kavitavali Lanka Dahan by goswami tulasidas – कवितावली लंका दहन

kavitavali Lanka Dahan by goswami tulasidas – कवितावली लंका दहन

कवितावली लंका दहन गोस्वामी तुलसीदास


बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानौं,
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है ।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सी उघारी है ।।
तुलसी सुरेस चाप, कैधौं दामिनी कलाप,
कैंधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है ।
देखे जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
“कानन उजायौ अब नगर प्रजारी है ।।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के कवितावली लंका दहन शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं।

व्याख्या – महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी की विशाल पूंछ मे लगी विकराल आग की लपटों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है की मानो आज सम्पूर्ण लंका को निगलने के लिए स्वंय काल ने अपनी जीभ को फैला दिया है।


धुंए से भरे आकाश को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो सम्पूर्ण आकाश अनेकों पुच्छल तारो से भरा हुआ है और सभी लंकावासियो का नाश करने के लिए महावीर योध्दाओं ने अपनी तलवारें निकाल ली है।


लंका में लगी भयानक आग की लपटों से उठने वाले धुंए से भरे अंधकारमय आकाश में चमकने वाली बिजली को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे सम्पूर्ण आकाश में इन्द्रधनुष चमक रहा हो, और जलती हुई लंका को देखकर ऐसा लग रहा है मानो सुमेरू पर्वत से अग्नि की नदी बह रही हो।


तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी राक्षस और राक्षसी व्याकुल होकर कह रहे हैं कि इस वानर ने पहले तो लंकेश महाराज रावण के महल को उजाड़ दिया और अब लंका नगरी को भी उजाड़ रहा है।

हाट, बाट, कोट, ओट, अट्टनि, अगार पौरि,
खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्ही अति आगि है।
आरत पुकारत , संभारत न कोऊ काहू,
ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोग चले भागि हैं ।।
बालधी फिरावै बार बार झहरावै, झरैं
बूंदिया सी लंक पघिलाई पाग पागि है।
तुलसी बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं
” चित्रहू के कपि सों निसाचर न लागिहैं “।।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के कवितावली लंका दहन शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं।

व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि बाजार , मार्ग , किला , गली , अटारी, तथा गली गली में दौड़ दौड़ कर हनुमान जी अपनी पूंछ से आग लगा रहे हैं। सभी लोग एक दूसरे को पुकार रहे है , लेकिन कोई भी किसी को संभाल नहीं रहा है। व्याकुल होकर सब इधर से उधर भाग रहे हैं।


हनुमान जी जब अपनी पूंछ को बार -बार हिलाकर झाड़ते हैं तो उनकी पूंछ मे लगी विकराल अग्नि की लपटों से छोटी – छोटी अग्नि की बूंदे जब गिरती है तो ऐसा लगता है मानो जैसे कोई पिघली हुई लंका रूपी पाग मे बूंदी बना रहा हो। तुलसीदास जी कहते हैं कि अत्यंत व्याकुल राक्षस और राक्षसी कह रहे हैं कि अब तो कोई निशाचर चित्र मे बने वानर से भी गलती से दुश्मनी मोल नहीं लेगा।

kavitavali Lanka Dahan by goswami tulasidas – कवितावली लंका दहन

लपट कराल ज्वाल-जाल-माल दहूँ दिसि,
अकुलाने पहिचाने कौन काहि रे ?
पानी को ललात, बिललात, जरे’ गात जाते,
परे पाइमाल जात, “भ्रात! तू निबाहि रे” ।।
प्रिया तू पराहि, नाथ नाथ तू पराहि बाप
बाप! तू पराहि, पूत पूत, तू पराहि रे ।
तुलसी बिलोकि लोग ब्याकुल बिहाल कहैं,
“लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे’ ।।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के कवितावली लंका दहन शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं।

व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि विकराल आग की लपटों से उठता हुआ धुआँ चारों दिशाओं में फैला हुआ है और इस धुंए के बीच में सभी व्याकुल होकर एक दूसरे को पुकार रहे है पर ऐसे भयानक धुंए के अंधकार में कोई किसी को पहचान नहीं रहा है।


सभी लोग बुरी तरह से जले हुए है और अत्यंत व्याकुल होकर पानी पानी चिल्लाते हुए इधर से उधर भाग रहे हैं। सभी विपत्ति में पड़े हुए हैं और अपने भाई बंधुओं को पुकारते हुए कहते हैं कि हे भाई – बंधुओं हमे बचालो।


तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी राक्षस और राक्षसी परेशान होकर अपने भाई बंधुओं से भाग जाने के लिए कह रहे हैं पति कहता है कि हे- प्रिये( पत्नी ) तुम यहाँ से भाग जाओ , पत्नी कहती है की हे नाथ तुम यहाँ से भाग जाओ। बेटा कहता है कि पिता जी आप यहाँ से भाग जाइऐ , पिता कहते हैं की बेटा तुम यहाँ से भाग जाओ।


तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी लोग अत्यंत व्याकुल होकर कह रहे हैं कि हे दस मुख वाले रावण लो आज अपनी बीस आंखों से सम्पूर्ण लंका का सर्वनाश देखलो।

बीथिका बजार प्रति , अट्नि अगार प्रति,
पवरि पगार प्रति बानर बिलोकिए।
अध ऊर्ध बानर, बिदिसि दिसि बानर है,
मानहु रह्यो है भरि बानर तिलोकिए।।
मूंदे आँखि हिय में, उघारे आँखि आगे ठाढो,
धाइ जाइ जहाँ तहाँ और कोऊ को किए ?
लेहु अब लेहु, तब कोऊ न सिखायो मानो,
सोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकिए

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के कवितावली लंका दहन शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं राक्षसो को बाजार में, अटारी पर , दरवाजो पर, दीवार पर हर जगह वानर ही वानर दिखाई दे रहें हैं।


यहाँ – वहाँ , ऊपर – नीचे चारो दिशाओं में वानर ही वानर दिखाई दे रहें हैं ऐसा लगता है मानो जैसे तीनों लोक वानरो से भर गये हैं ।

सभी लंकानिवासियो के भीतर वानरो का इतना डर बैठ गया है कि आँखे बंद करने पर ह्दय मे और आँखे खोलने पर सामने खड़े हुए वानर ही वानर दिख रहे हैं, और तो और यहाँ – वहाँ वो लोग जिस तरह भी जा रहे हैं उन्हे सिर्फ वानर ही वानर दिखाई दे रहें हैं।


सभी लंका के निवासी एकदूसरे से कह रहे हैं कि अब भुगतो उस समय रावण को किसी ने नही समझाया। जब हम सभी को रावण को समझाना चाहिए था , तब हम सभी उसके साथ थे। अगर उस समय हम लंकावासी उसका साथ ना देकर उसे सही उपदेश देते तो शायद आज लंका की ये दुर्दशा नहीं होती। यह सब हमारे ही बुरे कर्मो का फल है।

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