up board class 12th civics solution chapter 21 India and World भारत तथा विश्व free pdf

class 12 civics
भारत तथा विश्व

up board class 12th civics solution chapter 21 India and World भारत तथा विश्व free pdf

भारत तथा विश्व (India and World)


लघु उत्तरीय प्रश्न


1– राष्ट्रमंडल के मुख्य कार्यों को संक्षेप में लिखिए ।
अथवा
राष्ट्रमंडल क्या है? वर्तमान विश्व में उसके महत्व का मूल्यांकन कीजिए ।


उत्तर— राष्ट्रमंडल के मुख्य कार्य- राष्ट्रमंडल के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं
(i) प्रजातंत्र तथा मानवीय अधिकारों का समर्थन करना । ।
(ii) सदस्य देशों की आपसी समस्याओं पर विचार-विमर्श करना ।
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं व घटनाओं पर विश्व-शांति की दृष्टि से विचार करना और यथासंभव सहयोग करना ।
(iv) सदस्य देशों के आर्थिक कल्याण व सामान्य हितों की पूर्ति के लिए योजना बनाना ।
(v) सदस्य देशों के बीच व्यापारिक संबंधों का विकास करना ।

राष्ट्रमंडल-राष्ट्रमंडल उन देशों का संगठन है जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ब्रिटेन के साथ लगभग समानता के संबंध स्थापित कर लिए हैं । राष्ट्रमंडल कोई निश्चित उत्तरदायित्वों वाला कठोर वैधानिक या सैनिक संगठन नहीं हैं । राष्ट्रमंडल के सभी राष्ट्र स्वतंत्र और समान है और इनमें ब्रिटिश सम्राट के प्रति किसी प्रकार की राजभक्ति या निष्ठा होना अनिवार्य नहीं है । राष्ट्रमंडल का महत्व- वर्तमान समय में राष्ट्रमंडल एकमात्र ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है, जो विकसित और विकासशील देशों को एकजुट करता है । आर्थिक मामलों में सहयोग राष्ट्रमंडल का एक अति महत्वपूर्ण लक्षण है । सदस्य देशों के विदेश मंत्री अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की वार्षिक बैठकों के अवसर पर एक-दूसरे से मिलते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक और आर्थिक मामलों पर चर्चा करते हैं । आर्थिक विषमता, गरीब-देशों की ऋण समस्या, भूमंडलीकरण के प्रभाव आदि मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय राय उत्पन्न करने में राष्ट्रमंडल की महत्वपूर्ण भूमिका है ।

2– भारत की विदेश नीति के उद्देश्य बताइए ।
उत्तर— भारत की विदेश नीति के उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(i) साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध
(ii) सभी राष्ट्रों से मित्रता
(iii) तटस्थता और गुटनिरपेक्षता की नीति
(iv) विश्व-शांति और नि:शस्त्रीकरण का समर्थन
(v) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और पंचशील
(vi) विदेशों से बिना शर्त आर्थिक सहायता की प्राप्ति
(vii) संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग
(viii) जातीय भेदभाव का विरोध

3– भारत की विदेश नीति के चार प्रमुख आधार बताइए ।
उत्तर— उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-2 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

4– संयुक्त राष्ट्र संघ के दो प्रमुख उद्देश्यों को लिखिए ।
उत्तर— संयुक्त राष्ट्र संघ के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(i) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक एवं मानवीय समस्याओं को सुलझाने में सहयोग देना ।
(ii) प्रत्येक राष्ट्र को समान समझना और समान अधिकार देना ।

5– संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के चार मुख्य कार्यों को बताइए ।
उत्तर— संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के चार मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं
(i) अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष और विवाद के कारणों की जाँच करना और उसके निराकरण के शांतिपूर्ण समाधान के उपाय खोजना । (ii) अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करना ।
(iii) महासभा को नए सदस्यों के संबंध में सुझाव देना ।
(iv) अपनी वार्षिक रिपोर्ट तथा अन्य रिपोर्टो को महासभा के पटल पर रखना ।

6– संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(i) अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा एवं शांति बनाए रखना ।
(ii) पारस्परिक मतभेदों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना ।
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक एवं माननीय समस्याओं को सुलझाने में सहयोग देना ।
(iv) प्रत्येक राष्ट्र को समान समझना और समान अधिकार देना ।
(v) समस्त मानव जाति के अधिकारों का सम्मान करना ।

7– संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के दो स्थायी सदस्यों के नाम लिखिए ।
उत्तर— संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के दो स्थायी सदस्य- संयुक्त राज्य अमरीका, रूस ।

8– भारत पाक संबंधों को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख मुद्दों को स्पष्ट कीजिए ।
अथवा
भारत और पाकिस्तान के मध्य तनाव के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए ।

उत्तर— भारत और पाकिस्तान के संबंधों को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख मुद्दे/कारण निम्नलिखित हैं
कश्मीर समस्या- भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर समस्या विभाजन के समय से चली आ रही है जो सुलझने में नहीं आती है । ऐसा माना जाता है कि कश्मीर समस्या भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का कारण ही नहीं बल्कि परिणाम है । आतंकवाद- पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को सरंक्षण एवं सहारा देना भी भारत-पाकिस्तान के संबंधों को प्रभावित करने वाला मुख्य कारण है । मुंबई हमलों और हाल ही में पुणे के बम विस्फोट में पाकिस्तान का हाथ होना पाया गया है ।

9– संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद्के दो गैर- यूरोपियन स्थायी सदस्य देशों का नाम लिखिए ।
उत्तर— संयुक्त राज्य अमरीका और साम्यवादी चीन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के दो गैर-यूरोपियन स्थायी सदस्य देश हैं ।

10– दक्षेस (सार्क) से आप क्या समझते हैं? इसकी आवश्कयता व उपयोगिता पर प्रकाश डालिए ।
दक्षेस (सार्क)- दक्षेस ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ के नाम से संबोधित किया जाता है । यह दक्षिण एशिया के आठ देशों भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव और अफगानिस्तान का क्षेत्रीय संगठन है । यह दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों की विश्व राजनीति में क्षेत्रीय सहयोग की पहली शुरुआत है । दक्षेस की आवश्यकता एवं उपयोगिता- दक्षेस के देशों से निर्धनता अशिक्षा, कुपोषण आदि समस्याओं को सहयोग तथा आपसी सूझ-बूझ से हल करना तथा क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाना इसकी आवश्यकता है । दक्षेस के आठों देशों में राजनीतिक तथा सुरक्षा संबंधी मुद्दों को पारस्परिक सहयोग, समझ, सहानुभूति तथा इच्छा शक्ति से सुलझाया जाता है । इसी के अंतर्गत मुक्त बाजार व्यवस्था को लागू किया गया है ।

11– सार्क के किन्हीं दो सदस्य देशों के नाम लिखिए ।
उत्तर— सार्क के दो सदस्य देश भारत और पाकिस्तान हैं ।

12– दक्षेस (सार्क) की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— दक्षेस की निम्नलिखित उपलब्धियाँ सराहनीय हैं
(i) दक्षेस शिखर-वार्ता प्रतिवर्ष आयोजित की जाती है और निर्णय भी सर्वसम्पति से ही लिए जाते हैं ।
(ii) दूसरे शिखर सम्मेलन में इसका कार्यालय काठमाण्डू में स्थापित करने का निर्णय आपसी सहयोग बढ़ाने में सहायक हुआ ।


(iii) तीसरे शिखर सम्मेलन में आतंकवाद निरोधक समझौता एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ।


(iv) इस्लामाबाद के चौथे शिखर सम्मेलन में दक्षेस-2000′ एकीकृत योजना पर बल दिया गया ।


(v) पाँचवें शिखर सम्मेलन में संयुक्त उद्योग स्थापित करने तथा सातवे शिखर सम्मेलन में ‘दक्षिण एशियाई व्यापार वरीयता समझौता’ (SAFTA) की स्वीकृति का काम हुआ ।


(vi) सामूहिक विकास की दृष्टि से दक्षिण एशियाई विकास कोष’ की स्थापना की गयी । 11 वें शिखर सम्मेलन के ‘काठमाण्डू घोषण-पत्र’ में आतंकवाद को समाप्त करने की प्रतिबद्धता दोहरायी गयी ।


(vii) 12 वें शिखर सम्मेलन में दक्षिण एशिया को ‘मुक्त-व्यापार क्षेत्र’ बनाने के लिए ‘दक्षिण एशियाई व्यापार वरीयता
समझौता’ (SAFTA) संधि हुई जो 1 जनवरी, 2006 ई० से लागू हुई । इसके अतिरिक्त विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, दूर संचार, यातायात, कृषि, ग्रामीण विकास, वन विकास, मौसम विज्ञान आदि अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पारस्परिक सहयोग प्रगति पर है । दक्षेस की अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं । दक्षेस फेलोशिप तथा दक्षेस छात्रवृत्तियों से नागरिकों में सामूहिक भावना का विकास हो रहा है । दक्षेस व्यापार मेले में अरबों रुपयों का व्यापार होता है । इस प्रकार दक्षेस से क्रिया-कलापों का निरन्तर विकास हो रहा है और इससे सभी संबंधित देश लाभ उठा रहे हैं ।

13– दक्षेस (सार्क) के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— दक्षेस के उद्देश्य- दक्षेस के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं
() पारस्परिक विश्वास तथा सूझ-बूझ के साथ एक-दूसरे की समस्याओं को हल करना ।
(ii) दक्षिण एशियाई देशों के लोगों के कल्याण के लिए कार्य करना तथा उनके जीवनस्तर को सुधारना ।
(iii) आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी तथा वैज्ञानिक क्षेत्र में हर प्रकार का सहयोग देना ।
(iv) सामान्य हितों के मामलों पर पारस्परिक सहयोग से कार्य सम्पन्न करना ।
(v) विकासशील देशों के साथ सहयोग बढ़ाना ।
(vi) क्षेत्र का तीव्र गति से चहुमुखी विकास करना ।

14– पंचशील के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार में अपनाए जाने वाले नैतिक सिद्धान्तों को पंचशील सिद्धान्त कहते हैं । ये पंचशील सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
(i) एक-दूसरे क्षेत्रीय अखण्डता तथा प्रभुसत्ता के प्रति सम्मान की भावना ।
(ii) एक-दूसरे के क्षेत्र पर आक्रमण न करना ।
(iii) एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना ।
(iv) समानता तथा पारस्परिक लाभ के लिए कार्य करना ।
(v) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को अपनाना ।

15– गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के दो प्रर्वतकों के नाम लिखिए ।
उत्तर— गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के दो प्रर्वतकों के नाम निम्नलिखित हैं
(i) भारत के पं० जवाहरलाल नेहरू
(ii) मिस्र के राष्ट्रपति नासिर

16– दक्षेस (सार्क) का पूरा नाम क्या है? इसके कोई तीन उद्देश्य लिखिए ।
उत्तर— दक्षेस (सार्क) का पूरा नाम ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ (साउथ एशियन एसोसिएशन फोर रिजनल कॉर्पोरेशन) है । इसके तीन प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं

(i) विकासशील देशों के साथ सहयोग बढ़ाना ।
(ii) क्षेत्र का तीव्र गति से चहुमुखी विकास करना ।
(iii) दक्षिण एशियाई देशों के नागरिकों के कल्याण के लिए कार्य करना तथा उनके जीवन स्तर को सुधारना ।

17– संयुक्त राष्ट्र की स्थापना का उद्देश्य क्या है? किन्हीं दो क्षेत्रों में इसकी उपलब्धियाँ बताइए ।
उत्तर— संयुक्त राष्ट्र की स्थापना का उद्देश्य विश्व में शान्ति स्थापित करना तथा विश्व शान्ति को बनाए रखना है । इसकी दो उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं-


(i) संयुक्त राष्ट्र ने निःशस्त्रीकरण को लागू करने और विध्वंसक परमाणु हथियारों पर पाबन्दी लगाने के लिए समय-समय पर अनेक सम्मेलनों का आयोजन किया तथा कई प्रस्ताव पारित किए हैं । संयुक्त राष्ट्र को निःशास्त्रीकरण में भारत का सहयोग प्राप्त हुआ है और वह काफी हद तक शास्त्रों के प्रसार को रोकने में सफल रहा है । ।
(ii) संयुक्त राष्ट्र ने इंग्लैण्ड और मिस्रा के बीच स्वेजनहर के झगड़े का अंत कराया । मलाया, लीबिया, टयूनेशिया, घाना तथा टोगोलैण्ड आदि देशों को स्वतंत्र कराने में पूर्ण सहायता की ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

1– राष्ट्रमंडल क्या है? इसका सदस्य कौन हो सकता है? इसकी तीन मुख्य विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर— राष्ट्रमंडल- राष्ट्रमंडल उन देशों का संगठन है जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद ब्रिटेन के साथ लगभग समानता के संबंध स्थापित कर लिए हैं । राष्ट्रमंडल कोई निश्चित उत्तरदायित्वों वाला कठोर वैधानिक या सैनिक संगठन नहीं हैं । राष्ट्रमंडल के सभी राष्ट्र स्वतंत्र और समान है और इनमें ब्रिटिश सम्राट के प्रति किसी प्रकार की राजभक्ति या निष्ठा होना अनिवार्य नहीं है । “राष्ट्रमंडल कोई राजनीतिक इकाई नहीं है । यह एक समझौता भी नहीं है । इसकी कोई सर्वमान्य नीति नहीं है । राष्ट्रमंडल के सदस्य राष्ट्र विश्व मामलों में अपने पृथक निर्णय करते हैं और इनमें से कोई भी अपने इस अधिकार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है । “


-कनाडा के प्रधानमंत्री पियर्सन राष्ट्रमंडल के राज्यों की पहचान यह है कि इनके राजदूत एक-दूसरे के देश में उच्चायुक्त कहलाते हैं । राष्ट्रमंडल के सदस्य-राष्ट्र अपनी इच्छा के अनुसार राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय नीति को अपनाते हैं और व्यवहार में भी अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर उनके विचारों में भिन्नता देखी जाती है । राष्ट्रमंडल की सदस्यता के लिए यह आवश्यक है कि इसका सदस्य केवल वही राष्ट्र हो सकता है, जिसमें लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था विद्यमान हो । सैनिक तानाशाहों द्वारा शासित देश इस संगठन के सदस्य नहीं हो सकते हैं । राष्ट्रमंडल देशों के पूर्व महासचिव इमेका अन्या कू ने कहा है- “सही मायने में राष्ट्रमंडल अब लोकतांत्रिक देशों का संगठन बन गया है । ” राष्ट्रमंडल की विशेषताएँ- राष्ट्रमंडल की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) स्वतंत्रता की दृष्टि से राष्टमंडल का प्रत्येक सदस्य देश अपनी आन्तरिक एवं विदेश नीति का निर्धारण करने में पूर्ण स्वतंत्र है ।
(ii) राष्टमंडल के सदस्य देशों के जो प्रतिनिधि एक-दूसरे की राजधानी में रहते हैं, उन्हें राजदूत न कहकर उच्चायुक्त कहा
जाता है ।
(iii) राष्टमंडल का एक सचिवालय है जो लन्दन में स्थित है, जिसमें सदस्य देशों के व्यक्ति अधिकारियों व कर्मचारियों के रूप में नियुक्त होते हैं । स्कॉटलैंड के पैट्रिसिया वर्तमान में राष्ट्रमंडल के महासचिव हैं ।

2– राष्ट्रमंडल के गठन व कार्यों का विवेचन कीजिए ।
उत्तर— राष्ट्रमंडल का गठन- राष्ट्रमंडल सबसे कम संस्थागत स्वरूप वाले अंतर-सरकारी संगठनों में से एक है । राष्टमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक और सचिवालय राष्टमंडल के प्रमुख अंग हैं । शासनाध्यक्षों की द्वि-वार्षिक बैठकें आयोजित की जाती हैं, जिनमें सामूहिक हित के विषयों पर चर्चाएँ होती हैं तथा संगठन की गतिविधियों के मौलिक दिशा-निर्देशों का निर्धारण होता है । चोगम का संचालन आम सहमति के आधार पर होता है न कि मत के आधार पर । संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद चोगम विश्व का सबसे बड़ा अंतर-सरकारी सम्मेलन है । इसके अतिरिक्त वैदेशिक मामलों, रक्षा, वित्त, शिक्षा, कानून, कृषि, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, आदि विषयों पर सदस्य देशों के वरिष्ठ मंत्रियों के मध्य विशेष परामर्श होते हैं । विशिष्ट मुद्दों पर समन्वय सुनिश्चित करने के लिए अनेक नियमित या तदर्थ आधार पर बैठकें होती हैं । सन् 1965 ई० में चोगम ने राष्ट्रमंडल सचिवालय के रूप में एक स्थायी मशीनरी का गठन किया ।

सचिवालय संयुक्त परामर्श और सहयोग के लिए एक केंद्रीय संगठन का कार्य करता है । यह बैठके और सम्मेलन आयोजित करता है, सामूहिक निर्णयों का क्रियान्वयन करता है, विशिष्ट तकनीकी सहायता प्रदान करता है तथा सामूहिक हित के विषयों से संबंधित सूचनाएँ प्रसारित करता है । लंदन स्थित सचिवालय निम्नलिखित कार्यों के आधार पर अनेक मंडलों में संघटित है- अंतर्राष्ट्रीय संबंध, आर्थिक मामले, खाद्य उत्पादन और ग्रामीण विकास युवा मामले, शिक्षा सूचना, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, कानून, स्वास्थ्य और प्रयुक्त अध्ययन । सचिवालय के अंदर राष्ट्रमंडल तकनीकी सहयोग कोष (सीएफटीसी) का गठन किया गया है जो आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए, विशेषकर कम विकसित देशों को बहुपक्षीय तकनीकी सहायता प्रदान किया करता है । इस कोष का वित्तीय पोषण सभी राष्ट्रमंडल देशों के द्वारा स्वैच्छिक आधार पर होता है । सचिवालय औद्योगिक विकास इकाई, महिला एवं विकास सलाहकार तथा राष्ट्रमंडल सहभागिता कोष का भी प्रबंधन करता है । महासचिव सचिवालय का प्रधान अधिकारी होता है । राष्ट्रमंडल की वर्तमान स्थिति सम्प्रभुता सम्पन्न स्वतंत्र राष्ट्रों के एक मैत्रीपूर्ण संगठन के रूप में हैं । इसमें 53 राष्ट्र शामिल है, जिनमें से 21 गणतंत्रीय देश हैं । राष्ट्रमंडल की अध्यक्ष ब्रिटेन की महारानी है । भारत ने सन् 1950 ई० राष्ट्रमंडल की सदस्यता सर्वथा स्वतंत्र तथा सम्प्रभु राष्ट्र के रूप में ग्रहण की ।

राष्ट्रमंडल के प्रमुख सदस्यों में- ब्रिटेन, न्यूजीलैण्ड, भारत, बांग्लादेश, आस्ट्रेलिया, कनाडा, श्रीलंका, मॉरीशस, पाकिस्तान, युगाण्डा, कीनिया, फिजी, कैमरून, न्यूगिनी, माल्टा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । राष्ट्रमंडल के कार्य- राष्ट्रमंडल एक सहयोगी मंडल के रूप में कार्य करता है । इसके कार्यों का विवरण निम्न प्रकार है


(i) संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद राष्ट्रमंडल एकमात्र ऐसा अंतर्राष्ट्रीय समूह है, जो विकसित और विकासशील देशों को एकजुट करता है । इसके सदस्य देशों में विश्व की एक-चौथाई जनसंख्या निवास करती है । ये सदस्य अनेक अन्य अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रीय, राजनीतिक और आर्थिक समूहों के भी सदस्य हैं । अतः राष्ट्रमंडल स्वयं में एक छोटी दुनिया का प्रतिनिधित्व करता है ।


(ii) आर्थिक मामलों में सहयोग राष्ट्रमंडल का एक अति महत्वपूर्ण लक्षण है । सदस्य देशों के विदेश मंत्री अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक और आर्थिक विषयों पर चर्चा करने के उद्देश्य से साधारणतया अंतरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व की वार्षिक बैठकों के अवसर पर एक-दूसरे से मिलते हैं । ये बैंठके उत्तर-दक्षिण आर्थिक विषमता, संरक्षणवाद, ब्रेटन वुड्स संस्थाओं में सुधार, गरीब-देशों की ऋण समस्या, भूमंडलीकरण के प्रभाव, आदि मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय राय उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । सन् 1983 ई० में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विषयों पर एक परामर्श समूह का गठन किया गया है ।
(iii) राष्ट्रमंडल ने अल्प-विकसित देशों में तकनीकी सहायता के प्रवाह के लिए सीएफटीसी का गठन किया । सन् 1990 ई० में विकासशील देशों के पूँजी बाजार में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से राष्ट्रमंडल सहभागिता कोष की स्थापना की गई । एडिनबर्ग राष्ट्रमंडल आर्थिक घोषणा, सन् 1997 ई० ने छोटे और कम विकसित देशों पर अधिक ध्यान देते हुए सतत विश्व आर्थिक एकीकरण की माँग की । साथ ही, अंतर्राष्ट्रीय राष्ट्रमंडल व्यापार में तेजी लाने के लिए व्यापार अवरोधों को समाप्त करने तथा एक राष्ट्रमंडल व्यापार परिषद् गठित करने पर सहमति बनी । एडिनबर्ग शिखर सम्मेलन पहला राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन था, जिसने एक आर्थिक घोषणा को अपनाया ।


(iv) राजनीकि क्षेत्र में, राष्ट्रमंडल मानवाधिकारों की रक्षा और स्वच्छ प्रशासन को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित है । दक्षिणी अफ्रीकी देशों में बहुमत के शासन की स्थापना में सहायता देना राष्ट्रमंडल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है । राष्ट्रमंडल ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का विरोध किया, जिम्बाबे में बहुमत का शासन स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा नामीबिया की तकनीकी और मानवीय सहायता प्रदान की । दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद समाप्त करने तथा प्रजातंत्र की स्थापना हेतु सन् 1985 ई० में राष्ट्रमंडल प्रतिष्ठित व्यक्ति समूह का गठन किया गया ।

3– संयुक्त राष्ट्र की महासभा के संगठन व कार्यों का वर्णन कीजिए ।


उत्तर— संयुक्त राष्ट्र की महासभा का संगठन- महासभा संयुक्त राष्ट्र संघ के छ: अंगों में से एक है जो एक सर्वागीण संस्था है । इस सभा में सभी इच्छुक राष्ट्रों को बिना भेदभाव के सदस्यता दी जाती है । प्रत्येक सदस्य राष्ट्र को इसमें अपने पाँच प्रतिनिधि भेजने का अधिकार है, किन्तु किसी भी निर्णायक मतदान के अवसर पर उन पाँचों का केवल एक ही मत माना जाता है । इस सभा का अधिवेशन वर्ष में एक बार सितम्बर माह में होता है । आवश्यकता पड़ने पर एक से अधिक बार भी अधिवेशन हो सकता है । महासभा प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय विषय पर विचार कर सकती है । साधारण विषयों में बहुमत से निर्णय लिया जाता है, किन्तु विशेष विषयों के निर्णय के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता पड़ती है । महासभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव प्रतिवर्ष होता है । इनकी नियुक्ति स्वयं महासभा ही करती है । महासभा के कार्य- महासभा का कार्य विश्व में शान्ति व सुरक्षा बनाए रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के सिद्धान्तों पर तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर विचार करना तथा सिफारिश करना है । सुरक्षा परिषद् सहित संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्य सभी अंग अपने वार्षिक व विशेष प्रतिवेदन विचारार्थ महासभा के पास भेजते हैं । महासभा संघ के अन्य सभी अंगों के अधिकारों व कार्यों पर विचार करती है । यह सारे संगठन के बजट पर विचार करती है तथा उसे स्वीकार करती है । यह सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी सदस्यों का भी निर्वाचन करती है । महासभा अपने समस्त कार्य सात प्रमुख समितियों द्वारा सम्पन्न करती है ।

4– संयुक्त राष्ट्र संघकी चार प्रमुख उपलब्धियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए । इसके सुदृढ़ करने के दो सुझावदीजिए ।

उत्तर— संयुक्त राष्ट्र संघ की उपलब्धियाँ- विश्व-शान्ति को बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् तथा महासभा ने निम्नलिखित प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान करने में एक बड़ी सीमा तक सफलता प्राप्त की है
(i) संयुक्त राष्ट्र ने कोरिया तथा हिन्द-चीन के युद्ध को समाप्त कराया और कोरिया की स्वाधीनता पर आँच नहीं आने दी ।
(ii) संयुक्त राष्ट्र ने इण्डोनेशिया से डच सेनाओं को वापस लौटने के लिए बाध्य किया । इस प्रकार सन् 1948 ई० में स्वतंत्र इण्डोनेशिया का उदय हुआ ।
(iii) इसने फिलिस्तीन की समस्या को हल करने के लिए यहूदियों के लिए सन् 1948 ई० में इजराइल राज्य की स्थापना की ।
(iv) सन् 1965 ई० में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया तो संयुक्त राष्ट्र ने इस युद्ध को समाप्त करवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया । यह युद्ध जनवरी 1966 में ताशकन्द समझौते के साथ समाप्त हुआ ।
(v) सन् 1991 ई० में खाड़ी युद्ध के प्रारम्भ होने पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने तुरन्त अपनी बैठक बुलाई और वहाँ शान्ति स्थापित करने हेतु प्रस्ताव पारित किया । इस प्रकार खाड़ी युद्ध की समाप्ति में संयुक्त राष्ट्र ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया ।
(vi) संयुक्त राष्ट्र ने इंग्लैण्ड और मिस्र के बीच स्वेजनहर के झगड़े का अन्त कराया । मलाया, लीबिया, टयूनेशिया, घाना तथा टोगोलैण्ड आदि देशों को स्वतंत्र कराने में पूर्ण सहायता की ।
(vii) संयुक्त राष्ट्र नवीन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है जिससे दुनिया के अविकसित एवं विकासशील देशों को आर्थिक न्याय प्राप्त हो सके तथा विकसित और विकासशील देशों के बीच के अन्तर को समाप्त किया जा सके । संयुक्त राष्ट्र द्वारा सन् 1974 ई० में राज्यों के आर्थिक अधिकारों तथा कर्तव्यों के चार्टर को स्वीकार किया गया है जिसमें अपने प्राकृतिक संसाधनों पर देशों की सम्प्रभुता को स्वीकार किया गया है । संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट आर्थिक एवं वित्तीय संस्थाएँ- अन्तर्राष्ट्रीय मुदा कोष, विश्व बैंक आदि ने दुनिया के अविकसित तथा विकासशील देशों को आर्थिक
संकट से उबारने एवं उन्हें विकास कार्यों में सहायता प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान दिया है ।


(viii) संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में सहायता और सुरक्षा परिषद् दोनों पर यह जिम्मेदारी डाली गई है कि वे नि:शस्त्रीकरण के लिए कार्य करें । संयुक्त राष्ट्र ने निःशस्त्रीकरण को लागू करने और विध्वंसक परमाणु हथियारों पर पाबन्दी लगाने के लिए समय-समय पर कई सम्मेलनों का आयोजन किया है तथा अनेक प्रस्ताव पारित किए हैं । संयुक्त राष्ट्र को निःशस्त्रीकरण के प्रयासों में भारत का सहयोग भी प्राप्त हुआ है और वह काफी हद तक शस्त्रों के प्रसार को रोकने में सफल रहा है ।


सुझाव :-
(i) विश्व के समक्ष चुनौतियों का सामना करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की कार्यकारिणी सुरक्षा परिषद् का विस्तार कर स्थायी व अस्थायी सदस्यों की संख्या में वृद्धि की जानी चाहिए ।
(ii) संयुक्त राष्ट्र व सुरक्षा परिषद् की आय के स्वतंत्र एवं विश्वसनीय स्रोतों की स्थापना होनी चाहिए ।

5– संयुक्त राष्ट्र संघकी सुरक्षा परिषद् की संगठनात्मक कमियों पर प्रकाश डालिए तथा उनके सुधार के उपाय सुझाइए ।

उत्तर— सुरक्षा परिषद् की संगठनात्मक कमियाँ- वर्तमान में सुरक्षा परिषद् विश्व में शान्ति व सुरक्षा बनाए रखने में विफल रही है ।
इसकी संगठनात्मक कमियाँ निम्न प्रकार हैं
(i) सुरक्षा परिषद् के वर्तमान पाँच स्थायी सदस्यों संयुक्त राज्य अमरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस व चीन) को वीटो’ का अधिकार प्राप्त है । ये पाँचों राष्ट्र विश्व में शान्ति व सुरक्षा के उस हर प्रस्ताव को ‘वीटो’ अधिकार से रद्द कर देते हैं जिससे उनका अपना हित-साधन न होता हो । इराक पर अमरीका द्वारा हमला न करने का प्रस्ताव इसी कारण कार्यान्वित न हो सका ।
(ii) अपनी आय व खर्चों के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् इन बड़े राष्ट्रों की आर्थिक सहायता पर ही निर्भर हैं । अत: ये राष्ट्र सुरक्षा परिषद् से अपनी मनमानी कराने में सफल हो जाते हैं ।

(iii) सुरक्षा परिषद् के पास विश्व शान्ति व सुरक्षा के लिए अपना कोई सैन्य बल नहीं है । अतः वह अपनी प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाती ।


(iv) सुरक्षा परिषद् के स्थायी व अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने के प्रस्ताव को भी बड़े देश टालते आ रहे हैं ।
(v) सुरक्षा परिषद् इन पाँच बड़े स्थायी सदस्यों की जेबी संस्था’ बन गई है, विशेष रूप से अमरीका की । सुरक्षा परिषद् के संगठन के लिए सुझाव-संयुक्त राष्ट्र संघ व उसकी सुरक्षा परिषद् के संगठन व कार्यशैली के सुधारात्मक उपाय निम्नलिखित हैंसंयुक्त राष्ट्र व उसकी सुरक्षा परिषद्की संरचना व कार्यशैली के लिए सुझाव—-


(i) विश्व के समक्ष विद्यमान नई चुनौतियों को देखते हुए सुरक्षा परिषद् के स्थायी व अस्थायी सदस्यों की संख्या में वृद्धि होनी चाहिए ।


(ii) नए बनने वाले स्थायी सदस्यों को भी ‘वीटो’ को दिया जाना चाहिए ताकि वीटो’ पर पाँच बड़े देशों का ही अधिकार न रहे ।


(iii) यदि नए स्थायी सदस्यों को वीटों का अधिकार न दिया जाए तो पुराने सदस्यों के इस अधिकार को भी समाप्त कर दिया जाए । इससे सुरक्षा परिषद् का रूप लोकतन्त्रीय बनेगा ।


(iv) सुरक्षा परिषद् का अपना शक्तिशाली, स्थायी सैन्य बल होना चाहिए ।
(v) संयुक्त राष्ट्र व सुरक्षा परिषद् की आय के स्वतंत्र एवं विश्वसनीय स्रोतों की स्थापना होनी चाहिए ।

6– विश्व-शान्ति स्थापित करने में संयुक्त राष्ट का क्या योगदान है?
उत्तर— विश्व-शान्ति स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र का योगदान- संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रमुख कार्य विश्व में शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना है । इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ निम्नलिखित कार्य करता है


(i) संयुक्त राष्ट्र संघ विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं और विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करने का प्रयत्न करता है ।
(ii) दो राष्ट्रों के मध्य शान्ति समझौते करवाता है तथा युद्ध की सम्भावनाओं को कम करता है ।


(iii) संयुक्त राष्ट्र संघ में अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने के लिए विचार-विमर्श किए जाते हैं और उनके समाधान के लिए उपाय तथा प्रस्ताव रखे जाते हैं ।


(iv) संयुक्त राष्ट्र संघ एक अन्तर्राष्ट्रीय पंचायत के रूप में कार्य करता है ।


(v) यह विश्व के किसी भी क्षेत्र में तनाव होने पर अपने शान्ति दूत भेजता है तथा आपसी बातचीत द्वारा समस्या का समाधान करवाता है ।
(vi) आवश्यकता पड़ने पर दो पक्षों के बीच मध्यस्थता भी करता है ।
(vii) कभी-कभी आर्थिक दबाव, आर्थिक तथा व्यापारिक प्रतिबन्धों का भी प्रयोग करता है ।


(viii) यदि इससे भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आती तो तनावग्रस्त क्षेत्रों में सैनिक बल प्रयोग की धमकी देता है और अत्यधिक जरूरत आ पड़ने पर बल प्रयोग भी करता है ।


(ix) विश्व के किसी क्षेत्र में सशस्त्र आक्रमण होने पर पीड़ित क्षेत्र की माँग पर या फिर परिस्थितियों के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा कार्यवाही करता है । इसके लिए संघ के पास शान्ति-सेना होती है ।

वर्तमान समय में संयुक्त राष्ट्र संघ की शान्ति-सेना विवादाग्रस्त या हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में शान्ति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है । इस प्रकार अपनी स्थापना के बाद से ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय विवादों और समस्याओं को सुलझाने में सफलता प्राप्त की है और आज भी सफल हो रहा है ।
अपनी स्थापना के बाद से ही संयुक्त संघ ने अनेक विवाद हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । रूस-ईरान विवाद, बर्लिन समस्या, कोरिया समस्या, लेबनान समस्या, स्वेज नहर की समस्या, कांगों समस्या, वियतनाम समस्या, रोडेशिया समस्या, फाकलैण्ड युद्ध, इराक-ईरान युद्ध, कुवैत समस्या, यूगोस्लाविया समस्या आदि समस्याओं को शान्तिपूर्ण हल निकालकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व शान्ति स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है । किन्तु पिछले कुछ वर्षों में रूस की कमजोरी और अमरीका की शक्ति और मनमानी के कारण संयुक्त राज्य संघ का महत्व कम हुआ है और संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता पर प्रश्न चि लग गया है । विश्व में अमरीका के निरन्तर बढ़े प्रभाव और एकाधिकार के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थिति कमजोर हो रही है । यही कारण है कि मार्च 2003 में सयुक्त राष्ट्र संघ अमरीका को इराक पर आक्रमण करने से नहीं रोक सका । ।

7– सुरक्षा परिषद् के संगठन एवं कार्यों की विवेचना कीजिए ।
उत्तर— सुरक्षा परिषद्का संगठन- सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं । सुरक्षा परिषद् में कुल 15 सदस्य है जिनमें 5 स्थायी और 10 अस्थायी है । संयुक्त राज्य अमरीका, रूस, यू० के०, फ्रांस तथा साम्यवादी चीन इस संस्था के 5 स्थायी सदस्य है । अस्थायी सदस्यों का चुनाव महासभा द्वारा दो वर्षों के लिए होता है । इस परिषद् का मुख्य कार्य विश्व-शान्ति को प्रत्येक प्रकार से सुरक्षित रखना है । किसी भी वाद-विवाद का अन्तिम निर्णय पाँच स्थायी सदस्यों की सहमति एवं चार अस्थायी सदस्यों की सहमति के आधार पर लिया जाता है । यदि स्थायी सदस्यों में से किसी एक सदस्य की किसी विषय पर अस्वीकृति हो जाती है तो वह निर्णय रद्द हो जाता है । स्थायी सदस्यों के इस अधिकार को निषेधाधिकार कहते हैं । इस परिषद् को विश्व में शान्ति स्थापित करने के लिए असीम अधिकार प्राप्त हैं । इस परिषद् ने अपने इन अधिकारों का अनेक अवसरों पर सदुपयोग भी किया है । इसे आवश्यकतानुसार सैन्य शक्ति के प्रयोग का भी अधिकार प्राप्त है ।

सुरक्षा परिषद् के प्रमुख कार्य- सुरक्षा परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
(i) अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष और विवाद के कारणों की जाँच करना और उसके निराकरण के शान्तिपूर्ण समाधान के उपाय खोजना ।
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा स्थापित करना ।
(iii) महासभा को नए सदस्यों के संबंध में सुझाव देना ।
(iv) अपनी वार्षिक रिपोर्ट तथा अन्य रिपोर्टो को महासभा के पटल पर रखना ।
(v) युद्ध को तत्काल बन्द करने के लिए आर्थिक सहायता को रोकना और सैन्य शक्ति का प्रयोग करना ।

8– वर्तमान में सुरक्षा परिषद् विश्व-शान्ति और सुरक्षा बनाए रखने में क्यों विफल रही है? सुरक्षा परिषद् को सक्षम बनाए रखने के लिए इसकी संरचना और कार्यशैली में सुधार हेतु अपने सुझाव दीजिए ।
उत्तर— उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-5 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

9– संयुक्त राष्ट्र के मुख्य कार्यों का विवेचन कीजिए ।
उत्तर— इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-6 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

10– भारतीय विदेश नीति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए । अथवा
उत्तर— भारतीय विदेश-नीति के प्रमुख तत्व एवं विशेषताएँ- देश की स्वतंत्रता प्राप्ति (1947 ई०) के समय से लेकर अब तक भारतीय विदेश नीति के जो प्रमुख तत्व एवं विशेषताएँ रही हैं, उनकी विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है

(i) साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध- साम्राज्यवादी शोषण से त्रस्त भारत ने अपनी विदेश नीति में साम्राज्यवाद के प्रत्येक रूप का कट विरोध किया है । भारत जानता है कि इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ विश्व-शान्ति एवं विश्व व्यवस्था के लिए अत्यंत घातक एवं गंभीर है । “भारत की नीति हमेशा से यही रही है कि यह पराधीन लोगों की स्वतंत्रता के प्रति आवाज उठाता रहा हैं एवं भारत का दृढ़ विश्वास रहा है कि साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद हमेशा से आधुनिक युद्धों का कारण रहा है । ” -के०एम० पणिक्कर इसी आधार पर भारत ने इण्डोनेशिया, टयूनीशिया, अल्जीरिया, मोरक्को, अंगोला, दक्षिण अफ्रीका, रोडेशिया (जिम्बाब्वे), साउथ वेस्ट अफ्रीका (नामीबिया) आदि राष्ट्रों के साम्राज्यवाद के विरुद्व चले स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन किया था ।

(ii) सभी राष्ट्रों से मित्रता- भारत ने विश्व के समस्त राष्ट्रों के साथ मिल-जुलकर कार्य करने एवं शान्ति को स्थायी बनाने के लिए तटस्थता का मार्ग अपनाया । भारत ने मित्रता के संबंधों को सुदृढ़ बनाया एवं अन्य राष्ट्रों को भी इस आदर्श की ओर चलने के लिए प्रेरित किया । सन् 1984 ई० में इसी उद्देश्य से अफ्रीकी-एशियाई देशों का दिल्ली में सम्मेलन किया गया । इसके उपरान्त बेलग्रेड सम्मेलन (1989 ई०), जकार्ता शिखर सम्मेलन (1992 ई०) तथा कार्टाजेना शिखर सम्मेलन (1995 ई०) में भी सभी राष्ट्रों के मध्य सोहार्दपूर्ण संबंधों को विकसित करने पर बल दिया गया ।

(iii) तटस्थता अथवा गुटनिरपेक्षता की नीति- युद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सबसे प्रमुख परिणाम विश्व का दो विरोधी गुटों में विभाजित होना था । स्वतंत्रता प्राप्ति से ही भारत ने निश्चय कर लिया था कि भारत इन दो विरोधी गुटों में से किसी में भी सम्मिलित नहीं होगा, बल्कि विश्व के सभी देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास करेगा । इस नीति के अनुसार भारत की एक स्वतंत्र विदेश नीति का निर्धारण किया गया । भारत की इस विदेश नीति को तटस्थता का नाम दिया गया है । गुटनिरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दोनों ही गुटों से अलग रहते हुए विश्व-शान्ति, सत्य और न्याय का समर्थन करना है ।

“गुटनिरपेक्षता शान्ति का मार्ग और युद्ध से बचाव का मार्ग है । इसका उद्देश्य सैनिक गुटबन्दियों से दूर रहना है । यह एक निषेधात्मक नीति नहीं है बल्कि एक सकारात्मक, एक निश्चित और मै आशा करता हूँ कि एक निरन्तर विकासशील नीति है…..-पं० नेहरू


(iv) विश्व-शान्ति और निःशस्त्रीकरण का समर्थन- भारत निरन्तर विश्व-शान्ति का समर्थन करता रहा है । इस कारण भारत ने हमेशा से ही निःशस्त्रीकरण की प्रक्रिया का समर्थन किया है । भारत का विचार रहा है कि विश्व-शान्ति तब ही स्थापित की जा सकती है जब भय और आतंक का वातावरण उत्पन्न करने वाली शस्त्रों की दौड़ से दूर रहा जाए और सभी राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र के प्रतिज्ञा-पत्र का पूर्ण ईमानदारी एवं सच्चाई से पालन करें । भारत ने कई बार अपने यहाँ निःशस्त्रीकरण सम्मेलन आयोजित किया है ।

(v) शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और पंचशील- अपने कूटनीतिक संबंधों के संचालन में भारत ने शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व को विशेष महत्व दिया । इस परम्परा ने आगे चल कर विश्व राजनीति में ‘देतान्त’ (तनाव शैथिल्य) की प्रक्रिया का विकास करने में सहायता प्रदान की । अन्तराष्ट्रीय राजनीति को सामान्य रूप से और भारतीय विदेश नीति को विशेष रूप से पं० नेहरू की मुख्य देन पंचशील के पाँच सिद्धान्तों के संबंध में थी इन सिद्धान्तों के अंतर्गत यह स्वीकार किया गया था कि भारत अपनी विदेश नीति को शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त पर आधारित करेगा, दूसरे देशों की सम्प्रभुता का सम्मान करेगा और किसी देश के साथ हुए विवाद को द्विपक्षीय वार्ता के द्वारा शान्तिपूर्ण वातावरण में सुलझाने का प्रयास करेगा । भारत की विदेश नीति का प्रमुख आदर्श पंचशील-सिद्धान्त रहा है । जून 1954 ई० में पं० जवाहरलाल नेहरू ने इस सिद्धान्त को प्रतिपादन किया था । जून 1955 ई० में बाण्डुग सम्मेलन (इण्डोनेशिया) में एशिया और अफ्रीका के 29 देशों ने इसे स्वीकार किया था ।

पंचशील के पाँच सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
(क) कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण न करे तथा शान्तिपूर्ण तरीकों से पारस्परिक विवादों का समाधान करे ।
(ख) कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे ।
(ग) सभी राष्ट्र एक-दूसरे की सम्प्रभुता तथा अखंडता का सम्मान करे ।
(घ) सभी राष्ट्र शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना के साथ अर्थात् मिल-जुलकर शान्तिपूर्वक रहे और परस्पर मैत्री पूर्ण संबंध कायम रखे ।
(ङ) सभी राष्ट्र पारस्परिक समानता तथा पारस्परिक हितों में अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहें ।

(vi) विदेशों से बिना शर्त आर्थिक सहायता की प्राप्ति- भारत ने अपने आर्थिक तथा औद्योगिक विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में विदेशी पूँजी प्राप्त की है । इस संबंध में विशेष बात यह है कि भारत ने यह आर्थिक सहायता विश्व के दोनों गुटों से बिना किसी शर्त के प्राप्त की है ।
(vii) संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग- प्रारम्भ से ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग किया है । इसके महत्व के विषय में पं० नेहरू ने कहा था- “हम संयुक्त राष्ट्र के बिना आधुनिक विश्व की कल्पना नहीं कर सकते । ” भारत ने सदैव ही विश्वहितों को प्रमुखता दी है । कोरिया, हिन्दचीन, साइप्रस व कांगों की समस्याओं के समाधान में भारत ने अपनी रुचि दिखाई थी और संयुक्त राष्ट्र के आदेश पर भारत ने यहाँ अपनी सेनाएँ भेजकर शान्ति स्थापना में सहयोग दिया था ।
(viii) जातीय भेदभाव का विरोध- भारत ही एक ऐसा राष्ट्र है जिसने संयुक्त राष्ट्र में जातीयता एवं रंगभेद की नीति का सबसे
प्रबल विरोध किया है । जातीय भेदभाव के औचित्य पर भारत के द्वारा इतनी दृढ़ एवं शक्तिशाली प्रतिक्रिया भारत की
गुटनिरपेक्षता की नीति के कारण सफल हो सकी ।

11– “भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में सदैव आस्था रही है । ” इस कथन के प्रकाश में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका पर प्रकाश डालिए ।


उत्तर— भारत संयुक्त राष्ट्र को विश्व-शान्ति स्थापित करने वाला एक सहारा मानता है । भारत संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थापक सदस्य है ।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न अंगों तथा विशेष अभिकरणों में सक्रिय भाग लेकर महत्वपूर्ण कार्य किया है । भारत ने आज तक संयुक्त राष्ट्र के आदेशों का पूर्णतः पालन किया है ।
भारत के संयुक्त राष्ट्र के साथ संबंधों के सन्दर्भ में भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र को समर्थन का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है


(i) भारतीय सेनाओं का योगदान- संयुक्त राष्ट्र ने भारतीय सेनाओं के कार्यों की प्रशंसा की है । इसी हेतु उसने कांगों में शान्ति स्थापना के लिए अपनी सेनाएँ भेजी । उन्होंने निष्पक्षता के साथ वहाँ शान्ति तथा सुरक्षा की स्थापना कर देश की एकता को बचाया । इसके अतिरिक्त भारत ने सोमालिया मे भी शान्ति स्थापनार्थ अपनी सेनाएँ भेजीं । भारतीय सेनाएँ यूगोस्लाविया, कम्बोडिया, लाइबेरिया, अंगोला तथा मोजाम्बिक में संयुक्त राष्ट्र की शान्ति स्थापनार्थ कार्यवाही में सफलतापूर्वक भाग लेकर सम्मान सहित स्वदेश लौटी है ।


(ii) आर्थिक सहयोग पर महत्वपूर्ण कार्य- भारत ने संयुक्त राष्ट्र से संबंधित देशों के आह्वान पर आर्थिक सहयोग पर अधिक-से-अधिक बल दिया है तथा यथायोग्य सहायता भी प्रदान की है । विभिन्न देशों के साथ आर्थिक सहयोग के लिए संयुक्त राष्ट्र के लिए स्थापित संयुक्त कमीशन तथा तकनीकी कार्यक्रमों के विकास में पूर्ण सहयोग दिया है । एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के विकासशील देशों के लिए तथा प्रादेशिक अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर आर्थिक सहयोग का समर्थन किया है । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि भारत ने आर्थिक विकास के लिए विश्व में अपनी अच्छी साख बनाई हैं ।


(iii) लोकतंत्र के सिद्धान्त पर बल- संयुक्त राष्ट्र में विचार-विमर्श की अवधि में भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के लोकतांत्रिक स्वरूप और सुरक्षा परिषद् तथा संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों को बढ़ी हुई सदस्य संख्या के अनुरूप अधिक प्रतिनिधि बनाने का दृढ़ता के साथ समर्थन किया । भारत ने अपने प्रस्ताव में संयुक्त राष्ट्र के अन्तर्गत ही लोकतंत्र के सिद्धान्त को लागू करने की आवश्यकता पर बल दिया तथा सन् 1994 ई० में महासभा के 49वें सत्र में सामान्य बहस के समय सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए अपना दावा भी किया ।


(iv) पर-राष्ट्रों के संघर्षों की समाप्ति में योगदान– भारत ने क्रोशिया तथा बोस्निया-हर्जेगोविना में हुए संघर्षों को समाप्त करने के उद्देश्य से सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावों को पूर्ण रूप से समर्थन दिया । भारत ने सोमालिया को मानवीय सहायता तत्काल भेजने में संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही का समर्थन किया तथा उसके कार्यों में सहयोग दिया ।

(v) एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए निगरानी का कार्य- नवम्बर 2011 ई० में एशिया-प्रशांत क्षेत्र की निगरानी हेतु संयुक्त राष्ट्र ने भारत का चयन कर उसे महत्ती जिम्मेदारी सौंपी है । यू० एन० संयुक्त निगरानी इकाई (J/u) में भारत ने चीन को हराकर सीट पक्की की है । एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए यह एकमात्र सीट हैं । J/u में भारत का पाँच वर्षीय कार्यकाल 1 जनवरी 2013 से शुरू हुआ । मतदान में 183 वोट पड़े । भारत को 106 व चीन को 77 वोट मिले । इस इकाई के लिए सदस्य जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय में भारत के स्थायी प्रतिनिधि ए० गोपीनाथन बने । इस पद को प्राप्त कर भारत की भूमिका इस क्षेत्र में काफी बढ़ गई, जहाँ पर पहले स्थान के लिए चीन पहले से ही वर्चस्व लड़ाई में उलझा हुआ था । निःशस्त्रीकरण और आतंकवाद की समाप्ति- भारत ने पश्चिम एशिया, अफगानिस्तान, इराक की वर्तमान स्थिति से जुड़े मुद्दों, जिनमें आतंकवाद प्रमुख है, पर सुरक्षा परिषद् की खुली बैठकों में सक्रिय रूप से वाद-विवाद किया है । महासभा की पहली समिति के 58वें अधिवेशन में भारत द्वारा व्यापक नरसंहार के हथियारों को प्राप्त करने से आतंकवादियों को रोकने के लिए उपाय’ विषय पर प्रस्तुत प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अपना लिया गया है । वर्ष 2004 से 2006 ई० की अवधि के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भारत को सदस्यता मिलना संयुक्त राष्ट्र के प्रति उसे बहुआयामी योगदान का एक प्रबल प्रमाण है । उपर्युक्त विवेचना से यह तथ्य स्पष्ट होते हैं कि भारत और संयुक्त राष्ट्र के संबंध संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से ही मैत्रीपूर्ण तथा सहयोगी रहे हैं । भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों में पूर्ण विश्वास तथा आस्था रखता है । भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ तथा उसके बाहर भी विश्व के दो गुटों में संतुलन बनाए रखने का प्रभावशाली प्रयत्न किया है और सदा शान्ति व न्याय का पक्ष लिया है ।

12– गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के संबंध में पं० जवाहरलाल नेहरू की भूमिका का वर्णन कीजिए ।

उत्तर— गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के संबंध में पं० जवाहरलाल नेहरू की भूमिका- आजादी के बाद स्वतंत्र और नवगठित राष्ट्र भारत को दुनिया के नक्शे पर स्थापित करना उसके नेताओं के सामने एक बड़ी चुनौती तो थी, लेकिन पंडित नेहरू ने इस काम को बड़ी कुशलता से अंजाम दिया । इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के मुख्य कर्ताधर्ता पंडित नेहरू थे । वह समझते थे कि अपनी महान् सभ्यता के कारण भारत निडरता से अपनी बात रख सकता है । यदि भारत अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी पहचान नहीं बना पाया तो औपनिवेशिक गुलामी से मिली आजादी अर्थहीन है । यह देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ही थे जिन्होंने महादेश के समान आकार वाले देश की भावना को गुटनिरपेक्षता और उसके संगठन का स्वरूप दिया । उस आन्दोलन का परिप्रेक्ष्य द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दो विरोधी गुटों में विश्व का विभाजन था, एक अमरीका तथा दूसरा गुट सोवियत संघ के नेतृत्व में । देश के महान नेता पंडित नेहरू मानते थे कि एशिया तथा अफ्रीका के नवस्वतंत्र और गरीब देशों को बड़ी शक्तियों के सैनिक गुटों से फायदे के बजाए नुकसान ही होगा ।

नव स्वतंत्र देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी गरीबी, निरक्षरता और बीमारी जैसे बदतर हालत से निबटने की और यह सब सैनिक गुटों में शामिल होने से नहीं हो सकता । सच तो यह है कि तत्कालीन परिस्थितियों में भारत और उसके समान अन्य देशों को विकास के लिए शान्ति और शान्त वातावरण की आवश्यकता है । इसलिए भारत ने तो बगदाद पैक्ट, मनीला संधि, सीटी और सेंटो में शामिल हुआ और न ही इन संधियों का समर्थन किया । इन्हीं संधियों के जरिए पश्चिम तथा पूर्व एशियाई देशों को पश्चिमी शक्ति गुटों के साथ जोड़ा गया । पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत सिर्फ निष्पक्ष या सैनिक गुटों से दूर ही नहीं रहा, बल्कि गुटनिरपेक्षता के अपने सिद्धान्त पर भी अड़ा रहा । गुटनिरपेक्ष भारत तथा अन्य नवंस्वतंत्र राष्ट्रों की उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद से हासिल की गई आजादी बरकरार रखने के संघर्ष का प्रतीक है । नवस्वतंत्र राष्ट्रों का नेतृत्व भारत कर रहा था । संयुक्त राष्ट्रसंघ में इन्हें सदस्यता मिलने से वहाँ के सदस्य देशों की संख्या काफी बढ़ गयी । एक देश, एक वोट की व्यवस्था ने गुटनिरपेक्ष समुदाय की सोवियत संघ की मदद से पश्चिमी गुट का सामना करने में मदद की । इस प्रकार पंडित नेहरू के गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत ने विश्व संबंधों के जनवादीकरण में मदद की ।

उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में औपनिवेशिक एवं पूर्व औपनिवेशिक देशों की सहायता को पंडित नेहरू ने भारत की विदेश नीति को प्रमुख आधार बनाया । इसमें गुटनिरपेक्षता ने काफी मदद की । विदेश नीति को मजबूत करने के उद्देश्य को भी इससे सहायता मिली । पंडित नेहरू ने भारत की विदेश नीति को युद्ध और हिरोशिमा की घटना के बाद युद्ध न्यूक्लियर युद्ध के खतरे के खिलाफ खड़ा किया । पंडित नेहरू के इस विचार को आइंस्टीन तथा वर्टेड रसेल जैसे महान् बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त था । पंडित नेहरू ने लगातार जोर दिया कि विभिन्न विचारधाराओं और व्यवस्थाओं वाले देशों के बीच शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व एक आवश्यकता हैं । उनका विश्वास था कि इस सच्चाई पर किसी का एकाधिकार नहीं है और बहुलवाद जीवन की सच्चाई थी । इस उद्देश्य के लिए पं० जवाहरलाल नेहरू ने शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के बीच सिद्धान्त पेश किए जिस सिद्धान्त के बीच विभिन्न देशों के बीच संबंधों का नियमन होगा । ये पाँच सिद्धान्त थे- एक दूसरे की भौगोलिक अखंडता और सार्वभौमिकता के लिए सम्मान, हमले की नीति का त्याग, एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं होगा, समानता और आपसी फायदा तथा शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व । इन राष्ट्रों के विश्व व्यवहार संबंधी नेहरूजी के विचार-विमर्श में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी । आजादी के पहले मार्च 1947 ई० में उनकी प्रेरणा से एक एशियाई संबंधों का सम्मेलन आयोजित किया गया । यह सम्मेलन दिल्ली में हुआ । जिसमें बीस से अधिक देशों ने भाग लिया ।

13– गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए उसमें भारत की भूमिका का उल्लेख कीजिए ।


उत्तर— गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का महत्व- वर्तमान विश्व के संदर्भ में गुटनिरपेक्षता का व्यापक महत्व है, जिसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता हैवर्तमान विश्व के सन्दर्भ में गुटनिरपेक्षता का व्यापक महत्व है, जिसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
(i) गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने साम्राज्यवाद का अन्त करने और विश्व में शान्ति व सुरक्षा बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं ।
(ii) गुटनिरपेक्षता के कारण ही विश्व की महाशक्तियों के मध्य शक्ति-सन्तुलन बना रहा ।
(iii) गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में एक-दूसरे को पर्याप्त सहयोग दिया है ।
(iv) गुटनिरपेक्षता ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित किया है ।
(v) गुटनिरपेक्ष सम्मेलनों ने सदस्य-राष्ट्रों के मध्य होने वाले युद्धों एवं विवादों का शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान किया है ।
(vi) गुटनिरपेक्ष ने तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावना को समाप्त करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
(vii) यह आन्दोलन निर्धन तथा पिछड़े हुए देशों के आर्थिक विकास पर बहुत बल दे रहा है ।
(viii) गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने विश्व के परतंत्र राष्ट्रों को स्वतंत्र कराने और रंगभेद की नीति का विरोध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
(ix) इसने सार्वभौमिक व्यवस्था की तरफ ध्यान आकर्षित किया तथा अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में शीत-युद्ध की भूमिका को कम करने तथा इसकी समाप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
(x) गुटनिरपेक्ष आन्दोलन राष्ट्रवाद को अन्तर्राष्ट्रवाद में परिवर्तित करने तथा द्वि-ध्रुवीकरण को बहु-केंद्रवाद में परिवर्तित करने का उपकरण बना ।
(xi) इसने सफलता पूर्वक यह दावा किया कि मानव जाति की आवश्यकता पूँजीवाद तथा साम्यवाद के मध्य विचारधारा संबंधी विरोधों से हटकर है ।
(xii) गुटनिरपेक्षता नए राष्ट्रों के संबंधों में स्वतंत्रतापूर्वक विदेशों से संबंध स्थापित करके तथा सदस्यता प्रदान करके उनकी सम्प्रभुता की सुरक्षा का साधन बनी हैं ।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका-–गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना तथा उसके विकास में भारत की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है । जिसका विवरण निम्न प्रकार है
(i) गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का संगठन बनाने की दिशा में भारत ने पहल की ।

(ii) स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद एशियाई देशों का एक सम्मेलन नई दिल्ली में बुलाया गया जिसमें 18 देशों ने भाग लिया ।
(iii) सन् 1949 में दूसरा एशियाई सम्मेलन पुन: नई दिल्ली में बुलाया गया ।
(iv) सन् 1955 में भारत, चीन व इंडोनेशिया की पहल पर इंडोनेशिया के बाण्डुंग नगर में 29 एशियाई राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू की विशेष भूमिका रही । इसी सम्मेलन में पंचशील के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया ।
(v) सन् 1961 में बेलग्रेड सम्मेलन में पं० नेहरू के विशेष प्रयासों से तटस्थता व गुटनिरपेक्षता की नीति का विकास किया गया । उस समय 25 राष्ट्रों ने इस नीति में दृढ़ विश्वास प्रकट किया ।
(vi) गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का सातवाँ सम्मेलन सन् 1983 में नई दिल्ली में स्व– प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी की अध्यक्षता में हुआ जिसमें 101 सदस्य सम्मिलित थे ।
(vii) गुटनिरपेक्ष आन्दोलन द्वारा स्थापित ‘अफ्रीका निधि’ की स्थापना व संचालन के लिए बनी 9 सदस्यों की समिति का भारत अध्यक्ष रहा ।

14– गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए तथा वर्तमान परिस्थितियों में इसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर— गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के उद्देश्य व सिद्धान्त या विशेषताएँ- गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के प्रमुख उद्देश्य व सिद्धान्त निम्न प्रकार निर्धारित किए गए
(i) विश्व में शांति बनाए रखना ।
(ii) उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध करना ।
(iii) सहयोगी और सहअस्तित्व के आधार पर अन्य देशों से संबंध रखना ।
(iv) सैनिक गुटों में शामिल न होना तथा उनका विरोध करना ।
(v) हथियारों की होड़ समाप्त करना ।
(vi) राष्ट्रों की स्वाधीनता, समानता, निशस्त्रीकरण तथा मानव अधिकारों का समर्थन करना ।
(vii) रंगभेद नीति तथा शोषण का विरोध करना ।
(viii) महाशक्तियों के दोनों गुटों में अप्रभावित रहते हुए स्वतन्त्र नीति अपनाना तथा न्याय को समर्थन देना ।
(ix) विश्व के देशों के बीच तनाव कम करना । ।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता- गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का गठन, अफ्रीका, एशिया, लेटिन अमरीका एवं विश्व के अन्य उन देशों को मिलाकर किया गया जो तत्कालीन दौर में उपनिवेशी समस्याओं से गुजर रहे थे । आंदोलन की स्थापना के शुरूआती वर्षों में इसके सदस्य देशों में से कुछ ने तो स्वतंत्रता प्राप्त कर ली और कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया में थे । इसका गठन करने वाले पाँच देशों के प्रमुखों में पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू भी थे । गुटनिरपेक्ष आंदोलन का गठन जिन परिस्थितियों और उद्देश्य को लेकर किया गया था, अब वे कितने प्रासंगिक हैं, इसमें संदेह है । हाल ही में वेनेजुएला में हुए इस सम्मेलन में हमारे प्रधानमंत्री के भाग न लेने की वजह भी यही रही है । भारत की ओर से उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के नेतृत्व में एक दल ने सम्मेलन में भाग लिया । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सम्पूर्ण भूमिका को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एशिया तथा अफ्रीका के नवोदित राष्ट्रों के लिए एक शक्तिशाली विकल्प के रूप में प्रस्तुत हुआ है इसने अपेक्षाकृत छोटे एवं कमजोर राष्ट्रों की स्वतंत्रता एवं समता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । अनेक गम्भीर परिस्थितियों में महाशक्तियों के मध्य उत्पन्न हुए संघर्षों को रोकने एवं अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बनाए रखने में इन राष्ट्रों ने महत्वपूर्ण एवं सार्थक प्रयास किए ।

आधुनिक समय में संयुक्त राष्ट्र के लगभग 2/3 सदस्य गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के हैं तथा इन्होंने इन अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से विश्व-शान्ति, उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के अन्त, रंगभेद की समाप्ति परमाणु शस्त्रों पर रोक, निःशस्त्रीकरण, हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करना आदि विषयों को उठाया, विचार-विमर्श किया तथा अनेक मुद्दों पर सफलताएँ भी प्राप्त की हैं । इसकी सदस्यता अब 120 तक पहुंच गई है । अतः आन्दोलन की नई शक्ति प्राप्त हुई हैं, उसका प्रभाव बढ़ रहा है । शीतयुद्ध की समाप्ति पर इसकी राजनीतिक उपादेयता चाहे समाप्त हो गई है, परन्तु आर्थिक विकास के लिए अब भी इस आन्दोलन की प्रासंगिकता बनी हुई है । आधुनिक समय में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन से हटकर आर्थिक आन्दोलन का रूप धारण करता जा रहा है । गुटनिरपेक्ष राष्ट्र ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं । गुटनिरपेक्षता की नीति में अब पारस्परिक सहयोग की धारणा का विकास हो रहा है ।

15– गुटनिरपेक्ष आन्दोलन क्या है? इसकी विशेषताएँ लिखिए ।
उत्तर— गुटनिरपेक्ष आन्दोलन या गुटनिरपेक्षता-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय जगत में एक महत्वपूर्ण घटना गुटनिरपेक्षता का उदय है । गुटनिरपेक्षता के प्रवर्तक भारत के पं० जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर, इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो तथा युगोस्लाविया के मार्शल टीटो थे । इन नेताओं ने जिस गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को विकसित किया, आज विश्व के 120 राष्ट्र उसके सदस्य हैं । संसार के गुटनिरपेक्ष देशों को तृतीय विश्व की संज्ञा दी जाती है । द्वि-ध्रुवीय राजनीति के विलोपन के साथ ही अब गुटनिरपेक्षता की प्रांसगिकता समाप्तप्राय हो चुकी है ।

गुटनिरपेक्षता का अर्थ एवं परिभाषाएँ- भारत की विदेश नीति के संबंध में पं० नेहरू ने कहा था
“हम उन शक्ति गुटों से अलग रहना चाहते हैं जिनके कारण पहले भी महायुद्ध हुए और भविष्य में भी हो सकते हैं । ”………-पं० जवाहरलाल नेहरू

किन्तु गुटों से अलग रहने की नीति का यह अर्थ नहीं है कि हम संसार की घटनाओं को चुपचाप बैठे देखते रहें और दुनिया से कटे रहें । वास्तव में गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का अर्थ है, प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय मसले पर स्वतंत्र, स्पष्ट तथा ऐसा रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाना जो किसी भी गुट से प्रेरित न हो तथा जिससे विश्व-शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव को बढ़ावा मिले । सामान्य अर्थ में, गुटनिरपेक्षता का अर्थ विश्व के शक्तिशाली गुटों से पृथक या तटस्थ रहकर अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का संचालन करना और अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा करना है । गुटनिरपेक्षता को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है

“गुटनिरपेक्षता शान्ति का मार्ग और युद्ध से बचाव का मार्ग है । इसका उद्देश्य सैनिक गुटबन्दियों से दूर रहना है । यह एक निषेधात्मक नीति नहीं है, बल्कि एक सकारात्मक, एक निश्चित और मैं आशा करता हूँ कि एक निरन्तर विकासशील नीति है । ”……-पं०जवाहरलाल नेहरू

“गुटनिरपेक्षता की नीति का अर्थ युद्ध में तटस्थ रहना नहीं है । इसका अर्थ है- स्वतंत्रता, शान्ति तथा सामाजिक न्याय के कार्य में सक्रिय योगदान । ”……….-सुकर्णो

“मेरे विचार में गुटनिरपेक्षता की नीति का सार यह है कि किसी भी राजनीतिक या सैनिक गुट में सम्मिलित होने से अस्वीकृति प्रकट करना । “……………………..-लिस्का

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि गुटनिरपेक्षता एक ऐसी सकारात्मक एवं रचनात्मक नीति है, जो सामूहिक सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त करती है । अत: गुटनिरपेक्षता का आशय किसी भी सैनिक गुटबन्दी से दूर रहकर राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखते हुए न्यायोचित पक्ष में अपनी विदेश नीति का संचालन करना है ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की विशेषताएँ- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-14 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

16– “गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य क्या था? वर्तमान विश्व के सन्दर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिए । उत्तर— उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-14 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

17– दक्षेस (सार्क) से आप क्या समझते हैं? इसकी आवश्यकता पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर— उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-10 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

18– “सार्क की स्थापनाने दक्षिण एशिया के देशों में पारस्परिक सहयोग के नए युग का सूत्रपात किया है” स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर— दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सार्क का बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा । इसे क्षेत्र के इतिहास में नयी सुबह की शुरूआत’ कहा जा सकता है । भूटान नरेश ने तो इसे सामूहिक बुद्धिमता और राजनीतिक इच्छा-शक्ति का परिणाम बताया है, किन्तु व्यवहार में इस संगठन की सार्थकता कम होती जा रही है । सार्क ने पिछले दस वर्षों में एक ही ठोस काम किया है और वह है, खाद्य कोष बनाना । कृषि, शिक्षा, संस्कृति, पर्यावरण आदि 12 क्षेत्रों में सहयोग के लिए सार्क को देश के सिद्धान्ततः सहमत हैं । सार्क देश में भारत प्रमुख और सर्वाधिक शक्तिशाली देश है, इसलिए कुछ सार्क देश यह समझने लगे कि इस संगठन में भारत का प्रभुत्व छाया हुआ है । इस संबंध में भारत ने तो यह स्पष्ट कर दिया था कि हम क्षेत्र में अपनी चौधराहट स्थापित करना नहीं चाहते । हमारा उद्देश्य तो मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना है । इसके बावजूद भारत के बांग्लादेश, नेपाल व श्रीलंका के संबंधों में दरार आ गयीं । पाकिस्तान तो भारत के विरुद्ध विष उगलने में चूकता नहीं है । इसके अतिरिक्त सदस्य देशों की शासन-प्रणालियों और नीतियों में भिन्नता तथा द्वि-पक्षीय व विवादास्पद मामलों की छाया ने भी संगठन को निर्बल बनाए रखा है । इन कारणों और परस्पर अविश्वास के आधार पर यह संगठन केवल सैद्धान्तिक ढाँचा मात्र रह गया है, उसका कोई व्यावहारिक महत्व बने रहना संभव नहीं । फिर भी इसकी निम्नलिखित उपलब्धियाँ सराहनीय हैं–


(i) दक्षेस शिखर-वार्ता प्रतिवर्ष आयोजित की जाती है और निर्णय भी सर्वसम्मति से ही लिए जाते हैं ।
(ii) दूसरे शिखर सम्मेलन में इसका कार्यालय काठमांडू में स्थापित करने का निर्णय आपसी सहयोग बढ़ाने में सहायक हुआ है ।
(iii) तीसरे शिखर सम्मेलन में आतंकवाद निरोधक समझौता एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ।
(iv) इस्लामाबाद के चौथे शिखर सम्मेलन में ‘दक्षेस-2000’ एकीकृत योजना पर बल दिया गया ।
(v ) पाँचवें शिखर सम्मेलन में संयुक्त उद्योग स्थापित करने तथा सातवें शिखर सम्मेलन में ‘दक्षिण एशियाई व्यापार वरीयता समझौता’ (SAFTA) की स्वीकृति का काम हुआ ।
(vi) सामूहिक विकास की दृष्टि से ‘दक्षिण एशियाई विकास कोष’ की स्थापना की गयी । 11 वें शिखर सम्मेलन के ‘काठमांडू घोषणा पत्र में आतंकवाद को समाप्त करने की प्रतिबद्धता दोहरायी गयी । ।


(vii) 12 वें शिखर सम्मेलन में दक्षिण एशिया को ‘मुक्त-व्यापार क्षेत्र’ बनाने के लिए साफ्ट (SAFTA) संधि हुई जो 1 जनवरी, 2006 से लागू हुई । इसके अतिरिक्त विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, दूर संचार, यातायात, कृषि, ग्रामीण विकास, वन विकास, मौसम विभाग आदि अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पारस्परिक सहयोग प्रगति पर है । दक्षेस की अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं । दक्षेस फेलोशिप तथा दक्षेस छात्रवृत्तियों से नागरिकों में सामूहिक भावना का विकास हो रहा है । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि सार्क की स्थापना ने दक्षिण एशिया में पारस्परिक सहयोग के नए युग का सूत्रपात किया है ।

19– सन् 1971 ई० के उपरान्त भारत-पाक संबंधों का परीक्षण कीजिए ।
उत्तर— सन् 1971 ई० के उपरान्त भारत-पाकिस्तान संबध- पाकिस्तान कभी भारत का अंग रहा है । अतः सन् 1947 में पृथक होने के बाद भी भारत ने सदा यह प्रयास किया कि पाकिस्तान के साथ एक छोटे भाई जैसे मधुर संबंध रखे जाए, परंतु दुर्भाग्य से भारत को इसमें सफलता न मिली । इसका कारण यह था कि पाकिस्तान ने सदा भारत के प्रति घृणा की नीति अपनायी और सामाजिक विकास की कोई परवाह न की । पाकिस्तान ने सदा ही भारत की मित्रता का हाथ ठुकराया और सदा अपनी जनता में भारत के प्रति घृणा उत्पन्न की । पाकिस्तान ने भारत पर तीन बार (सन् 1947, 1965 तथा 1971) में हमला किया । कभी भारत के विमान का अपरहण करके जलाया तो कभी सीमा पर गोलाबारी की । सन् 1971 ई० में ही पाकिस्तान ने अपने पूर्वी भाग की जनता का निर्ममता से दमन तथा शोषण किया । परिणामस्वरूप 1 करोड़ बंगाली शरणार्थी भारत आ गए । बंगाली जनता के विद्रोह के कारण पाकिस्तान का अंग उससे पृथक हो गया ।


71 ई० में भी पाकिस्तान ने भारत पर अचानक आक्रमण किया जिसमें उसकी करारी हार हई और भारत ने 5.000 वर्ग मीटर से भी अधिक पाकिस्तानी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया किन्तु इस हार के बाद पाकिस्तान में तानाशाही शासन का पतन हुआ और लोकतन्त्रीय सरकार की स्थापना हुई । इस स्थिति में भारत ने फिर पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया जिसे पाकिस्तान के राष्ट्रपति भुट्टो ने स्वीकार किया । परिणामस्वरूप, जुलाई 1972 में भारत तथा पाकिस्तान के बीच शिमला में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दोनों देशों ने भविष्य में शांति से अपने सभी विवादों को सुलझाने का निश्चय किया । भारत ने पाकिस्तान की जीती हुई जमीन उसे वापस देने की घोषणा की । शिमला समझौते की दोनों देशों की संसद ने पुष्टि कर दी और ऐसा प्रतीत हुआ कि इस समझौते के परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान के दुःखद संबंधों का इतिहास अब समाप्त होगा । किन्तु शांतिपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किए गए भारत के अणु बम परीक्षण पर पाकिस्तान ने विश्व भर में जो बवाल मचाया उससे लगा कि भारत के प्रति उसका मन अभी साफ नहीं है और भारत के सहयोग और शांतिपूर्ण संबंधों का अभी वह आदर करने को तैयार नहीं है ।

यह संतोष की बात थी कि सितम्बर, 1974 में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामबाद में भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों का सम्मेलन हुआ और उसमें डाक-तार जैसे संचार साधनों व एक-दूसरे देश में आने-जाने के बारे में समझौता हो गया । मई, 1977 में दोनों देशों के प्रतिनिधियों में इस्लामाबाद में वार्ता हुई जिसमें राजदूत स्तर पर पूरे राजनयिक संबंध फिर से कायम करने, एक-दूसरे के ऊपर ये उड़ान करने, विमान संबंधों को फिर से कायम करने तथा रेल द्वारा माल व सवारी यातायात फिर से चालू करने का समझौता हुआ । इस समझौते में 12 वर्षों से पाकिस्तान से टूटे संबंध फिर से जुड़ गए और आपसी सद्भावना उत्पन्न हुई ।

किन्तु सन् 1982 ई० के बाद पंजाब के उग्रवादियों को प्रशिक्षण और हथियार देने के कारण भारत और पाकिस्तान के संबंधों में फिर से तनाव आ गया । पंजाब के बाद कश्मीर के आतंकवादियों को हथियार और प्रशिक्षण देकर पाकिस्तान ने तनाव को और बढ़ा दिया । फरवरी, 1999 में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान से संबंधों को सुधारने की पहल की तथा बस द्वारा पाकिस्तान की यात्रा की । फलस्वरूप लाहौर और दिल्ली के बीच बस सेवा प्रारंभ हुई, लाहौर घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर हुए और दोनों देशों के बीच अनेक समझौते भी हुए, किन्तु जल्दी ही (मई, 1999 में) कारगिल संकट के कारण दोनों देशों के बीच दोबारा से तनाव उत्पन्न हो गया । अक्टूबर, 1999 से पाकिस्तान में सैनिक शासन की स्थापना हो गयी । जुलाई, 2001 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भारत आए और दोनों देशों के शासकों के बीच आगरा वार्ता हुई । यह वार्ता पूरी तरह असफल हुई ।

आगरा शिखर सम्मेलन के असफल रहने के कारण निम्न प्रकार थे
(i) वार्ता में सीमापार के आतंकवाद के मुद्दे को शामिल न करने की पाकिस्तान की जिद्द ।
(ii) शिमला समझौते व लाहौर घोषणा-पत्र के पालन की पाकिस्तान की अनिच्छा ।
(iii) पाकिस्तान द्वारा वार्ता में केवल कश्मीर मुद्दे पर ही ध्यान केंद्रित करना ।
(iv) हुरियत नेताओं से मिलने का पाकिस्तानी राष्ट्रपति का अशोभनीय प्रदर्शन ।
(v) संपादकों व पत्रकारों के साथ पाकिस्तानी राष्ट्रपति की बैठक का प्रसारण ।

13 दिसम्बर, 2001 को भारत की संसद पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमला कर दिया जिससे दोनों देशों के बीच युद्ध जैसी स्थिति बन गई । किन्तु जनवरी, 2004 के बाद से दोनों देशों के संबंधों में फिर सुधार आया । दोनों देशों ने आपसी सद्भाव और सहयोग को बढ़ाने के लिए अनेक घोषणाएँ की । भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सार्क देशों के सम्मेलन में भाग लेने इस्लामाबाद गए । दोनों देशों के बीच बंद पड़ी विमान सेवा, रेल सेवा (समझौता एक्सप्रेस), लाहौर बस सेवा फिर से शुरू हो गयी । लंबे समय बाद दोनों देशों की क्रिकेट टीम एक-दूसरे के यहाँ गयीं । अप्रैल, 2005 में श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा भी शुरू हो गयी तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशरफ तीन दिवसीय यात्रा पर भारत आए । किन्तु 26 नवम्बर, 2008 को मुंबई में हुए पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के संबंध फिर से तनावपूर्ण हो गए । इस प्रकार सन् 1971 के बाद से भारत-पाकिस्तान संबंधों में निरन्तर उतार-चढ़ाव आता रहा है । वर्ष 2012 में दोनों देशों के मध्य विभिन्न मुद्दों पर विदेश मंत्री, विदेश सचिव तथा गृह सचिव स्तर की वार्ताएँ पुनः आरम्भ हो चुकी हैं । भारत-पाक संबंधों की यह विशेषता बन गयी है कि कुछ वर्ष दोनों देशों के संबंध सुधरते हैं और इसी बीच पाकिस्तान की तरफ से भारत के विरुद्ध छुपकर कुछ ऐसा किया जाता है कि दोनों के संबंध फिर से बिगड़ जाते हैं । इसका कारण यही है कि पाकिस्तान दुनिया को दिखाने के लिए तो भारत से संबंध सुधारने का नाटक करता है; किन्तु गुपचुप तरीके से भारत को नुकसान पहुँचाने का मौका देखता रहता है ।

20– संयुक्त राष्ट्र संघ की एक विशिष्ट संस्था के रूप में यूनेस्को के कार्यों व भूमिका का परीक्षण कीजिए ।
उत्तर — यूनेस्को की स्थापना- पिछले दो महायुद्धों के पश्चात् यह विचार किया गया है कि जब तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग के भावना को विकसित नहीं किया जाएगा तब तक विश्व में शांति स्थापित करना असंभव है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की स्थापना की गई । इस संघर्ष में अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना को विकसित करने के लिए एक विशेष विभाग खोला गया जिसे यूनेस्कों की संज्ञा दी जाती है । वस्तुस्थिति यह है कि इस विभाग के निर्माण का श्रेय लगभग तीन दर्जन से अधिक राष्ट्रों के उन वैज्ञानिकों, कलाकारों विचारकों तथा शिक्षाशास्त्रियों को है जिन्होंने यह अनुभव किया कि अंतराष्ट्रीय सद्भावना को केवल राजनीतिक तथा आर्थिक संधियों तथा योजनाओं के आधार पर ही विकसित नहीं किया जा सकता ।

इन लोगों का विचार था कि युद्धों को रोकना तथा शांति की स्थापना करना एक मनोवैज्ञानिक समस्या है न कि राजनीतिक । अतएव उन सभी राजनैतिक तथा धार्मिक संगठनों के लिए शैक्षिक, सांस्कृतिक तथा मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों का होना परम आवश्यक है जिनका निर्माण राजनीतिक तथा धार्मिक सुरक्षा के लिए तैयार किया गया है । अतः इन सभी महापुरुषों का यह अखंड विश्वास हो गया कि यदि सामाजिक जीवन से प्रतिस्पर्धा को समाप्त करके सहयोग पर अधिक बल दिया जाए तो संसार के सभी राष्ट्रों की कला, साहित्य विज्ञान तथा संस्कृति अधिक से अधिक विकसित होती रहेगी । यूनेस्को के कार्य- अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए यूनेस्को निम्नलिखित कार्य कर रहा है

(i) यूनेस्को इस बात का प्रयास कर रहा है कि विभिन्न राष्ट्रों के बीच फैला हुआ भय सन्देह तथा अविश्वास दूर हो जाए जिससे उनके आपसी संबंध अच्छे बन सकें ।

(ii) यह संघ इस बात के लिए विशेष प्रयास कर रहा है कि संसार के सभी पिछड़े हुए देशों से निरक्षरता समाप्त हो जाए ।

(iii) यह संस्था प्रत्येक राष्ट्र के साहित्य, विज्ञान, संस्कृति तथा कला को अन्य राष्ट्रों के निकट पहुँचाने का प्रयास करता है जिससे संसार के प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों के बौद्धिक विकास का ज्ञान हो जाए ।

(iv) यूनेस्को शोधकर्ताओं को आर्थिक सहायता देता है जिससे अधिक से अधिक शोध कार्य हो सकें ।

(v) यह संस्था शिक्षकों, विचारकों तथा वैज्ञानिकों को इस बात के अवसर प्रदान करती है कि वे परस्पर विचार-विमर्श कर सकें जिससे रचनात्मक कलाओं को सृजन होता रहे ।

(vi) यह विभाग पिछड़े हुए राष्ट्रों के स्कूलों को आर्थिक सहायता देता है ।
(vii) यूनेस्को विभिन्न राष्ट्रों की पाठ्य-पुस्तकों में शोधन तथा पाठ्यक्रमों में निर्माण हेतु परामर्श देता है एवं महत्वपूर्ण साहित्यिक ग्रंथों का अनुवाद भी करता है ।

(viii) यह विभाग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य की प्रदर्शनियों का आयोजन करता है जिससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना विकसित हो जाए ।

(ix) यूनेस्को एक राष्ट्र के शिक्षकों तथा बालकों को दूसरे राष्ट्रों में भ्रमण करने के लिए भी प्रोत्साहित करता है जिससे संसार के समस्त राष्ट्र अधिक से अधिक निकट हो जाए ।
(ix) यूनेस्को रेडियो, टेलीविजन तथा अन्य साधनों के द्वारा जनता जर्नादन में अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयास करता है ।

(x) यूनेस्को के उपर्युक्त कार्यों को सफल बनाने के लिए संसार के सभी राष्ट्रों का सहयोग आवश्यक है । अतः संसार के प्रत्येक राष्ट्र को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनकर इस विभाग की प्रत्येक क्रिया में हृदय में रूचि लेनी चाहिए ।

यूनेस्को की भूमिका– यूनेस्को की भूमिका में लिखा है- चूँकि युद्ध मनुष्यों के मस्तिष्कों में आरम्भ होते हैं इसलिए शांति की रक्षा के साधन भी मनुष्य के मस्तिष्क से ही निर्मित किए जाने चाहिए । न्याय तथा शांति बनाए रखने के लिए मानवता की शिक्षा तथा संस्कृति का व्यापक प्रसार मानव की महत्ता के लिए आवश्यक है । यह एक ऐसा पवित्र कर्त्तव्य है जो प्रत्येक राष्ट्र को आपसी सहयोग की भावना के आधार पर पूरा करना चाहिए । केवल सरकारों के राजनीतिक तथा आर्थिक समझौते तथा बंधनों द्वारा स्थापित की हुई शांति को ऐसी शांति नहीं कहा जा सकता है जिसे संसार के सभी लोग एकमत होकर स्वीकार कर लें इस दृष्टि से यदि शांति को कभी असफल नहीं होना है तो उसे मानव जाति को बौद्धिक तथा नैतिक अखंडता पर आधारित होना चाहिए ।

यूनेस्को की उपर्युक्त भूमिका से स्पष्ट हो जाता है कि यदि विश्व में स्थायी शांति स्थापित करनी है तो संसार के विभिन्न राष्ट्रों में शिक्षा विज्ञान तथा संस्कृति के क्षेत्रों में आपसी विभिन्नताएँ तथा विरोध को मिटाकर विश्व-संस्कृति को विकसित करना परम आवश्यक है । यह महान् कार्य केवल उसी समय पूरा हो सकता है जब विभिन्न राज्यों के शिक्षाशास्त्री, दार्शनिक, साहित्यकार, तथा कवि आदि समय-समय पर एक दूसरे को मिलकर समस्याओं को परस्पर विचार-विमर्श द्वारा सुलझाने के लिए एकदूसरे के दृष्टिकोण को समझ कर विभिन्न संस्कृतियों की अच्छी अच्छी बातों को ग्रहण करते हुए एक-दूसरे के निकट आते रहें । यूनेस्को का उद्देश्य- यूनेस्को का पूरा नाम ‘संयुक्त राष्ट्रीय शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संस्था’ है इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना विकसित करके विश्व शांति स्थापित करना है । इस महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभाग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के द्वारा लोगों के मस्तिष्क को मनोवैज्ञानिक तथा बौद्धिक रूप से प्रशिक्षित करके उनमें ऐसे गुण को विकसित करना चाहता है जिनके आधार पर वे स्वयं ही युद्ध से घृणा करते हुए अंतर्राष्ट्रीय महत्व का आदर करने लगे ।

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