UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 12TH SAMANY HINDI CHAPTER 6 bhasha aur adhunikata भाषा और आधुनिकता

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पाठ - 6 भाषा और आधुनिकता


1- प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी का जीवन परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य में उनका स्थान निर्धारित कीजिए ।।

उत्तर – – जीवन परिचय- सुप्रसिद्ध निबन्धकार, विचारक व समालोचक श्री जी० सुन्दर रेड्डी का जन्म सन् 1919 ई० में दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश में हुआ था ।। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा तेलुगू और संस्कृत में तथा उच्च शिक्षा हिन्दी में हुई ।। हिन्दी, तमिल व मलयालम आदि भाषाओं पर इनका समान अधिकार था ।। हिन्दी व तेलुगू साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर इन्होंने गहन शोध किया ।। अंग्रेजी, हिन्दी व तेलुगू के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इनके निबन्ध प्रकाशित हुए हैं ।। ये अहिन्दी भाषी क्षेत्र से सम्बन्धित थे, लेकिन फिर भी इन्होंने हिन्दी भाषा में साहित्य-सृजन करके एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया है ।। भाषा और आधुनिकता विषय पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार प्रस्तुत करने वाले साहित्यकारों में श्री जी० सुन्दर रेड्डी ने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है ।। इन्होंने बत्तीस वर्ष तक ‘आन्ध्र विश्वविद्यालय” में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद को सुशोभित किया ।। उत्तर भारत के लोगों को दक्षिणी भाषाओं का ज्ञान प्रदान करने तथा दक्षिण भारत के लोगों को हिन्दी भाषा का ज्ञान प्रदान करने एवं उसके प्रति आकर्षण उत्पन्न करने की दृष्टि से श्री जी० सुन्दर रेड्डी ने अपनी प्रेरक कृतियाँ उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की है ।। 30 मार्च सन 2005 को श्री जी० सुन्दर रेड्डी का देहान्त हो गया ।। हिन्दी साहित्य में स्थान- निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी हिन्दी-साहित्य जगत के उच्चकोटि के विचारक, समालोचक एवं निबन्धकार हैं ।। इनकी रचनाओं में विचारों की परिपक्वता, तथ्यों की सटीक व्याख्या एवं विषय सम्बन्धी स्पष्टता दिखाई देती है ।। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अहिन्दी भाषी क्षेत्र से होते हुए भी, इन्होंने हिन्दी भाषा के प्रति अपनी जिस निष्ठा व अटूट साधना का परिचय दिया है, वह अत्यंत प्रेरणास्पद है ।। हिन्दी साहित्य जगत सदैव इनका ऋणी रहेगा ।।

2- प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी की कृतियों का उल्लेख करते हुए उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए ।।

उत्तर – – कृतियाँ- इनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं
हिन्दी और तेलुगूः एक तुलनात्मक अध्ययन, साहित्य और समाज, वैचारिकी, दक्षिण की भाषाएँ और उनका साहित्य, शोध और बोध, मेरे विचार, लैंग्वेज प्रॉब्लम इन इंडिया (अंग्रेजी भाषा में सम्पादित), तेलुगू दारुल (तेलुगू) ।।
रेडडी की भाषा परिमार्जित तथा सशक्त है ।। इनकी भाषा सरलता, स्पष्टता तथा सहजता के गुणों से परिपूर्ण है ।। भाषा की सम्पन्नता के लिए इन्होंने अपनी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है ।। इन्होंने अपनी भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों का भी सुन्दर प्रयोग किया है, जिससे भाषा प्रभावशाली हो गई है ।। कठिनतम विषय को सरल एवं सुबोध ढंग से प्रस्तुत करना इनकी शैली की विशेषता है ।। इनकी शैली इनके भाव एवं विषय के अनुकूल है ।। प्रो० रेड्डी ने अपने अधिकांश निबन्धों में विचारात्मक शैली का प्रयोग किया है ।। जहाँ इस शैली का प्रयोग किया गया है, वहाँ भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिष्कृत हो गई है ।। इनके निबन्धों में गवेषणात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं ।। लेखक ने इस शैली का जहाँ भी प्रयोग किया है, वहाँ भाषा अत्यन्त गम्भीर है और परिमार्जित है ।। लेखक ने इस शैली में खोजपूर्ण और नवीन विचारों को प्रदर्शित किया है ।। जहाँ लेखक ने किसी विषय की आलोचना की है, वहाँ समीक्षात्मक या आलोचनात्मक शैली का प्रयोग किया है ।। इस शैली से भाषा संयत और प्रभावशाली हो गई हैं ।। इसके अतिरिक्त इनके निबन्धों में प्रश्नात्मक शैली ।। WWW.UPBOARDINFO.IN

1- निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) रमणीयता और नित्य ………………………………… ……………………………….सोची नहीं जाती ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्यपुस्तक ‘गद्य गरिमा” के “प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी” द्वारा लिखित “भाषा और आधुनिकता” नामक निबन्ध से अवतरित है ।।

प्रसंग- भाषा की आधुनिकता के सन्दर्भ में लेखक ने इस तथ्य पर बल दिया है कि जिस प्रकार सौन्दर्य में नवीनता होनी चाहिए, उसी प्रकार भाषा में भी नवीनता आती रहनी चाहिए ।।

व्याख्या- भाषा की नवीनता ही उसकी सुन्दरता और रमणीयता की द्योतक है ।। जो वस्तु रमणीय होगी, वह नवीन भी होगी और जो नवीन होगी, उसमें रमणीयता भी रहेगी ।। इस प्रकार नवीनता और रमणीयता एक-दूसरे पर आश्रित हैं अथवा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।। बिना रमणीयता के कोई भी वस्तु महत्वपूर्ण नहीं हो सकती ।। उसको मौलिकता की मान्यता भी नहीं मिल सकती ।। इसी प्रकार किसी भी कलाकार की रचना में व्याप्त नवीनता ही उसकी मौलिकता का सबसे बड़ा प्रमाण है ।। इस नवीनता के होने पर ही समाज उस रचना के प्रति आकर्षित होगा ।। वास्तविकता यह है कि मौलिक साहित्यकार और कलाकार की रचना में कुछ-न-कुछ नवीनता अवश्य होती है ।। यदि कोई कलाकार या साहित्यकार अपनी रचना को नवीन या मौलिक दृष्टि नहीं दे सकता तो उसकी रचना को सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल सकती ।। जिस प्रकार पिछड़ी हुई रूढ़ियों से ग्रस्त समाज प्रगति नहीं कर पाता; उसी प्रकार पुरानी रीतियों, परम्पराओं और शैलियों से जकड़ी हुई भाषा भी समाज में आदर प्राप्त नहीं कर पाती; क्योंकि वह युग के अनुरूप जन-चेतना उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाती है ।। नवीन विचारों और वैज्ञानिकता से परिपूर्ण भाषा ही समाज में प्रतिष्ठित हो सकती है ।। समय की मान्यताओं के अनुसार शब्दावली तथा शैली को स्वीकार करनेवाली भाषा ही सुन्दर हो सकती है ।। सभ्यता-संस्कृति और ज्ञान के विकास के फलस्वरूप जो वैचारिकता क्रान्ति होती है, जिसे हम युगचेतना के नाम से जानते हैं, उसकी सफल अभिव्यक्ति का एकमात्र सशक्त माध्यम भाषा ही है ।। और कोई भी भाषा ऐसी सशक्तता तभी प्राप्त कर सकती है, जब वह अपने युग के अनुरूप सटीक, औचित्यपूर्ण नए मुहावरों को ग्रहण करे ।। भाषा का एकमात्र उद्देश्य यही है कि समाज के लोगों के भावों और विचारों को सरलता से एक-दूसरे तक पहुँचा सके ।। इसके अतिरिक्त उसका समाज में अन्य कोई उपयोग नहीं है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- लेखक ने भाषा के विकासशील स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसमें नवीनता को आवश्यक माना है ।।
2- भाषा वही श्रेष्ठ होगी, जो युगानुरूप भावों को ग्रहण कर सके और समाज में चेतना जाग्रत कर सके ।।
3- भाषा- प्रवाहपूर्ण, परिष्कृत और परिमार्जित ।।
4-शैली- विवेचनात्मक ।।

(ख) भाषा स्वयं संस्कृति ……………………………………………………………….. महती आवश्यकता है ।।


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प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने विज्ञान की प्रगति के कारण जो सांस्कृतिक परिवर्तन होता है, उसे शब्दों द्वारा व्यक्त करने के लिए भाषा में नये प्रयोगों की आवश्यकता पर बल दिया है ।।

व्याख्या- किसी देश की भाषा का उसकी संस्कृति से गहरा संबंध होता है ।। संस्कृति यद्यपि परम्परागत होती है, तथापि समय के अनुसार उसमें परिवर्तन और विकास होता रहता है ।। जैसे-जैसे विज्ञान की प्रगति होती है वैसे-वैसे संस्कृति की प्रगति भी होती रहती है ।। जब कोई देश वैज्ञानिक प्रगति करता है तो उसका प्रभाव उस देश की संस्कृति पर अवश्य पड़ता है ।। जब देश में विज्ञान के नए-नए आविष्कार होते हैं, तो उनके प्रभाव से उस देश की संस्कृति में अनेक परिवर्तन आते हैं ।। संस्कृति के उन परिवर्तनों को शब्दों द्वारा व्यक्त करने के लिए भाषा में भी परिवर्तन लाना आवश्यक होता है ।। भाषा में जो प्रयोग प्राचीनकाल से चले आ रहे हैं, वे नये सांस्कृतिक परिवर्तनों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं है ।। नित्यप्रति संस्कृति में हुए परिवर्तनों को भाषा द्वारा व्यक्त करने के लिए भाषा में नये-नये शब्दों की खोज का कार्य होना बहुत आवश्यक है, जिससे बदलते हुए नये भावों को उचित रूप से व्यक्त किया जा सके ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा- शुद्ध और पारिमार्जित खड़ी बोली ।।
2-शैली-सुगम, सुबोध एवं विवेचनात्मक ।।
3- हर क्षेत्र में नवीनता आवश्यक है, किन्तु भाषा के विषय में अभी भी कुछ संकीर्ण दृष्टिकोण व्याप्त है ।।
4- लेखक ने भाषा में भी नवीनीकरण को औचित्यपूर्ण ढंग से आवश्यक सिद्ध किया है ।।

(ग) भाषा की साधारण………………………………….ग्रहणीय नहीं ।।

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प्रसंग-लेखक ने भाषा में नये प्रयोगों की आवश्यकता पर बल दिया है ।।

व्याख्या- लेखक कहता है कि किसी भी भाषा के अर्थ को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य उसके शब्दों में होती है ।। शब्द ही अर्थ को स्पष्ट करते हैं ।। अत: वे भाषा की इकाई होते हैं ।। शब्दों के अभाव में भाषा की कल्पना करना दुरूह ही नहीं बल्कि असम्भव है ।। यदि भाषा में विकास होता है तो वह शब्दों में परिवर्तन करके ही किया जाता है ।। प्रतिदिन के सामाजिक व्यवहार में हम ऐसे बहुत से शब्दों को प्रयोग करते हैं जो अंग्रेजी फारसी, अरबी आदि विदेशी भाषाओं से लिए गए हैं ।। वैसे ही नये शब्दों का गठन अनायास ही हो जाता है ।। दूसरी भाषाओं के शब्द अवश्य प्रयोग किये जाते हैं, लेकिन उनका रूप अविकृत होता है ।। भाषा में प्रयोग किये जाने वाले ऐसे शब्द कामचलाऊ रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं ।। साहित्यिक भाषा में उनका प्रयोग नहीं किया जाता ।। यदि मजबूरीवश उन्हें ग्रहण करना भी पड़े तो भाषा मूल प्रकृति के अनुरूप साहित्यिक शुद्धता प्रदान करके उनका प्रयोग करना पड़ता है ।। तभी वे भाव को स्पष्ट करने में समर्थ होते हैं ।। व्याकरणिक, दृष्टि से उनमें संशोधन, परिमार्जन और परिष्करण करना पड़ता है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- प्रवाहपूर्ण, परिष्कृत एवं परिमार्जित ।। 2- शैली- विवेचनात्मक ।। 3- वाक्य-विन्यास सुगठित ।। 4-शब्द-चयन-विषयानुरूप ।। 5- लेखक ने स्पष्ट किया है कि भाषा में नवीनीकरण व्याकरणिक दृष्टि से उचित होने पर ही किया जाना चाहिए ।।

(घ) विज्ञान की प्रगति ……………………………………. द्रष्टव्य नहीं होते ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह WWW.UPBOARDINFO.IN

प्रसंग-लेखक ने भाषा की नवीनता के आशय को स्पष्ट किया है ।।

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व्याख्या– भाषा में नवीनता का गुण होना आवश्यक है ।। भाषा की नवीनता ही, उसकी सुन्दरता और उपयोगिता में वृद्धि करती है ।। भाषा में नवीनता लाने के लिए अथवा भाषा का उत्तरोत्तर विकास करने के लिए भाषा के शब्दों पर ही प्रमुख रूप से ध्यान देना चाहिए: क्योकि शब्द ही भाषा की इकाई है, परन्तु भाषा के नवीनीकरण अथवा शुद्धीकरण का यह आशय नहीं है कि हम दूसरी भाषा से आए प्रत्येक शब्द में परिवर्तन का प्रयास करें ।। यदि कोई विदेशी भाषा का शब्द अपना भाव सम्प्रेषित करने में सक्षम है तो उसमें परिवर्तन करने का प्रयास करना उचित नहीं है ।। उदारहण के लिए; आज प्रत्येक देश में विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न आविष्कार हो रहे हैं और उन्हें नए-नए नाम दिए जा रहे हैं ।। प्रत्येक देश अपने देश की आविष्कृत वस्तु का अपनी भाषा या अपने विवेक के अनुसार नामकरण कर रहा है और दूसरों देशों में भी वही नाम प्रचलित हो जाता है ।। इस प्रकार के प्रचलित नामों को समझने या उन नामों से भी किसी वस्तु-विशेष का बोध होने में भी कोई कठिनाई नहीं होती; जैसे- रेडियो, टेलीविजन, स्पुतनिक आदि शब्द ।। यदि प्रत्येक देश उन वस्तुओं को नामकरण अपने अनुसार करने लगे तो इन्हें समझने में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न जाएँगी ।। एक दूसरा उदाहरण सीढ़ी का है ।। भारतवर्ष में आदिकाल से ही ऊपर छत आदि पर चढ़ने के लिए साधन सीढ़ी का प्रयोग होता रहा है अर्थात् ऊपर चढ़ने का एकमात्र साधन सीढ़ी ही था परन्तु देश तथा विदेशों में आई औद्योगिक क्रान्ति ने ऊपर चढ़ने के लिए अलग-अलग प्रकार की सीढ़ियों जैसे- लिफ्ट, एलिवेटर, एस्कलेटर आदि का निर्माण कर सीढ़ी का नाम परिवर्तित कर दिया, ये नाम भारतीय समुदाय के लिए एकदम नए थे, परन्तु भारतीय भाषा में इन शब्दों के लिए नए-नए शब्द प्रयोग नहीं होते अर्थात् ये नाम उसी रूप में मिलते हैं, जिस रूप में इनके आविष्कारों ने रखे हैं ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- प्रवाहपूर्ण, परिष्कृत एवं परिमार्जित ।।
2- शैली- विवेचनात्मक ।। 3- वाक्य-विन्याससुगठित ।।
4- शब्द-चयन- विषयानुरूप ।।
5- लेखक ने सरल उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि शब्दों में परिवर्तन आवश्यकतानुसार ही किया जाना चाहिए ।।

(ङ) नवीनीकरण में कितना……………………………………………..अंग्रेजों का नहीं ।।

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प्रसंग- यहाँ लेखक का मन्तव्य स्पष्ट करना है कि यद्यपि भाषा द्वारा अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से होनी चाहिए, तथापि नवीनीकरण की प्रक्रिया में शब्दों की आत्मा विखण्डित नहीं होनी चाहिए ।।

व्याख्या- लेखक ने इस तथ्य को पूरी तरह स्वीकार किया है कि भाषा को नए शब्द और मुहावरे प्रदान करते समय हमें यह बात भी भली-भाँति याद रखनी चाहिए कि भाषा का प्रमुख कार्य भावनाओं, अनुभवों तथा विचारों की अभिव्यक्ति है ।। यह अभिव्यक्ति नितान्त स्पष्ट होनी चाहिए ।। यदि किसी भाषा में स्पष्टता का गुण नहीं है अथवा भाषा में निर्देश देने की क्षमता नहीं है तो ऐसी भाषा बहुत समय तक जीवित नहीं रह सकती ।। अपनी बात कहने के लिए हम आवश्यकतानुसार नए शब्द और मुहावरे बनाते हैं ।। नए शब्दों की रचना करते समय हमें अपने हठ और आग्रह को छोड़कर इस बात पर विचार करना चाहिए कि शब्द की मूल आत्मा क्या है तथा उससे किस प्रकार का भाव प्रकट हो रहा है ।। इसी के साथ-साथ उसके प्रयोग की सार्थकता पर भी गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए ।। यहीं पर लेखक ने कहा है कि हम अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रायः अंग्रेजी, अरबी, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करते हैं ।। यदि हम यह सोचें कि अंग्रेजी हमारे शासकों की भाषा रही है इससे परतन्त्रता की गन्ध आती है अथवा अरबी-फारसी के शब्दों से इस्लाम के वर्चस्व का बोध होता है; इसलिए हमें इन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग नहीं करना है तथा इनके स्थान पर नए शब्दों की रचना करनी है तो ये बात हमें स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि ऐसा करने पर हमारी भाषा की सहजता और स्वाभाविकता समाप्त हो जाएगी और भाषा बनावटी बन जाएगी ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- नए शब्दों की रचना करते समय यह बात याद रखनी चाहिए कि उससे हमारी अभिव्यक्ति स्पष्टता के साथ हो सके ।।
2- यदि विदेशी भाषा के शब्दों में हमारे किन्हीं विशिष्ट भावों की अभिव्यक्ति होती है तो उन शब्दों को ग्रहण करने में कोई हानि नहीं है ।। UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 12TH SAMANY HINDI CHAPTER 5 SANNATA सन्नाटा
3-भाषा-संस्कृतनिष्ठ ।।
4- शैली-विवेचनात्मक ।। WWW.UPBOARDINFO.IN

(च) नये शब्द,नये मुहावरे ……… ………………………………..होना आवश्यक है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- यहाँ भाषा की आधनिकता और उसको आधुनिक बनाने के उपायों पर प्रकाश डाला गया है ।।

व्याख्या- भाषा में आधुनिकता लाने के लिए यह आवश्यक है कि नवीन शब्दों, नवीन मुहावरों एवं नवीन रीतियों के आधार पर भाषा को व्यावहारिक बनाने के प्रयास किए जाएँ ।। आधुनिक युग की विचारधाराओं के अनुरूप अनेक व्यक्ति नवीन शब्दों का प्रयोग करना ही भाषा के विकास की दृष्टि से पर्याप्त मानते हैं, परन्तु इस प्रकार की धारणा उचित नहीं है ।। केवल नवीन शब्द गढ़कर ही भाषा को आधुनिक नहीं बनाया जा सकता, वरन् भाषा को आधुनिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम नवीन परिभाषिक शब्दों एवं नवीन लेखन-शैलियों पर आधारित लेखन पद्धतियों को प्रयुक्त करें ।। नवीन शब्दों एवं नवीन शैलियों को साहित्य से लेकर विद्यालयों में निर्धारित पाठ्य पुस्तकों तक प्रयुक्त किया जाना चाहिए ।। इस प्रकार के नवीन शब्दों एवं शैलियों को, शिक्षित अथवा अशिक्षित व्यक्तियों या जहाँ से भी ये मिलें, खोजकर, भाषा में प्रयुक्त करना चाहिए ।। ऐसा करके ही भाषा को व्यावहारिक, आधुनिक अथवा प्रगतिशील बनाया जा सकता है ।। भाषा की व्यावहारिकता ही उसके प्राण होती है, इसीलिए जो भाषा व्यावहारिकता को त्याग देती है, वह शीघ्र मर जाती है ।। यह भाषा तभी जीवित हर सकती है जब प्रत्येक पुस्तक चाहे वह पाठ्यपुस्तक हो या साहित्यिक, प्रत्येक प्राणी चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित इन नए शब्दों व नए प्रयोगों को अपने कार्यकलापों में सम्मिलित करें अर्थात् इन नए शब्दों को अपनाएँ ।। WWW.UPBOARDINFO.IN

साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा की आधुनिकता के संबंध में महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए गए हैं ।।
2- भाषा की आधुनिकता के वास्तविक आशय का बोध कराया गया है ।।
3- भाषा-संस्कृत के तत्सम शब्दों से युक्त ।।
4- शैली- विवेचनात्मक ।। WWW.UPBOARDINFO.IN

2- निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) रमणीयता और नित्य नूतनता अन्योन्याश्रित हैं ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक “गद्य गरिमा” में संकलित ‘भाषा और आधुनिकता” नामक निबन्ध से अवतरित है ।। इसके लेखक ‘प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी” जी है ।।

प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में सुन्दरता एवं नवीनता के पारस्परिक संबंध को स्पष्ट किया गया है ।।

व्याख्या-लेखक का कथन है कि साहित्यकारों द्वारा भाषा के प्रवाह, बोधगम्यता आदि की दृष्टि से भाषा में जितने भी नवीन प्रयोग किए जाते हैं, वे सभी भाषा के सौन्दर्य में वृद्धि कर देते हैं ।। इसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने का प्रयास, भाषा के क्षेत्र में अनेकानेक नवीनताओं का समावेश कर देता है ।। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि सुन्दरता एवं नवीनता दोनों ही एकदूसरे के पूरक अथवा एक-दूसरे पर आश्रित हैं ।। एक के विकास का प्रयास करते ही दूसरे का भी विकास होने लगता है ।।

(ख) भाषा समूची युग-चेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह WWW.UPBOARDINFO.IN

प्रसंग-प्रस्तुत सूक्ति में भाषा के महत्व की व्याख्या की गई है ।।

व्याख्या- हमारे अनुभव, विचार, मत, सिद्धान्त आदि सभी की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा ही है ।। समाज के उत्थान तथा विकास के साथ-साथ भाषा का भी विकास हो जाता है; क्योंकि परम्परागत लीक पर चलनेवाली भाषा जब जन-चेतना को गति देने में असमर्थ हो जाती है, तब नई चेतना और परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बदली हुई भाषा ही प्रेरणा का स्रोत बनती है ।। वस्तुतः भाषा ही वह तत्त्व है, जो युग की बदलती हुई चेतना को सशक्त रूप में व्यक्त कर पाती है ।। इस शक्ति को प्राप्त करने के लिए उसे युगानुरूप मुहावरों को ग्रहण करना होता है ।।

(ग) भाषा म्यूजियम” की वस्तु नहीं है, उसकी स्वतः सिद्ध एक सहज गति है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह WWW.UPBOARDINFO.IN
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्ति में लेखक ने भाषा की सजीवता, जीवन्तता और परिवर्तनशीलता को बनाए रखने पर बल दिया है ।।

व्याख्या- लेखक कहता है कि भाषा म्यूजियम में रखी जाने वाली अन्य प्राचीन वस्तुओं के समान ऐतिहासिक वस्तु नहीं है ।। म्यूजियम में प्राचीन व ऐतिहासिक महत्व की निष्प्राण वस्तुओं का संग्रह होता है ।। भाषा उन वस्तुओं की तरह निष्प्राण वस्तु नहीं है ।। उसमें परिवर्तनशीलता, नयापान, सजीवता आदि विशेष गुण होते हैं तथा युग के अनुरूप संस्कृति, विचारों और भावों को व्यक्त करने का स्वाभाविक गुण होता है ।। वह युग के प्रवाह के साथ आगे बढ़ती रहती है, यही भाषा की स्वाभाविक गति होती है ।।

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(घ) भाषा स्वयं संस्कृति का एक अटूट अंग है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति-वाक्य में संस्कृति एवं भाषा के सम्बन्ध की व्याख्या की गयी है ।।

व्याख्या-विद्वान् लेखक का कहना है कि प्रत्येक देश की भाषा का वहाँ की संस्कृति के साथ अटूट-सम्बन्ध होता है ।। भले ही संस्कृति का उद्भव परम्पराओं और मान्यताओं से होता है, फिर भी उसमें परिवर्तन होता रहता है ।। इसलिए उसमें गतिशीलता बनी रहती है ।। यह गतिशीलता विज्ञान के नए आविष्कारों के प्रभाव से आती है, क्योंकि भाषा के परम्परागत प्रयोग तब पर्याप्त नहीं होते तथा नए शब्दों और नई भाव-योजनाओं की आवश्यकता होती है ।। अतः भाषा में भी परिवर्तनशीलता और गतिशीलता का होना आवश्यक है ।।

(ङ) भाषा की साधारण इकाई शब्द है,शब्द के अभाव में भाषा का अस्तित्व ही दुरूह है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-लेखक ने बताया है कि शब्द के अभाव में भाषा का अस्तित्व अस्पष्ट रहता है ।।

व्याख्या-विद्वान् लेखक के कहने का आशय यह है कि किसी भाषा की साधारण इकाई शब्द होते हैं ।। शब्द ही वाक्य के अर्थ को स्पष्ट करते हैं ।। भाषा में यदि विकास की बात की जाती है तो वह विकास शब्दों के स्तर पर ही होता है ।। व्यक्ति को अपने भावों को व्यक्त करने के लिए जब किसी दूसरी भाषा से शब्द लेने पड़ते हैं; तो उन शब्दों को साहित्यिक शुद्धता प्रदान करनी पड़ती है तब वह वाक्य (शब्दों का समूह) हमारे भावों को प्रकट करने में समर्थ होता है ।। यदि शब्दों का साहित्यिक प्रयोग नहीं किया गया है तो शब्द की सार्थकता के अभाव में बाधा का अस्तित्व ही स्पष्ट हो जाएगा ।।

1- “भाषा और आधुनिकता” पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।

उत्तर – – ‘भाषा और आधुनिकता” निबन्ध में प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी” ने भाषा और आधुनिकता पर विशेष बल दिया है ।। इस लेख में लेखक ने वैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया है ।। लेखक कहते हैं कि भाषा का नवीनता ही उसकी सुन्दरता और रमणीयता का द्योतक है ।। जो वस्तु रमणीय होगी, वह नवीन भी होगी और जो नवीन होगी, उसमें रमणीयता भी रहेगी ।। नवीनता और रमणीयता एक-दूसरे पर आश्रित हैं ।। जिस प्रकार पिछड़ी हुई रूढ़ियों से ग्रस्त समाज प्रगति नहीं कर पाता, उसी प्रकार पुरानी रीतियों, परम्पराओं और शैलियों से जकड़ी हुई भाषा भी समाज में आदर प्राप्त नहीं कर पाती, क्योंकि वह युग के अनुरूप जन-चेतना उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाती है ।। नवीन विचारों और वैज्ञानिकता से परिपूर्ण भाषा ही समाज में प्रतिष्ठित हो सकती है ।।

सभ्यता संस्कृति और ज्ञान के विकास के फलस्वरूप जो वैचारिक, क्रान्ति होती है, जिसे हम युग चेतना के नाम से जानते हैं, उसकी सफल अभिव्यक्ति का एकमात्र सशक्त माध्यम भाषा ही है और कोई भी भाषा ऐसी सशक्तता तभी प्राप्त कर सकती है, जब वह अपने युग के अनुरूप सटीक, औचित्यपूर्ण नए मुहावरों को ग्रहण करे ।। लेखक रेड्डी जी कहते हैं कि भाषा का प्रमुख उद्देश्य समाज के भावों की अभिव्यक्ति को सरल बनाना ही है ।। इसके अलावा भाषा की अन्य कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती है ।। भाषा की उपयोगिता तभी सार्थक हो सकती है जब समसमायिक चेतना की अनेकों कठिनाइयों को दूर करके विचाराभिव्यक्ति कर सकें ।। यह कार्य तभी संभव है, जब भाषा विभिन्न संस्कृतियों अथवा जातियों के सम्पर्क में आने पर उनमें सम्बन्धित विभिन्न भाषाओं और बोलियों के शब्दों को सहज रूप से ग्रहण कर ले ।। WWW.UPBOARDINFO.IN

यदि इन नए शब्दों के लिए हमारी भाषा में कोई पर्यायवाची शब्द है तो हम उसका प्रयोग कर सकते हैं ।। परन्तु यदि उपयुक्त पर्यायवाची हमारी भाषा में न हो तो इसके लिए बलात् पर्यायवाची गढ़ने की आवश्यकता नहीं है और न ही उन शब्दों के प्रयोग से परहेज करना चाहिए ।। इससे किसी भाषा-भाषी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।। ये शब्द भाषा को नवीनता प्रदान करते हैं ।। लेखक कहते हैं कि भाषा म्यूजियम में रखे जाने वाली वस्तु नहीं है ।। इसमें नयापन, सजीवता आदि के गुण होते हैं तथा यह युग के प्रवाह के साथ आगे बढ़ती रहती है, यही भाषा की स्वाभाविक गति होती है ।। प्रो० रेड्डी कहते हैं कि भाषा संस्कृति का अभिन्न अंग है, क्योंकि संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा ही है ।। परम्पराएँ परिवर्तनशील होती है इसलिए संस्कृति भी कभी एक जैसी नहीं रहती, वह भी परम्पराओं की तरह बदलती रहती है ।। संस्कृति की गति को विज्ञान प्रगति के परिणामस्वरूप होने वाले नए अविष्कार और अधिक तेज कर देते हैं ।। हमें विज्ञानों के इन प्रयोगों और जीवन में आए बदलावों को व्याप्त करने के लिए नए शब्दों की खोज करनी पड़ती है ।।

लेखक कहते हैं कि यह एक विचारणीय प्रश्न है कि भाषा में ये परिवर्तन किस प्रकार किए जा सकते हैं? भाषा को युग के अनुकूल बनाने के लिए किसी व्यक्ति या समूह के प्रयास होने चाहिए या भाषा की गति इतनी स्वाभाविक है कि किसी प्रयत्न विशेष की आवश्यकता नहीं होती है ।। अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजी तथा बीसवीं शताब्दी में जापानी भाषा ने अपनी गति से नवीनीकरण की पद्धति को सम्पन्न बनाया ।। प्रत्येक भाषा के अपने विशेष लक्षण होते हैं, शब्द निर्माण, अर्थ आदि में उसका अलग रूप होता है ।। लेखक कहते हैं कि किसी भी भाषा के अर्थ को स्पष्ट करने की सामर्थ्य उसके शब्दों में होती है ।। अत: वे भाषा की इकाई होते हैं ।। यदि भाषा में विकास होता है तो वह शब्दों में परिवर्तन करके ही किया जा सकता है ।। WWW.UPBOARDINFO.IN

प्रतिदिन हम सामाजिक व्यवहार में अंग्रेजी, फारसी, अरबी आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करते हैं ।। दूसरी भाषाओं के शब्द प्रयोग अवश्य किए जाते हैं, लेकिन उनका रूप अविकृत होता है ।। साहित्यिक भाषा में उनका प्रयोग नहीं किया जाता ।। लेखक कहते हैं कि यह प्रश्न भी विचारणीय है कि भाषा के साहित्यिक शुद्धीकरण का दायित्व कौन ले? भारत सरकार ने हिन्दी भाषा के नवीनीकरण के लिए काफी प्रयास किए ।। सन् 1950 ई० में “शास्त्रीय एवं तकनीकी शब्दावली आयोग” की स्थापना की गई, जो विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र के लिए शब्दों का निर्माण कर रही है ।। “हिन्दी साहित्य सम्मेलन” जैसी संस्थाओं ने भी इस दिशा में कार्य किया ।। राहुल सांस्कृत्यायन और डॉ० रघुवीर जैसे विद्वानों ने भी इस दिशा में प्रयास किए ।। परन्तु अब तक इस दिशा में किए गए सभी प्रयास अपर्याप्त हैं क्योंकि ये प्रयास बाल्यावस्था से निकलकर परिपक्व रूप धारण नहीं कर सके ।। इन प्रयासों की प्रगति दो वर्ग के कारण बाधित होती है ।। प्रथम वे शुद्ध साहित्यिक दृष्टि के कारण उन पराए शब्दों को ग्रहण नहीं करते तथा दूसरे वे अपने विषय में पारंगत होने के कारण उन पराए शब्दों को अपने अनुरूप विकृत करके अपनी मातृभाषा में थोपते हैं ।। ।।

लेखक का मानना है कि यदि कोई विदेशी भाषा का शब्द अपने भावों को सम्प्रेषित करने में सक्षम है तो उसमें परिवर्तन नहीं करना चाहिए ।। आज विज्ञान की प्रगति के कारण नए-नए आविष्कार हो रहे हैं ।। जिन देशों में ये आविष्कार होते हैं, वे अपनी .भाषा के अनुसार इन आविष्कारों का नामकरण कर देते हैं, यदि प्रत्येक देश अपनी भाषा में इन वस्तुओं का नामकरण करने लगे तो उन्हें समझनने में पर्याप्त कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाएँगी ।। इसलिए सभी भाषाओं में इन आविष्कारों के लिए एक ही शब्द प्रयुक्त किया जाता है ।। फ्रेंच और लैटिन भाषाओं में अंग्रेजी के ऐसे बहुत से शब्दों तथा अंग्रेजी ने रूसी शब्दों को अपना लिया है ।। कभी-कभी एक ही भाव होने पर भी उनकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती इसके लिए उन शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है ।।

विद्वान लेखक रेड्डी जी कहते हैं कि नवीनीकरण के फेर में पड़कर भाषा की स्पष्टता नष्ट नहीं होनी चाहिए; क्योंकि भावों को व्यक्त करना ही भाषा का मुख्य कार्य है ।। जिसे भाषा के शब्द अपना मूल अर्थ स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर सकते, ऐसी भाषा अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकती ।। नए शब्दों के निर्माण में भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यदि दूसरी भाषा के शब्द हमारे भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति में सक्षम हैं तो हमें उन्हें नि:संकोच ग्रहण कर लेनी चाहिए ।। यदि हम यह सोचे कि अंग्रेजी भाषा से परतन्त्रता की गन्ध आती है अथवा अरबी-फारसी के शब्दों से इस्लाम का वर्चस्व स्थापित होता है, इसलिए हमें इन भाषाओं के शब्दों को त्यागकर नए शब्दों का निर्माण करना चाहिए, तो हमें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि ऐसा करने से हमारी भाषा की सहजता तथा स्वाभाविकता समाप्त हो जाएगी ।। WWW.UPBOARDINFO.IN

यह नवीनीकरण सिर्फ कुछ विद्वानों तथा आचार्यों तक ही सीमित नहीं हैं अपितु यह नवीनीकरण भाषा के प्रयोग से हैं ।। यदि ये शब्द अपने उद्गम स्थल पर ही स्थित रहे और इनका प्रयोग न हो, तो इन शब्दों के निर्माण का उद्देश्य पूरा नहीं होगा ।। किसी भाषा में आधुनिकता का समावेश तभी हो सकता है, जब उसमें नए-नए जन प्रचलित शब्दों, मुहावरों तथा लोकोक्तियों को सामाहित कर लिया जाए ।। इससे भाषा व्यावहारिक हो जाती है, और भाषा का व्यावहारिक होना ही उसकी आधुनिकता है ।। भाषा के नए शब्दों को व्यवहार में लाकर ही इसे आधुनिक रूप दिया जा सकता है क्योकि किसी भी भाषा का प्राण तत्व उसकी व्यावहारिकता ही है ।। ये नए शब्द सभी पाठ्यपुस्तकों तथा साहित्यिक पुस्तकों, शिक्षित व अशिक्षित सभी के द्वारा प्रयुक्त होने चाहिए ।। जब हम भाषा को अपने जीवन में प्रयुक्त करेंगे तो स्वत: ही भाषा में आधुनिकता आ जाएगी ।।

2- लेखक का भाषा की आधुनिकता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर – – लेखक का भाषा की आधुनिकता से तात्पर्य उन नए-नए जन प्रचलित शब्दों, मुहावरों तथा लोकोक्तियों को भाषा में समाहित कर लेने से है ।। जिनसे भाषा व्यावहारिक हो जाती है, क्योकि किसी भी भाषा का व्यावहारिक होना भी उसकी आधुनिकता है ।।

3- शब्दों के अभाव में भाषा का अस्तित्व कैसे स्पष्ट है?
उत्तर – – शब्द ही भाषा के अर्थ को स्पष्ट करते हैं, वे भाषा की इकाई होते हैं ।। शब्दों के अभाव में भाषा की कल्पना करना दुरूह ही नहीं अपितु असम्भव है ।। किसी भी भाषा का विकास शब्द के स्तर से ही आरम्भ होता है इसलिए शब्दों के अभाव में भाषा का अस्तित्व अस्पष्ट होता है ।।

4- “भाषा और आधुनिकता” निबन्ध में हिन्दी भाषा की उन्नति के क्या उपाय बताए गए हैं?
उत्तर – – हिन्दी भाषा की उन्नति के लिए अनेक लोगों ने प्रयत्न किए हैं ।। भारत सरकार ने हिन्दी भाषा की उन्नति के लिए सन् 1950 में “शास्त्रीय एवं तकनीकी शब्दावली आयोग” की स्थापना की, जो विज्ञान की हर शाखा के लिए योग्य शब्दावली का निर्माण करता है ।। “हिन्दी साहित्य सम्मेलन” जैसी ऐच्छिक संस्थाओं ने भी हिन्दी भाषा की उन्नति की दिशा में कार्य किए हैं ।। राहुल सांस्कृत्यायन तथा डॉ० रघुवीर सिंह जैसे विद्वानों ने भी हिन्दी को गतिशील बनाने के प्रयास किए हैं ।।

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