Up board hindi class 10 full solution sanskrit khand chapter 2

Up board hindi class 10 full solution sanskrit khand

Up board hindi class 10 full solution sanskrit khand Chapter 2 अन्योक्तविलासः

श्लोक का हिन्दी अनुवाद

नितरां नीचोऽस्मीति त्वं खेदं कूप ! कदापि मा कृथाः ।

अत्यन्तसरसहृदयो यतः परेषां गुणग्रहीतासि ।। 


[नितरां = अत्यधिक। नीचोऽस्मीति (नीचः + अस्मि + इति) = मैं नीचा (गहरा) हूँ। खेदं = दु:ख। कदापि (कदा + अपि) = कभी भी। मा कृथाः = मत करो। यतः = क्योंकि। परेषां = दूसरों के। गुणग्रहीतासि (गुणग्रहीता + असि) = गुणों को ग्रहण करने वाले हो।]

सन्दर्भ-प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक “हिन्दी” के संस्कृत-खण्ड’ के अन्योक्तिविलासः पाठ से उद्घरित है ।

प्रसंग-इस श्लोक में कुएँ के माध्यम से सज्जनों  को यह समझाया गया है कि उन्हें अपने आपको छोटा नहीं समझना चाहिए।

अनुवाद–हे कुएँ! (मैं) अत्यन्त नीचा (गहरा) हूँ । इस प्रकार कभी भी दु:ख मत करो; क्योंकि (तुम) अत्यन्त सरस हृदय वाले (जलयुक्त) और दूसरों के गुणों (रस्सियों) को ग्रहण करने वाले हो।

नीर-क्षीर-विवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत् ।
विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः ॥ 


[नीर-क्षीर-विवेके = दूध और पानी को अलग करने में। हंसालस्यं (हंस + आलस्यम्) = हंस आलस्य को (करोगे)। तनुषे = तनिक। चेत् = यदि। विश्वस्मिन्नधुनान्यः (विश्व + अस्मिन् + अधुना + अन्यः) = अब इस विश्व में दूसरा। कुलव्रतं = कुल के व्रत को। पालयिष्यति = पालन करेगा। कः = कौन।]

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में हंस के माध्यम से लोगों को अपने कर्तव्यों के प्रति आलस्य न करने के लिए प्रेरित किया गया है ।

अनुवाद-हे हंस ! यदि तुम ही दूध और पानी को अलग करने में आलस्य करोगे तो इस संसार में दूसरा कौन है जो अपने कुल की मर्यादा का पालन करेगा ?

भावार्थ- इस श्लोक के माध्यम से हंस के द्वारा आम व्यक्ति को यह बताया गया है कि हमें अपने कार्य में किसी भी प्रकार का आलस्य नहीं करना चाहिए।

कोकिल ! यापय दिवसान् तावद् विरसान् करीलविटपेषु ।
यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लसति।



[ यापय = बिताओ। विरसान् = नीरस। करीलविटपेषु = करील के पेड़ों पर। यावन्मिलदलिमालः (यावत् + मिलद् + अलिमाल:) = जब तक भौंरों की पंक्ति से युक्त। रसालः = आम। समुल्लसति = सुशोभित होता है।

प्रसंग—प्रस्तुत श्लोक में कोयल के माध्यम से विद्वान् पुरुषों को बताया गया है कि एक-न-एक दिन उनका अच्छा समय अवश्य आएगा। इसलिये उन्हें धैर्यपूर्वक अपने बुरे दिनों को काट लेना चाहिए ।

अनुवाद–हे कोयल! तब तक अपने बुरे दिनों को करील के पेड़ों पर बिता लो, जब तक कि भौंरों के समूह से युक्त कोई आम का पेड़ दिखाई न देे।

भावार्थ- हे विद्वान् पुरुष! तब तक अपनी विपत्ति के दिनों को किसी भी प्रकार बिता लो, जब तक कि तुम्हें किसी का सहारा न मिल जाता ।।

रे रे चातक ! सावधानमनसा मित्र ! क्षणं श्रूयतम् ।

अम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ॥

केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा।

यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥ 

[सावधानमनसा = सावधान चित्त से। श्रूयताम् = सुनिए। अम्भोदा = बादल। नैतादृशाः (न + एतादृशाः) = ऐसे नहीं हैं। वृष्टिभिरार्द्रयन्ति (वृष्टिभिः + आर्द्रयन्ति) = वर्षा करके गीला कर देते हैं। वृथा = व्यर्थ। यं यं = जिस-जिसको। मा ब्रूहि = मत कहो। दीनं वचः = दीनता भरे वचन।]

प्रसंग–प्रस्तुत श्लोक में चातक के माध्यम से विद्वान लोगों को बताया गया है कि व्यक्ति को किसी के भी सामने याचक बनकर हाथ नहीं फैलाना चाहिए।

अनुवाद–हे मित्र चातक! तुम क्षणभर सावधान चित्त से मेरी बात सुनो। आकाश में बहुत-से बादल रहते हैं, किन्तु सभी ऐसे (उदार) नहीं हैं। उनमें से कुछ ही पृथ्वी को वर्षा से भिगोते हैं और कुछ व्यर्थ में गरजते रहते हैं। तुम जिस-जिस बादल को (आकाश में) देखते हो, उस-उसके सामने अपने दीनतापूर्ण वचन मत कहो।

भाव-हे भद्र पुरुष! तुम क्षणभर मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। संसार में अनेक धनवान् एवं समर्थ हैं, परन्तु सभी उदार नहीं होते। उनमें कुछ तो अधिक उदार होते हैं और कुछ अत्यन्त कंजूस होते हैं इसलिए तुम हर किसी के सामने कुछ पाने की लालसा से अपने हाथ मत फैलाओ।।

न वै ताडनात् तापनाद् वह्निमध्ये,

न वै विक्रयात् क्लिश्यमानोऽहमस्मि ।

सुवर्णस्य मे मुख्यदुःखं तदेकं ।

यतो मां जनाः गुञ्जया तोलयन्ति ॥ 

[ ताडनात् = पीटने से। वह्निमध्ये तापनाद् = आग में तपाने से। विक्रयात् = बेचने से। क्लिश्यमानोऽहमस्मि (क्लिश्यमानः + अहम् + अस्मि) = मैं दु:खी नहीं हूँ। तदेकं (तत् + एकम्) = वह एक है। गुञ्जया = रत्ती से, गुंजाफल से। तोलयन्ति = तौलते हैं। ]

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में स्वर्ण के माध्यम से विद्वान् और स्वाभिमानी पुरुष की व्यथा को अभिव्यक्ति दी गयी है।

अनुवाद- सोना कहता है कि मुझे न पीटने से, न आग में तपाने से और न बेचे जाने के कारण कोई दुःख है मुझे तो बस एक ही मुख्य दु:ख है कि लोग मुझे रत्ती से तौलते हैं।

भाव-विद्वान् पुरुष विपत्तियों से नहीं डरता है। उसका अपमान तो नीच के साथ उसकी तुलना करने में होता है। तात्पर्य यह है कि शारीरिक कष्ट उतना दु:ख नहीं देते, जितनी पीड़ा मानसिक कष्ट पहुँचाते हैं ।


रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं,
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजालिः ।।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे, हा हन्त !
हन्त ! नलिनीं गज उज्जहार ॥ 


[ रात्रिर्गमिष्यति (रात्रिः + गमिष्यति) = रात्रि व्यतीत हो जाएगी। भविष्यति = होगा। सुप्रभातं = सुन्दर प्रभात। भास्वानुदेष्यति (भास्वान् + उदेष्यति) = सूर्य उदित होगा। हसिष्यति = खिलेगा। पङ्कजालिः = कमलों का समूह। इत्थं = इस प्रकार से। विचिन्तयति = सोचते-सोचते। कोशगते = कमल-पुट में बैठे हुए। द्विरेफे = भौरे के। नलिनीं = कमलिनी को। उज्जहार = हरण कर लिया।]

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में कमलिनी में बन्द भ्रमर के द्वारा जीवन की अनिश्चितता के विषय में बताया गया है।

अनुवाद-(कमलिनी में बन्द भौंरा सोचता है कि) ‘रात व्यतीत होगी। सुन्दर प्रभात ( सवेरा) होगा। सूर्य निकलेगा। कमलों का समूह खिलेगा।’ इस प्रकार कमल दल में बैठे हुए भौरे के ऐसा सोचते-सोचते बड़ा दु:ख है कि हाथी उसी कमलिनी को उखाड़ देता है।

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