Up board class 12th civics chapter 2 राज्यों के कार्यों के सिद्धान्त (Theories of the Functions of States)
लघु उत्तरीय प्रश्न
1—राज्य साध्य है या साधन? इस विषय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उ०- सच तो यह है कि राज्य को साधन या साध्य के रूप में देखना ही गलत है। दोनों में इतना पारस्परिक संबंध है कि वे एक दूसरे के सहायक के रूप में नहीं हैं, एक का हित दूसरे का हित है। डॉ० ए० आशीर्वादम् के शब्दों में, राज्य और व्यक्ति में साध्य और साधन का प्रश्न बतलाना इन दोनों की प्रकृति को गलत समझना है। यह दोनों आपस में इतने घनिष्ठ रूप से संबंधित मत है कि हम यह कह सकते हैं कि अपनी निरन्तर स्थिति में राज्य और व्यक्ति दोनों का लक्ष्य अपनी स्थिति को उच्चतर करते रहना है और दोनों ही इस लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन है। दोनों एक साथ एक ही लक्ष्य की ओर चलते हैं। प्रो० विलोबी ने राज्य के साध्य या साधन होने के प्रश्न की विवेचना यह कहकर की है कि वह दृष्टिकोण के ऊपर निर्भर करती है, जैसे एक कलाकार यदि अपने चित्र के जरिए जीविकोपार्जन करता है तो वह साधन है। और साथ ही वह चित्र उसके सर्वोत्तम लक्ष्य की पूर्ति भी हो सकती है। इस प्रकार राज्य भी जहाँ तक व्यक्ति के उद्देश्यों की पूर्ति को सम्भव बनाता है तो वह साधन है और जहाँ तक हमारी सामाजिकता, नैतिकता और सदजीवन की अपेक्षा करता है तो वह साध्य हैं।
2–राज्य के कोई चार प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उ०- राज्य के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(i) सार्वजनिक हित के कार्य करना।
(ii) शान्ति व्यवस्था तथा सुरक्षा की स्थापना करना।
(iii) राज्य एवं व्यक्ति के मध्य उचित संबंधों की स्थापना करना।
(iv) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं मानवीय सभ्यता का विकास करना।
3—राज्य के कोई चार अनिवार्य कार्य बताइए।
उ०- राज्य के चार अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं
(i) परिवार में कानूनी संबंध स्थापित करना।
(ii) न्याय का समुचित प्रबन्ध करना।
(iii) अधिकार तथा कर्त्तव्यों का निर्धारण करना।
(iv) बाहरी आक्रमणों से देश की सुरक्षा करना।
राज्य के कोई चार वैकल्पिक कार्य बताइए।
उ०- राज्य के चार वैकल्पिक कार्य निम्नलिखित हैं
(i) बैंकिग, करेन्सी तथा मुद्रा का प्रबन्ध करना।
(ii) उद्योग-धन्धों की आर्थिक सहायता करना।
(iii) शिक्षा का समुचित प्रबन्ध करना।।
(iv) सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का उचित प्रबन्ध करना।
4—“राज्य एक अनिवार्य बुराई है।” इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उ०- राज्य के कार्य-क्षेत्र संबंधी व्यक्तिवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य के समस्त संगठन के आधार व्यक्ति हैं। उन्हीं पर मानव समाज की नींव आधारित है। व्यक्तिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं। उनका उद्देश्य व्यक्ति को अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता प्रदान करना है। वे किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए घातक समझते हैं। व्यक्तिवादियों के अनुसार राज्य मनुष्य के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। यह अवसर पाने वाले व्यक्ति की स्वतन्त्रता को पूर्ण रूप से समाप्त कर सकता है। यदि मानव के अधिकार संकट में है तो उसके लिए भी राज्य ही उत्तरदायी है। इस प्रकार राज्य आवश्यक होते हुए भी एक बुराई है। जिसके प्रति व्यक्ति को सचेत रहना चाहिए। राज्य व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है जब तक वह अपनी पूर्णता को नहीं पहुँच जाता। पूर्णता की स्थिति में पहुँचते ही उसके लिए राज्य की उपयोगिता समाप्त हो जाती है।
5—व्यक्तिवादी सिद्धान्त की कोई चार आलोचनाएँबताइए।
उ०- व्यक्तिवादी सिद्धान्त की चार आलोचनाएँ निम्नलिखित है
(i) राज्य का हस्तक्षेप अनिवार्य है।
(ii) प्रजातान्त्रिक युग में व्यक्तिवाद अनुपयोगी।
(iii) वैज्ञानिक तर्क दोषपूर्ण है।
(iv) प्रत्येक व्यक्ति अपने हित का निर्णायक नहीं है।
6– समाजवाद के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उ०- समाजवाद के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
(i) समाजवाद समानता का द्योतक हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में जो आर्थिक विषमता दिखाई देती है समाजवाद उसका विरोध करता है। समाजवाद एक वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहता है। जिसमें अमीर-गरीब का भेदभाव समाप्त हो जाए। समाजवाद आर्थिक समानता पर बल देता है क्योंकि इसके बिना राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना नहीं हो सकती। लावेलये के शब्दों में, “सब समाजवादी सिद्धान्तों का ध्येय यह है कि सामाजिक दशाओं में अधिक समानता लाई जाए। समाजवाद सबको समान स्तर पर लाने वाला है।”
(ii) समाजवाद व्यक्ति की अपेक्षा समाज को प्रधानता देता है। अत: सामूहिक हित के समक्ष व्यक्तिगत हित का कोई महत्व नहीं है। समाज के हित में ही व्यक्ति का हित समाहित है और समाज में ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्त कर सकता है।
(iii) समाजवाद के अनुसार भूमि, प्राकृतिक साधन, पूँजी और उत्पादन के साधनों पर मनुष्य का व्यक्तिगत अधिकार नहीं होना चाहिए। उन सबका स्वामी राज्य बने या राज्य उनको सर्वसाधारण के हित में नियन्त्रण करें। दूसरे शब्दों में जमींदारी प्रथा का अन्त होना चाहिए। और खानों आदि प्राकृतिक साधनों पर राज्य का स्वामित्व होना चाहिए। निजी मुनाफा, लगान, सूद और किराया जैसे व्यक्तिगत लाभ व बिना परिश्रम की कमाई पर अधिक से अधिक प्रतिबन्ध लगाने चाहिए।
(v) पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त होना आवश्यक है, बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए और छोटे-छोटे उद्योगों को सहकारिता के आधार पर चलना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त हो जाने पर ही श्रमिकों के साथ न्याय हो सकता है और उन्हें अपने श्रम का समचित पारिश्रमिक मिल सकता है। प्रत्येक व्यक्ति से उसकी योग्यतानुसार कार्य लिया जाए और उसके परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक दिया जाए। ऐसे ही सिद्धान्तों को भारतीय संविधान के राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में स्थान दिया गया है और उसकी पूर्ति के लिए भारत सरकार ने समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने का ध्येय अपनाया है।
(vii) समाजवाद आर्थिक क्षेत्र में खुले मुकाबले तथा मनमाने उत्पादन का विरोध करता है पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादक लोग अपने माल को बाजार में बेचने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। अधिक लाभ कमाने की दृष्टि से वे माल की किस्म को खराब कर देने में भी संकोच नहीं करते। विज्ञापन आदि का सहारा लेकर वे अपने माल को बेचने का प्रयत्न करते है। अत: समाजवाद उत्पादन में प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग की स्थापना करना चाहता है।
8– समाजवाद की कोई चार आलोचनाएँ बताइए।
उत्तर — समाजवाद की चार आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं
(i) साम्राज्यवादी मनोवृत्ति से मुक्त न होना।
(ii) इसमें नागरिक राज्य का दास बना रहता है।
(iii) यह समस्त कार्यभार राज्य पर डाल देता है।
(iv) यह वर्ग-संघर्ष की ओर ले जाता है।
- लोक-कल्याणकारी राज्य को परिभाषित कीजिए तथा इसके कोई तीन प्रमुख उद्देश्य भी बताइए।
उत्तर — लोक-कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य एक ऐसे राज्य से है, जो अपने सभी नागरिकों को न्यूनतम जीवन-स्तर प्रदान करना अपना अनिवार्य उत्तरदायित्व समझता है। सर्वहिकारी, सामाजिक सुरक्षा एवं आर्थिक सुरक्षा लोक-कल्याणकारी राज्य के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं।
10- लोक-कल्याणकारी राज्य तथा समाजवादी राज्य में अन्तर बताइए।
उत्तर — लोक-कल्याणकारी राज्य तथा समाजवादी राज्य में अन्तर निम्नवत हैं
(i) लोक-कल्याणकारी राज्य साधनों में विश्वास करता है जबकि समाजवादी राज्य सामाजिक क्रान्ति के द्वारा आधारित संरचना में परिवर्तन करके एक वर्गविहीन और शोषण-विहीन समाज की स्थापना के लिए वचनबद्ध होता है।
(ii) लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का आधार राज्य के ऐच्छिक कार्यों से संबंधित हैं जबकि समाजवादी राज्य में सब तथ्य अनिवार्य अथवा अनैच्छिक कार्यों में आते हैं। लोक-कल्याणकारी राज्य मानवीय मूल्यों की रक्षा अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए करते हैं जबकि समाजवादी राज्य के अस्तित्व का आधार ही यह है।।
iii) लोक-कल्याणकारी राज्य शोषक वर्ग के मन को मानवीय आधारों पर परिवर्तित करने के विचार पर बल देता है जो एक परिकल्पनात्मक नीति शास्त्रीय आधार पर स्थित है, जबकि समाजवादी राज्य अधिक यथार्थवादी और भौतिकवादी आधारों पर इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है।
iv) लोक-कल्याणकारी राज्य पुलिस का विकल्प तो बनाने की स्थिति में हो सकता है किन्तु वास्तव में सम्पत्ति और लाभ की समुचित व्यवस्था करने की स्थिति में नहीं होता। इसके विपरीत समाजवादी राज्य में यह समस्त कार्य राज्य को अनिवार्य रूप से निष्पादित करने के लिए सौंप दिए जाते हैं जिनमें,
v) लोक-कल्याण एक स्वतन्त्र विचार बन जाता है। लोक-कल्याणकारी राज्य में निजी सम्पत्ति की अवधारणा को स्वीकार किया गया है और उत्पादन के साधनों पर कुछ व्यक्तियों के एकाधिकार को स्वीकार किया है जबकि समाजवादी राज्य में व्यक्तिगत सम्पत्ति को कोई स्थान नहीं दिया गया है और समस्त सम्पत्ति पर समाज के अधिकार को स्वीकार किया गया है।
- लोक-कल्याणकारी राज्य के कोई चार कार्य बताइए।
उत्तर — लोक-कल्याणकारी राज्य के चार कार्य निम्नलिखित हैं
(i) स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्याय व्यवस्था प्रदान करना।
(ii) विदेश नीति का संचालन करना।
(iii) बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान करना।
(iv) यातायात एवं संचार की समुचित व्यवस्था करना। - मनु के अनुसार राज्य के कोई चार कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर — मनु के अनुसार राज्य के चार कार्य निम्नलिखित हैं
(i) शिक्षा की व्यवस्था तथा उसका प्रसार करना।
(ii) बाह्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना।
(iii) आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना करना।
(iv) राज्य का आर्थिक विकास करना। - कौटिल्य के अनुसार राज्य के कोई चार प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर — कौटिल्य के अनुसार राज्य के चार प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
(i) प्रजा की रक्षा करना।
(ii) पशुधन की सुरक्षा एवं संवर्धन करना।
(iii) राज्य की शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाए रखना।
(iv) शिक्षा की व्यवस्था करना।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
- राज्य के कार्यक्षेत्र को विस्तारपूर्वक बताइए।
उत्तर — राज्य के कार्यक्षेत्र से तात्पर्य राज्य के उन कार्यों से है, जिनके द्वारा राज्य कानून के आधार पर मानवीय व्यवहार को नियन्त्रित तथा नियमित करने का प्रयास करता है। देश व काल की परिस्थितियाँ तथा विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के अनुसार राज्य के कार्य भी परिवर्तित होते रहते हैं। इसीलिए राज्य के कार्यक्षेत्र के विषय में सभी राजनैतिक विचारक एकमत नहीं रहे हैं, उदाहरणार्थ-व्यक्तिवादी विचारक राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित करना चाहते हैं। इनके अनुसार राज्य एक आवश्यक बुराई है। इसके विपरीत समाजवादी राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि करना चाहते हैं, परन्त अराजकतावादी विचारक राज्य को पूर्ण रूप से ही समाप्त करना चाहते हैं, क्योंकि इसके अनुसार राज्य की कोई उपयोगिता नहीं है। आधुनिक विचारक वर्तमान के राज्य के कार्यक्षेत्र को दो वर्गों के अन्तर्गत विभाजित करते हैं—
(i) राज्य के अनिवार्य कार्य (ii) राज्य के वैकल्पिक कार्य
(i) राज्य के अनिवार्य कार्य- जिन कार्यों का सम्पादन राज्य को अनिवार्य रूप से करना पड़ता हैं, उन्हें राज्य के अनिवार्य कार्य कहा जाता है। इन कार्यों का सम्पादन करना राज्य के अपने अस्तित्व के लिए भी नितान्त आवश्यक है। राज्य के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं
(क) परिवार में कानूनी संबंध स्थापित करना- राज्य का यह भी कर्त्तव्य है कि वह कानून का निर्माण कर पारिवारिक जीवन को सुखी तथा सामुदायिक जीवन को सुसंगठित करे। अत: पति-पत्नी, माता-पिता, और बच्चों के बीच कानूनी संबंध स्थापित करना भी उसका अनिवार्य कार्य है। इसके अन्तर्गत सम्पत्ति के क्रय-विक्रय और ऋण के लेन-देन इत्यादि के कानून सम्मिलित हैं।
(ख) न्याय का समुचित प्रबन्ध- देश में शान्ति का स्थापना पुलिस तथा सेना के बल पर ही नहीं हो सकती, बल्कि इसके लिए राज्य को कानून का उल्लंघन करने वालों को उचित दण्ड देने के लिए एक कुशल एवं स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था भी करनी पड़ती है।
(ग) अधिकार तथा कर्तव्यों का निर्धारण- नागरिक के अधिकार तथा कर्त्तव्यों की सीमा का निर्धारण करना और उन्हें विभिन्न प्रकार की राजनीतिक सुविधाएँ प्रदान करना भी राज्य का अनिवार्य कार्य है। वर्तमान लोक तंत्रीय युग में नागरिकों के अधिकार तथा कर्त्तव्यों का अत्यधिक महत्व हैं।
(घ) बाहरी आक्रमणों से देश की सुरक्षा– देश की सुरक्षा करना प्रत्येक राज्य का अनिवार्य कार्य है। यदि राज्य इस कार्य को नहीं करें तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इस कार्य के लिए राज्य को जल, नभ तथा स्थल सेना रखनी पड़ती हैं। इसके साथ-साथ उसको अन्य राज्यों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने का प्रयास करना पड़ता है जिससे आपातकाल में आवश्यकता पड़ने पर उनसे सहायता प्राप्त की जा सके।
(ङ) मुद्रा की व्यवस्था करना– राज्य का एक आवश्यक कार्य मुद्रा की व्यवस्था करना है। किसी देश की अर्थव्यवस्था वहाँ की मुद्रा व्यवस्था पर विशेष रूप से आधारित होती है। मुद्रा के बिना राज्य का कार्य नहीं चल सकता । वर्तमान में प्रत्येक देश में धन का अधिकांश लेन-देन बैंकों द्वारा किया जाता है और बैंकों पर सरकार का कठोर नियन्त्रण होता है।
(च) आन्तरिक शक्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना- राज्य का प्रमुख कार्य अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना, नागरिकों के जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा, आन्तरिक उपद्रवों का दमन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना है। मैकाइवर के शब्दों में- “राज्य केवल शान्ति एवं व्यवस्था का प्रबन्ध ही नहीं करता है। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह सर्वसाधारण की सुरक्षा एवं उनके व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में सहयोग दें।’ इसके लिए राज्य को अपराध निश्चित करने तथा दण्ड देने की व्यवस्था करनी पड़ती है।
(छ) कर संग्रह करना– राज्य के कार्यों को सम्पादित करने के लिए प्रचुर धनराशि की आवश्यकता होती है। धन के अभाव में राज्य एक क्षण भी नहीं चल सकता है। धन प्राप्ति के लिए राज्य अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर लगाता है। इस प्रकार कर लगाना और वसूल करना राज्य का एक अनिवार्य कार्य है।
(ii) राज्य के वैकल्पिक कार्य-डॉ० आशीर्वादम् ने कहा कि “वैकल्पिक कार्य वे कार्य हैं जो राज्य के अस्तित्व और व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा सुरक्षा के लिए अनिवार्य नहीं होते परन्तु वे सार्वजनिक कल्याण के लिए आवश्यक होते हैं।’ वैकल्पिक कार्यो में हम निम्नलिखित कार्यों को सम्मिलित कर सकते हैं
(क) बैंकिग, करैन्सी तथा मुद्रा का प्रबन्ध- इस औद्योगिक युग में बैंकिग, करैन्सी तथा मुद्रा का महत्वपूर्ण स्थान है और राज्य का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है कि वह इन सबका प्रबन्ध करें। मुद्रा विनिमय की दर निश्चित करें तथा रिजर्व बैंक की स्थापना कर देश की अन्य आर्थिक संस्थाओं पर नियन्त्रण रखे।
(ख) उद्योग-धन्धों की सहायता- उद्योग-धन्धे राष्ट्र के आर्थिक जीवन की महत्वपूर्ण कुँजी है। अतएव वर्तमान युग में उद्योगों की सहायता करना राज्य का महत्वपूर्ण कार्य हैं। इस उद्देश्य से राज्य कारखानों की धन से सहायता करता है। औद्योगिक अन्वेषण केन्द्रों की स्थापना करता हैं। राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण व्यवसायों का संचालन राज्य स्वयं करता है।
(ग) शिक्षा का प्रबन्ध- राज्य का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों का नैतिक तथा बौद्धिक विकास करें। इसके लिए राज्य शिक्षा का प्रबन्ध करता है। आज विश्व के अधिकांश राज्यों में प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क बना दिया गया है।
(घ)यातायात का प्रबन्ध- यातायात के साधन देश के आर्थिक विकास, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के प्राण हैं। जनता की सुविधा तथा देश के आर्थिक विकास के लिए यातायात के साधनों की प्रगति आवश्यक है। अतएव प्रत्येक राज्य सड़क, रेल, जलमार्ग, डाकतार, हवाई जहाज, टेलीफोन , मोटर बस सर्विस इत्यादि की व्यवस्था करता है।
(ङ) मजदूरों के हितों की रक्षा- मजदूरों के हितों की रक्षा करना भी राज्य का एक महत्वपूर्ण कार्य है ताकि पूँजीगत वर्ग मजदूरों का शोषण नहीं कर सकें। इसके लिए राज्य फैक्ट्री-कानून तथा मजदूर कानून बनाकर कलकारखानों पर नियन्त्रण रखता है और काम के अधिकतम घण्टे, न्यूनतम पारिश्रमिक मजदूरों की दशा में सुधार, इलाज, शिक्षा, सफाई इत्यादि के नियम बनाता है।
(च) समाज सुधार-समाज-सुधार के लिए प्रयास करना राज्य का एक आवश्यक कर्त्तव्य समझा जाता है। प्रत्येक देश के सामाजिक जीवन में कुछ ऐसी रूढ़ियाँ और कुरीतियाँ रहती हैं, जो व्यक्ति के जीवन की प्रगति में बाधक होती हैं। राज्य के कर्त्तव्य है कि इन्हें दूर कर सामाजिक जीवन की प्रगति में सहायक हो।
(छ) संचार का प्रबन्ध- नागरिकों के हित में राज्य को संचार का भी प्रबन्ध करना पड़ता है, इसके लिए राज्य डाक, तार, टेलीफोन, रेडियो, दूरदर्शन इत्यादि साधनों का संचालन करता है।
(ज) व्यापार का नियन्त्रण- वर्तमान युग में देश के व्यापार की प्रगति राज्य का आवश्यक तथा महत्वपूर्ण कार्य है। व्यापार की प्रगति के लिए राज्य मुद्रा पद्धति का संचालन करता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक समझौते करता है। नाप-तौल की व्यवस्था करता है, आयात कर लगाता है और युद्ध, अकाल तथा विषम परिस्थितियों में वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करता है।
(झ) कृषि-सुधार- कृषि प्रधान देशों की उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक कृषि की उन्नति न हो। अतएव राज्य को कृषि की उन्नति की ओर भी ध्यान देना पडता है। इसके लिए सिंचाई का प्रबन्ध, अच्छे बीज, अच्छी खाद, संकट के समय किसानों की सहायता, कृषि संबंधी नई-नई मशीनों और उपकरणों की व्यवस्था राज्य को करनी पड़ती है।
(ञ) सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का प्रबन्ध- नागरिकों को खुशहाल रखना राज्य का उद्देश्य है और खुशहाली की निशानी नागरिकों का स्वास्थ्य है। नागरिकों के स्वास्थ्य को उन्नत करने के लिए विश्व के सारे राष्ट्र, अस्पताल और चिकित्सालयों का प्रबन्ध करते हैं। बीमारियों को रोकना, संक्रमण रोगों की रोकथाम के लिए टीका आदि का प्रबन्ध करना तथा सार्वजनिक चिकित्सालयों के माध्यम से नि:शुल्क दवा आदि का प्रबन्ध करना राज्य का प्रमुख दायित्व है।
(ट) निर्धन तथा अपाहिजों की रक्षा- राज्य में कुछ ऐसे भी मनुष्य होते हैं, जो रोगी, अपाहिज तथा असहाय होने के कारण स्वयं अपनी आजीविका नहीं चला सकते। राज्य का यह कर्त्तव्य है कि रोगियों, अपाहिजों तथा असहायों की सेवा करें। इसी उद्देश्य से राज्य अन्धों के गृह, पागलखाने, अस्पताल , अनाथालय इत्यादि का भी प्रबन्ध करता है। इस प्रकार के ऐच्छिक कार्य सूचीबद्ध नहीं किए जा सकते। वस्तुतः वर्तमान युग में राज्य का कार्य-क्षेत्र निरन्तर बढ़ रहा है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव जीवन की जटिलता बढ़ती जा रही है और उसके परिणामस्वरूप राज्य के कार्यों की सूची भी लम्बी और विशाल हो रही है। हवा, पानी, बिजली, मादक पदार्थों पर नियन्त्रण एवं अन्य वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण की व्यवस्था भी राज्य के कार्य हो गए हैं।
- राज्य के प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर — ब्लंश्ली ने राज्य के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष उद्देश्यों में अन्तर किया है। राज्य का प्रत्यक्ष उद्देश्य राष्ट्रीय क्षमता का विकास और अप्रत्यक्ष उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है। लास्की के अनुसार, “राज्य का उद्देश्य व्यक्ति को वे सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराना है जिनसे उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो सके।” उपर्युक्त विवरण के आधार पर राज्य के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(i) सार्वजनिक हित के कार्य करना- आधुनिक काल में मानव जीवन अत्यधिक जटिल हो गया है। ऐसी स्थिति में यातायात,
डाक व्यवस्था, मुद्रा चलन, उद्योगों की स्थापना तथा शिक्षा इत्यादि ऐसे कार्य हैं जिनका सार्वजनिक हित में निष्पादन करना राज्य के लिए आवश्यक हो गया है। इसके अलावा राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों के शारीरिक एवं मानसिक स्तर में वृद्धि करना भी है। राज्य उन भौतिक परिस्थितियों का भी निर्माण करता है जिनमें नैतिक जीवन सम्भव हो सके।
ii) शान्ति व्यवस्था तथा सुरक्षा की स्थापना- राज्य का उद्देश्य शान्ति व्यवस्था तथा सुरक्षा का ऐसा वातावरण तैयार करना है जिसमें व्यक्ति सुचारू रूप से अपना जीवन व्यतीत कर सके।
(iii) राज्य एवं व्यक्ति के मध्य उचित संबंधों की स्थापना- नागरिक जीवन की मूलभूत समस्या राज्य तथा व्यक्ति के मध्य उचित संबंधों की स्थापना है। इस दृष्टिकोण से राज्य का प्रमुख उद्देश्य है कि वह अपनी प्रभुसत्ता तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के मध्य ऐसा सामंजस्य स्थापित करे जिससे एक ओर व्यक्ति की स्वेच्छाचारी एवं असामाजिक प्रवृत्ति पर प्रतिबन्ध लगे तथा दूसरी ओर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का स्वतंत्रतापूर्वक विकास कर सके।
iv) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा मानवीय सभ्यता का विकास- वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा मानवीय सभ्यता का विकास करना भी राज्य का एक उद्देश्य है। विज्ञान की प्रगति तथा राजनीतिक चेतना के विकास ने संसार को एक इकाई के रूप में ढाल दिया है। इससे अलग रहकर किसी भी राज्य द्वारा अपना विकास करना कठिन है। वास्तव में, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियाँ राज्य को प्रभावित करती रही है। इनमें परिवर्तन होने पर राज्य के स्वरूप तथा संगठन में भी परिवर्तन हो जाता है। इसी प्रकार बदले हुए वातावरण तथा विचारधाराओं के कारण समय-समय पर राज्य के उद्देश्य से संबंधित विचारों में भी बदलाव होते रहते हैं । आधुनिक काल में लोक-कल्याणकारी शासन व्यवस्था को दृष्टिगत रखते हुए राज्य का उद्देश्य लोक कल्याण करना माना गया है।
- राज्यों के कार्यों के संबंध में व्यक्तिवादियों के दृष्टिकोण का परीक्षण कीजिए।
उत्तर — व्यक्तिवादी यह मानते हैं कि राज्य के समस्त संगठन के आधार व्यक्ति है। उन्हीं पर मानव समाज की नींव आधारित है। यह राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं। उनका उद्देश्य व्यक्ति को अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता प्रदान करना है। कि वे किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए घातक समझते हैं। व्यक्तिवादियों के अनुसार राज्य मनुष्य की स्वतंत्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। यह अवसर पाने पर व्यक्ति की स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से समाप्त कर सकता है। यदि मानव के अधिकार संकट में है तो इसके लिए भी राज्य ही उत्तरदायी होगा। इस प्रकार आवश्यक होते हुए भी एक बुराई है जिसके प्रति व्यक्ति को सदैव सचेत रहना चाहिए। राज्य व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है जब तक वह अपनी पूर्णता को नहीं पहुँच जाता। पूर्णता की स्थिति में पहुँचते ही उसके लिए राज्य की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी। व्यक्तिवादियों का कथन है कि “कोई भी कानून नहीं होना चाहिए और राज्य का हस्तक्षेप कम-से-कम होना चाहिए। वे राज्य को केवल पुलिस कार्य ही सुपूर्द करना चाहते हैं, जिसमें देश की सुरक्षा एवं शान्ति और व्यवस्था की स्थापना, न्याय कार्य आदि सम्मिलित हैं।’
राज्य के कार्यों के संबंध में व्यक्तिवादियों का दृष्टिकोण निम्न प्रकार हैं
(i) राजनीतिक तर्क- व्यक्तिवाद का राजनीतिक सिद्धान्त तो सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त से प्रादुभूत हुआ, जिसका प्रयोग राजतंत्र एवं प्रजातंत्र के संघर्ष के सिलसिले में दैवी सिद्धान्त को खण्डित करने के लिए किया गया था। उसके अनुसार मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र एवं समान था कुछ प्राकृतिक अधिकार भी उसे प्राप्त थे। राज्य तो उनके पारस्परिक समझौते या अनुबन्धों के द्वारा स्थापित एक निश्चित कृत्रिम संस्था है। राज्य का प्रयोजन तो लोगों के अधिकारों को सुरक्षित रखना तथा उन्हें प्रत्याभूत करना था। तद्नुसार इसके कार्य तो इसी नकारात्मक उद्देश्य तक ही सीमित रहने चाहिए तथा इस सीमा से यदि कुछ भी अधिक इसके कार्य क्षेत्र में प्रसार होता है तो वह जनता और सरकार के बीच ऐसे अनुबन्धों का उल्लंघन ही होगा। यदि उनके स्वाभाविक अधिकारों के साथ कुछ भी हस्तक्षेप होता है तो क्रूर या सत्ता करने वाले राजकीय अधिकारों का विरोध करने में जनता सही ही रहती है। प्रजातंत्र और व्यक्तिवाद का अभ्युदय एक साथ हुआ। लोगों ने शासिन होना चाहा, लेकिन साथ-ही-साथ, जितना कम हो सके उतना कम शासित होना भी चाहा। उनका विश्वास था कि सर्वोत्तम शासन वही है, जिसमें सबसे कम शासन की मात्रा होती है।
(ii) वैज्ञानिक दृष्टिकोण- जीव-विज्ञान के विद्वानों का कहना है कि संसार में प्राणिमात्र में जीवन के लिए संघर्ष हो रहा है। इसमें श्रेष्ठतम व्यक्ति ही बच जाते हैं और शेष नष्ट हो जाते हैं। जो व्यक्ति अपने को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेता है
उसी के जीवन की सम्भावना रहती है। हर्बर्ट स्पेन्सर इसी विचार का समर्थक है। संसार में जीवन के लिए संग्राम होता रहता है, जो शक्तिशाली हैं वे बच जाते हैं तथा कमजोर नष्ट हो जाते हैं। उपयुक्त जीव जीवित रहे यह प्रकृति का सिद्धान्त हैं। इसी नियम के अनुसार अयोग्य एवं बेकार व्यक्तियों के नष्ट होने से एक शक्तिशाली एवं उन्नतिशील राष्ट्र की स्थापना सम्भव हो सकती है।
iii) आर्थिक दृष्टिकोण- व्यक्तिवाद के पक्ष में आर्थिक तर्क यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी आर्थिक हानि व लाभ को अच्छी तरह समझता है। इसलिए उसे स्वेच्छापूर्वक कोई भी उद्योग और व्यवसाय करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, जिससे वह अपनी शक्ति के अनुसार, धनोपार्जन कर सके। इससे समाज की उन्नति होगी। जब प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक धन अर्जित करेगा तो राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होगा। व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धों में प्रतियोगिता होने के कारण उत्पादन बढेगा और वस्तुओं के मूल्य में भी कमी होगी। इससे समाज के लोगों को सस्ते दामों पर प्रत्येक वस्तु मिल सकेगी। राज्य के हस्तक्षेप से कृत्रिम आर्थिक कठिनाईयाँ बाधाएँ व संकट उत्पन्न होते हैं, इससे वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि हो जाएगी तथा चोर-बाजारी का भी प्रचार होगा। देश के उद्योग-धन्धों में तभी उन्नति हो सकती है जबकि राज्य का उस पर कोई प्रतिबन्ध न हो। इस प्रकार देश की आर्थिक दशा बहुत अच्छी हो जाएगी। इसलिए राज्य को मूल्यों पर नियन्त्रण नहीं लगाना चाहिए और आर्थिक गतिविधियों को स्वच्छन्द छोड़ देना चाहिए।
iv) नैतिक दृष्टिकोण- प्रत्येक व्यक्ति का पृथक व्यक्तित्व और विशेषता होती है। राज्य को चाहिए कि वह व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करें। इस स्वतंत्र वातावरण में व्यक्ति अपनी उन्नति कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अपना हित अच्छी प्रकार से सोच सकता है। राज्य के अनुचित हस्तक्षेप से व्यक्ति आलसी और अकर्मण्य हो जाता है। उसकी क्रियात्मक भावना नष्ट हो जाती है। समाज में अकर्मण्यता आने से समाज की प्रगति रुक जाती है और उसमें स्थिरता आ जाती है। अत: राज्य को अनुबन्ध प्रचलित करने, शान्ति स्थापित करने तथा अपराधियों को दण्ड देने के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य करने के लिए उद्यत नहीं होना चाहिए।
v) अनुभव का तर्क- व्यक्तिवादियों के अनुसार इतिहास इस बात का साक्षी है कि राज्य कभी भी व्यक्ति का सफल मार्ग दर्शक नहीं रहा। इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि राज्य द्वारा खाद्य सामग्री, व्यापार वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबन्ध, श्रम-जीवियों के संघों का निषेध करने वाले नियम बनाए गए। इस संबंध में जो कानून बनाए गए वे अत्यन्त कष्टप्रद सिद्ध हुए, किन्तु फिर भी जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इन कठोर नियमों का निर्माण किया गया था, उसके विषय में बकल ने इस प्रकार के प्रतिबन्धों की निस्सारता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि “शासक वर्ग ने जिस सीमा तक उद्योग की स्वतंत्रता में बाधा डाली और इसके परिणामस्वरूप जो हानि हुई वह इतनी असाधारण थी कि विवेकशील मनुष्य यह देखकर आचर्य करने लगे कि लगातार इतनी बाधाओं के होते हए भी सभ्यता ने इतनी प्रगति किस प्रकार की।”
(vi) राज्य की असमर्थता का तर्क- व्यक्तिवादियों का यह भी तर्क है कि राज्य पर कार्यों का काफी भारी बोझ रहता है। अत: वह प्रत्येक कार्य को उतनी कुशलता एवं शीघ्रता से नहीं कर सकता जितना कि व्यक्ति उन कार्यों को कर सकते हैं। उनके विचार से राज्य पहले से ही दायित्वों के बोझ से दबा जा रहा है। जिन्हें पूर्ण कराने में वह असमर्थ हैं। राज्य का प्रायोजन तो लोगों के अधिकारों की रक्षा करना एवं उनको सुरक्षा की गारन्टी देना है। बहुत से ऐसे कार्य हैं, जिन्हें यदि सैद्धान्तिक उपक्रम के ऊपर छोड़ दिया जाए तो वे अधिक उत्तम रीति से सम्पादित होंगे, क्योंकि इस विषय में व्यक्तिगत लोगों का ही प्रत्यक्ष स्वार्थ रहेगा तथा उनके प्रगतिशील एवं उद्यमी होने की अधिक सम्भावना होगी। इस प्रकार उपरोक्त तर्क व्यक्तिवाद के समर्थन में प्रस्तुत किए जाते हैं। इन सबका सार यही है कि राज्य को प्रत्येक क्षेत्र में अपना कार्यक्षेत्र संकुचित रखना चाहिए तथा व्यक्ति को अधिक से अधिक स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए।
- व्यक्तिवाद के गुण वदोषों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर — व्यक्तिवादी के गुण विशेषताएँ- राज्यों के कार्य संबंधी व्यक्तिवाद सिद्धान्त के गुण निम्नलिखित हैं
(i) व्यक्तिवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई माना जाता है।
(ii) व्यक्तिवाद राज्य को साधन मानता है।
(iii) व्यक्तिवाद राज्य को साध्य अथवा लक्ष्य मानता है तथा व्यक्तित्व विकास पर बल देता है।
(iv) व्यक्तिवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल देता है।
(v) व्यक्तिवाद राज्य के कार्य को सीमित रखता है। व्यक्तिवाद के दोष- व्यक्तिवाद के निम्नलिखित दोष हैं
(i) प्रजातांत्रिक युग में व्यक्तिवाद अनुपयोगी है, यह केवल कल्पना मात्र प्रतीत होता है।
(ii) व्यक्तिवाद के अधिकांश समर्थकों के विचारों में भिन्नता है वे राज्य के कार्य क्षेत्र के विषय में एकमत नहीं हैं।
(iii) व्यक्तिवादी स्वतंत्रता का अर्थ गलत लगाते हैं।
(iv) व्यक्तिवादियों का ‘उपर्युक्त को जीवित रहने दो’ का सिद्धान्त नैतिकता के विरूद्ध है। इनका कथन है कि “केवल शक्तिशाली और योग्य व्यक्तियों को ही जीवित रहने का अधिकार है’ सर्वथा अनुचित है।
(v) व्यक्तिवादियों का यह विचार कि “प्रत्येक व्यक्ति अपने हित का उचित निर्णायक नहीं है।” सर्वथा ठीक नहीं है। (vi) व्यक्तिवादी सिद्धान्त व्यवहारिक दृष्टिकोण से अनुचित है।
5– “राज्य एक आवश्यक बुराई है।”क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने विचारों के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर — आज का युग प्रजातंत्र का युग है। शासन का संचालन प्रजा के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। अत: व्यक्तिवाद आज केवल एक कल्पना मात्र ही प्रतीत होता है। आधुनिक युग के लिए यह बिलकुल भी उपयुक्त नहीं है। व्यक्तिवादी राज्य को एक आवश्यक बुराई बतलाते हैं, किन्तु राज्य एक आवश्यक बुराई न होकर सकारात्मक अच्छाई है। अरस्तु के अनुसार, “राज्य समस्त विद्वानों, समस्त कलाओं, समस्त गुणों तथा समस्त पूर्णताओं में सहायक है।” व्यक्तिवादी स्वतंत्रता का अर्थ गलत लगाते हैं। वास्तव में स्वतन्त्रता का अर्थ हस्तक्षेप का अभाव नहीं, अपितु उन अवस्थाओं का होना है जिनमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व का अधिक से अधिक विकास कर सके। इसके साथ ही व्यक्तिवादियों का कथन है कि सरकार को व्यापार और उद्योग धन्धों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
यदि सरकार कारखानों पर नियन्त्रण नहीं रखेगी और मनुष्यों को मनमाने ढंग से धन कमाने देगी तो पूँजीवाद का प्रसार बढ़ेगा। इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। मजदूर ऐसी दशा में मिल मालिकों को दास बन जाएगा और उन्हीं की चक्की में पिसता रहेगा। आधुनिक युग में यह बात भी असम्भव है कि राज्य के व्यापार के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करें और उसके लिए नियम न बनाए। यदि व्यापार पर राज्य का नियन्त्रण नहीं होगा तो व्यापारी मनमाना भाव बढ़ाकर वस्तुओं का मूल्य बहुत ऊँचा ले जाएँगे, जिससे सर्वसाधारण को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ेगा। व्यक्तिवादियों ने राज्य के नियन्त्रण के दोषों की अतिरंजित विवेचना की है जो कि उचित प्रतीत नहीं होती है। अतिशासन अभिशाप नहीं हो सकता, किन्तु सरकार का रहना अनिवार्य नहीं, अपितु वास्तविक रूप में कल्याणकारी भी हैं।
प्रत्येक व्यक्ति के स्वतंत्र कार्यों पर विवेकपूर्ण प्रतिबन्धों के रहने से सभी के अधिकारों की पूर्ण उन्नति होती है। आधुनिक विश्व में जटिल जीवन के लिए नियन्त्रण एवं नियमन का होना नितान्त आवश्यक है। आधुनिक राज्य कल्याणकारी राज्य है और उसके कार्यक्षेत्र भी बहुत बढ़ गए है। व्यक्तिवादियों का यह कहना है कि राज्य को केवल देश की सुरक्षा एवं शान्ति व्यवस्था के लिए ही कार्य करना चाहिए। अन्य कार्य उसे समाज के व्यक्तियों के लिए छोड़ देने चाहिए। यह धारणा आधुनिक युग के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीं, राज्य को वे सभी कार्य करने चाहिए जो व्यक्ति और समाज की भलाई एवं विकास के लिए आवश्यक है।
राज्य के कार्यों को सीमित करना ठीक नहीं है, वास्तव में इतिहास से यह बात स्पष्ट रूप से प्रमाणित होती है कि अतीत काल में सभ्यता की प्रगति अधिकांश में राज्य द्वारा बुद्धिमत्ता निर्देशित कार्यो में हुई है। अत: राज्य वास्तव में एक परम उपयोगी संस्था है। इस विवेचना का यही निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्तिवाद आधुनिक युग के लिए किसी भी प्रकार से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।
- राज्य की कार्य क्षेत्र संबंधी समाजवादी सिद्धान्त को विस्तार से समझाइए।
उत्तर — समाजवादी सिद्धान्त- समाजवाद वर्तमान में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण विचारधारा है। इसकी लोकप्रियता ने ही इसे अनिश्चितता का रूप प्रदान किया है। यह व्यक्तिवाद के विरुद्ध एक तीव्र प्रतिक्रिया है। समाजवाद एक राजनीतिक दर्शन और विशद् आन्दोलन है। समाजवाद का प्रयोग एक विशेष व्यवस्था एवं जीवन प्रणाली के लिए किया जाता है। विद्वानों ने समाजवाद का कई अर्थों में प्रयोग किया है। इसी कारण जोड ने लिखा है- “समाजवाद एक ऐसी टोपी बन गई है, जिसका रूप बिगड़ चुका है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उसे पहनता है।”
समाजवाद की उत्पत्ति ‘सोश्यस’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ समाज है। इस प्रकार समाजवाद मूलत: समाज से संबंधित है तथा न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील है। समाजवाद एक व्यापक विचारधारा है जिसकी कोई निश्चित परिभाषा करना कठिन है। कुछ विद्वान समाजवाद को एक ओर नैतिकता का आदर्श तथा समाज सुधार का सिद्धान्त मानते हैं तो दूसरी ओर कुछ विद्वान इसके क्रान्तिकारी स्वरूप में आस्था रखते हैं। समाजवाद के विषय में रैम्जे म्योर ने लिखा है-“यह एक गिरगिट के समान है, जो परिस्थितियों के अनुसार अपना रंग बदलता रहता है।” समाजवाद ‘पूँजीवाद एवं धार्मिक असमानता’ के विरोध में विकसित हुआ। समाजवादी लोग व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व देते हैं तथा मानव सभ्यता को अपना लक्ष्य मानते हैं। समाजवाद का उद्देश्य पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर एक ऐसी सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था की स्थापना करना है जिसमें राष्ट्रीय साधनों पर प्रभुत्व किसी वर्ग विशेष का नहीं वरन् सम्पूर्ण समाज का हो। वास्तव में समाजवाद एक राजनीतिक सिद्धान्त व राजनीतिक आन्दोलन दोनों हैं। इसके मूल सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
(i) समाजवाद समानता का द्योतक हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में जो आर्थिक विषमता दिखाई देती है समाजवाद उसका विरोध करता है। समाजवाद एक वर्गविहीन समाज की स्थापना करना चाहता है। जिसमें अमीर-गरीब का भेदभाव समाप्त हो जाए। समाजवाद आर्थिक समानता पर बल देता है क्योंकि इसके बिना राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकती। लावेलये के शब्दों में, “सब समाजवादी सिद्धान्तों का ध्येय यह है कि सामाजिक दशाओं में अधिक समानता लाई जाए। समाजवाद सबको समान स्तर पर लाने वाला है।”
ii) समाजवाद व्यक्ति की अपेक्षा समाज को प्रधानता देता है। अत: सामूहिक हित के समक्ष व्यक्तिगत हित का कोई महत्व नहीं है। समाज के हित में ही व्यक्ति का हित समाहित है और समाज में ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्त कर सकता है।
(iii) समाजवाद के अनुसार भूमि, प्राकृतिक साधन, पूँजी और उत्पादन के साधनों पर मनुष्य का व्यक्तिगत अधिकार नहीं होना चाहिए। उन सबका स्वामी राज्य बने या राज्य उनको सर्वसाधारण के हित में नियन्त्रण करें। दूसरे शब्दों में जमींदारी प्रथा का अन्त होना चाहिए। और खानों आदि प्राकृतिक साधनों पर राज्य का स्वामित्व होना चाहिए।
(iv) निजी मुनाफा, लगान, सूद और किराया जैसे व्यक्तिगत लाभ व बिना परिश्रम की कमाई पर अधिक से अधिक प्रतिबन्ध लगाने चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त होना आवश्यक है, बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए और छोटे-छोटे उद्योगों को सहकारिता के आधार पर चलना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त हो जाने पर ही श्रमिकों के साथ न्याय हो सकता है और उन्हें अपने श्रम का समुचित पारिश्रमिक मिल सकता है। प्रत्येक व्यक्ति से उसकी योग्यतानुसार कार्य लिया जाए और उसके परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक दिया जाए। ऐसे ही सिद्धान्तों को भारतीय संविधान के राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में स्थान दिया गया है और उसकी पूर्ति के लिए भारत सरकार ने समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने का ध्येय अपनाया है।
(vii) समाजवाद आर्थिक क्षेत्र में खुले मुकाबले तथा मनमाने उत्पादन का विरोध करता है पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादक लोग अपने माल को बाजार में बेचने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। अधिक लाभ कमाने की दृष्टि से वे माल की किस्म को खराब कर देने में भी संकोच नहीं करते। विज्ञापन आदि का सहारा लेकर वे अपने माल को बेचने का प्रयत्न करते हैं। अत:
समाजवाद उत्पादन में प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग की स्थापना करना चाहता है।
समाजवाद के पक्ष में तर्क- जब मानव जीवन की जटिल गुत्थियों को सुलझाने में व्यक्तिवाद निष्फल हो गया तब आर्थिक विषमताओं से पीड़ित मानव जाति ने समाजवाद के रूप में एक नवीन जीवन दर्शन को अपनाया। इसके समर्थन में अनेक तर्क दिए गए है। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं
(i) साम्राज्यवाद का विरोधी- समाजवाद औपनिवेशिक परतंत्रता, शोषण एवं साम्राज्यवाद का विरोधी एवं राष्ट्रीय चेतना का
समर्थक है। लेनिन के मतानुसार, “साम्राज्यवाद पूँजीवाद का अन्तिम चरण है।” समाजवादियों की मान्यता है कि जिस प्रकार पूँजीवाद में व्यक्तिगत शोषण होता है ठीक उसी प्रकार साम्राज्यवाद में राज्य अथवा राज्यों को राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से परतंत्र बनाकर शोषित किया जाता है। इसलिए समाजवादी सम्पूर्ण संसार के शोषण को समाप्त करना चाहते हैं।
ii) समाजवाद में सम्पत्ति का अपव्यय नहीं होता- व्यक्तिवादी एवं पूँजीवादी व्यवस्था में खुली प्रतियोगिता होती है। प्रचार, विज्ञापन तथा अन्य क्षेत्रों पर अत्यधिक धनराशि व्यय करनी पड़ती है, जिससे वस्तु के लागत मूल्य में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। समाजवादी व्यवस्था में खली प्रतियोगिता को स्थान पर सहकारिता पर विशेष बल दिया जाता है। अतः प्रचार इत्यादि पर होने वाले व्यय की आवश्यकता नहीं होती तथा मितव्ययिता आ जाती है।
iii) श्रम तथा समाज पर अत्यधिक जोर- समाजवाद श्रम तथा समाज सेवा पर अत्यधिक जोर देता है। समाजवाद व्यक्तिहित के स्थान पर सामाजिक सेवा चाहता है। इस विचारधारा के अनुयायियों के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसके श्रम के अनुरूप उचित पारिश्रमिक तथा प्रोत्साहन मिलना चाहिए। समाजवाद में आलस्य एवं अकर्मण्यता हेतु कोई स्थान नहीं है। समाजवादी विचारधारा ‘जो कार्य नहीं करेगा, वह खाएगा भी नहीं’ सिद्धान्त पर आधारित है। इसके विपरीत, पूँजीवादी व्यवस्था अकर्मण्यता की जननी है।
(iv) लोकतंत्रीय विचारधारा- समाजवाद पूँजी के समान तथा न्यायोचित वितरण पर अत्यधिक बल देता है और समाज में सामाजिक एवं आर्थिक समानता स्थापित करके नागरिकों के सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। इस प्रकार समाजवाद और लोकतन्त्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों का लक्ष्य मानव कल्याण एवं समानता है तथा समानता समाजवाद और लोकतंत्र का मूलमंत्र है। अत: समाजवाद एक लोकतंत्रीय विचारधारा है। सभी को उन्नति के समान अवसर- समाज सभी लोगों को उन्नति हेतु समान अवसर प्रदान करने का समर्थक है। इस व्यवस्था में कोई विशेष सुविधासम्पन्न वर्ग नहीं होगा। सभी लोगों को समान रूप से अपनी उन्नति एवं विकास के अवसर प्राप्त होंगे। इस प्रकार समाजवादी व्यवस्था स्वाभाविक एवं न्यायोचित हैं।
(vi) शोषण का अन्त- समाजवाद श्रमिकों एवं गरीबों के शोषण का विरोध करता है। पहले यह मान्यता थी कि श्रमिकों को शोषित एवं गरीब होना उसकी नियति है, लेकिन समाजवाद ने यह स्पष्ट कर दिया कि पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों के षडयन्त्रों के कारण ही गरीबों एवं श्रमिकों का शोषण होता हैं। समाजवाद शोषण के अन्त में आस्था रखने वाली विचारधारा है। इसलिए विश्व के श्रमिक, किसान एवं बहसंख्यक गरीब इसका समर्थन करते हैं। अन्त में कहा जा सकता है कि समाजवाद राज्य के कार्य क्षेत्र की दृष्टि से सर्वोत्तम सिद्धान्त है। यह एक न्यायपूर्ण तथा लोकतान्त्रिक विचारधारा है। समाजवाद का विश्लेषण करते हुए हेर बेब्ले ने कहा है- “समाजवाद वस्तुत: दर्शन का एक पूरा संसार है। यह धर्म क्षेत्र में नागरिकता का, राज्य के क्षेत्र में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का, उद्योग के क्षेत्र में औद्योगिक समष्टिवाद का, नैतिकता के क्षेत्र में एक अनन्त आशावाद का, अध्यात्मवाद के क्षेत्र में एक प्रकृतिवादी वस्तुवाद का तथा पारिवारिक एवं
वैवाहिक बन्धनों के लगभग पूर्ण अन्त का सूचक है।”
7– समाजवादी राज्य की आलोचनाएँबताइए।
उत्तर — समाजवादी राज्य व्यवस्था बहुत श्रेष्ठ है और कुछ देशों में इसके लाभकारी परिणाम मिले हैं। किन्तु इसके आलोचकों की भी कमी नहीं है। समाजवादी राज्य की आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं
(i) साम्राज्यवादी मनोवृत्ति से मुक्त न होना- पूँजीवादी राज्यों के समान समाजवादी राज्य भी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति से मुक्त नहीं होते। अपने उत्पादन को विकसित देशों में बेचने के अभिप्राय से वे उसको हड़पना चाहते हैं। इसमें उन्हें अन्य समाजवादी राज्यों से मुकाबला करना पड़ता है, जिससे तनाव पैदा हो जाता है, जो समय पाकर युद्ध अथवा महायुद्ध का रूप धारण कर सकता है, परन्तु आज भी सभी छोटे और बड़े राष्ट्र युद्ध के भयंकर परिणामों से परिचित हैं और वे युद्ध नहीं चाहते। इसमें नागरिक राज्य का दास बन जाता है- समाजवादी राज्य में नागरिक राज्य का दास बन जाता है और उसकी स्वतन्त्र इच्छा का पूर्णतया ह्रास हो जाता है।
(iii) यह समस्त कार्यभार राज्य पर डाल देता है-समाजवाद समस्त कार्यों का भार राज्य पर डाल देता है, किन्तु वह इस बात को भूल जाता है कि राज्य के कार्यों का भार पहले से ही बहुत है और वह प्रत्येक कार्य को भली-भाँति नहीं कर सकता।
(iv) यह वर्ग-संघर्ष की ओर ले जाता है- इसके कुछ आलोचकों को कथन है कि यह हमें वर्ग-संघर्ष की ओर ले जाता है और यह निर्धनों का धनवानों पर एक प्रकार का आक्रमण है।। हिंसात्मक प्रचार- समाजवाद के क्रियात्मक रूप में हिसात्मक प्रचार होता है। व्यक्तिगत सम्पत्ति की समाप्ति- समाजवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति का अन्त करना चाहता है, किन्तु सम्पत्ति के अभाव में व्यक्ति कोई भी उद्योग मन लगाकर नहीं करेगा। निजी लाभ की भावना लोगों के हृदय से विलीन हो जाएगी तो उनकी उदासीनता में और वृद्धि होगी। इससे समाज के उद्योग-धन्धों को क्षति पहुँचेगी।
(vii) राज्य के संचालक स्वेच्छाचारी बन जाते हैं- इस व्यवस्था में राज्य के संचालक मनमानी करेंगे और जनहित को छोड़कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करने में लग जाएंगे।
(viii) प्रकति ने किसी भी व्यक्ति को एक समान नहीं बनाया है- समाजवाद मानव समानता पर बल देता है, परन्तु वह इस
बात को भूल जाता है कि प्रकृति ने किसी भी व्यक्ति को एक समान नहीं बनाया है।
(ix) समाजवाद एक टोपी के समान है- समाजवाद की आलोचना करते हुए सी०ई०एम० जोड ने लिखा है, “समाजवाद उस टोप के समान है, जिसे सभी पहनते है, इसलिए उसने अपना स्वरूप खो दिया है।’ इस कथन का अभिप्राय यह है कि समाजवाद के संबंध में सबकी धारणाए भिन्न-भिन्न धारणाओं के समाजवादी विचारकों को पृथक-पृथक भागों में विभक्त कर दिया गया है। इसलिए समाजवाद के संबंध में कोई निश्चित रूपरेखा नहीं खीची जा सकती, जिसके कारण समाजवाद का स्वरूप टोपी के समान हो गया है।
- लोक-कल्याणकारी राज्य से आप क्या समझते हैं। इसके प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर — लोक-कल्याणकारी राज्य का आशय ऐसे राज्य से है जिसमें शासन की शक्ति का प्रयोग किसी वर्ग विशेष के कल्याणार्थ न होकर सम्पूर्ण जनसाधारण के कल्याणार्थ किया जाता है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि वह राज्य जो सम्पूर्ण जनता को आधार मानकर लोकतंत्रीय व्यवस्था द्वारा सम्पूर्ण जनसाधारण के कल्याण हेतु समस्त प्रकार के कार्य करता है, लोककल्याणकारी राज्य कहलाता है। लोक-कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य- उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कल्याणकारी राज्य के निम्नलिखित उद्देश्य कहे जा सकते हैं
(i) सर्वहितकारी- लोक-हितकारी राज्य को केवल अपने राष्ट्र की उन्नति की बात ही नहीं सोचनी चाहिए, अपितु समस्त विश्व और मानव मात्र के कल्याण की योजना बनानी चाहिए। उसका दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिए। लोक-हितकारी राज्य का वास्तविक आदर्श तभी पूर्ण समझा जा सकता है जब उसका उद्देश्य सर्वहितकारी हो। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ अर्थात समस्त विश्व ही कुटुम्ब है का आदर्श उसका मूलमन्त्र होना चाहिए। केवल अपने राष्ट्र की उन्नति का विचार लोक-हितकारी राज्य के आदर्श के प्रतिकूल है, उसका दृष्टिकोण तो अन्तर्राष्ट्रीय होना चाहिए।
ii) सामाजिक सुरक्षा- सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था करना लोक-हितकारी राज्य का कर्त्तव्य है। इसकी उपलब्धि के लिए जाति. रंग तथा वंश पर आधारित व्यक्तिगत भेदों को समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि कल्याणकारी राज्य के अनुसार समाज में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन संबंधी सुखों की प्राप्ति का समान अधिकार है। इसके लिए यह आवश्यक है कि कल्याणकारी राज्य को सामाजिक समानता की स्थापना करनी चाहिए और सबको उन्नति के समान अवसर प्रदान करने चाहिए।
(iii) आर्थिक सुरक्षा- कल्याणकारी राज्य का सर्वप्रमुख कर्त्तव्य व्यक्ति की आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था करना है क्योंकि
आर्थिक सुरक्षा के अभाव में राजनीतिक सुरक्षा का कोई महत्व नहीं है। इसी कारण इस प्रकार के राज्य में आर्थिक व्यवस्था के सुधार पर अधिक बल दिया जाता है। इस सिद्धान्त के समर्थकों का विचार है कि समाज में प्रचलित आर्थिक विषमताओं को दूर करना राज्य का कर्त्तव्य है। राज्य की आर्थिक व्यवस्था में ऐसा सुधार होना चाहिए, जिससे सम्पत्ति का वितरण अधिक न्यायसंगत ढंग से किया जा सके। सभी व्यक्तियों को काम देना राज्य का कर्त्तव्य है । इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति की इतनी आय की व्यवस्था करना भी राज्य का कर्त्तव्य है कि वह अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को सरलतापूर्वक पूरी कर सके। आर्थिक शक्ति को सर्वसाधारण में बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि राज्य अपने नागरिकों के लिए एक न्यूनतम आर्थिक स्तर की उपलब्धि की व्यवस्था करे। सम्पत्ति और आय के क्षेत्र में विषमता को न्यूनतम करना कल्याणकारी राज्य का प्रमुख उद्देश्य है।
iv) सार्वजनिक सुरक्षा- व्यक्ति के लिए राजनैतिक सुरक्षा की व्यवस्था करना लोक-हितकारी राज्य का कर्त्तव्य है। यद्यपि अपना आचरण सामान्य इच्छा के अनुकूल बनाए रखना तथा स्वयं को उसके अधीन मानना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है, तथापि उसे इस बात की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए कि वह उस सामान्य इच्छा के निर्माण में विचार अभिव्यक्त, प्रचार एवं वैधानिक विरोध द्वारा सहयोग प्रदान कर सके। इसके लिए लोकतंत्रात्मक व्यवस्था की स्थापना आवश्यक होती है, क्योंकि इस प्रकार की शासन-प्रणाली में ही राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था करना सम्भव होता है।
v) समाज की सर्वतोन्मुखी उन्नति- राज्य का कर्तव्य केवल आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था, राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था, सामाजिक समानता की स्थापना तथा सर्वहितकारी नीति का अनुसरण करना ही नहीं हैं, अपितु कल्याणकारी राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के सामाजिक, बौद्धिक तथा नैतिक कल्याण के लिए भी समचित व्यवस्था करे। राज्य का यह कर्त्तव्य है कि प्रत्येक नागरिक के लिए उन आवश्यक परिस्थितियों को सुलभ बनाए जिन पर प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है और जिसके अभाव में वह अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता है और न ही अपनी प्राकृतिक शक्तियों का अधिक से अधिक उपयोग ही कर सकता है। राज्य को कला, साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति में प्रोत्साहन देना चाहिए, क्योंकि वे व्यक्ति और राज्य के जीवन के विकास में सहायक होते हैं।
शिक्षा की व्यापक व्यवस्था करना, सांस्कृतिक उत्थान के लिए सुविधाएँ प्रदान करना तथा उन सामाजिक और नैतिक प्रथाओं एवं परिपाटियों को दूर करना जिनसे व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में बाधा पड़ती है। लोक-हितकारी राज्य का कर्त्तव्य बतलाया गया है। मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करना लोक-हितकारी राज्य का परम कर्त्तव्य है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री क्राउथर का कथन है कि, “नागरिकों के लिए अधिकार रूप में उन्हें स्वस्थ बनाए रखने के लिए पर्याप्त भोजन की व्यवस्था की जानी चाहिए। निवास, वस्त्र आदि के न्यूनतम जीवन स्तर की ओर से उन्हें चिन्ता रहित होना चाहिए और बेरोजगारी, बीमारी तथा वृद्धावस्था के दुःख में उनकी रक्षा करनी चाहिए।’
- लोक-कल्याणकारी राज्य के प्रमुख कार्य तथा इसकी आलोचनाएँ बताइए।
उत्तर — परम्परागत विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्यों को अनिवार्य तथा ऐच्छिक दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। लेकिन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में अब यह माना जाने लगा है कि ऐच्छिक कार्यों का सम्पादन करना भी राज्य के लिए अनिवार्य है। लोक-कल्याणकारी राज्य के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
(i) स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्याय व्यवस्था- राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने का कार्य पुलिस द्वारा ही नहीं किया जा सकता; अत: राज्य के कानूनों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हेत स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना करना राज्य का ही एक अनिवार्य कार्य है। इसके लिए राज्य दीवानी एवं फौजदारी न्यायालयों की स्थापना करता है जो स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होकर नागरिकों को न्याय प्रदान करती है।
विदेश नीति का संचालन- अपने हितार्थ संसार के अन्य राष्ट्रों से मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना हेतु विदेश नीति का संचालन करना भी राज्य का एक अनिवार्य कार्य है। इसके लिए राज्य अन्य राज्यों में अपने राजदूतों की नियुक्ति तथा अन्य राज्यों के राजदूतों के लिए यहाँ व्यवस्था करता है। लोक-कल्याणकारी राज्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग एवं सद्भावना के साथ कार्य करके विश्वशान्ति तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को बल प्रदान करता है।
(iii) बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा- बाह्य आक्रमणों से राज्य की सुरक्षा करना प्रत्येक राज्य का अनिवार्य कार्य है। इसके लिए राज्य नियमित जल, थल तथा वायु सेना रखने के साथ-साथ अन्य विभिन्न प्रकार के सैन्य उपकरणों एवं साधनों की व्यवस्था भी करता है।
(iv) आपसी संबंधों का नियमन- लोक-कल्याणकारी राज्य महिला, पुरुष तथा बच्चों एवं उनके माता-पिता के आपसी संबंधों का नियमन करने हेतु ऐसी व्यवस्था करता है कि उनके मध्य वैधानिक संबंध ही स्थापित रहें, जिससे संघर्ष की स्थिति उत्पन्न न हो। इसके अतिरिक्त राज्य एवं नागरिक के संबंधों को नियमित करने का दायित्व भी राज्य का ही है क्योंकि आपसी संबंध ही नागरिकों की स्वतंत्रता तथा राज्य की सत्ता का मूल आधार हैं।
(v) आन्तरिक शान्ति एवं सुव्यवस्था- राज्य का द्वितीय अनिवार्य कार्य राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित करके नागरिकों को लोक-कल्याणकारी कानून तथा सुशासन प्रदान करना है। नागरिकों के जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा करना भी राज्य का ही दायित्व है। राज्य ही नागरिकों के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का नियमन करता है। लोक-कल्याणकारी राज्य में कारागारों को अब बन्दी सुधार-गृह का रूप दिया गया है जिससे बन्दी सुधरकर समाजोपयोगी नागरिक बन सकें।
(vi) सार्वजनिक शिक्षा- मानव की उन्नति तथा विकास में शिक्षा का प्रमुख स्थान है। अत: कल्याणकारी राज्य प्राथमिक शिक्षा को नि:शुल्क तथा अनिवार्य करने के साथ विश्वविद्यालय तक ही शिक्षा की समुचित व्यवस्था करता है।
(vii) सार्वजनिक स्वास्थ्य- लोक-कल्याणकारी राज्य महामारी की रोकथाम तथा अन्य बीमारियों से नागरिकों को बचाने हेतु सफाई एवं सार्वजनिक चिकित्सालयों की स्थापना करता है। नागरिकों के स्वास्थ्य रक्षा हेतु सड़ी-गली, नशीली एवं हानिकारक वस्तुओं को कल्याणकारी राज्य द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया जाता है।
viii आर्थिक सुरक्षा व्यवस्था- प्रत्येक राज्य की आर्थिक सम्पन्नता उसकी मुद्रा व्यवस्था पर निर्भर करती है तथा आर्थिक दृष्टिकोण से सम्पन्न राज्य की लोक-कल्याण संबंधी अपने दायित्वों को पूर्ण कर सकता है। इसलिए राज्य मुद्रा की श्रेष्ठ व्यवस्था करके करारोपण द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन इकट्ठा करता है तथा विदेशी मुद्रा विनिमय की व्यवस्था भी करता है। सभी व्यक्तियों को योग्यतानुसार रोजगार दिलाना तथा अधिकतम आर्थिक समानता के आधार पर आर्थिक सुरक्षा व्यवस्था करना भी लोक-कल्याणकारी राज्य का ही कार्य है।
(ix) यातायात एवं संचार की समुचित व्यवस्था- कल्याणकारी राज्य यातायात एवं संचार हेतु सड़कों, रेलों, जल एवं वायुमार्गों, डाक-तार, दूरसंचार, रेडियो, दूरदर्शन इत्यादि की समुचित व्यवस्था करता है। प्राकृतिक साधनों की सुरक्षा एवं विकास- कल्याणकारी राज्य ऐसी व्यवस्था करता है जिसमें वनों, नदियों, खनिजों, पर्वतों, समुद्रों इत्यादि प्राकृतिक साधनों की सुरक्षा होती है। जनहित में अधिकाधिक प्राकृतिक सम्पदाओं का संरक्षण करना लोक-कल्याणकारी राज्य का प्रमुख कर्त्तव्य होता है।
कृषि की उन्नति- कृषि की उन्नति हेतु राज्य उत्तम बीज, खाद एवं सिंचाई के साधनों की समुचित व्यवस्था करता है। इसके साथ ही कल्याणकारी राज्य कृषकों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने की व्यवस्था के अतिरिक्त सूखा, बाढ़ इत्यादि की स्थिति में आर्थिक सहायता भी दिलाता है। किसानों को कृषि-कार्यों हेतु न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण की व्यवस्था भी राज्य ही करवाता है।
(xii) श्रमिकों के हितों की रक्षा- श्रमिकों के हितों के रक्षार्थ कल्याणकारी राज्य श्रमिकों को कार्य करने के घण्टे निश्चित करके उन्हें उचित पारिश्रमिक दिलाने की व्यवस्था करता है। इसके साथ ही उनकी सुरक्षा एवं निवास की व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी राज्य का ही होता है। श्रमिकों को पूँजीपतियों के शोषण से मुक्ति दिलाने हेतु राज्यश्रम हितकारी कानूनों का निर्माण करता है। साहित्य, कला एवं विज्ञान को प्रोत्साहन- प्रत्येक राज्य की उन्नति में कला, साहित्य एवं विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान होता है; अत: प्रत्येक कल्याणकारी राज्य इन्हें समुचित प्रोत्साहन देता है।
(xiv) सामाजिक सुधार- समाज में प्रचलित दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, मृत्यु भोज, धार्मिक कट्टरता, जातीय भेदभाव, अस्पृश्यता इत्यादि कुरीतियों को समाप्त कराने में राज्य ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। लोक-कल्याणकारी राज्य को शराब, भाँग, गाँजा तथा अफीम जैसे मादक पदार्थों के सेवन एवं बिक्री पर भी प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए।
(xv) उद्योग एवं व्यापार पर नियन्त्रण- राज्य जनहित में बड़े एवं भारी उद्योगों को अपने स्वामित्व में लेकर उनका उचित रूप में संचालन करता है। आवश्यक होने पर जनोपयोगी सेवाओं का राष्ट्रीयकरण भी उसी के द्वारा किया जाता है। आयात निर्यात एवं व्यापार पर भी राज्य का ही नियन्त्रण होता है।
(xvi) आमोद-प्रमोद की सुविधाएँ- कल्याणकारी राज्य अपने नागरिकों के मनोरंजन हेतु समय-समय पर खेलों, मेलों एवं प्रदर्शनियों के आयोजन के साथ-साथ चिड़ियाघर, सिनेमा, नाटक, रेडियो, टेलीविजन इत्यादि की व्यवस्था करता है।
(xii) असहायों एवं अपाहिजों की सहायता- कल्याणकारी राज्य शारीरिक रूप से अपंग, असहाय एवं वृद्ध व्यक्तियों हेतु इस प्रकार की शिक्षा एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करता है जिससे कि वे अपनी आजीविका स्वयं अर्जित कर सकें। इसके अलावा वृद्धों एवं अपंगों के लिए राज्य पेंशन की व्यवस्था भी करता है।
लोक-कल्याणकारी राज्य की आलोचना- यद्यपि आज लोक-कल्याणकारी राज्य की प्रवृत्ति विश्व के विभिन्न राज्यों ने अपना ली है, फिर भी लोक-कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं
(i) अत्यन्त खर्चीला- लोक-कल्याणकारी राज्य अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न उपायों तथा रचनात्मक कार्यों को सम्पादित करता है जिसके लिए उसे अधिक धनराशि की आवश्यकता पड़ती है। गरीब अथवा सामान्य आर्थिक संसाधनों वाला राज्य इस प्रकार का व्यय-भार वहन नहीं कर सकता। इस बात को लक्ष्य करते हुए सिनेटर टाफ्ट ने कहा है, “लोक-कल्याण की नीति राज्य को दिवालियेपन की ओर ले जाएगी।”
ii) नौकरशाही का भय- लोक-कल्याणकारी राज्य की प्रवृत्ति अपना लेने पर नौकरशाही को प्रोत्साहन मिलता है क्योंकि राज्य को अपने व्यापक कार्यों को नौकरशाही द्वारा ही सम्पन्न कराता है। नौकरशाही में अभिवृद्धि के परिणामस्वरूप लालफीताशाही, भ्रष्टाचार एवं भाई-भतीजावाद का उदय होता है।
(iii) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन- लोक-कल्याणकारी राज्य में शासन का कार्य-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जाता है जिससे शासन की शक्तियों में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। अत्यधिक शक्तियों का प्रयोग करने वाला शासन निरंकुश एवं सर्वाधिकारवादी हो जाता है तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है।
(iv) पूँजीवाद का समर्थन- कल्याणकारी अवधारणा का प्रतिपादन अपनी व्यवस्था को साम्यवादी आक्रमणों से बचाने हेतु उदारवादियों द्वारा किया गया था। यह पूँजीवाद की रक्षा का कवच है। कोई भी राज्य जो शोषणवादी पूँजीवाद का समर्थन करता है वह कल्याणकारी राज्य हो ही नहीं सकता। ऐच्छिक समुदायों पर आघात- व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु लोक-कल्याणकारी राज्य को अनेक कार्य सम्पादित करने होते हैं। राज्य अनेक ऐसे कार्य भी करने लगता है जो कि ऐच्छिक समुदायों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं। इस प्रकार कल्याणकारी राज्य ऐच्छिक समुदायों के लिए घातक होते हैं। इस आशंका को व्यक्त करते हुए बैन एवं पीटर्स ने कहा है- “राज्य का उद्देश्य भले ही जनसाधारण को लाभ पहुँचाने तथा सामान्य हित को प्रोत्साहित करने का रहा हो, लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि वह अन्य सभी संस्थाओं एवं समुदायों के अधिकारों को कुचल दें।”
- मनु तथा कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राज्य संबंधी सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उ०- मनु के राज्य के कार्यक्षेत्र संबंधी सिद्धान्त- मनु ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में राज्य के कार्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उसने राज्य एवं राज्य के शासक के रूप में राजा को व्यापक कार्यक्षेत्र प्रदान किया है। मनु के अनुसार राज्य के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
(i) शिक्षा की व्यवस्था तथा उसका प्रसार करना- शिक्षा की उचित व्यवस्था करना भी राज्य का कार्य बतलाया गया है।
शिक्षित नागरिक ही समाज एवं राज्य की उन्नति में अपना योगदान दे सकते हैं। राजा को इस प्रकार की नीतियाँ अपनानी चाहिए, जिससे विद्या एवं कला की उन्नति हो सके। ब्राह्मणों को दान देने की परम्परा शिक्षा व्यवस्था के विकास की ओर ही एक योगदान था। जो ब्राह्मण वेदों का अध्ययन करें तथा उनकी शिक्षा प्रदान करें, उन्हें राज्य की ओर से आर्थिक सहायता अवश्य दी जानी चाहिए। सभी वर्गों से स्वधर्म का पालन करना- राजा का यह भी एक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है कि वह राज्य में निवास करने वाले सभी वर्गों के लोगों से अपने-अपने धर्म का पालन करावे। यदि विभिन्न वर्ण के लोग धर्म का पालन नहीं करेंगे तो राज्य में अराजकता एवं अव्यवस्था फैल जाएगी और वह राज्य नष्ट हो जाएगा। अत: राजा को चाहिए कि वह प्रत्येक वर्ण के लोगों को स्वधर्म का पालन करने के लिए बाध्य करें। मनु लिखिते है कि अपने-अपने धर्म में संलग्न सब वर्णों और आश्रमों की रक्षा करने वाले राजा को ब्रह्मा ने बनाया है।”
(iii) बाह्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना– राज्य का यह भी महत्वपूर्ण कार्य है कि वह अपनी प्रजा की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करें। राजा को युद्ध के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। मनु का कथन है कि “राजा दण्ड को सर्वत्र उद्यत रखे (हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल इस प्रकार चतुरलिंगी सेना को सदैव परेड करवाकर उनका अभ्यास बढ़ाता रहें) अपने पुरुषार्थ (सैनिकादिक शक्ति)को प्रदर्शित करता रहे। गुप्त रखने योग्य (अपने विचार, राजकार्य एवं चेष्टा आदि) को सर्वदा गुप्त रखे और शत्रु के छिद्र (सेना या प्रकृति के द्वोष आदि से दुर्बलता) को सर्वदा देखता रहे।” आगे मनु लिखते हैं कि, “सर्वदा दण्ड (चतरङ्गिणी सेना की शक्ति)से युक्त रहने वाले राजा से सब संसार डरता रहता है। अतएव राजा सब लोगों को दण्ड द्वारा ही वंश में करें।”
(iv) न्याय सम्बन्धी कार्य– न्याय करना भी राजा का परम कर्त्तव्य है। जिस राज्य में निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था नहीं होगी वहाँ पर अराजकता का साम्राज्य होगा। न्यायाधीश को निष्पक्षतापूर्वक न्याय करना चाहिए। न्याय करते समय न्यायाधीश के मस्तिष्क में किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। नागरिकों के पारस्परिक विवादों का निर्णय सही प्रकार से होना चाहिए। कानून की दृष्टि में सभी नागरिकों को समान समझना चाहिए । मन लिखते है कि “यदि राजा स्वयं विवादों (मकदमों) का न्याय (फैसला) न करें तो उस कार्य को देखने के लिए विद्वान ब्राह्मणों को नियुक्त करें। आगे मन लिखते है कि “राजा के द्वारा नियुक्त विद्वान ब्राह्मण भी तीन सदस्यों (धार्मिक एवं कार्मज्ञ) के साथ ही न्यायालय में जाकर आसन पर बैठकर या खडे होकर (राजा के देखने योग्य) उन कार्यों को देखे अर्थात उन मुकदमों का फैसला करें। न्यायाधीश को सदैव सत्य का पक्ष लेना चाहिए तथा असत्य को हावी नहीं होने देना चाहिए अर्थात् न्याय निष्पक्ष ही होना चाहिए। मनु कहते है कि जिस सभा (न्यायालय) में धर्म (सत्य भाषण) अधर्म (असत्य भाषण) से पीड़ित होकर रहता है अर्थात सत्य बात कहकर असत्य बात छिपायी जाती है (और सभा में स्थित सदस्य) वे ब्राह्मण इस धर्म पीड़ाकारक शास्त्र को दर नहीं करते अर्थात् असत्य पक्ष को छोड़कर सत्य पक्ष का आश्रय नहीं लेते, सभा में सदस्य अर्थात् (न्यायाधीश के रूप में) स्थित वे ब्राह्मण ही अधर्म रूपी शस्त्र से विद्ध (पीड़ित) होते हैं।
(V) आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना करना– मनु ने दण्ड को ही राजा माना है। राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह साधु प्रकृति के व्यक्तियों को रहने के लिए सुविधा प्रदान करें तथा उन व्यक्तियों को दण्डित करे जो समाज में विघ्न पैदा करें। दण्ड के द्वारा ही व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाया जा सकता है। दण्ड के न होने से समस्त वर्गों में भ्रष्टाचार पैदा हो जाता है तथा लोक में (राज्य में) प्रकोप (अव्यवस्था) उत्पन्न हो जाता है। दण्डनीति से राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था रहती है
तथा नित्य प्रति राज्य की उत्पत्ति होती रहती है पर इसके विपरीत जो राजा दण्डनीति के विरुद्ध कार्य करता है वह दण्ड ही के द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। अतः राजा का यह परम कर्त्तव्य है कि वह दण्डनीति के उचित प्रयोग द्वारा समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना करें। राजा के द्वारा भ्रष्ट आचरण करने वालों को कठोर दण्ड दिए जाने चाहिए।
vi) राज्य का आर्थिक विकास करना– राज्य की आर्थिक स्थिति को सुधारना तथा उसे समृद्ध बनाना भी राज्य का महत्वपूर्ण कार्य है। बिना धन के राज्य का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। इसी कारण प्राचीन आचार्यों ने कोष को राज्य प्राण बतलाया है। मनु का कथन है कि “राजा अप्राप्त (नहीं मिले हुए सोने, चाँदी, भूमि, जवाहरात आदि) को दण्ड द्वारा (शत्रु को दण्ड देकर या जीतकर) पाने की इच्छा करे। प्राप्त (मिले हुए सोना आदि) द्रव्यों की देखभाल करते हुए रक्षा करे तथा रक्षित धन की वृद्धि करे और बढ़ाए गए (उन द्रव्यों) को सत्पात्रों में दान कर दे।” राज्य की आय का मुख्य स्रोत जनता पर लगाए गए कर होते है। मनु ने उचित कर निर्धारण का विधान किया है। जनता पर उतना ही कर लगाना चाहिए जिसे लोग आसानी से वहन कर सकें। साधारण लोगों पर कर बहुत कम होने चाहिए तथा सम्पन्न लोगों पर कर की मात्रा अधिक होनी चाहिए। मनु ने कर के संबंध में श्रेष्ठ नियमों का उल्लेख किया है।
उनका कथन है कि “ जिस प्रकार राजा देखभाल आदि और व्यापारी व्यापार आदि के फल से यक्त रहे (दोनों को अपने-अपने उद्योग के अनुसार फल मिले) वैसा देखकर राजा सर्वदा निश्चय कर राज्य में कर लगावे।” मनु आगे लिखते हैं “जिस प्रकार जोंक, बछड़ा और भ्रमर थोड़े-थोड़े अपने-अपने खाद्य क्रमश: रक्त, दूध और मधु को ग्रहण करता है, उसी प्रकार प्रजा से वार्षिक कर ग्रहण करना चाहिए।” मन ने श्रोत्रिम (वेदपाठी ब्राह्मण) से कर न ले. इस (राजा) के देश में रहता हआ श्रोत्रिय जीविका न मिलने से भूख से पीड़ित न हो। ऐसा प्रबन्ध रखे। आगे वह लिखते हैं कि जिस राजा के देश में श्रोत्रिय भूख से पीड़ित होता है , उस राजा का वह राज्य भी शीघ्र ही भूख से पीड़ित होता है (राज्य में अकाल पड़ता है।) इसके अतिरिक्त वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण करना भी राजा का कर्त्तव्य है। मनु लिखते हैं कि “स्थल तथा जल के मार्ग से व्यापार करने में चतुर और बाजार के सोने के मूल्य लगाने में निपुण व्यक्ति बाजार के अनुसार जिस वस्तु को जो मूल्य निश्चित करे उसके लाभ में से राज्य बीसवाँ भाग कर के रूप में ग्रहण करें।”
(vii) ब्राह्मणों को दान देना तथा उनका सम्मान करना- (ज्ञान तथा तपस्या से) वृद्ध, वेदज्ञ और शुद्ध हृदय वाले ब्राह्मणों की नित्य सेवा करें, क्योंकि वृद्धों की सेवा करने वालों की राक्षस (क्रूर प्रकृति वाले) भी पूजा करते हैं, फिर मनुष्यों की बात क्या है। मनु का कथन है कि उन (वृद्ध ब्राह्मणों) से पहले विनय युक्त राजा भी और अधिक विनय सीखे, क्योंकि विनययुक्त राजा कभी नष्ट नहीं होता। मनु का अभिप्राय यह है कि राजा को विनयशील होना चाहिए तथा ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करने के लिए उन्हें दान भी देना चाहिए।
कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्यक्षेत्र संबंधी सिद्धान्त- मनु के समान कौटिल्य ने भी अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र में राज्य के कार्यों एवं राजा के कर्त्तव्यों पर विचार किया है। हालांकि कौटिल्य राज्यहित को सर्वोपरि बताता था लेकिन उसने राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का हित तथा उसका पूर्ण विकास माना है। राज्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कौटिल्य ने लिखा है”प्रजा के सुख में ही राज्य का सुख है, प्रजा हित में ही राजा का हित है। राजा के लिए प्रजा के सुख से अलग अपना कोई सुख नहीं है।” राजा एवं प्रजा में पिता-पुत्र के संबंधों की चर्चा करते हुए कौटिल्य कहता है- “राजा एवं प्रजा में पिता एवं पुत्र का संबंध होना चाहिए।’ कौटिल्य ने राज्य के कार्यक्षेत्र अथवा राजा के कर्तव्यों की जो विवेचना की हैं उसके अनुसार राज्य के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
(i) प्रजा की रक्षा- कौटिल्य ने प्रजा की रक्षा के विषय में राज्य के कर्त्तव्य बताते हुए लिखा है कि राज्य को अपने कर्मचारियों, साहूकारों, चोर-डाकुओं, जादूगरों इत्यादि से प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। कौटिल्य ने अपराधियों को कठोर सजा देने का राजा को उपदेश दिया।
(ii) पशुधन की सुरक्षा एवं संवर्द्धन- कौटिल्य के मतानुसार राज्य को पशुधन के संरक्षण तथा संवर्द्धन में भी रूचि रखनी चाहिए। पशुधन की देखभाल करने हेतु एक गौ अध्यक्ष का कर्त्तव्य गाय, भैंस, बैल, बकरी इत्यादि की देखभाल एवं नस्ल सुधार का प्रबन्ध करना होना चाहिए। उक्त पशुओं की विषैले तथा बनैले (जंगली पशुओं) से रक्षा करने के लिए कौटिल्य ने एक ओर अधिकारी ‘बिक्ताध्यक्ष’ का उल्लेख किया है।
(iii) राज्य की शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाए रखना- राज्य का दूसरा कार्य राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना करना है। राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाए रखने हेतु गुप्तचरों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। कौटिल्य गुप्तचरों पर काफी विश्वास रखते थे। गुप्तचरों की मदद से ही उन्होंने अपने शत्रु धननन्द को वंश सहित नष्ट किया था। शिक्षा की व्यवस्था- कौटिल्य राज्य शिक्षा को अत्यधिक महत्व देता है। वह कहता है कि शिक्षा के अभाव में कोई भी राष्ट्र महान् नहीं बन सकता। उसका राज्य सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा पर जोर देता है।
(v) राज्य की सुरक्षा- राज्य का प्रथम प्रमुख कार्य यह है कि वह स्वयं अपनी रक्षा करे। यदि राज्य अपनी सुरक्षा न कर सकेगा तो वह स्वयं नष्ट हो जाएगा तथा जिस उद्देश्य हेतु उसका उदय हुआ है, वह कल्पना की वस्तु बन जाएगा।
(vi) प्राकृतिक आपदाओं से राज्य की सुरक्षा- कौटिल्य के अनुसार प्राकृतिक शत्रुओं से अपनी रक्षा करना राज्य का ही कार्य है। उसने राज्य के आठ प्राकृतिक शत्रु- (क) जल, (ख) अग्नि, (ग) दुर्भिक्ष, (घ) व्याधि (महामारी), (ङ) चूहे, (च) हिंसक जन्तु, (छ) सर्प तथा (ज) राक्षस बताए हैं। कौटिल्य कहता है कि इन शत्रुओं से राज्य को सावधान रहना चाहिए।
(vii) नैतिक कार्य- कौटिल्य का राज्य एक नैतिक संस्था है। कौटिल्य नागरिकों में सदगुणों का विकास करके उन्हें सदाचारी बनाता है। कौटिल्य के राज्य में शराब, जहरीली वस्तुओं, जुआरियों तथा वेश्याओं पर नियन्त्रण लगाया गया है।
(viii) सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था की सुनिश्चितता- कौटिल्य का राज्य वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक था। वह प्रत्येक समुदाय की रक्षा करके उसे प्रोत्साहित करता है। कौटिल्य जहाँ राज्य को विजित प्रदेशों के उचित रीति-रिवाजों को बनाए रखने की बात करता है वहीं वहाँ के निवासियों के जीवनयापन के ढंग, पहनावे एवं भाषा को अपना लेने की बात भी करता है। व्यापार एवं वाणिज्य की प्रगति- व्यापार तथा वाणिज्य की रक्षा एवं विकास राज्य का एक प्रमुख कर्त्तव्य है। कौटिल्य के अनुसार व्यापार एवं वाणिज्य का कार्य पण्याध्यक्ष के हाथ में होना चाहिए। व्यापार में किन वस्तुओं से अधिक तथा किनसे कम लाभ होता है, इसकी जानकारी पण्याध्यक्ष को रहनी चाहिए। यदि राज्य को किसी व्यापार से अधिक लाभ होता है तथा व्यापारी को कम तो कौटिल्य के मतानुसार राज्य को ऐसे व्यापार का त्याग कर देना चाहिए।
(x) सुदृढ़ एवं सुनिश्चित अर्थव्यवस्था- कौटिल्य का राज्य सुदृढ़ एवं सुनिश्चित अर्थव्यवस्था की स्थापना करता है। इसके लिए वह धर्मपूर्वक संचित कोष पर जोर देता है। लोक-कल्याणकारी कार्य- कौटिल्य ने राज्य को लोकहित तथा सामाजिक कल्याण के कार्य सौपें है। लोक-कल्याण संबंधी जिन कार्यों को राजासम्पन्न करता है उनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं
(क) जीविकोपार्जन के साधनों का नियमन
(ख) चिकित्सालयों का निर्माण
(ग) वृद्ध, असहाय, अनाथ, विधवा, दुःखियों तथा रोगियों की सहायता (घ) कृषि, पशुपालन, उद्योग, वाणिज्य इत्यादि का विकास
(ङ) बाँधों का निर्माण, जलमार्ग, जलाशय, स्थलमार्ग एवं बाजार बनाना (च) दुर्भिक्ष के समय जन साधारण की सहायता
(छ) विद्वानों का आदर एवं सम्मान
(ज) ज्ञान के अनुसन्धान कार्य में लगे गुरुकुलवासियों एवं विद्यार्थियों की रक्षा
(झ) आवश्यक होने पर धनवानों से अधिक कर वसलूकर गरीबों में वितरित करना
(ब) जंगलों की रक्षा करना
(ट) मानव के चारों उद्देश्यों- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि में सहायता करना।
(xii) राज्य का विस्तार- कौटिल्य के अनुसार राज्य का एक कार्य राज्य विस्तार भी है। उसके अनुसार राज्य को विस्तार की
एक योजना तैयार करके शत्रु देश पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लेना चाहिए।
(xiii) कृषि की व्यवस्था- कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कृषि की व्यवस्था पर बल दिया है। उसके मतानुसार कृषि का प्रधान अधिकारी सीताध्यक्ष होना चाहिए जो एक अनुभवी एवं योग्य व्यक्ति हो। इस अधिकारी का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह अनुभवी एवं योग्य कर्मचारियों की सहायता लेकर खाद्य पदार्थों इत्यादि की उन्नति हेतु उनके श्रेष्ठ बीजों का संग्रह करे।
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