UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 12TH SAMANY HINDI CHAPTER 1 RASHTRA KA SWAROOP राष्ट्र का स्वरूप

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1- वासुदेवशरण अग्रवाल का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का वर्णन कीजिए ।।

उत्तर – – प्रसिद्ध साहित्यकार वासुदेवशरण अग्रवाल का जन्म खेड़ा ग्राम, जिला मेरठ, उत्तर प्रदेश में सन् 1904 ई० में हुआ था ।। इनके माता-पिता लखनऊ में रहते थे, वहीं इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की ।। इन्होंने स्नातक की परीक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पास की तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर, पी.एच.डी. तथा डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की ।। ये लखनऊ स्थित पुरातत्व संग्रहालय में निरीक्षक के पद पर कार्यरत रहे ।। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के अध्यक्ष पद को भी इन्होंने सुशोभित किया ।। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारतीय महाविद्यालय में पुरातत्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष तथा कुछ समय आचार्य पद को भी इन्होंने सुशोभित किया ।। इन्होंने अंग्रेजी, पालि व संस्कृत भाषाओं का गहन अध्ययन किया ।। पालि, प्राकृत, संस्कृत व हिन्दी के कई ग्रन्थों का सम्पादन एवं पाठ शोधन भी किया ।। इनके द्वारा की गई मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पदमावत्” की टीका सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है ।। इन्होंने अपने प्रमुख विषय ‘पुरातत्व” से सम्बन्धित ज्ञान को अपने निबन्धों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी ।। यह महान् व्यक्तित्व सन् 1967 ई० में सदा के लिए इस नश्वर संसार से विदा हो गया ।।

कृतियाँ– डॉ० अग्रवाल ने निबंध रचना, शोध, अनुवाद, सम्पादन और सांस्कृतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है ।।
डॉ० अग्रवाल की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
निबन्ध संग्रह- भारत की एकता, कला और संस्कृति, वाग्धारा, कल्पवृक्ष, पृथ्वीपत्र, मातृभूमि, कल्पलता ।।
सम्पादन- पोद्दार, अभिनन्दन ग्रन्थ ।।
अनुवाद- हिन्दू सभ्यता ।।
शोध- पाणिनीकालीन भारत ।।
सांस्कृतिक अध्ययन- बाणभट्ट के हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन, भारत की मौलिक एकता ।।
समीक्षा- कालिदास के “मेघदूत” तथा मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत् ” की समीक्षा ।।

2- डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल की भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए ।।

उत्तर – – भाषा-शैली- वासुदेवशरण अग्रवाल अन्वेषक विद्वान थे; अतः इनकी भाषा-शैली में उत्कृष्ट पाण्डित्य के दर्शन होते हैं ।। इनकी भाषा शुद्ध और परिष्कृत खड़ी बोली है, जिसमें सुबोधता और स्पष्टता सर्वत्र विद्यमान है ।। इन्होंने अपनी भाषा में अनेक देशज शब्दों का प्रयोग किया है; जैसे- अनगढ, कोख, चिलकते आदि ।। इन शब्दों के प्रयोग से भाषा में सरलता और सुबोधता तो उत्पन्न हुई ही है, साथ ही उसमें व्यावहारिक भाषा का जीवन-सौष्ठव भी देखने को मिलता है ।। वासुदेवशरण अग्रवाल ने प्रायः पुरातत्व, दर्शन आदि को अपने लेखन का विषय बनाया है ।। विषयों की गहनता और गंभीरता के कारण इनकी भाषा में कहीं-कहीं अप्रचलित और क्लिष्ट शब्द भी आ गए हैं किन्तु भाषा का ऐसा रूप सभी स्थलों पर नहीं है ।। वासुदेवशरण अग्रवाल की भाषा मे उर्दू, अंग्रेजी आदि की शब्दावली, मुहावरों तथा लोकोक्तियों के प्रयोग प्रायः नहीं हुए हैं ।। इनकी भाषा में भाव-प्रकाशन की अद्भुत क्षमता है ।। इनकी प्रौढ़, संस्कृतनिष्ठ और प्रांजल भाषा में गंभीरता के साथ सुबोधता, प्रवाह और लालित्य विद्यमान है ।।


इनकी शैली में इनकी विद्वत्ता और व्यक्तित्व की सहज अभिव्यक्ति हुई है ।। इन्होंने प्रायः गम्भीर और चिन्तनपूर्ण विषयों पर लेखनी चलाई है; अतः इनकी शैली विचारप्रधान ही है ।। पुरातात्विक अन्वेषण से सम्बन्धित रचनाओं में इन्होंने गवेषणात्मक .शैली अपनाई है ।। इसमें वाक्य कहीं-कहीं लंबे हैं; कहीं-कहीं अप्रचलित एवं क्लिष्ट शब्दावली के प्रयोग से दुरूहता भी आ गई है ।। कठिन और अस्पष्ट प्रसंगों को सरलतापूर्वक स्पष्ट करने के लिए इन्होंने व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग किया है ।। जायसीकृत पद्मावत की टीका इसी शैली में की गई है ।। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए इन्होंने प्रायः उद्धरण शैली का प्रयोग किया है ।। कभी-कभी ये भावावेश में संस्कृत से भी उद्धरण देने लगते है; जैसे- “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः ।। ” वासुदेवशरण जी की इन शैलियों में ओज, माधुर्य और प्रसाद तीनों ही गुण विद्यमान हैं ।। इनकी शैली में विद्वता, भावात्मकता और कवित्व का अनोखा संगम है ।।

3- वासुदेवशरण अग्रवाल का हिन्दी साहित्य में स्थान निर्धारित कीजिए ।।

उत्तर – – पुरातत्व विशेषज्ञ वासुदेवशरण अग्रवाल हिन्दी-साहित्य में पाण्डित्यपूर्ण एवं सुललित निबन्धकार के रूप में प्रसिद्ध हैं ।। पुरातत्व व अनुसन्धान के क्षेत्र में इनकी समता कर पाना अत्यन्त कठिन है ।। इन्हें एक विद्वान टीकाकार एवं साहित्यिक ग्रन्थों के कुशल सम्पादक के रूप में भी जाना जाता है ।। अपनी विवेचन-पद्धति की मौलिकता एवं विचारशीलता के कारण ये सदैव स्मरणीय रहेंगे ।।


1- निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए


(क) भूमिका निर्माण…………………………………………………………………आवश्यक धर्म है ।।


सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्यपुस्तक ‘गद्य गरिमा” के “वासुदेवशरण अग्रवाल” द्वारा लिखित निबन्ध-संग्रह “पृथिवीपुत्र” से “राष्ट्र का स्वरूप” नामक निबन्ध से अवतरित है ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने राष्ट्रीयता के विकास हेतु राष्ट्र के प्रथम महत्वपूर्ण तत्व “भूमि” के रूप, उपयोगिता एवं महिमा के प्रति सचेत रहने तथा भूमि को समृद्ध बनाने पर बल दिया है ।।

व्याख्या- लेखक का कथन है कि भूमि का निर्माण देवताओं ने किया है इसका अस्तित्व भी अनन्त काल से है ।। यह हम सबका परम कर्त्तव्य है कि हम इसके रूप-सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचेष्ट रहें, इसके रूप-सौन्दर्य को खराब होने से बचाए और इसकी समृद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करते रहें ।। हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप से जितने अधिक परिचित होंगे, हमारी राष्ट्रीयता भावना को उतना ही बल मिलेगा ।। लेखक का कहना है कि पृथ्वी हमारे राष्ट्रीय विचारों को जन्म देने वाली है ।। यदि हमारी भावनाओं का संबंध हमारी पृथ्वी के साथ गहराई से जुड़ा हुआ नहीं है तो हमारी राष्ट्रीय भावना (राष्ट्रीयता) कुण्ठित हो जाती है; अर्थात् यदि हम अपनी मातृभूमि से प्रेम नहीं करते तो हमारा राष्ट्र-प्रेम केवल आडम्बर है ।। राष्ट्रीयता का संबंध पृथ्वी से जितना अधिक जुड़ा होगा, हमारे राष्ट्रीय विचार भी उतने ही अधिक दृढ़ होंगे; अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महिमा की प्रारंभ से अन्त तक अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करें ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली ।।
2-शैली-विवेचनात्मक ।।
3- वाक्य-विन्यास- सुगठित ।।
4- शब्दचयन-विषय के अनुरूप ।।
5- देश प्रेम के लिए अपने देश की भूमि के भौतिक स्वरूप, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महत्व की जानकारी आवश्यक है |


(ख)इस कर्तव्य की पूर्ती ……………………………………………………होना आवश्यक है |

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में वासुदेवशरण अग्रवाल जी ने एक जाग्रत राष्ट्र की विशेषता बताते हुए कहा है कि ऐसे राष्ट्र के नागरिकों को अपनी भूमि के बारे में प्रत्येक प्रकार की जानकारी होनी चाहिए ।।

व्याख्या-लेखक कहता है कि प्रत्येक नागरिक को अपनी जन्मभूमि अथवा मातृभूमि के भौतिक रूप, सौन्दर्य और समृद्धि से परिचित होना चाहिए ।। यह उसका श्रेष्ठ कर्त्तव्य है ।। इसके लिए सैकड़ों और हजारों प्रकार के प्रयत्न भी करने पड़े तो सहर्ष करने चाहिए ।। अपने देश की धरती से जिस भी चीज का संबंध हो, चाहे आकाश का, समुद्र का, भूगोल का; उसका सारा ज्ञान जागरूक नागरिक को होना चाहिए ।। अपने देश की धरती के प्रत्येक अंग का ही नहीं, वरन् अंगों के अंगों का भी ज्ञान होना आवश्यक है; क्योंकि राष्ट्रीयता की जड़ें जन्मभूमि से जितनी गहरी होंगी, उतने ही राष्ट्रीय भावों के अंकुर पल्लवित होंगे ।। इसलिए मातृभूमि की अधिक-से-अधिक जानकारी की योजनाएँ गाँव-गाँव तथा नगर-नगर में बनायी जानी चाहिए ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा-परिष्कृत साहित्यिक हिन्दी ।। 2- भाषा-भावात्मक ।। 3- वाक्य-विन्यास-सुगठित ।। 4-शब्दचयन-विषय के अनुरूप ।। 5- विचार-सौन्दर्य-राष्ट्र की भूमि का सांगोपांग अध्ययन जाग्रत राष्ट्र की पहली विशेषता बतायी गयी है ।।

(ग) धरती माता की कोख में………………………………….भी आवश्यक है ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने राष्ट्र के निर्माण के प्रथम तत्व “भूमि” अर्थात् पृथ्वी का महत्व प्रतिपादित किया है ।।
अनुसार भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जाग्रत होंगे, हमारी राष्ट्रीयता उतनी ही बलवती हो सकेगी और हमारी आर्थिक उन्नति का मार्ग भी उतना ही प्रशस्त होगा ।।

व्याख्या- हमारी धरती के गर्भ में असीम मात्रा में मूल्यवान् खजाना भरा हुआ है ।। यह पृथ्वी मूल्यवान् वस्तुओं का विशाल कोष है ।। अनेक प्रकार के मूल्यवान् रत्नों(वसुओं) को अपने में धारण करने के कारण ही इस धरती को वसुन्धरा कहा जाता है ।। इस तथ्य से हम सभी को परिचित होना चाहिए; क्योंकि यही तथ्य हमें राष्ट्रीय भावना से जोड़ता है और आर्थिक रूप से सम्पन्न भी बनाता है ।। हजारों-लाखों वर्षों से, जब से इस धरती का निर्माण हुआ है, इसके गर्भ में विभिन्न प्रकार की धातुएँ पोषित होती रही हैं ।। हमारे पहाड़ों से बड़ी-बड़ी नदियाँ दिन-रात बहती रहती हैं ।। इन नदियों के साथ पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी भी बहकर आती है ।। धरती के विस्तृत वक्षस्थल पर बहनेवाली इन नदियों ने अपनी मिट्टी से धरती को सजाया-सँवारा है और इसे उपजाऊ बनाया है ।। हमारे देश के भावी आर्थिक विकास की दृष्टि से इन सब तथ्यों का परीक्षण परम आवश्यक है ।। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद् तथा भूगर्भवेत्ता धरती के रहस्यों की खोज में निरन्तर लगे रहते हैं, जिससे वे धरती के गर्भ में छुपे हुए खजाने की खोज कर सकें ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- धरती को वसुन्धरा इसलिए कहा जाता है; क्योंकि वह अनेक प्रकार के रत्नों (वसुओं) को धारण करनेवाली है ।। 2- अपने देश के भावी आर्थिक विकास के लिए धरती के रहस्यों की खोज परम आवश्यक है ।।
3- भाषापरिष्कृत और परिमार्जित ।। 4- शैली- गम्भीर विवेचनात्मक ।। 5- वाक्य-विन्यास- सुगठित, 6- शब्द-चयन- विषय के अनुरूप ।।

(घ) विज्ञान और उद्याम ……………………………………………………………….किया जा सकता है ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने विज्ञान और उद्यम के समन्वय के द्वारा ही राष्ट्र के विकास पर प्रकाश डाला है ।। लेखक कहता है कि किसी राष्ट्र के स्वरूप को नवीनता प्रदान करने के लिए विज्ञान और उद्यम दोनों का एक साथ आगे बढ़ना आवश्यक है ।।

व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल का कहना है कि विज्ञान के द्वारा उद्योगों का विकास संभव हो सकता है ।। किसी भी राष्ट्र का भौतिक स्वरूप अर्थात् अर्थव्यवस्था की रीढ़ उद्योग ही होते हैं, जिनके विकास से ही देश का विकास संभव होता है ।। अतः हमें देश के सम्यक् निर्माण के लिए विज्ञान का सहारा लेकर उद्योगों को विकसित करना होगा ।। इस कार्य को करने के लिए प्रसन्नता और उत्साह के साथ-साथ अथक परिश्रम की भी आवश्यकता होती है ।। इसे भी नित्य प्रति करना होगा न कि एक दिन करके ही अपने कार्य की इति श्री मान ली जाए ।। यह कार्य किसी एक व्यक्ति के द्वारा पूरा होना भी संभव नहीं है ।। इसे करने के लिए सम्मत राष्ट्रवासियों का सहयोग होना आवश्यक है ।। यदि इस कार्य को करने में एक हाथ भी कमजोर रहा है और वह सहायक न बना तो राष्ट्र की समृद्धि भी उतने ही अंशों में कम हो जाएगी और राष्ट्र की समग्र समृद्धि प्राप्त नहीं की जा सकेगी ।। इससे मातृभूमि का स्वरूप भी संपूर्ण रूप में विकसित न हो सकेगा ।। अतः सभी राष्ट्रवासियों से यह अपेक्षा है कि वे सभी मिलकर राष्ट्र के निर्माण में सहयोग करें ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा-सरल एवं सुबोध संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली ।।
2- शैली- व्याख्यानात्मक एवं विवेचनात्मक ।।
3- उद्योगों के विकास के लिए विज्ञान के प्रयोग को आवश्यक बताया गया है ।। 4- लेखक द्वारा राष्ट्र के निर्माण में सभी के सहयोग की अपेक्षा की गयी है ।।

hindi gadya sahitya ka itihas class 12 आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास कक्षा 12


(ङ) मातृभूमि पर निवास ……………………………………………………………….. उत्पन्न होते हैं ।।


सन्दर्भ– पहले की तरह

प्रसंग– प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्र के दूसरे महत्वपूर्ण तत्व “जन” के सन्दर्भ में लेखक ने अपने विचार व्यक्त किए हैं ।।

व्याख्या– राष्ट्र के लिए आवश्यक तत्वों के अन्तर्गत “भूमि” के उपरान्त दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है- उस भूमि पर रहने वाला “जन” अर्थात् मनुष्य ।। जो भूमि जनविहीन हो, उसे राष्ट्र नहीं माना जा सकता ।। राष्ट्र के स्वरूप का निर्माण; पृथ्वी और जन दोनों की विद्यमानता की स्थिति में ही संभव है ।। पृथ्वी पर “जन” का निवास होता है, तभी पृथ्वी मातृभूमि कहलाती है ।। जब तक किसी भू-भाग में निवास करनेवाले मनुष्य वहाँ की भूमि को अपनी सच्ची माता और स्वयं को उस भूमि का पुत्र नहीं मानते, तब तक राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती ।। जब हम अपने देश को अपनी माता के रूप में अनुभूत करने लगते हैं, तभी हमारे मन में इस प्रकार के भाव उत्पन्न हो सकते हैं, जिनके आधार पर राष्ट्र का निर्माण करने की इच्छा उत्पन्न होती है ।। इसके अभाव में राष्ट्र का निर्माण कर पाना संभव नहीं है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- राष्ट्रीयता की भावना के विकास और राष्ट्र के निर्माण हेतु अपनी भूमि अथवा अपने देश को मातृभूमि के रूप में मानना आवश्यक सिद्ध किया गया है ।।
2- भाषा- संस्कृत की तत्सम शब्दावली से युक्त परिनिष्ठित खड़ी बोली ।।
3- शैली- विवेचनात्मक ।।
4- शब्द-चयन-विषय-वस्तु के अनुरूप,
5- वाक्य-विन्यास- सुगठित,
6- भाव-सौन्दर्यमनुष्य और पृथ्वी का समन्वित रूप ही पूजनीय और वन्दनीय है, दोनों का पृथक्-पृथक् कोई महत्व नहीं, 7- भव-साम्य – मातृभूमि से विलग व्यक्ति की कैसी दशा होती है, यह भाव कविवर सुन्दरदास की इस पंक्ति में स्पष्ट हो जाता है-
“नीर बिना मीन दुःखी छीर बिना शिशु जैसे ।। “

(च) पृथिवी परनिवास………………………………………………………………….संचालित होना चाहिए ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने इस बात पर बल दिया कि धरती माता के लिए सभी प्राणी समान हैं और सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं ।। उनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं होना चाहिए ।।
व्याख्या- लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल जी कहते हैं कि मातृभूमि की सीमाएँ अनन्त हैं ।। इसके निवासी अनेक नगरों, जनपदों, शहरों, गाँवों, जंगलों और पर्वतों में बसे हुए हैं ।। यद्यपि अनेक स्थानों पर रहनेवाले ये व्यक्ति अलग-अलग भाषाएँ बालते हैं, अलग-अलग धर्मों को मानते हैं; तथापि ये एक ही धरती माता के पुत्र हैं और इस कारण ये सब पारस्परिक प्रेम, सहयोग और बन्धुता के साथ रहते हैं ।। भाषा और धर्म अथवा रीति और रिवाज इनकी एकता में बाधा उत्पन्न नहीं करते ।। विकसित, अर्द्धविकसित अथवा अविकसित सभ्यता तथा उच्च-निम्न अथवा सामान्य रहन-सहन के आधार पर पृथ्वी के विभिन्न भागों में रहनेवाले लोग एक-दूसरे से आगे-पीछे हो सकते हैं परन्तु उनका पृथ्वी से जो संबंध, लगाव अथवा मातृ भावना है, उसमें कोई अन्तर नहीं होता, सब अपनी-अपनी जन्मभूमि को एकसमान भाव से चाहते हैं ।। जब सब लोगों में मातृभूमि के प्रति समान प्रेमभावना है और पृथ्वी सबके लिए एकसमान रूप से अन्न-जल प्रदान करती है, तब सभी को एकसमान रूप से अपनी प्रगति एवं उन्नति करने के अवसर मिलने ही चाहिए उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए ।। सबको एकसमान अवसर और अधिकार प्रदान करना ही समन्वय का मार्ग है, जिसका अनुसरण प्रत्येक देश-काल में किया जाना चाहिए ।। किसी भी व्यक्ति को पीछे छोड़कर कोई भी राज्य प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता ।। इसी प्रकार किसी भी वर्ग को अथवा किसी भी क्षेत्र को पिछड़ा हुआ छोड़कर संपूर्ण राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता; अतः राष्ट्र की उन्नति के लिए उसके प्रत्येक क्षेत्र, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक सम्प्रदाय, प्रत्येक जाति और प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान रखना होगा ।। यदि देश के किसी एक भाग में गरीबी, अशिक्षा अथवा पिछड़ापन है तो उसका प्रभाव केवल उसी क्षेत्र पर ही नहीं पड़ेगा, अपितु संपूर्ण राष्ट्र उससे प्रभावित होगा ।। इसलिए समस्त देशवासियों का यह पावन कर्त्तव्य है कि वे अपने निजी स्वार्थों को त्यागकर तथा संकुचित दायरे से निकलकर उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाएँ ।। इस प्रकार का व्यवहार किए जाने पर ही राष्ट्र की उन्नति संभव है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-1- लेखक ने अपने इस दृष्टिकोण को पुष्ट किया है कि धरती पर जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी सामान है; अत: उनमें ऊँच-नीच का भाव उत्पन्न करना अनुचित है ।।
2- लेखक ने “अनेकता में एकता” की भावना पर बल दिया है ।।
3- भाषा-परिष्कृत और परिमार्जित ।। 4- शैली-गंभीर विवेचनात्मक ।।
5- भावसाम्य- राष्ट्रकवि रामधारी सिंह “दिनकर” ने भी राष्ट्र एवं समाज की प्रगति के लिए इसी प्रकार की आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा है
श्रेय उसका, बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत,
श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत ।।
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान,
तोड़ दे जो बस, वहीं ज्ञानी वही विद्वान ।।

(छ) जन का प्रवाह …………………………………………………………………………………. करना होता है ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह

प्रसंग- इस अवतरण में राष्ट्र के दूसरे अनिवार्य तत्व “जन” पर विचार किया गया है ।। लेखक ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्र के निवासियों की जीवन-श्रृंखला कभी समाप्त नहीं होती और जनजीवन की तुलना नदी के प्रवाह से की है ।।


व्याख्या- लेखक का कहना है कि किसी राष्ट्र में उसके निवासियों के आवागमन का क्रम कभी टूटता नहीं है, सदा चलता रहता है ।। एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के क्रम से लोग राष्ट्र में सदा निवास करते आए हैं ।। ऐसा कभी नहीं हुआ, जब राष्ट्र में मनुष्य न रहते हों ।। हजारों वर्षों से यही परम्परा चली आ रही है और राष्ट्र के निवासी अपने को राष्ट्र से एक रूप करते आए है; अर्थात् अपने को राष्ट्र के साथ एक होने का अनुभव करते आए हैं ।। जब तक आकाश में सूर्य निकलता रहेगा और अपनी किरणों से संसार को प्रकाशित करता रहेगा, तब तक राष्ट्र में मनुष्यों का निवास भी बना रहेगा ।। इतिहास में अनेक परिवर्तन आए, राष्ट्रों का उत्थान भी हुआ और पतन भी; किन्तु राष्ट्र में नागरिक सदैव रहते चले आए है तथा वे प्रत्येक अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति की नयी शक्ति, उत्साह और साहस के साथ सदा मुकाबला करते रहे हैं ।। राष्ट्र के निवासियों का जीवन-क्रम नदी के प्रवाह के समान अनवरत है ।। जैसे नदी में ऊँची-ऊँची लहरें उठती और गिरती रहती हैं, परन्तु नयी उमंग के साथ उनका प्रवाह निरन्तर आगे ही बढ़ता रहता है, उसी प्रकार राष्ट्रीय जन के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, परन्तु वह उन संघर्षों को झेलता हुआ नए उत्साह के साथ उन्नति के मार्ग पर सदैव अग्रसर होता रहता है ।। जिस प्रकार नदी का प्रवाह निरन्तर बना रहकर भी बीच-बीच में डेल्टा छोड़ता जाता है, उसी प्रकार नागरिक भी परिश्रम और कर्त्तव्यपरायणता से अपने राष्ट्र के विकास-चिह्न छोड़ते जाते हैं ।। अत: नागरिकों को सदा पूरी निष्ठा और परिश्रम से राष्ट्र की उन्नति में तत्पर रहना चाहिए ।।


साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- शुद्ध साहित्यिक, अलंकृत एवं परिमार्जित खड़ी बोली ।।
2- शैली- विवेचनात्मक और भावात्मक ।।
3- वाक्य-विन्यास- सुगठित ।।
4- शब्द-चयन- विषय-वस्तु के अनुरूप ।।
5- अलंकार- उपमा अलंकार के प्रयोग ने भाषा के सौन्दर्य को बढ़ा दिया है ।।
6- जन का जीवन सदा नदी की तरह गतिशील रहता है, जो सदा राष्ट्र से आत्मीयता बनाए रखता है ।।

(ज) राष्ट्र का तीसरा………………………………………………………………….. पर निर्भर है ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने संस्कृति की व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय संस्कृति के स्वरूप को परिभाषित किया है ।।
व्याख्या- भूमि और जन के पश्चात् लेखक राष्ट्र के तीसरे अंग संस्कृति का वर्णन करते हुए कहता है कि मानव-सभ्यता का ही दूसरा नाम संस्कृति है और इसका निर्माण मनुष्य द्वारा अनेक युगों की दीर्घावधि में किया गया है ।। यह उनके जीवन का उसी प्रकार से अभिन्न और अनिवार्य अंग है, जिस प्रकार से जीवन के लिए श्वास-प्रश्वास अनिवार्य है ।। वस्तुतः संस्कृति मनुष्य का मस्तिष्क है और मनुष्य के जीवन में मस्तिष्क सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है; क्योंकि मानव शरीर का संचालन और नियन्त्रण उसी से होता है ।। मस्तिष्क की मृत्यु होने पर व्यक्ति को मृत मान लिया जाता है, भले ही उसका संपूर्ण शरीर भली-भाँति कार्य कर रहा हो और जीवित हो ।। जिस प्रकार से मस्तिष्क से रहित धड़ को व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है अर्थात् मस्तिष्क के बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार संस्कृति के बिना भी मानव-जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है ।। इसलिए संस्कृति के विकास और उसकी उन्नति में ही किसी राष्ट्र का विकास, उन्नति, समृद्धि और वृद्धि निहित है ।। इस बात में कोई संदेह नहीं कि राष्ट्र के संपूर्ण स्वरूप में संस्कृति का भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है, जितना कि भूमि और जन का होता है ।। अर्थात् भूमि और जन के पश्चात् राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण तत्व उसकी संस्कृति है ।। किसी राष्ट्र के अस्तित्व में संस्कृति के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि यदि किसी राष्ट्र की भूमि और जन को संस्कृति से अलग कर दिया जाए तो एक समृद्धिशाली राष्ट्र को मिटते हुए देर न लगेगी ।। संस्कृति और मनुष्य एक-दूसरे के पूरक होने के साथ-साथ एक-दूसरे के लिए अनिवार्य भी हैं ।। एक के न रहने पर दूसरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है ।। इसीलिए तो कहा जाता है कि जीवनरूपी वृक्ष का फूल भी संस्कृति है; अर्थात् किसी समाज के ज्ञान और उस ज्ञान के आलोक में किए गए कर्त्तव्यों के सम्मिश्रण से जो जीवनशैली उभरती है या सभ्यता विकसित होती है वही संस्कृति है ।। समाज ने अपने ज्ञान के आधार पर जो नीति या जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया है, उस उद्देश्य की दिशा में उसके द्वारा सम्पन्न किया गया उसका कर्त्तव्य; उसके रहन-सहन, शिक्षा, सामाजिक व्यवस्था आदि को प्रभावित करता है और इसे ही संस्कृति कहा जाता है ।। प्रत्येक राष्ट्र में अनेक जातियाँ रहती हैं ।। उन जातियों की अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं ।। अपनी इन विशेषताओं के आधार पर ही प्रत्येक जाति अपनी संस्कृति का निर्धारण करती है और उन विशेषताओं से प्रेरित होकर अपनी संस्कृति को विकसित करने का प्रयास करती है ।। परिणामस्वरूप विभिन्न जातियों की विभिन्न भावनाओं के कारण विभिन्न प्रकार की संस्कृतियाँ विकसित हो जाती हैं; किन्तु राष्ट्र की उन्नति के लिए उन विभिन्न संस्कृतियों के मूल में समन्वय, पारस्परिक सहनशीलता तथा सहयोग की भावना निहित रहती है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य– 1- संस्कृति की भावनात्मक व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी देश की उन्नति उसकी संस्कृति पर ही निर्भर करती है ।।
2- किसी देश की विभिन्न जातियों में विभिन्न प्रकार की संस्कृतियाँ विकसित हो जाती हैं, किन्तु समन्वय और सहिष्णुता का भाव उन्हें एक सूत्र में बाँध देता है ।।
3- भाषा- परिष्कृत और परिमार्जित ।।
4- शैलीविवेचनात्मक और भावात्मक ।।
5- वाक्य-विन्यास- सुगठित,
6-शब्द-चयन-विषय-वस्तु के अनुरूप ।।

hindi gadya sahitya ka itihas class 12 आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास कक्षा 12

(झ) साहित्य, कला ………………………………………………………………………स्वास्थ्य कर है ।।

सन्दर्भ– पहले की तरह

प्रसंग– लेखक ने यहाँ स्पष्ट किया है कि संस्कृति जीवन को आनन्द प्रदान करती है ।। उस आनन्द को मानव विविध रूपों में प्रकट करता है ।। संस्कृति मनुष्य के आचरण में उदारता की भावना उत्पन्न करती है, जिससे राष्ट्र को बल मिलता है ।।

व्याख्या– लेखक कहते हैं कि एक ही राष्ट्र के भीतर अनेकानेक उपसंस्कृतियाँ फलती-फूलती हैं ।। इन संस्कृतियों के अनुयायी नाना प्रकार के आमोद-प्रमोदों में अपने हृदय के उल्लास को प्रकट किया करते हैं ।। साहित्य, कला, नृत्य, गीत इत्यादि संस्कृति के विविध अंग है ।। इनका प्रस्तुतीकरण उस आनन्द की भावना को व्यक्त करने के लिए किया जाता है जो संपूर्ण विश्व की आत्माओं में विद्यमान है ।। यदि संस्कृति के इन अंगों के बाहरी स्वरूप को देखें तो ये सभी भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं ।। भारत का ही उदाहरण लें तो यहाँ के प्रत्येक प्रदेश का भिन्न साहित्य है, भिन्न संगीत है, भिन्न नृत्य-प्रणालियाँ और भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्सव तथा त्योहार हैं ।। इस बाहरी भिन्नता के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति में एक आन्तरिक एकता है ।। एक उदार हृदय व्यक्ति इन बाहरी भेदों पर ध्यान नहीं देता, वह तो भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के माध्यम से एक ही आनन्द-भावना को प्रकट होते देखता है और इस आनन्द का स्वयं भी लाभ होता है ।। राष्ट्र के मंगल और स्थायित्व के लिए इसी प्रकार पूर्ण भावना की उदारता होनी चाहिए, तभी विविध जन-समूहों से बना राष्ट्र स्वस्थ और सुखी रह सकता है ।।
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साहित्यिक सौन्दर्य- 1- भाषा- सरल एवं सुबोध ।।
2- शैली- विवेचनात्मक ।।
3- शब्द-चयन-विषय-वस्तु के अनुरूप ।।
4- वाक्य-विन्यास- सुगठित ।।
5- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने विविध संस्कृति वाले राष्ट्र की एकसूत्रता और उसके एकीकृत स्वरूप पर प्रकाश डाला है ।।

2- निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए


(क) राष्ट्रीयता की जड़ें पृथिवी में जितनी गहरी होंगी, उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘गद्य गरिमा” में संकलित “राष्ट्र का स्वरूप” नामक निबन्ध से अवतरित है ।। इसके लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल” जी हैं ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि सच्ची राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हो सकती है, जब हम भूमि के प्रति भावात्मक तादात्मय का अनुभव करने लगेंगे ।।

व्याख्या- लेखक का कथन है कि हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप से जितने अधिक परिचित होंगे, हमारी राष्ट्रीय भावना को उतना ही बल मिलेगा ।। लेखक का मानना है कि पृथ्वी ही हमारे राष्ट्रीय विचारों को जन्म देने वाली है ।। यदि हमारा संबंध हमारी पृथ्वी के साथ नहीं जुड़ा है तो हमारी राष्ट्रीय भावना निराधार है ।। भाव यह है कि यदि हम जन्मभूमि से प्रेम नहीं करते हैं तो हमारा राष्ट्र के प्रति प्रेम केवल दिखावा है, आडम्बर है ।। अपने देश की धरती से यदि हमें स्नेह है, तभी हम राष्ट्रप्रेमी हो सकते हैं ।। अत: हमारा कर्त्तव्य है कि हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महिमा की प्रारम्भ से अन्त तक अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करें ।।

(ख) पृथ्वी से जिस वस्तु का संबंध है, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, उसका कुशल-प्रश्न पूछने के लिए हमें कमर कसनी चाहिए ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में लेखक ने पृथ्वी के विषय में विचार प्रकट किया गया है ।।
व्याख्या- राष्ट का प्रथम अंग पृथ्वी है ।। राष्टीय भावों के विकास के लिए पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की परी जानकारी. उसकी सुन्दरता और उपयोगिता का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है ।। इसके प्रति अपने कर्तव्यों का भी अनेक प्रकार से पालन होना चाहिए ।। ज्ञान पृथ्वी का ही नहीं, पृथ्वी से सम्बन्धित वस्तुओं का भी होना चाहिए, क्योंकि पृथ्वी से सम्बन्धित सभी छोटी-बड़ी वस्तुएँ इस पार्थिव जगत् का अंग हैं ।। उन सबके भौतिक स्वरूप, सौन्दर्य तथा उपयोगिता का परिचय प्राप्त करने के लिए हमें तैयार होना चाहिए ।।

(ग) यह प्रणाम-भाव ही भूमि और जन का दृढ़ बन्धन है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में लेखक ने जन्मभूमि के प्रति मनुष्य की स्वाभाविक श्रद्धा को व्यक्त किया है ।।
व्याख्या- विद्वान् लेखक का मत है कि अपनी धरती के प्रति आदर-भाव; व्यक्ति और धरती के सम्बन्ध को दृढ़ करता है तथा पृथ्वी और मनुष्य का दृढ़ सम्बन्ध राष्ट्र को पुष्ट और विकसित करता है ।। आदर-भाव की इस सुदृढ़ दीवार पर ही राष्ट्र के भवन का निर्माण किया जा सकता है ।। आदर की यह भावना एक दृढ़ चट्टान के समान है ।। इस सुदृढ़ चट्टान पर टिककर ही राष्ट्र का जीवन चिरस्थायी हो सकता है ।।

(घ) जन का सततवाही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है, जिसमें कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अनेक घाटों का निर्माण करना होता है ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में चिन्तन की गहराई तथा भावोद्रेक की तरलता व्यंजित हो रही है ।। व्याख्या- लेखक कहता है जिस प्रकार नदी का प्रवाह कभी रुकता नहीं वरन् निरन्तर आगे की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी है ।। वह भी सदा गतिमान रहता है और आगे की ओर बढ़ता जाता है, रुकने का कहीं नाम नहीं लेता ।। इस जीवन-प्रवाह को ऊँचा उठाने के लिए मनुष्य को कर्म और निरन्तर परिश्रम करना होता है ।। मनुष्य कठोर परिश्रम और महान् कार्यों के द्वारा उत्थान के लिए ही संघर्ष करता है ।।

(ङ) बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबंध मात्र है; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- राष्ट्र का स्वरूप निर्धारित करते हुए लेखक ने संस्कृति को राष्ट्र का मस्तिष्क कहा है ।।
व्याख्या- युगों-युगों से प्रचलित रीति-रिवाज और विश्वास हमारी संस्कृति का अमिट अंग बन जाते हैं ।। कोई भी राष्ट्र अपने दीर्घकालीन चिन्तन और मनन के पश्चात् जिन भावों को स्थायी रूप से ग्रहण कर लेता है, उन्हें ही संस्कृति कहा जाता है ।। बिना संस्कृति के मानव की कल्पना ही नहीं की जा सकती ।। संस्कृति से रहित मानव को उसी प्रकार समझना चाहिए, जैसे बिना सिर के धड़, जो निष्क्रिय एवं अनुपयोगी होता है ।। वह न तो विचार कर सकता है और न ही अपने विचारों को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सकता है ।। संस्कृति ही हमें चिन्तन-मनन के अवसर प्रदान करती है ।। इसीलिए संस्कृति को व्यक्ति का मस्तिष्क कहा जाता है ।।

(च) जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है ।।


सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- राष्ट्र के स्वरूप निर्धारण में लेखक ने यहाँ ‘संस्कृति” के स्वरूप को स्पष्ट किया है ।।
व्याख्या- कोई वृक्ष कितना ही सुन्दर क्यों न हो, यदि उस पर पुष्प नहीं आते तो वह उतने सम्मान का अधिकारी नहीं होता, जितना सम्मान पुष्प से परिपूर्ण वृक्ष का होता है ।। जिस प्रकार किसी भी वृक्ष का सारा सौन्दर्य, सारा गौरव और सारा मधुरस उसके पुष्प में विद्यमान रहता है, उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन का चिन्तन, मनन एवं सौन्दर्य-बोध उसकी संस्कृति में ही निवास करता है ।। इसीलिए यही कहा जा सकता है कि जीवन के विटप अथवा राष्ट्ररूपी वृक्ष का पुष्प उसकी संस्कृति ही है ।।

(छ) ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान और कर्म के उपयुक्त समन्वय से ही संस्कृति का उदय एवं विकास होता है ।। व्याख्या- विद्वान लेखक ने कहा है कि राष्ट्र का स्वरूप निर्धारित करने वाले तीन तत्वों- भूमि, जन और संस्कृति में एक तत्व संस्कृति भी हैं इसमें ज्ञान और कर्म का समन्वित प्रकाश होता है ।। तात्पर्य यह है कि भूमि पर बसने वाले मनुष्य ने ज्ञान के क्षेत्र में जो रचा है, वही राष्ट्रीय संस्कृति होती है और उसका आधार आपसी सहिष्णुता और समन्वय की भावना है ।। इसी दृष्टि से लेखक ने ज्ञान और कर्म के समन्वय को संस्कृति के रूप में परिभाषित किया है ।।


1- “राष्ट्र का स्वरूप” पाठ का सारांश लिखिए ।।
उत्तर – – “राष्ट्र का स्वरूप” निबन्ध लेखक वासुदेवशरण अग्रवाल जी के निबन्ध-संग्रह ‘पृथिवीपुत्र” से अवतरित है ।। इस निबन्ध में लेखक ने तीन तत्वों-भूमि, जन और संस्कृति पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि राष्ट्र का स्वरूप इन्हीं तीन तत्वों से निर्मित होता है ।। सबसे पहले लेखक ने भूमि तत्व का वर्णन किया है, जिसका निर्माण देवताओं के द्वारा किया गया है और इसका अस्तित्व अनन्तकाल से है ।।


लेखक कहते हैं कि भूमि के स्वरूप को बचाए रखने के लिए मनुष्य को जागरूक रहना होगा और इसकी समृद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करने होंगे ।। लेखक कहते हैं कि राष्ट्रीयता का विचार पृथ्वी से जितना अधिक जुड़ा होगा, हमारे राष्ट्रीय विचार भी उतने ही अधिक सुदृढ़ होगे, इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि हम पृथ्वी के बारे में प्रारम्भ से अन्त तक अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करें ।। यही मनुष्य का श्रेष्ठ कर्त्तव्य है ।। इसके लिए सैकड़ों और हजारों प्रकार के प्रयत्न भी करने पड़े तो सहर्ष करने चाहिए ।। प्रत्येक मनुष्य को अपने देश की धरती के प्रत्येक अंग का ही नहीं, वरन् अंगों के अंगों का भी ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीयता की जड़े जन्मभूमि में जितनी गहरी होंगी, उतने ही राष्ट्रीय भावों के अंकुर पल्लवित होंगे ।। मानव को अपने देश की धरती की कोख में भरी अमूल्य निधियों का ज्ञान आवश्यक है इन्हीं अमूल्य निधियों के कारण ही पृथ्वी को वसुंधरा कहते है, इन निधियों से हमारा प्रगाढ़ परिचय होना चाहिए ।। क्योंकि इन निधियों के सम्पूर्ण ज्ञान होने से ही हमारा भावी आर्थिक विकास सम्भव है ।। लेखक का कथन है कि देश के नागरिकों को पृथ्वी और आकाश के मध्य स्थित नक्षत्रों, गैसों तथा वस्तुओं का ज्ञान, समुद्र में स्थित जलचरों, खनिजों तथा रत्नों, का ज्ञान और पृथ्वी के गर्भ में छुपी अपार खजिन-सम्पदा की जानकारियों पर आधारित ज्ञान भी राष्ट्रीय चेतना को सुदृढ़ बनाने के लिए आवश्यक है ।।

वासुदेवशरण अग्रवाल जी का कहना है कि विज्ञान के द्वारा उद्योगों का विकास सम्भव है ।। उद्योग ही किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं ।। इसलिए राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने के लिए सभी राष्ट्रवासियों से यह अपेक्षा है कि वे सभी मिलकर राष्ट्र के निर्माण में सहयोग करें ।। लेखक दूसरे तत्व जन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कोई भू-भाग तब तक राष्ट्र नहीं कहला सकता जब तक उस पर जनसमुदाय निवास न करता हो ।। भूमि और जनसमुदाय दोनों मिलकर ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं ।। जनसमुदाय होने के कारण ही भूमि मातृभूमि की संज्ञा प्राप्त करती है और पृथ्वी द्वारा माता-पिता की तरह मनुष्य-समुदाय का पालन करने के कारण ही वह पृथ्वी पुत्र कहलाता है ।। प्रत्येक मनुष्य के हृदय में ये भाव उत्पन्न होने चाहिए, यही राष्ट्रीयता की कुंजी है ।। जब यह भाव मनुष्य के हृदय में उत्पन्न हो जाते हैं, तब राष्ट्र का स्वार्गीण विकास सम्भव हो पाता है ।। लेखक का मानना है कि मनुष्य के हृदय में पृथ्वी के प्रति सच्ची श्रद्धा के भाव जाग्रत होने चाहिए, ये सच्ची शृद्धा रूपी भाव ही उसका पृथ्वी से सम्बन्ध दृढ़ करते हैं ।। इस विश्वास रूपी दीवार पर ही राष्ट्र रूपी भवन का निर्माण होता है और एक लम्बे समय तक अपना अस्तित्व कायम रखने में समर्थ होता है ।। लेखक कहते हैं कि माता अपने सभी पुत्रों को बिना किसी भेदभाव के प्रेम करती है उसी तरह पृथ्वी माता के लिए भी उस पर बसने वाले सभी मनुष्य बराबर है उनमें कोई ऊँच-नीच तथा भेदभाव नहीं होता है ।। सबके प्रति उसमें एक जैसा स्नेह का स्रोत प्रवाहित होता है ।।
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वह सबको समान भाव से अपना अन्न, जल और वायु प्रदान करती है ।। पृथ्वी पर स्थित नगरों, जनपदों, पुरों, गाँवों, जंगलों और पर्वतों पर अनेक प्रकार के लोग निवास करते हैं ।। एक ही माता के पुत्र होने के कारण विविध भाषाएँ, धर्म, रीति-रिवाज इन्हें अलग नहीं कर पाते, क्योंकि पृथ्वी के प्रति मातृभावना इनके प्रेम को कभी खण्डित नहीं होने देती ।। लेखक कहता है कि राष्ट्र के निर्माण के लिए तीसरा आवश्यक तत्व उस राष्ट्र की संस्कृति है ।। जिसका निर्माण मनुष्यों के द्वारा अनेक युगों में किया गया है ।। वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है ।। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबंध मात्र है ।। संस्कृति मानव जीवन का अभिन्न और अनिवार्य अंग है, वास्तव में संस्कृति मनुष्य का मस्तिष्क है जिस प्रकार मस्तिष्क के बिना मानव-जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती उसी प्रकार संस्कृति के बिना भी मानव-जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती ।। इसलिए संस्कृति के विकास और उसकी उन्नति में ही किसी राष्ट्र का विकास, उन्नति और समृद्धि निहित है ।। इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि राष्ट्र के सम्पूर्ण स्वरूप में संस्कृति का भी उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है जितना कि भूमि और जन का होता है ।। किसी राष्ट्र के अस्तितव में संस्कृति के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि यदि किसी राष्ट्र की भूमि और जन को संस्कृति से अलग कर दिया जाए तो एक समृद्ध राष्ट्र को समाप्त होते देर न लगेगी ।। यह संस्कृति ही जीवनरूपी वृक्ष का फूल है ।। जिस प्रकार वृक्ष का सौन्दर्य पुष्प उसके जीवन का सौन्दर्य; संस्कृति के रूप में प्रकट होता है ।।

लेखक कहता है कि जिस प्रकार जंगल में विभिन्न वनस्पतियाँ तथा विभिन्न नामों से पुकारे जाने वाली नदियों में कोई विरोध तथा भेदभाव नहीं दिखाई देता, ठीक उसी प्रकार एक राष्ट्र के नागरिकों को भी चाहिए कि वे भी विविधता में एकता का समन्वय स्थापित करने के लिए जाति, धर्म, भाषा, सम्प्रदाय या क्षेत्र की तुच्छ भावना को भूलकर अपनी पहचान विशाल राष्ट्र के रूप में बनाएँ ।। जिससे विविध संस्कृतियों में समन्वय स्थापित हो सकें ।। एक ही राष्ट्र में अनेकों उपसंस्कृतियाँ फलती-फूलती हैं ।। इन संस्कृतियों के अनुयायी नाना प्रकार के आमोदों-प्रमोदों में अपने हृदय के उल्लास को प्रकट करते हैं ।। साहित्य, कला, नृत्य, गीत इत्यादि इसी संस्कृति के विविध अंग हैं ।। हमारे पूर्व पुरुषों ने धर्म, विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में महान् सफलताएँ प्राप्त की थीं ।। हम उनकी उपलब्धियों पर गौरव का अनुभव करते हैं ।। हमें उनके महान् कार्यों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए ।। राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि का स्वाभाविक तरीका नहीं है ।। ऐसा करने से ही राष्ट्र की उन्नति सम्भव है ।। जिस राष्ट्र में भूतकाल के आदर्श वर्तमान पर बोझ नहीं होते और अतीत के गौरव को ही श्रेष्ठ स्वीकार करके अन्धानुकरण करने की प्रवृत्ति नहीं होती, केवल उसी राष्ट्र की उन्नति होती है ।। ऐसे राष्ट्र का हम अभिनन्दन करते हैं ।।

2- राष्ट्र के स्वरूप का निर्माण करने वाले आवश्यकतत्व कौन से है? संक्षेप में वर्णन कीजिए ।।

उत्तर – – राष्ट्र के स्वरूप का निर्माण करने वाले आवश्यक तत्व भूमि, जन और संस्कृति हैं ।। किसी राष्ट्र का स्वरूप इन्हीं तत्वों से निर्मित होता है ।। हमें अपनी भूमि के प्रति सचेत रहना चाहिए ।। हम पृथ्वी के भौतिकस्वरूप से जितने अधिक परिचित होंगे, हमारी राष्ट्रीय भावना भी उतनी ही बलवती होगी ।। किसी राष्ट्र के निर्माण में निश्चित भू-भाग के साथ-साथ जनसमुदाय का होना आवश्यक है, बिना जनसमुदाय के राष्ट्र का निर्माण होना संभव नहीं है ।। राष्ट्र का तीसरा आवश्यक तत्व उस राष्ट्र की संस्कृति है ।। यदि भूमि और मनुष्य से संस्कृति को अलग कर दिया जाए, तो राष्ट्र के समग्र रूप को विलुप्त हुआ समझना चाहिए ।। यह संस्कृति जीवनरूपी वृक्ष का फूल है, मानव के जीवन का सौन्दर्य संस्कृति के रूप में प्रकट होता है ।। जिस राष्ट्र की संस्कृति जितनी श्रेष्ठ और उन्नत होगी, उस राष्ट्र के जन का जीवन भी उतना ही श्रेष्ठ और उन्नत होगा ।।

3- “भूमि माता है, मै उसका पुत्र हूँ ।। “इस कथन की व्याख्या कीजिए ।।

उत्तर – – जिस प्रकार माता हमें जन्म देती है, हमारा पालन-पोषण करती है, हमें प्यार करती है और इसलिए हम अपनी माता के सम्मुख श्रद्धा से सिर झुकाते हैं; उसी प्रकार धरती हमें अन्न देती है, इसकी धूल में खेलकर हम बड़े होते हैं, इसकी हवा में हम साँस लेते हैं; अत: धरती भी एक माता के समान ही हमारा पालन-पोषण करती है ।। इसलिए प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह धरती को अपनी माता समझे और स्वयं को उसका आज्ञाकारी पुत्र ।। उसकी रक्षा के लिए सर्वस्व अर्पित करने हेतु उसे सदैव तत्पर रहना चाहिए ।। जब मानवमात्र में अपनी धरती के प्रति इस प्रकार का पूज्य भाव उत्पन्न हो जाएगा तो सच्ची राष्ट्रीयता का विकास सम्भव होगा; क्योंकि यह पूज्य भाव ही सच्ची राष्ट्रीयता की कुंजी है ।।

4- “वसुंधरा” से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – – वसुंधरा से तात्पर्य पृथ्वी से है ।। हमारी धरती के गर्भ में असीम मात्रा में मूल्यवान खजाना भरा हुआ है ।। यह पृथ्वी मूल्यवान् वस्तुओं का विशाल कोष है ।। अनेक प्रकार के मूल्यवान रत्नों (वसुओं) को अपने अंदर धारण करने के कारण ही इस धरती को वसुन्धरा कहा जाता है ।।

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