UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 10 SCIENCE CHAPTER 18 जीवन की प्रक्रियाएं

UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 10 SCIENCE CHAPTER 18 जीवन की प्रक्रियाएं
UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 10 SCIENCE CHAPTER 18 जीवन की प्रक्रियाएं

UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 10 SCIENCE CHAPTER 18 जीवन की प्रक्रियाएं

CLASS 10 SCIENCE CHAPTER 18 जीवन की प्रक्रियाएं

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. पोषण क्या है ? जीवों में पोषण क्यों आवश्यक है तथा मनुष्य की पाचन क्रिया का वर्णन कीजिए।

उत्तर- पोषण जीवों को जीवित रहने तथा शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयी क्रियाओं को करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है। विभिन्न प्रकार के जीव भोजन के लिए विभिन्न विधियाँ अपनाते हैं। भोजन ग्रहण करने से लेकर, पाचन, अवशोषण, कोशिकाओं तक पहुँचाने, कोशिका में उसके ऊर्जा उत्पादन में प्रयोग करने अथवा जीवद्रव्य में स्वांगीकृत करने तथा भविष्य के लिए उसे शरीर में संगृहित करने तक की सभी क्रियाओं का सम्मिलित नाम पोषण है।

जीवों में पोषण की आवश्यकता- शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पोषक पदार्थ अति आवश्यक हैं जो कि भोज्य पदार्थों में पाए जाते हैं। जिनका उचित मात्रा में उपलब्ध होना आवश्यक होता है। ये पोषक पदार्थ शरीर के टूट-फूट की मरम्मत, उचित वृद्धि, जीव द्रव्य निर्माण एवं रोगों से प्रतिरक्षा के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं अतः जीवों में पोषण इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक होता है।

मनुष्य की पाचन क्रिया- पाचन क्रिया ठोस, अविसरणीय खाद्य पदार्थों के जटिल अणुओं एवं आयनों में विभाजित होने की क्रिया है। भोजन का पाचन दो प्रकार से होता है-

(i) यांत्रिक पाचन

(ii) रासायनिक पाचन

मनुष्य में अन्य जंतुओं की अपेक्षा पाचन तंत्र; विशेषकर इसकी आहारनाल एक लंबी एवं जटिल प्रणाली होती है। भोजन आहारनाल के विभिन्न अंगों में से होता हुआ आगे बढ़ता है तथा धीरे-धीरे पचाया जाता है। विभिन्न क्रियाओं के फलस्वरूप भोजन लेई के समान हो जाता है। इन क्रियाओं के लिए आहारनाल की दीवार में क्रमाकुंचन गति होती है जो भोजन को आगे बढ़ाती है तथा आमाशय में इसे पीसती है और पाचक एंजाइम्स को मिलाती है। आहारनाल की श्लेष्मक कला में अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की पाचक ग्रंथियाँ होती हैं। पाचक ग्रंथियाँ पाचक रस बनाती हैं। इन पाचक रसों में एक या अधिक प्रकार के एंजाइम्स होते हैं, जो भोजन के विभिन्न घटकों को पचाने में सहायता करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी ग्रंथियाँ आहारनाल से संबंधित होती हैं, जो अपना एंजाइमयुक्त पाचक रस आहारनाल में भेजती हैं।

अतः स्पष्ट है कि मनुष्य की आहारनाल में भोजन का पाचन मुखगुहा से प्रारंभ हो जाता है तथा इसके विभिन्न अवयवों का पाचन विभिन्न एंजाइम्स के कारण होता है। भोजन को आहारनाल में आगे बढ़ाने के लिए क्रमाकुंचन नामक एक विशेष प्रकार की गति होती है जिससे भोजन पाचक रस के साथ अच्छी तरह से मिल जाता है। आहारनाल के विभिन्न भागों में पाचन निम्न प्रकार से होता है-

(i) मुखगुहा में पाचन मुखगुहा में भोजन को दाँतों द्वारा चबाकर लार मिलाई जाती है। लार में टायलिन या सैलाइवरी एमाइलेज एंजाइम होता है। यह मंड पर क्रिया करके उसे शर्करा में बदल देता है। भोजन लेई-सा होकर प्रसनी के निगलद्वार तथा ग्रास नली में से होकर, अंत में आमाशय में पहुँचता है।

(ii) आमाशय में पाचन आमाशय में लगातार क्रमाकुंचन के कारण भोजन पिसता है। साथ ही जठर ग्रंथियों से निकला जठर रस भी इसमें मिलता है। जठर रस में नमक के अम्ल या हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) के अतिरिक्त प्रोपेप्सिन तथा प्रोरेनिन नामक प्रोएंजाइम्स होते हैं। (a) हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, इन प्रोएजाइम्स को क्रियाशील बनाता है तथा भोजन को सड़ने से बचाता है। (b) यह भोजन के साथ आए बैक्टीरिया को नष्ट करता है। प्रोपेप्सिन अम्ल के साथ मिलकर पेप्सिन में बदल जाता है और भोजन के प्रोटीन पर क्रिया करता है। प्रोरेनिन भी रेनिन में बदलकर दूध को फाड़कर उनके प्रोटीन्स को अलग करता है। प्रोटीन्स पेप्सिन के प्रभाव से पेप्टोन्स में बदल जाते हैं।

उपर्युक्त प्रक्रियाओं के कारण भोजन भूरे रंग की लेई के रूप में बदल जाता है। इसे काइम कहते हैं। यह अब ग्रहणी में पहुँचता है।

ग्रहणी में पाचन ग्रहणी में काइम (अधपचा भोजन) में पहले पित्त रस तथा बाद में अग्न्याशयिक रस मिलता है। पित्त रस क्षारीय होता है। यह भोजन की अम्लीयता को दूर करता है तथा अग्न्याशयिक रस के प्रोएंजाइम्स को क्रियाशील अवस्था में बदलता है। अग्न्याशयिक रस में तीन प्रमुख एंजाइम्स होते हैं—

(i) ट्रिप्सिन- शेष अधपचे प्रोटीन और पेप्टोन्स पर क्रिया करके उनको अमीनो अम्लों में बदलता है।

(ii) एमाइलोप्सिन – विभिन्न प्रकार की शर्कराओं और मंड को ग्लूकोज में बदलता है। (iii) स्टीएप्सिन- वसाओं पर क्रिया करके उन्हें वसीय अम्ल तथा ग्लिसरॉल में बदलता है।

ग्रहणी में अधिकतर पाचन पूरा हो जाता है। शेष पाचन क्षुद्रांत्र में पूरा किया जाता है। क्षुद्रांत्र में पाचन- क्षुद्रांत्र में आँत्र ग्रंथियों से आँत्र रस स्रावित होता है। इसमें कई एंजाम्स होते हैं, जैसे इरेप्सिन। ये शेष प्रोटीन तथा उसके अवयवों को अमीनो अम्ल में और माल्टेज, इन्वर्टेल, लैक्टेज इत्यादि विभिन्न शर्कराओं को ग्लूकोज में तथा लाइपेज शेष वसाओं को ग्लिसरॉल तथा वसीय अम्लों में बदल देते हैं। पचे हुए भोजन का अवशोषण छोटी आँत्र द्वारा किया जाता है। इसके पश्चात् बचा अपच तथा अपशिष्ट बड़ी आंत को स्थानांतरित हो जाता है। जहाँ इससे जल का अवशोषण होता है। तथा बाद में उसका बहिःक्षेपण हो जाता है।

प्रश्न 2. पाचन से क्या तात्पर्य है? इसमें कौन-कौन से पाचक रस भाग लेते हैं। पचे हुए भोजन के अवशोषण तथा स्वांगीकरण की क्रिया का वर्णन कीजिए।

उत्तर- पाचन अंतर्ग्रहीत ठोस भोजन (कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन व वसा) के अवयव जल में अविलेय होने के कारण जंतु शरीर के लिए ग्राह्य नहीं होते। इन्हें कुछ भौतिक तथा रासायनिक क्रियाओं के द्वारा विलेय स्वरूप क्रमशः मोनोसेकेराइड्स, अमीनो अम्ल तथा वसा अम्ल के छोटे-छोटे सरल अणुओं या आयनों के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है, जिससे कि जंतु शरीर उसका शोषण सरलता से कर सकें। खाद्य पदार्थों के इस रासायनिक परिवर्तन को जल विश्लेषण कहते हैं। इसी जल विश्लेषण को वास्तव में पाचन क्रिया कहते हैं, अर्थात् पाचन क्रिया ठोस, अविसरणशील खाद्य पदार्थों के जटिल अणुओं एवं आयनों में विभाजित होने की क्रिया है, जिससे वह शोषण होने योग्य बनकर

विसरण अथवा परासरण द्वारा आमाशय तथा आँतों की श्लेष्म कला में फैली हुई रुधिर कोशिकाओं के रुधिर में मिलकर ऊतकों में पहुँच सके।

भोजन को पचाने में पाचक ग्रंथियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनसे स्रावित पाचक रसों में एक या एक से अधिक एंजाइम्स होते हैं। जो भोजन के विभिन्न घटकों को पचाने में सहायता प्रदान करते हैं। मुखगुहा में भोजन को दाँतों द्वारा चबाकर लार मिलाई जाती है। जिसमें उपस्थित टायलिन या सैलाइवरी एंजाइम मड पर क्रिया करके उसे शर्करा में बदल देता है। इसके पश्चात् भोजन आमाशय में चला जाता है। आमाशय में पहुँचा भोजन जठर ग्रंथियों से निकले जठर रस से क्रिया करता है। जठर रस में नमक के अम्ल या हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के अतिरिक्त प्रोपेप्सिन तथा प्रोरेनिन नामक प्रोएंजाइम्स होते हैं। प्रोपेप्सिन अम्ल के साथ क्रिया करके पेप्सिन में बदल जाता है। भोजन के प्रोटीन पेप्सिन के प्रभाव से पेप्टोन्स में बदल जाते हैं। इन सभी प्रक्रियाओं के पश्चात् लेई के रूप में बदला भोजन काइम कहलाता है। जो अवशोषण के लिए आगे स्थानांतरित हो जाता है।

पचे हुए भोजन का अवशोषण- पाचन के द्वारा भोजन के सभी आवश्यक अवयव प्रायः जल में विलेय अवस्था में आ जाते हैं। अतः जल के साथ इनका रुधिर में पहुँचना ही अवशोषण कहलाता है। भोजन का अवशोषण मुख्य रूप से छोटी आँत्र में होता है। तथा इसके लिए छोटी आंत्र की संरचना में भोजन के अवशोषण के लिए निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं-

(i) छोटी आँत्र की श्लेष्मिका में अनेक वर्तुल एवं अनुलंब सलवटें होती हैं। मनुष्य में इनकी उपस्थिति के कारण आंत्र का अवशोषण तल लगभग तीन गुना बढ़ जाता है।

इमेज आंत्रीय

(ii) आंत्र के पूरे तल पर छोटे-छोटे अनेकानेक उभार पाए जाते हैं, इन्हें रसांकुर कहा

जाता है। ये अवशोषण तल को दस गुना और बढ़ा देते हैं। (iii) श्लेष्मिका की प्रत्येक कोशिका की स्वतंत्र सतह पर लगभग 600-650, ब्रश के बालों के समान सूक्ष्मांकुर पाए जाते हैं। ये अवशोषण तल में बीस गुना और वृद्धि कर देते हैं। श्लेष्मिका की कोशिकाओं में अवशोषण का विशिष्ट गुण होने के कारण इन्हें अवशोषी कोशिकाएं भी कहा जाता है।

(iv) रसांकुरों में रुधिर केशिकाओं तथा लसीका केशिकाओं की उपस्थिति इनको अवशोषण का अत्यधिक सटीक तथा विशिष्ट स्वरूप प्रदान करती है।

(v) आंत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है। आंत्र में भोजन एक लंबी अवधि तक रुकता है। आंत्र की भित्तियों में क्रमाकुंचन तथा मंथन गतियां तीव्रता से होती रहती हैं। इससे अवशोषण में और अधिक सहायता मिलती है।

(vi) पचे हुए भोजन का अवशोषण दो प्रकार से होता है। कुछ पोषक पदार्थों का अवशोषण तो अवशोषी कोशिकाएँ विसरण तथा कोशिकापायन द्वारा निश्चेष्ट आवागमन की विधि से कर लेती हैं, परंतु मुख्य अवशोषण ऊर्जा को उपस्थिति में सक्रिय संवहन द्वारा होता है। अतः इस प्रकार के अवशोषण के समय इन कोशिकाओं में ए०टी०पी० की बहुत खपत होती है।

(vii) रुधिर केशिकाओं के रुधिर में अमीनो अम्लों, शर्कराओं, लवणों इत्यादि का जल

के साथ विसरण द्वारा अवशोषण होता है। (viii) बसाओं के अपघटन से बना ग्लिसरॉल अधः श्लेष्मा से अवशोषित होता है। इसी प्रकार वसीय अम्ल कुछ लवणों के साथ संयोजित होकर अधः श्लेष्मा में पहुँचते हैं। लवणों के अलग होने पर वसीय अम्ल उपस्थित ग्लिसरॉल के साथ मिलकर वसा बिंदु बना लेते हैं। वसा बिंदु लसीका केशिका या अक्षीर वाहिनी में पहुँचते हैं। अक्षीर वाहिनी प्रत्येक रसांकुर में उपस्थित होती है। बाद में लसीका वाहिनियाँ भी रुधिर वाहिनियों में ही खुलती हैं।

भोजन का स्वांगीकरण- पचे हुए भोजन को अवशोषित कर कोशिका के जीवद्रव्य तक पहुँचाने के बाद भोजन के तत्वों को कोशिका में जीवद्रव्य के स्वरूप में विलीन होने की क्रिया को स्वांगीकरण कहते हैं। सभी जीवों में वह क्रिया आवश्यक है। इसी से जीवद्रव्य की वृद्धि होती है अर्थात् जीव की वृद्धि होती है। पाचन से कोशिका को भोज्य पदार्थ अत्यन्त सरल तथा जल में विलेय अवस्था में प्राप्त होते हैं। इन सरल पदार्थों को कोशिका में होने वाली विशेष क्रियाओं के द्वारा जीवद्रव्य के जटिल यौगिकों के रूप में संश्लेषित किया जाता है। इस प्रकार इनको जीवद्रव्य के स्वरूप में डाल दिया जाता है।

स्वांगीकृत खाद्य तत्वों का भाग अलग-अलग हो सकता है; जैसे ग्लूकोज ऊर्जा उत्पादन के लिए काम में आता है। कुछ ग्लिसरॉल तथा वसीय अम्ल भी इसी काम में आ जाते हैं। अन्य पदार्थ टूट-फूट की मरम्मत करते हैं अर्थात् जीवद्रव्य का अंश बनते हैं। कुछ तत्व हॉर्मोन्स आदि बनाने के काम आते हैं। अधिकांश एमीनो अम्ल प्रोटीन्स के संश्लेषण में उपयोगी होते हैं। इन कोशिकांगों के निर्माण, मरम्मत, वृद्धि आदि के काम आते हैं। अन्य एन्ज़ाइम बनाते हैं। कुछ एमीनो अम्लों का उपयोग ऊर्जा के उत्पादन में भी हो सकता है।

प्रश्न 3. मनुष्य में पाए जाने वाली विभिन्न पाचक ग्रंथियों का नाम लिखिए। पाचन क्रिया में इनका क्या महत्व है?

उत्तर- मनुष्य में पाए जाने वाली विभिन्न पाचक ग्रंथियाँ तथा पाचन क्रिया में इनका

महत्व- (i) लार ग्रंथियाँ- मुख-गुहा में अनेक छोटी-छोटी (सूक्ष्म) मुख ग्रंथियाँ उसकी श्लेष्मिका में होती हैं जो थोड़ी मात्रा में लार सावित करती हैं। जिला को श्लेष्मिका में भी इसी प्रकार की सूक्ष्म ग्रंथियाँ पाई जाती हैं। बड़ी तथा अधिक मात्रा में लार उत्पन्न करने वाली तथा वाहिकाओं द्वारा इसे मुखगुहा में पहुंचाने वाली निम्नलिखित तीन लार जोड़ियाँ होती है-

(a) कर्णपूर्व लार ग्रंथियाँ- कानों के पास कपोलों के पास व कपोलों में स्थित, ये सबसे बड़ी लार ग्रंथियाँ होती हैं तथा ऊपरी जबड़े में वाहिकाओं, स्टेन्सेन्स नलिका द्वारा चर्वणकों के पास खुलती हैं।

(b) अधोजिह्वा लार ग्रंथियां- ये जीभ के ठीक नीचे स्थित छोटी व संकरी ग्रंथियों होती हैं और निचले जबड़े में दाँतों के पास ही कई स्थानों पर खुलती हैं।

(c) अधोहनु लार ग्रंथियाँ- ये निचले जबड़े के पश्च भाग में स्थित होती हैं। ये अगले दाँतों (निचले कृन्तकों) के पास लंबी वाहिनियों, वारटन्स नलिकाओं के द्वारा खुलती हैं।

(ii) जठर ग्रंथियाँ- ये मनुष्य के आमाशय की श्लेष्मकला में उपस्थित तीन प्रकार की ग्रंथियाँ होती हैं- पायलोरिक, फण्डिक तथा कार्डियक। इनसे श्लेष्मल के अतिरिक्त हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा पेप्सिनोजन व रेनिन नामक एंजाइम से युक्त जठर रस स्रावित होता है। इसी श्लेष्मकता में कुछ कोशिकाएँ, जिन्हें एंटेरोएण्डोक्राइन कोशिकाएँ कहते हैं, गैस्टिन नामक हॉर्मोन भी स्रावित करती हैं।

(iii) अग्न्याशय अग्नाशय यकृत के बाद शरीर की दूसरी सबसे बड़ी ग्रंथि है। यह आमाशय के पीछे उदर गुहा की पश्च भित्ति पर तथा ग्रहणी के मध्य बने C आकार के स्थान में स्थित होती है। यह चपटी आकृति वाली गुलाबी रंग की ग्रंथि है। ये पाचन क्रिया के लिए अग्न्याशई रस का स्रावण करती है। इसमें कई एंजाइम्स; जैसे- ट्रिप्सिन, काइमोट्रिप्सिन, एमाइलेज, तथा लाइपेज होते हैं। अग्न्याशायिक रस के एंजाइम्स भोजन के सभी अवयवों अर्थात् प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा के पाचन में सहायक होते हैं।

अग्न्याशय ग्रंथि के बहिःस्रावी भाग (लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ) की कोशिकाओं से इन्सुलिन तथा ग्लूकैगॉन नामक हॉर्मोन्स स्रावित होते हैं। ये सीधे रुधिर में डाल दिए जाते हैं। ये कार्बोहाइड्रेट के उपापचय का नियंत्रण एवं नियमन करने में सहायक होते हैं। अतः इस प्रकार ये सभी पाचक ग्रंथियाँ भोजन के पाचन क्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

प्रश्न 4. मनुष्य में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के एंजाइमों का वर्णन कीजिए। पाचन

क्रिया में इनका क्या महत्व है?

उत्तर- मनुष्य में विभिन्न प्रकार के एंजाइम पाए जाते हैं। जो भोजन के पाचन में सहायक होते हैं। भोजन को मुखगुहा में चबाकर लार मिलाई जाती है जो मुख में उपस्थित लार ग्रंथियाँ स्रावित करती हैं। लार में टायलिन या सैलाइवरी एमाइलेज एंजाइम उपस्थित होता है। आमाशय की जठर ग्रंथियों से निकले रस में पेप्सिन व रेनिन नामक एंजाइम उपस्थित होते हैं। ग्रहणी के अग्न्याशिक रस में ट्रिप्सिन एनाइलेज तथा लाइपेज एंजाइम्स पाए जाते हैं तथा क्षुदांत्र में आंत्र ग्रंथियों से आंत्र रस स्रावित होता है। इनमें कई प्रकार के एंजाइम्स पाए जाते हैं; जैसे इरेप्सिन, माल्टेज, लैकटेज, सुक्रेज, लाइपेज, न्यूलिऐज ।

सारणी-मानव आहारनाल के पाचक एंजाइम, उनके स्रोत तथा प्रभाव-

कार्य क्षेत्र रस का नाम स्रोत एम्जाइम भोज्य पदार्थ अंतिम उत्पाद
मुख लार लार ग्रंथियोंटायलिनमंड शर्कराएँ
आमाशय जठर रस जठर ग्रंथियाँपेप्सिन रेनिनप्रोटीन
दूध (केसीन)
पेप्टोन
दही
(पैराकेसीन)
ग्रहणीपित्त रस
यकृतवसा को पचाने सहायकपायसीकृत वसा
ग्रहणीअग्न्याशयिक
अग्न्याशयट्रिप्सिन व कार्बोक्सीडेज

एमाइलेज

लाइपेज
प्रोटीन + पेप्टोन

मंड
(कार्बोहाइड्रेट्स) वसा
पॉलीपेप्टाइड्स, तथा अमीनो अम्ल मल्टोज शर्करा तथा ग्लूकोज वसीय अम्ल
तथा
ग्लिसरॉल
क्षुद्रांत्र
आँत्र रसआँत्र ग्रंथियाँइरेप्सिन
माल्टेज
लैक्टेज
सुक्रेज
लाइपेज
पॉलीपेप्टाइड्स
माल्टोज
लेक्टोज
सुक्रोज
शेष वसा
न्यूक्लिक अम्ल, न्यूक्लिओटाइड्स
अमीनो अम्ल तथा ग्लूकोज ग्लूकोज शर्करा ग्लूकोज शर्करा ग्लूकोज शर्करा वसीय अम्ल तथा ग्लिसरॉल न्यूक्लिओसाइड्स, शर्कराएँ

पाचन क्रिया में एंजाइम्स का महत्व- पाचन क्रिया में आहारनाल में उपस्थित विभिन्न प्रकार के एंजाइम्स महत्वपूर्ण क्रिया करके भोजन को पचाने में सहायक होते हैं। मुखगुहा में उपस्थित टायलिन मंड पर क्रिया करके उसे शर्करा में बदल देता है। जहाँ से भोजन लेई के रूप में परिवर्तित होकर ग्रासनली से होकर आमाशय में पहुँचता है। वहाँ जठर ग्रंथियों से उत्पन्न जठर रस में उपस्थित पेप्सिन व रेनिन क्रमश: प्रोटीन को पेप्टोन व केसीन को पैराकेसीन में परिवर्तित कर देते हैं। भोजन इन सभी प्रक्रियों के पश्चात् भूरे रंग की लई में परिवर्तित हो जाता है। जिसे काइम कहते हैं। यह काइम ग्रहणी में पहुँच जाता है। जहाँ अग्न्याशिक रस में उपस्थित ट्रिप्सिन, एमाइलोप्सिन, तथा स्टीएप्सिन क्रमशः क्रिया करके उसे अमीनो अम्ल, ग्लूकोज व ग्लिसरॉल में परिवर्तित करता है। अब यह क्षुद्रांत्र में भेज दिया जाता है। क्षुद्रांत्र में कई प्रकार के एंजाइम्स होते हैं; जैसे इरेप्सिन। ये शेष प्रोटीन तथा उसके अवयवों को अमीनो अम्ल में और माल्टेज, इन्वर्टेल, लैक्टेज इत्यादि विभिन्न शर्कराओं को ग्लूकोज में तथा लाइपेज शेष वसाओं को ग्लिसरॉल तथा वसीय अम्लों में बदल देते हैं। शेष प्रक्रिया छोटी आँत्र व बड़ी आँत्र में पूर्ण होती है तथा भोजन का पाचन पूर्ण हो जाता है। इस प्रकार सभी एंजाइम्स भोजन के पाचन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

प्रश्न 5. खुले व बंद परिवहन तंत्र में अन्तर लिखिए।

उत्तर- खुले परिवहन तंत्र- पैरामीशियम, अमीबा जैसे एककोशिक जंतुओं में ऑक्सीजन, भोज्य पदार्थ तथा पानी के अणु उनके बाह्य वातावरण में उपस्थित पानी के माध्यम से विसरण द्वारा प्रवेश करते रहते हैं और कोशिकाद्रव्य की गति द्वारा कोशिका के विभिन्न भागों में पहुँचा दिए जाते हैं। बहुकोशिक हाइड्रा जैसे निम्न स्तर के जंतुओं में जिनकी कोशिकाएँ अंतर गुहिका या गैस्ट्रोवास्कुलर कैविटी से दूसरी कोशिकाओं में पहुँचती रहती हैं विसरण की यह प्रक्रिया इन अणुओं को कुछ सेंटीमीटर तक स्थानांतरित कर देती है।

बंद परिवहन तंत्र- बहुकोशिकीय उच्च स्तरीय जंतुओं में ऑक्सीजन, पानी तथा भोज्य पदार्थों के अणुओं के स्थानांतरण हेतु शरीर की विभिन्न कोशिकाओं तक दो प्रकार की व्यवस्था होती है-

(i) आहारनाल के समीप के अंगों की कोशिकाओं में, जो इसके संपर्क में रहती हैं, भोजन के ये अणु विसरण द्वारा ही पहुँचते रहते हैं; जैसे- स्पंज, हाइड्रा आदि ।

(ii) आहारनाल से दूर के अंगों की कोशिकाओं में ये अणु रुधिर या लसीका नलिकाओं से निर्मित एक विशेष तंत्र द्वारा जाते हैं। शरीर में इन नलिकाओं का एक जाल बिछा रहता है जिनमें से कुछ नलिकाएँ इन अणुओं तथा ऑक्सीजन को शरीर के दूर-दूर के अंगों तक पहुँचाती हैं और कुछ नलिकाएँ विभिन्न भागों से इन्हें वापस ले आती हैं। इस प्रकार इन अणुओं का परिसंचरण शरीर के सभी भागों में होता रहता है। इन भागों की कोशिकाएँ आवश्यकतानुसार इस परिसंचारी धारा में से पोषक अणुओं को जीव द्रव्य संश्लेषण हेतु ग्रहण करती रहती हैं। रुधिर एवं लसीका की इस संचरण व्यवस्था को परिसंचारी तंत्र कहते हैं।

प्रश्न 6. श्वासोच्छ्वास किसे कहते हैं? श्वसन क्रियाविधि का सचित्र वर्णन कीजिए।

उत्तर- श्वासोच्छ्वास वायुमंडल की शुद्ध वायु का फेफड़ों में पहुँचने तथा अशुद्ध वायु का फेफड़ों से बाहर निकलने की क्रिया को श्वासोच्छ्वास कहते हैं। इस क्रिया में बाहरी वायुमंडल एवं फेफड़ों के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है।

मनुष्य में श्वसन की क्रिया विधि- श्वासोच्छ्वास के लिए निरंतर वायु को अंदर लेने तथा बाहर निकालने अर्थात् गैसों का आदान-प्रदान करने या कराने वाले अथवा इस कार्य में सहायता करने वाले अंगों को हम श्वसनांग कहते हैं और सभी श्वसनांगों को, जो सम्मिलित रूप से श्वसन क्रिया संपन्न करते हैं, श्वसन तंत्र कहते हैं। श्वसनांगों में फेफड़े महत्वपूर्ण तथा प्रमुख अंग हैं। श्वसन की संपूर्ण क्रिया विधि को समझने के लिए इसे निम्नांकित चरणों में बाँट सकते हैं-

(i) बाह्य श्वसन- इसमें मनुष्य श्वसनांगों की सहायता से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) निष्कासित पर ऑक्सीजन (O 2 ) ग्रहण करता है। यही क्रिया श्वासोच्छ्वास है।

UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 10 SCIENCE CHAPTER 18 जीवन की प्रक्रियाएं
मनुष्य में निश्वसन एवं निःश्वसन के समय पसलियों एवं डायाफ्राम की स्थिति

(ii) गैसीय संवहन – रुधिर में संवहन के माध्यम से ऑक्सीजन का श्वसनांगों से ऊतकों तक तथा कार्बन डाइऑक्साइड का ऊतकों से श्वसनांगों तक निरंतर पहुँचते रहना।

(iii) गैसीय विनिमय ऊतक द्वारा द्रव्य से कोशिकाओं द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करना, श्वसन पदार्थ पर ऑक्सीकारक क्रियाएँ करके कार्बन डाइऑक्साइड निष्कासित करना तथा उसे कोशिकाओं के रुधिर में डालना।

WhatsApp Image 2023 02 12 at 22.05.06
मनुष्य में साँस लेने की क्रिया का प्रदर्शन

(iv) अंतः श्वसन या कोशिकीय श्वसन- वास्तविक श्वसन जिसमें कोशिका के जीवद्रव्य अथवा किसी कोशिकांग में ग्लूकोज जैसे कार्बनिक पदार्थ का ऑक्सीकरण होना तथा उत्पादित ऊर्जा को ATP अणुओं के रूप में बदलना।

प्रश्न 7. निम्नलिखित विटामिन्स के स्रोत एवं उनकी कमी से होने वाली व्याधियों का वर्णन कीजिए-

(a) विटामिन A (b) विटामिन B

(c) विटामिन C (d) विटामिन D

उत्तर-

(a) विटामिन A रेटिनॉल- विटामिन A के मुख्य स्रोत गाजर, हरी सब्जियाँ, घी, मक्खन, अंडे, जिगर व मछली का तैल आदि होते हैं। विटामिन A दृष्टिवर्णक के संश्लेषण व एपीथीलियल स्तरों की वृद्धि एवं विकास में योगदान करता है। मनुष्य में इसकी कमी से रतौंधी, शारीरिक वृद्धि व भार में कमी, कॉर्निया तथा त्वचा की कोशिकाओं का शल्कीभवन आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

(b) विटामिन B- विटामिन B समूह में B – थाइमीन, B, G – राइबोफ्लेविन, B 3 – पेंटोथेनिक अम्ल, B5 (PP) – निकोटिनिक अम्ल, Bg पाइरीडॉक्सिन व B127 -सायनोकोबेलमिन आते हैं। इन समूहों के मुख्य स्रोत अनाज, फलियाँ, यीस्ट, मांस, अंडे, दूध, मूंगफली आदि होते हैं। B समूह की कमी से शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं; जैसे- बेरी-बेरी, चर्म रोग, जनन क्षमता में कमी, बालों का सफेद होना, पेलाग्रा, रुधिराल्पता आदि ।

(c) विटामिन C – एस्कॉर्बिक अम्ल- विटामिन C के मुख्य स्रोत आँवला, मुसम्मी, संतरा, नींबू, सब्जियाँ व रसीले फल आदि हैं। इसका कार्य अंतराकोशिकीय मैट्रिक्स, कोलेजन तंतु, हड्डियों के मैट्रिक्स तथा दाँतों के डेंटाइन के निर्माण में योगदान करना है। इसकी कमी से स्कर्वी रोग, मसूड़ों में रुधिर स्राव व शरीर के भार में कमी होना आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

(d) विटामिन D कैल्सीफेरॉल- विटामिन D का मुख्य प्राकृतिक स्रोत सूर्य का प्रकाश है। इसके अतिरिक्त ये मक्खन, दूध, जिगर, गुर्दे, मछली के तैल आदि में भी पाया जाता है। विटामिन D हड्डियों व दांतों के विकास के लिए अतिमहत्वपूर्ण है। शरीर में विटामिन D की कमी से सूखा रोग ऑस्टिओमैलेशिया आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रश्न 8. श्वसन को परिभाषित कीजिए । श्वसन एवं श्वासोच्छ्वास में अंतर बताइए । श्वसन दर पर ऊँचाई के प्रभाव का वर्णन कीजिए।

उत्तर- श्वसन की परिभाषा – जीवों में कोशिकीय स्तर पर ऑक्सीजन की उपस्थिति में भोजन के जैविक ऑक्सीकरण की क्रिया को श्वसन कहते हैं। इसमें ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से कार्बन डाइऑक्साइड और जल बनते हैं और ग्लूकोज में बंधित ऊर्जा धीमी गति से विभिन्न पदों में मुक्त होती है जिसे कोशिका के अंश ATP में संग्रहित कर लिया जाता है।

श्वसन एवं श्वासोच्छ्वास में अंतर

श्वसनश्वासोच्छ्वास
यह जैव रासायनिक क्रिया है जिसमें ग्लूकोज का ऑक्सीकरण होता है जिससे कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऊर्जा उत्पन्न होती है।यह एक भौतिक क्रिया है जिससे शरीर ऑक्सीजन का अंतर्ग्रहण करता है तथा कार्बन डाइआक्साइड का बहिः क्षेपण करता है।
यह क्रिया कोशिकाओं के अंदर होती है।यह क्रिया कोशिकाओं के बाहर होती है।
इसमें एंजाइम्स की आवश्यकता होती है।इसमें एंजाइम्स की आवश्यता नहीं होती है।
इसमें ऊर्जा उत्पन्न होती है।इसमें ऊर्जा उत्पन्न नही होती है।
इसमें श्वसनांगों की आवश्यकता नहीं होती।इसमें श्वसनांगों की आवश्यकता होती हे

श्वसन दर पर ऊँचाई का प्रभाव वायु का घनत्व समुद्र सतह से ऊपर उठने पर कम होता जाता है। जिससे इसमें उपस्थित गैसों का वायुदाब भी कम होता जाता है। अतः पहाड़ों पर चढ़ते समय ऊँचाई के साथ-साथ O2 की मात्रा कम होती जाती है। शरीर में 02 की कमी के कारण श्वास फूलने लगता है एवं श्वसन दर बढ़ जाती है। विभिन्न ऊँचाइयों का श्वसन दर पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।

(i) 3,500-4,000 मीटर की ऊँचाई पर O2 की अधिक कमी के कारण थकावट, शिथिलता, सिर दर्द व मिचली आदि का आभास होता है। (ii) 5,000-6,000 मीटर की ऊँचाई पर शरीर के रुधिर से CO2 बढ़ जाता है। जिससे श्वसन दर बढ़ जाती है। के निकलने से pH

(iii) 6,000 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर 02 की मात्रा बहुत कम हो जाती है और व्यक्ति को मूर्च्छा आने लगती है। इस समय कृत्रिम O2 की आवश्यकता होती है। (iv) 11,000 मीटर या उससे ऊपर कृत्रिम 02 से भी काम नहीं चलता। इसी कारण हवाई जहाज वायुरुद्ध बनाए जाते हैं।

प्रश्न 9. प्रभावी विसरण हेतु श्वसन अंगों का विकास किस क्रम में हुआ है? संक्षेप में व्याख्या कीजिए ।

उत्तर- प्रभावी विसरण हेतु श्वसन अंगों का विकास- ऑक्सीजन, पानी तथा भोज्य पदार्थों के अणुओं के परिवहन का एक सरल उपाय विसरण है। जिसके प्रभावी विसरण हेतु सभी जीवों के श्वसन अंगों में विकास हुआ है।

पैरामीशियम अमीबा जैसे एक कोशिकीय जीवों में गैसों का विनिमय सामान्य विधि द्वारा होता है। इनमें ऑक्सीजन, भोज्य पदार्थ तथा पानी के अणु उनके शरीर में बाह्य वातावरण से प्रवेश करते हैं और कोशिकाद्रव्य की गति के द्वारा कोशिका के विभिन्न भागों तक पहुँचा दिए जाते हैं। सरल बहुकोशिकीय जंतु जैसे हाइड्रा स्पंज आदि में भी विनिमय इसी प्रकार सामान्य विसरण द्वारा ही पूर्ण होता है। कुछ अन्य जंतु जैसे केंचुए आदि में ऑक्सीजन जल में घुलकर, रुधिर में विसरित होकर उनके शरीर के भीतरी भागों में पहुँचती है। प्राणियों में गैसों के परिवहन के लिए जैव विकास हे

साथ-साथ अनेक प्रकार की युक्तियाँ विकसित हुई हैं। संघ ऑर्थोपोडा के प्राणियों में श्वासनाल और जलीय ऑर्थोपोड्स के जंतुओं में क्लोम पाए जाते हैं। जलीय कशेरुकी प्राणियों जैसे मछलियों में गैसीय विनिमय क्लोमो द्वारा होता है। कुछ उभयचरों में गैसीय विनिमय के लिए फेफड़े विकसित होते हैं तो कुछ में यह त्वचा तथा मुखगुहा के द्वारा ही होता है।

कशेरुकी जंतुओं के रुधिर में लौहयुक्त एक विशेष प्रकार का यौगिक हीमोग्लोबिन पाया

जाता है। जिसका उपयोग ऑक्सीजन के परिवहन के लिए होता है। सामान्य ताप पर एक लीटर जल में 5 मिली ऑक्सीजन घुल जाती है। मनुष्य के एक लीटर रुधिर में 250 मिली ऑक्सीजन घुल जाती है। जबकि केंचुए के हीमोग्लोबिन रुधिर में 1 लीटर में 65 मिली ऑक्सीजन घुल जाती है। अतः ऑक्सीजन धारण करने की यह क्षमता मनुष्य के रुधिर में जल की अपेक्षा 50 गुना अधिक है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रभावी विसरण हेतु सभी वर्ग के जीवों के श्वसन अंगों का विकास हुआ है।

10 कोशिकीय श्वसन से क्या तात्पर्य है? यह कहाँ और किस प्रकार होता है?

उत्तर — कोशिकीय या वास्तविक श्वसन- कोशिकीय श्वसन एक ऐसी नियंत्रित क्रिया है, जिसमें कोशिका में कार्बनिक यौगिकों; प्रायः ग्लूकोज का ऑक्सीकरण होता है। इस क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा ऊर्जा उत्पन्न होती है। श्वसन की प्रक्रिया को निम्नलिखित समीकरण द्वारा लिखा जाता है।

C6H12O 6 + 602 ⇒ 6CO2 1 + 6H20+ 673kcal

सामान्यतः श्वसन की ये क्रियाएँ जीवित कोशिकाओं के अंदर कोशिकाद्रव्य तथा विशेष प्रकार के कोशिकांगो आइटोकाण्ड्रिया में होती है। प्रथम चरण में ग्लूकोज को पाइरुविक अम्ल में तोड़ने के लिए कोशिकाद्रव्य में होती है। अतः यह क्रिया बिना साँस लिए (गैस का बिना आदान-प्रदान किए) कोशिका में होनी संभव है। द्वितीय चरण, यदि ऑक्सीजन उपस्थित है, तो माइटोकाण्ड्रिया में होता है तथा पाइरुविक अम्ल भी पूरी तरह टूट कर जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड बना लेता है। इस प्रकार निकली संपूर्ण ऊर्जा अत्यधिक होती है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में बाद वाली क्रिया नहीं हो सकती है। इस प्रकार श्वसन दो प्रकार के होते हैं।

उपर्युक्त क्रियाएँ, सम्मिलित रूप में, कोशिकीय श्वसन कहलाती हैं। इनमें पहला चरण ग्लाइकोलिसिस तथा ऑक्सी श्वसन का द्वितीय चरण क्रेब्स चक्र के रूप में जाना जाता है। इन क्रियाओं में उत्पन्न व्यर्थ पदार्थों को कोशिका तथा बाद में शरीर से बाहर कर दिया जाता है। श्वसन की इन क्रियाओं में जो ऊर्जा उत्पन्न होती है उसे ए०टी०पी० ( ATP ) नामक पदार्थ में एकत्र कर लिया जाता है। प्रत्येक जीव की प्रत्येक जीवित कोशिका में कोशिकीय श्वसन आवश्यक रूप से संपन्न होता है। लगभग सभी जंतुओं तथा पौधों में यह क्रिया समान रूप से घटित होती रहती है।

प्रश्न 11. मनुष्य में आंतरिक परिवहन की क्या व्यवस्था होती है? संक्षेप में व्याख्या कीजिए।

उत्तरमनुष्य में आंतरिक परिवहन- मनुष्य में आंतरिक परिवहन द्वितीय व्यवस्था के अंतर्गत होता है। इसके लिए इनके शरीर में दो प्रकार के परिसंचरण तंत्र होते हैं- रुधिर परिसंचरण तंत्र तथा लसीका परिसंचरण तंत्र संपूर्ण शरीर में इन तंत्रों की नलिकाओं, वाहिनियों आदि के जाल बिछे होते हैं तथा वाहिनियों में तरल पंप करने के लिए हृदय होता है। तरल जो इन तंत्रों में बहते हैं एक विशेषीकृत तरल संयोजी ऊतक क्रमशः रुधिर तथा लसिका होते हैं।

मनुष्य में रुधिर परिसंचरण तंत्र– सर्वप्रथम एक अंग्रेज वैज्ञानिक हावें (Harvey, 1578-1657) ने यह प्रदर्शित किया कि रुधिर एक स्थाई तरल न होकर जीवन भर शरीर के अंदर बहने वाला तरल है, जो हृदय से प्रारंभ करता है और शरीर के विभिन्न अंगों में होते हुए वापस हृदय में आता रहता है।

मनुष्य में रुधिर परिसंचरण के लिए विशेष तंत्र होता है। इस तंत्र में अनेक वाहिनियाँ तथा हृदय आदि सम्मिलित होते हैं। रुधिर के लिए हृदय एक पम्प के समान कार्य करके जिन वाहिनियों में रुधिर को भेजता है, उन्हें धमनियाँ कहते हैं। धमनियाँ ऊतकों में पहुँचकर केशिकाओं में बँट जाती है तथा बाद में एकत्रित होकर शिराओं का निर्माण करती हैं। शिराएँ ही रुधिर को वापस हृदय में लाती हैं। इस प्रकार मनुष्य में बंद रुधिर परिसंचारी तंत्र पाया जाता है। यह परिसंचरण दो चक्रों में होता है। इसके लिए हृदय में चार वेश्म होते हैं तथा ऑक्सीजन रहित व ऑक्सीजन युक्त रुधिर को हृदय में ग्रहण करने के लिए अलग-अलग स्थान होते हैं तथा उसे अलग-अलग स्थानों में पहुँचाने के भी अर्थात् संपूर्ण शरीर से आने वाला ऑक्सीजन की कमी वाला रुधिर फेफड़ों को भेजा जाता है, जबकि फेफड़ों से हृदय में प्राप्त किया गया रुधिर संपूर्ण शरीर को भेजा जाता है। इस प्रकार दोनों प्रकार के रुधिर एक-दूसरे को नहीं मिल सकते हैं। मनुष्य में यह क्रिया अत्यधिक स्पष्ट होती है और परिसंचरण तंत्र पूर्ण रूप से बंद तथा दोहरा होता है। मानव शरीर में रुधिर परिसंचरण निम्नलिखित मुख्य दो भागों में बँटा होता है-

(i) फुफ्फुसी परिसंचरण — यह दाएँ निलय के संकुचन से प्रारंभ होता है, जिससे अशुद्ध रुधिर फुफ्फुसी धमनी द्वारा फेफड़ों में शुद्धिकरण के लिए जाता है। फेफड़ों से शुद्ध रुधिर फुफ्फुसी शिरा द्वारा हृदय के बाएँ अलिंद में वापस पहुँचता है।

(ii) दैहिक परिसंचरण- यह बाएँ निलय के सकुंचन से प्रारंभ होता है, जिससे शुद्ध रुधिर महाधमनी में आता है और फिर इसकी शाखाओं के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचता है। हृदय के ऊपर एवं इससे नीचे स्थित अंगों से रुधिर दो अलग-अलग महाशिराओं के द्वारा वापस दाएँ अलिन्द में पहुँचाया जाता है। इस प्रकार दैहिक परिसंचरण बाएँ निलय से प्रारंभ होकर दाएँ अलिन्द में पूरा हो जाता है।

प्रश्न 12. रुधिर की संरचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- रुधिर की संरचना तथा कार्यों के वर्णन के लिए अध्याय-17 मानव शरीर की संरचना का दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 15, 18 व 19 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 13. प्रकाश संश्लेषण की परिभाषा लिखिए तथा इसकी क्रियाविधि का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

उत्तर- प्रकाश संश्लेषण की परिभाषा प्रकाश संश्लेषण, वह उपचायक क्रिया है जिसके द्वारा हरे पौधे अकार्बनिक सरल यौगिकों, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड को प्रकाशीय ऊर्जा के द्वारा कार्बोहाइड्रेट के रूप में बदल देते हैं तथा भोजन का निर्माण करते हैं। इस क्रिया में प्रकाशीय ऊर्जा का उपयोग हरे पौधों में उपस्थित पर्णहरित की उपस्थिति में किया जाता है तथा इसमें ऑक्सीजन उप-उत्पाद के रूप में निकलती है।

WhatsApp Image 2023 02 13 at 02.35.11

प्रकाश संश्लेषण की क्रिया विधि प्रकाश संश्लेषण एक अत्यंत जटिल एवं विशिष्ट जैव रासायनिक क्रिया है, जो सामान्यतः हरितलवकों में उपस्थित पर्णहरित की उपस्थिति में प्रारंभ होती है तथा मुख्यतः दो भागों में घटित होती है-

(I) प्रकाशीय अभिक्रियाएँ- इनके लिए प्रकाश आवश्यक है। इन अभिक्रियाओं में प्रकाश संश्लेषण के वे सभी पद सम्मिलित हैं जिनके लिए प्रकाश अनिवार्य है। ये प्रक्रियाएँ हरितलवक के ग्रैना नामक भाग में होती हैं। संक्षेप में ये क्रियाएँ निम्नवत् संपन्न होती हैं-

WhatsApp Image 2023 02 13 at 02.42.18
प्रकाशीय अभिक्रियाएँ सभी क्रियाएँ क्लोरोप्लास्ट के ग्रैना पर होती हैं- एक संक्षिप्त रेखाचित्र

(ii) सक्रिय क्लोरोफिल की उपस्थिति में आवश्यक ऊर्जा प्राप्त कर जल के अणुओं का विच्छेदन होता है जिससे हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन प्राप्त होते हैं।

WhatsApp Image 2023 02 13 at 02.45.04

(iii) उत्तेजित इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण तंत्र के द्वारा अपनी ऊर्जा मुक्त करता है। मुक्त ऊर्जा को ADP के अणुओं में एक फॉस्फेट गुट और जोड़कर ( ATP अणु बनाकर ) संचित कर लिया जाता है।

(iv) मुक्त ऑक्सीजन पौधे से बाहर निकल जाती है। ये सभीक्रियाएँ हरित लवक के ग्रैना पर होती हैं।

(v) मुक्त हाइड्रोजन NADP नामक हाइड्रोजन ग्राही के द्वारा ग्रहण कर ली जाती है। इसमें NADP .H 2 का निर्माण होता है।

ये सभीक्रियाएँ हरित लवक के ग्रैना पर होती हैं।

(II) अप्रकाशीय अभिक्रियाएँ – इन क्रियाओं के लिए सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है।

प्रश्न 14. प्रकाश संश्लेषण को परिभाषित कीजिए। इस क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए। प्रयोग द्वारा सिद्ध कीजिए कि प्रकाश संश्लेषण क्रिया में ऑक्सीजन निकलती है।

उत्तर-

प्रकाश संश्लेषण की परिभाषा प्रकाश संश्लेषण को हम इस प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं- प्रकाश संश्लेषण, वह उपचायक क्रिया है जिसके द्वारा अकार्बनिक सरल यौगिकों, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड को प्रकाशीय ऊर्जा के द्वारा कार्बोहाइड्रेट्स के रूप में बदल दिया जाता है। प्रकाशीय ऊर्जा का उपयोग पर्णहरित की उपस्थिति में किया जाता है तथा इसमें ऑक्सीजन उप-उत्पाद के रूप में निकलती है।

WhatsApp Image 2023 02 13 at 02.51.24

प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारक प्रकाश संश्लेषण की दर अनेक बाह्य तथा अंतः कारकों से प्रभावित होती हैं। ये कारक निम्नलिखित हैं-

(I) बाह्य कारक- प्रकाश, ताप, वायु, जल, प्राप्त खनिज आदि प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करते हैं।

(i) प्रकाश – सूर्य का प्रकाश प्रकाश संश्लेषण के लिए ऊर्जा देता है। विद्युतीय प्रकाश में भी प्रकाश संश्लेषण होता है।

(a) नीले व लाल प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सबसे अधिक गति से होती है।

(b) इन्फ्रारेड प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण की दर कम हो जाती है इसे रेड ड्रॉप कहते हैं।

(c) कम तीव्रता का प्रकाश अधिक समय तक दिए जाने पर प्रकाश संश्लेषण अधिक होता है।

(d) प्रकाश की तीव्रता बढ़ने पर प्रकाश संश्लेषण की दर भी बढ़ती है।

(e) हरे रंग की प्रकाश किरणें पत्ती में अवशोषित नहीं होती हैं।

(ii) तापमान – 10°C से 35°C के बीच का तापमान प्रकाश संश्लेषण के लिए उपयुक्त माना जाता है। यदि सभी कारक पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों तो प्रत्येक 10°C वृद्धि पर प्रकाश संश्लेषण की दर दोगुनी हो जाती है, किंतु 40°C के बाद और अधिक तापमान में वृद्धि होने पर प्रकाश संश्लेषण में कमी आ जाती है।

(iii) जल जल की कमी का प्रकाश संश्लेषण की दर पर प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों प्रकार से प्रभाव पड़ता है। निश्चित मात्रा से कम जल मिलने पर प्रकाश संश्लेषण की दर कम हो जाती है। साथ ही पानी की कमी के कारण सभी जैविक क्रियाएँ भी धीमी हो जाती हैं और प्रकाश संश्लेषण की गति भी धीमी हो जाती है।

(iv) खनिज लवण – Fe तथा Mg खनिज पर्णहरिम के संश्लेषण के लिए जरूरी हैं। इनकी कमी में पर्णहरिम की कमी होगी जिससे प्रकाश संश्लेषण भी कम होगा।

(II) अंतः कारक- पत्ती की संरचना, स्टोमेटा की स्थिति, संरचना संख्या एवं वितरण तथा पेलिसेड कोशिकाओं में पर्णहरिम की मात्रा भी प्रकाश संश्लेषण की गति को प्रभावित करते हैं।

प्रयोग – प्रकाश संश्लेषण में ऑक्सीजन गैस निकलती है, यह सिद्ध करने के लिए एक प्रयोग करते हैं। इसके लिए एक बीकर, फनल कोई जलीय पौधा जैसे हाइड्रिला, परखनली तथा पानी लेते हैं।

अब हाइड्रिला या अन्य कोई जलीय पौधा पानी से भरे बीकर में रखकर कीप से ढक दो। बीकर के पानी में कुछ ग्राम सोडियम बाइकार्बोनेट मिला दो जिससे पौधे को CO2 मिलती रहे। कीप की नली के ऊपर पानी से भरी एक टैस्ट ट्यूब उल्टी खड़ी कर दो। इस उपकरण को धूप में रख दो। थोड़ी देर में आप देखेंगे कि ऑक्सीजन के बुलबुले हाइड्रिला के पौधे से निकलकर टैस्ट ट्यूब में इकट्ठे होने लगते हैं तथा इसका पानी नीचे की ओर गिरना आरंभ कर देता है। परखनली को हटाओ और एक जलती हुई तीली द्वारा गैस की परीक्षा करो। तीली को इसमें डालने पर आप देखेंगे कि यह और तेजी से जलने लगती है। अतः इस प्रयोग द्वारा सिद्ध होता है कि प्रकाश संश्लेषण में ऑक्सीजन गैस निकलती है।

प्रश्न 15. प्रकाश संश्लेषण किसे कहते हैं? प्रयोगों द्वारा सिद्ध कीजिए कि प्रकाश संश्लेषण के लिए प्रकाश एवं कार्बन डाइऑक्साइड आवश्यक है।

उत्तर-

प्रकाश संश्लेषण- केवल हरे पौधों तथा कुछ सूक्ष्म प्राणियों में ही यह क्षमता होती है कि वे सूर्य द्वारा निःसृत तथा पृथ्वी पर प्राप्त प्रकाशीय ऊर्जा की मात्र 4.0% ऊर्जा को ग्रहण करके भोजन हेतु उपयोग में ला सकते हैं। पौधों द्वारा प्रकाशीय ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदल ली जाती है जो भोजन के रूप में संगृहित होती है। यह कार्य पर्णहरित की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण के द्वारा होता है।

अतः प्रकाश संश्लेषण, वह उपापचय क्रिया है जिसके द्वारा अकार्बनिक सरल यौगिकों, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड को सूर्य से ग्रहण प्रकाशीय ऊर्जा के द्वारा कार्बोहाइड्रेट्स के रूप में बदल दिया जाता है। यह क्रिया पर्णहरित की उपस्थिति में होती है।

WhatsApp Image 2023 02 13 at 02.51.24

प्रकाश संश्लेषण के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है। इसकी अनुपस्थिति में तथा रात्रि के समय पौधों में प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है। इसी प्रकार कार्बन डाइऑक्साइड भी

प्रकाश संश्लेषण के लिए अति आवश्यक होता है। इनकी उपयोगिता जानने के लिए दो प्रयोग करते हैं-

प्रयोग- 1- प्रकाश संश्लेषण के लिए प्रकाश आवश्यक है। सामग्री- गमले में लगा पौधा, काला कागज, विलयन आदि।

प्रयोग- गमले में लगे पौधे को 48 घंटे के लिए अँधेरे स्थान पर रखते हैं ताकि इसकी पत्तियाँ मंड रहित हो जाएँ। अब इस पौधे की कुछ पत्तियों की दोनों सतहों को क्लिप की सहायता से काले कागज से ढक देते हैं ताकि इस पर सूर्य का प्रकाश न पड़े। इस पौधे को 6 घंटे के लिए धूप में रख देते हैं। ढकी पत्ती को पौधे से अलग करके क्लोरोफिल रहित करने के लिए एथिल ऐल्कोहॉल में उबालते हैं। इस रंगहीन पत्ती को आयोडीन के हल्के घोल में रखने पर आप देखेंगे कि पत्ती के वे भाग जिन पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है। नीले हो गए हैं किंतु वह भाग जिस पर प्रकाश नहीं पड़ा, आयोडीन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे स्पष्ट है कि मंड पत्ती के केवल उन्हीं भागों से बना जिन पर प्रकाश पड़ता है।

निष्कर्ष- इससे निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाश संश्लेषण के लिए प्रकाश आवश्यक है।

प्रयोग – 2 – प्रकाश संश्लेषण में कार्बन डाइऑक्साइड की आवश्यकता के प्रदर्शन के लिए मॉल का आधी पत्ती का प्रयोग चौड़े मुँह की एक बोतल रबर के कॉर्क के साथ लेते हैं। कॉर्क को दो

अद्धशों में लंबाई में काट देते हैं। एक मंडरहित पत्ती को पौधे पर लगी हुई अवस्था में ही (अथवा तोड़कर) आधा बोतल के अंदर तथा आधा बाहर (कॉर्क की सहायता से) लगाकर कुछ समय के लिए उपकरण को धूप में छोड़ देते हैं। यदि पौधे से पत्ती को अलग किया गया है तो उसके वृंत को जल में डुबाकर रखना चाहिए। बोतल में पहले से ही पौटेशियम हाइड्रॉक्साइड (KOH) विलयन रखा जाता है जो बोतल के अंदर की वायु से CO, को अवशोषित कर लेता है।

प्रयोग में लाई गई पत्ती को पौधे से अलग करके मंड परीक्षण करने पर पता लगता है कि बोतल के अंदर रहे भाग में कोई मंड नहीं बना (यह भाग नीला या काला नहीं होता) जबकि बोतल के बाहर रहे भाग में मंड बना है। अतः सिद्ध होता है कि कार्बनडाइऑक्साइड के बिना प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है। इस प्रयोग को मॉल का आधी पत्ती का प्रयोग कहते हैं।

प्रश्न 16. वाष्पोत्सर्जन किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार का होता है? रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन क्रिया विधि का सचित्र वर्णन कीजिए।

उत्तर- वाष्पोत्सर्जन– पौधे अपने वायवीय भागों; जैसे— पत्तियों, हरे प्ररोह आदि के द्वारा आंतरिक ऊतकों से, अतिरिक्त जल के वाष्प के रूप में बाहर निकालते हैं। यह क्रिया वाष्पोत्सर्जन कहलाती है। पौधे अपनी जड़ों द्वारा मृदा से जल अवशोषित करते रहते हैं जो पौधों में होने वाली विभिन्न उपापचई क्रियाओं में काम आता है किंतु इसका अत्यधिक अंश पौधे के लिए बेकार होता है। जो पौधों के वायवीय भागों में जल वाष्प के रूप में बाहर निकाल दिया जाता है। पौधे में वाष्पोत्सर्जन निरंतर होता रहता है, परंतु इसकी दर समान नहीं होती, दिन में वाष्पोत्सर्जन अधिक व रात्रि में कम होता है।

पत्तियाँ वाष्पोत्सर्जन करने वाले महत्वपूर्ण अंग हैं, यद्यपि वाष्पोत्सर्जन पौधे के सभी वायवीय भागों से होता है। पत्तियाँ अत्यधिक चौरस होती हैं और पौधे की वायवीय सतह का एक महत्वपूर्ण भाग बनाती हैं। इनकी चौरस सतहों पर अत्यधिक संख्या में पर्णरंध्र वितरित रहते हैं।

वाष्पोत्सर्जन के प्रकार- वाष्पोत्सर्जन मुख्यतः तीन प्रकार का होता है- (i) उपचर्मी- पौधे की बाह्यत्वचा की कोशिकाओं का संपर्क सीधा वायवीय पर्यावरण से होता है; अतः प्रायः इसकी सुरक्षा के लिए इस पर कोई-न-कोई आवरण जैसे उपचर्म उपस्थित होता है, यद्यपि उपचर्म जो क्यूटिन नामक पदार्थ का बना होता है, वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करता है, फिर भी इस उपचर्म में होकर वाष्पोत्सर्जन तो होता है। साधारण पौधों में लगभग 10% वाष्पोत्सर्जन इसी विधि के द्वारा होता है। मरुद्भिदों; जैसे- नागफनी विभिन्न यूफोबिया जातियाँ आदि में उपचर्म अत्यधिक मोटा हो जाने से इस प्रकार का वाष्पोत्सर्जन नहीं के बराबर होता है।

(ii) पर्णरंध्री– पौधे के हरे और शाकीय भागों पर उपस्थित विशेष प्रकार के छिद्रों द्वारा होने वाला वाष्पोत्सर्जन पर्णरंध्री वाष्पोत्सर्जन कहलाता है। इन छिद्रों को जिन्हें विशेष प्रकार की द्वार कोशिकाओं के द्वारा खोला या बंद किया जा सकता है, पर्णरंध्र कहते हैं। पौधे में जल की अधिकांश हानि ( लगभग 80-85% ) इसी विधि के द्वारा होती है। कभी-कभी; जैसे- उष्णकटीबंधीय पौधों में उपचर्मी तथा पर्णरंध्री वाष्पोत्सर्जन लगभग बराबर हो सकता है।

(iii) वातरंध्री प्रौढ़ तनों एवं काष्ठीय पौधों विशेषकर द्विबीजपत्री पौधों में तथा फल इत्यादि में द्वितीयक वृद्धि होने तथा काग बनने के कारण, भीतरी जीवित ऊतकों का वायु आदि के लिए बाह्य वातावरण से संबंध वातरंध्रों के द्वारा होता है। इनके अंदर एक प्रकार की ढीली, मृदूतकीय, संपूरक कोशिकाएँ भरी रहती है। इनके द्वारा होने वाला वाष्पोत्सर्जन इसी मार्ग से जलवाष्प के बाह्य वातावरण में चले जाने से होता है अतः इसे वातरंध्री वाष्पोत्सर्जन कहते हैं।

रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन की क्रियाविधि जड़ों द्वारा अवशोषित जल जाइलम के द्वारा पत्तियों तक पहुँचाता है। जाइलम वाहिकाओं तथा वाहिनिकाओं द्वारा जल रसारोहण क्रिया के द्वारा पत्ती की पर्णमध्यक कोशिकाओं में पहुँचता है पत्ती की पर्णमध्यक कोशिकाओं के बीच में अन्तराकोशिकीय स्थान होते हैं जिनसे जल वाष्पीकरण क्रिया के द्वारा जलवाष्प में बदलकर अंतराकोशीय स्थानों में आ जाता है तथा जल वाष्प सामान्य विसरण द्वारा रंध्रों से वातावरण में चली जाती है वाष्पोत्सर्जन की दर रंध्रों के खुलने व बंद होने पर निर्भर होती है।

WhatsApp Image 2023 02 13 at 02.59.30

अँधेरे या रात्रि के समय द्वारा कोशिकाओं में मंड अधिक होता है किंतु प्रकाश के समय यह फॉस्फोरिलेज एंजाइम की उपस्थिति में विलेयशील शर्करा में बदल जाता है जबकि पर्ण मध्योतक कोशिकाओं में ठीक इसके विपरीत होता है। दिन के समय मंड के विलेयशील शर्करा में बदल जाने से द्वार कोशिकाओं के कोशिका रस का परासरण दाब बढ़ जाता है और ये पर्ण मध्योतक कोशिकाओं से जल अवशोषित कर स्फीति हो जाती है। इसके कारण पतली बाह्य भित्ति तन जाती है जिससे द्वार कोशिकाओं की मोटी भित्ति भी बाहर की ओर खिंचती है और रंध्र खुल जाते हैं। अँधेरे में प्रकाश संश्लेषण नहीं होता तथा शर्करा अघुलनशील मंड में बदल जाती है। इसके फलस्वरूप द्वार कोशिकाओं का परासरण दाब कम हो जाता है और पानी बाहर निकल जाता है जिससे द्वार कोशिकाएँ शिथिल हो जाती हैं और रंध्र बंद हो जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. पोषण किसे कहते हैं? स्वपोषण तथा परपोषण में अंतर बताइए ।

उत्तर- सभी जीवधारियों को जैविक क्रियाओं के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा जीवधारियों द्वारा ग्रहण किए गए भोजन के ऑक्सीकरण से प्राप्त की जाती है। जीवधारियों को ऊर्जा ग्रहण किए हुए भोजन से सीधे नहीं मिल पाती है। भोजन के पाचन अवशोषण तथा स्वांगीकरण के उपरान्त ही कोशिकाओं द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों से ऊर्जा का उत्पादन होता है जो जैविक क्रियाओं में प्रयोग की जाती है। इस संपूर्ण क्रिया को पोषण कहा जाता है।

स्वपोषण तथा परपोषण में अंतर-

स्वपोषण- ऐसे जीव जो अकार्बनिक यौगिकों, जल तथा प्रकाश के माध्यम से अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं तथा यह क्रिया स्वपोषण कहलाती है; जैसे- पादप ।

परपोषण– ऐसे जीव जो अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकते तथा अपने भोजन के लिए पौधों तथा अन्य जीवों पर निर्भर होते है, परपोषी कहलाते हैं, तथा यह क्रिया परपोषण कहलाती है; जैसे- जंतु, कवक आदि ।

प्रश्न 2. पोषण से क्या तात्पर्य है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- पोषण के लिए लघुउत्तरीय प्रश्न-1 के अन्तर्गत देखिए ।

(ii) फोलिक अम्ल समूह के विटामिन्स, मुख्य स्रोत- हरी पत्तियाँ, सोयाबीन, यीस्ट, जिगर, गुर्दे तथा अंडे आदि ।

(iii) विटामिन H – बायोटिन, मुख्य स्रोत- सब्जियाँ, फल, मूँगफली, गेहूँ, चॉकलेट, यीस्ट व अंडा आदि।

(iv) विटामिन C, मुख्य स्रोत- आँवला, मुसम्मी, नींबू, सब्जियाँ व रसीले फल आदि ।

प्रश्न 9. पाचन क्रिया में यकृत की भूमिका बताइए।

उत्तर- पाचन क्रिया में यकृत अनेक महत्वपूर्ण कार्य करता है।

(i) यह पित्त रस का स्त्रावण करता है। जो आमाशय से आए भोजन को क्षारीय बनाता है। यह वसा के इमल्सीकरण में भी सहायक है।

(ii) रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा अधिक होने पर ग्लूकोज को ग्लाइकोजन में बदलकर संचित कर लेती है। आवश्यकता पड़ने पर ये संचित ग्लाइकोजन पुनः ग्लूकोज में बदल दिया जाता है।

(iii) यकृत कोशिकाएँ अकार्बनिक पदार्थों का संचय भी करती हैं।

(iv) ये कोशिकाएँ शरीर में उपस्थित विषाक्त पदार्थों को हानि रहित पदार्थों में बदल देती हैं।

(v) ये चोट लगने पर रुधिर का थक्का बनाने के कार्य में प्रयोग होने वाले प्रोथ्रोम्बिन व फ्राइब्रिनोजन रुधिर प्रोटीन का संश्लेषण करती हैं।

(vi) ये हिपैरिन का स्राव करती है जिसे रुधिर, रुधिर वाहिनियों में नहीं जमता है।

प्रश्न 10. वसा में घुलनशील तीन विटामिन्स के नाम तथा उनके कार्य लिखिए। वसा मे घुलनशील विटामिन्स-

उत्तर-

(i) विटामिन A ( रेटिनॉल ); इसका कार्य दृष्टि वर्णक के संश्लेषण व एपिथीलियल स्तरो की वृद्धि एवं विकास में योगदान करना है।

(ii) विटामिन D (कैल्सीफेरोल); यह हड्डियों व दाँतो के स्वास्थ्य में योगदान करता है।

(iii) विटामिन K (नेफ्थोक्विनॉन); यह रुधिर का थक्का जमाने में अति महत्वपूर्ण है तथा जिगर में प्रोथ्रोम्बिन के निर्माण में भी सहायक होता है।

प्रश्न 11. जीभ पाचन तंत्र का एक महत्वपूर्ण अंग है। स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर- जीभ भोजन को मुखगुहा से निगलने का कार्य करती है। यह मुखगुहा मे लार स्रावित करती है जो भोजन को लुगदी बनाने में सहायक है। जीभ में उपस्थित स्वाद कालिकाएँ भोजन के स्वाद का ज्ञान कराती है अतः जीभ पाचन तंत्र का एक महत्वपूर्ण अंग है।

प्रश्न 12. पाचक रस पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-

आहारनाल की श्लेष्मक कला में अलग-अलग स्थानो पर भिन्न-भिन्न प्रकार की पाचक ग्रंथियाँ होती है। पाचक ग्रंथियाँ पाचक रस बनाती है। इन पाचक रसो मे एक या अधिक प्रकार के एंजाइम्स होते हैं, जो भोजन के विभिन्न घटको को पचाने में सहायता करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी ग्रंथियाँ आहारनाल से संबंधित होती है, जो अपना एंजाइमयुक्त पाचक रस आहारनाल में भेजती है। मनुष्य की आहारनाल में पाचन विभिन्न पाचक रस द्वारा ही होता है।

प्रश्न 13. क्रमाकुंचन से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- आमाशय में लगातार पेशीय क्रंमाकुंचन के कारण भोजन पिसता रहता है। जिस कारण भोजन की लुगदी बन जाती है। अतः क्रमाकुंचन क्रिया द्वारा भोजन में पाचक रस अच्छी तरह मिल जाते हैं जिसके फलस्वरूप भोजन आहारनाल में आगे बढ़ने के लिए लुग्दी के रूप में बदल जाता है।

प्रश्न 14. पाचन का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा बताइए कि इसकी क्यों आवश्यकता है?

उत्तर- पाचन क्रिया ठोस, अविसरणीय खाद्य पदार्थों के जटिल अणुओं एवं आयनों में विभाजित होने की क्रिया है, जिससे वह शोषण होने योग्य बनकर विसरण अथवा परासरण द्वारा आमाशय तथा आँतों की श्लेष्म कला में फैली हुई रुधिर कोशिकाओं के रुधिर में मिलकर ऊतकों में पहुँच सके। जंतुओं का शरीर सीधे भोजन द्वारा ऊर्जा प्राप्त नहीं कर सकता। यह भोजन पाचन के द्वारा पचकर सरल अणुओं या आयनों के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। जिससे कि जंतु का शरीर उसका शोषण सरलता से कर सके तथा शरीर को विभिन्न कार्यों के लिए ऊर्जा मिल सके।

प्रश्न 15. श्वसन को परिभाषित कीजिए तथा श्वसन क्रिया में किस प्रकार ऊर्जा ATP में स्थानांतरित होती है?

उत्तर-

श्वसन की परिभाषा – जीवों में कोशिकीय स्तर ऑक्सीजन की उपस्थिति में भोजन के जैविक ऑक्सीकरण की क्रिया को श्वसन कहते हैं। श्वसन क्रिया में ग्लूकोज में संचित ऊर्जा ATP में स्थानांतरित होती है।

C6H12O4 + 602 6CO2 + 6H2O+673 kcal ऊर्जा ( 38ATP के रूप में)

प्रश्न 16. श्वसन तथा श्वासोच्छ्वास में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- इसके लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के प्रश्न संख्या 8 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 17. सहायक श्वसन अंग किसे कहते हैं? यह कौन-कौन से होते हैं?

उत्तर-

वे समस्त अंग जो गैस विनिमय में भाग नहीं लेते लेकिन ऑक्सीजन युक्त वायु को बाहर से फेफड़ों तक तथा फेफड़ों से कार्बन डाइऑक्साइड युक्त वायु को शरीर से बाहर निकालने में सहायता करते है, सहायक श्वसन अंग कहलाते हैं। ये अंग निम्नलिखित हैं- (i) नासिका एवं नासामार्ग (ii) स्वर यंत्र और (iii) श्वास नलिका ।

प्रश्न 18. टिप्पणी लिखिए-

(a) श्वासनली (b) कंठ

(c) फेफड़े

(d) पैंक्रियास

उत्तर-

(a) श्वासनली– यह गर्दन की पूरी लंबाई में स्थित होती है। इसका कुछ भाग वक्ष गुहा में पहुँचता है। इसकी दीवार पतली तथा लचीली होती है और इसमें ‘C’ आकार की उपास्थि से निर्मित 16-20 अधूरे छल्ले पाए जाते हैं। ये छल्ले श्वासनली में वायु में न होने पर इसे पिचकने से रोकते हैं।

(b) कंठ – यह वयु नाल का अगला बक्सेनुमा भाग है यह उपास्थि की बनी तीन प्रकार की चार प्लेटों से बना होता है। इसकी गुहा कंठ कोष कहलाती है। कंठ कोष में जो जोड़ी वाक् रज्जु होते हैं। इन वाक रज्जुओं में कंपन से ही ध्वनि उत्पन्न होती है। इस कारण इसे ध्वनि उत्पादन अंग भी कहते हैं। हमारे गले में कंठ की उपास्थि ही उभार के रूप में दिखाई देती है। इसे टेंटुआ कहते हैं।

(c) फेफड़े– मनुष्य के दोनों फेफड़े या फुफ्फुस हृदय के दोनों ओर वक्ष गुहा का अधिकांश भाग घेरे रहते हैं। इनके चारों ओर एक गुहा होती है जिसे प्लूरल या फुफ्फुसीय गुहा कहते हैं। प्रत्येक फुफ्फुस शंक्वाकार, हल्के गुलाबी रंग का, स्पंजी तथा लचीला होता है। ये श्वसनियों, श्वसनिकाओं, वायुकोषों, कूपिकाओं एवं रुधिर केशिकाओं के जाल से बने होते हैं। (d) पैंक्रियास- आमाशय आमाशय के पीछे उदर गुहा की पश्च भित्ति पर ग्रहणी के मध्य बने ‘C’ आकार के स्थान में स्थित यह यकृत के बाद दूसरी सबसे बड़ी ग्रंथि है। यह चपटी आकृति वाली गुलाबी रंग की अति महत्वपूर्ण ग्रंथि होती है। एक संयुक्त ग्रंथि या मिश्रित होती है तथा इसके दो भाग होते हैं- बहिःस्रावी भाग और अंतःस्रावी भाग । यह छोटे-छोटे अनेक पिण्डकों की बनी होती है, जिनकी घनाकार व स्रावी कोशिकाओं के मध्य, स्थान-स्थान पर विशेष कोशिकाओं के समूह पाए जाते हैं। इन्हें लैंगर हैन्स की द्वीपिकाएँ कहते हैं।

प्रश्न 19. मनुष्य के परिसंचरण तंत्र में कौन-कौन से तंत्र आते हैं तथा इसके कितने भाग होते हैं? मनुष्य के दो प्रकार के परिसंचरण तंत्र पाए जाते हैं-

उत्तर- मनुष्य के परिसंचरण तंत्र में निम्न तंत्र आते हैं

रुधिर परिसंचरण तंत्र

लसीका तंत्र

मानव में रुधिर परिसंचरण तंत्र दो भागों में बँटा होता है-

(i) फुफ्फुसी परिसंचरण

(ii) वैहिक परिसंचरण

प्रश्न 20. टिप्पणी लिखिए-

(a) दैहिक या सिस्टेमिक परिवहन

(b) रुधिर दाब

(c) लसीका

(d) हीमोग्लोबिन

उत्तर– (a) दैहिक या सिस्टेमिक परिवहन यह बाएँ निलय के संकुचन से प्रारंभ होता है, जिससे शुद्ध रुधिर महाधमनी में आता है और फिर इसकी शाखाओं के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचता है। हृदय के ऊपर एवं इससे नीचे स्थित अंगों से रुधिर दो अलग-अलग महाशिराओं के द्वारा वापस दाएँ अलिन्द में पहुँचाया जाता है। इस प्रकार दैहिक परिसंचरण बाएँ निलय से प्रारंभ होकर आलिन्द में पूरा हो जाता है।

(b) रुधिर दाब – अंगों तथा उनकी ऊतकों तक रुधिर पहुँचाने के लिए रुधिर को संकरी वाहिनियों तथा केशिकाओं में पहुँचाने के लिए हृदय जिस झटके के साथ रुधिर पंप करता है, यदि यह दाब नहीं होगा तो रुधिर केशिकाएँ पिचक जाएँगी। रुधिर का दाब विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न होता है। निलय के सिकुड़ने से रुधिर महाधमनी तथा पल्मोनरी धमनी में चला जाता है जिससे एक सामान्य दाब उत्पन्न होता है, इसे ही रुधिर दाब कहते हैं। यह दाब प्रायः पारे के 120-140 मिमी स्तंभ द्वारा बने दाब के बराबर होना चाहिए। इसे प्रकुंचन दाब कहते हैं। इसके विपरीत जब रुधिर अलिन्द से निलय में आता है तो दाब पारे के 80 मिमी स्तंभ द्वारा बने दाब के बराबर होता है। इसे अनुशिथिलन दाब कहते हैं। अतः एक सामान्य वयस्क एवं स्वस्थ मनुष्य का स्थिर दाब 120/80 मिमी होना चाहिए। इस प्रकार, वाहनियों की भित्ति के इकाई क्षेत्रफल पर रुधिर आरोपित बल रुधिर दाब या रक्त दाब कहलाता है।

(c) लसिका – रुधिर वाहिनियों तथा ऊतकों के मध्य खाली स्थान में एक रंगहीन स्वच्छ तरल पदार्थ पाया जाता है, जिसे लसिका कहते हैं। रुधिर प्लाज्मा रुधिर कोशिकाओं की पतली दीवार से छनकर ऊतक कोशिकाओं के संपर्क में आ जाता है। इस छने हुए द्रव को लिम्फ या लसिका या ऊतक द्रव कहते हैं। लसिका में लाल रुधिर कणिकाएँ (RBC) व हीमोग्लोबिन नहीं पाई जाती हैं, परंतु श्वेत रुधिर कणिकाएँ अधिक मात्रा में पाई जाती हैं। इसमें ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थों की मात्रा रक्त की अपेक्षा कम होती है तथा CO2 एवं उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अधिक होती है।

(d) हीमोग्लोबिन – यह एक लौहयुक्त प्रोटीन है, जिसका निर्माण लौहयुक्त वर्णक हीम (heam) तथा ग्लोबिन (globin) प्रोटीन के द्वारा होता है। कुछ जंतुओं जैसे केंचुआ आदि के रुधिर प्लाज्मा में हीमोग्लोबिन घुला रहता है तथा सभी vertebrates जंतुओं में ये लाल रुधिर कणिकाएँ (Rbcs) में ही पाया जाता है। ये वायु के साथ मिलकर एक अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन का निर्माण करता है। जो रक्त में घुलकर शरीर के ऊतकों में पहुँचता है, जहाँ ये विखंडित हो जाता है और ऑक्सीजन मुक्त करता है। यह क्रिया लगातार चलती रहती है, अतः हीमोग्लोबिन श्वसन क्रिया में सहायता करता है।

प्रश्न 21. रुधिर दाब किसे कहते हैं?

उत्तर- इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न के प्रश्न संख्या 20 (b) का अवलोकन कीजिए ।

प्रश्न 22. रुधिर के कार्य लिखिए।

उत्तर- इसके लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के प्रश्न संख्या 12 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 23. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-

(a) रुधिर वाहिनियाँ

(b) ग्लाकोलिसिस

(c) मुंच की व्यापक प्रवाह परिकल्पना (d) वाष्पोत्सर्जन कर्षण

(e) प्रकाश संश्लेषण का महत्व

(f) हृदय स्पंद

(g) रसारोहण

उत्तर-

(a) रुधिर वाहिनियाँ– ये हृदय से रुधिर को लाने व ले जाने का कार्य करती हैं। ये निम्न तीन प्रकार की होती है-

(i) धमनियाँ – हृदय से रुधिर धमनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाया जाता है। धमनियों की दीवार मोटी व लचीली होती है। इनके अंदर रुधिर झटके के साथ बहता है। इनकी गुहा में कपाट नहीं होते। अंगों के अंदर पहुँचकर धमनियाँ धमनिकाओं में बँट जाती हैं। इनकी दीवार कोशिकाओं के समान पतली होती हैं। धमनिकाएँ पुनः विभाजित होकर केशिकाएँ बनाती हैं।

(ii) केशिकाएँ– केशिकाएँ की दीवार एककोशिकीय स्तर की बनी होती हैं और ऊतक कोशिकाओं के संपर्क में रहती है। केशिकाओं के रुधिर ऊतक द्रव एवं ऊतक कोशिकाओं के बीच पदार्थों का आदान-प्रदान होता है।

(iii) शिराएँ– ऊतक में बहुत-सी केशिकाओं के जुड़ने से शिराएँ बनती हैं। ये ऊतक से रुधिर को हृदय में वापस पहुँचाती हैं। इनकी दीवार पतली होती हैं और इनकी गुहा में कपाट होते हैं। इनमें रुधिर का बहाव हृदय की ओर तथा समान गति से होता है।

(b) ग्लाइकोलिसिस ग्लाइकोलिस कोशिका द्रव्य में होता है। इस प्रक्रिया में ग्लूकोज का एक अणु विघटन क्रिया द्वारा पाइरुविक अम्ल के दो अणु बनाता है। इस प्रक्रिया में उत्पन्न ऊर्जा से चार A. T.P. अणु बनते हैं किंतु अभिक्रिया में दो A. T. P. अणु ही प्राप्त होते हैं।

C6H12O6+2ATP + 2ADP + 2H3 PO4 + 2NAD 2CH,3 COCOOH + 4ATP + 2NADH2 + 2H 2 O

(c) मुंच की व्यापक प्रवाह की परिकल्पना खाद्य पदार्थों के स्थानांतरण के संदर्भ में अनेक परिकल्पनाएँ प्रस्तुत की गई हैं, इनमें से मुंच परिकल्पना सर्वमान्य है। मुंच (Munch, 1927-39) ने फ्लोएम में भोज्य पदार्थों के स्थानांतरण के संबंध में कहा है कि यह क्रिया अधिक सांद्रता वाले स्थानों से कम सांद्रता वाले स्थानों की ओर होती है। पर्णमध्योतकी कोशिकाओं में निरंतर भोज्य पदार्थों के बनते रहने के कारण परासरण दाब अधिक हो जाता है। उधर जड़ों में या अन्य स्थानों में इन पदार्थों के उपयोग में आते रहने अथवा अघुलनशैल रूप में संचित हो जाने से सांद्रता कम हो जाती है। अतः पर्णमध्योतक कोशिकाओं से फ्लोएम में होकर आवश्यकता के स्थानों को स्थानांतरण, सामूहिक रूप में अथवा परासरण दाब के कारण होता है।

पर्णमध्योतक कोशिकाओं में निरंतर शर्करा का निर्माण होता रहता है। इससे इन कोशिकाओं का परासरणी दाब कम नहीं हो पाता। जड़ अथवा भोजन संचय करने वाले भागों में शर्करा के उपयोग के कारण अथवा भोज्य पदार्थों के अघुलनशील अवस्था में बदलकर संचित होने के कारण कोशिकाओं का परासरणी दाब कम रहता है। इसके फलस्वरूप पर्णमध्योतक कोशिकाओं से भोज्य पदार्थ अविरल रूप से फ्लोएम में प्रवाहित होते रहते हैं।

(d) वाष्पोत्सर्जन कर्षण- वाष्पोत्सर्जन कर्षण के कारण पौधे में जल-स्तंभ पर तनाव उत्पन्न होता है तथा जल स्तम्भ पत्तियों के जाइलम तक ऊपर उठता चला जाता है। इससे जल बड़े-बड़े वृक्षों में भी अत्यधिक ऊँचाई तक पहुँच जाता है। वाष्पोत्सर्जन कर्षण क्रिया के द्वारा ही पौधे जड़ों द्वारा जल का निष्क्रीय अवशोषण करते हैं।

(e) प्रकाश संश्लेषण का महत्व –प्रकाश संश्लेषण अत्यंत उपयोगी प्रक्रिया है। इसके निम्न महत्व अंकित किए जा सकते हैं-

(i) भोज्य पदार्थों का उत्पादन- पौधे अपने लिए खाद्य पदार्थों को इसी प्रक्रिया द्वारा बनाते हैं जबकि शेष जीव (उपभोक्ता) अपने भोजन के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पौधे (उत्पादक) पर ही निर्भर हैं।

(ii) ऊर्जा का स्त्रोत- सभी जीवों, जिनमें पौधे भी सम्मिलित हैं, के लिए पौधों द्वारा निर्मित भोजन ही ऊर्जा का स्रोत हैं।

(iii) वायुमंडल का नियन्त्रण, शुद्धिकरण तथा जैव संतुलन– प्रकाश संश्लेषण द्वारा ही वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड तथा आक्सीजन गैसों के अनुपात को नियन्त्रित किया जाता है। इस प्रकार जैवीय संतुलन बना रहता है। (iv) अंतरिक्ष यात्रा में अंतरिक्ष यात्रा के लिए ऑक्सीजन तथा भोजन, दोनों

प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा प्राप्त करने के लिए प्रयास किए गए हैं।

(1) हृदय स्पंद – हृदय शरीर में रुधिर को पंप करने का कार्य करता है। इस कार्य के

लिए हृदय हर समय सिकुड़ता तथा शिथिल होता रहता है। इस कारण हृदय लगातार स्पंद होता रहता है। मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72 से 75 बार स्पंदित होता है। यह हृदय स्पंदन की दर कहलाती है।

(g) रसारोहण – पौधों में भूमि से जल तथा खनिज लवण अवशोषित होकर जाइलम ऊतक द्वारा तने से होकर पत्तियों तक पहुँचते हैं। इस क्रिया को रसारोहण कहते हैं।

प्रश्न 24. प्रकाश संश्लेषण में पर्णहरित का क्या योगदान है? प्रकाश संश्लेषण में पर्णहरित का योगदान- पर्णहरित या क्लोरोफिल हरे रंग का वर्णक

उत्तर-

है जो मुख्य रूप से पत्तियों में मिलता है। केवल उन्हीं कोशिकाओं में प्रकाश संश्लेषण होता है जिनमें पर्णहरित होता है। यह हरित लवकों में मिलता है। क्योंकि पर्णहरित मुख्य रूप से पत्तियों में पाया जाता है, अत: इन्हें प्रकाशसंश्लेषी अंग कहते हैं। क्लोरोफिल में ही सौर ऊर्जा को शर्करा में रासायनिक ऊर्जा के रूप में बंधित करने का गुण होता है।

प्रश्न 25. जल का प्रकाश अपघटन क्या होता है? स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर- प्रकाश संश्लेषण क्रिया में सक्रिय क्लोरोफिल की उपस्थिति में आवश्यक ऊर्जा प्राप्त कर जल के अणुओं का अपघटन होता है जिससे हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन प्राप्त होती है।

WhatsApp Image 2023 02 13 at 02.45.04

प्रश्न 26. प्रयोग द्वारा सिद्ध कीजिए कि प्रकाश संश्लेषण क्रिया में पर्णहरित तथा प्रकाश आवश्यक है ?

उत्तर-

प्रकाश संश्लेषण क्रिया में पर्णहरित की आवश्यकता- क्रोटन या कोलियस के पौधे की किसी एक चितकबरी पत्ती का कागज पर चित्र बनाते हैं और उसके हरे, रंगीन व सफेद प्रदेशों को अंकित कर लेते हैं। पत्तियों को मंड रहित करने के लिए गमले को दो-तीन दिनों तक अँधेर में रखते हैं। अब गमले को तेज धूप में रखते हैं। 4-5 घंटे बाद एक-दो पत्तियों को तोड़कर ऐल्कोहॉल में उबालकर मंड के लिए आयोडीन द्वारा परीक्षण करते हैं। आप देखेंगे कि आयोडीन से पत्ती के केवल हरे प्रदेश ही नीले होते हैं। क्योंकि क्लोरोफिल की उपस्थिति के कारण केवल इन्हीं स्थानों में मंड बनता है। पत्ती के उन भागों में जहाँ दूसरे रंग की धारियाँ थी, वहाँ का रंग नीला नहीं पड़ता, क्योंकि उन स्थानों पर मंड नहीं बना था।

प्रकाश संश्लेषण में क्लोरोफिल के महत्व का प्रदर्शन
प्रकाश संश्लेषण में क्लोरोफिल के महत्व का प्रदर्शन

प्रकाश संश्लेषण क्रिया में प्रकाश की आवश्यकता — इसके लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

संख्या के प्रश्न संख्या 15 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 27. प्रकाश संश्लेषण के लिए CO, आवश्यक होती है, कथन की पुष्टि प्रयोग द्वारा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- इसके लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के प्रश्न संख्या 15 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 28. प्रकाश संश्लेषण क्रिया के अंतिम उत्पाद तथा उनके महत्व पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-

प्रकाश संश्लेषण क्रिया के अंतिम उत्पाद तथा उनके महत्व प्रकाश संश्लेषण के अंत में सामान्यतः ग्लूकोज व ऑक्सीजन का निर्माण होता है जो बाद में पौधों की कोशिकाओं में मंड के रूप में परिवर्तित होकर पौधे के कुछ विशेष संचय केंद्रों में एकत्र कर लिया जाता है। पौधे कुछ अन्य विशेष पदार्थों के सहयोग से कुछ अन्य रासायनिक क्रियाओं द्वारा खाद्य पदार्थों (वसा, प्रोटीन्स आदि) का निर्माण भी करते हैं। अन्य विशेष पदार्थों के सहयोग से कुछ अन्य रासायनिक क्रियाओं द्वारा खाद्य पदार्थों ( वसा, प्रोटीन्स आदि) का निर्माण भी करते हैं। इस प्रकार सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ एक जीव को हरे पौधे अर्थात् उत्पादकों से मिलते हैं। खाद्य पदार्थों में से कार्बोहाइड्रेट्स तथा वसा का उपयोग शरीर में प्रमुखतः ऊर्जा उत्पादन के लिए होता है, जबकि प्रोटीन का कुछ वसा के साथ शरीर की वृद्धि में। इसके अतिरिक्त प्रकाश संश्लेषण में उत्पादित ऑक्सीजन पौधों सहित सभी जीवों के श्वसन के लिए आवश्यक है। यही नहीं, इस क्रिया के द्वारा प्रकृति में कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग होने से वातावरण में ऑक्सीजन तथा कार्बान डाइऑक्साइड का संतुलन बना रहता है।

प्रश्न 29. पर्णरंध्र की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।

उत्तर- पर्णरंध्र की संरचना- रंध्र मुख्यतः पत्तियों की बाह्य त्वचा पर पाए जाते हैं। प्रत्येक रंध्र में दो अर्धचंद्राकार द्वार कोशिकाएँ होती हैं। इनमें रंध्र को छोटा, बड़ा या बंद करने की क्षमता होती है। रंध्र के नीचे एक अधोरंध्रीय गुहा होती है। इसका संबंध अंतरकोशिकीय अवकाशों से होता है। चित्र के लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के प्रश्न- 16 ( रंध्रीय वाष्पोत्सर्ज की क्रियाविधि ) का उत्तर देखें।

द्वार कोशिकाओं की अंदर वाली भित्ति मोटी तथा बाहर की भित्ति पतली होती है। इनमें हरित लवक पाए जाते हैं। रंध्र दिन के समय खुले रहते हैं और रात्रि के समय बंद हो जाते हैं। शुष्क हवा के चलने तथा अधिक वाष्पोत्सर्जन होने पर ये भी बंद हो जाते हैं।

प्रश्न 30. रंध्रों के खुलने तथा बंद होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।

उत्तर-

रंधों के खुलने तथा बंद होने की क्रियाविधि– अँधेरे या रात्रि के समय कोशिकाओं में मंड अधिक होता है किंतु प्रकाश के समय या फॉस्फोरिलेज एंजाइम की उपस्थिति में विलेयशील शर्करा में बदल जाता है। जबकि पर्ण मध्योतक कोशिकाओं में ठीक इसके विपरीत होता है। दिन के समय मंड के विलेयशीय शर्करा में बदल जाने से द्वार कोशिकाओं के कोशिका रस का परासरण दाब बढ़ जाता है और ये पर्णक मध्योतक कोशिकाओं से जल अवशोषित कर स्फीति हो जाती है। इसके कारण पतली बाह्य भित्ति तन जाती है जिससे द्वार कोशिकाओं की मोटी भित्ति भी बाहर की ओर खिंचती हैं और रंध्र खुल जाते हैं। अँधेर में प्रकाश संश्लेषण नहीं होता तथा शर्करा अघुलनशील मंड में बदल जाती है। इसके फलस्वरूप द्वार कोशिकाओं का परासरण दाब कम हो जाता है। और पानी बाहर निकल जाता है जिससे द्वार कोशिकाएँ शिथिल हो जाती हैं और रंध्र बंद हो जाता है।

प्रश्न 31. वाष्पोत्सर्जन क्या है? इसे प्रभावित करने वाले चार बाह्य कारकों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

उत्तर– जीवित पौधे मृदा से जड़ों के द्वारा जल एवं खनिज पदार्थों का अवशोषण करते हैं। पौधे इस अवशोषित जल का 1% भाग ही अपनी जैविक क्रियाओं में प्रयोग करते हैं तथा शेष जल पौधे अपने वायवीय भागों से जलवाष्प के रूप में बाहर निकाल देते हैं। पौधे के वायवीय भागों के द्वारा हुई जलहानि को वाष्पोत्सर्जन कहते हैं। वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले चार बाह्य कारक निम्नलिखित हैं-

(i) वायु की आपेक्षिक आर्द्रता — दिए हुए तापमान पर वायु में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा ही यह निश्चित करेगी कि कितनी जलवाष्प किसी सतह से वायु में और धारण की जा सकती है। यदि वायु इस ताप पर पहले ही संतृप्त है तो वह वायु और अधिक वाष्प को ग्रहण नहीं कर सकेगी अथवा वायु की आपेक्षिक आर्द्रता अधिक होने पर वह कम जलवाष्प ग्रहण कर सकेगी, जबकि यदि वायु की आपेक्षिक आर्द्रता बहुत कम है अर्थात् वायु बहुत शुष्क है तो वह अधिक मात्रा में पौधे की सतह से आने वाली जलवाष्प को ग्रहण कर सकती हैं। अतः वायु की अपेक्षिक आर्द्रता बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जती है और आपेक्षिक आर्द्रता घटने से वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ सकती है।

(ii) तापमान ताप का सीधा प्रभाव -वायु की आपेक्षिक आर्दता पर पड़ता है और वायु की आपेक्षिक आर्द्रता अधिक तापमान पर कम हो जाती है, तापमान अधिक होने पर वायु और अधिक जलवाष्प धारण करने की शक्ति प्राप्त कर लेती है।

(iii) वायु की गति- वाष्पोत्सर्जन करने वाले अंग के बाहर वायु की गति यदि कम है अथवा वह स्थिर है तो शीघ्र ही पौधे का बाह्य पर्यावरण वाष्प से संतृप्त हो जाएगा तथा पौधा और अधिक जलवाष्प इसमें नहीं डाल सकेगा अर्थात् वायु की आपेक्षिक आर्द्रता संतृप्ता की ओर होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर घटती है।

(iv) वायु का दाब -वायु का दाब कम होने से उसकी आपेक्षिक आर्द्रता कम हो जाने के कारण उसमें जलवाष्प ग्रहण करने की शक्ति बढ़ जाती है। अतः वाष्पोत्सर्जन की दर भी बढ़ती है।

प्रश्न 32. वाष्पोत्सर्जन को परिभाषित कीजिए। इसके महत्व पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- वाष्पोत्सर्जन– जीवित पौधे, अपने वायवीय भागों; जैसे- पत्तियों, हरे प्ररोह आदि के द्वारा अंतरिक ऊतकों से, अतिरिक्त पानी को वाष्प के रूप में बाहर निकालते हैं। यह क्रिया वाष्पोत्सर्जन कहलाती हैं।

पौधों के लिए वाष्पोत्सर्जन के निम्नलिखित महत्व हैं-

(i) वाष्पोत्सर्जन के द्वारा चूषण बल उत्पन्न होता है जो रसारोहण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है इससे जल बड़े-बड़े वृक्षों में भी अत्यधिक ऊँचाई तक पहुँच जाता है।

(ii) जड़ों द्वारा जल अत्यधिक मात्रा में अवशोषित होता है तथा वाष्पोत्सर्जन द्वारा वातावरण में वाष्पित हो जाता है। इससे जल चक्र निरंतर चलता रहता है। (iii) पौधों में तापक्रम का नियमन होता है अतः तेज गर्मी में पौधे झुलसने से बच जाते हैं।

(iv) हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन होता है।

प्रश्न 33. परासरण किसे कहते हैं? चित्र की सहायता से परासरण के प्रयोग का प्रदर्शन कीजिए।

उत्तर-

दो विभिन्न सांद्रता वाले विलयनों को एक अर्द्धपारगम्य झिल्ली द्वारा अलग कर देने पर कम सांद्रता वाले विलयन से अधिक सांद्रता वाले विलयन की ओर जल या विलायक के अणु गति करते हैं। यह क्रिया ही परासरण कहलाती है।

परासरण के प्रयोग का प्रदर्शन- इस प्रयोग के लिए अंडे का आस्मोमीटर का प्रयोग करते हैं। इसके लिए मुर्गी के अंडे में एक तरफ छिद्र बनाकर संपूर्ण कोशाद्रव्य बाहर निकाल देते हैं। अब इसे बंद (बिना छिद्र वाले भाग को) आधार मानकर हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) में रख देते हैं जिससे कैल्सियम कार्बोनेट का छिलका घुल जाता है। तथा अंडे की झिल्ली स्पष्ट दिखाई देने लगती हे ।

ऑस्मोमीटर द्वारा अंडे के परासरण का प्रदर्शन
UP BOARD SOLUTION FOR CLASS 10 SCIENCE CHAPTER 18 जीवन की प्रक्रियाएं
ऑस्मोमीटर द्वारा अंडे के परासरण का प्रदर्शन

वलयन प्रयोग– इसमें गमले में लगी एकसामन दो शाखाओं में से एक शाखा से तेज चाकू की सहायता से वल्कुट, फ्लोएम तथा मज्जा को निकाल देते हैं। दूसरी शाखा से जाइलम ऊतक को निकाल दिया जाता है।

कुछ समय पश्चात् पौधे का प्रेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि शाखा (A) जिसमें से जाइमल निकाल दिया गया था, सूख गई है; किंतु शाखा (B) जिसमें जाइलम नहीं निकाला गया था, हरी-भरी है।

प्रश्न 36. प्रकाश संश्लेषण क्रिया में हरे पौधे ऑक्सीजन मुक्त करते हैं, कथन की पुष्टि प्रयोग द्वारा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न के प्रश्न संख्या 14 का अवलोकन कीजिए।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

join us
Scroll to Top