Up Board Solution For Class 9 Sanskrit Gady Bharti Chapter 4 बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः

Up Board Solution For Class 9 Sanskrit Gady Bharti Chapter 2 अस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि

Up Board Solution For Class 9 Sanskrit Gady Bharti Chapter 4 बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः

UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 9 SANSKRIT chapter 2 अस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि

BoardUP Board
TextbookUP Board
ClassClass 9
SubjectSanskrit
ChapterChapter 4
Chapter Nameअस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि (गद्य – भारती)
CategoryUP Board Solutions

बन्धुत्वस्य सन्देष्टा रविदासः

परमोपासकस्य रामानन्दस्य द्वादशशिष्या आसन्निति भण्यते । तेषु शिष्येषु रविदासो लोके रैदास इति संज्ञया ख्यात एकः शिष्यः आसीदित्युच्यते । रविदासस्य जन्म काश्यां माण्डुरनाम्नि (मडुवाडीह) ग्रामे एकसप्तत्युत्तरचतुर्दशशततमे (१४७१ वि०) विक्रमाब्दे माघमासस्य पूर्णिमायान्तिथौ रविवासरेऽभवत् । रविवासरे तस्य जन्म इति हेतोः रविदास इति नाम जातमित्यनुमीयते ।


अनुवाद:– महान् उपासक रामानन्द के बारह शिष्य थे, ऐसा कहा जाता है । उन शिष्यों में रविदास संसार में रैदास नाम के प्रसिद्ध एक शिष्य थे, ऐसा कहा जाता है । रविदास का जन्म काशी में | मांडूर (मण्डुवाडीह) नामक ग्राम में विक्रम संवत् 1471 में माघ मास की पूर्णिमा तिथि को रविवार के दिन हुआ था । रविवार के दिन उनका जन्म हुआ, इस कारण ‘रविदास’ यह नाम हुआ, ऐसा अनुमान किया जाता है ।

पञ्चदश्यां शताब्दौ भारतीयजनजीवनमतीवक्लेशक्लिष्टमासीत् । यवनशासकैराक्रान्तो देशो, मिथः कलहायमानां भारतीयाः राजानः दुःखदैन्यग्रस्ताः, सर्वथोपेक्षिताः भारतीयजना: विविधधर्मानुयायिषु प्रवृत्तो विद्वेषः जातिवर्णेषु विभक्तो भारतीयसमाज इति देशदशां दर्शं दर्शं दूयमानहृदया: तदानीन्तना: महात्मानः सन्तश्चेश्वरमेव शरणमिति मन्यमाना ईश्वरम्प्रति समर्पिताः सन्तः परमात्मनो व्यापकत्वं तस्य सर्वशक्तिमत्वञ्च बोधयन्ति स्म ।

अनुवाद:– पन्द्रहवीं शताब्दी में भारतीय लोगों का जीवन कष्टों से अत्यधिक दुःखी था । मुसलमान शासकों से देश आक्रान्त (पीड़ित) था, आपस में झगड़ते हुए भारतीय राजा दुःख और दीनता से ग्रसित थे, भारतीय लोग सभी तरह से उपेक्षित थे, विविध धर्म के अनुयायियों में शत्रुता बढ़ी हुई थी, भारतीय समाज जातियों और वर्गों में बँटा हुआ था इस प्रकार देश की दशा को देख-देखकर दुःखित हृदय वाले तत्कालीन महात्मा और सन्त (MPBOARDNFO.IN ) ईश्वर ही शरण है ऐसा मानते हुए ईश्वर के प्रति समर्पित सन्त परमात्मा की व्यापकता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को समझाते थे ।

वस्तुतस्तु, तादृशा एव महापुरुषाः ‘सन्त’ शब्देन भारतीयजनमानसे समादृता अभवन् । ये परदुःखकातराः परहितरताः दुःखिजनसेवापरायणाः दलितान् शोषितान्प्रति सदयाः स्वसुखमविगणयन्तः यदृच्छालाभसन्तुष्टा आसन् ।

अनुवाद:– –वास्तव में भारतीय लोगों के मन में उसे प्रकार के महापुरुषों ने ही ‘सन्त’ शब्द से आदर प्राप्त किया, जो दूसरों के दु:खों, दूसरों की भलाई में लगे हुए, दुःखी लोगों की सेवा करने वाले, दलितों और शोषितों के प्रति दयावान्, अपने सुखों की परवाह न करके जैसा मिल गया, उस लाभ से सन्तुष्ट थे । ’

सत्पुरुषो महात्मा रविदासः स्वकर्मणि निरतः सन् परमात्मनो माहात्म्यमुपवर्णयन् दुःखितान् जनान्प्रति सदयहृदयः कर्मणः प्रतिष्ठां लोकेऽस्थापयत् । धर्मस्य बाह्याचारः एव परस्परवैरस्य हेतुरिति सः विश्वसिति स्म । अतो बाह्याचारान् परिहाय धर्माचरणं विधेयम् । गङ्गास्नानाच्छरीरशुद्धेरपेक्षया मनसः शुद्धिरावश्यकीति तेनोक्तम् । पूते तु मनसि काष्ठस्थाल्यामेव गङ्गेति तस्योक्तिः प्रसिद्धैवास्ति ।

अनुवाद:– सत् पुरुष महात्मा रविदास ने अपने कर्म में लगे हुए रहकर परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हुए, दु:खी लोगों के प्रति दयालु हृदय होकर संसार में कर्म की प्रतिष्ठा स्थापित की । वे ‘धर्म के बाहरी आचरण ही आपसी वैर के कारण ऐसा विश्वास करते थे । इसलिए बाहरी आचारे को छोड़कर धर्म का (MPBOARDNFO.IN ) आचरण करना चाहिए । गंगा स्नान से शरीर की शुद्धि की अपेक्षा मन की शुद्धि आवश्यक है, ऐसा उन्होंने बतलाया । मन के पवित्र रहने पर कठौती में ही गंगा है, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, उनकी यह उक्ति ही प्रसिद्ध है

रविदासः कस्याञ्चिदपि पाठशालायां पठितुं न गतोऽतस्तस्य ज्ञानं पुस्तकीयं नासीत् । जगतो नश्वरत्वं परमात्मनोऽनश्वरत्वं व्यापकत्वमित्यादिदार्शनिकं ज्ञानं गुरोरनुकम्पया तेन लब्धं प्रेरणयैव तथाभूतस्य ज्ञानस्योपदेशो जनेभ्यस्तेन दत्तः ।

अनुवाद:– रविदास किसी भी पाठशाला में पढ़ने के लिए नहीं गये, इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय नहीं था । उन्होंने संसार की नश्वरता, ईश्वर की नित्यता और व्यापकता आदि का दार्शनिक ज्ञान गुरु की कृपा से प्राप्त किया था । गुरु की प्रेरणा से ही उन्होंने लोगों को उस प्रकार के ज्ञान का उपदेश दिया ।

सः तपस्तप्तुं गहनं वनं न जगाम न वा गिरिगुहायामुपविश्य साधनरतः ज्ञानमधिगन्तुं चेष्टते स्म । वीतरागभयक्रोधोऽसौ जगति निवसन्नपि जगतः बन्धनात् पद्मपत्रमिव मुक्तः व्यवहरति स्म । स्वकर्मणि निरतः फलम्प्रति निराकाङ्क्षः स्वगृहेऽपि परमात्मानं साक्षात्कर्तुं शक्यत इति रविदासः प्रत्येति । अतो विभिन्नोपासनास्थलेषु वनेषु रहसि वा ईश्वरानुसन्धानादपेक्षया स्वहृदये एवानुसन्धातुमुचितम् । ईश्वरप्राप्तावहङ्कार एव बाधकोऽस्ति । ‘अहमिदं करोमि’ ममेदमिति बोधः भ्रमात्मकः । भ्रममपहायैव ईश्वरप्राप्तिः सम्भवा । रविदासः स्वरचिते पद्ये गायति-यदा अहमस्मि तदा त्वं नासि, यदा त्वमसि तदा अहं नास्मि

अनुवाद:– वे तपस्या करने के लिए घने जंगल में नहीं गये, न ही पर्वतों की गुफा में बैठकर साधना में लीन होकर ज्ञान को प्राप्त करने की चेष्टा की । राग, भय, क्रोध से रहित वे संसार में रहते हुए भी संसार के बन्धन से उसी प्रकार व्यवहार करते थे, जैसे कमल का पत्ता; अर्थात् जो जल में रहकर भी गीला नहीं होता है । अपने कर्म में लगे हुए फल के प्रति इच्छारहित होकर अपने घर में भी परमात्मा का साक्षात्कार किया जा (MPBOARDNFO.IN ) सकता है, रविदास ऐसा विश्वास करते थे । इसलिए विभिन्न पूजा-स्थलों में, वन में या एकान्त में ईश्वर को खोजने की अपेक्षा अपने हृदय में ही खोजना उचित है । ईश्वर की प्राप्ति में अहंकार ही बाधक है । मैं यह करता हूँ, यह मेरा है, यह ज्ञान भ्रमपूर्ण है । भ्रम को छोड़कर ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है । रविदास अपने रचित पद्य में गाते हैं-“जब मैं हूँ, तब तुम नहीं हो, जब तुम हो, तब मैं नहीं हूं । ”

रविदासः कबीरदासो नानकदेवप्रभृतयः सन्तो महात्मानः निर्गुणमेवेश्वरं गायन्ति स्म । परन्ते सगुणसम्प्रदायावलम्बिनः प्रति विद्वेषिणो नासन् । तैः रचितेषु पदेषु यत्र-तत्र भक्तिभावस्य तत्त्वमवलोक्यते ।

निराकाब्रह्मणः गहनभूते सुविस्तृते साक्षात्कारविचारनभसि विचरन्नपि रविदासः पृथ्वीतले विद्यमानेषु दुःखितेषु, दरिद्रेषु दलितेषु च सुतरां रमते स्म ।

अनुवाद:– रविदास, कबीरदास, नानक देव आदि सन्त-महात्मा निर्गुण ईश्वर का ही गान करते थे, परन्तु वे सगुण मत को मानने वालों के प्रति द्वेष नहीं रखते थे । उनके द्वारा बनाये गये पदों में यहाँ-वहाँ (स्थान-स्थान) पर भक्तिभावना का तत्त्व देखा जाता है ।

निराकार ब्रह्म के घने, अत्यन्त विस्तृत साक्षात्कार के विचाररूपी आकाश में विचरण करते हुए भी रविदास पृथ्वी तल पर विद्यमान दु:खी, दरिद्र और दलितों में अत्यधिक रमण (घूमते अर्थात् प्रेम) करते थे; अर्थात् निर्गुण ब्रह्म के साधक होते हुए भी दीन-दुःखियों से उतना ही प्रेम करते थे, जितना परमात्मा से । ।

स दलितेषु, दीनेषु, दरिद्रेष्वेवेश्वरमपश्यत् । तेषां सेवा, तान्प्रति सहानुभूति: प्रेमप्रदर्शनं चेश्वरार्चनमिति तस्य विचारः । सामाजिकवैषम्यं न वास्तविकं प्रत्युत परमात्मना सर्वे समाना एव रचिताः सर्वे च तस्येश्वरस्य सन्ततयोऽतः परस्परं बान्धवाः । मनुष्येषु तर्हि मिथः कथं वैरभावः ? इत्थं समत्वस्य बन्धुतायाश्चोपदेशं जनेभ्योऽददात् । जातिवर्णसम्प्रदायादिभेदा अपि मनुष्यरचिता परमात्मन इच्छाप्रतिकूलम् । इत्थं रविदासेन मनुष्यजातौ स्पृश्यास्पृश्यादिदोषाणामुच्चावचभेदानां चातीवतीव्रस्वरेण विरोधः कृतः । हरिं भजति स हरेर्भवति । हरिभजने न कश्चित्पृच्छति जातिं वर्णं वेति सत्यं प्रतिपादयन् देशस्याखण्डतायाः राष्ट्रस्यैक्यस्य च रक्षणे स प्रयातत् । महात्मा रविदासोऽध्यात्म, भक्तिं, सामाजिकाभ्युन्नतिं युगपदेव संसाधयन् सप्तनवत्युत्तरपञ्चदशशततमेविक्रमे राजस्थानप्रान्ते चित्तौड़गढनाम्नि स्थाने षड्विंशत्युत्तरशतमिते वयसि परमात्मनि विलीनः यशः शरीरेणाद्यापि जीवतितराम् ।

अनुवाद:– उन्होंने दलितों, दीनों और दरिद्रों में ईश्वर के दर्शन किये । उनकी सेवा, उनके प्रति सहानुभूति और प्रेम-प्रदर्शन ईश्वर की पूजा है, ऐसा उनका विचार था । सामाजिक असमानता वास्तविक नहीं है, अपितु ईश्वर ने सबको समान बनाया है और सब उस ईश्वर की सन्तान हैं; अतः आपस में भाई हैं । फिरे मनुष्यों में आपस में कैसी शत्रुता? इस प्रकार उन्होंने लोगों को समानता और बन्धुता का उपदेश दिया । जाति, वर्ण, सम्प्रदाय आदि के भेद भी मनुष्य के बनाये हैं, परमात्मा की इच्छा के विपरीत हैं । इस प्रकार रविदास ने मनुष्य जाति में छुआछूत आदि दोषों का, ऊँच-नीच के भेदों का अत्यन्त जोरदार शब्दों में खण्डन किया । जो हरि को भजता है, वह हरि का (MPBOARDNFO.IN ) होता है । हरि के भजने में कोई जाति या वर्ण को नहीं पूछता है-इस सत्य को बतलाते हुए देश की अखण्डता और राष्ट्र की एकता की रक्षा करने के लिए उन्होंने प्रयत्न किया । महात्मा रविदास अध्यात्म (आत्मा, परमात्मा का ज्ञान), भक्ति सामाजिक उन्नति को एक साथ ही सिद्ध करते हुए 1597 विक्रम संवत् में राजस्थान प्रान्त में चित्तौड़गढ़ नाम के स्थान पर 126 वर्ष की आयु में परमात्मा में विलीन हो गये, वे अपने यशः शरीर से आज भी जीवित हैं ।

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