Up Board Solution For Class 12 Civics chapter 1 Theories of the Origin of State राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त

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राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त (Theories of the Origin of State)

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1 – प्राकृतिक अवस्था में मानव-जीवन था
(क) एकाकी
(ग) सम्पत्तिहीन
(ख) बर्बर
(घ) ये सभी

2 – राज्य की उत्पत्ति का सबसे मान्य सिद्धान्त कौन-सा है?
(क) विकासवादी सिद्धान्त
(ख) सामाजिक समझौता सिद्धान्त
(ग) मातृक तथा पैतृक सिद्धान्त
(घ) दैवी सिद्धान्त

3 – किसके मतानुसार ईश्वर ने स्वयं राज्य की स्थापना की है?
(क) यहूदियों के
(ख) हिन्दुओं के
(ग) मुस्लिमों के
(घ) सिक्खों के

4 – पैतृक सिद्धान्त के प्रमुख व्याख्याकार कौन हैं?
(क) जे० जे० वेशोफैन
(ख) सर हेनरीमैन
(ग) स्मिथ
(घ) रूसो

5 – सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रणेता हैं-
(क) हॉब्स
(ख) लॉक
(ग) रूसो
(घ) ये सभी

उत्तर-

1 – (घ) ये सभी,
2 – (क) विकासवादी सिद्धान्त,
3 – (क) यहूदियों के,
4 – (ख) सर हेनरीमैन,
5 – (घ) ये सभी।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 . राज्य की उत्पत्ति के संबंध में प्रतिपादित प्रमुख सिद्धान्तों के नाम बताइए तथा दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का अर्थ भी बताइए |

उत्तर – – राज्य की उत्पत्ति के संबंध में प्रतिपादित प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(i) दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त
(ii) शक्ति का सिद्धान्त
(iii) सामाजिक समझौते का सिद्धान्त
(iv) ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त

दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त – राज्य की उत्पत्ति के संबंध में यह सिद्धान्त सबसे अधिक प्राचीन है । इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य मानवीय नहीं वरन् ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है । ईश्वर या तो यह कार्य स्वयं करता है या इस संबंध में अपने किसी प्रतिनिधि की नियुक्ति करता है । राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होने के नाते केवल उसी के प्रति उत्तरदायी होता हैं और राजा की आज्ञाओं का पालन प्रजा का परम पवित्र धार्मिक कर्तव्य है ।

2 . दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त की कोई पाँच आलोचनाएँ बताइए ।
उत्तर – – दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त की पाँच आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) यह सिद्धान्त अतार्किक है ।
(ii) दैवी सिद्धान्त अवैज्ञानिक व अनैतिहासिक है ।
(iii) यह सिद्धान्त रूढ़िवादी धारणा है ।
(iv) वर्तमान परिस्थितियों में दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त लागू नहीं होता है ।
(v) यह सिद्धान्त नास्तिकों के लिए निरर्थक है ।

3 . राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं?

उत्तर – – शक्ति का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य एक ईश्वरीय संस्था नहीं वरन् एक मानवीय संस्था हैं, जिसकी उत्पत्ति बल प्रयोग के आधार पर हुई हैं । बल प्रयोग ही राज्य की उत्पत्ति का कारण और वर्तमान समय में राज्य के अस्तित्व का आधार है राज्य उच्च शक्ति का परिणाम है और इसकी उत्पत्ति शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा निर्बल व्यक्तियों को अपने अधीन करने की प्रवृत्ति से हुई है । मानवीय विकास के प्रारम्भिक काल में जो व्यक्ति शक्तिशाली होता था वह अपनी शक्ति के प्रयोग द्वारा अन्य निर्बल व्यक्तियों को पराजित कर अपने अधीन कर लेता था । इस प्रकार अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाकर वह जनपद का नेता बन जाता था और तब वह अपने जनपद की सहायता से अन्य निर्बल जनपदों को अधीन करना प्रारम्भ करता था । विजय तथा अधीनता की इस प्रक्रिया का अन्त उस समय होता था जब विजयी जनपद के पास अपना एक निश्चित प्रदेश हो जाता था । यहीं से राज्य की उत्पत्ति हुई ।

4 . राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ।

उत्तर – – उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

5 . राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौते के सिद्धान्त से क्या आशय है?

उत्तर – – राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौते का सिद्धान्त- राज्य की उत्पत्ति के संबंध में सामाजिक समझौते का सिद्धान्त बहुत अधिक महत्वपूर्ण है । इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य दैवीय न होकर एक मानवीय संस्था है । जिसका निर्माण व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया गया है । इस सिद्धान्त के प्रतिपादक मानव इतिहास को दो भागों में विभाजित करते हैं-
(i) प्राकृतिक अवस्था का काल
(ii) नागरिक जीवन के प्रारम्भ का काल

इस सिद्धान्त के सभी प्रतिपादक अत्यन्त प्राचीनकाल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं जिसके अन्तर्गत जीवन को व्यवस्थित करने के लिए राज्य या राज्य जैसी अन्य संस्था नहीं थी । सिद्धान्त के विभिन्न प्रतिपादकों में इस प्राकृतिक अवस्था के संबंध में पर्याप्त मतभेद है । इस प्राकृतिक अवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार या प्राकृतिक नियमों के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते थे । प्राकृतिक अवस्था के संबंध में मतभेद होते हुए भी सभी मानते हैं । कि इन्हीं कारणों से मनुष्य प्राकृतिक अवस्था का त्याग करने को विवश हुए और उन्होंने समझौते द्वारा राजनीतिक समाज की स्थापना की ।

6 . सामाजिक समझौता सिद्धान्त की ऐतिहासिक आधार पर आलोचनाएँ बताइए

उत्तर – – सामाजिक समझौता सिद्धान्त की ऐतिहासिक आधार पर आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) प्राकृतिक अवस्था की धारणा गलत ।
(ii) समझौता अनैतिहासिक ।
(iii) राज्य विकास का परिणाम है, निर्माण का नहीं ।

7 . ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं?
उत्तर – – राज्य की उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार राज्य विकास का परिणाम है और राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त के द्वारा ही की गई है । राज्य का विकास एक लम्बे समय से चला आ रहा है और आदिकालीन समाज से क्रमिक विकास करते-करते इसने वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के स्वरूप को प्राप्त किया है । बर्गेस के अनुसार “राज्य मानव समाज का निरन्तर विकास है जिसका प्रारम्भ अत्यन्त अधूरे और विकृत उन्नतशील रूपों में अभिव्यक्ति होकर मनुष्यों के एक समग्र एवं सार्वभौम संगठन की ओर विकास हुआ है । ” जिस प्रकार भाषा प्राणियों की अर्थहीन बड़बड़ाहट से निकली है ठीक उसी प्रकार राज्य की उत्पत्ति बहुत प्राचीन और इतिहास से परे असभ्य समाज से हुई है ।

8 . राज्य की उत्पत्ति के ऐतिहासिक सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति के कोई दो प्रमुख तत्व बताइए ।
उत्तर – – राज्य की उत्पत्ति के ऐतिहासिक सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति के दो प्रमुख तत्व धर्म एवं मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियाँ हैं ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

1 . राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त का अर्थ एवं आलोचनाएँ बताइए ।

उत्तर – – दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त- राज्य की उत्पत्ति के संबंध में प्रचलित यह सिद्धान्त सबसे अधिक प्राचीन है । इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य मानवीय नहीं वरन् ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है । ईश्वर या तो यह कार्य स्वयं ही करता है या इस संबंध में अपने किसी प्रतिनिधि की नियुक्ति करता है । राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होने के नाते केवल उसी के प्रति उत्तरदायी होता है और राजा की आज्ञाओं का पालन प्रजा का परम पवित्र धार्मिक कर्तव्य है ।

सिद्धान्त के प्रमुख तत्व –

(i) राज्य शक्ति का प्रादुर्भाव ईश्वर द्वारा हुआ । ईश्वर ही राजाओं को शक्ति प्रदान करता है ।
(ii) राजसत्ता पैतृक होती है अर्थात् पिता के बाद पुत्र सत्ता का अधिकारी होता है ।
(iii) राज्य मानवीय कृति नहीं, वरन् ईश्वरीय सृष्टि है ।


(iv) राजाओं की आलोचना या निन्दा धर्म विरुद्ध है । इसी बात के आधार पर जेम्स प्रथम ने कहा था कि “ईश्वर क्या करता है, इस पर विवाद करना नास्तिकता तथा पाखण्ड है । इसी प्रकार प्रजा के हृदय में राजा के कार्यों के प्रति आलोचना का भाव होना अथवा उसके द्वारा यह कहा जाना कि राजा यह कर सकता है और यह नहीं कर सकता राजा का अपमान, अनादर और तिरस्कार करना है । “


(v) जिस प्रकार ईश्वर का प्रत्येक कार्य अनिवार्य रूप से सृष्टि के हित में होता है उसी प्रकार राजा के सभी कार्य ठीक, न्याय संगत और आवश्यक रूप से जनता के हित में होते हैं । सिद्धान्त की आलोचना- राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त एक लम्बे समय तक प्रचलित रहा, किन्तु आज के वैज्ञानिक और प्रगतिशील संसार में इसे अस्वीकार कर दिया गया है । वस्तुतः सैद्धान्तिक और व्यवहारिक दोनों ही आधारों पर यह सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण है । इसकी प्रमुख रूप से निम्नलिखित आलोचनाएँ की जाती हैं-

(i) अतार्किक – हमारे धार्मिक ग्रन्थ यही बताते हैं कि ईश्वर प्रेम और दया का भण्डार है, लेकिन व्यवहार के अन्तर्गत अनेक राजा बहुत अधिक अत्याचारी और दुष्ट प्रकृति के होते हैं । इन दुष्ट राजाओं को प्रेम और दया के भण्डार ईश्वर का प्रतिनिधि कैसे कहा जा सकता है? ऐसी परिस्थितियों में दैवी सिद्धान्त नितान्त अतार्किक हो जाता है । प्रारम्भ में चर्च के पादरियों का मत था कि ईश्वर द्वारा बुरे राजा को जनता को दण्ड देने के लिए भेजा जाता है । परन्तु जनता चाहे कितनी ही पापी क्यों न हो, नैतिकता के किसी भी सिद्धान्त के अनुसार बुरे राजा ईश्वरीय नहीं हो सकते हैं ।

(ii) अवैज्ञानिक व अनैतिहासिक- यह सिद्धान्त अवैज्ञानिक, अनैतिहासिक तथा मानवीय अनुभव के विरुद्ध है । वस्तुतः राज्य एक मानवीय संस्था है तथा राज्य के कानूनों का निर्माण व उन्हें लागू करना मनुष्य का ही कार्य है । इतिहास में इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि राज्य ईश्वरकृत है । गिलक्राइस्ट के शब्दों में, “यह कहना कि परमात्मा इस या उस मनुष्य को है राजा बनाता है अनुभव एवं साधारण ज्ञान के सर्वथा प्रतिकूल है । ‘ “

(iii) रूढ़िवादी धारणा – दैवी सिद्धान्त को स्वीकार करने का परिणाम यह होगा कि राज्य को पवित्र पावन संस्था समझकर उसके स्वरूप में आवश्यकतानुसार परिवर्तन नहीं किए जा सकेंगे । राज्य का अपरिवर्तित रूप मानव जीवन के लिए उपयोगी नहीं रहेगा । (iv) वर्तमान परिस्थितियों में लागू नहीं- वर्तमान समय के प्रजातन्त्रात्मक राज्यों में राज्य के प्रधान को जनता के द्वारा निर्वाचित किया जाता है, अतः इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कि राजा को ईश्वर नियुक्त करता है नितान्त अवास्तविक एवं काल्पनिक हो जाता है ।

(v) राजा स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश हो जाएगा- राजा की ईश्वर की जीवित प्रतिमाएँ मानने का स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि राजा स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश हो जाएगा । इतिहास इस बात का साक्षी है कि अपने आपको ईश्वर का अंश कहने वाले शासकों ने जनता पर अनेक अत्याचार किए और उन्हें ईश्वरीय प्रकोप से डराकर उन पर निरंकुशता का व्यवहार किया ।

(vi) नास्तिकों के लिए निरर्थक- राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त ईश्वर में आस्था रखने वाले व्यक्तियों के लिए राजा की आज्ञापालन का आधार बन सकता है । लेकिन नास्तिक व्यक्ति राजा की आज्ञाओं का पालन क्यों करें, इसके लिए इस सिद्धान्त में कोई आधार प्रस्तुत नहीं किया गया है ।

महत्व – यद्यपि आज दैवी सिद्धान्त को अस्वीकार किया जा चुका है, लेकिन प्रारम्भिक काल में जब मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक अंग को धर्म से सम्बद्ध समझता था, यह सिद्धान्त अत्यन्त मूल्यवान सिद्ध हुआ । राज्य को दैवी संस्था और राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर इस सिद्धान्त ने प्रारम्भिक व्यक्ति को राज भक्ति एवं आज्ञापालन का पाठ पढ़ाया । इस प्रकार इस सिद्धान्त के द्वारा व्यवस्थित जीवन की नींव रखी गई । गिलक्राइस्ट ने कहा है कि “यह सिद्धान्त चाहे कितना ही गलत और विवेकशून्य क्यों न हो, अराजकता के अन्त का श्रेय इसे अवश्य ही प्राप्त है । “

इस सिद्धान्त का इस दृष्टि से भी महत्व है कि यह राजनीतिक व्यवस्था के नैतिक आधार पर जोर देता है । राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है यह बात असत्य होते हुए भी इसमें इस बात की ध्वनि मिलती है कि शासक का ईश्वर के प्रति नैतिक उत्तरदायित्व होता है । और इसलिए शासन की शक्ति का प्रयोग उचित रूप से ही किया जाना चाहिए ।

Up Board Solution For Class 12 Civics chapter 1 Theories of the Origin of State राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त

2 . राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त का वर्णन कीजिए ।

उत्तर – – सामाजिक समझौते का सिद्धान्त- राज्य की उत्पत्ति के संबंध में सामाजिक समझौता सिद्धान्त बहुत अधिक महत्वपूर्ण है । 17वीं और 18वीं सदी की राजनीतिक विचारधारा में तो इस सिद्धान्त का पूर्ण प्राधान्य था । इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य दैवीय न होकर एक मानवीय संस्था है, जिसका निर्माण व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया गया है । इस सिद्धान्त के प्रतिपादक मानव इतिहास को दो भागों में बाँटते हैं-

(i) प्राकृतिक अवस्था का काल तथा
(ii) नागरिक जीवन के प्रारम्भ के बाद का काल ।

इस सिद्धान्त के सभी प्रतिपादक अत्यन्त प्राचीनकाल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं जिसके अन्तर्गत जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए राज्य या राज्य जैसी अन्य संस्था नहीं थी । सिद्धान्त के विभिन्न प्रतिपादकों में इस प्राकृतिक अवस्था के संबंध में पर्याप्त मतभेद हैं, कुछ इसे ‘पूर्व सामाजिक’ और कुछ इसे ‘पूर्व राजनीतिक’ अवस्था कहते हैं । इस प्राकृतिक अवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार या प्राकृतिक नियमों के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते थे । प्राकृतिक अवस्था के संबंध में मतभेद होते हुए भी यह सभी मानते हैं कि किन्हीं कारणों से मनुष्य प्राकृतिक अवस्था का त्याग करने को विवश हुए और उन्होंने समझौते द्वारा राजनीतिक समाज की स्थापना की ।

इस समझौते के परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति की प्राकृतिक स्वतन्त्रता आंशिक या पूर्णरूप से लुप्त हो गई और स्वतन्त्रता के बदले उसे राज्य व कानून की ओर से सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त हुआ । व्यक्तियों को प्राकृतिक अधिकार के स्थान पर सामाजिक अधिकार प्राप्त हुए । लीकॉक के शब्दों, “राज्य व्यक्ति के स्वार्थों द्वारा चालित एक ऐसे आदान-प्रदान का परिणाम था जिससे व्यक्तियों ने उत्तरदायित्वों के बदले विशेषाधिकार प्राप्त किए । “

सिद्धान्त का विकास – समझौता सिद्धान्त राजनीतिक दर्शन की ही तरह ही पुराना है तथा इसे पूर्व और पश्चिम दोनों ही क्षेत्रों से समर्थन प्राप्त हुआ है । महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ में इस बात का वर्णन मिलता है कि पहले राज्य न था उसके स्थान पर अराजकता थी । ऐसी स्थिति में तंग आकर मनुष्यों ने परस्पर समझौता किया और मनु को अपना शासक स्वीकार किया । आचार्य कौटिल्य ने भी अपने ‘अर्थशास्त्र’ में इस मत को अपनाया है कि प्रजा ने राजा को चुना और राजा ने प्रजा की सुरक्षा का वचन दिया ।

यूनान में सबसे पहले सोफिस्ट वर्ग ने इस विचार का प्रतिपादन किया । उनका मत था कि राज्य एक कृत्रिम संस्था और एक समझौते का फल है । इपीक्यूरियन विचारधारा वाले वर्ग ने इसका समर्थन किया और रोमन विचारकों ने भी इस बात पर बल दिया कि “जनता राजसत्ता का अन्तिम स्रोत है । ” मध्ययुग में भी यह विचार काफी प्रभावपूर्ण था और मेनगोल्ड तथा थॉमस एक्वीनास के द्वारा इसका समर्थन किया गया ।

16वीं और 17वीं सदी में यह विचार बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया और लगभग सभी विचारक इसे मानने लगे । रिचार्ड हूकर ने सर्वप्रथम वैज्ञानिक रूप में समझौते की तर्कपूर्ण व्याख्या की और डच न्यायाधीश ग्रेशियस पूफेण्डोर्फ तथा स्पिनोजा ने इसका पोषण किया, किन्तु इस सिद्धान्त का वैज्ञानिक और विधिवत रूप में प्रतिपादन हॉब्स, लॉक और रूसो द्वारा किया गया, जिन्हें ‘संविदावादी विचारक’ कहा जाता है ।

थॉमस हॉब्स (सन् 1588 ई० सन् 1679 ई० ) – थॉमस हॉब्स इंग्लैण्ड के निवासी थे और राजवंश से सम्पर्क के कारण उनकी विचारधारा राजतन्त्रवादी थी । उनके समय में इंग्लैण्ड में राजतन्त्र और प्रजातन्त्र के समर्थकों के बीच तनावपूर्ण विवाद चल रहा था । इस संबंध में हॉब्स का विश्वास था कि शक्तिशाली राजतन्त्र के बिना देश में शान्ति और व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती । अपने इस विचार का प्रतिपादन करने के लिए उसने सन् 1651 ई० में प्रकाशित पुस्तक ‘लेवायथन’ में समझौता सिद्धान्त का आश्रय लिया । हॉब्स ने सामाजिक समझौते की व्याख्या इस प्रकार की है-

मानव स्वभाव- हॉब्स के समय में चल रहे इंग्लैण्ड के गृहयुद्ध ने उसके सम्मुख मानव स्वभाव का घृणित पक्ष ही रखा । उसने अनुभव किया कि मनुष्य एक स्वार्थी, अहंकारी और आत्माभिमानी प्राणी है । वह सदा शक्ति से स्नेह करता है और शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है ।

प्राकृतिक दशा– इस स्वार्थी, अहंकारी और आत्माभिमानी व्यक्ति के जीवन पर किसी प्रकार का नियन्त्रण न होने का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दूसरे मनुष्य को शत्रु की दृष्टि से देखने लगा । मनुष्यों को न्याय और अन्याय का कोई ज्ञान नहीं था और प्राकृतिक अवस्था ‘शक्ति ही सत्य हैं’ की धारणा पर आधारित थी । समझौते के कारण जीवन और सम्पत्ति की इस असुरक्षा तथा मृत्यु और संहार के इस भय ने व्यक्तियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे इस असहनीय प्राकृतिक व्यवस्था का अन्त करने के उद्देश्य से एक ही राजनीतिक समाज का निर्माण करें । समझौता – नवीन समाज का निर्माण करने के लिए सब व्यक्तियों ने मिलकर एक समझौता किया । हॉब्स के मतानुसार यह समझौता प्रत्येक व्यक्ति ने शेष व्यक्ति समूह से किया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक दूसरे व्यक्ति से कहता है कि “मैं इस व्यक्ति अथवा सभा को अपने अधिकार और शक्ति का समर्पण करता हूँ जिससे कि वह हम पर शासन करे, परन्तु इसी शर्त पर कि आप भी अपने अधिकार और शक्ति का समर्पण इसे इसी रूप में करें और इसकी आज्ञाओं को माने । “

इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने एक व्यक्ति अथवा सभी के प्रति अपने अधिकारों का पूर्ण समर्पण कर दिया और यह शक्ति या सत्ता उस क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ता बन गई । यही राज्य का श्रीगणेश है । इस समझौते के अन्तर्गत शासक कोई पक्ष नहीं है और यह समझौता सामाजिक है, राजनीकि नहीं । वह सत्ता इस समझौते का परिणाम है और इस प्रकार उसका पद समझौते से कहीं अधिक उच्च है । राजसत्ता पूर्ण, निरंकुश, अटल तथा अखण्ड है ।

नवीन राज्य का रूप हॉब्स के समझौते द्वारा एक ऐसे निरंकुश राजतन्त्रात्मक राज्य की स्थापना की गई है जिसका शासक सम्पूर्ण शक्ति सम्पन्न है और जिसके प्रजा के प्रति कोई कर्तव्य नहीं हैं । शासित वर्ग को शासक वर्ग के विरुद्ध विद्रोह का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है ।

जॉन लॉक ( सन् 1632 ई० – सन् 1704 ई० ) – जॉन लॉक इंग्लैण्ड का ही एक अन्य दार्शनिक था, जिसने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1690 ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक में किया है । इस पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड में गौरवपूर्ण क्रान्ति हो चुकी थी । जिसके द्वारा राजा के विरुद्ध पार्लियामेण्ट की अन्तिम सत्ता को स्वीकार कर लिया गया था । लॉक ने अपनी पुस्तक में इन परिस्थितियों का स्वागत करते हुए सीमित या वैधानिक राजतन्त्र का प्रतिपादन किया । जॉन लॉक ने अपने समझौता सिद्धान्त की व्याख्या निम्न प्रकार से की है- –
मानव स्वभाव और प्राकृतिक अवस्था- लॉक के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसमें प्रेम, सहानुभूति, सहयोग एवं दया की भावनाएँ विद्यमान थी । मानव स्वभाव की इस सामाजिकता के कारण प्राकृतिक अवस्था संघर्ष की अवस्था नहीं हो सकती थी । वरन् यह तो सदिच्छा, सहयोग और सुरक्षा की अवस्था थी । लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था नियमविहीन नहीं थी, वरन् उसके अन्तर्गत यह नियम प्रचलित था- ‘तुम दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो जैसा व्यवहार तुम दूसरों से अपने प्रति चाहते हो । प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त थे और प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का आदर करता था । इसमें मुख्य अधिकार जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के थे ।

समझौते के कारण इस आदर्श प्राकृतिक अवस्था में कालान्तर में व्यक्तियों को कुछ ऐसी असुविधाएँ अनुभव हुई कि इन असुविधाओं को दूर करने के लिए व्यक्तियों ने प्राकृतिक अवस्था का त्याग करना उचित समझा । लॉक के अनुसार ये असुविधाएँ निम्नलिखित थी-

(i) प्राकृतिक नियमों की कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं थी,
(ii) इन नियमों की व्याख्या करने के लिए कोई योग्य सभा नहीं थी,
(iii) इन नियमों को मनवाने के लिए कोई शक्ति नहीं थी ।

समझौता – हॉब्स के सिद्धान्त के अन्तर्गत राज्य का निर्माण करने के लिए केवल एक ही समझौता किया गया, परन्तु लॉक के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि दो समझौते किए गए । पहले समझौते द्वारा प्राकृतिक अवस्था का अन्त करके समाज की स्थापना की गई । इसी समझौते का उद्देश्य व्यक्तियों के जीवन, स्वतंत्रता और सम्पत्ति की रक्षा है । पहले समझौते के बाद शासक और शासित के मध्य एक दूसरा समझौता सम्पन्न हुआ, जिसमें शासित वर्ग के द्वारा शासक को कानून बनाने, उनकी व्याख्या करने और लागू करने का अधिकार दिया जाता है, परन्तु शासक की शक्ति पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि उसके द्वारा निर्मित कानून अनिवार्य रूप से प्राकृतिक नियमों के अनुकूल और अनुरूप होंगे तथा वे जनता के हित में ही होंगे । नवीन राज्य का स्वरूप- लॉक के सामाजिक समझौता सिद्धान्त के अन्तर्गत शासक और शासित के मध्य जो समझौता सम्पन्न हुआ है, उससे यह स्पष्ट हैं कि सरकार स्वयं एक लक्ष्य नहीं वरन् एक लक्ष्य की प्राप्ति का साधन मात्र है और वह लक्ष्य हैं शान्ति और व्यवस्था स्थापित करना और जन कल्याण लॉक इस विचार का प्रतिपादन करता है कि यदि सरकार अपने उद्देश्य में असफल हो जाती है, तो समाज को इस प्रकार की सरकार के स्थान पर दूसरी सरकार स्थापित करने का पूर्ण अधिकार है । इस प्रकार लॉक के द्वारा एक ऐसी शासन व्यवस्था का समर्थन किया गया, जिसमें वास्तविक एवं अन्तिम शक्ति जनता में निहित होती है और सरकार का अस्तित्व तथा रूप जनता की इच्छा पर निर्भर करता है ।

जीन जेक्स रूसो (सन् 1712 ई० सन् 1767 ई० ) – रूसो ने अपने सामाजिक समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1762 ई० में प्रकाशित पुस्तक ‘The Social Contract’ में किया है । हॉब्स और लॉक के समान रूसो के द्वारा इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किसी विशेष उद्देश्य से नहीं किया गया था, लेकिन रूसो ने जिस प्रकार से अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, उससे वह प्रजातन्त्र का अग्रदूत बन जाता है । रूसो के द्वारा अपने सिद्धान्त की व्याख्या निम्न प्रकार की गई है—

मानव स्वभाव और प्राकृतिक अवस्था रूसो अपनी पुस्तक ‘सामाजिक समझौता’ में लिखता है, “मनुष्य स्वतन्त्र पैदा होता है, किन्तु वह सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है । ” इस वाक्य से रूसो इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि “मनुष्य मौलिक रूप से अच्छा है और सामाजिक बुराइयाँ ही मानवीय अच्छाई में बाधक बनती है । ” प्राकृतिक अवस्था के व्यक्ति के लिए रूसो “आदर्श बर्बर” (Noble Savage) शब्द का प्रयोग करता है । यह आदर्श बर्बर अपने में ही इतना सन्तुष्ट था कि न तो उसे किसी साथी की आवश्यकता थी और न किसी का अहित करने की उसकी इच्छा थी । इस प्रकार प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति एक भोले और अज्ञानी बालक की भाँति सादगी और परमसुख का जीवन व्यतीत करता था । इस प्रकार प्राकृतिक अवस्था पूर्ण स्वतंत्रता एवं समानता और पवित्र तथा कपट रहित जीवन की अवस्था थी, परन्तु इस प्राकृतिक अवस्था में विवेक का नितान्त अभाव था ।

समझौते के कारण- प्राकृतिक अवस्था आदर्श अवस्था थी, लेकिन कुछ समय बाद ऐसे कारण उत्पन्न हुए जिन्होंने इस अवस्था को दूषित कर दिया । कृषि के आविष्कार के कारण भूमि पर स्थायी अधिकार और इसके परिणामस्वरूप सम्पत्ति तथा मेरे तेरे की भावना का विकास हुआ । जब प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक भूमि पर अधिकार करने की इच्छा करने लगा, तो शान्तिमय जीवन नष्ट हो गया और समाज की लगभग वही दशा हुई जो हॉब्स की प्राकृतिक दशा में थी । रूसो सम्पत्ति को समाज की स्थापना के लिए उत्तरदायी मानता है । प्राकृतिक दशा का आदर्श रूप नष्ट होकर युद्ध, संघर्ष और विनाश का वातावरण उपस्थित हो गया । युद्ध और संघर्ष के वातावरण का अन्त करने के लिए व्यक्तियों ने पारस्परिक समझौते द्वारा समाज की स्थापना का निश्चय किया ।

समझौता इस असहनीय स्थिति से छुटकारा प्राप्त करने के लिए सभी व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित हुए और उनके द्वारा अपने सम्पूर्ण अधिकारों का समर्पण किया गया, किन्तु अधिकारों का यह सम्पूर्ण समर्पण किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं वरन् सम्पूर्ण समाज के लिए किया गया । समझौते के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण समाज की एक सामान्य इच्छा उत्पन्न होती है और सभी व्यक्ति इस सामान्य इच्छा के अन्तर्गत रहते हुए कार्यरत रहते हैं । स्वयं रूसो के शब्दों में, “समझौते के अन्तर्गत ‘प्रत्येक अपने व्यक्तित्व और अपनी पूर्ण शक्ति को सामान्य प्रयोग के लिए, सामान्य इच्छा के सर्वोच्च निर्देशक के अधीन समर्पित कर देता है । तथा एक समूह के रूप में अपने व्यक्तित्व तथा अपनी पूर्ण शक्ति को प्राप्त कर लेता है । ‘ इस प्रकार के हस्तान्तरण से सभी पक्षों का लाभ है ।

इस प्रकार रूसो के समझौते द्वारा उस लोकतन्त्रीय समाज की स्थापना होती है जिसके अन्तर्गत सम्प्रभुता सम्पूर्ण समाज में निहित होती है और यदि सरकार सामान्य इच्छा के विरुद्ध शासन करती है, तो जनता को ऐसी सरकार को पदच्युत करने का अधिकार प्राप्त होता है ।

3- राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धान्त की आलोचनाओं का वर्णन कीजिए ।

उत्तर – – राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धान्त की आलोचना- इसमें सन्देह नहीं कि शक्ति ने राज्य की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वर्तमान राज्य के अस्तित्व के लिए शक्ति अनिवार्य है, लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि केवल शक्ति के प्रयोग से ही राज्य की उत्पत्ति सम्भव हो गई । इसी कारण अनेक आधारों पर शक्ति के सिद्धान्त की आलोचना की जाती है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-

(i) शक्ति राज्य का स्थायी आधार नहीं हो सकती- शक्ति को राज्य के आधार रूप में इस कारण भी स्वीकार नहीं किया जा सकता हैं कि शक्ति राज्य को आवश्यक दृढ़ता एवं स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकती । स्थायी रूप से एक राज्य सहयोग की भावना ही आधारित हो सकता है और शक्ति कभी सहयोग की भावना जाग्रत नहीं कर सकती । सभी व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन शक्ति के भय के कारण नहीं करते हैं वरन् इस कारण करते हैं कि सामाजिक व्यवस्था करने का यही एकमात्र साधन है और इसी से व्यक्ति के चरित्र का विकास सम्भव है । गिलक्राइस्ट ने कहा है कि “बाध्यकारी शक्ति राज्य की एक कसौटी है, परन्तु उसका सार नहीं । यदि यह राज्य का सार बन जाए, तो उसका अस्तित्व उसी समय तक रह सकता है जब तक शक्ति है । शक्ति का विवेकहीन प्रयोग सभी क्रान्तियों का अग्रदूत रहा है । राज्य का स्थायी आधार नैतिक बल है । नैतिक शक्ति उतनी ही स्थायी है जितने कि वे मानव मस्तिष्क जिन पर वह आश्रित होता है । ” बोदां ने भी कहा है कि “शक्ति केवल डाकुओं के गिरोह का ही संगठन कर सकती है, राज्य का नहीं । ” अतः ग्रीन के शब्दों में कहा जाता है कि “राज्य का आधार शक्ति नहीं वरन् इच्छा है । “

(ii) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अन्त- यदि शक्ति को राज्य का आधार मान लिया जाए, “तो शक्ति ही सत्य हैं” (Might is right) के दौर में व्यक्तियों की स्वतन्त्रता संकट में पड़ जाएगी और समाज के अधिकांश व्यक्ति स्वतन्त्रता का उपयोग नहीं कर सकेंगे । औचित्यरहित शक्ति तो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की विरोधी होती है और राज्य का आधार हो ही नहीं सकती है क्योंकि राज्य का अस्तित्व तो सबल और निर्बल सभी व्यक्तियों की स्वतन्त्रता और हितों की रक्षा के लिए होता है ।


(iii) केवल शक्ति से राज्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं- राज्य की उत्पत्ति केवल शक्ति से ही नहीं हुई और शक्ति ही राज्य का एकमात्र तत्व नहीं है । राज्य की उत्पत्ति के संबंध में रक्त संबंध, धार्मिक एकता, आर्थिक हितों और राजनीतिक चेतना ने भी शक्ति के समान महत्वपूर्ण कार्य किया है और लीकॉक के शब्दों में कहा जा सकता है कि “शक्ति सिद्धान्त की भूल यह हैं कि समाज के विकास में जिस वस्तु का स्थान केवल एक तत्व का रहा है, उसे एकमात्र नियामक तत्व की महानता प्रदान कर देता है । ” सीले के द्वारा भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया गया है । उन्हीं के शब्दों में, “राज्य की उत्पत्ति केवल शक्ति के द्वारा नहीं हुई यद्यपि विस्तार क्रम में निसन्देह शक्ति ने भाग लिया है । “

(iv) शक्ति सिद्धान्त व्यक्ति की हीन प्रवृत्तियों पर आधारित शक्ति सिद्धान्त का एक दोष यह है कि यह सिद्धान्त मनुष्य में पाशविक शक्ति को महत्वपूर्ण मानकर उसकी ही प्रवृत्तियों पर अत्यधिक बल देता है । मनुष्य के जीवन में पाशविक शक्ति भी अवस्थित हो सकती है, किन्तु वह उसका मूल नहीं है । हक्सले ने कहा है कि “मनुष्य जगत में सहयोग और सहकारिता की भावना प्रमुख है, बल और पशु शक्ति का स्थान गौण है । ” यदि हम मानव जीवन में स्वार्थ, दुष्टता और कृतघ्नता को देख पाते है तथा दया, सज्जनता, परमार्थ, स्नेह, सहयोग, सहानुभूति आदि उच्च गुण हमारी दृष्टि में नहीं आते हैं, तो यह हमारी संकीर्ण मनोवृत्ति का ही परिचायक है ।


(v) आन्तरिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहन- यदि शक्ति को राज्य का आधार मान लिया जाए, तो प्रत्येक अपने आपको दूसरों की अपेक्षा शक्तिशाली सिद्ध करने में प्रयत्नशील रहेगा और निरन्तर संघर्ष होते रहेंगे । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने पर प्रत्येक विवाद के निर्णय हेतु युद्ध के मार्ग को अपनाया जाएगा और सदैव ही युद्ध की अवस्था बनी रहेगी । अतः राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के हित में शक्ति सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।

(vi) शक्तिशाली शब्द स्वयं में अस्पष्ट शक्ति सिद्धान्त की एक कमी यह भी है कि इसके अन्तर्गत शक्तिशाली शब्द की व्यापक एवं विस्तृत व्याख्या नहीं की गई है । शक्ति के विविध रूप होते हैं- यथा शारीरिक शक्ति, बौद्धिक शक्ति, नैतिक शक्ति, आध्यात्मिक शक्ति, शास्त्र शक्ति, संगठन शक्ति आदि । हक्सले के अनुसार, “शक्तिशाली वह है जो परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेता है । ” मार्शल के अनुसार, ‘शक्तिशाली वह हैं कि जो परिस्थितियों से अधिकाधिक लाभ उठा सकता है । ” महात्मा गांधी के अनुसार, “नैतिक और आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न व्यक्ति ही सबसे अधिक शक्तिशाली है । ‘ शक्ति सिद्धान्त में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि शक्ति के इन विविध रूपों में से उसका आशय शक्ति के किस रूप से है । शक्तिशाली का अर्थ स्पष्ट न होने के कारण यह सिद्धान्त निरर्थक हो जाता है । वस्तुतः राज्य शक्ति का परिणाम न होकर मानवीय चेतना का परिणाम है । गिलक्राइस्ट ने ठीक ही कहा है कि “राज्य, सरकार और वास्तव में सभी संस्थाएँ मानवीय चेतना के परिणाम है और वे ऐसी कृतियाँ है जो मानव के नैतिक उद्देश्य को समझने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं । “

(vii) प्रजातान्त्रिक परम्परा के विरुद्ध शक्ति सिद्धान्त के अनुसार राज्य का आधार शासन की इच्छा और शक्ति हैं, जनमत नहीं, लेकिन प्रजातन्त्र जन इच्छा, न्याय, स्वतन्त्रता और समानता में विश्वास करता है । अतः शक्ति सिद्धान्त प्रजातांत्रिक परम्पराओं और विश्वबन्धुत्व की भावना के नितान्त विपरीत है ।

4 . ‘राज्य न तो ईश्वर की कृति है, न वह उच्च कोटि के शारीरिक बल का परिणाम है, न वह किसी प्रस्ताव या समझौते की सृष्टि है और न वह केवल परिवार का विस्तार मात्र है । “- गार्नर, आपके विचार में राज्य की उत्पत्ति का जो सही सिद्धान्त हो उसकी व्याख्या कीजिए ।

उत्तर – – अब तक राज्य की उत्पत्ति के संबंध में जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया, उनमें दैवी सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, सामाजिक सिद्धान्त, पैतृक सिद्धान्त, और मातृक सिद्धान्त प्रमुख हैं, लेकिन राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या के रूप में इनमें से किसी भी सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जा सकता । दैवी सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त और समझौता सिद्धान्त में एक बात समान रूप से पाई जाती हैं की राज्य का एक विशेष समय पर निर्माण किया गया है, किन्तु वास्तव में राज्य का निर्माण नहीं किया गया, यह तो निरन्तर विकास का परिणाम है । इसके साथ ही पैतृक और मातृक सिद्धान्त की इस बात को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि राज्य परिवार का विस्तार मात्र है क्योंकि परिवार और राज्य की प्रकृति में कुछ आधारभूत भेद हैं । डॉ० गार्नर ने सत्य ही कहा है कि “राज्य न तो ईश्वर की सृष्टि है, न वह उच्चकोटि के शारीरिक बल का परिणाम है, न किसी प्रस्ताव या समझौते की कृति है और न परिवार का ही विस्तृत रूप है । यह तो क्रमिक विकास से उदित एक ऐतिहासिक संस्था है । “

राज्य विकास का परिणाम है और राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त द्वारा ही की गई है । इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य का विकास एक लम्बे समय से चला आ रहा है और आदिकालीन समाज से क्रमिक विकास करते-करते इसने वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के स्वरूप को प्राप्त किया है बर्गेस ने उचित ही कहा है कि “राज्य मानव समाज का निरन्तर विकास है जिसका प्रारम्भ अत्यन्त अधूरे और विकृत उन्नतिशील रूपों में अभिव्यक्ति होकर मनुष्यों के एक समग्र एवं सार्वभौम संगठन की ओर विकास हुआ है । ” जिस प्रकार भाषा प्राणियों की अर्थहीन बड़बड़ाहट से निकली है ठीक इसी प्रकार राज्य की उत्पत्ति बहुत प्राचीन और इतिहास से परे असभ्य समाज से हुई है ।

यह बताना कि कब और किस प्रकार राज्य अस्तित्व में आया, अत्यधिक कठिन है । अन्य सामाजिक संस्थाओं के समान ही विभिन्न परिस्थितियों की सहायता पाकर और अनेक तथ्यों से प्रभावित होकर यह आविर्भूत हुआ । राज्य के विकास का क्रम भी एक सा नहीं रहा है । प्रकृति, परिस्थिति और स्वभाव के भेदों के कारण विभिन्न समयों, अवस्थाओं और स्थानों में राज्य के विकास का क्रम भी विभिन्न रहा है । भाषा और राजनीतिक चेतना के समान ही राज्य का विकास भी धीरे-धीरे हुआ है । राज्य के विकास में सहायक प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-

(i) धर्म- रक्त संबंध की भाँति ही धर्म का भी राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । राज्य के विकास कार्य में रक्त संबंध और धर्म परस्पर घनिष्ट रूप से संबंधित रहे हैं । वस्तुतः प्रारम्भिक समाज में रक्त संबंध और धर्म एक ही वस्तु के दो पहलू थे और दोनों परिवार तथा कबीलों को परस्पर जोड़ने का कार्य साथ-साथ ही करते थे । गेटल ने लिखा है कि “रक्त संबंध और धर्म एक ही वस्तु के दो रूप थे और समूह की एकता व उनके कर्तव्यों को धार्मिक मान्यता प्राप्त थी । ‘

प्रारम्भिक समाज के धर्म के दो रूप प्रचलित थे— पितृ पूजा और प्राकृतिक शक्तियों की पूजा । व्यक्ति अपने परिवार के वृद्ध व्यक्तियों के मृत हो जाने पर भी उनके प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे और उनका विचार था कि शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा शेष रहती है । अतः इस आत्मा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने पितृ पूजा प्रारम्भ कर दी । धर्म के इस बहुप्रचलित रूप (पितृ पूजा) ने परिवारों को एकता के सूत्र में बाँधा । जो एक ही वंश या रक्त से संबंधित होते थे । उनके कुल देवता भी एक ही हुए, जो अधिकतर उनके पुरखे होते थे ।
उस समय धर्म का एक दूसरा प्रचलित रूप प्राकृतिक शक्तियों की पूजा थी । जंगली अवस्था में जबकि बुद्धि का विकास नहीं हुआ था और व्यक्ति प्राकृतिक परिवर्तनों को समझने में असमर्थ थे उन्होंने बादल की गड़गड़ाहट, बिजली की कड़क, हवा की सनसनाहट और वस्तुओं के परिवर्तन में ईश्वर की शक्ति का अनुभव किया और प्रकृति की प्रत्येक शक्ति उनके लिए देवता बन गई । व्यक्ति पृथ्वी, सूर्य, अग्नि, इन्द्र और वरुण की उपासना करने लगे और एक ही शक्ति के उपासकों में परस्पर घनिष्ट मैत्री भाव उत्पन्न हुआ जो राज्य का आधार बना ।

प्रारम्भिक समाज में विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को देवता या भूत-प्रेत समझा जाता था और जब कोई व्यक्ति यह सिद्ध कर देता था कि वह प्राकृतिक शक्तियों को नियन्त्रित रख सकता था तब समाज में उसे असाधारण शक्ति और सम्मान प्राप्त हो जाता था और अनेक बार ये तान्त्रिक कहे जाने वाले व्यक्ति राजा बन जाते थे । स्पार्टा में ऐसा ही हुआ । इस प्रकार धर्म के द्वारा एक से अधिक रूप में राज्य के विकास में योगदान दिया गया है ।

(ii) रक्त संबंध – यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि सामाजिक संगठन का प्राचीनतम रूप रक्त संबंध पर आधारित था और रक्त संबंध एकता का प्रथम और दृढ़तम बन्धन रहा है । आंग्ल कहावत ‘खून पानी से गाढ़ा होता हैं इसी तथ्य पर आधारित है । प्रारम्भिक समय में जो बात उन्हें पास लाती थी और एक दल के रूप में संगठित होने के लिए प्रेरित करती थी, वह सामान्य उत्पत्ति में विश्वास ही था और परिवार प्राचीनतम तथा निकटतम रक्त संबंध की इकाई था । यद्यपि यह प्रश्न विवादास्पद है कि कबीला, कुल या परिवार में पहले कौन अस्तित्व में आया, लेकिन इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि परिवार के स्पष्ट व्यक्ति नियन्त्रण के आधार पर ही राज्य की स्थापना हुई होगी । इस संबंध में सर हेनरी मेन ने लिखा है कि “समाज के प्राचीनतम इतिहास की आधुनिकतम गवेषणाएँ इस निष्कर्ष की ओर इंगित करती हैं कि समूह को एकता के सूत्र में बाँधने प्रारम्भिक बन्धन रक्त संबंध ही था । ” आगे चलकर जब जनसंख्या की वृद्धि के कारण कुटुम्ब का आकार बढ़ा तथा जाति और कुल बने तब समाज का जन्म हुआ । इस संबंध में मैकाइवर का कथन है कि “रक्त संबंध समाज को जन्म देता हैं और कालान्तर में समाज राज्य को । “

(iii) मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियाँ- मनुष्य स्वभाव से भी एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है और समूह में रहने की मनुष्य की प्रवृत्ति ने ही राज्य को जन्म दिया है । समाज में साथ-साथ रहते हुए जब विभिन्न व्यक्तियों के स्वभाव और स्वार्थगत भेदों के कारण विभिन्न प्रकार के विवाद उत्पन्न हुए, तो इन विवादों को दूर करने के लिए एक सम्प्रभुतासम्पन्न राजनीतिक संस्था की आवश्यकता समझी गई और राज्य का उदय हुआ । इस प्रकार राज्य को बहुत अधिक सीमा तक मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियों का परिणाम कहा जा सकता है ।

(iv) आर्थिक गतिविधियाँ- राज्य की उत्पत्ति और विकास में आर्थिक गतिविधियों का भी प्रमुख हाथ रहा हैं । प्लेटो, मैकियावली, हॉब्स, लॉक, एडम स्मिथ और मॉण्टेस्क्यू ने भी राज्य की उत्पत्ति और विकास में आर्थिक तत्वों के योग को स्वीकार किया है । किन्तु इनसे बहुत आगे बढ़कर कार्ल मार्क्स ने तो इस विचार को अभिव्यक्त किया है कि “राज्य आर्थिक परिस्थिति की ही अभिव्यक्ति है । ‘ “

आदिम काल से लेकर अब तक मनुष्य चार आर्थिक अवस्थाओं से गुजरा है जिसके अनुकूल ही उसमें तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन रहे हैं । प्रथम, आखेट अवस्था में मनुष्य के जीवन का एकमात्र साधन शिकार था और इसी कारण मनुष्य का जीवन अस्थिर, असंगठित तथा भ्रमणशील था । द्वितीय, पशुपालन अवस्था में मनुष्य पशु पालकर गुजारा करते थे । इस अवस्था में भी उनका जीवन भ्रमणशील ही था, किन्तु उनमें सामूहिकता और संगठन का अंश आ गया था । तृतीय, कृषि अवस्था में जीवन का आधार कृषि हो जाने पर मनुष्य निश्चित स्थान पर स्थायी रूप से रहने लगे । इससे निजी सम्पत्ति का उदय हुआ, समाज में वर्ग पैदा हो गए और संघर्ष बढ़े । ऐसी स्थिति में कानून, न्यायालय और राजनीतिक सत्ता की स्थापना हुई । चतुर्थ, आज की औद्योगिक अवस्था है जिसमें आर्थिक जीवन के जटिल और विशाल ढाँचे ने राष्ट्रीय राज्यों को जन्म दिया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्थिक विकास के साथ मनुष्य के राजनीतिक संगठन में भी परिवर्तन हुए हैं और राज्य के विकास पर आर्थिक गतिविधियों के प्रभाव का यह स्पष्ट प्रमाण है ।

(v) राजनीतिक चेतना – राजनीतिक चेतना का तात्पर्य उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए चेतना है जिनके हेतु राज्य की स्थापना की जाती है । अनेक विद्वानों के अनुसार, राज्य के विकास में राजनीतिक चेतना ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में कार्य किया ।

जब व्यक्ति किसी निश्चित प्रदेश पर बस गए और उनके द्वारा अपनी आजीविका के स्थायी साधन प्राप्त कर लिए गए, तो उनकी यह स्वाभाविक इच्छा और चिन्ता हुई कि दूसरे लोग उनके साधनों को हड़प न लें । फलतः नियमों की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी और यही राजनीतिक चेतना का मूल था । प्रारम्भ से यह राजनीतिक चेतना अप्रकाशित एवं अव्यक्त रूप में थी, सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह प्रकाशित तथा व्यक्त होने लगी । शासन, अनुशासन, युद्ध आदि के लिए अब राजनीतिक संगठन की आवश्यकता और भी स्पष्ट हो गई । इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्तियों में शक्ति की आकांक्षा भी बढ़ी और सैनिक कार्यवाहियों द्वारा वे अधिकाधिक शक्ति की प्राप्ति करने लगे । युद्ध में विजयी नेता राजा हो गए और उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया । इस प्रकार शासन और कानून का जन्म हुआ और राज्य मूर्त रूप में सामने आया । वर्तमान समय में भी राजनीतिक चेतना राज्य के विकास में सक्रिय हैं और इसी चेतनावश मानव जाति द्वारा विश्व राज्य की स्थापना की दिशा में सोचा जाने लगा है ।

(vi) शक्ति– राज्य संस्था के विकास में शक्ति या युद्ध का स्थान भी विशेष महत्वपूर्ण रहा । पहले सामाजिक व्यवस्था थी, जिसे राजनीतिक अवस्था में परिवर्तन करने का कार्य युद्ध के द्वारा ही किया गया । जैक्स ने कहा भी है कि “जन-समाज का राजनीतिक समाज में परिवर्तन शान्तिपूर्ण उपायों से नहीं हुआ यह परिवर्तन युद्ध द्वारा हुआ है । ” अन्य मनुष्यों पर आधिपत्य स्थापित करने तथा संघर्ष एवं आक्रमण की प्रवृत्ति भी मनुष्यों की मूलप्रवृत्तियों में से एक है । मानवीय विकास के प्रारम्भिक काल में ये प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक सक्रिय थी । कृषि तथा व्यवसाय की उन्नति के साथ जब लोग निश्चित स्थानों पर बस गए, तो निजी सम्पत्ति की धारणा का उदय हुआ । ऐसी स्थिति में निवास स्थान तथा सम्पत्ति की रक्षार्थ युद्ध होने लगे और युद्ध ने नेतृत्व के महत्व को जनता के सामने रखा । लोग सुरक्षा प्रदान करने की क्षमता रखने वाले शक्तिशाली व्यक्ति का नेतृत्व स्वीकार करने लगे । इस नेता की अधीनता में एक कबीला दूसरे कबीले पर आधिपत्य जमाने की चेष्टा में संलग्न रहा और संघर्ष की इस प्रकिया में विजयी कबीले का सैनिक सरदार बन बैठा । बलपूर्वक शक्ति ने प्रभुसत्ता का रूप धारण किया और शासक के प्रति भक्ति तथा निष्ठा की भावना का जन्म हुआ । इस प्रकार युद्ध से राज्य की उत्पत्ति हुई । कहा भी गया है कि “युद्ध से राजा का जन्म होता है” ।

5- ‘राज्य का विकास हुआ है निर्माण नहीं । ” इस कथन का वर्णन कीजिए तथा राज्य के विकास में जिन तत्वों ने सहयोग दिया है, उन्हें स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – – उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-4 के उत्तर का अवलोकन कीजिए ।

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