up board class 10 HINDI FULL SOLUTION CHAPTER 6 MAHADEVI VERMA HIMALAY SE ( महादेवी वर्मा हिमालय से )
हे चिर महान् !
यह स्वर्णरश्मि छु श्वेत भाल,
बरसा जाती रंगीन हास ।
सेली बनता है इन्द्रधनुष
परिमल मल मल जाता बतास !
परे रागहीन तू हिमनिधान !
शब्दार्थ –
स्वर्ण रश्मि = सुनहली किरण । सेली = पगड़ी। परिमल = सुगन्ध। बतास = वायु। रागहीन = आसक्तिरहित ||
संन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी जगत की महान कवियित्री श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा रचित “”सान्ध्यगीत”” नामक ग्रन्थ से हमारी पाठ्य पुस्तक “हिन्दी” के काव्य खण्ड में संकलित “””हिमालय से””” नामक शीर्षक कविता से अवतरित है ।
प्रसंग – इन पंक्तियों में कवयित्री द्वारा हिमालय की चिर महानता और निर्लिप्तता का वर्णन किया गया है ।
व्याख्या – कवियित्री महादेवी वर्मा हिमालय की महानता का वर्णन करती हुई कहती है कि हे हिमालय ! तुम चिरकाल से अपने गौरव एवं महानता को बनाये हुए हो । तुम्हारे श्वेत बर्फ से ढके हुए शिखरों पर जब सूर्य की सुनहरी किरणें पड़ने लगती हैं, तब लगता है कि चारों ओर तुम्हारी रंगीन हँसी बिखर गयी हो । बर्फ पर सुनहरी किरणों के पड़ने से ऐसा मालूम होता है, जैसे हिमालय ने अपने सिर पर इन्द्रधनुष के रंगों की पगड़ी बाँध रखी हो। फूलों के सम्पर्क से सुगन्धित वायु उसके शरीर पर मानो चन्दन का लेप लगा जाती है, परन्तु हिमालय इन सभी चीजों से निर्लिप्त है। इन सभी वस्तुओं से उसे किसी प्रकार का अनुराग नहीं है इसलिए वह आज भी महान है ।
काव्यगत सौन्दर्य –
1.कवयित्री महादेवी वर्मा ने इन पंक्तियों में हिमालय की महानता तथा वैराग्य का वर्णन किया है।
2.भाषा – सरल, सुबोध खड़ी बोली।
3.शैली – चित्रात्मक और भावात्मक।
4.रस – शान्त।
5.छन्द – अतुकान्त ।
7.अलंकार – यह स्वर्णरश्मि छु श्वेत भाल में रूपक अलंकार परिमल-मल-मल जाता बतास में पुनरुक्तिप्रकाश तथा हिमालय के मानव सदृश चित्रण में मानवीकरण अलंकर की छटा दिखाई देती है |
नभ में गर्वित झुकता न शीश,
पर अंक लिये है दीन क्षार ।
मन गल जाता नत विश्व देख,
तन सह लेता है कुलिश भार !
कितने मृदु कितने कठिन प्राण !
शब्दार्थ –
गर्वित = गर्व से उठा हुआ । अंक = गोद । क्षार = राख । मन गल जाता = हृदय दया से भर जाता है। कुलिश = वज्र ।
संन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी जगत की महान कवियित्री श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा रचित “”सान्ध्यगीत”” नामक ग्रन्थ से हमारी पाठ्य पुस्तक “हिन्दी” के काव्य खण्ड में संकलित “””हिमालय से””” नामक शीर्षक कविता से अवतरित है ।
प्रसंग – कवयित्री महादेवी वर्मा ने इन पंक्तियों में हिमालय पर्वत की कठोरता और कोमलता का वर्णन किया है ||
व्याख्या – कवयित्री महादेवी वर्मा कहती है कि हे हिमालय ! स्वाभिमान से आकाश को छूने वाला तुम्हारा मस्तक किसी शक्ति के सामने कभी नहीं झुकता है, फिर भी तुम्हारा हृदय इतना उदार है | तुम अपनी गोद में तुच्छ धूल को भी धारण किये रहते हो । संसार को अपने चरणों में झुका देखकर तुम्हारा कोमल हृदय पिघलकर नदियों (सरिताओं) के रूप में प्रवाहित होने लगता है । हे हिमालय ! तुम अपने शरीर पर बज्र के आघात को सहकर भी विचलित नहीं होते । इस प्रकार तुम हृदय से कोमल और शरीर से कठोर हो । अर्थात तुम महान हो ||
काव्यगत सौन्दर्य –
- इन पंक्तियों में कवयित्री ने हिमालय का मानवीकरण करते हुए उसके कोमल और कठोर दोनों रूप का चित्रण किया है।
- भाषा – सरल, साहित्यिक खड़ी बोली ।
3.शैली – चित्रात्मक और भावात्मक शैली ।
4.रस – शान्त।
5.छन्द – अतुकान्त ।
6.गुण – माधुर्य।
7.शब्द शक्ति – लक्षणा।
8.अलंकार – “कितने मृदु कितने कठिन प्राण” में अनुप्रास एवं विरोधाभास , हिमालय के चित्रण में मानवीकरण अलंकार ||
9.भावसाम्य – प्रसिद्ध संस्कृत कवि भवभूति ने भी लिखा है –
वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि, को नु विज्ञातुमर्हसि ॥
टूटी है तेरी कब समाधि,
‘झंझा लौटे शत हार-हार;
बह चला दृगों से किन्तु नीर;
सुनकर जलते कण की पुकार !
सुख से विरक्त दुःख में समान !
झंझा = आँधी । शत = सौ। दृग = नेत्र | नीर = पानी । जलते कण की पुकार = धूप से तप्त धूल के कणों की व्यथा।
संन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी जगत की महान कवियित्री श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा रचित “”सान्ध्यगीत”” नामक ग्रन्थ से हमारी पाठ्य पुस्तक “हिन्दी” के काव्य खण्ड में संकलित “””हिमालय से””” नामक शीर्षक कविता से अवतरित है ।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवियित्री महादेवी वर्मा ने हिमालय की कठोरता तथा उसके हृदय की कोमलता का मनोहर चित्रण किया है ।
व्याख्या – महादेवी जी ने हिमालय को एक समाधि में स्थित योगी के रूप में देखा है । वे उससे(हिमालय ) कहती हैं। कि हे हिमालय ! सैकड़ों आँधी तूफान तुमसे टकराते हैं और तुम्हारी दृढ़ता के सामने हार मानकर लौट जाते हैं, किन्तु तुम अविचल भाव से समाधि में लीन रहते हो। इतनी बड़ी सहन शक्ति और दृढ़ होने पर भी तुच्छ धूल के जलते कण की करुण पुकार सुनकर तुम्हारी आँखों से करुणा रूपी आँसू जल धारा बनकर बहने लगते हैं । तुममें दृढ़ता है पर हृदय की कोमलता भी है । तुम्हारी सुख भोग में आसक्ति नहीं है । तुम सुख और दुःख में एक समान रहते हो । यह समत्व की भावना तुम्हें महान बनती है |
काव्यगत सौन्दर्य –
- कवियित्री ने एक और हिमालय के बाहरी स्वरूप में कठोरता दर्शाई है, वहीं दूसरी ओर उसमें हृदय की करुणा भी ||
- कवयित्री ने प्रकृति का भी सुन्दर चित्रण किया है ।
3.भाषा – शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली ।
4.शैली – गीति ।
5.रस – शान्त ।
6.छन्द – अतुकान्त ।
7.गुण- प्रसाद ।
8 .अलंकार – हार हार में पुनरुक्तिप्रकाश तथा हिमालय के चित्रण में मानवीकरण अलंकर ।
मेरे जीवन का आज मूक,
तेरी छाया से हो मिलाप |
तन तेरी साधकता छू ले,
मन ले करुणा की थाह नाप !
उर में पावस दृग में विहान !
शब्दार्थ –
साधकता = साधना का गुण। पावस = वर्षा ऋतु। विहान = प्रात:काल।
प्रसंग – इन पंक्तियों में कवयित्री महादेवी वर्मा हिमालय की महानता का वर्णन करती हुई अपने जीवन को हिमालय के समान बनाना चाहती हैं ।
व्याख्या – महादेवी वर्मा अपने जीवन को हिमालय के सामान बना देना चाहती हैं। अर्थात वे हिमालय के सद्गुणों को अपने आचरण में उतारना चाहती हैं । इसीलिए वे हिमालय से कहती हैं कि मेरी कामना है कि मेरा शरीर भी तुम्हारी तरह कठोर साधना शक्ति से परिपूर्ण हो और हृदय में तुम्हारे जैसी करुणा का सागर भर जाय । मेरे हृदय में तुम्हारी जैसी करुणा की बरसात के कारण सरसता बनी रहे, परन्तु आँखों में ज्ञान की ज्योति चमकती रहे ।
काव्यगत सौन्दर्य –
1.महादेवी वर्मा कवियित्री अपने तन मन को हिमालय के समान कठोर और करुणा से ओत प्रोत कर देना चाहती हैं।
- भाषा – साहित्यिक खड़ी बोली |
3.शैली – भावात्मक गीति ।
4.रस – शान्त।
5.गुण – माधुर्य ।
6.शब्दशक्ति – लक्षणा ।
7.छन्द – अतुकान्त ।
8.अलंकार – तन तेरी में अनुप्रास तथा हिमालय के चित्रण में मानवीकरण अलंकार ।
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