Up board class 11 hindi sanskrit khand chapter 6 संस्कृत दिग्दर्शिका षष्ठः पाठः शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः

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षष्ठः पाठः शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः

निम्नलिखित पद्यावतरणों का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए
1 — कस्मिंश्चिदअधिष्ठाने ……………………बान्धवः ।।


{शब्दार्थ- कस्मिंश्चित् अधिष्ठाने = किसी स्थान पर, मित्रत्वमापन्ना: > मित्रत्वम् + आपन्नाः = मित्रता को प्राप्त हुए (मित्रभाव से), मतिरजायत > मतिः + अजायत = विचार उत्पन्न हुआ, विद्योपार्जनम् > विद्या + उपार्जनम् = विद्या का संग्रह, अथान्यस्मिन् दिवसे > अथ + अन्यस्मिन् दिवसे = इसके बाद किसी दिन, विद्योपार्जनार्थम् >विद्या + उपार्जन + अर्थम् = विद्या प्राप्त करने के लिए, द्वादशाब्दानि = बारह वर्ष तक, विद्याकुशलास्ते > विद्याकुशलाः + ते = वे विद्या में कुशल, तदुपाध्यायस्य > तत् + उपाध्यायस्य = तो गुरु जी की, अनुज्ञाम् = आज्ञा को, मन्त्रयित्वा = सलाह करके, तथैवानुष्ठीयताम् > तथा + एव + अनुष्ठीयताम् = वैसा ही किया जाए, इत्युक्त्वा > इति + उक्त्वा = ऐसा कहकर, उपाध्यायस्यानुज्ञाम् > उपाध्यायस्य + अनुज्ञाम् = आचार्य की आज्ञा, एतस्मिन्नन्तरे > एवस्मिन् + अनन्तरे = इसी बीच, पत्तने= नगर में, महाजनः = वणिक; व्यापारी, ततश्चतुर्णां मध्यादेकेन>ततः+चतुर्णाम् + मध्यात्+एकेन = इसके बाद चारों में से एक ने, पुस्तकमउद्घाट्य = पुस्तक खोलकर, महाजनमेलापकेन सह = वणिकों की भीड़ के साथ, रासभः = गधा, व्यसने विपत्ति में, यस्तिष्ठति>यः+तिष्ठति जो टिकता है }


सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा:’ नामक पाठ से उद्धृत है ।।


अनुवाद
-किसी स्थान पर चार ब्राह्मण आपस में मित्रतापूर्वक रहते थे ।। बाल्यकाल में उन्होंने विचार किया कि ‘परदेश चलकर विद्यार्जन करे ।। ‘ तक अगले दिन आपस में निश्चय कर वे विद्याध्ययन के लिए कन्नौज पहँचे ।। वहाँ पाठशाला में पढ़ने लगे ।। इस प्रकार बारह वर्ष तक मनोयोगपूर्वक अध्ययन कर वे विद्या में निपुण हो गए ।। तब उन चारों ने मिलकर आपस में कहा, ‘अब हम लोग विद्या में पारंगत हो गये हैं, इसलिए गुरु जी से आज्ञा लेकर अपने देश को चलें ।। ‘ इस प्रकार परामर्श कर वे ‘ऐसा ही करें’ यह कहकर गुरु जी से आज्ञा प्राप्त कर तथा पुस्तकें लेकर किसी मार्ग पर जब कुछ दूर चले तो दो रास्ते मिले ।। तब वहाँ एक बोला, ‘किस मार्ग से चला जाए?’ उसी समय उस नगर में किसी वणिक (व्यापारी) का पुत्र मर गया था ।। उसका दाह-संस्कार करने के लिए महाजन (लोगों की भीड़ अथवा व्यापारी लोग) जा रहे थे ।। तब चारों में से एक ने पुस्तक खोलकर देखकर कहा, ‘महाजन (बहुत अधिक लोग अथवा वणिक) जिस मार्ग से जाएँ, वही उपयुक्त मार्ग है ।। ‘ तो हम लोग (इन) वणिकों (बहुत अधिक लोगों) के मार्ग से चलें ।। इसके बाद जब वे पण्डित वणिकों अथवा भीड़ के साथ श्मशान भूमि पहुँचे तो वहाँ कोई गधा दिखाई पड़ा ।। तब दूसरे ने पुस्तक खोलकर देखा कि, “उत्सव (खुशी) में, आपत्ति में, अकाल पड़ने पर, शत्रु से संकट प्राप्त होने पर, राजद्वार (न्यायालय) में, श्मशाम में जो साथ दे, वही बन्धु (सच्चा सम्बन्धी) है ।। “

2 — तदहो…………………………धर्मस्तावत् ।।
{शब्दार्थ- अयमस्मदीयः > अयम् + अस्मदीयः = यह हमारा, ग्रीवायां = गले (में), उष्टः = ऊँट, त्वरिता = तेज, तन्नूनमेष>तत्+नूनम् + एषः = तो निश्चित ही यह }
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
अनुवाद- तो अहो, हमें यह (हमारा) सम्बन्धी मिला है ।। ‘ तब कोई उसके गले लगने लगा तथा कोई पैर धोने लगा ।। फिर जैसे ही उन पण्डितों ने दिशाओं की ओर (इधर-उधर) देखा वैसे ही कोई ऊँट दिखाई पड़ा ।। वे बोले, “यह क्या है?’ तब तीसरे ने पुस्तक खोलकर कहा, “धर्म की चाल तेज होती है ।। निश्चय ही यह धर्म है ।। “


3 — चतुर्थेनोक्तम् …………………………… पलायिताः ।।
{शब्दार्थ- योज्यताम् = जोड़ देना चाहिए, बद्धः = बाँध दिया, रजकस्याग्रे > रजकस्य + अग्रे = धोबी के सामने,
पलायिताः = भाग खड़े हुए }
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।


अनुवाद- चौथा बोला, ‘प्रियजन को धर्म से जोड़ देना चाहिए ।। तो अपने इस सम्बन्धी को धर्म से जोड़ दो ।। ‘ तब उन्होंने गधे को ऊँट की गर्दन से बाँध दिया ।। इस पर किसी ने यह बात उस (गधे) के स्वामी धोबी से कह दी ।। यह सुनकर जब वह धोबी उन
मूर्ख पण्डितों को पीटने के लिए आया तो वे भाग खड़े हुए ।।

4 — ततो यावदग्रे……………………………शिरश्छेदोविहितः ।। ।।
{शब्दार्थ– स्तोकम् = थोड़ा, काचिन्नदि > काचित् + नदी = कोई नदी, समासादिता = मिली, पलाशपत्रमेकमायातं > पलाशपत्रम् + एकम् + आयातम् = ढाक के एक पत्ते को आता हुआ, पण्डितेनेकैनोक्तम् > पण्डितेन+एकेन+उक्तम् = एक पण्डित ने कहा, तदस्मांस्तारयिष्यति>तत्+अस्मान्+तारयिष्यति = वह हमें तारेगा, यावत्तस्योपरि>यावत्+तस्य + उपरि = जैसे ही उसके ऊपर, पतितस्तावन्नद्या>पतितः +तावत् + नद्या= कूदा; वैसे ही नदी के द्वारा, केशान्तम् = बालों के गुच्छे को, दुस्सहः= असह्य, शिरश्छेदोविहितः>शिरः+छेदः+विहितः = सिर काट लिया }

सन्दर्भ- पहले की तरह ।।

अनुवाद– तदुपरान्त ज्यों ही वे आगे कुछ दूर चले, त्यों ही कोई नदी मिली ।। उसके जल में ढाक के एक पत्ते को आता देखकर एक पण्डित बोला, ‘जो पत्ता आएगा वह हमें पार करेगा ।। ‘ यह कहकर वह जैसे ही उस पर कूदा, वैसे ही नदी में बह चला ।। उसे इस प्रकार बहता देख दूसरे पण्डित ने उसके बालों के गुच्छे को पकड़कर कहासर्वनाश (की स्थिति) उत्पन्न होने पर बुद्धिमान लोग आधे को त्याग देते हैं (और अवशिष्ट) आधे से ही अपना काम चलाते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण का विनाश असहनीय होता है ।। ऐसा कहकर उसका सिर काट लिया ।।

5 — उथ तैश्च…………स्वदेशंगताः ।।
{शब्दार्थ- तैश्च > तैः + च = और वे, आसादितः = खण्डसंयुक्ताः = घी और खांड से युक्त, सूत्रिकाः = सेवइयाँ, दीर्घसूत्री = आलसी; लम्बे सूत्रवाला, मण्डकाः = माँड; मालपुआ; रोटी, चिरायुषम् = लम्बी आयु वाला, वटिकाभोजनम = दही-बड़े का भोजन, छिद्रेष्वना>छिद्रेषु + अन्यथाः = छिद्रों(दोषों) में विपत्तियाँ, क्षुत्क्षामकण्ठाः = भूख से दुबला कण्ठ लिए, लोकैरुपहास्यमानाः > लौकेः + उपहास्यमानाः=लोगों के द्वारा हँसी का पात्र बनते हुए }
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।


अनुवाद– तब उसके बाद चलकर वे किसी गाँव में पहुँचे और ग्रामीणों के निमन्त्रण पर उनके साथ अलग-अलग घरों में ले जाए गए ।। वहाँ एक को दही और खाँड से युक्त सेवइयाँ भोजन में दी गई ।। तब उस पण्डित ने सोचकर कहा, ‘लम्बे सूत्र (सूत या रेशे) वाला नष्ट हो जाता है’ यह कहकर वह भोजन छोड़कर चला गया ।। दूसरे को मालपुए दिए गए ।। उसने भी कहा, ‘बहत विस्तार वाली वस्तु दीर्घायु की कारण नहीं होती’ (अर्थात् आयु कम करती है) ।। वह भी भोजन छोड़कर चला गया ।। तीसरे को भोजन में बड़ियाँ दी गई ।। उस पण्डित ने भी कहा, ‘छेदों में बहुत-से अनर्थ होते हैं ।। ‘ इस प्रकार वे तीनों ही पण्डित भूख से दुर्बल कण्ठ लिए लोगों की हँसी (मजाक) के पात्र बनकर अपने स्थान को गए ।।


निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए .

1 — महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा:’ नामक पाठ से अवतरित है ।।
प्रसंग- जब चारों ब्राह्मणकुमार एक दोराहे पर पहुँचते हैं, तब वे विचार करते हैं कि हमें किस मार्ग से जाना चाहिए; तभी उनमें से एक कहता है-


व्याख्या– इसका सीधा-सादा अर्थ है कि ‘महापुरुष या श्रेष्ठजन जिस मार्ग से गए हैं, वही सच्चा, अनुगमनीय मार्ग है ।। वस्तुतः साधारण जनता कई बार धर्म और अधर्म, उचित और अनुचित के बीच विद्यमान सूक्ष्म अन्तर को नहीं समझ पाती ।। इसलिए उसे यह सन्देह उत्पन्न हो जाता है कि किस मार्ग (या आचरण) को अपनाया जाए ।। ऐसे अवसरों पर सत्पुरुषों ने क्या आचरण किया, यह ज्ञातकर तदनुसार आचरण करना चाहिए ।। इसलिए विभिन्न शास्त्रों, पुराणों, धर्मग्रन्थों एवं महापुरुषों के जीवनचरितों में सत्पुरुषों के आचारण के विषय में अनेक कथाओं एवं उनके जीवन में घटी घटनाओं का उल्लेख मिलता है ।। जनसामान्य को इन्हीं को अपने व्यवहार का आधार बनाना चाहिए ।।

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विशेष- वह सूक्ति मूलत: ‘महाभारत’ में उस स्थान पर आई है, जहाँ यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है ‘कः पन्थाः?’ (अर्थात् मार्ग कौन-सा है?) युधिष्ठिर उत्तर देते हए कहते हैं तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।_धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥(वनपर्व, 313/117) (तर्क की कहीं स्थिति नहीं है (अर्थात् केवल तर्क-वितर्क से मनुष्य सत्य तक नहीं पहुँच सकता) ।। श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं ।।
ऋषि (अनेक हैं), एक नहीं कि जिसका मत प्रमाण माना जाए ।। धर्म का तत्व गुहा में निहित है (अर्थात् धर्म अत्यन्त गूढ़ है) ।। अत: जिस मार्ग का महापुरुष अनुगमन करते रहे हैं, वही मार्ग है ।।

इसी कारण ‘मानस’ में वशिष्ठ जी भरत से कहते हैं
समुझब कहब करब तुम जोई ।। धर्म-सार जग होइ है सोई

(हे भरत! तुम जो कुछ सोचोगे, कहोगे या करोगे, संसार में वही धर्म का सार माना जाएगा अर्थात् संसार उसी को प्रमाण मानकर आचरण करेगा ।। ) अत: महापुरुष, मन, वचन और कर्म से जैसा आचरण करते हैं, वही संसार के लोगों के लिए प्रमाण हो जाता है ।। पर मूर्ख पण्डित ‘महाजन’ के इस मूलार्थ तक न पहुँचकर ‘व्यापारी’ या ‘भीड़’ जैसे स्थूल अर्थ में अटककर रह गए और उनका अनुगमन करते हुए श्मशान भूमि जैसे अशुचि, अमांगलिक स्थान पर जा पहुँचे ।।

2— राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।। प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में मित्र के लक्षण बताए गए हैं ।। यह सूक्ति उस समय एक ब्राह्मण द्वारा कही गई थी जब चारों ब्राह्मण महाजनों का अनुसरण करते हुए श्मशाम पर पहुँच जाते हैं और वहाँ उन्हें एक गधा दिखाई दे जाता है ।।

व्याख्या– गधे के दिखाई दे जाने पर एक ब्राह्मणकुमार कहता है-उत्सव में, कष्ट के समय, अकाल में, शत्रु के द्वारा संकट में, राजद्वार(न्यायालय) में और श्मशान में जो साथ देता है वही बन्धु अर्थात् वास्तविक सम्बन्धी होता है ।। उपर्युक्त सूक्ति का आशय यह है कि वही मित्र है जो अनेकानेक विपरीत परिस्थितियों में भी साथ देता है ।। संसार में सच्चा मित्र दुर्लभ होता है ।। सच्चा मित्र वहीं है जो अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में अपने मित्र के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खडा रहता है और प्रतिकूल परिस्थितियों के निवारणार्थ सदैव प्रयत्नशील रहता है ।। लेकिन इन चारों ब्राह्मणों ने इस सूक्ति का शाब्दिक अर्थ ग्रहण किया और श्मशान में घूम रहे गधे को ही अपना मित्र मान बैठे और उसका आदर-सत्कार करने लगे ।।

3 — धर्मस्य त्वरिता गतिः ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– श्मशान में पहुँचे ब्राह्मणकुमारों को एक ऊँट दिखाई देता है ।। वे अपने शास्त्रज्ञान के अनुसार उसे धर्म मान बैठते हैं ।। इस सूक्ति में धर्म के स्वरूप को बताया गया है ।।


व्याख्या- धर्म की गति तीव्र होती है ।। आशय यह है कि मनुष्य के मन में धर्मभाव बहुत देर नहीं टिकता, इसलिए जब भी मन में धर्मभाव का उदय हो, मनुष्य को उसे तत्काल कर डालना चाहिए ।। इसी प्रकार जब भी धर्म करने का कोई अवसर मिले तो बिना विलम्ब उसका सदुपयोग कर लेना चाहिए, जिससे पुण्य का संचय हो सके, अन्यथा बुरे और अधार्मिक कार्यों की ओर तो मनुष्य की प्रवृत्ति सामान्यतः रहती ही है, पर धर्म की ओर प्रवृत्ति मुश्किल से होती है; अत: अवसर उपस्थित होने पर धर्म द्वारा पुण्य सम्पादन में देरी नहीं करनी चाहिए ।। पर मूर्ख पण्डितों ने ‘धर्म’ की तीव्रगति’ के इस सूक्ष्म अर्थ तक न पहुँचकर उसके स्थूलार्थ (वाच्यार्थ) को ग्रहण किया और यह समझा कि जो तेज चाल से चले, वही धर्म है ।। इसलिए तेज चलता हुआ ऊँट’ धर्म है ।।

4 — इष्टं धर्मेण योजयेत् ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– ब्राह्मणकुमार अपने प्रियजन के विषय में व्यक्ति के कर्त्तव्य को स्पष्ट करते हैं और तदनुसार गधे को ऊँट की गर्दन से बाँध देते हैं ।।


व्याख्या– जो भी अपना प्रिय हो, उसे धर्म से जोड़ना चाहिए अर्थात् अपने प्रियजन को धर्म-मार्ग पर आरूढ़ कराना चाहिए ।। सच्चे मित्र का लक्षण भी इस प्रकार बताया गया है- ‘पापान्निवारयति योजयते हिताय ।। ‘ वह अपने मित्र को पापकर्मों से हटाकर (विरत करके) उसे हितकारी शुभ कर्मों में लगाता है अर्थात् उसे सत्यपरमर्श देकर उसको शुभ और हितकर कार्यों में प्रवृत्त करता है ।। इसी प्रकार हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने प्रियजन को धर्म में (उचित कार्यों में) लगाकर उसका सच्चा हित करे ।। पर मूर्ख पण्डितों ने ‘इष्ट’ (प्रियजन) और ‘धर्म’ (शुभ कर्म) दोनों का स्थूल अर्थ लेकर और ‘योजयेत्’ (जोड़ना चाहिए) का लक्ष्यार्थ न समझकर उसका वाच्यार्थ ग्रहण करते हुए गधे को ऊँट की गर्दन से बाँध दिया ।। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को केवल शास्त्रों का अध्ययन ही नहीं करना चाहिए, अपितु व्यावहारिक ज्ञान भी रखना चाहिए ।।

5 — आगमिष्यति यत पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– धोबी से जान बचाकर ब्रह्मणकुमार नदी किनारे पहुँचते हैं ।। अब नदी को कैसे पार करें, यही समस्या उनके सामने आती है ।। तभी एक पत्ता पानी में बहता हुआ आता है ।। उनके शास्त्रज्ञान के अनुसार वही उनकी समस्या के समाधान का साधन है ।। इसी विषय में यहाँ बताया गया है ।।

व्याख्या– इस सूक्ति का शब्दार्थ है कि जो पत्ता आएगा, वह हमें पार करेगा ।। ‘ यहाँ पत्ता’ शब्द को लक्षणा से ‘तुच्छ या साधारण वस्तु’ के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए ।। आशय यह है कि विपत्ति में पड़े हुए मनुष्य को किसी बड़े सहारे की आशा में बैठे नहीं रहना चाहिए, वरन् समय पर यदि कोई साधारण या तुच्छ-सी दिखाई पड़ने वाली सहायता भी उपलब्ध हो तो उसकी उपेक्षा न करके उसी का सदुपयोग कर लेना चाहिए ।। कई बार बड़ी-बड़ी चीजों की अपेक्षा छोटी वस्तुएँ या बड़े आदमियों की अपेक्षा छोटे आदमी अधिक सहायक सिद्ध होते हैं, जिनसे मनुष्य को विपत्ति के पार जाने में बड़ी सहायता मिलती है ।। हिन्दी में इसी की समकक्ष कहावत है ‘डूबते को तिनके का सहारा’ अर्थात् विपत्तिग्रस्त व्यक्ति को थोड़ा सहारा भी बहुत होता है ।। पर मूर्ख पण्डित ने ‘पत्रम्’ का वाच्यार्थ पत्ता’ ग्रहणकर उसका सहारा लेकर पार होना चाहा ।। फलत: वह नदी में बह गया और डूबकर मर गया ।।

6 — सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं व्यजति पण्डितः ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– सर्वस्व नाश होते देखकर व्यक्ति को क्या करना चाहिए ।। अपने एक साथी को जल में बहता देखकर एक ब्राह्मणकुमार इसी पर अपना मत व्यक्त करता हुआ यह सूक्ति कहता है ।।

व्याख्या– यदि सर्वस्व नष्ट होने की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि आधा ही बचा ले और शेष आधे का मोह छोड़ दे; क्योंकि सारा बचाने के चक्कर में मनुष्य कभी-कभी सभी कुछ गँवा बैठता है ।। इसीलिए लालच को छोड़कर व्यक्ति नष्ट होते सर्वस्व में जो कुछ भी बचा सके, वही बचा ले ।। उदाहरण के लिए, यदि किसी के मकान या दुकान में आग लग जाए और वह सारा बचाने का मोह करे तो संभव है कि सब कुछ नष्ट होने के साथ-साथ वह भी जल मरे ।। इसलिए उसे चाहिए कि आसानी से जो कुछ बचाया जा सके, उसी को बचा ले; क्योंकि कुछ भी न बचने से कुछ बचना तो अच्छा ही है ।। फिर उस बचे हुए से ही उसे अपना काम चलाना चाहिए, किन्तु मूर्ख ब्राह्मणकुमार इस सूक्ति का शाब्दिक अर्थ लगाकर अपने ही मित्र को मार डालते हैं ।। अन्यत्र भी कहा गया है- ‘सब धन जाता जानिए,आधा दीजै बाँटि’ ।।

7 — अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हिदुस्सहः ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।

प्रसंग– अपने एक साथी को नदी में बहता हुआ देखकर एक ब्राह्मणकुमार यह सूक्ति कहता है ।।

व्याख्या– व्यक्ति को सम्पूर्ण की प्राप्त्याशा में प्राप्त हुई आधी वस्तु का त्याग नहीं करना चाहिए, वरन् आधी का सदुपयोग करते हुए संपूर्ण की प्राप्ति का प्रयत्न करते रहना चाहिए; क्योंकि परिस्थितिवश यदि सम्पूर्ण की प्राप्ति नहीं होती तो कम-सेकम आधी वस्तु तो पास में रह ही जाती है ।। उसका परित्याग कर देने पर तो कुछ भी नहीं बचता और तब वस्तु की पूर्ण अभावग्रस्तता अत्यन्त दुःखदायी होती है ।। इसलिए सम्पूर्ण नष्ट होती वस्तु के जितने भी भाग को बचाया जा सके, बचा लेना चाहिए ।। सम्पूर्ण को बचाने के प्रयास में बचाये जा सकने वाले भाग को नष्ट नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि सम्पूर्ण का विनाश असहनीय होता है ।। किसी ने अन्यत्र कहा भी है- ‘आधी छोड़ सारी को धावै, आधी मिलै न सारी पावै’, किन्तु मूर्ख ब्राह्मणकुमार इस सूक्ति का शाब्दिक अर्थ लगाकर अपने ही मित्र का सिर काट लेते हैं ।। तात्पर्य यह है कि अल्प ज्ञान के कारण ही उन मूर्ख ब्राह्मणकुमारों ने अपने मित्र को ही मृत्यु-द्वार तक पहुँचा दिया ।।

कहा भी गया है- ‘अल्पविद्या भयंकरी ।। ‘

8 — दीर्घसूत्री विनश्यति ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– अपने भोजन में सेवइयाँ देखकर पहला ब्राह्मणकुमार यह सूक्ति कहता है और इसका अनुचित अर्थ लगातार भोजन को ग्रहण नहीं करता ।।

व्याख्या– इस सूक्ति का अर्थ है कि आलसी व्यक्ति नष्ट हो जाता है ।। आशय यह है कि जो व्यक्ति शीघ्र करने योग्य कार्य को करने में बहुत विलंब करता है अथवा कार्य करते हुए बहुत लंबे समय तक उसे खींचता जाता है, उसका कार्य नष्ट हो जाता है अथवा कार्य के पूर्ण हो जाने पर उसका कोई महत्व नहीं रह जाता; क्योंकि तब तक उसका उपयुक्त समय बीत चुका होता है ।। इससे अपूरणीय क्षति पहुँच सकती है या वह कभी सर्वस्व-नाश की स्थिति तक भी पहुंच सकता है ।। उस मूर्ख पण्डित ने ‘दीर्घसूत्री’ का ‘आलसी व्यक्ति’ अर्थ न लेकर शब्दार्थ ‘लम्बे सूत या रेशे वाली वस्तु को ग्रहण करने वाला’ लिया, जिससे उसे परोसे हुए भोजन को छोड़ कर भूखे रहना पड़ा ।। आलस्य के विषय में भर्तृहरि ने अन्यत्र लिखा है- ‘आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।।


9 — अतिविस्तारविस्तीर्णा तद्भवेन्न चिरायुषम् ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।। प्रसंग- अपने भोजन में मालपुए को देखकर दूसरा ब्राह्मणकुमार इस सूक्ति का अनुचित अर्थ समझकर भोजन से उठ खड़ा होता है ।।
व्याख्या– इसका शब्दार्थ है ‘अति विस्तार वाली वस्तु दीर्घायु का कारण नहीं होती’ अर्थात् आयु को कम करती है ।। इस सूक्तिका भाव यह है कि अति स्थूल शरीर का होना आयु के लिए हानिकारक है; क्योंकि मेद (या चर्बी) बहुत बढ़ जाने से अनेक रोग उत्पन्न होकर व्यक्ति की आयु को क्षीण कर देते हैं, परन्तु उस मूर्ख पण्डित ने इसे वाच्यार्थ में ग्रहण करके मालपुए को लम्बा-चौड़ा देखकर उसे आयु घटाने वाला मानकर त्याग दिया ।।

10 — छिद्रेष्वना बहुली भवन्ति ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– तीसरा ब्राह्मणकुमार अपने भोजन में छिद्रयुक्त बड़ियाँ देखकर इस सूक्ति को कहता है और इसका वाच्यार्थ ग्रहणकर बिना भोजन किये ही वापस आ जाता है ।।


व्याख्या– इस सूक्ति का वाच्यार्थ है ‘छेदों में बहुत-से अनर्थ रहते है ।। ‘ ‘छिद्र’ का अर्थ ‘दोष’ है ।। व्यक्ति में यदि एक दोष भी पैदा हो जाए तो उसके कारण उसके कारण उसमें बाद में अनेक बुराइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं और वे समय के साथ बढ़ती जाती है ।। उदाहरण के लिए, यदि एक व्यक्त जुआ खेलने लगे तो जीतने पर वह दुर्व्यसनों में फंस सकता है और हारने पर चोरीडकैती पर उतर सकता है या फिर अपना दुःख भूलने के लिए मद्यपान शुरु कर सकता है ।। यह तो एक दोष का दुष्परिणाम है, फिर यदि उसमें अनेक दोष उत्पन्न हो जाएँ तो व्यक्ति के सर्वनाश में सन्देह ही क्या रह जाएगा? इसीलिए कहा गया है कि ‘छिद्रों( दोषों) में अनेक अनर्थ रहते हैं’, परन्तु मूर्ख पण्डित ने छिद्र का वाच्यार्थ ‘छेद’ ही लेकर उसका मूल अभिप्राय न समझा और बड़ियों में छेद देखकर उन्हें छोड़कर भूखा ही चला गया ।।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में दीजिए

1 — चत्वारो ब्राह्मणाः विद्योपार्जनार्थं कुत्र गताः?
उत्तर— चत्वारो ब्राह्मणाः विद्योपार्जनार्थं कान्यकुब्जमगच्छन् ।।


2 — चत्वारो ब्राह्मणः किमर्थं देशान्तरंगताः?
उत्तर— चत्वारो ब्राह्मणाः विद्याध्ययनार्थं देशान्तर गताः ।।


3 — धर्मेणं कंयोजये?
उत्तर— धर्मेणं इष्टं योजयेत् ।।


4 — इष्टं केन योजयेत्?
उत्तर— इष्टं धर्मेण योजयेत् ।।


5 — मूर्ख पण्डितैः रासभः कुत्र बद्धः?
उत्तर— मूर्खपण्डितैः रासभः उष्ट्रग्रीवायां बद्धः ।।


6 — बहून्मार्गान् समायातान दृष्टवा ते किमकुर्वन्?
उत्तर— बहून् मार्गान् समायातान् दृष्टवा महाजनपथेन अगच्छन् ।।


7 — ब्राह्मणैः रासभः उष्ट्रग्रीवायां कथं बद्ध ।।
उत्तर— ब्राह्मणैः रासभः बन्धुरिति मन्यमानैः (मत्वा) ‘इष्टं धर्मेण योजयेत् ‘ अनुसारेण उष्ट्रग्रीवायां बद्धः ।।


8 — पण्डितः वटिका भोजनं किमर्थम् अत्यजत् ? ।।
उत्तर— ‘छिद्रेष्वना बहुलीभवन्ति’ इति सोचयित्वा पण्डितः वटिका भोजनम् अत्यजत् ।।

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9 — भोजने मण्डकान्प्राप्य पण्डितेन किम उक्तम्?
उत्तर— भोजने मण्डकान् प्राप्य पण्डितेनोक्तम् – ‘अति विस्तारविस्तीर्णं तद्भवेन्न चिरायुषम्’ इति ।।


10 — सर्वनाशे समुत्पन्ने पण्डितः कः त्यजति?
उत्तर— सर्वनाशे समुत्पन्ने पण्डित: अर्धं त्यजति ।।


11 — श्मशाने ते ब्राह्मणाः कम् अपश्यन्?
उत्तर— श्मशाने ते ब्राह्मणाः रासभम् अपश्यन् ।।


12 — द्वयो मार्गयोः समागतयोः ब्राह्मणाः केन मार्गेण अगच्छत्?
उत्तर— द्वयो मार्गयोः समागतयोः ब्राह्मणाः महाजनमार्गेण अगच्छत् ।।


13 — ग्रामीण: एकस्मै ब्रह्माणाय भोजने किम् अददात्?
उत्तर— ग्रामीणः एकस्मै ब्रह्मणाय भोजने सूत्रिका: अददात् ।।


14 — ते त्रयोऽपि पण्डिताः कथं स्वदेशंगता:?
उत्तर— ते त्रयोऽपि पण्डिताः क्षुत्क्षामकण्ठाः लोकैरुपहास्यमानाः स्वदेशं गताः ।।


15 — अस्मात् पाठात् यूयं का शिक्षा प्राप्तनुथ?
उत्तर— लोकव्यवहारानभिक्षा: मनुष्याः शास्त्राण्यधीत्यापि मूर्खाः भवन्ति ।।

संस्कृत अनुवाद संबंधी प्रश्न
निम्नलिखित वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए

1 — चार ब्राह्मण विद्याध्ययन के लिए काव्यकुब्ज गए ।।
अनुवाद- चत्वारो ब्राह्मणाः विद्याध्ययनाय कान्यकुब्जं गताः ।।


2—- वहाँ पर उन्होंने शास्त्र पढ़े ।।
अनुवाद- तत्र ते शस्त्राणि अधीतवन्तः ।।


3 — उनका ज्ञान जीवनोपयोगी नहीं था ।।
अनुवाद- तेषां ज्ञान जीवनोपयोगी नासीत् ।।


4 — वे लोक व्यवहार में निपुण नहीं थे ।।
अनुवाद- ते लोकव्यवहारे निपुणाः न आसन् ।।


5 — शिक्षा जीवन के लिए ही होती है ।।
अनुवाद- शिक्षा जीवनार्थयैव भवति ।।


6 — मैं तुम्हारे साथ प्रयाग नहीं जाऊँगी ।।
अनुवाद- अहं त्वया सह प्रयागं न गमिष्यामि ।।


7 — जानवर सायंकाल जंगल से घर आ गए ।।
अनुवाद- पशवाः सायंकाले अरण्यात् गृहं आगच्छन् ।।


8 — हरिश्चन्द्र ने अपने धर्म का पालन किया ।।
अनुवाद- हरिश्चन्द्रः स्वधर्मपालनम् अकरोत् ।।


9- व्यासपुत्रशुकदेव को नमस्कार है ।।
अनुवाद- व्यासपुत्रशुकदेवाय नमः ।।


10 — छात्र को विनयशील होना चाहिए ।।
अनुवाद- छात्र: विनयशील: भवेत् ।।

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संस्कृत व्याकरण से संबंधित प्रश्न

1 — निम्नलिखित शब्दों में सन्धि-विच्छेद कीजिए तथा सन्धि का नाम भी बताइए
तत्रैकः, इत्युक्त्वा, विद्योपार्जनम्, त्रयोऽपि, तदुपाध्यायस्य, लोकेरूपाहास्यमानाः, तेनाप्युक्तम्, तथैव


उत्तर— सन्धि पद सन्धि विच्छेद सन्धि का नाम
तत्रैकः ——–तत्र + एकः ——–वृद्धि सन्धि
इत्युक्त्वा——–इति + उक्त्वा——– यण सन्धि
विद्योपार्जनम् ——–विद्या + उपार्जनम् ——– गुण सन्धि
त्रयोऽपि ——– त्रयः + अपि ——– उत्व सन्धि
तदुपाध्यायस्य ——–तत् + उपाध्यायस्य ——–व्यंजन सन्धि
तन्नूनमेषः ——– तत् + नूनम् + एषः ——– परसवर्ण; अनुस्वार सन्धि
लोकैरुपहास्यमानाः ——–लोकैः + उपहारस्यमानाः ——–विसर्ग सन्धि
तेनाप्युक्तम् ——–तेन +अपि + उक्त्म् ——–दीर्घ, यण सन्धि
तथैव ——–तथा + एव ——–वृद्धि सन्धि

2 — निम्नलिखित क्रिया पदों में धातु, पुरुष, वचन एवं लकार स्पष्ट कीजिए
त्यजीत, वसन्ति, भवन्ति, भवेत्, गच्छाम्, तायिष्यति, अगमिष्यतिआ, पठन्ति, योजयेत्, नश्यति
उत्तर— क्रिया पद धातु लकार पुरुष पुरुष वचन
त्यजति ——–त्यज——– लट् लकार ——–प्रथम——–एकवचन
वसन्ति ——–वस ——–लट् लकार ——–प्रथम ——–बहुवचन
भवन्ति ——–भू ——–लट् लकार——– प्रथम ——–बहुवचन
भवेत्——–भू ——– विधिलिङ्ग लकार——– प्रथम ——–एकवचन

गच्छाम्——– गम् ——–लोट् लकार ——–उत्तम ——–बहुवचन
तारयिष्यति ——–लट लकार——– प्रथम ——–एकवचन
आगमिष्यति——– आ + गम् ——–लट् लकार——– प्रथम——– एकवचन
पठन्ति ——–पठ ——–लट् लकार ——–प्रथम——– एकवचन
योजयेत्——– योज——–विधिलिङ्ग ——–लकार ——–प्रथम——– एकवचन

3 — निम्नलिखित शब्दों में प्रत्यय अलग करके लिखिए
मन्त्रयित्वा, गृहीत्वा, नीत्वा, पठित्वा, कृत्वा, गत्वा, लब्ध्वा
उ० शब्द प्रत्यय
मन्त्रयित्वा ——– क्त्वा
गृहीत्वा ——–क्त्वा
नीत्वा——– क्त्वा
पठित्वा——– क्त्वा
कृत्वा——– क्त्वा
लब्ध्वा——– क्त्वा

4 — निम्नलिखित शब्दों का विग्रह करके समाज का नाम बताइए
उत्तर— समस्त पद——– समास विग्रह———————— समास का नाम
वाटिकाभोजनम्—————– वाटिकायाः भोजनम् ———-तत्पुरुष समास
उष्टग्रीवायाम् ———–उष्ट्रस्य ग्रीवायाम् ————–तत्पुरुष समास
पलाशपत्रम्——————– पलाशस्य पत्रम् ——————तत्पुरुष समास
विद्योपार्जनम् ——————–विद्यायाः उपार्जनम्—————— तत्पुरुष समास
वणिक्पुत्रः ———————-वणिकस्य पुत्रः ———————तत्पुरुष समास
विद्याकुशलाः ———————विद्यो कुशलाः ———————तत्पुरुष समास

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