Up board solution for class 9 sanskrit gady bharti chapter 3 आदिकविः वाल्मीकिः

9 संस्कृत
Up board solution for class 9 sanskrit gady bharti chapter 3

Up board solution for class 9 sanskrit gady bharti chapter 3 आदिकविः वाल्मीकिः

UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 9 SANSKRIT

BoardUP Board
TextbookUP Board
ClassClass 9
SubjectSanskrit
ChapterChapter 3
Chapter Nameअस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि (गद्य – भारती)
CategoryUP Board Solutions

संस्कृतवाङ्मयस्यादिकवि: महामुनिः वाल्मीकिरिति सर्वैः विद्वद्भिः स्वीक्रियते । महामुनिना रम्यारामायणी कथा स्वरचिते काव्यग्रन्थे निबद्धा । भगवतो रामस्य चरितमस्माकं देशस्य संस्कृतेश्च प्राणभूतं तिष्ठति । वस्तुतस्तु, महामुनेः वाल्मीकेरेवैतन्माहात्म्यमस्ति यत्तेन रामस्य लोककल्याणकारकं रम्यमादर्शभूतं रूपं जनानां समक्षमुपस्थापितम् । वयं च तेन रामं ज्ञातुं क्षमा अभूम ।


अनुवाद:– सभी विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि महामुनि वाल्मीकि संस्कृत-साहित्य के आदिकवि हैं । महामुनि ने रामायण की सुन्दर कथा को अपने द्वारा रचित काव्यग्रन्थ मे गुँथा है । भगवान् राम का चरित हमारे देश की संस्कृति का प्राणस्वरूप है । वास्तव में महामुनि वाल्मीकि का ही यह माहात्म्य है कि उन्होंने राम का लोक कल्याणकारी, सुन्दर, आदर्शभूत स्वरूप लोगों के सामने उपस्थित किया (रखा) और उससे हम राम को जानने में समर्थ हुए ।

स्कन्दपुराणाध्यात्मरामायणयोरनुसारात् अयं ब्राह्मणजातीय: अग्निशर्माभिधश्चासीत् । पूर्वजन्मनः विपाकात् परधनलुण्ठनमेवास्य कर्माभूत् । वनान्तरे पथिकानां धनलुण्ठनमेव तस्य जीविकासाधनमासीत् । लुण्ठनव्यापारे संशयश्चेत् प्राणघातेऽपि स संकोचं नाऽकरोत् । इत्थं हिंसाकर्मणि लिप्तः एकदा वनपथे पथिकमाकुलतया प्रतीक्षमाणोऽसौ मुनिवरमेकमागच्छन्तमपश्यत्, दृष्ट्वा च हर्षेण प्रफुल्लो जातः । समीपमागते मुनिवरे रक्ते अक्षिणी भ्रामयन् भीमेन रवेण तमवोचत् यत्किञ्चित्तवास्ति तत्सर्वं मह्यं देहि नो चेत्तव प्राणसंशयो भविष्यति । मुनिना प्रत्युक्तं, लुण्ठक ! मत्पार्श्वे तु किञ्चिदपि नास्ति, परं त्वां पृच्छामि किं करोषि लुण्ठितेन धनेन ? इदं पापकर्म किमिति न जानासि ? जानामि, तथापि करोमि । लुण्ठितेन धनेन परिवारजनस्य पोषणरूपं महत्कार्यं करोमीति तेनोक्तम् । मुनिः पुनरपृच्छत्- पापकर्मणार्जितेन वित्तेन पोषितास्तव परिवारसदस्याः किं तव पापकर्मण्यपि सहभागिनः स्युरिति । सोऽवोचत् वक्तुं न शक्नोमि परं तान् पृष्ट्वा वदिष्यामि । त्वं तावदत्रैव विरम यावदहं तान् संपृच्छ्यागच्छामि । इत्युक्त्वा तं मुनिवरं रज्जुभिः दृढं बद्ध्वा स्वकुटुम्बिनः प्रष्टुं जगाम ।

अनुवाद:– ये वाल्मीकि स्कन्द पुराण और अध्यात्म रामायण के अनुसार ब्राह्मण जाति के थे और इनका नाम अग्निशर्मा था । पूर्व जन्म के परिपाक (फल) से दूसरों के धन को लूटना ही इनका कर्म था । वन के मध्य में पथिकों का धन लूटना ही उनकी जीविका का साधन था । यदि लूटने के काम में सन्देह हो तो वे हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे । इस प्रकार हिंसा के काम में लगे हुए एक बार वन के पथ पर राहगीर की बेचैनी से प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने एक मुनिवर को आते हुए देखा और देखकर हर्ष से खिल उठे । मुनिवर के पास आने पर लाल-लाल नेत्रों को घुमाते हुए भयंकर स्वर में उनसे बोले—“जो कुछ तुम्हारे पास है वह सब मुझे दो, नहीं तो तुम्हारे प्राणों का संकट होगा । ” मुनि ने उत्तर दिया-“लुटेरे! मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, परन्तु तुमसे पूछता हूँ-“लूटे हुए धन से तुम क्या करते हो? यह पाप का कर्म है, क्या तुम यह नहीं जानते हो? ” “ज्ञानता हूँ तो भी करता हूँ । लूटे हुए धन से मैं परिवार वालों का पालन रूप महान् कार्य करता हूँ । ” ऐसा उससे (मुनि से) कहा । मुनि ने फिर पूछा-‘पापकर्म से कमाये गये धन से पाले हुए तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या तुम्हारे पापकर्म में भी हिस्सेदार होंगे? ” वह बोला-“कह नहीं सकता, परन्तु उनसे पूछकर बताऊँगा । तुम तब तक यहीं रुको, जब तक मै उनसे पूछकर आता हूँ । ” यह कहकर उस मुनिवर को रस्सियों से कसकर बाँधकर अपने कुंटुम्बियों से पूछने चले गये ।

अथ तस्य कुटुम्बिनः तस्य प्रश्नं श्रुत्वा भृशं चुकुपुरुचुश्च कथं वयं तव पापकर्मणि सहभागिनो भवेम ? वयं किं जानीमहे त्वं किं करोषि कया वा रीत्या धनार्जनं विदधासि ? नास्माभिः त्वं पापकर्म कर्तुमादिष्टः । ‘

तेषां स्वपरिवारजनानामुत्तरमाकर्ण्य सोऽतीव विषण्णोऽभवत् । द्रुतं मुनिवरमुपगम्य सर्वं च तत्परिवारजनाख्यातमसावभाषत । परं निर्विण्णं तं मुनिः तस्य हृदयशोकशमनाय ‘राम’ इति जप्तुमुपादिशत् । ‘राम’ इति समुच्चारणेऽक्षमः स्ववृत्त्यनुसारं ‘मरा’ इत्येव जप्तुमारभत । इत्थमसी बहुवर्षाणि यावत् समाधौ लीनः तीव्रं तपश्चचार । तपसि रतस्य तस्य शरीरं वल्मीकमृत्तिकाभिः आवृत्तं जातम् । अथ कदाचित् प्रचेतसा निरन्तरजलधारया तस्य शरीरात् वल्मीकमृत्तिकाः परिस्राविता अभवन् । मृत्तिकाभिः तिरोहितं तस्य शरीर पुनः प्रकटितम् । ततो मुनिभिः स संस्तुतोऽभ्यर्थितश्च चक्षुषी उन्मील्यादतिष्ठत् वल्मीकात् प्रोद्भूतत्वाद् वाल्मीकिरिति, प्रचेतसा जलधारया मृत्तिकाया: परिस्रुतत्वाद् प्राचेतस इति तस्य नामद्वयं जातम् । रामायणे मुनिना स्वपितुः नाम प्रचेताः तस्य दशमः पुत्रोऽहमित्थमुल्लिलेख । यथा च-
“प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन” (उत्तरकाण्ड)

अनुवाद :– इसके बाद उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और बोले-“हम तुम्हारे पाप कर्म में क्यों हिस्सेदार होंगे? हम क्या जानें, तुम क्या करते हो अथवा किसी रीति से धन कमाते हो? हमने तुम्हें पाप कर्म करने को नहीं कहा था । ” .. उन अपने परिवार के लोगों के उत्तर को सुनकर वह अत्यन्त दुःखी हुआ । शीघ्र ही मुनिवर के पास आकर उसने परिवारजनों का कहा हुआ वह सब बता दिया । अत्यन्त दु:खी हुए उससे (अग्निशर्मा से) मुनि ने उसके हृदय के शोक को शान्त करने के लिए ‘राम’ जपने का उपदेश दिया । ‘राम’ शब्द के उच्चारण में असमर्थ उसने अपने स्वभाव के अनुसार ‘मरा’ जपना आरम्भ कर दिया । इस प्रकार उन्होंने बहुत वर्षों तक समाधि में लीन होकर कठोर तप किया । तप में लीन उनका शरीर दीमकों की मिट्टी से ढक गया । इसके बाद किसी समय वरुण के द्वारा लगातार जल की धारा से उनके शरीर से दीमकों की मिट्टी धूल गयी (बह गयी) और मिट्टी से छिपा हुआ उनका शरीर पुनः प्रकट हो गया । तब मुनियों ने उनकी स्तुति और पूजा की तथा वे आँखें खोलकर उठ बैठे । दीमकों की मिट्टी से निकलने के कारण ‘वाल्मीकि’, प्रचेता (वरुण) के द्वारा जलधारा से मिट्टी के धुल जाने के कारण ‘प्रचेतस’ इसे प्रकार उनके दो नाम हो गये । रामायण (उत्तरकाण्ड) में मुनि (वाल्मीकि) ने अपने पिता का नाम ‘प्रचेता “मैं उसका दसवाँ पुत्र ” ऐसा लिखा है । जैसे-“हे राघव पुत्र! मैं प्रचेता का दसवाँ पुत्र हूँ । ”

अथ कदाचित् स ब्रह्मर्षेः नारदात् भगवतो रामस्य लोककल्याणकरं वृत्तं शुश्राव । तदाप्रभृत्येव रामचरितं काव्यबद्ध कर्तुमाकाङ्क्षते स्म । अथैकदा महर्षि: माध्यन्दिनसवनाय प्रयागमण्डलान्तर्गतां तमसानदीं गच्छन्नासीत् । तत्र वनश्रियं निरीक्षमाणो महामुनिः स्वच्छन्दं विचरन्तं क्रौञ्चमिथुनमेकमपश्यत् । पश्यत एव तस्य कश्चित् पापनिश्चयो व्याधः तस्मान्मिथुनादेकं बाणेनः विजघान । बाणेन विद्धं महीतले लुण्ठन्तं शोणितपरीताङ्गं तं विलोक्य क्रौञ्ची करुणया गिरा रुराव । क्रौञ्च्याः करुणारवं श्रावं श्रावं मुनिहृदयालीनः शोकानलपरिद्रुतः करुणरसः श्लोकच्छलाद् हृदयादेवं निर्गतोऽभवत्-

“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् । । ”

अनुवाद:–इसके बाद कभी उन्होंने (वाल्मीकि ने) ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र सुना । तब से ही उन्होंने राम के चरित्र को काव्यबद्ध करने की इच्छा की थी ।
इसके बाद एक दिन महर्षि दोपहर के स्नान के लिए प्रयागमण्डल के अन्तर्गत तमसा नदी पर गये हुए । थे । वहाँ वन की शोभा को देखते हुए महामुनि ने स्वच्छन्द घूमते हुए एक कौञ्च पक्षी-युगल को देखा । उनके देखते हुए ही किसी पापपूर्ण निश्चय वाले शिकारी ने उस जोड़े में से एक को बाण से मार दिया । बाण से बिंधे, भूमि पर गिरे हुए, खून से लथपथ शरीर वाले उसे देखकर क्रौञ्ची (चकवी) ने करुण वाणी से रुदन किया । क्रौञ्ची के करुण-विलाप को सुन-सुनकर मुनि के हृदय में छिपी शोकाग्नि से पिघला हुआ करुण रस श्लोक के बहाने से हृदय से इस प्रकार निकल पड़ा

“हे निषाद! तू चिरकाल तक रहने वाली स्थिति (सुख) को मत प्राप्त कर; क्योंकि तूने क्रौञ्च के जोड़े में से काम से मुग्ध अर्थात् काम-क्रीड़ा में रत एक(नर क्रौञ्च ) को मार डाला । ”

श्लोकोऽयमाम्नायादन्यत्र छन्दसां नूतनोऽवतार आसीत् । एवं ब्रुवतस्तस्य हृदि महती चिन्ता बभूव- अहो! शकुनिशोकपीडितेन मया किमिदं व्याहृतम् । अत्रान्तरे वेदमूर्तिश्चतुर्मुखो भगवान् ब्रह्मा महामुनिमुपगम्य सस्मितमुवाच- महामुने, आपन्नानुकम्पनं हि महतां सहजो धर्मः श्लोकं ब्रुवता त्वया त्वेष एव धर्मः पालितः । तन्नात्र विचारणा कार्या । सरस्वती मच्छन्दादेव त्वयि प्रवृत्ता । साम्प्रतं यथा नारदाच्छुतं तथा त्वं श्रीमद्भगवतो रामचन्द्रस्य कृत्स्नं चरितं वर्णय । मत्प्रसादात् निखिलं च रामचरितं तव विदितं भविष्यति । किं बहुना, यावन्महीतले गिरिसरित्समुद्राः स्थास्यन्ति तावल्लोके रामायणकथा प्रचलिष्यतीत्यादिश्य भगवानब्जयोनिरन्तर्हितोऽभवत् । ततो योगबलेन नारदोक्तं समग्रं रामचरितमधिगम्य गङ्गातमसयोरन्तराले तटे; सप्तकाण्डात्मकं रामायणाख्यमादिमहाकाव्यं रचयामास, तदनन्तरं मुनेः विश्रमार्थं द्वौ अपराश्रमौ अभूताम् । एकश्चित्रकूटे अपरश्च कानपुरमण्डलान्तर्गत ब्रह्मावर्त्तान्तः, आधुनिके बिठूरनाम्नि स्थाने आसीत् अत्रैव लवकुशयोः जनुरभूत् । एवमादिकविर्यशसा ख्यातोऽभवल्लोके महामुनिः ब्रह्मर्षिः ।

अनुवाद:– यह श्लोक वेद से पृथक्-लोक में छन्दों का नया जन्म था । इस प्रकार कहते हुए उनके हृदय में महान् चिन्ता हो गयी । “ओह! पक्षी के शोक से पीड़ित मैंने यह क्या कह दिया । ” इसी बीच वेदमूर्ति चतुर्मुख ब्रह्मा ने महामुनि के पास जाकर मुस्कराते हुए कहा-“हे महामुने! पीड़ितों पर दया करेंना महापुरुषों का स्वाभाविक धर्म है । श्लोक बोलते हुए तुमने इसी धर्म का पालन किया है । तो इस विषय में सोच नहीं करना चाहिए । सरस्वती मेरी इच्छा से ही तुममें प्रवृत्त हुई हैं । अब जैसा तुमने नारद जी से सुना है, वैसा तुम भगवान् रामचन्द्रजी के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो । मेरी कृपा से तुम्हें सम्पूर्ण रामचरित ज्ञात हो जाएगा । अधिक क्या? जब तक पृथ्वी पर पर्वत, नदी और समुद्र रहेंगे, तब तक संसार में राम की कथा चलती रहेगी । ’ ऐसा आदेश देकर भगवान् ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये । तब योगबल से नारद जी के द्वारा बताये गये सम्पूर्ण रामचरित को जानकर गंगा और तमसा के मध्य स्थित तट पर सात काण्डों वाले ‘रामायण’ नाम के इस महाकाव्य की रचना की । इसके अतिरिक्त मुनि के विश्राम के लिए दो दूसरे आश्रम थे । एक चित्रकूट पर, दूसरा कानपुर मण्डल के अन्तर्गत ब्रह्मावर्तान्त (ब्रह्मावर्त्त) आधुनिक नाम बिठूर के स्थान पर था । यहीं पर लव-कुश का जन्म हुआ था । इस प्रकार महामुनि ब्रह्मर्षि (वाल्मीकि) संसार में आदिकवि के यश से प्रसिद्ध हो गये ।

पाठ का सारांश

पूर्व जीवन-संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि हैं । इन्होंने भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र काव्य रूप में लिखा । राम का जीवन-चरित्र हमारे देश और संस्कृति का प्राण है । वाल्मीकि द्वारा लिखित ‘रामायण’ को संस्कृत का आदिकाव्य माना जाता है ।

‘स्कन्दपुराण’ और ‘अध्यात्मरामायण के अनुसार, इनका नाम अग्निशर्मा था तथा ये जाति के ब्राह्मण थे । पूर्व जन्म के कर्मफल स्वरूप ये वन में पथिकों का धन लूटकर जीविका चलाते थे और धन न मिलने पर हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे ।

एक बार इन्होंने वन-पथ पर आते हुए एक मुनि को देखा और कड़े स्वर में उससे कहा-“जो कुछ तुम्हारे पास है, सब मुझे दे दो । ’ मुनि ने कहा-“मेरे पास कुछ नहीं है, परन्तु तुम इस पापकर्म को क्यों करते हो? इस लूटे गये धन से तुम जिन परिवार वालों का पालन करते हो, क्या वे तुम्हारे पापकर्म के फल में भी सहभागी होंगे?’ वाल्मीकि ने मुनि के इस प्रश्न का उत्तर परिवार वालों से पूछकर देने के लिए कहा और मुनि को रस्सियों से बाँधकर परिवारजनों से पूछने के लिए चले गये । .
उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर क्रुद्ध हुए और बोले-“हमने तुम्हें पापकर्म करने के लिए : नहीं कहा; अत: हम तुम्हारे पाप के फल के भागीदार नहीं होंगे । ”

हृदय-परिवर्तन-परिवारजनों को उत्तर सुनकर वाल्मीकि बहुत दु:खी हुए । उनके शोक को दूर करने के लिए मुनि ने इन्हें ‘राम’ का नाम जपने का उपदेश दिया, परन्तु अपने हिंसक स्वभाव के कारण वे ‘मरा-मरा’ जपने लगे । इस प्रकार वर्षों तक इन्होंने इतना कठोर तप किया कि इनके शरीर के आसपास दीमकों की बॉबी बेने गयी और उसकी मिट्टी से इनका सारा शरीर ढक गया । एक समय वरुणदेव के द्वारा निरन्तर वर्षा से इनके शरीर से वह मिट्टी बह गयी और ये आँखें खोलकर छठ खड़े हुए । दीमकों की मिट्टी अर्थात् ‘वल्मीक’ से प्रकट होने के कारण ये ‘वाल्मीकि’ नाम से प्रसिद्ध हुए । वरुण का एक अन्य नाम प्रचेता भी है । “प्रचेतसा उत्थापितः इति प्राचेतसः’ इस कारण वरुणदेव के द्वारा मिट्टी बहाये जाने के कारण ये ‘प्रचेतस्‘ कहलाये ।

आदिकविता–एक बार वाल्मीकि ने ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का कल्याणकारी चरित्र सुना और उसे काव्यबद्ध करने की इच्छा की । इसके बाद किसी दिन ये मध्याह्न-स्नान के लिए तमसा नदी के तट पर गये हुए थे । वहाँ इन्होंने एक क्रौञ्च युगल को प्रेम-क्रीड़ा करते हुए देखा । उनके देखते-ही-देखते एक शिकारी ने उसमें से नरक्रौञ्चे को बाण से घायल कर दिया । खून से लथपथ, पृथ्वी पर धूल-धूसरित होते क्रौञ्च को देखकर क्रौञ्ची करुण विलाप करने लगी । क्रौञ्ची के करुण विलाप को सुनकर मुनि का हृदय शोक से द्रवित हो गया और उनके हृदय से शिकारी के प्रति श्राप रूप में ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः’ छन्द फूट पड़ा । यही छन्द संस्कृत की पहली कविता अथवा पहला छन्द बना ।

रामायण की रचना-श्राप रूप में श्लोक के निकलते ही महामुनि के हृदय में महती चिन्ता हुई । तब ब्रह्माजी ने इनके पास आकर कहा-“श्लोक बोलते हुए आपने दुःखियों पर दया करने के धर्म का पालन किया है । अब सरस्वती की आप पर कृपा हुई है । अब आप नारदजी से सुने अनुसार भगवान् राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करें । मेरी कृपा से आपको सम्पूर्ण रामचरित स्मरण हो जाएगा । ” ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये । तब वाल्मीकि ने सात काण्डों में आदिकाव्य रामायण की रचना की । इनके दो आश्रम थे-एक चित्रकूट में और दूसरा ब्रह्मावर्त (बिठूर) में । यहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ था ।

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