UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 12TH SAMANY HINDI CHAPTER 5 SANNATA सन्नाटा

1- सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन “अज्ञेय” का जीवन परिचय देते हुए इनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए ।।
अथवा
अज्ञेय जी का साहित्यिक परिचय दीजिए ।।
उत्तर – – जीवन परिचय- डॉ० सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन “अज्ञेय” का जन्म 7 मार्च सन् 1911 ई० को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसया (कुशीनगर) नामक स्थान पर हुआ था ।। ये बचपन से ही प्रतिभाशाली थे ।। “अज्ञेय” इनका उपनाम था तथा वास्तविक नाम था- “सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन” ।। इनके पिता का नाम हीरानन्द शास्त्री था, जो मूल रूप से भणोत सारस्वत ब्राह्मण थे ।। इनके पिता भारत के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता थे; अत: बचपन से ही अज्ञेय जी पर्वतों व वनों में निहित पुरातत्व अवशेषों के बीच रहे; जिस कारण परिवार से इन्हें अलग रहना पड़ा और इन्हें एकान्त ही प्रिय लगने लगा ।। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई ।। घर पर ही इन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व फारसी आदि भाषाओं का अध्ययन किया ।। सन् 1929 ई० में विज्ञान विषय में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करके ये अंग्रेजी साहित्य से स्नातकोत्तर उपाधि के लिए अध्ययन कर रहे थे कि क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन्हें सन् 1930 से 1934 ई० तक जेल में रहना पड़ा ।। तत्पश्चात् एक वर्ष तक घर पर ही नजरबन्दी में समय व्यतीत करना पड़ा लेकिन इन्होंने अपना साहित्य-सृजन का क्रम जारी रखा ।। जेल में ही इनका नाम “अज्ञेय” रखा गया ।।
सन् 1943 ई० में प्रथम ‘तार सप्तक” का सम्पादन करके काव्य-जगत में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया ।। सन् 1943 ई० से 1946 ई० तक इन्होंने सेना में सेवा की ।। इन्होंने सन् 1955 ई० में यूरोप तथा 1957 ई० में जापान और पूर्वी एशिया का भ्रमण किया ।। कुछ समय तक ये अमेरिका में भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्राध्यापक रहे ।। जोधपुर विश्वविद्यालय में “तुलनात्मक साहित्य तथा भाषा अनुशीलन विभाग के निदेशक रहे ।। साप्ताहिक समाचार-पत्र “दिनमान” के प्रथम सम्पादक भी रहे ।। इन्होंने दिल्ली से “नया प्रतीक” भी निकाला ।। 4 अप्रैल सन् 1987 ई० को यह गरिमामयी व्यक्तित्व पंचतत्वों में विलीन हो गया ।। मरणोपरान्त “अज्ञेय” जी को “ज्ञानपीठ पुरस्कार” से सम्मानित किया गया ।। अज्ञेय जी ने साहित्य की विविध विधाओं (उपन्यास, समीक्षा-ग्रन्थ, निबन्ध, कहानी, यात्रा-साहित्य, नाटक काव्य) को अपनी लेखनी से समृद्ध किया ।। कहानी की परिभाषा देते हुए अज्ञेय जी ने कहा है- “कहानी जीवन की प्रतिच्छाया है और जीवन स्वयं एक अधूरी कहानी, एक शिक्षा है, जो उम्र भर मिलती है और समाप्त नहीं होती ।। “
कृतियाँ- अज्ञेय जी की कृतियाँ इस प्रकार हैं
निबन्ध संग्रह- लिखि कागद कोरे, हिन्दी साहित्य एक आधुनिक परिदृश्य, सब रंग और कुछ राग, त्रिशंकु, आत्मनेपद ।। .
कहानी- हरसिंगार, कड़ियाँ, रेल की सीटी, खितीन बाबू, अमर-वल्लरी, हजामत का साबुन, पठार का धीरज,रोज, शरणार्थी, सिगनेलर, मैना, गैंगरीन, कोठरी की बात, विपथगा, परम्परा, जयदोल, तेरे ये प्रतिरूप ।। यात्रा वृतान्त- एक बूंद सहसा उछली, अरे यायावर रहेगा याद ।। नाटक- उत्तर प्रियदर्शी ।। संस्मरण- स्मृति लेख ।। उपन्यास- शेखरः एक जीवनी, अपने-अपने अजनबी, नदी के द्वीप ।। समीक्षा- तार-सप्तकों की भूमिकाएँ ।। काव्य-कृतियाँ- इत्यलम्, बावरा अहेरी, हरी घास पर क्षण भर, सुनहले शैवाल, इन्द्रधनुष रौंदे हुए से, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, अरी ओ करुणा प्रभामय, पूर्वा ।।
2- अज्ञेय जी की भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइए ।।
उत्तर – – भाषा-शैली- अज्ञेय जी की भाषा में विविधता है ।। इन्होंने अपनी रचनाओं में विभिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है ।। भाषा की दृष्टि से अज्ञेय जी ने सदैव जीवन्त एवं समर्थ शब्दों का प्रयोग किया है ।। इन्होंने शब्दों के प्रयोग में मितव्ययिता का दृष्टिकोण अपनाया है और एक ही शब्द को कई नए अर्थ में भी प्रयुक्त किया है ।। अज्ञेय जी ने अपनी अधिकांश रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया है, जो शब्दों की अभिव्यंजना-शक्ति की समर्थता के कारण सारगर्भित दृष्टिगोचर होती है ।। यद्यपि इनकी भाषा में एक-दो सामान्य उर्दू के शब्द भी दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु उनकी उपस्थिति नगण्य ही है ।। अज्ञेय जी ने अपनी भाषा में अनेक स्वनिर्मित शब्द-युग्मों का प्रयोग किया है और इस प्रयोग से अपनी भाषा की अभिव्यक्ति-क्षमता को एक नया रूप प्रदान कर नई शक्ति से भर दिया है ।।
अज्ञेय जी की शैली में बौद्धिकता की अधिकता है ।। उन्होंने शैली पर आधारित अनेक प्रयोग भी किए हैं ।। इन्होंने आलोचनात्मक शैली का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है ।। इस शैली की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है ।। इनकी अन्य शैलियों की अपेक्षा यह शैली दुरूह और गम्भीर है ।। इस शैली में बीच-बीच में सूक्तियों का प्रयोग भी किया गया है ।। इन्होंने कुछ विषयवस्तुओं और स्थानों का परिचय विवरणात्मक शैली में भी दिया है ।। इस शैली के वाक्य छोटे-छोटे व सरल हैं ।। “एक बूंद सहसा उछली” और “अरे यायावर रहेगा याद” आदि में इनकी इस शैली के दर्शन किए जा सकते हैं ।। अज्ञेय जी ने अपने निबन्धों में नाटकीय संवादों का भी भरपूर प्रयोग किया है ।। इससे रोचकता बढ़ने के साथ-साथ भाषा बड़ी प्रभावशाली हो गई है ।। कवि-हृदय के कारण अज्ञेय जी के गद्य में भावात्मक शैली का प्रयोग नजर आता है ।। भावात्मक स्थलों पर लक्षणा शक्ति का प्रचुर प्रयोग हुआ है ।। अज्ञेय जी ने अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत के उद्धरणों का प्रयोग भी यहाँ-वहाँ किया है ।। कई बार तो लेख का आरम्भ ही उद्धरणों से किया गया है ।। इससे इनकी उद्धरण शैली के बारे में पता चलता है ।। अज्ञेय जी ने अपने लेखन में व्यंग्यात्मक शैली का भी कहीं कहीं प्रयोग किया है ।।
1- निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) असल में सन्नाटा ………………………………………………………………… आवाज होती है ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्यपुस्तक “गद्यगरिमा” में “सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन “अज्ञेय” जी द्वारा लिखित “सब रंग और कुछ राग” निबन्ध संग्रह से ‘सन्नाटा” नामक निबन्ध से अवतरित हैं ।। WWW.UPBOARDINFO.IN
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने सन्नाटे की नीरवतता में भी स्वर के गुणों का वर्णन किया है ।।
व्याख्या-लेखक अज्ञेय जी सन्नाटे का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वास्तव में सन्नाटा अत्यधिक आवाज से रहित होना नहीं होता, सन्नाटा तो शब्द का ही एक गुण है ।। आप मान सकते हैं कि मौन का जो स्वर होता है वही सन्नाटे की गति होती है अर्थात् जब व्यक्ति या वातावरण में सन्नाटा होता है तब भी वहाँ एक स्वर होता है, चाहे वह सूक्ष्म ही क्यों न हो ।। लेखक अज्ञेय जी कहते हैं कि यह कोई विरोध नहीं है कि सन्नाटे में स्वर होता है, क्योंकि जिस प्रकार स्वर के क्षेत्र में सन्नाटा होता है, उसी तरह दूसरी इन्द्रियों के क्षेत्र में भी होता ।। वे स्वाद का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि अगर किसी चीज में कोई स्वाद नहीं होता है तो हम कहते हैं कि अमुक वस्तु का स्वाद फीका है ।। लेकिन यह विचारणीय विषय है कि क्या वास्तव में स्वादहीन वस्तु फीकी होती है? लेखक कहते हैं कि जिस प्रकार पानी स्वादहीन होता है- पर उसे हम फीका नहीं कहते ।। अगर हम कभी विशेष पानी को फीका कहते हैं तो केवल तब जब उसमें कोई विशेष स्वाद मिश्रित हो, अगर उसमें वह स्वाद न हो तो हम उसे फीका कह सकते हैं क्योंकि हम उसमें विशेष स्वाद की कमी को फीका कहेंगे ।। जिस तरह से स्वाद में फीकापन भी स्वाद का एक गुण है उसी प्रकार सन्नाटा भी स्वर का ही एक गुण है, जिसकी एक विशेष आवाज होती है ।।
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साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- सजीव, प्रवाहपूर्ण खड़ीबोली ।। 2- शैली- विवेचनात्मक ।। 3- इसमें लेखक ने सन्नाटे की विशेषता या गुणों का वर्णन किया है ।।
(ख) भाषा बुद्धि का…………………………………….…………..समा नहीं सकती ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने स्पष्ट किया है, कि मनुष्य किसी वस्तु का पूर्ण नकार स्वीकार नहीं करता इसलिए वह अँधेरे का रंग भी “काला” बताता है, जब कि अँधेरे का कोई रंग नहीं होता ।।
व्याख्या- भाषा एक ऐसा साधन है, जिसे बुद्धि अपने प्रयोग में लाती है ।। मनुष्य भाषा द्वारा ही अपने अनुभवों भावों और विचारों को व्यक्त करता है और अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाता है ।। किसी वस्तु का वर्णन भाषा द्वारा ही किया जाता है ।। कभी-कभी भाषा का त्रुटिपूर्वक प्रयोग भी किया जाता है ।। हम न जाने किस प्रभाव के कारण सन्नाटा शब्द का अर्थ गलत रूप से ग्रहण करते हैं ।। अँधेरे का रंग न होने पर भी हम उसे “काला” कहते हैं ।। लेखक कहता है कि यदि हम इन प्रयोगों को ध्यान से देखें तो पाएँगें कि यह भाषा का गलत प्रयोग नहीं है ।। सत्यता यह है कि मनुष्य बुद्धि या तर्क को प्रधानता देता है; अत: वह पूर्ण नकार से डरता है, उसे स्वीकार करना नहीं चाहता मनुष्य तर्क-वितर्क करके ही किसी बात को स्वीकार करता है ।। वह जानता है कि किसी वस्तु को पूर्ण रूप से नकार देने पर उसका किसी-न-किसी रूप में अस्तित्व हो सकता है ।। अतः वह पूर्ण नकार को स्वीकार करने से बचता है ।। सोचता है कि सम्पूर्ण नकार है तो वह विराट् निराकार परम ब्रह्म है, जिसका ऐश्वर्य मनुष्य की कल्पना से परे है ।।
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साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा- परिमार्जित और परिष्कृत खड़ी बोली ।। 2- शैली- विवेचनात्मक ।।
3- मानव तर्कजीवी और बुद्धिजीवी प्राणी है, फिर भी वह किसी वस्तु को पूर्ण रूप से नकार नहीं सकता ।। (
ग) नकार का अपना……………………………………………. वही तो परमात्मा है!
सन्दर्भ- पहले की तरह WWW.UPBOARDINFO.IN
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक का मानना है कि सम्पूर्ण नकार हमारी कल्पना से परे है और वही ईश्वर है ।। लेखक की मान्यता है कि यदि सम्पूर्ण नकार है तो वह विराट निराकार परम ब्रह्म हैं, जिसका ऐश्वर्य मनुष्य की कल्पना से परे है ।।
व्याख्या- लेखक की मान्यता है कि यदि सम्पूर्ण नकार है तो वह विराट् निराकार ब्रह्म है, जिसका विराट् ऐश्वर्य मनुष्य की कल्पना से परे है; अर्थात् सम्पूर्ण नकार का विराट् ऐश्वर्य; मनुष्य की वाणी तथा कल्पना का विषय नहीं है ।। इसीलिए ईश्वर के सभी विशेषण नकारात्मक हैं; यथा- अनादि (जिसका आदि नहीं), अनन्त (जिसका अन्त नहीं), अगम (जिस तक पहुँचा नहीं जा सकता); अरूप (जो रूपरहित है), असीम (जो सीमारहित है) तथा अप्रमेय (जो विचार से परे है ।। ) यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी जिस परमात्मा के विषय में बताते-बताते अन्त में “यह नहीं, यह नहीं” कह देते हैं, वह निराकार परम ब्रह्म ही तो है ।। “नेति-नेति” कहना ईश्वर की परिभाषा की पराजय नहीं, अपितु यही उस परमात्मा की पूरी परिभाषा है; क्योंकि सत्य यही है कि सम्पूर्ण नकार अर्थात् परमात्मा हमारी वाणी और कल्पना में नहीं समा सकता, वह तो हमारी पहुँच से परे हैं ।। आशय यह है कि जो हमारी पहुँच से परे है, वहीं परमात्मा है ।।
साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- सजीव, प्रवाहपूर्ण एवं संस्कृतनिष्ठ ।।
2- शैली- विचारात्मक ।।
3- वाक्य-विन्याससुगठित ।।
5- लेखक के विचार से सम्पूर्ण नकार (ईश्वर) का स्वरूप विराट् है ।। वह मनुष्य की कल्पना में नहीं समा पाता है ।।
(घ) स्थिति-वैचित्र्य…………………………………… विश्वास नहीं होता ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने इन्द्रिय-ज्ञान की उपेक्षा करने के कारण प्रगतिवादी कवियों पर तीक्ष्ण व्यंग्य किया है ।।
व्याख्या- लेखक के अनुसार यदि स्थितियाँ भिन्न-भिन्न हों तो पूरा समाज उसे अलग-अलग प्रकार से अनुभव करता है, परन्तु देखने में यह भी आता है कि एक ही स्थिति में भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव करने लगते हैं ।। ध्वनि का उदाहरण देते हुए लेखक कहता है कि प्रत्येक शब्द में ध्वन्यात्मकता छिपी होती है तथा उस ध्वनि का प्रभाव व्यक्ति पर अवश्य होता है ।। वह उससे बच नहीं पाता है और तभी नवीन शब्दों का निर्माण होता है ।। लोग अपनी रुचि या अनुभूति के अनुसार शब्दों का निर्माण कर लेते हैं; जैसे- पानी का जो शब्द होता है, उसे सभी ‘कल-कल” ध्वनि के नाम से सुनते हैं ।। वाल्मीकि से लेकर कालिदास तक और कालिदास से लेकर हिन्दी के छायावादी कवियों तक सभी ने पानी की ध्वनि को “कल-कल” रूप में ही सुना है और “कल-कल” शब्द के रूप में ही व्यक्त भी किया है ।। लेकिन प्रयोगवादी कवियों या लेखकों ने प्रकृति की ध्वनि को सुना और उस ध्वनि को काल्पनिक मानकर सुनने से इंकार कर दिया; क्योंकि वे इसे छायावादी कवियों की कल्पना की उपज मानते थे ।। वे सम्भवतः मानव की समस्त क्रियाओं को बन्द कारखाने के समान मान बैठे थे और उन्होंने इन्द्रिय संवेदनाओं से अपने को आश्चर्यजनक ढंग से दूर ही कर लिया था ।।
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साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा- परिमार्जित खड़ी बोली ।।
2- शैली- विवेचनात्मक और व्यंग्यात्मक ।।
3- वाक्य-विन्याससुगठित ।। 4- शब्द-चयन- विषय के अनुरूप ।।
5- लेखक ने प्रकृति से प्राप्त इन्द्रिय-ज्ञान को मानव के लिए आवश्यक बताया है ।।
6- इन्द्रिय-ज्ञान की उपेक्षा करने से मनुष्य का मन अपंग हो जाता है ।।
7- मन इन्द्रियों के द्वारा ही सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है ।।
8- प्रगतिवादी कवियों ने प्रकृति-वर्णन की जो उपेक्षा की है, लेखक ने उस पर तीक्ष्ण व्यंग्य किया है ।। .
(ङ) और शायद सन्नाटे……,……………………………………………. हुई मुक्त हवा ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने सन्नाटे की ध्वनि का सूक्ष्म विवेचन किया है ।।
व्याख्या- लेखक कहता है कि जब सन्नाटा होता है, उस समय हमें “साँय-साँय की जो ध्वनि सुनाई पड़ती है वह अपने भीतर की आवाज ही होती है ।। तो हमारे शरीर की नसों में जो रक्त निरन्तर दौड़ता रहता है, उसकी भी गूंज होती है ।। सन्नाटे के समय हम उसी रक्त-प्रवाह की गूंज को साँय-साँय” के रूप में सुनते हैं ।। सीपी में भी हम सागर की ध्वनि सुनते हैं, वास्तव में यह ध्वनि सीपी में सागर की नहीं होती, वरन् अपने भीतर के रक्त प्रवाह की मन्द-मन्द ध्वनि है; जो हमें इस रूप में सुनाई देती है ।। लेखक कहता है कि सन्नाटे के क्षणों में हमें जो रक्त-प्रवाह की मन्द-मन्द ध्वनि सुनाई देती है, उसमें हमें “साँय-साँय” की अनुभूति होती है ।। कुछ लोग उस ध्वनि को ‘भाँय-भाँय” रूप में भी सुनते हैं, पर वे ऐसे लोग होंगे, जिनकी रक्त की धमनियाँ चूना जम जाने से पथरा गयी और उनमें रक्त के अधिक दबाव के कारण लचीलापन समाप्त हो गया हो ।। उन्हें ही रक्त के दौड़ने की ध्वनि ‘साँय-साँय” के स्थान पर ‘भाँय-भाँय” सुनाई पड़ती है ।। जैसा कि लोहे के पाइप में किसी द्रव के बहने से ध्वनि होती है, ऐसे लोगों को रक्त-प्रवाह की ध्वनि पेड़ों की पत्तियों में सनसनाती मुक्त हवा की तरह नहीं सुनाई पड़ती उन्हें साँय-साँय की जगह ‘भाँय-भाँय” ध्वनि सुनाई पड़ती है ।।
साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- सरल खड़ी बोली ।। 2- शैली- विवेचनात्मक ।। 3- लेखक ने “साँय-साँय को “भाँय-भाँय”
सुनने वालों के प्रति कटाक्ष किया है ।। 4- सन्नाटे के क्षणों में रक्त प्रवाह की गूंज ही “साँय-साँय” सुनाई पड़ती है ।।
2- निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) सन्नाटा आत्यन्तिक रवहीनता नहीं है ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘गद्यगरिमा” में संकलित ‘सन्नाटा” नामक निबन्ध से अवतरित है ।। इसके लेखक “सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय” जी हैं ।। WWW.UPBOARDINFO.IN
व्याख्या – प्रस्तुत सूक्ति में लेखक कहता है कि सन्नाटे का अर्थ पूर्ण रूप से ध्वनि का अभाव नहीं है, वरन् यह तो शब्द का ही एक गुण है ।। सन्नाटा ध्वनि के क्षेत्र में नकारात्मक अवश्य प्रतीत होता है, किन्तु सूक्ष्म ध्वनियों के द्वारा हम उसकी अनुभूति करते हैं ।। ध्वनि के क्षेत्र में सन्नाटे का वही भाव होता है, जो अच्छे स्वच्छ जल में स्वादहीनता का, किन्तु उसे तो हम कभी फीका नहीं कहते ।। इसी प्रकार सन्नाटे की भी अपनी सूक्ष्म ध्वनि होती है, जो व्यक्ति और स्थिति की भिन्नता के कारण अनेक प्रकार की ध्वनियों (सू-सू, साँय-साँय, भाँय-भाँय, हाऊँ-हाऊँ) के रूप में सुनाई पड़ती है जहाँ कोई शब्द नहीं होता है, वहाँ प्राकृतिक ध्वनि नीरवता को समाप्त कर देती है ।।
(ख) अँधेरा प्रकाश की एकान्त अनुपस्थिति है, और रंग क्योंकि प्रकाश का गुण है, इसलिए अँधेरे का कोई भी रंग नहीं हो सकता ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में अँधेरे और काले रंग की वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण से विवेचना की गयी है ।।
व्याख्या- यहाँ लेखक ने कहा है कि जहाँ प्रकाश की अनुपस्थिति होती है, वहीं अँधेरा होता है ।। यदि प्रकाश न हो तो हमें कोई रंग दिखाई नहीं देगा; क्योंकि रंग प्रकाश का ही गुण है ।। इसीलिए जहाँ प्रकाश न हो, वहाँ कोई रंग नहीं होता, परन्तु हम कहते हैं कि काला अँधेरा है ।। इस प्रकार काला भी रंग नहीं है, वरन् रंग की अनुपस्थिति को ही हम काला कह देते हैं ।।
(ग) भाषा बुद्धि का एक उपकरण है ।। WWW.UPBOARDINFO.IN
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में सन्नाटा के प्रसंग में “भाषा” तत्व पर विचार हुआ है ।।
व्याख्या-विद्वान लेखक ने कहा है कि भाषा का प्रयोग हम अपनी बुद्धि के अनुसार करते हैं ।। इसके माध्यम से अपने मनोभावों और विचारों को दूसरों तक पहुँचाते हैं और दूसरों के भावों तथा विचारों को समझते हैं, किन्तु भाषा में शब्द होते हैं और शब्द ध्वनियों से बनते हैं, जब कि सन्नाटा में ध्वनि की प्रतीति नहीं होती, परन्तु फिर भी वह मौन की अभिव्यक्ति करता है ।। वस्तुतः यह शब्द का ही एक गुण है, जो शब्द को गति देता है ।। जिस प्रकार लिखने का साधन कलम है, उसी प्रकार बुद्धि द्वारा चिन्तन को व्यक्त करने का साधन भाषा है ।। यही कारण है कि लेखक ने भाषा को बुद्धि का उपकरण माना है ।।
(घ) सम्पूर्ण नकार कुछ है कुछ बहुत बड़ा, कुछ विराट है ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में “नकार” के माध्यम से ईश्वर की सत्ता को मानवेन्द्रिय से परे की वस्तु बताया गया है ।। WWW.UPBOARDINFO.IN
व्याख्या- लेखक का मत है कि मनुष्य नकारात्मक परमात्मा की महानता की कल्पना भी नहीं कर सकता ।। उसकी विराटता की कल्पना करना उसकी सामर्थ्य से परे की बात है ।। यही कारण है कि ईश्वर की विराटता को व्यक्त न कर सकने के कारण उसके सारे विशेषण नकारात्मक हैं; जैसे- अगम, अगोचर, असीम आदि ।। इसी प्रकार किसी वस्तु को पूर्ण रूप से नकारने पर उसका स्वरूप इतना विराट हो जाता है कि उसे मानव-बुद्धि समझ पाने में ही असमर्थ हो जाती है ।।
(ङ) स्थिति-वैचित्र्य तो पूरे समाज को प्रभावित करता है ।। पर व्यक्ति-वैचित्र्य का भी असारहोसकता है ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में प्रगतिवादी कवियों के व्यक्तित्व तथा उनकी अनुभूति की भिन्नता का विश्लेषण किया गया है ।। इस सूक्ति के द्वारा प्रगतिवादी कवियों पर कटाक्ष किया गया है ।।
व्याख्या- लेखक ने स्पष्ट किया है कि स्थिति की भिन्नता को तो सम्पूर्ण समाज भिन्न-भिन्न रूप में ही अनुभव करता है, परन्तु कभी-कभी अनुभव करने वाले व्यक्तियों की भिन्नता एक ही स्थिति को भिन्न-भिन्न अनुभूतियों में ढाल देती है ।।
प्रगतिवादी कवियों का व्यक्तित्व भी पूर्व काल के कवियों से भिन्न है, इसलिए उनकी अनुभूति भी भिन्न है ।।
1- सन्नाटा पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।
उत्तर – – “सन्नाटा” निबन्ध ‘सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय” जी के निबन्ध-संग्रह ‘सब रंग और कुछ राग” से संकलित है ।। लेखक ने इस निबन्ध में सन्नाटा शब्द को परिभाषित किया है कि सन्नाटा शब्द का ही गुण है ।। इसमें एक स्वर होता है, भले ही वह स्वर सूक्ष्म ही क्यों न हो ।। लेखक कहते हैं कि सन्नाटे का अर्थ पूर्ण रूप से ध्वनि का अभाव नहीं है, वरन् शब्द का ही एक गुण है ।। सूक्ष्म ध्वनियों के द्वारा हम सन्नाटे की अनुभूति करते हैं ।। ध्वनि के क्षेत्र में सन्नाटे का वही भाव होता है, जो अच्छे स्वच्छ जल में स्वादहीनता का, किन्तु उसे तो हम कभी फीका नहीं कहते ।। इसी प्रकार सन्नाटे की भी अपनी सूक्ष्म ध्वनि होती है, जो व्यक्ति और स्थिति की भिन्नता के कारण अनेक प्रकार की ध्वनियों के रूप में सुनाई पड़ती है ।। लेखक कहते हैं कि जहाँ प्रकाश की अनुपस्थिति होती है, वहीं अँधेरा होता है ।। यदि प्रकाश न हो तो हमें कोई रंग नहीं दिखाई पड़ता, क्योकि रंग प्रकाश का एक गुण है ।। इसलिए जहाँ प्रकाश न हो, वहाँ कोई रंग नहीं होता, परन्तु हम अँधेरे को काला कहते हैं ।।
लेखक कहते हैं कि हम जानते हैं कि अँधेरा नीला और भूरा किसी अवर्णनीय रंग का धुंधला भी हो सकता है ।। लेखक अपने निजी अनुभव के आधार पर बताते हैं कि जब हमारी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है तो हमें उस अँधेरे में भी लाल, पीला, हरा आदि रंग दिखाई देते हैं ।। लेखक कहते हैं कि भाषा एक ऐसा साधन है, जिसे बुद्धि अपने प्रयोग में लाती है ।। मनुष्य भाषा के माध्यम से ही अपने भावों और विचारों को व्यक्त करता है और अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाता है ।। परन्तु कभी-कभी भाषा का त्रुटिपूर्वक प्रयोग भी किया जाता है ।। हम सन्नाटा शब्द का अर्थ गलत रूप में ग्रहण करते हैं ।। अँधेरे का रंग न होने पर भी उसे काला कहते हैं ।। सत्यता यह है कि मनुष्य बुद्धि या तर्क को प्रधानता देता है ।। मनुष्य तर्क-वितर्क करके ही किसी बात को स्वीकार करता है ।। वह सोचता हैं कि किसी वस्तु को पूर्ण रूप से नकार देने पर उसका किसी-न-किसी रूप में अस्तित्व हो सकता है इसलिए वह पूर्ण नकार करने से बचता है ।। यदि सम्पूर्ण नकार है तो वह विराट निराकार परम ब्रह्म है, जिसका ऐश्वर्य मनुष्य की कल्पना से परे है अर्थात् सम्पूर्ण नकार का विराट ऐश्वर्य मनुष्य की वाणी और कल्पना का विषय नहीं है ।। इसलिए ही ईश्वर को सभी नकारात्मक विशेषणों अनादि, अनन्त, अगम, अगाध, अरूप, असीम, अप्रमेय आदि से पुकारा जाता है ।। यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी जिस परमात्मा के विषय में बताते-बताते अन्त में “यह नहीं, यह नहीं कह देते हैं, वह निराकार ब्रह्म ही तो है ।। यह ईश्वर की पराजय नहीं, अपितु परमात्मा की पूरी परिभाषा है क्योंकि परमात्मा हमारी कल्पना और वाणी में नहीं समा सकता ।। WWW.UPBOARDINFO.IN
“सन्नाटा” शब्द नीरवता की सन्-सन् ध्वनि से बना है ।। भारत में अलग अलग स्थानों पर इसे अलग-अलग ध्वनि में सुना जाता है ।। या ऐसा भी संभव हो सकता है अलग-अलग स्थानों के सन्नाटे के स्वर में भिन्नता हो सकती है ।। या हमारे कानों में भी अन्तर सम्भव है ।। शब्दों के निर्माण में उसकी ध्वनि महत्वपूर्ण स्थान रखती है ।। ध्वन्यनुसारी के शब्द प्रत्येक भाषा में है ।। जैसे गोली की आवाज में हम ठाँय शब्द सुनते हैं लेकिन अंग्रेजी में वह “बैंग या बॅक” हो जाता है ।। इसी प्रकार तोप की आवाज हमारे लिए धाँय, अंग्रेजी में बूम हो जाती है ।। इसी तरह रूनझन, गड़गड़ाहट, पानी की कल-कल की ध्वनि के लिए भी टिंकल, रम्बल, रसल आदि शब्द प्रयोग होते हैं ।। लेखक इन भेदों को देखकर पंजाबी का एक जन-गीत याद करता है ।। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन ध्वन्यनुसारी शब्दों में केवल भेद भी होता है, कुछ शब्दों में इनमें साम्य भी देखने को मिलता है ।। परन्तु इन शब्दों में यह साम्य और विभेद तुलना के लिए एक अच्छा विषय बन सकता है ।। लेखक कहता है कि यदि स्थितियाँ भिन्न-भिन्न हों तो पूरा समाज उसे भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव करता है, परन्तु यह संभव है कि एक ही स्थिति भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव करें ।। पानी के स्वर को सभी लोग कल-कल की ध्वनि से सुनते हैं, वाल्मीकि से लेकर कालीदास तथा सभी छायावादी कवियों ने इसे कल-कल के रूप में ही सुना था परन्तु . प्रगतिवादी कवियों या लेखकों ने प्रकृति की इस ध्वनि को नहीं सुना और उस ध्वनि को काल्पनिक मानकर सुनने से इनकार कर दिया ।। यदि प्रगतिवादी कवियों की तरह हम प्रकृति के रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, ध्वनि की उपेक्षा कर दे तो हमारा सामाजिक ज्ञान समाप्त हो जाएगा ।।
हमारी विचार शक्ति धीमी पड़ जाएगी ।। लेकिन सन्नाटा वास्तव में नकार ही है, जिसे हम उसके कुछ लक्षणों के द्वारा अनुभव कर सकते हैं ।। और यही मनोरंजक है कि कोई भी लक्षण नकारात्मक नहीं होता है अपितु सूक्ष्म होता है ।। जिस प्रकार हम सूक्ष्म को अपर्याप्त लक्षणों के द्वारा अनुभव करते हैं उसी प्रकार विराट को भी करते हैं ।। सन्नाटे को हम पूर्ण रूप से साक्षात नहीं जानते हैं अपितु इन छोटे-छोटे स्वरों के सहारे जानते हैं और उन स्वरों को सुनने में अपनी इच्छाओं तथा विचारों के अनुसार सुनते हैं ।। हम प्रभात के समय को शान्त सुहावना बताते हैं ।। परन्तु क्या वास्तव में प्रभात का समय शान्त होता है ।। प्रभात में इतने सारे स्वर होते हैं कि आप गिनने लगे तो चकित हो जाएंगे ।। भारत में सन्नाटे की स्थिति अगर होती है तो वह लगभग दोपहर के समय होती है जब हमारी शिथिल इन्द्रिया इस सन्नाटे की ध्वनि को अनसुनी कर देती है ।। लेखक कहता है कि सन्नाटे की साँय-साँय की जो ध्वनि हमें सुनाई पड़ती है वह वास्तव में हमारे भीतर की आवाज होती हैं ।। हमारे शरीर की नसों में दौड़ते हुए रक्त की भी एक गूंज होती है ।। उसी रक्त-प्रवाह की गूंज को हम सन्नाटे में साँय-साँय के रूप में सुनते हैं ।।
सीपी में सागर की ध्वनि भी हम इसी प्रकार सुनते हैं ।। कुछ लोग रक्त प्रवाह की ध्वनि को भाँय-भाँय के रूप में सुनते हैं, पर वे ऐसे लोग होंगे, जिनकी रक्त की धमनियाँ चूना जम जाने से पथरा गई हो और इनका लचीलापन समाप्त हो गया हो ।। लेकिन साँय-साँय और भाँय-भाँय के चक्कर में उलझने की कोई जरूरत नहीं है ।। ऐसे भेद जीवन की विचित्रता के लिए आवश्यक होते हैं ।। लेखक कहते हैं कि मेरा बोलना आपको बड़बड़ाना लगेगा ।। अगर आप कुछ बोलेगे, तो समझूगा व्यर्थ बोलते हैं और यदि मैं यह कह दूँगा तो आप नाराज हो जाएँगे और मैं चुप हो जाऊँगा ।। और फिर वही सन्नाटा होगा ।। लेकिन आप सन्नाटे का स्वर सुनिए और साँय-साँय है या कुछ और ।। ध्वन्यनुसारी शब्द किसे कहते हैं? समझाइए ।। ध्वन्यनुसारी शब्दों से तात्पर्य ध्वनि के अनुकरण पर बनने वाले शब्दों से है ।। ये शब्द अलग-अलग देशों में अलग-अलग होते हैं ।। जैसे गोली की आवाज हम सुनते हैं ठाँय, लेकिन अंग्रेजी में वह “बैंग” या “बॅक” हो जाता है ।। इसी प्रकार अलग-अलग देशों में अलग-अलग ध्वनि पर आधारित शब्दों को ध्वन्यनुसारी शब्द कहते हैं ।।
3- जिस तरह से स्वर के क्षेत्र में सन्नाटा नकारात्मक प्रतीत होता है, उसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के क्षेत्र में उदाहरण दीजिए ।।
उत्तर – – जिस तरह से स्वर में सन्नाटा नकारात्मक होता है उसी तरह स्वाद में फीकापन नकारात्मक होता है क्योंकि फीकापन भी एक स्वाद ही है ।। फीकापन का एक स्वरूप होता है ।। जब हम कोई वस्तु खाते हैं और उसके स्वाद में कमी महसूस करते हैं तो हम कह सकते हैं कि फीका है, परन्तु यह फीकापन ही उस वस्तु का स्वाद है ।। इसी प्रकार अन्य दूसरी इन्द्रिय जिसके द्वारा हम देखते हैं, उसमें भी नकारात्मक दृष्टिकोण प्रतीत होता है क्योंकि जहाँ प्रकाश की अनुपस्थिति होती है, वहीं अँधेरा होता है ।। यदि प्रकाश न हो तो हमें कोई रंग दिखाई नहीं देगा; क्योंकि रंग प्रकाश का ही गुण है ।। इसलिए जहाँ प्रकाश न हो, वहाँ कोई रंग नहीं होता, परन्तु हम कहते हैं कि काला अँधेरा है ।। इस प्रकार काला भी कोई रंग नहीं है, वरन् रंगों की अनुपस्थिति है ।।
4- जिस तरह से “सनसनाहट” “गड़गड़ाहट” शब्दों में आहट प्रत्यय का प्रयोग हुआ है ।। उसी प्रकार आहट” प्रत्यय से बने कुछ अन्यशब्द लिखिए ।।
उत्तर – – “आहट” प्रत्यय के योग से बने कुछ शब्द निम्नलिखित हैं
घबराहट, मुस्कुराहट, चहचहाहट, बड़बड़ाहट, सरसराहट, कड़कड़ाहट, तड़तड़ाहट, कुलबुलाहट, चिड़चिड़ाहट,
तमतमाहट, बिलबिलाहट, छटपटाहट, तड़पाहट आदि ।।
5- ईश्वर के सब विशेषण नकारात्मक कैसे हैं?
उत्तर – – ईश्वर के सब विशेषण नकारात्मक हैं क्योंकि इन सबसे ईश्वर की कल्पना मानव नहीं कर सकता, जैसे- अनादि (जिसका अंत नहीं), अनन्त (जिसका अंत नहीं), अगम (जिस तक न पहुँचा जा सके), अरु (जो रूपरहित हो), असीम (जो सीमारहित हो), तथा अप्रमेय (जो विचार से परे है ।। ) अर्थात इस सब विशेषणों के द्वारा उस परमात्मा के विराट ऐश्वर्य का मानव अपनी वाणी से वर्णन तथा कल्पना नहीं कर सकता ।। क्योंकि ये सब विशेषण मनुष्य की कल्पना से परे हैं जिनका गुणगान मनुष्य वाणी द्वारा संभव नहीं है ।।
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