UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 8 सुभाषितरत्नानि

अष्टम पाठ सुभाषितरत्नानि
निम्नलिखित गद्यावतरणों का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए
1-भाषासु……………………………सुभाषितम्।
[दिव्या = आलौकिक, गीर्वाणभारती = देववाणी (संस्कृत); देवताओं की वाणी, तस्मादपि > तस्माद् + अपि = उससे भी अधिक, सुभाषितम् = सुन्दर उक्ति (वचन)]
सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषिरत्नानि’ नामक पाठ से उद्धृत है। अनुवाद- भाषाओं में संस्कृत सबसे प्रधान, मधुर और अलौकिक है। उससे (अधिक) मधुर उसका काव्य है और उस (काव्य) से (अधिक) मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियाँ) हैं।
2-जल-बिन्दु………………………………………………………..धनस्य च।
[जल-बिन्दु निपातेन = जल की एक-एक बूंद गिरने से, पर्युते = भर जाता है] सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- जल की एक-एक बूंद गिरने से क्रमशः घड़ा भर जाता है। समस्त विद्याओं, धर्म और धन (को संग्रह करने) का भी यही हेतु (कारण, रहस्य) है (अर्थात् निरन्तर उद्योग करते रहने से ही धीरे-धीरे ये तीनों वस्तुएँ संगृहीत हो पाती हैं।)। ।
३- नचौरहार्य… …………..सर्वधनप्रधानम्।
[चौरहार्यं = चोर द्वारा चुराया जा सकता है, भातृभाज्यम् = भाइयों द्वारा बाँटा जा सकता है, वर्द्धत एवं > वर्द्धत + एव = बढ़ता है।
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद-विद्यारूपी धन समस्त धनों में प्रधान (श्रेष्ठ है; (क्योंकि) न तो चोर उसे चुरा सकता है, न राजा उसे छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है, न यह बोझ बनता है अर्थात् भार-रूप नहीं है और खर्च करने से यह निरन्तर बढ़ता जाता है (अन्य धनों
के समान घटता नहीं)।
- परोक्षे……………………………..पयोमुखम्।
[परोक्षे = पीठ-पीछे, कार्यहन्तारम् = कार्य को नष्ट करने वाला (बिगाड़ने वाला) वर्जयेत् = त्याग देना चाहिए, विषकुम्भं = विष के घड़े को, पयोमुखम् = जिसके मुख (ऊपरी भाग) में दूध हो]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- जो पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाला हो, पर सामने मीठा बोलने वाला हो, ऐसे मित्र को उसी प्रकार छोड़ देना चाहिए, जिस प्रकार विष से भरे घड़े को, जिसके ऊपरी भाग में दूध हो (छोड़ दिया जाता है।)।
5-विद्या………………..रक्षणाय।
[मदाय = घमण्ड के लिए, खलस्य = दुष्ट की, साधोः =सज्जन की]
सन्दर्भ- पहले की तरह अनुवाद-खल (दुष्ट व्यक्ति) की विद्या वाद-विवाद के लिए, धन घमण्ड के लिए और शक्ति दूसरों को सताने के लिए होती है। इसके विपरीत साधु (सज्जन) की विद्या ज्ञान-प्राप्ति के लिए, धन दान के लिए और शक्ति (दूसरों की) रक्षा के लिए होती है।
6-वज्रादपि…………………….विज्ञातुर्महति।
वज्रादपि> वज्रात + अपि = वज्र से अधिक, मृदूनि = कोमल, लोकोत्तराणां>लोक+ उत्तराणाम् = आलौकिक (असाधारण) व्यक्तियों के, चेतांसि = चित्त या मन को, विज्ञातुमर्हति >विज्ञातुम् + अर्हति = जान सकता है।]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- असाधारण पुरुषों (महापुरुषों) के वज्र से भी अधिक कठोर और पुष्प से भी अधिक कोमल हृदय को भला कौन समझ सकता है?
- प्रीणाति……………………………………..लभन्ते।
[प्रीणाति = प्रसन्न करता है, भर्तुरेव > भर्तु + एव – पति का ही, कलत्रम् = स्त्री (पत्नी), तन्मित्रममापदि > तत् + मित्रम् + आपदि = वह मित्र आपत्ति में, समक्रियं = समान व्यवहार वाला, जगति = संसार में, पुन्यकृतः = पुण्यवान व्यक्ति
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- जो अपने अच्छे चरित्र (सुकर्मों) से पिता को प्रसन्न करे, वही पुत्र है। जो पति का हित (भलाई) चाहती हो, वही पत्नी है। जो (अपने मित्र की) आपत्ति (दुःख) और सुख में एक-सा व्यवहार करे, वही मित्र है। इन तीन (अच्छे पुत्र, अच्छी पत्नी और सच्चे मित्र) को संसार में पुण्यात्मा-जन ही पाते हैं (अर्थात् बड़े पुण्यों के फलस्वरूप ही ये तीनों प्राप्त होते हैं।)।
8-कामान…………………………………………………..वाचमाहः ।
[कामान् = इच्छाओं का, दुग्धे = पूर्ण करती है, विप्रकर्षत्यलक्ष्मीम् > विप्रकर्षति + अलक्ष्मीम् = अलक्ष्मी को दूर करती है, सूते = उत्पन्न करती है, हिनास्ति = नष्ट करती है, सूनृताम = सत्य एवं प्रिय, वाचम् = वाणी को] सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- जो(सुभाषित वाणी) इच्छाओं को दुहती है, दरिद्रता को दूर करती है, कीर्ति को जन्म देती है (और जो) पाप को नष्ट करती है, (जो) शुद्ध, शान्त (और) मंगलों की माता है, (उस) गाय को धैर्यवान लोगों ने सुभाषित वाणी कहा है।
8-निन्दन्तु………………….नधीराः।
निन्दन्तु = निन्दाकरें, नीतिनिपुणा = लोकनीति या लोकव्यवहार में कुशल लोग, स्तुवन्तु = प्रशंसा करें, समाविशतु = आए, यथेष्टम् = स्वेच्छा से, युगान्तरे = युगों बाद, न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से, प्रविचलन्ति = विचलित होते हैं, पद्म = पगभर]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- लोकनीति में कुशल लोग चाहे निन्दा करें, चाहे प्रशंसा; लक्ष्मी चाहे आये या स्वेच्छानुसार चली जाये। आज ही मरण हो जाये, चाहे युगों बाद हो, किन्तु धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से एक पग भी विचलित नहीं होते। (अर्थात् कैसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति हो, धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से रंचमात्र भी नहीं हटते।)
10 -ऋषयो……………………….निर्ऋषिः ।
[राक्षसीमाहुः > राक्षसीम + आहुः = राक्षसी कहा है, वाचमुन्मत्तदृप्तयोः = अंहकारी और उन्मक्त व्यक्तियों की वाणी को, योनिः = जन्म देने वाली, निर्ऋतिः = विपत्ति।]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद-ऋषियों ने उन्मत्त और अहंकारी पुरुषों की वाणी को राक्षसी कहा है, (क्योंकि) वह समस्त वैरों को जन्म देने वाली और संसार की विपत्ति (का कारण) होती है (अर्थात् अहंकार से भरी वाणी दूसरों के मन पर चोट करके शत्रुता को जन्म देती है और संसार के सारे झगड़े उसी के कारण होते हैं।)
निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
- भाषासु मुख्यमधरा दिव्या गीर्वाणभारती ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषिरत्नानि’ नामक पाठ से अवतरित है ।
प्रसंग-प्रस्तुत सूक्ति में संस्कृत-भाषा को सभी भाषाओं से श्रेष्ठ बताया गया है। व्याख्या-संस्कृत देववाणी अर्थात् देवताओं के द्वारा बोली जाने वाली भाषा रही है। इस भाषा को समस्त भाषाओं में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है। इसका साहित्य अत्यन्त विशाल है। प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर आधारित अधिकांश साहित्य का सृजन इसी भाषा में हुआ था। यही सभी भाषाओं की जननी है। संस्कृत भाषा पर आधारित काव्यात्मक साहित्य अत्यन्त मधुर हैं। इस भाषा में लिखे गये साहित्य के अन्तर्गत अनेक सुन्दर उक्तियाँ (वचन) पढ़ने को मिलती हैं, जो दिव्य आनन्द की अनुभूति कराती हैं।
2-सुखार्थिनः कुतो विद्या ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-विद्यार्जन और सुख-सेवन ये दोनों कार्य एक-साथ नहीं चल सकते। विद्या के लिए सुख को और सुख के लिए विद्या को त्यागना पड़ता है- इस सूक्ति का यही आशय है। व्याख्या- सुख की इच्छा करने वाले व्यक्ति को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती। विद्या अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति एक कठिन तप है, जिसकी प्राप्ति अत्यधिक परिश्रम एवं एकाग्रता से ही सम्भव है। परिश्रम एवं कुशाग्रता अपनाने वाले विद्यार्थियों के पास सुखसुविधाएँ अपनाने का समय ही कहाँ होता है? सच्चा विद्यार्थी विद्यार्जन में आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता से सामना करता है। विद्या-अर्जन के समय व्यक्ति जितना दुःख सहन करता है, उतना ही सुख वह विद्या-प्राप्ति के पश्चात् जीवनपर्यन्त प्राप्त करता है। इसके विपरीत जो विद्यार्थी विद्यार्जनकाल में सुख प्राप्त करते हैं, वे विद्या प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं ।
3 . जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः ।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- इस सूक्ति में निरन्त संचय के महत्त्व को बताया गया है । व्याख्या- जैसे एक-एक बूंद पानी लगातार कुछ काल तक गिरता रहे तो घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार धर्म, धन और विद्या का संग्रह भी नियमित रूप से कुछ काल तक लगातार उद्योग करते रहने से होता है । मनुष्य न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन से एक रात में धनाढ्य नहीं बन सकता । इसी प्रकार एक-दो दिन तक धर्माचरण करने से धर्म का संचय नहीं कर सकता और न ही एक-दो दिन तक रात-दिन पढ़ने से विद्वान् बन सकता है । आशय यह है कि ज्ञान, धर्म एवं धन का धैर्यपूर्वक सतत उद्योग करते रहने से ही संचय हो सकता है ।
4 . काव्यशास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में बुद्धिमानों तथा मूल् के समय बिताने के तरीकों को बताया गया है । व्याख्या-बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्रों की चर्चा में बीतता है, जबकि मूर्ख लोग बुरे व्यसनों में, सोते रहने में या लड़ाईझगड़े में अपना समय बिताते हैं । वस्तुतः काव्य मानव के हृदय-पक्ष की और शास्त्र मानव के बुद्धि-पक्ष की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है । श्रेष्ठ, संस्कारी पुरुष इन विषयों की चर्चा से जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धियों का रसास्वादन करते हुए अपूर्व सुख एवं तृप्ति का अनुभव करते हैं, किन्तु अशिक्षित, मूर्ख लोग उन महत्सुखों के विषय में अणुमात्र भी नहीं सोचते । समय का सदुपयोग जीवन को ऊँचाई देता है और सत्साहित्य में व्यतीत समय अत्यन्त उच्चकोटि की रसानुभूति कराता है । अतः बुद्धिमान लोग काव्य और शास्त्रों की चर्चा कर, उनके प्रतिपाद्य को हृदयंगम कर और उससे आनन्द प्राप्त कर अपना समय व्यतीत करते हैं ।
5- विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में विद्या की सर्वश्रेष्ठता को प्रतिपादित किया गया है । व्याख्या- समस्त धनों में विद्यारूपी धन प्रमुख है और यह सर्वथा सत्य है । सदैव से ही विद्या की प्रशंसा करते कवियों और विद्वानों की वाणी थकती नहीं । अन्य धनों को चोर चुरा सकता है, राजा छीन सकता है, भाई बाँट सकता है और वे भाररूप भी होते हैं । सम्पत्ति के कारण ही सगे-सम्बन्धियों तक में भयंकर विद्वेष उत्पन्न होता है । फिर धन को जितना व्यय किया जाए, वह उतना ही कम होता जाता है । विद्वानों ने धन की तीन गतियाँ बतायी है-दान, भोग और नाश । कम ही भाग्यवानों का धन दान में लगता है । अधिकाशं का धन भोग और नाश में ही जाता है । फिर धनी का सर्वत्र आदर भी नहीं होता । इसलिए कहा है- स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते । दूसरी ओर विद्या धन सबसे पहले तो आपने धारणकर्ता विद्वान् को ही अन्दर और बाहर से आलोकित करता है । उसका चरित्र गठित करता है तथा उसे दूसरों के मार्गदर्शन की क्षमता प्रदान करता है । धनी-निर्धन सभी उसका आदर करते हैं । विद्वान् कभी स्वयं को एकाकी अनुभव नहीं करता, सदा पुस्तक या विद्यारूपी साथी उसके साथ रहता है और विश्व में सर्वत्र उसका आदर होता है । एक विद्वान् ने कहा है
मृषा वदति लोकोऽयं ताम्बूलं मुखभूषणम् ।
मुखस्य भूषणं पुंसां वाण्येका तु सरस्वती॥
अर्थात् लोक मिथ्या ही पान को मुख का भूषण बताता है । मुख का सच्चा भूषण तो वास्तव में विद्या ही है ।
6- वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-सच्चे मित्र का लक्षण इस सूक्ति में बताया गया है ।
व्याख्या- संसार में सच्चे मित्र दुर्लभ होता है । सच्चा मित्र दुःख में अपने मित्र को सहयोग देता है तथा उसके दुःखों के निवारण के लिए प्रयत्नशील रहता है । उसका व्यवहार जैसा सुख में रहता है, वैसा ही दुःख में भी । सच्चे मित्र के साथ वार्तालाप में भी अनुपम सुख मिलता है । सुख-समृद्धि के समय अनेक स्वार्थी लोग मित्र बनने का प्रयास करते हैं, किन्तु वे अपनी स्वार्थसिद्धि तक ही मित्र रहते हैं । व्यक्ति को ऐसे छद्मवेषी और विश्वासघाती मित्रों से सावधान रहना चाहिए । ये मित्र के रूप में शत्रु होते हैं । मित्र के पीछे उसको हानि पहुँचाते हैं और सामने मीठी-मीठी बातें करते हैं । ऐसे छद्मवेषी मित्र पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए । ऐसा मित्र उस घड़े के समान है, जिसके ऊपरी भाग में दूध; किन्तु नीचे विष भरा हो । जैसे विषैला दूध हानिकारक होता है, उसी प्रकार सामने प्रिय बोलने वाला और पीछे कार्य बिगाड़ने वाला मित्र भी हानिकारक होता है । अत: उसका त्याग कर देना चाहिए ।
तुलसीदास जी ने इस सूक्तिमूलक समस्त श्लोक का भावानुवाद इस रूप में किया है
आगे कह मृदु बचन बनाई । पाछे अनहित मन कुटिलाई ।
जाकर चित अहिगति सम भाई । अस कुमित्र परिहरहिं भलाई॥
7 . सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति मे महापुरुषों का लक्षण बताया गया है । व्याख्या- महापुरुषों का एक प्रमुख लक्षण है कि वे सम्पत्ति, सुख और दुःख, आशा और निराशा-सभी द्वन्द्वों (परस्परविरोधी स्थितियों) में समरूप रहते हैं अर्थात् सुख से हर्षित और दुःख से दुःखित नहीं होते, अपितु दोनों को समबुद्धि से ग्रहण करके सहज भाव से सहन करते हैं । जिस प्रकार दिन के बाद रात का आना स्वाभाविक है, उसी प्रकार मानव-जीवन में भी सुख के बाद दुःख का आना अनिवार्य है । महान् पुरुष दुःख को भी प्रसन्नता एवं साहस के साथ स्वीकार करते हैं । महाकवि कालिदास भी लिखते हैं कि ‘चक्रारपंक्तिरिवगच्छति भाग्यपंक्तिः’ अर्थात् मनुष्य की भाग्यरेखा पहिये के अरों की भाँति ऊपर-नीचे होती रहती है; अतः आज जो चीज अपरिहार्य है, उसमें उद्विग्त होना अज्ञान का लक्षण है । इसीलिए बुद्धिमान् लोग सुख-दुःख में समभाव रखते हैं ।
8 . खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति मे बताया गया है कि दुष्ट से विपरीत सज्जन की विद्या ज्ञान के लिए, धन दान के लिए और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है ।
व्याख्या- सज्जन आजीवन ज्ञान का अर्जन करते हैं । उनके पास ज्ञान का अमिट भण्डार होता है । वे अपनी विद्या से जनकल्याण करते हैं । उनकी यह धारणा होती है कि विद्या दान से घटती नहीं, वरन् बुद्धि को प्राप्त होती है, जब कि दुष्ट के पास यदि थोड़ा-सा ज्ञान आज भी जाए तो वह उसको दान नहीं करता; वरन् अपनी विद्या से वह विवाद उत्पन्न करता है तथा ज्ञानी होने का ढोंग रचा फिरता है । सज्जन अपने धन का भी सदुपयोग ही करता है । वह अपने धन की अच्छे कार्यों के लिए दान में देता है, निर्धनों को सहायता करता है तथा समाज-सेवा में लगाता है । धन को एकत्र करके रखने की प्रवृत्ति उसमें नहीं होती; जबकि दुष्ट के पास यदि थोड़ा धन भी एकत्र हो जाता है तो अपने को धनी मानते हुए वह अहंकार में डूबा रहता है । सज्जनों की शक्ति निर्बलों की सहायता के लिए होती है । वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके उसका दुरुपयोग नहीं करता; जब कि दुष्ट व्यक्ति अपनी शक्ति को दूसरों को सताने के काम में ही लगाता है ।
9 . अविवेकः परमापदां पद्म ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- बिना सोचे-समझे कार्य करने पर हानि होती है और सोच-समझकर कार्य करने से अपार लाभ है । यही बात इस सूक्ति में बतायी गयी है ।
व्याख्या- किसी कार्य को बिना विचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि विचारहीनता भयंकर विपत्तियों की जननी है । जो व्यक्ति
खूब सोच-समझकर, योजना बनाकर कार्य करता है, वह अधिकतर सफलता प्राप्त करता है, पर जो व्यक्ति बिना सोचे-समझे किसी काम को अकस्मात् कर डालता है, वह भयंकर विपत्ति में फँस सकता है । जो व्यक्ति विवेक से कार्य करता है, वह जीवन भर सुखी रहता है और सदैव सफलता प्राप्त करता है । उसके कार्यों के परिणाम उसकी इच्छानुसार होते हैं; जब कि बिना सोचे गये किये कार्यों के फलस्वरूप व्यक्ति को असफलता मिलती है । परिणामतः उसमें भविष्य में कार्य करने की शक्ति का अभाव हो जाता है । उसे निराशा घेर लेती है और सफलताएँ उससे मुँह मोड़ लेती हैं । इसीलिए मनुष्य को किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व निर्णय लेना चाहिए । प्रसिद्ध उक्ति है
बिना बिचारे जो करे, सो पाछे पछताए ।
काम बिगारे आपनो, जग में होत हँसाय॥
10 . लोकोत्तराणांचेतांसि को न विज्ञातुमर्हति ।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि असाधारण पुरुषों के व्यवहार को आसानी से नहीं समझा जा सकता ।
व्याख्या- भाव यह है कि महापुरुष किसी समय तो बड़ी कठोरता का व्यवहार करते हैं और कभी अत्यधिक कोमलता प्रकट करते हैं । वस्तुतः उनका व्यवहार सदा किसी-न-किसी गहरे उद्देश्य से प्रेरित होता है, जिसे समझ पाना साधारण व्यक्ति की बुद्धि के परे है । फलतः उनके विषय में लोगों की भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है और वे उन्हें कुछ-का-कुछ समझ लेते हैं, परन्तु उनका अन्तिम लक्ष्य सदा लोक-कल्याण ही होता है, जिससे प्रेरित होकर वे सारे कार्य करते हैं । तुलसीदास जी ने भी कहा है कि
कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि ।
चित खगेस रघुनाथ कर, समुझि परइ कहु काहि॥
अर्थात् श्री रघुनाथजी का चित वज्र से भी अधिक कठोर और पुष्पों से भी अधिक कोमल है । उसे भला कौन समझ सकता है?
11 . एतत्त्रयं जगतिपण्यकतो लभन्ते ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में बताया गया है कि सच्चा मित्र, पुत्र तथा पत्नी भाग्य से ही मिलते हैं ।
व्याख्या- मित्र, पुत्र और पत्नी जीवन में प्रायः सभी को प्राप्त होते हैं; किन्तु सच्चा मित्र, सुपुत्र और सुपत्नी सबको नहीं मिलते । जो व्यक्ति पुण्यवान् हैं, जिन्होंने अच्छे कार्य किये हैं, वे ही इन्हें प्राप्त करते हैं; शेष को तो कुमित्र, कुपुत्र और कुपत्नी की ही प्राप्ति होती है जो जीवन-यात्रा को सुखद एवं सरल बनाने की अपेक्षा दुःखद एवं कठिन बना देते हैं । सुपुत्र वह है जो पिता को अच्छे कार्यों से प्रसन्न करता है । उसके सत्कार्यों से पिता का मान-सम्मान बढ़ता है । सुपत्नी वह है, जो सदा पति का हित चाहती है और जीवन-यात्रा में पूर्ण सहयोग करती है, सच्चा मित्र वह है जो सुखी और दुःख दोनों में समान रहता है । कपटी मित्र तो केवल सुख में साथ रहता है और दुःख में किनारा कर जाता है । इस प्रकार सुपुत्र, सुपत्नी और सुमित्र सबके भाग्य में नहीं होते, पुण्यवान् एवं सौभाग्यशाली जन ही उन्हें पाते हैं ।
12 . धेनुं धीरा सुनृतां वाचमाहुः ।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग-प्रिय और सत्य वाणी की महत्ता को इस सूक्ति में प्रतिपादित किया गया है ।
व्याख्या- विद्वानों ने प्रिय और सत्य वाणी को गाय के समान समस्त सुख-समृद्धि और कल्याणों की जननी कहा है । वस्तुत: सत्य और प्रिय वचन बोलने वाला सर्वत्र आदर ही नहीं पाता, अपितु दूसरों का प्रीतिभाजन बनकर भी अपने कार्य सुगमतापूर्वक सिद्ध कर लेता है । इसी कारण एक कवि ने कहा है
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियतम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात्, एष धर्मः सनातनः॥
अर्थात् मनुष्य को सत्य और प्रिय वाणी बोलनी चाहिए, कटु सत्य नहीं कहना चाहिए । सत्य के साथ प्रिय बोलना ही सनातन धर्म है ।
13 . न खलु बहिरूपाधीन् प्रीतयःसंश्रयन्ते ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रेम बाह्य नहीं, वरन् अन्तःकारणों से होता है, यही तथ्य इस सूक्ति में बताया गया है ।
व्याख्या- प्रेम बाहरी कारणों (या विशेषताओं) पर निर्भर नहीं होता । वह तो पूर्णतः आन्तरिक और अकारण होता है । कोई हमें पहली भेंट मे क्यों अपना लगने लगता है, जब कि किसी दूसरे के साथ वर्षों रहकर भी वह अपना नहीं बन पाता, यह विवेचन या विश्लेषण का विषय नहीं; क्योंकि व्यक्ति स्वयं नही जान पाता कि ऐसा क्यों होता है । कालिदास के अनुसार ऐसा पूर्वजन्म के संस्कारों के फलस्वरूप होता है-भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि । कारण कुछ भी हो, पर यह सत्य है कि यह प्रेम किसी व्यक्ति की बाहरी विशेषताओं-रूप, गुण, धन, पद आदि पर निर्भर नहीं होता । हरिऔध जी की गोपियाँ भी यही कहती हैं
न कामुका हैं हम राजवेश की, न नाम प्यारा यदुनाथ है हमें ।
अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की, वियागिनी, पागलिनी, विरागिनी॥
गोपियाँ मथुराधिप कृष्ण की प्रेमिकाएँ नहीं थी, वे तो गोकुल कृष्ण को अपना हृदय दे बैठी थीं । एक उर्दू शायर लिखते हैं
न गरज किसी से न वास्ता मुझे, काम अपने ही काम से,
तेरे जिक्र से, तेरे फिक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से ।
14 . न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में धैर्यवान् लोगों के विषय में बताया गया है कि वे न्याय के मार्ग से विचलित नहीं होते ।
व्याख्या- धैर्यशील लोग न्याय के मार्ग से एक पग भी नहीं हटते । वस्तुत: न्याय ही धर्म का आधार है । दूसरे का प्राप्य उसे देना और अपना स्वयं लेना ही न्याय है । यदि न्याय का पालन सभी लोग करें तो संसार में कभी अशान्ति या उपद्रव न हो । धैर्यशाली मनुष्य को न्यायी होने पर यद्यपि सबसे सहयोग नहीं मिल पाता, किन्तु वह किसी आकांक्षा, भय, लोभ या सुविधा के लिए इस पथ को नहीं छोड़ता । न्यायशीलता के इस महत्त्व को जानने वाले धर्मनिष्ठ लोग दृढ़तापूर्वक न्याय के मार्ग पर चलते हैं, फिर चाहे लोक-व्यवहार में निपुण लोग उन्हें अच्छा कहें या बुरा, धन आये या जाए और चाहे मृत्यु का भय ही क्यों न उत्पन्न हो जाए; हर प्रकार हर ओर से बाधाओं और संकटों से घिरने पर कोई अत्यधिक धैर्यवान् पुरुष ही न्याय-पथ पर अविचल रह सकता है, कम साहसी लोग न चाहते हुए भी उससे डिग जाते हैं । इसी कारण न्याय-मार्ग पर चलने के लिए धैर्य के गुण को सर्वाधिक आवश्यक माना जाता है । रूसो ने भी कहा है कि, “धैर्य कड़वा तो अवश्य होता है, परन्तु उसका फल सदैव मधुर होता है । “
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कत में दीजिए
1 . भाषासु का भाषा मुख्या, मधुरा, दिव्या च अस्ति?
उत्तर- भाषासु गीर्वाणभारती (संस्कृत भाषा) मुख्या, मधुरा, दिव्या च अस्ति ।
2 . विद्याप्राप्त्यर्थं विद्यार्थी किं त्यजेत्?
उत्तर- विद्याप्राप्त्यर्थं विद्यार्थी सुखं त्यजेत् ।
3 . कथं विद्याधनं सर्वधनप्रधानमस्ति?
उत्तर- सर्वाणि धनानि सन्ति अपहर्तुं शीलानि । केवलं विद्यां धनमेव व्यये कृते वृद्धिकारकं भवति ।
4 . सर्वधनप्रधानं किं धनम् अस्ति?
उत्तर- सर्वधनप्रधानं विद्याधनम् अस्ति ।
5 . धीमतां कालः कथं गच्छति?
उत्तर- धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति ।
6 . सुपुत्रः कः? उत्तर- यः सुचरितैः पितरं प्रीणाति सः सुपुत्रः भवति ।
7 . खलस्य विद्या किमर्था भवति?
उत्तर- खलस्य विद्या विवादाय, धनं मदाय, शक्तिः परेषां परपीडनाय भवति ।
8 . पुण्डरीकं कदा विकसति?
उत्तर- पुण्डरीकं पतङ्गस्य उदये विकसति ।
9 . महताम् एकरूपता कदा भवति?
उत्तर- सम्पत्तौविपत्तौ च महताम् एकरूपता भवति ।
10 . पुत्रं, कलत्रं, मित्रंच जगति केलभन्ते?
उत्तर- पुत्रं, कलत्रं, मित्रं च जगति पुण्यकृतो लभन्ते ।
11 . जल बिन्दुनिपातेन क्रमशः कः पऍते?
उत्तर- जल बिन्दुनिपातेन क्रमश: घटः पयूँते ।
12 . धीराः कुतः पदंन प्रविचलन्ति?
उत्तर- धीराः न्याय्यात् पथं पदं न प्रविचलन्ति ।
13 . लोकोत्तराणांचेतांसि कीदृशानि भवन्ति?
उत्तर- लोकोत्तराणां चेतांसि वज्रादपि कठोराणि कुसुमादपि मृदूनि च भवन्ति ।
14 . मूर्खाणां कालः कथं गच्छति?
उत्तर- मूर्खाणां काल: व्यसनेन निद्रया कलहने वा गच्छति ।
15 . कीदृशं मित्रं वर्जयेत्?
उत्तर- परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनं ईदृशं मित्रं वर्जयेत् ।
प्रश्ननिम्नलिखित वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए
1 . विद्यार्थी को सुख का त्याग कर देना चाहिए ।
अनुवाद-विद्यार्थी सुखस्य त्यजेत् ।
2 . जल की बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है ।
अनुवाद- जलस्य बिन्दु निपातेन घट: पऍते ।
3 . मूर्ख व्यक्ति व्यसनों में समय बिताते है ।
अनुवाद- मूर्खाः व्यसनेषु कालं व्यतीतयन्ति ।
4- विद्या सभी धनों में श्रेष्ठ है ।
अनुवाद-विद्या सर्वधनानां श्रेष्ठमस्ति ।
5 . सज्जन सदा एक समान ही रहते हैं ।
अनुवाद- सज्जनाः सदा समानत्वेन निवसन्ति ।
6 . महापुरुषों का मन कोमल होता है ।
अनुवाद- महापुरुषस्य हृदयं कोमलं अस्ति ।
7 . सूर्य उदित होने पर कमल खिलता है ।
अनुवाद- सूर्यः उदिते कमलं विकसन्ति ।
8 . माता-पिता की सेवा परम धर्म है ।
अनुवाद- माता-पितरस्य सेवाय परमं धर्म अस्ति ।
9 . विद्याधन व्यय करने से बढ़ता है ।
अनुवाद-विद्याधनं व्यय कृते वर्द्धत ।
10 . संस्कृत भाषा देवताओं की वाणी है ।
अनुवाद-संस्कृतः भाषाय देववाणीं अस्ति ।
संस्कृत व्याकरण संबंधी प्रश्न
निम्नलिखित शब्द-रूपों में विभक्ति तथा वचन लिखिए
शब्द-रूप ………विभक्ति………वचन
भाषासु………सप्तमी………बहुवचन.
सुखार्थिनः………पञ्चमी/षष्ठी………एकवचन
निपातेन………तृतीया………एकवचन
धर्मस्य………षष्ठी………एकवचन
विनोदेन………तृतीया………एकवचन
धीमताम् ………षष्ठी………बहुवचन
व्यसनेन………तृतीया………एकवचन
मूर्खाणां……..षष्ठी…………बहुवचन
विवादाय………चतुर्थी………एकवचन
खलस्य ……….षष्ठी…………एकवचन
न्याय्यात्……….पञ्चमी……….एकवचन
ऋषयोः……….षष्ठी/सप्तमी……….द्विवचन