Up Board Class 12th Civics Chapter 4 Right and Duties अधिकार एवं कर्त्तव्य
अधिकार एवं कर्त्तव्य (Right and Duties)
Up Board Class 12th Civics Chapter 4 Right and Duties अधिकार एवं कर्त्तव्य लघु उत्तरीय प्रश्न
1– अधिकारों के प्रमुख लक्षण लिखिए ।
(i) अधिकार सिर्फ समाज में ही सम्भव है ।
(ii) अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं ।
(iii) अधिकार असीमित नहीं हैं ।
(iv) अधिकार राज्य द्वारा स्वीकृत व निर्धारित होते हैं ।
(v) अधिकार सर्वव्यापक अथवा सार्वभौमिक होते हैं ।
(vi) अधिकार तथा कर्त्तव्य परस्पर संबंधित हैं ।
(vii) अधिकार व्यक्ति की माँग अथवा दावा है ।
(viii) अधिकारों का स्वरूप कल्याणकारी है ।
(ix) अधिकार राज्य द्वारा संरक्षित होते हैं ।
(x) अधिकार निरन्तर विकासशील एवं परिवर्तनशील होते हैं ।
2– किन्हीं चार राजनीतिक अधिकारों का वर्णन कीजिए ।
अथवा
नागरिकों के दो महत्वपूर्ण राजनीतिक अधिकार बताइए ।
उत्तर — चार राजनीतिक अधिकारों का वर्णन निम्नलिखित है
(i) राजनीतिक दल बनाने का अधिकार- लोकतंत्र में नागरिकों को अलग-अलग राजनीतिक दल बनाने का अधिकार प्राप्त होता है । ये राजनीतिक दल चुनावों में हिस्सा लेते है, सरकार बनाते हैं तथा सरकार की आलोचना इत्यादि करते हैं ।
(ii) विदेशों में सुरक्षा का अधिकार- संसार के समस्त नागरिक जिस समय विदेशों में जाते हैं उस समय उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी राष्ट्र अपने ऊपर लेता है । इस कार्य के लिए राष्ट्रों के राजदूतों द्वारा परस्पर संबंध स्थापित किए जाते हैं ।
(iii) आवेदन-पत्र और सम्पत्ति देने का अधिकार- इस अधिकार के अन्तर्गत नागरिकों को यह अवसर दिया जाता है कि वे वैयक्तिक अथवा सामूहिक रूप में सरकार को शासन संबंधी शिकायतें दूर करने के लिए अथवा शासन को अधिकाधिक लोक-कल्याणकारी बनाने के लिए आवेदन पत्र दे सकते हैं । इस प्रकार वे शासन की नीतियों के समर्थन में अपनी सम्मति भी प्रकट कर सकते हैं । गुरुमुख निहाल सिंह ने कहा है, “यह अधिकार व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से व्यक्ति की कठिनाईयों एवं शिकायतों को दूर करने का प्राचीन तथा बहुमूल्य अधिकार है ।”
(iv) सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार- राज्य के समस्त सार्वजनिक पदों पर व्यक्तियों को योग्यता के आधार पर नियुक्ति पाने का अधिकार दिया जाना चाहिए ।
3– नागरिकों के कर्त्तव्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर — कर्त्तव्य- कर्त्तव्य से साधारणत: आशय उन कार्यों से होता है कि जिन्हें करने के लिए नागरिक नैतिक रूप से प्रतिबन्धित होते हैं । इस प्रकार साधारणत: कर्त्तव्य वे होते हैं, जिनके लिए कहा जाता है कि उन्हें नागरिकों को करना ही चाहिए तथा जिनके लिए यह नहीं कहा जाता है कि उन्हें नागरिकों को करना ही पड़ेगा अर्थात् किसी विशेष कार्य करने के संबंध में नागरिकों के उत्तरदायित्व को ही कर्त्तव्य कहा जा सकता है । इस प्रकार जिन कार्यों के संबंध में समाज एवं राज्य सामान्य रूप से नागरिकों से यह आशा करते हैं कि उन्हें वे कार्य करने चाहिए, वे ही नागरिकों के कर्त्तव्य कहे जा सकते हैं । क्षेत्र और व्यापकता के आधार पर कर्तव्यों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है —
(i) नैतिक कर्त्तव्य (ii) वैधानिक कर्तव्य
4– नागरिकों के चार वैधानिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर — नागरिकों के चार वैधानिक अधिकार निम्न प्रकार हैं
(i) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
(ii) आर्थिक स्वतंत्रता का अधिकार
(iii) मत देने का अधिकार
(iv) न्याय प्राप्त करने का अधिकार
5– राज्य के प्रति नागरिकों के चार कर्त्तव्यों पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर — राज्य के प्रति नागरिकों के चार कर्त्तव्य निम्नवत् हैं
(i) कानूनों का पालन करना
(ii) देश प्रेम की भावना
(iii) करों का भुगतान करना
(iv) सरकारी कर्मचारियों की सहायता करना
6– अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर — अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त- टॉमस पेन, ब्लैकस्टोन, हरबर्ट स्पेन्सार, रूसो, मिल्टन, वॉल्टेयर, लॉक, हॉब्स आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है । यह सिद्धान्त अति प्राचीन है । इसके अनुसार अधिकार प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए है और वे व्यक्ति को जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते हैं । व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का प्रयोग राज्य के उदय के पूर्व से ही करता चला आ रहा है । राज्य इन अधिकारों को न तो छीन सकता है और न ही वह इनका जन्मदाता है । “प्राकृतिक अधिकार वे हैं, जो मनुष्य के अस्तित्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवश्यक है ।” इस दृष्टिकोण से अधिकार जन्मजात, असीमित, निरपेक्ष तथा स्वयंसिद्ध है । राज्य इन अधिकरों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है । -टॉमस पेन आलोचना- इस सिद्धान्त के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं
(i) यह सिद्धान्त अनैतिहासिक है क्योंकि जिस प्राकृतिक अवस्था के अन्तर्गत इन अधिकारों के प्राप्त होने का उल्लेख किया गया है, वह काल्पनिक है । (ii) ग्रीन का मत है कि समाज से पृथक कोई भी अधिकार सम्भव नहीं है ।
(iii) यह सिद्धान्त राज्य को कृत्रिम संस्था मानता है, जो अनुचित है ।
(iv) प्राकृतिक अधिकारों में परस्पर विरोधाभास पाया जाता है ।
(v) यह सिद्धान्त कर्त्तव्यों के प्रति मौन है, जबकि कर्त्तव्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है । महत्व- प्राकृतिक सिद्धान्त की कमियों के बावजूद इसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती है क्योंकि अमेरिका, भारत, रूस, चीन आदि देशों के संविधानों में वर्णित मूल अधिकारों की व्यवस्था इसी सिद्धान्त पर आधारित है ।
7– अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं । दो कारण बताइए ।
उत्तर — अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं । इसके दो कारण निम्नवत् हैं
(i) व्यक्ति का अधिकार समाज तथा राज्य का कर्त्तव्य- व्यक्ति अपने अधिकारों का उपभोग तभी कर सकता है, जब समाज और राज्य अपने कर्त्तव्यों का पालन करें । अधिकारों का अस्तित्व समाज की सहमति तथा राज्य के संरक्षण पर आधारित है । यदि राज्य कानूनों से नागरिकों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान नहीं करेगा तो नागरिकों के अधिकार महत्वहीन हो जाएंगे । कर्त्तव्य पालन से ही अधिकारों की प्राप्ति सम्भव है- यदि समाज के समस्त व्यक्ति सहयोग करेंगे तभी अधिकारों का अस्तित्व रह पाएगा तथा जब सहयोग की भावना का विकास होता है तभी कर्त्तव्य आ जाते हैं । कर्त्तव्यों के पालन में अधिकारों के उपभोग का रहस्य छिपा हुआ है ।
“संसार में ऐसा कोई आदमी ऊँचा नहीं उठा जिसने सिर्फ अधिकारों को विषय में ही सोचा हो, वही लोग ऊपर उठ पाए है जिन्होंने कर्तव्यों को ही प्रमुखता दी ।” -महात्मा गाँधी
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न:-
1– अधिकार की परिभाषा दीजिए । “अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।”इस कथन को सिद्ध कीजिए ।
उत्तर — अधिकार की परिभाषा- अधिकार समुदाय के कानून द्वारा स्वीकृत वह व्यवस्था, नियम या रीति है, जो नागरिक के सर्वोच्च नैतिक कल्याण में सहायक है । अधिकार तथा कर्त्तव्यों का परस्पर संबंध- अधिकार तथा कर्त्तव्य यद्यपि दो अलग-अलग शब्द है, लेकिन दोनों में परस्पर घनिष्ठ संबंध है । अधिकार तथा कर्त्तव्य के बीच वही संबंध है जो शरीर एवं आत्मा का है । एक के अभाव में हम दूसरे की कल्पना नहीं कर सकते हैं । दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । एक व्यक्ति का जो अधिकार है, वह दूसरे व्यक्ति का कर्त्तव्य है । “मेरा अधिकार तुम्हारे कर्त्तव्य के साथ बँधा हुआ है ।”
-प्रो० लास्की प्राय: अधिकार एवं कर्त्तव्य को परस्पर विरोधी समझा जाता है । एक सामान्य व्यक्ति यह सोचता है कि अधिकार उपभोग की वस्तु है, अत: लाभदायक है तथा कर्त्तव्य त्याग की माँग करते है अत: हानिकारक एवं कष्टदायक हैं । लेकिन ऐसा दृष्टिकोण एक मूर्ख एवं अज्ञानी व्यक्ति का ही हो सकता है राजनीतिक चेतनासम्पन्न नागरिक का नहीं । मूल रूप से व्यक्ति एवं समाज अथवा नागरिक एवं राज्य परस्पर विरोधी न होकर सहयोगी हैं ।
एक नागरिक का वास्तविक हित अन्य नागरिकों के वास्तविक हितों के विरुद्ध नहीं हो सकता । मानव एक राजनीतिक-सामाजिक प्राणी है अत: उसके हित अन्य लोगों के हितों के विरुद्ध सम्भव नहीं हैं । “अधिकार तथा कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । यदि व्यक्ति उन्हें अपने दृष्टिकोण से देखता है तो अधिकार हैं तथा इसी को दूसरों के दृष्टिकोण से देखता है तो वे कर्त्तव्य हो जाते हैं ।”
-डा० बेनीप्रसाद “अधिकार तथा कर्त्तव्य एक दूसरे के पूरक है ।”
-टी०एच० ग्रीन “अधिकारों का वास्तविक स्रोत कर्त्तव्य हैं ।”
-महात्मा गाँधी अधिकार तथा कर्त्तव्यों का परस्पर संबंध निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है
(i) व्यक्ति का अधिकार समाज तथा राज्य का कर्त्तव्य- व्यक्ति अपने अधिकारों का उपभोग तभी कर सकता है, जब समाज और राज्य अपने कर्तव्यों का पालन करें । अधिकारों का अस्तित्व समाज की सहमति तथा राज्य के संरक्षण पर आधारित है । यदि राज्य कानूनों से नागरिकों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान नहीं करेगा तो नागरिकों के अधिकार महत्वहीन हो जाएंगे । अधिकार तथा कर्त्तव्य दार्शनिक दृष्टिकोण से संबंधित- हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार- अधिकार तथा कर्त्तव्य में वही संबंध है, तो कार्य तथा उसके परिणाम के बीच है ।
कर्तव्य पालन से ही अधिकारों की प्राप्ति सम्भव है- यदि समाज के समस्त व्यक्ति सहयोग करेंगे तभी अधिकारों का अस्तित्व रह पाएगा तथा जब सहयोग की भावना का विकास होता है तभी कर्त्तव्य आ जाते हैं । कर्त्तव्यों के पालन में अधिकारों के उपभोग का रहस्य छिपा हुआ है । महात्मा गाँधी के अनुसार “संसार में ऐसा कोई आदमी ऊँचा नहीं उठा जिसने सिर्फ अधिकारों को विषय में ही सोचा हो, वही लोग ऊपर उठ पाए है जिन्होंने कर्तव्यों को ही प्रमुखता दी ।” अधिकार तथा कर्त्तव्य दोनों ही माँगे हैं- अधिकार तथा कर्त्तव्य दोनों ही व्यक्ति तथा समाज की अनिवार्य माँगे हैं । जहाँ अधिकार व्यक्ति की माँग हैं जिन्हें समाज स्वीकार कर लेता है तो वही कर्त्तव्य समाज की माँगे हैं जिन्हें व्यक्ति सार्वजनिक हित में स्वीकार करता है । वाइल्ड ने कहा- “अधिकार का महत्व, कर्तव्यों के संसार में ही है ।”
(v) मानवता के प्रति कर्त्तव्य- आधुनिक काल में व्यक्ति अपने राज्य का ही नहीं अपितु विश्व का नागरिक है ।
vi) विश्व नागरिकता का विचार दिन-प्रतिदिन प्रबल रूप धारण कर रहा है । श्रेष्ठ नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण विश्व शान्ति कायम करने के लिए राष्ट्रीय सहयोग तथा सुरक्षा में भागीदारी करे ।
(vi) नागरिक के अधिकार राज्य के प्रति कर्त्तव्य उत्पन्न करते हैं- राज्य नागरिकों की प्रगति के लिए विविध सामाजिक एवं राजनीतिक अधिकार प्रदान करता है । अत: नागरिकों का पुनीत कर्त्तव्य है कि वे राज्य के प्रति कर्त्तव्यों का पालन करे । राज्य के प्रति भक्तिभाव रखना, राज्य द्वारा निर्मित कानूनों का पालन करना तथा उसके द्वारा लगाए गए करों का भुगतान करना नागरिकों का पुनीत कर्त्तव्य है । आपातकाल के समय स्वयं को राज्य के प्रति समर्पित करना भी नागरिकों का ही कर्तव्य है । नागरिक के कर्त्तव्य पालन पर ही राज्य नागरिक को सुविधाएँ प्रदान करने में सक्षम होता है ।
(vii) व्यक्ति का अधिकार स्वयं उसका कर्त्तव्य- समाज में प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार स्वयं उसका कर्त्तव्य है यदि एक व्यक्ति चाहता है कि वह अपने अधिकारों का उपभोग बिना किसी रुकावट के करे तथा समाज के लोग उसके अधिकार में रोड़ा न अटकाएँ तो उसका कर्त्तव्य है कि वह उसी प्रकार के दूसरे व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करे तथा उनके अधिकारों के उपभोग में रुकावट पैदा न करे । “यदि प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने अधिकार का ही ध्यान रखें तथा दूसरों के प्रति कर्त्तव्यों का पालन न करें तो शीघ्र ही किसी के लिए अधिकार नहीं रहेंगे ।”
-डा० बेनीप्रसाद उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि समाज में हमे कुछ अधिकार मिलते हैं तथा उनके बदले में हम जो ऋण चुकाते हैं वे हमारे कर्त्तव्य हैं । इस प्रकार अधिकारों में कर्त्तव्य निहित हैं । वर्तमान में व्यक्ति अधिकारों की अधिक कामना करते हैं । लेकिन वे भूल जाते हैं कि अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यपालन भी आवश्यक है । वस्तुत: अधिकार एवं कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
2– अधिकार से क्या तात्पर्य है? लोकतंत्र में उपलब्ध नागरिकों के अधिकारों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर — अधिकार का अर्थ- राज्य का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को सुखमय बनाना है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रत्येक राज्य व्यक्ति को कुछ सुविधाएँ प्रदान करता है । ये सुविधाएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अति आवश्यक होती हैं । राज्य द्वारा दी जाने वाली इन सुविधाओं को सामान्य बोलचाल की भाषा में अधिकार कहा जाता है । अधिकार समाज द्वारा दी गई व राज्य द्वारा रक्षित वे सुविधाएँ हैं, जिनके आधार पर व्यक्ति अपना चहुंमुखी विकास कर सकता है । अधिकार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के दो शब्दों- अधि तथा कार से मिलकर हुई है, जिनके क्रमश: अर्थ हैं- प्रभुत्व और कार्य ।
इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में अधिकार का आशय उस कार्य से हैं, जिस पर व्यक्ति का प्रभुत्व होता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज में बहुत से व्यक्ति निवास करते है, जिनके स्वभाव और विचार एक दूसरे से भिन्न होते हैं । अत: समाज का संगठन ऐसा होना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास एवं अपनी उन्नति करने की अधिक-सेअधिक सुविधा प्राप्त हो सके । इन्ही सुविधाओं को नागरिक शास्त्र में अधिकार कहा जाता है । लोकतंत्र में उपलब्ध नागरिकों के अधिकार- लोकतंत्र में उपलब्ध अधिकारों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है ।
(i) सामाजिक अथवा नागरिक अधिकार (ii) राजनीतिक अधिकार । (iii) आर्थिक अधिकार (iv) राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार
(i) सामाजिक अथवा नागरिक अधिकार- ये अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा सामाजिक जीवन के सभ्य, सुसंस्कृत कुशल संचालन के लिए आवश्यक होते हैं । राज्य इन अधिकारों को कानूनी मान्यता प्रदान करता है । सामाजिक अथवा नागरिक अधिकारों में सम्मिलित प्रमुख अधिकार निम्नलिखित हैं
(क) जीवन का अधिकार- जीवन का अधिकार एक प्रारम्भिक अधिकार है, जिसके बिना न तो व्यक्ति और न ही समाज सुरक्षित रह सकता है । यदि राज्य मानवीय जीवन की रक्षा नहीं करेगा तो व्यक्ति को सदैव अपने जीवन की चिन्ता लगी रहेगी । “यदि मनुष्य को जीवन का अधिकार प्राप्त नहीं होगा तो वह सम्पूर्ण जीवन अपनी सुरक्षा में ही व्यतीत कर देगा ।”
–प्रो० लास्की जीवन के अधिकार में आत्म सुरक्षा की स्वतंत्रता भी निहित है । इसका तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति अपने जीवन की सुरक्षा हेतु हमलावर पर घातक वार कर सकता है । उसका यह कार्य अपराध नहीं माना जाएगा ।
(ख) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति अपने निजी क्षेत्र में पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, लेकिन वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता राज्य द्वारा निर्मित कानूनों की सीमाओं में रहकर ही प्राप्त कर सकता है ।
(ग) शिक्षा का अधिकार- शिक्षा के अभाव में व्यक्ति पशु की भाँति होता है । अत: नागरिकों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त किया जाता है तथा इस अधिकार के उपभोग हेतु वाचनालय, पुस्तकालय तथा संग्रहालयों आदि अनेक प्रकार की सुविधाएँ दी जाती हैं । इसके अतिरिक्त प्रारम्भिक शिक्षा की अनिवार्य तथा नि:शुल्क रूप में व्यवस्था भी की जाती है ।
(घ) परिवार का अधिकार- मनुष्य जाति को बनाए रखने के लिए परिवार का अधिकार परमावश्यक है । व्यक्ति अपनी इच्छानुसार विवाह कर सकता है तथा बच्चों को जन्म दे सकता है । इस अधिकार द्वारा व्यक्ति की काम प्रवृत्ति की पूर्ति होती है, लेकिन इस अधिकार का प्रयोग सिर्फ समाज के कल्याण हेतु ही किया जाए इसलिए सरकार विवाह, तलाक, पत्नियों की संख्या तथा परिवार के सदस्यों में सम्पत्ति का विभाजन संबंधी कानून बना देती है ।
(ङ) संघ-निर्माण का अधिकार- मानव अपने जीवन की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अनेक प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठन निर्मित करता है तथा राज्य उसके इस अधिकार को मान्यता देता है । लेकिन राज्य ऐसे संघ बनाने की अनुमति नहीं देता है, जो राज्य के हितों के विरुद्ध हों । राज्य ऐसे संघों को समाप्त कर सकता है ।
(च) समझौते का अधिकार- राज्य व्यक्ति को अन्य नागरिकों के साथ संबंध स्थापित करने का अधिकार भी प्रदान करता है । इससे व्यक्ति के परस्पर संबंध दृढ़ होते हैं तथा उनकी अनेक समस्याओं का समाधान भी हो सकता है ।
(छ) आवागमन का अधिकार- इस अधिकार के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को राज्य की सीमा के भीतर स्वतंत्रतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की सुविधा प्राप्त होती है । राज्य उन स्थानों पर, जो कि राज्य की सुरक्षा हेतु महत्वपूर्ण होते हैं, जाने की आज्ञा नहीं देता । यदि व्यक्ति को यह अधिकार न दिया जाए तो वह गुलाम बनकर रह जाएगा ।
(ज) विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार- व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास हेतु विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का अत्यधिक महत्व है । इसे लोकतंत्र का मुख्य आधार भी कहा जाता है । लोकतान्त्रिक राज्य में राज्य की नीति का आधार जनसाधारण की इच्छा होनी चाहिए, परन्तु राज्य जनसाधारण की इच्छा को तभी कार्यरूप दे सकता है जबकि वह उसे निर्भीक रूप से अभिव्यक्त करें । “एक व्यक्ति को अपने विचार के अनुसार भाषण की स्वतंत्रता देना उसके व्यक्तित्व के विकास की एकमात्र तथा अन्तिम सुविधा तथा उसकी नागरिकता को नैतिक पूर्णता का एकमात्र साधन देना है ।”
-प्रो० लास्की “राज्यों की शक्ति द्वारा विचारों की शक्ति को नहीं दबाना चाहिए । विचारों का विचारों के साथ ही संघर्ष हो सकता है तथा सिर्फ इसी प्रकार ही सत्य का अनुमान लग सकता है ।” —मैकाइवर
(झ) समानता का अधिकार- समानता का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है । इस अधिकार का अभिप्राय है कि सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मानवीय समानता की स्थापना की जानी चाहिए । प्रत्येक मनुष्य को अन्य मनुष्यों के समान सम्मान एवं महत्व प्राप्त होना चाहिए । व्यक्ति के मध्य धर्म, नस्ल, जाति, भाषा, लिंग, जन्म-स्थान तथा धन इत्यादि के आधार पर अन्तर नहीं किया जाना चाहिए । इस अधिकार को मूर्त रूप देने के लिए भारत के संविधान में छुआछूत को गैर-कानूनी घोषित किया गया है तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों इत्यादि को सार्वजनिक जीवन में संरक्षण दिया गया है ।
(ञ) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार- लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता अर्थात् किसी भी धर्म में आस्था रखने, उसका प्रचार करने तथा गुरुद्वारा, मन्दिर, मस्जिद एवं चर्च इत्यादि बनवाने की स्वतंत्रता है । कोई भी धर्म किसी पर थोपा नहीं जा सकता, लेकिन साम्यवादी राष्ट्र धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को कोई महत्व नहीं देते हैं ।
(ट) न्याय प्राप्त करने का अधिकार- गरीब एवं निर्बल लोगों को अत्याचार से बचाने के लिए न्याय प्राप्ति के अधिकारों का प्रबन्ध किया जाता है । यदि मानव को यह अधिकार न दिया जाए तो उसके अनेक अधिकार व्यर्थ हो जाएंगे । इसलिए संविधान द्वारा न्यायालयों मे जाने का तथा न्याय प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है ।
(ii) राजनीतिक अधिकार- डॉ० बेनीप्रसाद के शब्दों में- “राजनीतिक अधिकारों का आशय उन व्यवस्थाओं से है, जिनमें नागरिकों को शासन के कार्यों में हिस्सा लेने का अवसर प्राप्त होता है अथवा नागरिक शासन प्रबन्ध को प्रभावित कर सकते हैं । राजनीतिक अधिकार व्यक्ति को राज्य का सदस्य होने के परिणामस्वरूप मिलते हैं । इनके द्वारा व्यक्ति राज्य के शासन कार्यों में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हिस्सा लेने का अवसर पाता है । साधारणतया एक लोकतान्त्रिक राज्य में अपने नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किए जाते हैं
(क) राजनीतिक दल बनाने का अधिकार- लोकतंत्र में नागरिकों को अलग-अलग राजनीतिक दल बनाने का अधिकार प्राप्त होता है । ये राजनीतिक दल चुनावों में हिस्सा लेते है, सरकार बनाते हैं तथा सरकार की आलोचना इत्यादि करते हैं ।
(ख) विदेशों में सुरक्षा का अधिकार- संसार के समस्त नागरिक जिस समय विदेशों में जाते हैं उस समय उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी राष्ट्र अपने ऊपर लेता है । इस कार्य के लिए राष्ट्रों के राजदूतों द्वारा परस्पर संबंध स्थापित किए जाते हैं ।
(ग) आवेदन-पत्र और सम्पत्ति देने का अधिकार- इस अधिकार के अन्तर्गत नागरिकों को यह अवसर दिया जाता है कि वे वैयक्तिक अथवा सामूहिक रूप में सरकार को शासन संबंधी शिकायतें दूर करने के लिए अथवा शासन को
अधिकाधिक लोक-कल्याणकारी बनाने के लिए आवेदन पत्र दे सकते हैं । इस प्रकार वे शासन की नीतियों के समर्थन में अपनी सम्मति भी प्रकट कर सकते हैं । गुरुमुख निहाल सिंह ने कहा है, “यह अधिकार व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से व्यक्ति की कठिनाईयों एवं शिकायतों को दूर करने का प्राचीन तथा बहुमूल्य अधिकार है ।”
(घ) सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार- राज्य के समस्त सार्वजनिक पदों पर व्यक्तियों को योग्यता के आधार पर नियुक्ति पाने का अधिकार दिया जाना चाहिए ।
(ङ) निर्वाचित होने का अधिकार- इस अधिकार का अर्थ है कि निर्धारित योग्यताएँ रखने वाला प्रत्येक वयस्क नागरिक संसद, विधानमण्डल अथवा स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की सदस्यता के लिए चुनाव में भाग ले सकता है तथा विजयी होने पर निर्वाचित हो सकता है ।
(च) मत देने का अधिकार- लोकतंत्र शासन का यह प्रमुख अधिकार है । आधुनिक समय में विश्व के अधिकांश देशों में लोकतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था है । अत: राष्ट्रों की विशाल जनसंख्या के कारण प्रत्यक्ष लोकतंत्र असम्भव हो गया है, अतः प्रतिनिधिमूलक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र प्रचलित है । इसमें राज्य के नागरिक अपने प्रतिनिधियों का चयन कर संसद और विधानमण्डल में भेजते हैं । लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य है कि देश के अधिकतम नागरिकों को जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय तथा लिंग इत्यादि के भेद के बिना मताधिकार या अधिकार प्राप्त होने चाहिए । इस दृष्टि से प्राय: सभी देशों में वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है । “प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार सभी व्यक्तियों को होना चाहिए, सिवाय उनके जो ऐसी स्थिति में हों (पागल, दिवालिया और बच्चे) कि वे उचित ढंग से सोच-विचार न कर सकें ।” —माण्टेस्क्यू
(iii) आर्थिक अधिकार- राज्य द्वारा व्यक्ति को निम्नलिखित आर्थिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं
(क) उचित पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकार- प्रत्येक नागरिक सिर्फ कार्य ही नहीं माँगता अपितु काम के बदले उचित पारिश्रमिक भी माँगता है । यदि उसे उचित पारिश्रमिक मिलेगा तो वह कार्य में अधिक रूचि लेगा । इससे उत्पादन में वृद्धि होगी तथा देश की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा । “एक व्यक्ति को सिर्फ काम पाने का ही अधिकार नहीं है, अपितु उसे यह अधिकार भी है कि कार्य करने के लिए उपयुक्त पारिश्रमिक मिले ।”–प्रो० लास्की
(ख) विश्राम का अधिकार- मानव एक यंत्र नहीं है, जिसका कि लगातार प्रयोग किया जा सके इसलिए वर्तमान में राज्य व्यक्ति को आराम करने का अधिकार भी देता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही राज्य काम करने का समय निश्चित करता है तथा अवकाश का प्रबन्ध करता है ।
(ग) काम का अधिकार- प्रत्येक राज्य नागरिक को अपनी इच्छानुसार कार्य करने का अधिकार देता है क्योंकि अच्छा जीवन यापन करने हेतु एवं प्रारम्भिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रोजगार आवश्यक है । काम का अधिकार व्यक्ति को अपनी एवं परिवार की भौतिक आवश्यकताओं- भोजन, कपड़ा, निवास-स्थान, दवा, शिक्षा, मनोरंजन इत्यादि की पूर्ति में सहायता देता है । चीन तथा यूगोस्लाविया जैसे राज्यों में काम के अधिकार को संवैधानिक मान्यता दी गई है । अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे समृद्ध राज्यों ने इसे मौलिक अधिकारों के रूप में मान्यता नहीं दी है, लेकिन उन्होंने व्यवहार रूप में इसे स्वीकार किया है । कई राज्य आर्थिक कठिनाइयों के कारण अपनी जनता को यह अधिकार नहीं दे पाए हैं, परन्तु वे इसे नैतिक दायित्व मानते है तथा इस दिशा में अग्रसर हैं ।
(घ) सम्पत्ति का अधिकार- आधुनिक काल में सम्पत्ति का अधिकार बड़े वाद-विवाद वाला अधिकार बन गया है । अरस्तू तथा लॉक इसे प्राकृतिक अधिकार मानते हैं इसके विपरीत, प्लेटो सम्पत्ति के अधिकार का विरोध करते हैं । कार्ल मार्क्स ने सम्पत्ति को ‘लूट के माल’ की संज्ञा दी है । इसी कारण समाजवादी राष्ट्र रूस, चीन इत्यादि सम्पत्ति के अधिकार के विरोधी है । राज्य अथवा सरकार को किसी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति को समुचित मुआवजा दिए बिना छीनने का अधिकार नहीं है क्योंकि सम्पति ही वह प्रेरणास्रोत है, जो मानव को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है । वर्तमान समय में सम्पत्ति के अधिकार को अनियमित एवं अनियन्त्रित रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि जहाँ एक ओर सम्पत्ति व्यक्ति की प्रेरणास्रोत है वहीं दूसरी ओर सम्पत्ति घमण्ड, शोषण, उत्पीड़न एवं अकर्मण्यता को प्रोत्साहित करती है ।
“धनवान तथा निर्धन में विभाजित समाज रेत की नींव पर टिका होता है ।” -प्रो० लास्की
(ङ) आर्थिक समानता का अधिकार- आर्थिक समानता से आशय है कि समाज में गम्भीर आर्थिक विषमताएँ नहीं होनी चाहिए । अर्थव्यवस्था का संचालन सार्वजनिक हित में इस प्रकार से किया जाए कि सम्पत्ति एवं उत्पादन के साधनों का न्यायसंगत वितरण हो सके ।
(च) आर्थिक सुरक्षा का अधिकार- आधुनिक कल्याणकारी राज्य में आर्थिक सुरक्षा का अत्यधिक महत्व है । इस अधिकार का तात्पर्य है कि व्यक्ति को वृद्धावस्था बीमारी, बेरोजगारी, अपंगता इत्यादि की स्थिति होने की दशा में आर्थिक सुरक्षा प्रदान की जाए । आज ऐसे अनेक राज्य हैं, जो वृद्धावस्था में व्यक्ति के लिए पेंशन इत्यादि की व्यवस्था करते हैं ।
(iv) राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार- राज्य तथा सरकार का गठन जनकल्याण के लिए हुआ है । अत: ऐसी सरकारें जो इस उद्देश्य की पूर्ति करने में विफल रहती है या निरंकुश रूप से शासन करने लगती है तो ऐसी सरकार को जनविद्रोह या क्रान्ति द्वारा सत्ता से हटाया जाना वैधानिक है ।
3– अधिकारों का वर्गीकरण कीजिए ।
उत्तर — अधिकारों का वर्गीकरण- प्रमुख रूप से अधिकारों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है
(i) प्राकृतिक अधिकार- जो अधिकार प्रकृति द्वारा मिलते हैं, वे प्राकृतिक कहलाते हैं । जॉन लॉक के मतानुसार राज्य के अस्तित्व में आने से पूर्व व्यक्ति प्रकृति के राज्य में रहता था । वहाँ उसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार तथा सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त था । ये प्राकृतिक अधिकार थे । राज्य इन अधिकारों को समाप्त नहीं कर सकता, अपितु इनकी रक्षा करता है । ग्रीन ने प्राकृतिक अधिकारों को आदर्श अधिकारों के रूप में माना है । उनके अनुसार ये वे अधिकार हैं जो व्यक्ति के नैतिक विकास हेतु आवश्यक हैं तथा जिनकी प्राप्ति समाज में ही सम्भव है । वर्तमान में प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि अधिकार समाज और राज्य के बिना प्राप्त ही नहीं किए जा सकते । व्यक्ति सिर्फ वही अधिकार प्राप्त कर सकता है, जो राज्य उसे प्रदान करता है ।
नैतिक अधिकार- नैतिक अधिकार उन अधिकारों को कहते हैं जिनका संबंध व्यक्ति के नैतिक आचरण से होता है इस प्रकार के अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं तथा समाज अपनी नैतिक शक्ति के आधार पर इनकी रक्षा करता है । इनका निर्माण धर्मशास्त्र एवं सामाजिक चेतना के आधार पर होता है । इनके पीछे समाज की नैतिक शक्ति होती है, किन्तु कानूनी शक्ति नहीं होती है । राज्य न तो ऐसे अधिकारों को स्वीकार करता है और न ही इनका विरोध करता है । इनका मानना अथवा न मानना व्यक्तिगत इच्छा पर अधिक निर्भर करता है ।
मौलिक अधिकार- वे अधिकार जो मानव जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं, मौलिक अधिकार कहे जाते हैं । इन अधिकारों को राज्यों के संविधान में वर्णन कर दिया जाता है । न्यायपालिका इन अधिकारों की रक्षा करती है । सर्वप्रथम मौलिक अधिकार अमेरिकी संविधान में सम्मिलित किए गए । भारतीय संविधान द्वारा भी मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं ।
कानूनी अधिकार- ये वे अधिकार हैं, जिन्हें राज्य मान्यता प्रदान करता है तथा जिनकी रक्षा राज्य के कानूनों द्वारा होती है । कानूनी अधिकारों का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को राज्य द्वारा दण्डित किया जाता है । कानूनी अधिकारों को तीन भागों मे बाँटा जा सकता है
(क) सामाजिक अथवा नागरिक अधिकार (ख) राजनीतिक अधिकार
(ग) आर्थिक आधार उपर्युक्त तीनों कानूनी अधिकार के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-2 के उत्तर का अवलोकन कीजिए
4– नागरिकों के कर्तव्यों पर टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर — कर्त्तव्य से साधारणत: आशय उन कार्यों से होता है कि जिन्हें करने के लिए नागरिक नैतिक रूप से प्रतिबन्धित होते हैं । इस प्रकार साधारणत: कर्त्तव्य वे होते हैं, जिनके लिए कहा जाता है कि उन्हें नागरिकों को करना ही चाहिए तथा जिनके लिए यह नहीं कहा जाता है कि उन्हें नागरिकों को करना ही पड़ेगा अर्थात् किसी विशेष कार्य करने के संबंध में नागरिकों के उत्तरदायित्व को ही कर्त्तव्य कहा जा सकता है । इस प्रकार जिन कार्यों के संबंध में समाज एवं राज्य सामान्य रूप से नागरिकों से यह आशा करते हैं कि उन्हें वे कार्य करने चाहिए, वे ही नागरिकों के कर्त्तव्य कहे जा सकते हैं ।
कर्तव्यों का वर्गीकरण-क्षेत्र एवं व्यापकता के आधार पर नागरिकों के कर्त्तव्यों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है(i) नैतिक कर्त्तव्य तथा (ii) वैधानिक या कानूनी कर्त्तव्य
(i) नैतिक कर्त्तव्य- नैतिक कर्त्तव्य उसे कहते हैं, जिनका संबंध व्यक्ति की नैतिक भावना, अन्त:करण तथा उचित कार्य की प्रवृति से होता है । वस्तुत: नैतिक कर्त्तव्य का संबंध व्यक्ति के अन्त:करण से होता है । इनका पालन न करने पर राज्य की ओर से किसी भी प्रकार का दण्ड नहीं दिया जाता है । नैतिक कर्त्तव्यों के अन्तर्गत निम्नलिखित कर्त्तव्य सम्मिलित किए गए है(क) अपने प्रति कर्त्तव्य- प्रत्येक व्यक्ति का अपने प्रति पहला कर्त्तव्य यह है कि वह अपने जीवन की रक्षा करें तथा अपना सर्वांगीण विकास करे । इस कर्त्तव्य की पूर्ति के लिए व्यक्ति को अपने शारीरिक और मानसिक विकास की दिशा में निरन्तर सचेष्ट रहना चाहिए । उसे अपनी चिन्तन और मनन शक्ति को विकास करके अपने मनोबल और चरित्र को ऊँचा उठाना चाहिए ।
(ख) परिवार के प्रति कर्त्तव्य- परिवार मनुष्य के सामाजिक जीवन की आधारशिला है । अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपने परिवार के प्रति कर्त्तव्यपालन का उत्तरदायित्व ग्रहण करना चाहिए । उसे परिवार के सभी सदस्यों के साथ सद्भावना, सहानुभूति, प्रेम व सहयोग का भाव प्रदशित करना चाहिए ।
(ग) ग्राम, नगर तथा प्रदेश के प्रति कर्त्तव्य- परिवार के बाद नागरिक के अपने ग्राम, नगर तथा प्रदेश के प्रति अनेक कर्त्तव्य होते हैं । इन कर्त्तव्यों के अन्तर्गत नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा तथा सफाई की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए । इस प्रकार के कर्तव्यों के पालन के लिए प्रत्येक नागरिक में सार्वजनिक सेवा भाव की भावना का जाग्रत होना परम आवश्यक है । समाज के प्रति कर्त्तव्य-समाज के लिए भी मनुष्य के अनेक कर्त्तव्य है । सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन करना, विभिन्न संघों और समुदायों के प्रति अपने दायित्वों का पालन करना, अधिकारों का समुचित उपयोग करना तथा समाज के दीन-दखियों व असहायों की सहायता करना आदि सामाजिक कर्तव्यों के प्रमुख उदाहरण हैं । इन
कर्तव्यों का पालन करके ही व्यक्ति समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकता है ।
(ङ) मानवता के प्रति कर्त्तव्य- इसके अन्तर्गत दो प्रमुख कर्त्तव्य सम्मिलित हैं
(अ) समस्त मानव-समाज की भलाई के लिए कार्य करना ।
(ब) विश्व शान्ति की स्थापना में वांछित योगदान देना ।
(ii) वैधानिक या कानूनी कर्त्तव्य- वैधानिक या कानूनी कर्त्तव्य वे हैं जिनका पालन करना प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक है । कानूनी कर्त्तव्य का पालन न करने पर मनुष्य दण्ड का भागी होता है । प्रमुख कानूनी कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं(क) कानूनों का पालन करना- कानून, राज्य द्वारा निर्मित नियम हैं जिनका उद्देश्य राज्य में व्यवस्था और शान्ति बनाए रखना है । उनके अभाव में अराजकता और अव्यवस्था का बोलबाला हो जाएगा । कानून का उल्लंघन करने से हमारी स्वतंत्रता का लोप होता है, हमारे अधिकारों का अन्त होता है । इसलिए हमारा सबसे पहला कर्त्तव्य है कि हम कानूनों का स्वेच्छा से पालन करें । कानूनों का पालन करने में हमारा और हमारे समाज का कल्याण निहित है । यदि कानून अन्यायपूर्ण अथवा अत्याचारी है तो कानून का हमें शान्ति पूर्ण एवं संवैधानिक ढंग से विरोध भी करना चाहिए ।
(ख) देशप्रेम की भावना- देशप्रेम की भावना आदर्श नागरिकता का एक चिरन्तन गुण है । प्रत्येक नागरिक का यह परम कर्त्तव्य है कि वह अपने देश के प्रति पूरी भक्ति और श्रृद्धा रखें । देश की रक्षा के लिए, देश की सेवा के लिए नागरिकों को तन-मन-धन से हमेशा तैयार रहना चाहिए । वे व्यक्ति जिनमें देशभक्ति की भावना नहीं है घृणा के पात्र हैं वे कृतघ्न होते हैं ।
(ग) करों का भुगतान करना- राज्य की व्यवस्था के लिए धन की नितान्त आवश्यकता होती है राज्य का खर्च बिना आय के नहीं चल सकता । राज्य की आय के अनेक स्रोत हैं, कर संग्रह उनमें से मुख्य हैं । राज्य इन करों के बदले में नागरिकों को अनेक सुविधाएँ प्रदान करता है । इसलिए नागरिकों को चाहिए कि वे यथासमय निश्चित करों को चुकाने का प्रयास करें । प्राय: कुछ व्यक्ति करों से बचने की कोशिश करते हैं । इसके लिए वे भ्रष्ट साधनों का सहारा लेते हैं जो सामाजिक हित के विरुद्ध हैं । ये लोग राष्ट्रद्रोही हैं और समाज के भयंकर शत्रु हैं ।
(घ) मत का उचित प्रयोग करना- लोकतान्त्रिक देशों में सरकार का निर्माण मतदान के आधार पर होता है । इसलिए प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने इस अधिकार का बड़ी तत्परता, ईमानदारी तथा निष्ठा से पालन करें । इसलिए मतदान के महत्वपूर्ण कर्त्तव्य के पालन के समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन व्यक्तियों को हम अपना मत दें, वे योग्य ईमानदार हों । हमें जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, संबंधियों या पड़ोसियों के दबाव में पड़कर गलत आदमियों को अपना मत नहीं देना चाहिए । जो लोग ऐसा करते हैं । वे समाज के भयंकर शत्रु हैं ।
(ङ) सरकारी कर्मचारियों की सहायता करना- सरकारी कर्मचारियों को सरकारी कार्य में सहायता प्रदान करना नागरिक का परम कर्त्तव्य है । कर्त्तव्यों के उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक नागरिक के कर्त्तव्य अनन्त हैं । कर्त्तव्य पालन का क्रम ऐसा रखना चाहिए कि जिससे उनके निज के हित के साथ ही साथ सारे संसार का कल्याण हो । हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि कर्त्तव्यों का पालन करने से ही हमारे अधिकार सुरक्षित होते हैं ।
5– “अधिकार एवं कर्त्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं ।” विवेचना कीजिए ।
उत्तर — उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
6– अधिकारों और कर्त्तव्यों के बीच संबंध स्थापित कीजिए ।
उत्तर — उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न-संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
7– अधिकारों से संबंधित विभिन्न सिद्धान्तों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए ।
उत्तर — अधिकारों से संबंधित विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना निम्नलिखित है
(i) अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त- टॉमस पेन, ब्लैकस्टोन, हरबर्ट स्पेन्सार, रूसो, मिल्टन, वॉल्टेयर, लॉक, हॉब्स आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है । यह सिद्धान्त अति प्राचीन है । इसके अनुसार अधिकार प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए है और वे व्यक्ति को जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते हैं । व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का प्रयोग राज्य के उदय के पूर्व से ही करता चला आ रहा है । राज्य इन अधिकारों को न तो छीन सकता है और न ही वह इनका जन्मदाता है । “प्राकृतिक अधिकार वे हैं, जो मनुष्य के अस्तित्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवश्यक है ।” इस दृष्टिकोण से अधिकार जन्मजात, असीमित, निरपेक्ष तथा स्वयंसिद्ध है । राज्य इन अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है । -टॉमस पेन महत्व- प्राकृतिक सिद्धान्त की कमियों के बावजूद इसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती है क्योंकि अमेरिका, भारत, रूस, चीन आदि देशों के संविधानों में वर्णित मूल अधिकारों की व्यवस्था इसी सिद्धान्त पर आधारित है ।
गिलक्राइस्ट का मत है कि- “प्राकृतिक अधिकारों को जिस उचित अर्थ में लिखा जा सकता है, वह केवल यही है कि व्यक्ति को नीतिशास्त्र के अनुसार आदर्श व्यक्ति बनने के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, वह सब कुछ उसे प्राप्त होना चाहिए ।” इसकी पुष्टि करते हुए लॉर्ड ब्राइस ने लिखा है- “प्राकृतिक सिद्धान्त वे शर्ते हैं, जो मानवीय संस्था द्वारा प्रदान की गई है अथवा नहीं, किन्तु जो व्यक्तित्व के विकास के लिए अति आवश्यक है ।”
ii) अधिकारों का कानूनी या वैधानिक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रवर्तक जरेमी बेन्थम, हॉलैण्ड, ऑस्टिन आदि विचारक हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार राज्य की इच्छा का परिणाम हैं और राज्य ही अधिकारों का जन्मदाता है । यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के विपरीत है । व्यक्ति राज्य के संरक्षण में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग कर सकता है । राज्य ही कानून द्वारा ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करता है, जहाँ कि व्यक्ति अपने अधिकारों का स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग कर सके । राज्य ही अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है । यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि अधिकारों का अस्तित्व केवल राज्य के अन्तर्गत ही सम्भव है । महत्व- यद्यपि इस सिद्धान्त की काफी आलोचना की गई है, तथापि इस सिद्धान्त में यह सत्य निहित है कि व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए जो दावे अनिवार्य है, उन्हें उस समय तक अधिकार नहीं माना जा सकता, जब तब कि उन्हें राज्य द्वारा मान्यता प्रदान न कर कर दी जाए ।
iii) अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों की उत्पत्ति प्राचीन रीति-रिवाजों के परिणामस्वरूप हई है । जिन रीति-रिवाजों को समाज स्वीकृति दे देता है, वे अधिकार का रूप ग्रहण कर लेते है । इस सिद्धान्त के समर्थकों रिची, बर्क आदि के अनुसार अधिकार परम्परागत है तथा सतत विकास का परिणाम हैं । इसके अतिरिक्त इनका आधार ऐतिहासिक है । इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में परम्परागत अधिकारों का बहुत अधिक महत्व रहा है । महत्व- इन आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त की महत्ता इस बात में है कि व्यक्ति के अनेक अधिकार परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर आधारित हैं ।
(iv) अधिकारों का समाज-कल्याण संबंधी सिद्धान्त- जे०एस० मिल, जेरमी बेन्थम, डीन पास्को, पाउण्ड, चेफर, लास्की आदि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है । इस सिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य उपयोगिता या समाज कल्याण है । “अधिकारों का औचित्य उनकी उपयोगिता के आधार पर आँकना चाहिए ।’
-प्रो० लास्की इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार वे साधन हैं, जिनसे समाज का कल्याण होता है । “लोक-कल्याण के विरुद्ध मेरे अधिकार नहीं हो सकते क्योंकि ऐसा करना मुझे उस कल्याण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है जिसमें मेरा कल्याण घनिष्ठ तथा अविच्छिन रूप से जुड़ा हुआ है ।”
-प्रो० लास्की इस सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं(क) व्यक्ति केवल उन्हीं अधिकारों का प्रयोग कर सकता है, जो समाज के हित में हों ।
(ख) अधिकारों का अस्तित्व समाज-कल्याण पर आधारित है ।
(ग) अधिकार समाज की देन है, प्रकृति की नहीं ।
(घ) कानून, रीति-रिवाज तथा अधिकार सभी का उद्देश्य समाज कल्याण है । महत्व- इस सिद्धान्त का महत्व इस बात में है कि अधिकार का अस्तित्व समाज कल्याण के लिए होता है और उसका उपयोग भी समाज कल्याण के लिए ही किया जाना चाहिए ।
(v) अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त- इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार वे बाहरी साधन तथा दशाएँ है, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होती हैं । इस सिद्धान्त का समर्थन क्रॉसमैन, हेनरी मैन, टी०एच० ग्रीन, ब्रैडले, बोसांके आदि विचारकों ने किया है । “अधिकार विवेकपूर्ण जीवन के विकास के लिए आवश्यक बाह्य परिस्थितियाँ है ।”-क्रॉस
कल्याण में राज्य तथा समाज तो केवारणा पर आधारित है कि के
“अधिकार वह शक्ति है, जो कि किसी व्यक्ति के लिए नैतिक जीवन के रूप में अनेक व्यवसाय और कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए आवश्यक है ।”
-ग्रीन महत्व- आदर्शवादी सिद्धान्त की आलोचना सार्थक नहीं मानी जा सकती है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास बाहरी परिस्थितियों पर ही निर्भर होता है ।
“समाज और राज्य नैतिक जीवन के मार्ग की बाधाओं को बाधित करके व्यक्ति के जीवन को नैतिक बना सकते हैं ।’ -ग्रीन इस प्रकार आदर्शवादी सिद्धान्त एक ऐसा मापदण्ड प्रस्तुत करता है, जो अन्य सिद्धान्त नहीं बना पाते हैं, इसीलिए अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त सर्वोत्तम माना जा सकता है । इन सभी सिद्धान्तों में आदर्शवादी सिद्धान्त सर्वमान्य और तर्कसंगत है क्योंकि इसके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि
(i) अधिकारों का स्वरूप नैतिक होता है ।
(ii) अधिकार व्यक्ति की माँग है । (iii) अधिकारों का उद्देश्य समाज का वास्तविक हित है । (iv) ये माँग समाज द्वारा स्वीकृत होती है । (v) अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक साधन हैं । इस प्रकार अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ही सर्वोत्तम है क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों की उत्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए है । राज्य तथा समाज तो केवल व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा तथा
व्यवस्था करने के साधन मात्र हैं । व्यक्ति समाज के कल्याण में ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है ।
8– नागरिकों के अधिकार एवं कर्तव्यों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए ।
उत्तर — नागरिकों के अधिकार एवं कर्त्तव्य- हम एक सामाजिक प्राणी हैं, समाज और देश में विकास, समृद्धि और शान्ति लाने के
लिए हमारी बहुत सी जिम्मेदारियाँ हैं । अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए, भारत के संविधान के द्वारा हमें कुछ अधिकार दिए गए हैं । वैयक्तिक विकास और सामाजिक जीवन में सुधार के लिए नागरिकों को अधिकार देना बहुत ही आवश्यक है । देश की लोकतंत्र प्रणाली पूरी तरह से देश के नागरिकों की स्वतंत्रता पर आधारित होती है । संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों को मौलिक अधिकार कहा जाता है, जिन्हें हम से सामान्य समय में वापस नहीं लिया जा सकता है । हमारा संविधान हमें छ: मौलिक अधिकार प्रदान करता है । जो निम्नलिखित हैं
(i) स्वतंत्रता का अधिकार- यह बहुत ही महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है, जो लोगों को अपने विचारों को भाषणों के द्वारा, लिखने के द्वारा या अन्य साधनों के द्वारा प्रकट करने में सक्षम बनाता है । इस अधिकार के अनुसार, व्यक्ति समालोचना, आलोचना या सरकारी नीतियों के खिलाफ बोलने के लिए स्वतंत्र है । वह देश के किसी भी कोने में कोई भी व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र हैं ।
(ii) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार- देश में ऐसे कई राज्य हैं, जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं । हममें से सभी अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने, अभ्यास करने, प्रचार करने और अनुकरण करने के लिए स्वतंत्र हैं । कोई भी किसी के धार्मिक विश्वास में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं रखता है ।
(iii) समानता का अधिकार- भारत में रहने वाले नागरिक समान हैं और अमीर व गरीब, उच्च-नीच में कोई भेदभाव और अन्तर नहीं है । किसी भी धर्म, जाति, जनजाति, स्थान का व्यक्ति किसी भी कार्यालय में उच्च पद को प्राप्त कर सकता है, वह केवल आवश्यक अहर्ताओं और योग्यताओं को रखता हो ।
(iv) शिक्षा और संस्कृति का अधिकार- प्रत्येक बच्चे को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है और वह बच्चा किसी भी संस्था में किसी भी स्तर तक शिक्षा प्राप्त कर सकता है । शोषण के विरुद्ध अधिकार- कोई भी किसी को उसका/उसकी इच्छा के विरुद्ध या 14 साल से कम उम्र के बच्चे से, बिना किसी मजदूरी या वेतन के कार्य करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है । संवैधानिक उपचारों का अधिकार- यह सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है । इस अधिकार को संविधान की आत्मा कहा जाता है, क्योंकि यह संविधान के सभी अधिकारों की रक्षा करता है ।
यदि किसी को किसी भी स्थिति में ऐसा महसूस होता है, कि उसके अधिकारों को हानि पहुँची है तो वह न्याय के लिए न्यायालय में जा सकता है । जैसा कि हम सभी जानते हैं कि, अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं । हमारे अधिकार बिना कर्त्तव्यों के अर्थहीन हैं, इस प्रकार दोनों ही प्रेरणादायक है । यदि हम देश को प्रगति के रास्ते पर आसानी से चलाने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं, तो हमें अपने मौलिक अधिकारों के लाभ को प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है । देश का नागरिक होने के नाते हमारे कर्त्तव्य और जिम्मेदारियाँ निम्नलिखित हैं
(क) हमें अपने राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना चाहिए ।
(ख) हमें देश के कानून का पालन और सम्मान करना चाहिए ।
(ग) हमें अपने अधिकारों का आनंद दूसरों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किए बिना लेना चाहिए ।
(घ) हमें हमेशा आवश्यकता पड़ने पर अपने देश की रक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए ।
(ङ) हमें राष्ट्रीय धरोहर और सार्वजनिक सम्पत्ति (रेलवे, डाकघर, पुल, रास्ते, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, ऐतिहासिक
इमारतों, स्थलों, वनों, जंगलों आदि) का सम्मान और रक्षा करनी चाहिए ।
(च) हमें अपने करों (टैक्स) का भुगतान समय पर सही तरीके से करना चाहिए ।
9– एक आदर्श नागरिक के अधिकारों एवं कर्तव्यों की विवेचना कीजिए ।
उत्तर — उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 8 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।
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