UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 2 नागमति-वियोग वर्णन (मलिक मुहम्मद जायसी)

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 2 नागमति-वियोग वर्णन (मलिक मुहम्मद जायसी)

नागमति-वियोग वर्णन (मलिक मुहम्मद जायसी)

1 — मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन-परिचय देते हुए इनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए ।
वि परिचय- भक्तिकाल की प्रेममार्गी शाखा के प्रमुख कवि मलिक महम्मद जायसी का जन्म सन 1492 ई० के लगभग माना जाता है । कुछ विद्वानों ने जायसी का जन्म-स्थान गाजीपुर और कुछ ने जायसनगर जिला रायबरेली को माना है । “जायस नगर मोर अस्थानू’ कहकर जायसी ने स्वयं ‘जायस’ को ही अपना निवास स्थान कहा है । इनके पिता का नाम मलिक शेख ममरेज था । बाल्यावस्था में ही इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी और अनाथ होने के कारण ये सन्तों की संगति में ही रहते थे । सूफी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध पीर शेख मोहदी (मुहीउद्दीन) इनके गुरु थे । जायसी की शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ अधिक ज्ञात नहीं हो पाया है, परन्तु इन्हें वेदान्त, ज्योतिष, दर्शन, रसायन तथा हठयोग का पर्याप्त ज्ञान था ।


जायसी गाजीपुर और भोजपुर के राजा के आश्रय में रहते थे । बाद में ये अमेठी के राजा मानसिंह की अनुनय-विनय पर उनके दरबार में चले गए और जीवन के अन्तिम समय में ये अमेठी से 2 किमी दूर एक वन में रहते थे । सन् 1542 ई० के लगभग इनकी मृत्यु हो गई । जायसी भक्तिकाल की प्रेममार्गी निर्गुण-भक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं । जायसी निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और उसकी प्राप्ति के लिए ‘प्रेम’ की साधना में विश्वास रखते थे । इन्होंने अपने काव्य में इस ‘प्रेममार्ग’ के लिए विरहानुभूति पर बहुत अधिक बल दिया है । ईश्वर से वियोग की तीव्र अनुभूति ही भक्त को साधना-पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा प्रदान करती है । यह भक्ति-भावना ‘पद्मावत’ में प्रभावशाली ढंग से व्यक्त हुई है । जायसी का विरह-वर्णन अत्यधिक मर्मस्पर्शी है । वास्तव में जायसी हिन्दी-काव्य जगत के सर्वाधिक प्रतिभाशाली कवि थे । जायसी एक रहस्यवादी कवि थे । इन्होंने ‘पद्मावत’ में स्थूल पात्रों के माध्यम से सूक्ष्म दार्शनिक भावनाओं को अभिव्यक्त किया है ।


इसमें ईश्वर एवं जीव के पारस्परिक प्रेम की अभिव्यंजना दाम्पत्य भाव से प्रस्तुत की गई है । रचनाएँ- उपलब्ध तथ्यों के आधार पर जायसी द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैंपद्मावत (महाकाव्य )- इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप के राजा गन्धर्व सेन की पुत्री ‘पद्मावती’ की प्रेमगाथा वर्णित है । सूफी काव्य-परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा अवधी भाषा में लिखा गया यह महाकाव्य हिन्दी-साहित्य का सबसे पहला सरस व दोषरहित महाकाव्य है । इसमें इतिहास तथा कल्पना का सामञ्जस्य दिखाई पड़ता है । प्रेम की पीड़ा के अनन्य साधक जायसी ने इसमें प्रतीकों का प्रयोग किया है । अखरावट- इसमें ईश्वर, जीव, सृष्टि आदि पर जायसी के सैद्धान्तिक विचार वर्णित हैं ।
आखिरी कलाम- इसमें जायसी द्वारा मृत्यु के बाद प्राणी की दशा का वर्णन किया गया है ।


2 — मलिक मुहम्मद जायसी की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर — – भाषा-शैली- ‘पद्मावत’ महाकाव्य विरहानुभूति के मार्मिक वर्णन और अलौकिक सौन्दर्य की उत्कृष्ट अभिव्यंजना के कारण अत्यन्त भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी हो गया है । जीवन के विविध पक्षों का व्यापक चित्रण जायसी के काव्य में हुआ है । पद्मावती के रूप-सौन्दर्य का मर्मस्पर्शी वर्णन, नख-शिख-वर्णन पद्धति पर हुआ है । शृंगार के संयोग एवं वियोग पक्ष के हृदयहारी एवं मार्मिक चित्र ‘पद्मावत’ में देखे जा सकते हैं । गोरा-बादल के युद्ध वाले प्रसंग में वीर, रौद्र, वीभत्स, भयानक आदि रसों की सुन्दर व्यजंना हुई है । आध्यात्मिकता की गंगा में नहाई यह प्रेम-कथा शान्त रस की दिव्य अनुभूति में पाठक को निमग्न कर देती है । इस प्रकार सौन्दर्य, प्रेम, रहस्यानुभूति, भक्ति आदि की अभिव्यंजना से पुष्ट जायसी के काव्य का भावपक्ष बड़ा सबल है । जायसी की भाषा अवधी है । उसमें बोलचाल की लोकभाषा का उत्कृष्ट भावाभिव्यंजक रूप देखा जा सकता है । लोकोक्तियों के प्रयोग से उसमें प्राणप्रतिष्ठा हुई है । अलंकारों का प्रयोग अत्यन्त स्वाभाविक है । काव्य-रूप की दृष्टि से जायसी ने प्रबन्ध शैली को अपनाया है । केवल चमत्कारपूर्ण कथन की प्रवृत्ति जायसी में नहीं है । मसनवी शैली पर लिखित ‘पद्मावत’ में प्रबन्ध काव्योचित सौष्ठव विद्यमान है । जायसी ने प्रबन्ध और मसनवी दोनों शैलियों को समन्वित करके एक नवीन शैली को जन्म दिया है । दोहा और चौपाई जायसी के प्रधान छन्द हैं ।


व्याख्या संबंधी प्रश्न
1 — निम्नलिखित पद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए ।


(क) नागमती चितउर ………………………….मोहि दीन्ह॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘मलिक मुहम्मद जायसी’ द्वारा रचित प्रसिद्ध महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमति-वियोग-वर्णन’ नामक शीर्षक से उद्धृत है । प्रसंग- प्रस्तुत गद्य में बताया गया है कि जब हीरामन तोते के मुँह से पद्मावती के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर चित्तौड़ के राजा रत्नसेन उसकी खोज में सिंहलद्वीप चले जाते हैं तो उनकी रानी नागमती अपने पति के वियोग में सन्तप्त होती हई उनके लौटने की बाट जोहती है ।

व्याख्या- नागमती चित्तौड़ में अपने पति राजा रत्नसेन की बाट जोह रही थी और कहती थी कि प्रियतम एक बार गए तो अभी तक लौटकर न आए । लगता है कि वे किसी चतुर और रसिकप्रिय नारी के प्रेम-जाल में फंस गए हैं और उसी ने उनका चित्त मेरी ओर से फेर दिया है ।
तोता मेरे लिए कालरूप बनकर आया था, जो प्रियतम को अपने साथ ले गया । इससे तो अच्छा था कि मेरे प्राण चले जाते, पर प्रिय न जाते । वह तोता तो बड़ा छली निकला । जिस प्रकार नारायण ने वामन रूप धारण करके राजा बलि को छला था, या जिस प्रकार इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण से उसके कवच और कुण्डल ले लिए थे, या जिस प्रकार सुख-भोग करते राजा गोपीचंद भरथरी को योग से प्रभावित करके योगी जलन्धरनाथ ने अपने साथ ले जाकर योगी बना लिया था या जिस प्रकार अक्रुर कृष्ण को लेकर गायब हो गए थे, जिसके कारण गोपियों को असह्य विरह-वेदना सहनी पड़ी
और उनका जीना कठिन हो गया, उसी प्रकार यह तोता सुखपूर्वक राज्य करते मेरे प्रियतम को छलकर अपने साथ ले गया, जिससे दुःख व क्लेश से मेरा जीना दूभर हो रहा है । मेरे प्रियतम मेरे लिए कवचस्वरूप थे । उनके बिना मैं सर्वथा असहाय हो गई हूँ । सारस की जोड़ी में से एक (नर) को मारकर किस व्याध (बहेलिए) ने मादा को उससे अलग कर दिया है और यह विरहरूपी काल मुझे दे दिया है, जिसके कारण मैं सूखकर हड्डियों का ढाँचामात्र रह गई हूँ ।


काव्य-सौन्दर्य- (1) नागमती के विरह की मार्मिक व्यंजना हुई है ।
(2) नर-मादा सारस का परस्पर प्रगाढ़ प्रेम विख्यात है । एक के मरने पर दूसरा भी अपने प्राण त्याग देता है ।
(3) यहाँ चार अन्तर्कथाओं का उल्लेख मिलता है-
(क) पहली कथा विष्णु के वामनावतार की है, जिसमें उन्होंने पहले वामन का रूप धारण कर राजा बलि से तीन पग भूमि माँगकर और फिर विराट रूप धारणकर उसे राज्यच्युत कर दिया, जिससे कि वह सौवाँ यज्ञ पूरा करके इन्द्रासन प्राप्त न कर सके ।
(ख)दूसरी कथा कर्ण से सम्बन्धित है । कुन्ती की प्रार्थना पर इन्द्र ने विप्र वेश धारण कर छल द्वारा दानी कर्ण से उसके दिव्य कवचकुण्डल माँग लिए, जिससे कर्ण की अभेद्यता समाप्त हो गई और वह महाभारत के युद्ध में मारा गया ।
(ग) तीसरी कथा बंगाल के राजा गोपीचंद भरथरी की है । उनकी माता मैनावती ने उन्हें अनिष्ट से बचाने के लिए जलन्धरनाथ का शिष्य बना दिया था, जिससे उनकी रानियों को मर्मान्तक पीड़ा हुई ।
(घ) चौथी कथा अक्रूर से संबंधित है । अक्रुर कृष्ण को वृन्दावन से मथूरा लिवा ले गए, जिससे गोपियाँ कृष्ण-वियोग में जीवन भर तड़पती रही । इन अन्तर्कथाओं का उल्लेख कवि के प्रगाढ़ ज्ञान एवं अध्ययन का परिचायक है ।
(4) भाषा-अवधी ।
(5) शैली- प्रबंधकाव्य की मसनवी शैली ।
(6) छन्द-चौपाई और दोहा ।
(7) रस- विप्रलम्भ शृंगार ।
(8) अलंकार- रूपक (सुआ-काल), पुनरुक्तिप्रकाश (झुरि-झुरि), दृष्टान्त, उपमा आदि ।
(9) भावसाम्य- विरह की पीड़ा में सन्तप्त विरहिणी का इसी प्रकार का मार्मिक चित्र सन्त कवि कबीरदास जी ने भी खींचा है
विरह जलन्ती मैं फिरौं, मों विरिहिन को दुक्ख ।
छाँह न बैठों डरपती, मत जल उढे रुक्ख॥

(ख) पाट महादेई!.. …………… ………………………………….. अद्रा पलुहंत॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- इन काव्य-पंक्तियों में नागमती की सखियाँ वियोगसन्तप्ता नागमती को धैर्य बँधा रही है ।

व्याख्या- रानी नागमती पति-वियोग से पीड़ित है । उसकी सखियाँ उसे धीरज बँधाती हुई कहती हैं कि पटरानी जी! आप अपने हृदय में इतनी निराश न हों । धैर्य धारणकर स्वयं को सँभालिए । जी में समझकर होश में आइए और चित्त को चैतन्य कीजिए । भौरे का यदि कमल से मिलन हो भी जाए तो भी वह मालती (पुष्प) के प्रति पूर्व स्नेह को स्मरण कर पुन: उसके पास लौट आता है । तात्पर्य यह है कि पद्मावती से यदि महाराज का मिलन हो भी जाएगा तो भी वे आपके पूर्व प्रेम का स्मरण कर पुनः आप ही के पास लौट आएँगे; अतः निराश होने की कोई बात नहीं ।
पपीहे को स्वाति (नक्षत्र में गिरने वाली वर्षा की बूंद) से जैसी प्रीति है (उसे स्मरण कर) अपनी प्रियदर्शन की प्यास को (कुछ दिन) सह लीजिए और मन में धैर्य धारण कीजिए (व्याकुलता छोड़िए) । पृथ्वी को आकाश से यदि प्रगाढ़ प्रेम है तो (उसके फलस्वरूप) आकाश भी मेघ के रूप में वापस आकर (वर्षा की बूंदों के रूप में अपनी प्रियतमा) पृथ्वी से आ मिलता है । फिर नवल वसन्त ऋतु आएगी । तब वही रस (मकरन्द, पुष्परस), वहीं भौंरा और वही बेल होगी । हे महारानी! तुम देवी तुल्य हो । तुम अपने हृदय में निराश मत हो (हतोत्साहित न हो) ।
यह (सूखा) वृक्ष पुनः हरा-भरा हो उठेगा; अर्थात् तुम्हारा गृहस्थ जीवन पुनः भरा-पूरा हो जाएगा) । कुछ दिनों के लिए जल सूख जाने से सरोवर विध्वस्त (शोभाहीन)-सा हुआ लगता भी है तो क्या? फिर (जल भर जाने पर) वही सरोवर होगा और वही हंस होगा (जो उसे सूखा देख छोड़कर चला गया था) । जब बिछुड़े हुए पति तुम्हें पुनः मिलेंगे तो वे (द्विगुणित अनुराग से) तुम्हें प्रगाढ़ आलिंगन में बाँध लेंगे; क्योंकि जो मृगशिरा नक्षत्र में (ज्येष्ठ मास की) तपन सहते हैं, वे आर्द्रा नक्षत्र (आषाढ़) की वर्षा से पुनः पल्लवित (हरे-भरे) हो उठते हैं ।
काव्य-सौन्दर्य- (1) सखियों ने जिन दृष्टान्तों से नागमती को धैर्य बँधाने का प्रयास किया है, वे अत्यधिक सटीक और भावपूर्ण हैं ।
(2) स्वाति नक्षत्र शीतकाल में कार्तिक शुक्लपक्ष में 15 दिन रहता है । पपीहा केवल स्वाति नक्षत्र में हुई वर्षा की बूंद पीकर ही अपनी साल भर की प्यास बुझाता है । वह स्वाति-बूंद की आशा में अपनी प्यास को साल भर तक रोके रहता है ।
(3) ऐसी प्राचीन मान्यता है कि पृथ्वी और आकाश में पति-पत्नी संबंध है । पृथ्वी और आकाश का चिर-बिछोह है, ये एक-दूसरे से कभी नहीं मिल सकते । पृथ्वी की पुकार से द्रवित होकर आकाश वर्षा की बूंदों के रूप में नीचे उतरकर तप्त पृथ्वी की प्यास बुझता है । यहाँ इस मान्यता की सार्थक अभिव्यक्ति है ।
(4) भाषा- अवधि ।
(5) शैली- प्रबंधकाव्य की मसनवी शैली ।
(6) छन्द- चौपाई और दोहा ।
(7) रस- विप्रलम्भ शृंगार ।
(8) अलंकार- अन्योक्ति और अर्थान्तरन्यास ।
(9) भावसाम्य- वियोग के बाद संयोग का सुख अत्यधिक बढ़ जाता है । वर्षा का सच्चा सुख वही जानता है, जो ग्रीष्म के ताप से दुग्ध हो । इसी भाव को गोस्वामी जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है
जो अति आतप ब्याकुल होई । तरुछाया-सुख जानइ सोई॥


(ग) चढ़ा असाढ़ ………………………. भूला सर्ब॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- इन पंक्तियों में नागमती के विरह का वर्णन ‘बारहमासा’ पद्धति के आधार पर किया गया है । आषाढ़ के महीने में बरसते बादलों के बीच चमकने वाली बिजली उसे अपने शत्रु कामदेव की तलवार जैसी दिखाई देती है । व्याख्या- आषाढ़ का महीना लग गया है और मेघ आकाश में गरज रहे हैं । लगता है (कामदेव के भेजे) विरह (रूपी
सेनापति) ने (विरहिणियों पर चढ़ाई करने के लिए) अपनी सेना सजा ली है और (मेघ-गर्जन के रूप में) यह उसी के (युद्ध प्रयाण के सूचक) नगाड़े बज रहे हैं । (विरहरूपी सेनापति की सेना के सैनिकों के रूप में) धूम्र, काले और सफेद रंगों के बाद दौड़ रहे हैं । इनके बीच में बगुलों की पंक्ति उड़ रही है, वही मानो इस सेना का सफेद पताका है । आषाढ़ के महीने में विरहिणी स्त्रियों का विरह और अधिक बढ़ रहा है । कौंधती हुई बिजली के रूप में चारों ओर चमकती तलवारें हैं । ये (मेघ रूपी सैनिक) वर्षा की बूंदों के रूप में बाणों की घनघोर वर्षा कर रहे हैं । घटाएँ (सेनाएँ) चारों ओर से उमड़ती चली आ रही है ।

हे प्रिय! कामदेव रूपी शत्रु ने मुझे सब ओर से घेर लिया है । अब तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकते हो । यदि आप न आए तो मेरे प्राण संकट में हैं । (ऐसे कामोद्दीपक वातावरण में जब) मेंढ़क, मोर और कोयल बोलते हैं, तो हे प्रियतम! मुझ पर बिजली-सी गिरती है, जिससे मेरे शरीर में प्राण नहीं रहते (अर्थात् प्राण निकलने से लगते हैं । ) । पुष्य नक्षत्र भी अब सिर पर आ गया है (अर्थात् शीघ्र ही लगने वाला है, जबकि और भी मूसलाधार वर्षा होगी) । अब मेरे घर को कौन छवाएगा । क्योंकि मैं तो पति के बिना सर्वथा असहाय हो रही हूँ । आर्द्रा नक्षत्र लग गया है, जिसकी घनघोर वर्षा से खेत पानी से भर गए हैं । प्रियतम के बिना मुझे अब आदर-सम्मान कौन देगा? जिन स्त्रियों के पति घर पर हैं, वे ही सुखी और प्रसन्न हैं एवं अपने सौभाग्य पर गर्व का अनुभव कर सकती हैं । मेरे प्रियतम (पति) तो बाहर हैं, इसलिए मैं सारा सूख भूल गई हूँ ।
काव्य-सौन्दर्य- (1) कवियों में प्राचीनकाल से ही नायिका के वियोग-वर्णन के प्रसंग में ‘बारहमासा’ की परम्परा रही है । तदनुसार ही महाकवि जायसी ने नागमती-वियोग वर्णन के बारहमासे का आरंभ आषाढ़ मास से किया है; क्योंकि वर्षाऋतु विरहिणी के लिए विशेष रूप से कष्टदायक होती है ।
(2) नागमती का एक साधारण नारी के रूप में वर्णन किया गया है । यही कारण है कि उसकी विरह-वेदना के साथ मानव-मात्र तादात्म्य का अनुभव कर सकता है ।
(3) भाषा- अवधी ।
(4) शैलीप्रबंध काव्य की मसनवी शैली ।
(5) छन्द- चौपाई और दोहा ।
(6) रस- विप्रलम्भ श्रृंगार ।
(7) अलंकार- सांगरूपक, उत्प्रेक्षा आदि ।
(8) भावसाम्य- तुलसीदास ने भी ऐसा ही भाव प्रकट किया है
जिय बिनु देह नदी बिनु वारी । तैसेइ नाथ पुरुष बिनु नारी॥


(घ) भा भादों………. ……………..पिउटेक॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में विरहवेदना में तड़पती हुई रानी नागमति ने भादों महीने के प्रारंभ होने पर अपनी वेदना के बढ़ने का वर्णन किया है ।
व्याख्या- भादों का महीना प्रारंभ हो गया है । जिसकी दोपहर सूर्य की गर्मी से तप्त है । भादों की रात बहुत अंधकारमय है (अर्थात भादों मास में सबसे अधिक अंधकारमय रात होती है । ) नागमती विरह वेदना से व्याकुल होकर कहती है हे प्रियतम! मेरा हृदयरूपी मन्दिर सूना हो गया है प्रिय अब आप वापस आकर उसमें बस जाओ (अर्थात् अब आप वापस लौट आओ) और अपना स्थान ग्रहण करो अब तो शयन की सेज भी मुझे नागिन के समान डसती है ।
मैं घर में खाट की पाट के समान अकेली रहती हूँ, जिसके नयन आपकी प्रतीक्षा में है, जिसका हृदय आपके वियोग में फटा जा रहा है (अर्थात मैं आपके दर्शनों के अभाव में मरी जा रही हूँ) वर्षा हो रही है जिसके कारण आकाश में बिजली चमकती है तथा बादल गरज-गरज कर मुझे डरा रहे है । इस विरह ने मेरे मन को हर लिया है (अर्थात् मुझे अब अपनी कोई सुध बुध नहीं है । हे प्रियतम! मघा नक्षत्र (वह नक्षत्र जो भाद्रपद कृष्ण पक्ष में लगकर घनघोर वर्षा करता है) में बादल घुमड़-घुमड़कर बरस रहे हैं तथा मेरे नयन छप्पर के छोर की भाँति बहे जा रहे हैं ।
हे प्रियतम! तुम्हारी धनि (पत्नि) भादों मास में (जब बादल बरसते हैं तथा चारों तरफ हरियाली है) सूख कर काँटा हो गई है जो अपने पति (प्रियतम) के वापस आने पर ही सींचित होंगी । हे प्रिय! पूरवा नक्षत्र (पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, जो भाद्रपद शुक्ल पक्ष में लगता है) भी लग गया है जिससे भूमि जल से पूरित हो गई है । परंतु मेरा तन तुम्हारे वियोग के कारण कंटीली झाड़ी के समान हो गया है । चारों तरफ पृथ्वी जल से भर गई है, और आकाश का अपनी प्रियतमा पृथ्वी से मिलन हो गया है परन्तु प्रियतम आपकी प्रियतमा का यौवन कठिनाई में है अब आप मेरी विनती स्वीकार कर वापस लौट आइए ।
काव्य-सौन्दर्य- (1) यहाँ जायसी ने भादों मास में पड़ने वाली भीषण गर्मी तथा अंधकारमय रात्रि का का वर्णन किया है ।
(2) रानी नागमती को एक विरह वेदना से व्याकुल साधारण स्त्री के रूप में दिखाया गया है ।
(3) भाषा- अवधी ।
(4) शैली- प्रबंध काव्य की मसनवी शैली ।
(5) छन्द- चौपाई और दोहा ।
(6) रस- विप्रलम्भ श्रृंगार ।
(7) अलंकार- अनुप्रास, पुनरूक्तिप्रकाश, अतिशयोक्ति ।

(ङ) कातिक सरद………………………………………………………………… ……………………………… सिर मेलि॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में कार्तिक के महीने में विरह में व्याकुल नागमती की दशा का मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है ।

व्याख्या- कार्तिक मास प्रारंभ हो गया है । जिसमें सर्दी प्रारंभ हो गई है तथा चाँद की चाँदनी से रात उजियारी हो गई है । संपूर्ण संसार शीतल हो गया है परन्तु मेरा (नागमती) का वियोग अभी भी बना हुआ है (क्योंकि मेरे प्रिय अभी तक वापस नहीं लौटे है) चौदस के चाँद का प्रकाश सब ओर फैल गया है जिससे धरती और आकाश सभी तरफ प्रकाश विद्यमान हैं परन्तु मेरा तनमन और सेज अग्नि के दाह में जल रहे हैं । चाँद की चाँदनी मुझ पर क्रोधित हो रही है । मुझे तो चारों तरफ अंधकार नजर आ रहा है क्योंकि मेरे प्रियतम विदेश गए हए (अर्थात् मेरे प्रियतम मेरे साथ नहीं, है) है ।
निष्ठर वह दिन भी आ गया है जब सारे संसार में त्योहार बनाए जा रहे है (अर्थात् सारे संसार में दीपावली का पर्व मनाया जा रहा है) । मेरी सखियाँ अपने प्रियजनों के साथ इस त्योहार को मनाते हुए झूम-झूमकर गीत गा रही है परन्तु मैं अपनी जोड़ी के बिछड़ने (अर्थात अपने प्रियतम के विरह के कारण) सूख रही (अर्थात् व्याकुल हो रही हूँ) हूँ । अब तो केवल मेरी यह मनोकामना है कि मेरे प्रियतम वापस आ जाए । मुझे तो अब विरह के अतिरिक्त दूसरा कोई दुःख नहीं है । सारी सखियाँ गा-गाकर तथा खेल-खेलकर दीपावली का त्योहार मना रही है । परंतु मैं अपने पति (प्रियतम) के बिना सिर पीट रही (अर्थात् शोक मना रही हूँ) हूँ ।
काव्य सौन्दर्य- (1) यहाँ कवि ने कार्तिक मास में पड़ने वाली हलकी ठंड तथा चाँद की चाँदनी का वर्णन किया है ।
(2) यहाँ कवि ने नारी के सुलभ मन का वर्णन किया है जिसे अपने प्रियतम के बिना त्योहार भी आनन्द प्रदान नहीं करते ।
(3) भाषाअवधी । (4) शैली- प्रबंध काण्य की मसनती शैली । ‘
(5) छन्द- चौपाई और दोहा ।
(6) रस- विप्रलभ शृंगार ।
(7) अलंकारअनुप्रास, उपमा ।


(च) लागे उमाघ…………………………….. — उड़ावा झोल॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- प्रस्तुत पद्य में माघ मास में पड़ने वाली सर्दी का वर्णन किया गया है जो नागमती की विरह वेदना को बढ़ाता है । व्याख्या- माघ का महीना लग गया है, जिसके कारण पाला पड़ना आरंभ हो गया है और मेरा विरह काल इस जाड़े के मौसम में भी जारी हैं पहले-पहले तो मैंने अपने शरीर को रूई से ढक लिया था (अर्थात् रजाई से ढक लिया था) परंतु इस कँपकँपाती हुई ठंड में मेरा हृदय भी काँप रहा है । मुझे इस ठंड में रजाई में भी ताप नहीं प्राप्त हो रहा है परंतु हे प्रियतम! तुम्हारे बिना इस माघ मास की ठंड से मुझे छुटकारा नहीं मिलने वाला (अर्थात् मेरी सारी कठिनाईयों का अंत केवल आप ही कर सकते) हैं ।
इस माघ मास में ही वसंत में खिलने वाले पुष्पों का मूल बनना प्रारंभ हो जाता है और केवल आप ही मेरे लिए भँवरे के समान है जो मेरे यौवन को फूल के समान जीवित कर सकते (अर्थात् केवल आप ही मुझे नवजीवन प्रदान कर सकते) हैं । मेरे नयनों से माघ मास में लगने वाली वर्षा की झड़ी के समान जल बह रहा है (अर्थात् मैं आपकी याद में व्याकुल होकर अश्रु बहा रही) हूँ । तुम्हारे बिना मुझे शरीर का प्रत्येक अंग कटता हुआ प्रतीत होता है । टप-टप करती वर्षा की बूंदें ओलों के समान प्रतीत होती है
और विरह में ठंडी पवन मुझे टक्कर मारती प्रतीत होती है । हे प्रिय! अब मैं किसके लिए श्रृंगार करूँ, किसके लिए नववस्त्र पहनूँ? तुम्हारे वियोग में मुझे कुछ भी प्रिय नहीं लगता । हे प्रिय! तुम्हारे वियोग में तुम्हारी पत्नि का हृदय तिनकों के समूह की भाँति डोलता है (अर्थात भयभीत रहता है । ) इस पर विरह की अग्नि मुझे जलाकर मेरी भस्म को चारों ओर उड़ाने को तैयार है । काव्य-सौन्दर्य- (1) नागमती की विरह वेदना का कवि ने बहुत ही हृदयस्पर्शी वर्णन किया है ।
(2) भाषा- अवधी ।
(3) शैली- प्रबंध काव्य की मसनवी शैली ।
(4) छन्द- चौपाई और दोहा ।
(5) रस- विप्रलम्भ श्रृंगार ।
(6) अलंकार- अनुप्रास, पुनरूक्तिप्रकाश ।

(छ) भा बैसाख………………………………………सींचै आइ॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- इस पद्यांश में वैशाख के महीने में विरहिणी नागमती की वियोग दशा का मर्मस्पर्शी अंकन हुआ है ।

व्याख्या- वैशाख मास की प्रचण्ड गर्मी में अपनी दशा का वर्णन करती हुई विरहिणी नागमती कहती है कि वैशाख लगते ही ग्रीष्म का ताप प्रचण्ड हो उठता है । इसमें चोआ नामक सुगन्धित द्रव्य, हल्के वस्त्र एवं शीतल चन्दन का लेप भी शीतलता के स्थान पर दाह उत्पन्न कर रहे हैं । गर्मी इतनी अधिक है कि सूर्य तक उससे व्याकुल होकर हिमालय की ओर (शीतलता की खोज में) चला गया है । अर्थात् दक्षिणायन से अब उत्तरायण हो गया है, किन्तु (उस सूर्य से भी कहीं भयंकर) विरहरूपी वज्राग्नि ने अपना रथ सीधा मेरी ओर चला दिया है । (उस असह्य ताप से मैं कैसे अपनी रक्षा करूँ, इसलिए आपसे प्रार्थना है कि) हे प्रियतम! इस वज्राग्नि में जलती हुई मुझ पर छाया कीजिए और विरहरूपी अगारों में दग्ध होती हुई मुझे, बचाने के लिए आकर उन विरहरूपी अंगारों को बुझाइए । आपके दर्शन पाते ही आपकी यह पत्नी तत्काल शीतल हो जाएगी ।

अतः आप दर्शन देकर मुझ आग में जलती हुई को (संयोगरूपी) फूलवारी में पहुँचा दीजिए । इस समय मैं भाड़ में पड़े दाने के समान भुन रही हूँ । भाड़ बार-बार उस दाने को भूनता है, पर दाना उसकी जलती हुई बालू को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार मैं विरह द्वारा बार-बार पूँजे जाने पर भी उस विरह को नहीं छोडूंगी । अर्थात् आपके प्रति अपनी एकनिष्ठता के कारण आपका विरह भी सहन करूँगी, पर आपका ध्यान नहीं छोडूंगी; मेरा हृदयरूपी सरोवर विरह के ताप से उत्तरोत्तर सूखता जा रहा है तथा शीघ्र ही खंड-खंड होकर टूटने वाला है । इस फटते हुए हृदय को सहारा दीजिए और अपनी दृष्टिरूपी प्रथम वर्षा से उसकी फटन को मिलाकर एक कर दीजिए । मानसरोवर में जो कमल खिला था, वह जल के अभाव में सूख गया । आपके संपर्क में आकर मुझे जो प्रेम मिला था, अब वहीं विरह के कारण नष्ट होता जा रहा है । वह बेल फिर हरी-भरी हो सकती है, यदि प्रिय स्वयं आकर उसे सींचें ।
काव्य-सौन्दर्य- (1) जायसी का यह पद्य अपनी मार्मिकता एवं काव्यात्मकता के कारण विख्यात है । यहाँ हम कवि को वेदना के स्वरूप-विश्लेषण में प्रवृत्त पाते हैं ।
(2) ‘सरवर हिया ………… — मेरवहु एका’ में कवि द्वारा प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण तथा असाधारण भावुकता प्रकट होती है ।
(3) भाषा- अवधी ।
(4) शैली- प्रबंध काव्य की मसनवी शैली ।
(5) छन्द- चौपाई तथा दोहा ।
(6) रस- विप्रलम्भ शृंगार ।
(7) अलंकार- अतिशयोक्ति, हेतूत्प्रेक्षा, उपमा, सांगरूपक और अन्योक्ति ।

(ज) तपै लागि…………….. आइ बसाउ॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने जेठ-आषाढ़ के दिनों में नागमती की मनोस्थिति का वर्णन किया है ।

व्याख्या- जेठ-आसाढ़ माह में भीषण गर्मी के कारण दिन तपने लगे हैं । प्रियतम के बिना मेरा जी नहीं लग रहा है । अब तो मेरा शरीर तिनको के समूह के समान सूख गया है । इस समय तो आने वाली वर्षा भी मेरे दुःख को बढ़ा रही है । अब तो साहस को बाँधने वाली रस्सी भी कोई सहायक सिद्ध नहीं हो रही है । अब तो बात-बात में मुझे रूलाई आ रही है । संसार का नियम है कि वह संपन्न और सुखी व्यक्तियों के ही आगे-पीछे घूमता है । जो अपना सब कुछ गंवाकर रिक्त हो चुका हो, उसकी कोई बात तक नहीं पूछता । इसी बात को आधार बनाते हुए नागमती कहती है कि पति ही नारी का सर्वस्व होता है ।
पति के बिना नारी सर्वस्व गँवाई हुई दीन-निर्धन व्यक्ति के सदृश हो जाती है, जिसे घर-परिवार-समाज और संसार में भी कोई आदर सम्मान नहीं देता । मेरी भी आज ऐसी ही दशा हो रही है । मुझ दुखिया की विनती कोई नहीं सुन रहा है । अब तो खम्भे के ऊपर से कड़ी भी हट गई है । (अर्थात् मैं आश्रयहीन हो गई हूँ । ) और चारों तरफ मेघ बरस रहे हैं, जिससे घर की छत चू रही है जिसके कारण पानी की आवाज हो रही है । अब तो घर के छप्पर में नया ढाँचा बनाना है परंतु प्रिय तुम्हारे बिना यह कार्य कौन करेगा । (अर्थात प्रिय घर की स्थिति बहुत दयनीय है जिसे आकर तुम ही ठीक कर सकते हो) । हे निष्ठुर प्रियतम! अब तो आप मेरी तरफ ध्यान दीजिए और घर वापस आ जाइए । आपका घर रूपी मन्दिर उजड़ने ही वाला है अतः आप आकर पुन: इसे संभाल कर बसा दीजिए ।
काव्य-सौन्दर्य- (1) कवि ने नागमती को एक साधारण पत्नी के रूप में प्रदर्शित कर उसके संसार को बचाने की प्रार्थना की है । (2) भाषा- अवधी ।
(3) शैली- प्रबन्ध काव्य की मसनवी शैली ।
(4) छन्द- चौपाई और दोहा ।
(5) रस- विप्रलम्भ शृंगार ।
(6) अलंकार- पुनरूक्तिप्रकाश अनुप्रास, उपमा ।


2 — निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) तपनि मृगसिराजै सहैं, ते अद्रा पलुहंत॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘मलिक मुहम्मद जायसी’ द्वारा रचित ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।
प्रसंग- विरह व्यथिता नागमती को उसकी सखियाँ समझाती हैं कि जो लोग पहले कष्ट उठाते हैं, वे ही बाद में सुख पाते हैं ।
व्याख्या- मृगशिरा नक्षत्र (ज्येष्ठ शुक्लपक्ष के पन्द्रह दिन) में जो भीषण ग्रीष्मताप सहन करते हैं, वे ही आर्द्रा नक्षत्र (आषाढ़ कृष्णपक्ष के पन्द्रह दिन) में वर्षा से शीतलता पाकर पल्लवित होते हैं, फलते-फूलते हैं । भाव यह है कि जीवन में जो साधना करते हैं और कष्ट भोगते हैं, उन्हें ही आगे सुख मिलता है; क्योकि दुःख सहकर ही सुख की प्राप्ति होती है । अतः आप (नागमती) यदि आज विरह से सन्तप्त हैं तो कल को निश्चय ही प्रियागम से अत्यधिक हर्षित होगी । विरह के बाद मिलन अत्यधिक अनुरागवर्द्धक होता है ।

(ख) जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- यहाँ पर विरहिणी नागमती के मुख से नारी-जीवन में पति की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है ।

व्याख्या- संयोगकाल की रूपगर्विता नागमती विरह में अत्यन्त सामान्य नारी के रूप में दिखाई देती है । उसके पति राजा रत्नसेन पद्मावती को पाने के लिए योगी बनकर सिंहलगढ़ की ओर चले गए हैं । लंबे समय तक न लौटने पर रानी नागमती शंकित होती है तथा विरह की अग्नि में जलने लगती है । आर्द्रा नक्षत्र के उदय होने पर घनघोर वर्षा होती है । ऐसे वातावरण में उसकी विरह-वेदना और भी बढ़ जाती है । वह अनुभव करती है कि जिन स्त्रियों के पति घर पर होते हैं, वे ही सुखी होती हैं । उन्हीं को पत्नी होने का गौरव प्राप्त होता है । विरहिणियों को तो दुःखी जीवन ही बिताना पड़ता है ।

(ग) कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब॥

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- विरह व्यथिता नागमती के मुख से नारी-जीवन में पति की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है ।
व्याख्या- राजा रत्नसेन पद्मावती को पाने के लिए योगी बनकर सिंहलगढ़ की ओर चले गए हैं । लंबे समय तक न लौटने पर रानी नागमती शंकित होती है तथा विरह की अग्नि में जलने लगती है । वर्षा होने पर उसकी विरह-वेदना और बढ़ जाती है । वह अनुभव करती है कि जिन स्त्रियों के पति घर पर होते हैं । वे ही सुखी होती है । उन्हीं को पत्नी होने का गौरव प्राप्त होता है । मेरे पति बाहर है तो मैं तो सभी सुख भूल गई हूँ ।

(घ) पिउ सौ कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग!
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- विरहिणी नागमती अपनी विराहावस्था का संदेश अपने प्रियतम तक पहुँचाने के लिए भौरे और कौए को अपना दूत बनाती हुई उनसे ये पंक्तियाँ कहती है ।

व्याख्या- अपने प्रियतम से विरह के कारण नागमती अत्यन्त दुर्बल हो गई है । प्रियतम के विदेश में रहने के कारण उसने शृंगार करना भी छोड़ दिया है । इसी शारीरिक दुर्बलता और शृंगारहीनता के कारण उसका रंग काला हो गया है । अपनी इसी अवस्था का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करती हुई नागमती भौरे और कौए से कहती है कि हे भौरे! हे कौए! तुम मेरे प्रियतम को जाकर यह संदेश देना कि तुम्हारी प्रियतमा नागमती तुम्हारी विरहाग्नि में सुलग-सुलगकर जल मरी है । उसके सुलगने से उठे धुएँ की कालिमा के लगने से ही हमारा रंग काला हो गया है ।


(ङ) कबहुँबेलि फिरि पलुहै,जौ पिउसींचै आइ॥
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- इस पंक्ति में वैशाख के महीने में विरहिणी नागमती की वियोग दशा का मर्मस्पर्शी अंकन हुआ है ।
व्याख्या- मानसरोवर में जो कमल खिला था, वह जल के अभाव में सूख गया । आपके संपर्क में आकर मुझे जो प्रेम मिला था अब वही विरह के कारण नष्ट होता जा रहा है । वह बेल फिर हरी-भरी हो सकती है, यदि प्रिय उसे स्वयं आकर सींचे ।

अन्य परीक्षोपयोगीप्रश्न
1 — ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ अत्यन्त हृदयस्पर्शी है । उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर — – ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित एक भावात्मक एवं हृदयस्पर्शी काव्यांश है । जिसमें कवि ने चित्तौड़ के राजा रत्नसेन की रानी नागमति की अपने पति के वियोग के कारण विरह वेदना का वर्णन किया है । जिसमें रानी अपनी सखियों से कहती है कि जिस प्रकार विष्णु ने राजा बलि को, इन्द्र ने कर्ण को, राजा गोपीचंद को योगी जलन्धरनाथ ने, तथा अक्रूर ने कृष्ण को मथुरा ले जाकर गोपियों को छला था उसी प्रकार हीरामन नाम के तोते ने मुझे छल लिया है । यह तोता मेरे लिए कालरूप बनकर आया था, जो प्रियतम को साथ ले गया । नागमती कहती है कि जब से मेरे प्रियतम गए है मेरा मन बस प्रियतम-प्रियतम की रट लगाए हुए है । नागमती वर्ष के बारह महीनों में अपनी विरह-वेदना का वर्णन करती हुई कहती है
आषाढ मास में आकाश में मेघ गरज रहे है, जो ऐसे प्रतीत हो रहे जैसे कामदेव ने विरहणियों पर अपनी सेना द्वारा आक्रमण कर दिया है । भादों मास की अंधियारी रात्रि में मुझे तो सेज भी नागिन के समान डस रही है । नागमती कहती है कि हे प्रियतम! आपके वियोग के कारण कार्तिक मास में आने वाली दीपावली के त्योहार पर भी मुझे शोक हो रहा है । इस प्रकार कवि ने
नागमती के माध्यम से हृदय को स्पर्श करने वाली अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है ।


2 — कविने नागमती के सावन मास के वियोग का वर्णन किस प्रकार किया है?
उत्तर — – कवि ने सावन के महीने में नागमती के वियोग का वर्णन करते हुए कहा है कि सावन में घनघोर वर्षा के कारण पानी बरस रहा है । परन्तु यह वर्षा भी मुझे विरह के कारण कष्ट प्रदान कर रही है । अब तो पुर्नबसु नक्षत्र भी लग गया है परन्तु मैं अपने प्रियतम के दर्शन नहीं कर पाई हूँ । अपने पति के वियोग में मैं बावली हो गई हूँ । मेरी आँखों से आँसू टूट-टूटकर बह रहे हैं, मेरे आँसू ऐसे बह रहे हैं जैसे-रेंग-रेंगकर इन्द्रवधू नामक कीट चलता हैं । मेरी सखियों ने अपने प्रियतमों के साथ झूलने के लिए हिंडोले की रचना की है । अब भूमि पर भी ललछौंही लिए पीली हरियाली फैली हुई है । अब हिंडोले के समान मेरा मन भी डोल रहा है जो मुझे विरह को भुलाने के लिए झकझोर रहा है । मुझे अपने प्रियतम की राह देखते-देखते बहुत दिन हो गए है, मेरा मन अब भंभीरी के समान (एक कीट, जो वर्षाकाल में भन भन करता है । ) इधर-उधर घूम रहा है । प्रियतम मुझे तो जग ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे इसमें आग लग गई है । और मेरी जीवन रूपी नाव बिना नाविक के (अर्थात आपके वियोग में) थक कर समाप्त होने वाली है ।


प्रश्न— ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ के आधार पर मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।
उत्तर — – मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताएँ निम्न हैं
भावपक्ष की विशेषताएँरस योजना- ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ जायसी जी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ का एक अंश है । इस महाकाव्य में कवि ने शृंगार के दोनों पक्षों का वर्णन किया है । परन्तु ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ में कवि ने श्रृंगार के विप्रलम्भ रूप का वर्णन किया है । विरह-वर्णन-जायसी का विरह वर्णन अद्वितीय है । नागमती के विरह का वर्णन करने में यद्यपि उन्होंने अत्युक्तियों का सहारा भी लिया है, पर उसमें जो वेदना की तीव्रता है, वह हिन्दी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है । पति के प्रवासी होने पर नागमती बहुत दु:खी है । वह सोचती है कि वे स्त्रियाँ धन्य हैं, जिनके पति उनके पास हैं
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्व । कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भुला सर्ब॥


रहस्यवाद- कविवर जायसी ने अपने महाकाव्य में लौकिक प्रेम के माध्यम से आलौकिक प्रेम का चित्रण किया है । नागमती का हृदयद्रावक संदेश निम्न पंक्तियों में दृष्टव्य है
पिउ सौ कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग ।
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि कधुवाँ हम्ह लाग॥

प्रकृति चित्रण- ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ में बारहमासा रचकर कवि ने प्रकृति का बहुत ही उत्कृष्ट चित्रण किया है । भावपक्ष के उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि जायसी वास्तव में रससिद्ध कवि हैं । कलापक्ष की विशेषताएँ- भावपक्ष के साथ जायसी का कलापक्ष भी पुष्ट, परिमार्जित और प्रांजल है, जिसका विवेचन निम्नवत् हैछन्दोविधान- जायसी जी ने ‘नागमती-वियोग-वर्णन’ में दोहा-चौपाई पद्धति अपनाई है । इसमें कवि ने चौपाई की सात पंक्तियों के बाद एक दोहा रखा है ।

भाषा- जायसी की भाषा ठेठ अवधी है । इसमें बोलचाल की अवधी का माधुर्य पाया जाता है । कहीं-कहीं शब्दों को तोड़-मरोड़ दिया गया है और कहीं एक ही भाव या वाक्य के कई स्थानों पर प्रयुक्त होने के कारण पुनरुक्ति दोष भी आ गया है । शैली- जायसी ने प्रबन्ध काव्य की मसनवी शैली को अपनाया है । इन्होंने चौपाई और दोहा छन्दों में भाषा-शैली का सुंदर निर्वाह किया है । अलंकार- अलंकारों का प्रयोग जायसी ने काव्य-प्रभाव एवं सौन्दर्य के उत्कर्ष के लिए ही किया है, चमत्कार प्रदर्शन के लिए नहीं । आषाढ़ के महीने के घन गर्जन को विरहरूपी राजा के युद्धघोष के रूप में प्रस्तुत करते हुए बिजली में तलवार का और
वर्षा की बूंदों में बाणों की कल्पना कर सुंदर रूपक का उदाहरण प्रस्तुत किया है ।


4 — “प्रकृति में बदलाव के साथ नागमतीकी विरह-व्यंजनाका स्वरूप भी बदलता रहा है । “इस कथन की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर — – प्रकृति में बदलाव के साथ-साथ नागमती की विरह-व्यंजना का स्वरूप भी बदलता रहा है यह कथन सत्य है । कवि जायसी ने नागमती के विरह के बारह मासों का वर्णन किया है जिसमें प्रकृति में आए बदलावों के साथ-साथ नागमती की विरह की पीड़ा भी बदलती रही है । जैसे आषाढ़ मास में बरसते बादलों के बीच चमकने वाली बिजली उसे अपने शत्रु कामदेव की तलवार जैसी दिखाई देती है । भादों मास की अंधियारी रात में सेज उसे नागिन के समान डसती है आदि ।

काव्य-सौन्दर्य से संबंधित प्रश्न
1 — “सारस-जोरी……………..मोहि दीन्ह॥”पंक्तियों में निहित रस तथा उसका स्थाई भाव लिखिए ।
उत्तर — – प्रस्तुत पंक्तियों में विप्रलम्भ शृंगार रस है जिसका स्थाई भाव रति है ।
2 — “यह तन ………………. — जहँ पाव॥”पंक्तियाँ किस छंद पर आधारित है? उत्तर — – प्रस्तुत पंक्तियाँ दोहा छन्द पर आधारित है ।
3 — “कवल जो बिगसा…………….सींचै आइ॥”पंक्तियों में निहित अलंकार का नाम लिखिए ।
उत्तर — – प्रस्तुत पंक्तियों में अतिशयोक्ति तथा उपमा अलंकार निहित है ।

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