UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi संस्कृत Chapter 6 नृपतिर्दिलीपः

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निम्नलिखित गद्यावतरणों का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए
1-वैवस्वतो……………………………………. …प्रणवश्छन्दसामिव |
[वैवस्वतः = विवस्वान् (सूर्य) का पुत्र, मनीषिणाम् विद्वानों के आसीन्महीक्षितामाद्य > आसीन् महीक्षिताम् आद्य + हुए राजाओं में प्रथम प्रणवश्छन्दसामिव > प्रणवः छन्दसाम् इव वेदों में ओऽम् (ऊ) की भांति]
अनुवाद- महाराज दिलीप अपनी विशाल शरीरकृति के सदृश ही विशाल बुद्धि वाले थे (अर्थात् अत्यधिक मेधावी थे), विशाल बुद्धि के अनुरूप ही उनका शास्त्रज्ञान था (अर्थात् उन्होंने विभिन्न शास्त्रों का गम्भीर ज्ञान बहुत शीघ्र प्राप्त कर लिया था), अपने शास्त्रज्ञान के अनुरूप ही वे किसी कार्य का प्रारम्भ करते थे । (अर्थात् शास्त्रानुसार ही किसी कार्य में हाथ डालते थे) और कार्यरम्भ के अनुरूप ही उनकी फलसिद्धि होती थी (अर्थात् शास्त्रानुसार कार्यारम्भ के कारण उनको सफलता भी अति शीघ्र प्राप्त हो जाती थी) ।
2- . सेनापरिच्छदस्तस्य . . . . . . . . . . . . . .चातता ।
[परिच्छदस्तस्य > परिच्छदः + तस्य = उसका उपकरण थी, द्वयमेवार्थसाधनम् > द्वयम + एव + अर्थसाधनम् = (दिलीप के) अर्थ (प्रयोजन) को सिद्ध करने वाले (साधन तो) दो ही थे, अकुण्ठिता = अप्रतिहत; न रुकने वाली, मौर्वी = धनुष की डोरी; प्रत्यंचा, चातता>च+ आतता = और चढ़ी हुई या तनी हुई]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- उन (राजा दिलीप) की विशाल सेना तो बस उपकरणमात्र (शोभामात्र) थी । उनका प्रयोजनन सिद्ध करने वाले (वस्तुतः) दो ही साधन थे- शास्त्रों में उनकी अप्रितहत बुद्धि (अर्थात् शास्त्रों पर उनका असाधारण अधिकार) और धनुष पर चढ़ी हुई डोरी (भाव यह है कि राजा दिलीप का असाधारण शास्त्रज्ञान, जिससे वे हर कार्य उचित ढंग से करते थे और उनका व्यक्तिगत पराक्रम उन्हें तत्काल सफलता दिलवाता था । उन्हें सेना के प्रयोग की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी) ।
6- जुगोपात्यानमत्रस्तो . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .सुखमन्वभूत् ।
[जुगोप = रक्षा करते थे, अत्रस्तम् = भयरहित होकर, भेजे = सेवन करते थे; अर्जन करते थे, अनातुरः = बिना घबराए हुए, अगृध्नुः =लोभरहित, आददे =ग्रहण; संग्रह करते थे, अन्वभूत् = अनुभव करते थे । ]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- वे (राजा दिलीप) निर्भीक होकर अपनी रक्षा करते थे, धैयपूर्वक धर्म का पालन करते थे, लोभरहित होकर धन का संग्रह करते थे और आसक्तिरहित होकर सांसारिक सुखों का अनुभव (भोग) करते थे ।
7 . ज्ञाने मौनं . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .सप्रसव्य इव ।
[ शक्तौ = शक्ति रहते हुए भी, श्लाघाविपर्ययः = प्रशंसारहित, अनुबन्धित्वात् = साथ-साथ रहने के कारण, सप्रसवा इव > सप्रसवाः + इव = सहोदर जैसे]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- सब कुछ जानते हुए चुप रहना, (शत्रु से बदला लेने की) सामर्थ्य होते हुए भी क्षमा करना तथा त्याग करके भी अपनी प्रशंसा से दूर रहना- ये परस्पर विरोधी गुण राजा दिलीप में साथ-साथ रहने के कारण (अर्थात्) ज्ञान, शक्ति और त्याग के साथ उनके विरोधी गुण मौन, क्षमा और आत्म-प्रशंसा का अभाव रहने के कारण) लगता था, मानो ये (परस्पर विरोधी गुण) उनमें साथ-साथ ही उत्पन्न हुए हों ।
8 . प्रजानां . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .जन्महेतवः ।
[विनयाधानाद् = विनय का आधान करने के कारण, भरणाद् = पालन-पोषण करने के कारण, तासाम् = उन के (प्रजाओं के), जन्महेतवः = जन्म देने के कारण]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- प्रज्ञाओं को सदाचार की शिक्षा देने, (विपत्तियों से उनकी) रक्षा करने एवं (अन्न-वस्त्रादि देकर उनका) पालनपोषण करने से वे (राजा दिलीप) ही प्रज्ञाओं के (वास्तविक) पिता थे । पिता कहलाने वाले अन्य लोग तो केवल जन्म भर के पिता थे (आशय है कि पिता का भरण-पोषणादि का कार्य राजा ही करते थे । )
9 . दुदोहगां . . . . . . . . . . . . . . . . . .दधतुर्भुवनद्वयम् ।
[दुदोह = दोहन किया था, गाम् = पृथ्वी का, शस्याय = अन्न के लिए, मधवा = इन्द्र, दिवम् = स्वर्ग को, सम्पद्विनिमयनोभौ > सम्पद-विनिमयेन + उभौः = सम्पत्ति के आदान-प्रदान से वे दोनों, दधतः = पोषण करते थे]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- वे (राजा दिलीप) यज्ञ करने के लिए पृथ्वी को दुहाते थे (अर्थात् प्रजा से कर लेकर उसे यज्ञों में लगाते थे, जिससे देवताओं का पोषण होता था) और (बदले में) इन्द्र अनाज (की वृद्धि) के लिए आकाश को दुहते थे (अर्थात् आकाश से जल की वर्षा करके पृथ्वी पर अन्न की वृद्धि करते थे । ) । (इस प्रकार) वे दोनों (दिलीप और इन्द्र) अपनी-अपनी सम्पत्तियों के पारस्परिक विनिमय (आदान-प्रदान) द्वारा दोनों लोकों (भूलोक और स्वर्गलोक) का पोषण करते थे ।
विशेष- यज्ञों से देवताओं का पोषण होता है; क्योंकि उनमें दी गयी आहुतियाँ देवताओं तक पहुँचाती हैं ।
10 . स वेलावप्रवलयां . . . . . . . . . . . . . . . . . . .शशासैकपुरीभिव ।
[ वेलावप्रवलयाम् = समुद्ररूपी परकोटे वाली, परिखीकृत-सागराम् = सागररूपी खाई वाली, अनन्यशासनाम् = जो दूसरों के शासन से रहित है (ऐसी पृथ्वी), उर्वीम = पृथ्वी, शशास = शासन किया । ]
सन्दर्भ- पहले की तरह
अनुवाद- उस (दिलीप) ने सागरतटरूपी परकोटे वाली और समुद्ररूपी खाई वाली तथा अन्य किसी राजा के शासन से रहित समग्र पृथ्वी पर एक नगरी के सदृश शासन किया (आशय यह है कि सागर से घिरी समस्त पृथ्वी पर दिलीप का एकछत्र अधिकार था, फिर भी वे उसका शासन ऐसी सुगमता से करते थे, जैसे कोई राजा एक नगरी पर शासन करे) ।
निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
1 . त्याज्यो दुष्टः प्रियोप्यासीत् ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘नृपतिर्दिलीप:’ नामक पाठ से अवतरित है ।
प्रसंग- इस सूक्ति में राजा दिलीप की न्यायप्रियता को प्रदर्शित किया गया है ।
व्याख्या- राजा दिलीप बड़े न्यायप्रिय राजा थे । यदि उनका प्रिय व्यक्ति भी दुष्टतापूर्ण आचरण करता था तो वे उसको त्याग देते थे और दण्ड के विधानुरूप उसे कठोर-से-कठोर दण्ड देते थे । वे सज्जन व्यक्ति का सम्मान करते थे, भले ही वह उनका शत्रु ही क्यों न हो । दुर्जन प्रिय व्यक्ति का त्याग करने में वे लेशमात्र भी संकोच नहीं करते थे । सामान्य व्यक्ति गुणहीन प्रियजन के प्रति भी स्नेहभाव रखता है और गुणवान शत्रु के प्रति देषभाव । किन्तु राजा दिलीप सामान्य व्यक्ति नहीं थे । गुणी शत्रु भी उनके लिए उसी प्रकार ग्राह्य होता था, जिस प्रकार रोगी के लिए कटु औषध और दुष्ट प्रिय व्यक्ति भी उसी प्रकार त्याज्य था, जिस प्रकार सर्प के द्वारा दंशित अँगुली ।
2 . वृद्धत्वं जरसा विना ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में राजा दिलीप के धीरे-गम्भीर व्यक्तित्व का प्रतिपादन किया गया है ।
व्याख्या- व्यक्तिगत जीवन को उन्नत करने के लिए भारतीय संस्कृति में चार आश्रमों- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का निर्धारण किया गया है । ब्रह्मचर्य में विद्याध्ययन, गृहस्थ में धनोपार्जन और वैवाहिक जीवन, वानप्रस्थ में गृहस्थ के अनेक कार्यों से विरक्ति और संन्यास में अपने को ईश्वर और दैवी उपासना में समर्पण की व्यवस्था है । व्यक्ति आयु बढ़ने के साथ-साथ अनुभव से परिपक्वता प्राप्त करना है तथा वृद्धावस्था में उसका विषयों के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है, किन्तु राजा दिलीप ने युवा होते हुए भी सांसारिक विषयों के प्रति आकर्षित न होकर, सम्पूर्ण विद्याओं में पारंगत होकर तथा अपने धर्म का पालन करके बिना वृद्धावस्था के ही बुद्धत्व (परिपक्वता) को प्राप्त कर लिया था अर्थात् उन्हें सभी विद्याओं का बहुत अधिक ज्ञान था, जो उनकी अवस्था के व्यक्तियों में होना असम्भव था । अन्यत्र भी कहा गया है कि, “मनुष्य के केश श्वेत हो जाने पर ही वह बुद्ध नहीं होता, अपितु अध्ययनरत युवा भी वृद्धों की कोटि में ही आता है ।
3 . प्रणवश्छन्दसामिव ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- यह सूक्ति राजा मनु की श्रेष्ठता के सन्दर्भ में कही गयी है ।
व्याख्या-सभी मन्त्रों में प्रणव मन्त्र अर्थात् ओंकार मन्त्र को श्रेष्ठ और पवित्र माना गया है । राजा मनु भी अपने समय के सभी राजाओं में उसी प्रकार से सर्वश्रेष्ठ थे, जिस प्रकार से मन्त्रों में प्रणव मन्त्र सर्वश्रेष्ठ होता है ।
4 . द्वेष्योऽपि सम्मतः शिष्टः ।
सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- इस सूक्ति में राजा दिलीप की चारित्रिक श्रेष्ठता पर प्रकाश डाला गया है ।
व्याख्या- राजा दिलीप योग्य एवं गुणवान् व्यक्ति का सदा सम्मान करते थे । यदि कोई सज्जन स्वभाव वाला व्यक्ति उनसे शत्रुता का भाव रखता था तो वे ऐसे शत्रु के प्रति भी सम्मान का भाव रखते थे । ऐसा व्यक्ति उन्हें वैसे ही प्रिय होता था जैसे कि रोगी को कटु औषध प्रिय होती है । इसके विपरित उनके लिए दुष्ट व्यक्ति प्रिय होते हुए भी त्याज्य था । तात्पर्य यह है कि राजा दिलीप स्वयं अनेक सद्गुणों से युक्त थे और वे दूसरे किञ्चित् गुणवान् व्यक्तियों का भी सम्मान करते थे । उनका मानना था कि शत्रु भी किसी अनुकरणीय गुण से सम्पन्न हो सकता है । अतः सम्पूर्ण रूप से किसी व्यक्ति को नकारना हमारी अज्ञानता का परिचायक होता है और हमारे व्यक्तित्व को संकुचित बना देता है ।
5- ज्ञाने मौनं क्षमाशक्तौ त्यागे श्लाद्याविपर्ययः ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में राजा दिलीप के त्यागपूर्ण व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है ।
व्याख्या- राजा दिलीप बहुत गुणवान् थे । जहाँ वे ज्ञान होने पर भी मौन रहते थे, वहीं त्याग करने पर भी अपनी प्रशंसा के विरुद्ध रहते थे । उनका त्याग निःस्वार्थ भाव का त्याग होता था । वे उस त्याग के बदले अपनी प्रशस्ति नहीं सुनना चाहते थे । ऐसा कहा गया है कि आत्म-प्रशंसा सबसे बड़ी आत्मा-प्रवंचना होती है । त्याग एवं दान का मूलभूत सिद्धान्त यही है कि जो दिया जाए उसका कभी भी ढिंढोरा न पीटा जाए । राजा दिलीप का त्यागपूर्ण व्यक्तित्व भी ऐसा ही था ।
6 . स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में राजा दिलीप के कर्त्तव्य-पालन पर प्रकाश डाला गया है ।
व्याख्या- राजा दिलीप अपने कर्तव्यों का सदैव पालन करते थे । वे अपनी प्रज्ञा को सदाचार की शिक्षा देते थे, विपत्तियों से अपनी प्रजा की रक्षा करते थे, तथा अन्न-वस्त्र आदि देकर वे अपनी प्रजा का पालन-पोषण करते थे, जैसे वे ही प्रजा के वास्तविक पिता हो । पिता कहलाने वाले अन्य लोग तो केवल जन्म देने भर के पिता थे । उनका पालन-पोषण तो राजा दिलीप ही करते थे । अर्थात् प्रजा के पालन-पोषण का दायित्व राजा दिलीप ही उठाते थे ।
7 . प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमगृहीत ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में राजा दिलीप की कर-व्यवस्था की प्रशंसा की गयी है ।
व्याख्या- जिस प्रकार भगवान् सूर्य बहुत कम मात्रा में जल सोखते हैं, पर बदले में हजार गुना जल बरसा देते है, ठीक उसी प्रकार राजा दिलीप अपनी प्रजा से बहुत कम कर (टैक्स) ग्रहण करते थे और उसके बदले हजार गुना सुविधाएँ प्रजा को देते थे । उनके कर प्राप्त करने का तरीका इतना सहज और स्वाभाविक था कि प्रजा को कर देते समय किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता था अर्थात् प्रजा को कर देने का उसी प्रकार पता नहीं चलता था, जिस प्रकार से सूर्य द्वारा वाष्प बनाकर जल सोखने की क्रिया का किसी को पता नहीं चलता ।
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में दीजिए
1 . महीक्षितामं आद्यः कः आसीत् ?
उत्तर – महीक्षितामं आद्यः वैवस्वतः आसीत् ।
2 . वैवस्वत:मनुः कः आसीत् ?
उत्तर – वैवस्वतः मनुः पृथिव्याम् आद्यः शासकः आसीत् ?
3 . मनीषिणां माननीयः कः आसीत् ?
उत्तर – मनीषिणां माननीय: वैवस्वतः मनुः आसीत् ।
4 . राज्ञः दिलीपस्य गुणान् वर्णयन्तु ?
उत्तर – दिलीप: मनीषिणां माननीयः नृपगुणैः परिचारकाणामधृष्यश्चाभिगम्यश्च, प्रजापालकः, शास्त्रज्ञः संवृतमन्त्रः, धनुर्धरः, प्रजानुशास्ता आसीत् ।
5 . दिलीपः कस्य प्रदेशस्य राजा आसीत् ?
उत्तर – दिलीप:समग्रभूमण्डलस्य राजा आसीत् ?
6 . दिलीप: गांकिमर्थं ददोह ?
उत्तर – दिलीप: गां यज्ञाय दुदोह ।
7 . दिलीपःकस्यान्वये प्रसूतः ?
उत्तर – दिलीप: वैवस्वतमनोरन्वये प्रसूतः ।
8 . मधवा दिवं किमर्थं दुदोह ?
उत्तर – मधवा दिवं शस्याय दुदोह ।
9 . रविःरसंकिमर्थं आदत्ते ?
उत्तर – रवि: रसं (जलं) सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते ।
10 . दिलीपः किमर्थं बलिमगृहीत् ?
उ०- दिलीप: प्रजनामेव भूत्यवर्थं बलिमगृहीत् ।
निम्नलिखित वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए
1 . दिलीप अयोध्या के राजा थे ।
अनुवाद-दिलीपः अयोध्याया राजा आसीत् ।
2 . वे प्रजा के हित के लिए ही कर लेते थे ।
अनुवाद-सः प्रजाहितायैव करमगृहीत् ।
3 . दिलीप ने वैवस्वत मनु के वंश में जन्म लिया ।
अनुवाद-दिलीप: वैवस्वतः मनुस्य वंशे प्रसूतः ।
4 . वे सज्जनो का आदर करते थे ।
अनुवाद-सः सज्जनानामादरं करोति स्म ।
5 . वे प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे ।
अनुवाद- सः प्रजां पुत्रवत् पालयति स्म ।
6 . मेरा मित्र मेरे साथ हरिद्वार गया ।
अनुवाद- मम मित्र मया सह हरिद्वारं अगच्छत् ।
7 . गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस लिखा ।
अनुवाद- गोस्वामी तुलसीदासः श्रीरामचरितमानसम् अलिखत् ।
8 . मेरागाँव गंगा के तट पर है ।
अनुवाद-मम ग्राम: गंगाया तटे अस्ति ।
9 . श्याम राम को पुस्तक देता है ।
अनुवाद- श्यामः रामं पुस्तकं ददाति ।