Up board 12th sanskrit natak durvasa ka charitra chitran

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महर्षि दुर्वासा का चरित्र-चित्रण

अभिज्ञानशाकुन्तलम् में महाकवि कालिदास ने जिन तीन महर्षियों को पात्र के रूप में लिया है, वे हैं – कण्व, दुर्वासा और मारीच। महर्षि दुर्वासा का उपयोग उन्होंने शकुन्तला को शाप देने और फिर शापमुक्त होने का उपाय बताने में किया है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

(1) क्रोधी – दुर्वासा बहुत क्रोधी हैं। प्रियंवदा उन्हें लौटाकर आश्रम में लाना चाहती है, किन्तु वे नहीं आते। प्रियंवदा उन्हें ‘प्रकृतिवन’ कहती हैं, वे किसी के अनुनय-विनय पर ध्यान नहीं देते- ‘प्रकृतिवक्रः स कस्यानुनयं प्रतिगृह्णाति ।’ प्रियंवदा के शब्दों में वे सुलभकोप महर्षि हैं- एष दुर्वासाः सुलभकोपो महर्षिः ।’

उनके व्यक्तित्व में कोप अग्नि की तरह है- ‘कोऽन्यो हुतवहाद् दग्धुं प्रभवति।’ वह जैसे शाप देने के अभ्यस्त हैं। वे इस बात की चिन्ता नहीं करते हैं कि मैं किसे शाप दे रहा हूँ। उन्होंने शकुन्तला को ऐसा कठोर शाप दिया है जिसकी काट उनके ही पास है।

( 2 ) अतिथि- कण्व के अतिथि के रूप में दुर्वासा की उपस्थिति हुई है। उनके ‘अयमहं भोः ।’ वाक्य को अनसूया अतिथि की आवाज के रूप में ही लेती है। – ‘सखि ! अतिथीनामिव निवेदितम्।’ वे अपनी उपेक्षा से शकुन्तला को अतिथ का तिरस्कार करनेवाली ही समझते हैं- ‘आः, अतिथिपरिभाविनि।’ क्योंकि वे अतिथि हैं, अतः पूजा के लिए अर्ह हैं।

( 3 ) अहङ्कारी – दुर्वासा के व्यक्तित्व में अहंकार साफ झलकता है। वे आश्रम में आते ही जिस स्वर में ‘अयमहं भोः’ कहते हैं, उससे लगता है कि वे अपेक्षा रखते हैं कि इतना कह देने से ही लोग उन्हें पहचान लेंगे। अपने अहंकार की रक्षा के लिए वे शीघ्र क्रोधित हो जाते हैं।

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