Up board class 10 social science full solution chapter 7 यूरोप में राष्ट्रवाद का विकास
इकाई-1 (ग) : राष्ट्रवाद का विकास एवं विश्वयुद्ध
पाठ--7 यूरोप में राष्ट्रवाद का विकास
1—राष्ट्रवाद से आपका क्या आशय है? यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय के दो प्रमुख कारण लिखिए।
उ०- राष्ट्रवाद आंग्ल भाषा के नेशनेलिटी शब्द का हिंदी रूपांतरण है, जो जन्म तथा जाति का बोधक है। अत: राष्ट्रवाद राष्ट्रीयता की भावनात्मक एकता का सूचक है। राष्ट्रीयता का भाव ही एक भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों को राजनीतिक संगठन में बाँधता है। राष्ट्रीयता एक देश में रहने वाले लोगों को अपने राष्ट्र के प्रति वफादार बने रहने की प्रेरणा देती है। दूसरे शब्दों में, “राष्ट्रवाद वह मनोवैज्ञानिक भाव है, जो व्यक्तिवाद को भुलाकर राष्ट्र के प्रति समर्पित होने की आस्था जागृत करता है।” यूरोप में राष्ट्रवाद की प्रथम झलक फ्रांसीसी क्रांति के साथ ही दिखाई पड़ी। इस क्रांति ने यूरोप के लोगों में एक साझी विरासत का भाव जगाकर, उन्हें संघर्ष की कड़ी के साथ संबद्ध कर दिया। यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे.
(i) यूरोप में पुनर्जागरण ने सामंतवाद को समाप्त कर लोगों को राजनीतिक एवं धार्मिक एकता का रस चखाकर, उन्हें. राष्ट्रवाद के धागों से बाँध दिया।
(ii) यूरोप में धर्म-सुधार आंदोलनों ने मानवतावाद का भाव जगाकर समूचे यूरोपवासियों में राष्ट्रीयता का भाव जगा दिया।
2. “इटली का एकीकरण सीढ़ीयाँ चढ़ता हुआ अपने लक्ष्य पर पहुँचा।” कथन को स्पष्ट कीजिए।
उ०- 1848 ई० के पश्चात इटली के एकीकरण की समस्या उग्र रूप धारण कर चुकी थी। इटली के एकीकरण में मैजिनी, गैरीबाल्डी तथा काउंट काबूर ने महत्वपूर्ण भूमिका बनाई। मैजिनी ने इटली की स्वतंत्रता और एकता के लिए जीवनभर संघर्ष किया। ‘युवा इटली’ नामक संस्था का गठन करके नवयुवकों को इटली की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने को तैयार किया। गैरीबाल्डी ने मैजिनी के सहयोग से इटली में गणतंत्र की स्थापना और एकीकरण का प्रयास करता रहा तथा उसने 30 हजार स्वयंसेवकों की सेना बनाई। 1852 ई० में विक्टर इमैनुअल ने काउंट काबूर को प्रधानमंत्री बनाकर इटली के एकीकरण की बागडोर उसके हाथों में सौंप दी। उसने कूटनीति का जाल फैलाकर इटली के एकीकरण में बाधक आस्ट्रिया को बाहर का रास्ता दिखाया। 2 जून, 1871 ई० को इटली के एकीकरण की समस्या का हल हुआ। इस प्रकार मैजिनी, गैरीबाल्डी तथा
काउंट काबूर के निरंतर प्रयासों से इटली का एकीकरण धीरे-धीरे सीढ़ीयाँ चढ़ता हुआ अपने लक्ष्य पर पहुंचा।इटली के एकीकरण में मैजिनी की भूमिका की समीक्षा कीजिए। उ०- मैजिनी इटली का राष्ट्रीय सपूत था। इटली की दुर्दशा ने उसके अंत:करण को झकझोर दिया। अतः वह कार्बोनेरी संस्था के
माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम से जैसे ही जुड़ा, 1830 ई० में जेल में ठूस दिया गया। उसने ‘युवा इटली’ नामक संस्था का गठन करके, नवयुवकों को इटली की स्वतंत्रता के लिए मर मिटने को तैयार कर लिया। मैजिनी विलक्षण प्रतिभा, सूझ-बूझ, लेखन शैली का स्वामी और प्रखर प्रवक्ता था। उसका मत था कि आस्ट्रिया को इटली से खदेड़कर ही एकीकरण का लक्ष्य पाया जा सकता है। उसने जीवनभर इटली की एकता के लिए संघर्ष किया। उसका कहना था, “जनता अपनी प्रभुसत्ता गणतंत्र के माध्यम से ही पूर्णरूपेण व्यक्त कर सकती है।” उसके प्रेरणा देने वाले ये शब्द इटली के जनमानस में क्रांति की
ज्वाला भड़काने में सफल सिद्ध हुए।
4. आस्ट्रिया-प्रशा युद्ध के लिए कौन-कौन से कारण उत्तरदायी थे?
उत्तर- सन् 1866 ई० में प्रशा और इटली के मध्य संधि हुई कि इटली युद्ध में प्रशा का साथ देगा जिसके बदले बिस्मार्क ने युद्ध में
सफल होने के पश्चात इटली को वेनेशिया देने का वादा किया। इस संधि से आस्ट्रिया बड़ा चिंतित हुआ। अत: आस्ट्रिया और प्रशा के मध्य युद्ध की तैयारी तीव्र गति से शुरू हो गई।
5. जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क के योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- विस्मार्क जर्मनी के महान सेनानियों, कूटनीतिज्ञों और निर्माणकर्ताओं में अग्रणी था। उसने उच्चकोटि के सैन्यबल, एकता,
राष्ट्रवाद और कूटनीतिक चालों से जर्मनी का एकीकरण करके उसे नवजीवन प्रदान किया। जर्मनी की भावी पीढ़ियाँ उसके इस महान कार्य के लिए युगों-युगों तक उसे श्रद्धा-सुमन चढ़ाती रहेंगी। उसे जर्मनी के एकीकरण का कर्णधार और यूरोपीय राजनीति का सूत्रधार कहा गया है। 1858 ई० में प्रशा के सम्राट के अस्वस्थ हो जाने पर संसद ने शासन का भार उसके भाई विलियम को सौंप दिया। विलियम ने विस्मार्क को प्रशा का चांसलर (प्रधानमंत्री) नियुक्त कर दिया। अब जर्मनी के एकीकरण का अधिकतम भार विस्मार्क के कंधों पर आ गया। विस्मार्क ने सैन्यशक्ति को बढ़ाकर जर्मनी के एकीकरण की तैयारी जोर-शोर के साथ प्रारंभ कर दी। वह एक साहसी और कूटनीतिक व्यक्ति था, अत: उसने अंतर्राष्ट्रीय परिवेश को अपने अनुकूल ढालकर इस महान कार्य के लिए प्रयत्न प्रारंभ कर दिए। उसके दृढ़ निश्चय और कठोर नीति की झलक उसके इन शब्दों से मिल जाती है- “भाषणों
और बहुमत के आधार पर आज के सभी प्रश्न नहीं सुलझ सकते, पर वह रक्त और लोहे के आधार पर सुलझ सकते हैं।” विस्मार्क ने ‘रक्त और लोहे’ की नीति का अनुपालन करते हुए तीन युद्धों डेनमार्क से युद्ध, आस्ट्रिया से युद्ध तथा फ्रांस-प्रशा
युद्ध के माध्यम से अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। 6. राष्ट्रवाद के यूरोप पर तीन प्रभाव स्पष्ट कीजिए। उ०- यूरोप में राष्ट्रवाद का प्रभाव (परिणाम)- यूरोप में उपजा राष्ट्रवाद न केवल यूरोप की वरन् विश्व की राजनीति को
प्रभावित करने में सफल रहा। यूरोप में इसके मुख्य रूप से निम्न प्रभाव परिलक्षित होते हैं(i) राष्ट्रवाद ने यूरोपवासियों में राष्ट्र के प्रति श्रद्धा और आस्था को बढ़ाया। (ii) राष्ट्रवाद ने जर्मनी में नाजीवाद का बीज बो दिया, जो बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बन गया। (iii) राष्ट्रवाद की चाशनी में पगे यूरोपीय राष्ट्रों ने अपनी भाषा, संस्कृति तथा परंपराओं को एक-दूसरे से श्रेष्ठ समझने का। मोह पाल लिया।
Up board class 10 social science full solution chapter 7 यूरोप में राष्ट्रवाद का विकास
* विस्तृत उत्तरीय प्रश्न —
1. यूरोपियन राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं? यूरोप में इसके उदय होने के चार कारण लिखिए।
उ०- राष्ट्रवाद वो मनोवैज्ञानिक भाव है, जो व्यक्तिवाद को भुलाकर राष्ट्र के प्रति समर्पित होने की आस्था जाग्रत करता है। QCयूरोप में राष्ट्रवाद एक ऐसे राजनीतिक सिद्धांत के रूप में उभरा जिसका इतिहास रचने में महत्वपूर्ण योगदान है। राष्ट्रवाद कई चरणों से गुजर चुका है। 19वीं शताब्दी के यूरोप में इसने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। जर्मनी और इटली का गठन, एकीकरण एवं सुदृढीकरण इसी प्रक्रिया से हुआ था। राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के उत्थान एवं पतन के लिए उत्तरदायी रहा है। यूरोप में 20वीं शताब्दी के आरंभ में ऑस्ट्रिया, हंगरी और रूसी साम्राज्य तथा अफ्रीका में ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैंड और पुर्तगाल साम्राज्य के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था। भारत तथा अन्य उपनिवेशों के औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र होने के लिए किये गये संघर्ष भी राष्ट्रवादी संघर्ष थे। ये संघर्ष विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्र राष्ट्र स्थापित करने की आकांक्षा से प्रेरित थे। उन्नीसवीं सदी के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसी ताकत बनकर उभरा जिसने यूरोप के राजनीतिक एवं मानसिक जगत में भारी परिवर्तन ला दिया। इस समय यूरोप में ऐसी गतिविधियाँ एवं विचार विकसित हो रहे थे जिनमें स्पष्ट रूप से परिभाषित क्षेत्र पर प्रभुसत्ता एक केंद्रीय शक्ति की थी जहाँ लोगों में एक साझा पहचान का भाव एवं साझा इतिहास या विरासत की भावना थी। साझेपन की यह भावना अनन्त काल से नहीं थी, यह संघर्षों एवं नेताओं तथा आम लोंगो की सरगर्मियों से निर्मित हुई थी। यूरोप में राष्ट्रीयता (राष्ट्रवाद) के उदय के कारण- यूरोप में राष्ट्रवाद की प्रथम झलक फ्रांसीसी क्रांति के साथ ही दिखाई पड़ी। इस क्रांति ने यूरोप के लोगों में एक साझी विरासत का भाव जगाकर, उन्हें संघर्ष की कड़ी के साथ संबद्ध कर दिया। यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे(i) यूरोप में पुनर्जागरण ने सामंतवाद को समाप्त कर लोगों को राजनीतिक एवं धार्मिक एकता का रस चखाकर, उन्हें राष्ट्रवाद के धागों से बाँध दिया। (ii) यूरोप में धर्म-सुधार आंदोलनों ने मानवतावाद का भाव जगाकर समूचे यूरोपवासियों में राष्ट्रीयता का भाव जगा दिया। (iii) भौगोलिक खोजों और व्यावसायिक संबंधों ने देशवासियों को राष्ट्रीयता की डोर से बाँधकर एक बना दिया। (iv) फ्रांस की क्रांति ने यूरोप में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्रांति का बीजारोपण करके तथा पुरातन व्यवस्था को
ध्वस्त करके राष्ट्रीयता की भावना को विकसित कर दिया।
2. इटली के एकीकरण में मैजिनी, काबूर और गैरीबाल्डी के योगदान का वर्णन कीजिए।
उ०- 1848 ई० के पश्चात इटली के एकीकरण की समस्या उग्र रूप धारण कर चुकी थी। इन सबको सक्रिय बनाने में इटली की
एकता की आत्मिक शक्ति मैजिनी, इटली के सशक्त बल गैरीबाल्डी तथा इटली की कूटनीति के केंद्र काउंट काबूर ने प्रमुख भूमिका निभाई। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यही त्रिमूर्ति इटली के एकीकरण का शरीर, आत्मा और मस्तिष्क बनकर प्रकट हुई। इटली के एकीकरण के लिए प्रयास निरंतर चलते रहे। कहावत है, “इटली का एकीकरण सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ अपने लक्ष्य पर पहुँचा।” मैजिनी, गैरीबाल्डी तथा काउंट काबूर के प्रयासों से उसे लक्षित सफलता प्राप्त हो सकी। आइए उनके प्रयासों और कार्यों पर दृष्टिपात करते हैं(i) मैजिनी इटली का राष्ट्रीय सपूत था। इटली की दुर्दशा ने उसके अंत:करण को झकझोर दिया। अत: वह कार्बोनेरी संस्था
के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम से जैसे ही जुड़ा, 1830 ई० में जेल में लूंस दिया गया। उसने ‘युवा इटली’ नामक संस्था का गठन करके, नवयुवकों को इटली की स्वतंत्रता के लिए मर मिटने को तैयार कर लिया। मैजिनी विलक्षण प्रतिभा, सूझ-बूझ, लेखन शैली का स्वामी और प्रखर प्रवक्ता था। उसका मत था कि आस्ट्रिया को इटली से खदेड़कर ही एकीकरण का लक्ष्य पाया जा सकता है। उसने जीवनभर इटली की एकता के लिए संघर्ष किया। उसका कहना था, “जनता अपनी प्रभुसत्ता गणतंत्र के माध्यम से ही पूर्णरूपेण व्यक्त कर सकती है।” उसके प्रेरणा देने वाले ये शब्द इटली के जनमानस में क्रांति की ज्वाला भड़काने में सफल सिद्ध हुए। गैरीबाल्डी ने 1833 ई० में मैजिनी के सहयोग से इटली में गणतंत्र की स्थापना का प्रयास किया, परंतु उसे बंदी बना लिया गया। ‘युवा इटली’ के सदस्य के रूप में वह विदेशों में इटली के एकीकरण का प्रयास करने में जुटा रहा। उसने इटली लौटकर लगभग 30 हजार स्वयंसेवकों की सेना बनाई। मैजिनी के रोम चले जाने पर गणराज्य की रक्षा का भार गैरीबाल्डी को सौंप दिया गया, परंतु उसे पराजित होकर अमेरिका जाना पड़ा। अमेरिका से लौटने पर उसका संपर्क काउंट काबूर से हुआ। 1860 ई० में उसने सिसली को स्वतंत्र कराकर नेपल्स पर अधिकार जमा लिया। उसने अपने
समस्त विजित क्षेत्रों को विक्टर इमैनुअल को सौंप दिया तथा वह अपने घर लौटकर खेती करने में जुट गया। (iii) काउंट काबूर 1848 ई० में पीडमांड की विधानसभा का सदस्य चुना गया। वह देश की स्वतंत्रता और एकीकरण के लिए निरंतर जुटा रहा। 1852 ई० में विक्टर इमैनुअल ने काउंट काबूर को प्रधानमंत्री बनाकर इटली के एकीकरण की बागडोर उसके हाथों में सौंप दी। “काउंट काबूर ने इटली के एकीकरण के लिए राजनीतिक दाँव-पेंच और कूटनीति का सहारा लिया, जो उसकी सफलता का आधार बने।” उसने इटली की समस्या को अंतर्राष्ट्रीय समस्या बनाकर समूचे विश्व का सहयोग और सहानुभूति जुटा ली। उसने इटली की सैन्यशक्ति को बढ़ाया तथा आस्ट्रिया को देश से बाहर खदेड़ने में फ्रांस का सहयोग प्राप्त किया। उसने कूटनीति का जाल फैलाकर इटली के एकीकरण में बाधक आस्ट्रिया को बाहर का रास्ता दिखा दिया। 7 नवंबर, 1861 ई० में गैरीबाल्डी ने यद्यपि विक्टर इमैनुअल को इटली का राजा घोषित कर दिया; परंतु वेनेशिया और रोम अभी इटली के साम्राज्य से बाहर थे। यह कार्य काबूर ने पूरा किया। उसने 1861 ई० में वेनेशिया और रोम को छोड़कर देशभर के प्रतिनिधियों का सम्मेलन बुलाकर संसद का अधिवेशन आयोजित किया। संसद ने विक्टर इमैनुअल को इटली का सम्राट घोषित कर दिया। इस प्रकार इटली के एकीकरण का प्रश्न 2 जून, 1871 ई० को सदैव-सदैव के लिए हल हो गया। वास्तव में इटली को नवजीवन देने का श्रेय कांउट काबूर को ही दिया जाना चाहिए। निष्कर्ष रूप में यही कहना उचित है कि मैजिनी, गैरीबाल्डी और कांउट काबूर के प्रयासों ने इटली के मृतप्राय जीवन में एकीकरण की संजीवनी प्रवाहित की। इस कार्य के लिए इतिहासकारों ने काबूर को अधिक महत्व दिया है, क्योंकि उसके प्रयासों के बिना इटली का एकीकरण दीर्घकाल के लिए टल सकता था
। 3. जर्मनी का एकीकरण किस प्रकार हुआ? इसमें विस्मार्क ने क्या भूमिका निभाई? ।
उ०- जर्मनी का एकीकरण- यूरोप में राष्ट्रवाद की द्वितीय परिणति जर्मनी के एकीकरण के रूप में दृष्टिगोचर हुई। नेपोलियन बोनापार्ट के 1815 ई० में वाटर लू में पराजित हो जाने के बाद वियना कांग्रेस ने जर्मनी को फिर से 39 राज्यों में खंड-खंड कर दिया। इन 39 राज्यों के परिसंघ का अध्यक्ष आस्ट्रिया को बनाया गया। जर्मनी के राष्ट्रवादी विचार उसके इस निर्णय से असंतुष्ट हो उठे, अतः जर्मनी में राष्ट्रीय आंदोलन उठ खड़े हुए, जिनका केंद्र और प्रेरणास्रोत जेनेवा विश्वविद्यालय बन गया। “जर्मनी के राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों और विद्यार्थियों ने मिलकर वर्शनशेप्ट नामक संगठन बनाकर जर्मनी के एकीकरण के लिए संघर्ष छेड़ दिया।” प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम ने वर्शनशेप्ट संगठन को असंवैधानिक घोषित करके प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया। 1848 ई० में जर्मनी के राष्ट्रवादियों ने संविधान का निर्माण करने के लिए सभा बुलाई और प्रशा के शासक फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ को संपूर्ण जर्मनी का सम्राट चुन दिया; परंतु उसने इस आमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। परिणामस्वरूप जर्मनी का एकीकरण खटाई में पड़ गया। बाद में जर्मनी के एकीकरण के लिए निम्नवत् संघर्ष करने पड़े1858 ई० में प्रशा के सम्राट के अस्वस्थ हो जाने पर संसद ने शासन का भार उसके भाई विलियम को सौंप दिया। विलियम ने विस्मार्क को प्रशा का चांसलर (प्रधानमंत्री) नियुक्त कर दिया। अब जर्मनी के एकीकरण का अधिकतम भार विस्मार्क के कंधों पर आ गया। विस्मार्क ने सैन्यशक्ति को बढ़ाकर जर्मनी के एकीकरण की तैयारी जोर-शोर के साथ प्रारंभ कर दी। वह एक साहसी और कूटनीतिक व्यक्ति था, अतः उसने अंतर्राष्ट्रीय परिवेश को अपने अनुकूल ढालकर इस महान कार्य के लिए प्रयत्न प्रारंभ कर दिए। उसके दृढ़ निश्चय और कठोर नीति की झलक उसके इन शब्दों से मिल जाती है- “भाषणों
और बहुमत के आधार पर आज के सभी प्रश्न नहीं सुलझ सकते, पर वह रक्त और लोहे के आधार पर सुलझ सकते हैं।” विस्मार्क ने ‘रक्त और लोहे की नीति का अनुपालन करते हुए निम्न तीन युद्धों के माध्यम से अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। (i) डेनमार्क से युद्ध- डेनमार्क में स्थित दोनों डचियों को डेनमार्क के राज्य में नहीं मिलाने का समझौता हुआ था। दोनों
डचियों में बसी जर्मन जातियाँ इन्हें जर्मनी में मिलाने की पक्षधर थीं। डेनमार्क के शासक की मृत्यु हो जाने पर नए शासक ने श्लोसविग डची को डेनमार्क में मिलाने का प्रयास किया और विरोध करने वालों को जेलों में लूंस दिया। जर्मन जनता इसके विरोध में विद्रोह कर उठी। अतः दोनों डचियों पर जर्मनी की राज्य परिषद् का अधिकार हो गया। विस्मार्क इन दोनों डचियों को प्रशा राज्य में मिलाना चाहता था, अतः उसने आस्ट्रिया के साथ कूटनीतिक संधि करके सेना के बल पर दोनों डचियों को छीन लेने का मन बना लिया। उसने डेनमार्क से युद्ध छेड़ दिया। यूरोप का कोई देश डेनमार्क का सहयोग नहीं कर सका। डेनमार्क का शासक इस युद्ध में विस्मार्क से हार गया और उसने 30 अक्टूबर, 1864 ई० में प्रशा और आस्ट्रिया से संधि करके दोनों डचियों को प्रशा और आस्ट्रिया को सौंप दिया। बाद में इन दोनों देशों में परस्पर युद्ध छिड़ गया। विस्मार्क आस्ट्रिया के साथ युद्ध करने का सही अवसर खोजने
में लग गया। (ii) आस्ट्रिया से युद्ध- विस्मार्क ने कूटनीति से फ्रांस को तटस्थ बनाकर तथा सार्डिनिया को अपने पक्ष में करके 1866 ई० में आस्ट्रिया के साथ युद्ध छेड़ दिया। 7 सप्ताह तक चला यह युद्ध ‘7 सप्ताह का युद्ध’ कहा जाता है। इस युद्ध में आस्ट्रिया के विजयी होने की संभावना देख विस्मार्क ने प्रशा तथा इटली के रूप में दो मोर्चे खोल दिए। 23 अगस्त को विस्मार्क ने आस्ट्रिया से प्राग की संधि करके राज्यसंघ का निर्माण करके जर्मनी के एकीकरण की दूसरी सीढ़ी पार कर ली।
iii) फ्रांस-प्रशा युद्ध- जर्मनी के एकीकरण के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा फ्रांस बना हुआ था। अत: विस्मार्क ने आस्ट्रिया। को पटखनी देकर अपनी सेनाओं का मुख फ्रांस की ओर मोड़ दिया। नेपोलियन तृतीय फ्रांस की सीमाओं का विस्तार राइन नदी तक करना चाह रहा था। अमेरिका गृहयुद्ध में उलझा था, विस्मार्क ने चतुराई से इटली को अपने पक्ष में कर लिया, जबकि स्पेन का सिंहासन रिक्त पड़ा था। इन्हीं समस्त परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए विस्मार्क ने 15 जुलाई, 1870 ई० को फ्रांस के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। इस समय जर्मनी की शक्तिशाली सेना का साथ दक्षिण की चारों रियासतें दे रही थीं। 1 सितंबर, 1870 ई० को सेडान के मैदान में फ्रांस की सेनाएँ बुरी तरह पराजित हो गईं। नेपोलियन तृतीय को 84000 सैनिकों के साथ समर्पण करना पड़ा। इस प्रकार विस्मार्क ने 18 जनवरी, 1871 ई० में वर्साय के राजमहल में जर्मन के सभी शासकों और सेनानायकों का दरबार आयोजित किया और राजा विलियम को जर्मनी का सम्राट घोषित कर 28 जनवरी, 1871 ई० को जर्मनी के एकीकरण का सपना पूरा कर दिया। विस्मार्क जर्मनी के महान सेनानियों, कूटनीतिज्ञों और निर्माणकर्ताओं में अग्रणी था। उसने उच्चकोटि के सैन्यबल, एकता, राष्ट्रवाद और कूटनीतिक चालों से जर्मनी का एकीकरण करके उसे नवजीवन प्रदान किया। जर्मनी की भावी पीढ़ियाँ उसके इस महान कार्य के लिए युगों-युगों तक उसे श्रद्धा-सुमन चढ़ाती रहेंगी। उसे जर्मनी के एकीकरण का कर्णधार और यूरोपीय राजनीति का सूत्रधार कहा गया है।
4. यूरोप में राष्ट्रवाद के पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा कीजिए।
उ०- यूरोप में राष्ट्रवाद का प्रभाव ( परिणाम)- यूरोप में उपजा राष्ट्रवाद न केवल यूरोप की वरन् विश्व की राजनीति को प्रभावित करने में सफल रहा। यूरोप में इसके मुख्य रूप से निम्न प्रभाव परिलक्षित होते हैं(i) राष्ट्रवाद ने यूरोपवासियों में राष्ट्र के प्रति श्रद्धा और आस्था को बढ़ाया। (ii) राष्ट्रवाद ने जर्मनी में नाजीवाद का बीज बो दिया, जो बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बन गया। (iii) राष्ट्रवाद की चाशनी में पगे यूरोपीय राष्ट्रों ने अपनी भाषा, संस्कृति तथा परंपराओं को एक-दूसरे से श्रेष्ठ समझने का। मोह पाल लिया। (iv) राष्ट्रीयता के रंग में रंगे यूरोपीय राष्ट्रों ने दूसरे राष्ट्रों की उपेक्षा करनी प्रारंभ कर दी। (v) राष्ट्रवाद से प्रेरित राष्ट्र केवल स्वयं के विकास और समृद्धि बढ़ाने में जुट गए। (vi) राष्ट्रवाद ने यूरोपीय विस्तारवादी शक्तियों को साम्राज्यवाद का विस्तार करने तथा उपनिवेश स्थापित करने को प्रेरित कर दिया। (vii) साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद ने पूँजीवाद को जन्म देकर अन्याय और शोषण के द्वार खोल दिए। (viii) यूरोप के देश सैन्य गुटबंदियाँ करके भारी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एकत्र करने में जुट गए। (ix) राष्ट्रवाद के कारण यूरोप का राजनीतिक परिवेश तनावपूर्ण हो गया, जो बाद में प्रथम विश्वयुद्ध के महाविनाश के रूप में उद्गारित हुआ। वास्तव में यूरोप में राष्ट्रवाद ने उग्र राष्ट्रवाद को जन्म देकर समूचे विश्व को दो महायुद्धों की अग्नि में झोंक डाला। राष्ट्रवाद ने सभी यूरोपीय शक्तियों में विश्व के निर्धन तथा दुर्बल राष्ट्रों पर अधिकार जमाने की स्पर्धा को बढ़ा दिया।। इसी ने देशों को उपनिवेशों की बंदरबाँट के लिए उकसाया।