।। हमारी आँखें कृष्ण के दर्शन को आतुर है ।। जो कृष्ण के लौटने की बाट देख रही है ।। ये आँखें कभी इतनी पीड़ित नहीं हुई जितनी तुम्हारी योग-संदेशों को सुनकर व्याकुल और दुःखी हुई हैं ।। हे उद्धव! हमें एक बार उन कृष्ण के दर्शन करवा दो, जो दोने में गाय का दूध दुहकर पिया करते थे ।। जिस प्रकार सूखी नदी की बालू में नाव नहीं चल सकती उसी प्रकार हमारे हृदय पर तुम्हारे शुष्क उपदेशों का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता सकता ।।

4 — ‘भ्रमर-गीत के आधार पर सूरदास जी की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।।
उत्तर— – सूरदास जी की काव्यगत विशेषताएँ निम्न हैं–
भावपक्ष की विशेषताएँभगवान के लोकरंजक रूप का चित्रण- सूरदास जी ने भगवान के लोकरंजक रूप को लेकर उनकी लीलाओं का गान किया है ।। सूरदास जी ने कृष्ण की बाल्यावस्था और किशोरावस्था की लीलाओं का बड़ा हृदयकारी गायन किया है ।। श्रृंगार के वियोग पक्ष का चित्रण- सूरदास जी ने मार्मिकतापूर्वक वियोग के चित्र प्रस्तुत किए हैं ।। इनमें गोपिकाओं के अन्य (एकनिष्ठ) विरह-वेदना के चित्र दिखाई पड़ते है ।। प्रेम की प्रगाढ़ता से ऐसा विरह उत्पन्न होता है जिसका अनुभव कोई संवेदनशील रसमग्न हृदय ही कर सकता है ।।

प्रकृति चित्रण- सूरदास जी ने गोपियों के विरह-वर्णन में प्रकृति का प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में किया है ।। ‘भ्रमर-गीत’ शीर्षक में भी गोपियाँ प्रकृति के माध्यम से उद्धव को अपनी मनोस्थिति बताती है ।। प्रेम की आलौकिकता- ‘भ्रमर-गीत’ में उद्धव गोपियों को निराकार ब्रह्म का उपदेश देते हैं, परंतु वे किसी भी प्रकार उद्धव के दृष्टिकोण को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होती ।। गोपियाँ अपने तर्कों से उद्धव को परास्त कर देती है और श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम का परिचय देती है ।।

कलापक्ष की विशेषताएँभाषा- सूरदास जी का संपूर्ण काव्य ब्रजभाषा में है ।। भ्रमर-गीत में भी उन्होंने इसी भाषा का प्रयोग किया है ।। उनकी भाषा में सरसता, कोमलता, और प्रवाहमयता सर्वत्र विद्यमान है ।। सूरदास जी की भाषा ब्रज की ठेठ चलती बोली न होकर कुछ साहित्यिक है, जिसमें दूसरे प्रदेशों के कुछ प्रचलित शब्दों के साथ-साथ अपभ्रंश के शब्द भी मिश्रित है ।।

शैली- सूरदास जी की शैली गीति-शैली है ।। भ्रमर-गीत में भी इन्होंने इसी शैली को अपनाया है ।। इनके गेय पदों में असाधारण संगीतात्मकता है, जो उनकी भाषा के माधुर्य के साथ मिलकर हृदय को मोह लेती है ।। अलंकार-विधान- भ्रमर-गीत में सूरदास जी ने स्मरण, विरोधाभास, वीप्सा, अनुप्रास, अतिशयोक्ति, उपमा, यमक, रूपक, श्लेष, विभावना आदि अलंकारों का प्रयोग किया है ।। छन्द-विधान- सूरदास जी ने भ्रमर-गीत में गेयपद छन्द का प्रयोग किया है ।। ।।

काव्य-सौन्दर्य से संबंधित प्रश्न

1 — “अब कैंराखि………………. — कृपानिधान॥ “पंक्तियों में निहित रस तथा अलंकारलिखिए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने शांत एवं भक्ति रस तथा अन्योक्ति, सांगरूपक, रूपकातिशयोक्ति तथा पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का
प्रयोग किया है ।।

2– “हरिजू की………………… लखरनि॥ “पंक्तियों में प्रयुक्त छन्द तथा अलंकार का नाम बताइए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में गेयपद छन्द तथा प्रतीप, उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है ।।

3 — “ऊधौ मोहिं …………… — पछिताहीं॥ “पंक्तियों में प्रयुक्त छन्द तथा रस का नाम बताइए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में गेयपद छन्द तथा विप्रलम्भ शृंगार रस प्रयुक्त हुआ है ।।

4 — “ऊधौ जोग…………………. — परछाहीं॥”पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार, रस तथा छन्द का नाम बताइए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में यमक, रूपक, उपमा, अनुप्रास अलंकार, वियोग शृंगार रस तथा गेयपद छन्द का प्रयोग हुआ है ।।

5 — “लरिकाई कौ……………………जागत॥”पंक्तियों में प्रयुक्त रस तथा छन्द लिखिए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में वियोग शृंगार रस तथा गेयपद छन्द है ।।

6 — “ऊधौ भली…… ……………. कर लाए॥ “पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।।
उत्तर— – (1) कच्चे घड़ों को पकाने की क्रिया का सांगरूपक द्वारा चित्रण किया गया है ।। (2) महाकवि सूर ने इस पद में ज्ञान की अपेक्षा
प्रेम के महत्व का निरूपण किया है ।। (3) भाषा- ब्रज ।। (4) शैली- मुक्तक-गीति ।। (5) रस- वियोग शृंगार ।। (6) छन्द- गेय
पद ।। (7) अलंकार- सांगरूपक और श्लेष ।। (8) गुण- प्रसाद और माधुर्य ।।

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