Up Board Class 12 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 4 कैकेयी का अनुताप, गीत मैथिलीशरण गुप्त

Up Board Class 12 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 4 कैकेयी का अनुताप, गीत मैथिलीशरण गुप्त

12 हिंदी
Up Board Class 12 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 4 कैकेयी का अनुताप, गीत मैथिलीशरण गुप्त
कैकेयी का अनुताप, गीत


1 . मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य में इनका योगदान बताइए ।।


उत्तर – – कवि परिचय– राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान पर 3 अगस्त, सन् 1886 ई० में हुआ था ।। इनके पिता श्री रामचरण गुप्त को हिन्दी-साहित्य से विशेष प्रेम था और वे स्वयं हिन्दी के एक अच्छे कवि भी थे ।। गुप्त जी पर अपने पिता का पूर्ण प्रभाव पड़ा ।। बाल्यावस्था में ही एक छप्पय की रचना कर इन्होंने अपने पिता को चकित कर दिया था ।। प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही विधिवत् ग्रहण करने के बाद इन्हें अंग्रेजी पढ़ने के लिए झाँसी भेजा गया ।। वहाँ इनका मन पढ़ाई में न लगा और ये वापस लौट आये ।। बाद में पुनः घर पर ही इनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया गया, जहाँ इन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन किया ।। इनकी आरम्भिक रचनाएँ कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘वैश्योपकारक’ नामक पत्र में छपती थीं ।। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने के बाद इनकी प्रतिभा प्रस्फुटित हुई और इनकी रचनाएँ ‘सरस्वती’ में भी छपने लगीं ।। द्विवेदी जी के आदेश, उपदेश और स्नेहमय परामर्श के परिणामस्वरूप इनकी काव्यकला में पर्याप्त निखार आया ।। इनकी लगभग सभी रचनाओं में भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय जन-जागरण के स्वर प्रमुख रूप से मुखरित होते हैं ।। राष्ट्रीय विशेषताओं से परिपूर्ण रचनाओं का सृजन करने के कारण ही महात्मा गाँधी ने इनको ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि प्रदान की थी ।।

सन् 1912 ई० में इनकी पुस्तक ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन के बाद इनको ख्याति मिलनी आरम्भ हुई ।। ‘साकेत‘ महाकाव्य के सृजन पर ‘हिन्दी-साहित्य सम्मेलन’ द्वारा इनको ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ से सम्मानित किया गया था ।। इनकी अनवरत साहित्य-सेवा के कारण ही भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया और राज्यसभा का सदस्य भी मनोनीत किया ।। जीवन के अन्तिम समय तक ये अनवरत साहित्य-सृजन करते रहे ।। माँ भारती के इस महान साधक का 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० को देहावसान हो गया ।। हिन्दी साहित्य में योगदान- कहा जा सकता है कि गुप्त जी युगीन चेतना और इसके विकसित होते हुए रूप के प्रति अत्यधिक सजग थे और इसकी स्पष्ट झलक इनके काव्य में भी मिलती है ।। राष्ट्र की आत्मा को वाणी देने के कारण ही ये राष्ट्रकवि कहलाये और आधुनिक हिन्दी काव्य की धारा के साथ विकास-पथ पर चलते हुए युग-प्रतिनिधि कवि स्वीकार किये गये ।।

2- मैथिलीशरण गुप्त की कृतियों पर प्रकाश डालिए ।।

उत्तर – गुप्त जी की रचनाएँ- गुप्त जी की रचना-सम्पदा बहुत विशाल है और उनका विषय-क्षेत्र भी बहुत विस्तृत है ।। इनकी समस्त रचनाओं को- अनूदित और मौलिक; दो रूपों में विभाजित किया जा सकता है ।। इनकी अनूदित रचनाओं में दो प्रकार के साहित्यकाव्य और नाटक उपलब्ध हैं ।। अनूदित ग्रन्थ- इनके अनूदित ग्रन्थों में संस्कृत के यशस्वी नाटककार भास के ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ का अनुवाद उल्लेखनीय है ।। ‘वीरांगना’, ‘मेघनाद वध’, ‘वृत्र-संहार’, ‘प्लासी का युद्ध’ आदि इनकी अन्य अनूदित रचनाएँ हैं ।।

मौलिक ग्रन्थ- अनूदित रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने लगभग 40 मौलिक काव्य-ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से प्रमुख के नाम हैं- रंग में भंग, जयद्रथ वध, शकुन्तला, भारत-भारती, किसान, पंचवटी, हिन्दू, त्रिपथगा, शक्ति, गुरुकुल, विकट भट, साकेत, यशोधरा, नहुष, द्वापर, सिद्धराज, कुणाल गीत, काबा और कर्बला, पृथिवी पुत्र, प्रदक्षिणा, जयभारत, विष्णुप्रिया, सैरिन्ध्री, वक-संहार, पत्रावली, वन-वैभव, हिडिम्बा, अंजलि और अर्ध्य, वैतालिक, अजित, झंकार, मंगल घट ।। इनके अतिरिक्त गुप्त जी ने तिलोत्तमा, अनघ, चन्द्रहास नामक तीन छोटे-छोटे पद्यबद्ध रूपक भी लिखे हैं ।।

3 . मैथिलीशरण गुप्त की भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइए ।।
उत्तर – – भाषा-शैली- गुप्त जी का खड़ी बोली को हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने वाले समर्थ कवि के रूप में अपना विशेष महत्व हैं ।। सरल, शुद्ध, परिष्कृत खड़ी बोली में कविता करके इन्होंने ब्रजभाषा के स्थान पर उसे समर्थ काव्य-भाषा सिद्ध कर दिखाया ।। स्थान-स्थान पर लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से इनकी काव्य-भाषा और भी जीवन्त हो उठी है ।। गुप्त जी ने अपने समय में प्रचलित प्रायः सभी काव्य-शैलियों में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं ।। यद्यपि मूलतः ये प्रबन्धकार थे तथापि इन्होंने मुक्तक, गीति, गीति-नाट्य, नाटक आदि के क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक अनेक प्रयोग किये हैं ।। इनकी शैली में गेयता, सहज प्रवहमयता, सरसता और संगीतात्मकता की अजस्र धारा प्रवाहित होती दीख पड़ती है ।। मैथिलीशरण गुप्त जी की रचनाओं में अनेक रसों का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है ।। वियोग शृंगार के रूप में कवि की सफलता की प्रतीक ‘यशोधरा’ में यशोधरा और ‘साकेत’ में उर्मिला के उदाहरण हैं ।। शृंगार के अतिरिक्त रौद्र, शान्त आदि रसों का आयोजन करने में भी गुप्त जी अत्यधिक सफल रहे हैं ।। इन्होंने मन्दाक्रान्ता, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित, हरिगीतिका, बरवै आदि छन्दों में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं ।। तुकान्त, अतुकान्त और गीति–तीनों प्रकार के छन्दों का इन्होंने समान अधिकार से प्रयोग किया है ।। प्राचीन एवं नवीन सभी प्रकार के अलंकारों को गुप्त जी के काव्य में भाव-सौन्दर्यवर्द्धक और स्वाभाविक प्रयोग हुआ है ।। एक ओर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष जैसे प्रचलित अलंकार आपकी रचनाओं में है तो दूसरी ओर ध्वन्यर्थ व्यंजना, मानवीकरण जैसे आधुनिक अलंकार भी ।। अन्त्यानुप्रासों की योजना में तो इनका कोई जोड़ ही नहीं है ।।

व्याख्या संबंधी प्रश्न

1 . निम्नलिखित पद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए


(क) तदन्तर बैठी . . . . . . . . . . . . . . . . . . . नीरनिधि जैसी ।।

तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
नीले वितान के तले दीप बहु जागे ।
टकटकी लगाये नयन सरों के थे वे,
परिणामोत्सुक उन भयातरों के थे वे ।
उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रहकर,
करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह महकर ।
वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
प्रभू बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी ।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘मैथिलीशरण गुप्त’ द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ आठवें सर्ग से ‘कैकेयी का अनुताप’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग- भ्रातृ-प्रेम से ओत-प्रोत भरतजी श्रीराम से भेंट करने के लिए उनके पंचवटी स्थित आश्रम में पहुँचे ।। रात्रि में सभा बैठी ।। उसी सभा का प्रस्तुत पद्य-पंक्तियों में मनोहारी वर्णन किया गया है ।।

व्याख्या- तदन्तर श्रीराम की पर्णकुटी के सामने सभा बैठ गई ।। आकाशरूपी नीले चँदोवे के नीचे बड़ी संख्या में तारोंरूपी दीपक जल उठे थे ।। सभी देवतागण भी आसमान में आ विराजे और वे एकाटक-दृष्टि से सभा को देखने लगे ।। देवगणों को क्योंकि भरतजी भी परमप्रिय थे अतः सभी देवता सभा के परिणामों को लेकर व्याकुल और भयभीत थे ।। उन्हें भय था कि कहीं भरतजी के आगमन को अन्यथा समझकर श्रीराम कोई कठोर निर्णय न ले लें ।। यदि ऐसा हो गया तो वह भरतजी के साथ-साथ मानवता एवं निश्छल प्रेम के साथ भी बड़ा भारी अन्याय होगा ।। यही सोचकर देवता भयभीत भी थे और व्याकुल भी कि कहीं गलतफहमी में कोई अन्यापूर्ण निर्णय न हो जाए ।। पास में स्थित करौंदे के बगीचे में पुष्प खिले थे, मानो करौंदी-कुंज सभा के आयोजन पर आनन्द मना रहा है ।। उस करौंदी-कुंज से आती शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु वहाँ उपस्थित सभी लोगों को पुलकित कर रही थी अर्थात् उन्हें आनन्द और सुख प्रदान कर रही थी ।। वहाँ सभा-स्थल पर चारों ओर ऐसी स्वच्छ-धवल चाँदनी बिखरी थी कि चन्द्रलोक में भी वैसी चाँदनी कहाँ छिटकती है ।। कहने का आशय यह है कि वहाँ प्रकृति ने चन्द्रलोक से भी सुन्दर वातावरण सृजित किया था ।। ऐसे आनन्दपूर्ण अलौकिक शान्त वातावरण के बीच भगवान श्रीराम ने समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर वाणी में इस प्रकार बोलना आरम्भ किया ।।

काव्य-सौन्दर्य-1 . गुप्तजी के प्रकृति-चित्रण की कुशलता की पुष्टि यहाँ सफलतापूर्वक हो जाती है ।। 2 . भाषा-साहित्यिक खड़ीबोली ।। 3 . शैली- प्रबन्धात्मक ।। 4 . अलंकार- रूपक, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास ।। 5 . रस- शान्त ।। 6 . छन्दसवैया ।। 7 . गुण- प्रसाद ।। 8 . शब्दशक्ति-अभिधा ।।

(ख) यह सच है तो . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . गोमुखी गंगा- ।।

“यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।”
चौंके सब सुनकर अटल केकयी-स्वर को।
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
वैधव्य-तुषारावृता यथा विधु-लेखा।
बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,
वह सिंही अब थी हहा! गोमुखी गंगा”

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-कैकेयी चित्रकूट की सभा में अपना पक्ष प्रस्तुत करती हुई कहती है

व्याख्या- हे राम! जो कुछ तुमने अभी कहा, यदि वह सच है तो तुम अब अयोध्या को लौट चलो; अर्थात् अगर तुम यह जानते हो कि भरत को जन्म देकर भी मैं उसको न समझ सकी और इस कारण उसका हित समझकर जो कुछ मैंने किया, वह इसी अज्ञान का फल था, तो मेरी भूल के लिए मुझे क्षमा करते हुए अब वापस अयोध्या लौट चले ।। कैकेयी बोलेगी इसकी कल्पना भी किसी ने न सोची थी ।। इसलिए उसे बोलते सुनकर सब लोग चौंक पड़े ।। कैकेयी का स्वर बड़ा दृढ़ था ।। वह बिना किसी संकोच या द्विविधा के राम से लौट चलने का आग्रह कर रही थी ।। सबने अचानक रानी की ओर देखा ।। वह ऐसी प्रतीत होती थी, मानो विधवापनरूपी पाले से ढकी हुई चन्द्रमा की कोई किरण हो; अर्थात् कैकेयी चन्द्रकला के समान सुन्दर थी और उसने पाले के समान सफेद वस्त्र धारण कर रखे थे ।। वे सफेद वस्त्र उसकी उदासी के प्रतीक थे ।। यद्यपि वह बाहर से शान्त दिखती थी, पर उसके मन में अनेकानेक भाव आ-जा रहे थे ।। किसी समय शेरनी के सदृश तेजस्विनी दिखाई पड़ने वाली कैकेयी आज समय के चक्र से गोमुखी गंगा के समान द्रवित हो रही थी ।। आशय यह है कि उसके आँसू पश्चात्ताप के थे और पश्चात्ताप की अग्नि समस्त पापों को नष्ट कर व्यक्ति को निर्मल बना देती है ।। काव्य-सौन्दर्य- 1 . गुप्त जी पहले कवि हैं, जिन्होंने कैकेयी का बड़ा सहानुभूतिपूर्ण चित्रण किया है ।। यहाँ पाषाण हृदया कैकेयी की आन्तरिक पीड़ा मुखरित हुई है ।। 2 . कवि ने कैकेयी के वात्सल्य भाव पर बल देकर उसके दोषों का मार्जन करा दिया है ।। 3 . रस- करुण और शान्त ।। 4 . भाषा-साहित्यिक खड़ीबोली ।। 5 . शब्द-शक्ति- अभिधा और लक्षणा ।। 6 . गुणप्रसाद ।। 7 . अलंकार- उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक ।। 8 . शैली-प्रबन्ध ।। 9 . छन्द- सवैया ।।

(ग) दुर्बलता काही चिह्न . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . न निज विश्वासी ।।


दुर्बलता का ही चिह्न विशेष शपथ है,
पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है?
यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ,
तो पति समान ही स्वयं पत्र भी खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो।
पाओ यदि उसमें सार उसे सब चुन लो।
करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?”
थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती,
रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।
उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी,
सबमें भय-विस्मय और खेद भरती थी।
“क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-राम और भरत के परिसंवाद को सुनकर कैकेयी ने अपनी भूल स्वीकार करते हुए स्पष्ट किया |

व्याख्या- शपथ (सौगन्ध) खाना यद्यपि व्यक्ति की कमजोरी का प्रमाण है, तथापि मुझ अबला के लिए सौगन्ध खाकर अपनी बात को प्रमाणित करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है ।। इस प्रकार सौगन्ध खाते हुए कैकेयी ने कहा कि वास्तविकता यह है कि इस कार्य के लिए भरत ने मुझे नहीं उकसाया है ।। यदि कोई इस बात को सिद्ध कर दे कि मुझे भारत ने इस कार्य के लिए प्रेरित किया है तो मैं पति के समान ही अपने पुत्र को भी खो दूँ ।। कैकेयी ने उपस्थित जन-समुदाय से कहा कि मुझे मन की बात कह लेने दीजिए और मेरी बात सुन लीजिए ।। यदि मेरी बात में कोई सार हो तो उसे आप ग्रहण कर लें, अन्यथा नहीं ।। अब मेरे लिए यह सम्भव नहीं है कि मैं पहाड़ से बड़ा पाप करके भी चुप रह जाऊँ और राई जैसा छोटा पश्चात्ताप भी न कर सकूँ ।। जिस क्षण कैकेयी अपने द्वारा किए गए दुष्टतापूर्ण कृत्य पर पश्चात्ताप कर रही थी, उस समय तारों से जड़ी हुई चाँदनी रात ओस-कणों के रूप में आँसुओं की वर्षा कर रही थी और नीचे मौन सभा अपने हृदय को थपथपाते हुए रुदनन कर रही थी ।। जिस रानी ने उल्कापात करके अयोध्या के समाज को नष्ट कर दिया था, वही रानी आज अन्धकार में सर्वत्र प्रकाश बिखेर रही थी ।। उसने अपने अनुताप में उपस्थित जन-समुदाय में भय, विस्मय और खेद के भाव एक-साथ भर दिए थे ।। कैकेयी ने स्पष्ट रूप से कहा कि बेचारी मन्थरा तो एक साधारण दासी थी ।। उसके पास इतना बल कहाँ था कि वह उसके मन को बदल सकती? वास्तव में उसका मन ही अविश्वासी हो गया था ।।

काव्य-सौन्दर्य-1 . यहाँ पर कैकेयी के पश्चात्ताप को अपूर्व ढंग से अभिव्यंजित किया गया है ।। 2 . कैकेयी के इस पश्चात्ताप के माध्यम से गुप्तजी ने उसे एक सीमा तक दोषमुक्त करने का सफल प्रयास किया है ।। 3 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।। 4 . शैली-प्रबन्ध ।। 5 . अलंकार- उपमा एवं अनुप्रास ।। 6 . रस-शान्त ।। 7 . शब्दाशक्ति-लक्षणा ।। 8 . गुण- प्रसाद ।।

(घ) कहते आतेथे . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . कुमाता माता ।।

‘ सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रस्तुत काव्य-पंक्तियों में भरत की माता कैकेयी अपने किए हुए पश्चात्ताप करती हुई स्वयं को धिक्कारती हुई कहती है

व्याख्या-हे पुत्र राम! अभी तक लोग कहावत के रूप में यही कहते आए हैं कि पुत्र माता के प्रति चाहे कितने ही अपराध कर ले, किन्तु माता कभी भी उस पर क्रोध नहीं करती और न ही वह क्रोध में भरकर पुत्र का कोई अहित करती है ।। इसीलिए कहा जाता है कि पुत्र भरत और तुम्हारा दोनों का ही अहित किया है; अत: मैं वास्तव में लोगों की दृष्टि में एक बुरी माता हूँ ।। मगर मैंने यह सब दुष्कृत्य कोई अपना आप जान-बूझकर नहीं किया है, बल्कि मेरा भाग्य मेरे विपरीत था, जिसने मुझसे यह सब कार्य कराया; फिर मैं अपने दुर्भाग्य के आगे क्या कर सकती थी? अब तो मेरे दुष्कृत्य को देखकर लोग यही कहेंगे कि पुत्र ने तो माता के प्रति अपने कर्तव्यों का पूर्ण निर्वाह करते हुए स्वयं को सच्चा पुत्र सिद्ध कर दिया, किन्तु माता कुमाता हो गई ।। इस प्रकार अब लोग पुरानी कहावत के स्थान पर यह नई कहावत कहा करेंगे कि पुत्र तो सदैव पुत्र ही रहता है, भले ही माता कुमाता बन जाए ।।

काव्य-सौन्दर्य- 1 . माता और पुत्र के वास्तविक स्वरूप को परिभाषितत करने का सफल प्रयास गुप्तजी ने किया है ।। 2 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।। 3 . शैली- प्रबन्धात्मक ।। 4 . अलंकार- अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश ।। 5 . रस- करुण एवं शान्त ।। 6 . छन्द- सवैया ।। 7 . गुण- प्रसाद ।। 8 . शब्दशक्ति- अभिधा ।।

(ङ) मुझको यह प्यारा . . . . . . . . . . . . . . . . . . पद्म-कोष है मेरा ।।

” सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- प्रस्तुत अंश में कैकेयी के हृदय की आत्म-ग्लानि वर्णित हई है ।।

व्याख्या- कैकेयी श्रीराम से कहती है कि हे राम! मुझे यह भरत प्रिय है और भरत को तुम प्रिय हो ।। इस प्रकार तो तुम मुझे दुगुने प्रिय हो ।। इसलिए तुम मुझसे अलग न रहो ।। मैं उस भरत के विषय में कुछ जानूँ या न जानूँ, किन्तु तुमतो इसे अच्छी तरह जानते हो और अपने से ज्यादा इसे चाहते हो ।। तुम दोनों भाईयों के बीच जिस प्रकार का प्रेम सब लोगों के सामने प्रकट हुआ है, उससे तो मेरे पाप का दोष भी पुण्य के सन्तोष में बदल गया है ।। मुझे तो यह सन्तोष है कि मैं स्वयं कीचड़ के समान निन्दनीय हूँ, किन्तु मेरी कोख से कमल के समान निर्मल भरत का जन्म हुआ ।।

काव्य-सौन्दर्य-1 . आत्मशुद्धि का एक विधान पश्चात्ताप भी है ।। कैकेयी ने यहाँ वही अपनाया है ।। 2 . इन पंक्तियों में कवि ने कैकेयी के वात्सल्य भाव को सहज अभिव्यक्ति हुई है ।। 3 . रस- वात्सल्य ।। 4 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।। 5 . शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा ।। 6 . गुण- प्रसाद ।। 7 . अलंकार- रूपक, अनुप्रास ।। 8 . शैली- प्रबन्ध ।।

(च) निरख सखी,ये . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . अर्ध्य भर लाए ।।

” सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘मैथिलीशरण गुप्त’ द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ नवम् सर्ग से गीत’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।

प्रसंग- प्रस्तुत गीत में शरद् ऋतु के आगमन पर उर्मिला की मनःस्थिति का चित्रण हुआ है ।। विरहिणी उर्मिला शरद् ऋतु का स्वागत करती हुई अपनी सखी से कह रही है

व्याख्या- हे सखी! इन खंजन पक्षियों को देखकर मैं अनुमान लगाती हूँ कि मेरे प्रिय ने अवश्य ही इधर अपने नेत्र घुमाये हैं, जिनका आभास इन खंजनों में मिल जाता है ।। मेरे पति के नेत्र खंजन के समान ही सुन्दर हैं ।। जान पड़ता है कि यह धूप, जिससे सरोवर स्वच्छ हो गये हैं, प्रिय के द्वारा अर्जित ताप का ही मूर्त रूप है, जो चारों ओर फैल गया है और जिसे देखकर मेरा मन हर्षित हो उठा है ।। प्रियतम की गति और उनके हास्य का आभास मुझे इन हंसो में मिल जाता है ।। प्रियतम इस ओर घूमे होंगे अथवा निश्चय ही मेरा ध्यान करके मुस्कुराये होंगे, तभी ये हंस दिखलाई पड़ने लगे हैं ।। इन हंसों को देखकर ही ज्ञात हो रहा है कि मेरे पति मेरी ओर उन्मुख होकर हँस रहे हैं ।। कमल खिल उठे हैं और प्रियतम के लाल-लाल होंठों के समान ये दुपहिया के फूल भी खिल उठे हैं ।। हे शरत! तुम्हारा स्वागत है; क्योंकि तुम्हारे आगमन पर मैंने खंजन पक्षियों में प्रिय के नेत्रों का, धूप में प्रिय के तप का, हंसों में उनकी गति और हास्य का तथा बन्धूक पुष्पों में उनके अधरों का आभास पाया है ।। आकाश ने ओस की बूंदों के रूप में मोती न्यौछावर कर तुम्हारा स्वागत किया है और मैं अपने आँसुओं का अर्घ्य देकर तुम्हारी अभ्यर्थना करती हूँ ।।

काव्य-सौन्दर्य- 1 . किसी अतिथि के आने पर चन्दन आदि द्वारा जो उसका सत्कार किया जाता है वह अर्घ्य कहलाता है ।। उर्मिला अपने अश्रुओं से शरत् को अर्घ्य दे रही है ।।
2 . भाषा- शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।।
3 . रस- विप्रलम्भ श्रृंगार ।।
4 . छन्द- गेयपद ।।
5 . शब्द-शक्ति – लक्षणा और व्यंजना ।।
6 . गुण- माधुर्य ।।
7 . अलंकार- अपहुति और रूपक (अश्रु अर्घ्य) ।।
8 . शैली- मुक्तक ।।
9 . भावसाम्य- जायसी ने भी कहा है
नयन जो देखा कँवल था, निरमल नीर सरीर ।।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन जाति नग हीर ।।

2 . निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) प्रभु बोले गिरागंभीर नीरनिधि जैसे ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘मैथिलीशरण गुप्त’ द्वारा रचित ‘कैकेयी का अनुताप’ शीर्षक से अवतरित हैं ।। प्रसंग- भरत अपनी माताओंसहित राम से मिलने पंचवटी आते हैं ।। वहाँ राम उनसे कुशलता पूछते हैं ।। इस सूक्ति में उसी का वर्णन किया गया है ।।

व्याख्या- प्रभु राम अत्यन्त धीर-गम्भीर वाणी में भरत से उनका कुशलक्षेम पूछने के साथ ही उनसे वन में आने का कारण पूछते हैं ।। उस समय उनके पूछने में पूरी गम्भीरता थी, न कोई ईर्ष्या-द्वेष की भावना और न ही कोई व्यंग्यबाण ।। जिस प्रकार समुद्र की लहरों की ध्वनि एक गम्भीरता होती है, वैसी ही गम्भीरता उस समय श्रीराम की वाणी में थी ।।

(ख) जनकर जननी ही जानन पाई जिसको?

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- पंचवटी आश्रम में अपने दुःख को व्यक्त करते हुए जब भरत व्यथित हो गए तो श्रीराम ने भरत से जो कहा, उसी का विवेचन इस सूक्ति में निहित है ।।

व्याख्या- भरत के वचनों को सुनकर श्रीराम ने खींचकर उन्हें अपने हृदय से लगा लिया ।। भरत पर अपने आँस बरसाते हए श्रीराम ने कहा कि जिस (पुत्र) के उच्च भावों की गहराई का अनुमान स्वयं उसे जन्म देनेवाली माता तक न कर पाई, उसके हृदय की थाह किसी दूसरे को कैसे मिल सकती है; अर्थात् कोई भी ऐसे महान् व्यक्ति (भरत) की मनः स्थिति का अनुमान नहीं लगा सकता ।।

(ग) वह सिंहि अब थी हहा! गोमुखी गंगा- ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में कैकेयी की विनम्रता, उसके अनुताप और पश्चात्ताप की भावना को देखकर, चित्रकूट में उपस्थित सभी लोग उसके परिवर्तित स्वभाव पर मन-ही-मन विचार कर रहे हैं ।।

व्याख्या- रात्रि के समय चित्रकूट में हो रही एक सभा में कैकेयी श्रीराम और सभा में उपस्थित लोगों के समक्ष अपनी मनोव्यथा की व्यक्त कर रही है ।। उसकी पश्चात्तापयुक्त मर्मस्पर्शी वाणी को सुनकर सभा में उपस्थित लोग मन-ही-मन सोचते हैं कि शेरनी के समान केवल अपनी ही प्रभुता हेतु चेष्टारत तथा सब पर हावी हो जानेवाली कैकेयी आज गोमुखी गंगा के समान पवित्र एवं निर्मल हो गई है ।। आशय यह है कि घोर पश्चात्ताप की भावना से व्यथित होने के कारण कैकेयी का हृदय अत्यधिक कोमल, निर्मल एवं पवित्र हो गया है ।।

(घ) कहते आते थे यही अभी नरदेही,
‘माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही ।।

‘ सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में कैकेयी ने श्रीराम के समक्ष दुःख व्यक्त करते हुए कहा है उसकी दुर्जनता के कारण, संसार में प्रचलित इस उक्ति पर से भी लोगों का विश्वास उठ जाएगा कि माता कभी भी कुमाता सिद्ध नहीं हो सकती ।।

व्याख्या- कैकेयी श्रीराम से कहती है कि आज तक मनुष्य यही कहते आए थे कि पुत्र कितना ही दुष्ट क्यों न हो, परन्तु माता उसके प्रति कभी भी दुर्भाव नहीं रखती है ।। अब तो मेरे कुटिल चरित्र के कारण लोगों का इस उक्ति पर से विश्वास हट जाएगा और संसार के लोग यही कहा करेंगे कि माता भले ही दुष्टतापूर्ण व्यवहार करने लगे, परन्तु पुत्र कभी कुपुत्र सिद्ध नहीं होता है ।।

(ङ) ‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
जिस जननीने है जना भरत-सा भाई ।। “

सन्दर्भ- पहले की तरह प्रसंग- पंचवटी में उपस्थित सभा में और श्रीराम के समक्ष पश्चात्ताप व ग्लानि से व्यथित कैकेयी जब स्वयं को एक अभागिन रानी कहते हुए धिक्कारने लगी तो राम के साथ सारी सभा ने एक स्वर में यह सूक्ति कही

व्याख्या- भरत जैसे पुत्र को जन्म देनेवाली माता कैकेयी सौ बार धन्य है ।। श्रीराम कहते हैं कि वह माता, जिसने मेरे भरत जैसे भाई को जन्म दिया है, वह निश्चय ही सौ बार धन्य है ।। इस प्रकार पश्चात्ताप की ज्वाला में जलती हुई और फूट-फूटकर रोती हुई कैकेयी को श्रीराम ने अपनी विलक्षण मानवतावादी भावना का परिचय देते हुए सांत्वना देने का यत्न किया ।।

(च) नभ ने मोती वारे, लो ये अश्रु अर्घ्य भर लाए ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘मैथिलीशरण गुप्त’ द्वारा रचित ‘गीत’ शीर्षक से अवतरित हैं ।।
प्रसंग- इस सूक्ति पंक्ति में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को अपने पति का स्मरण हो आया है, इसलिए वे प्रकृति के विभिन्न कार्य-व्यापारों को देखकर कल्पना करती हैं कि मेरी ही भाँति वन में निवास करते पति लक्ष्मण को मेरी याद अवश्य आई होगी ।।

व्याख्या- उर्मिला ने खंजन पक्षी को देखा तो उसे लगा कि आज निश्चय ही वन में पति-लक्ष्मण को मेरी याद आई होगी और उसी याद में उन्होंने अयोध्या की ओर देखा होगा, तभी तो उनके समान सुन्दर नेत्रोंवाला यह खंजन पक्षी मुझे दर्शन देने यहाँ चला आया ।। मैंने इस पक्षी के नेत्रों में तुम्हारे नेत्रों के दर्शन कर लिए हैं ।। भले ही तुम प्रतीक रूप में इस खंजन के माध्यम से मुझे दर्शन यहाँ चले आए हो, इसीलिए तुम्हारे स्वागत में आकाश ने ओस की बूंदों के रूप में सर्वत्र मोतियों की वर्षा की है ।। फिर ऐसे में मैं कैसे पीछे रह सकती हूँ; अत: तुम्हारे स्वागत के लिए अर्घ्य के रूप में मेरे नेत्र आँसूरूपी जल लेकर उपस्थित हैं ।।

(छ) धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में प्रेम के समक्ष धन की निस्सारता का उल्लेख किया गया है ।।

व्याख्या- उर्मिला अपने पति लक्ष्मण के पास वन में जाने के लिए उत्सुक है ।। वन में जाने से पूर्व उसकी स्मृति में वह सब घटनाक्रम आ जाता है, जिसके कारण कैकेयी ने श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास दिलाया था ।। इस स्मृति से आहत होकर ही वह कहती है कि सारा संसार धन के लिए भाँति-भाँति के उत्पात करता रहता है और धन के लिए सम्बन्धों और भावनाओं की महत्ता को भी भुला देता है, लेकिन ऐसा करना उचित नहीं है ।। संसार में सदैव प्रेम की ही जीत होती है ।।

अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न

1 . ‘कैकेयी का अनुताप’का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।

उत्तर – – ‘कैकेयी का अनुताप’ कविता में कवि ने कैकेयी के पश्चात्ताप का वर्णन किया है ।। कवि कहते हैं कि जब चित्रकूट में राम की पर्णकुटी के सामने सब बैठ गई ।। देवता भी टकटकी लगाए सभा को देख रहे थे ।। वे सभा के परिणामों को लेकर व्याकुल और भयभीत थे कि कही भारत के आगमन को अन्यथा समझकर श्रीराम कोई कठोर निर्णय ले लें ।। वही पास के बगीचे में करौंदे के पुष्प खिले थे, मानो यह कुंज सभा के आयोजन पर प्रसन्न हो ।। उससे आने वाली शीतल सुगंधित वायु सभी को पुलकित कर रही थी ।। चन्द्रलोक में भी ऐसी चाँदनी नहीं होती जैसे वहाँ बिखरी थी ।। तब श्रीराम के समुद्र के समान गंभीर वाणी में बोलना आरम्भ किया ।। वे भारत से बोले, हे भरत! अपनी मनोकामना बताओ, यह सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग सजग हो गए ।।

भरत ने दुःखी हृदय से कहा हे श्रेष्ठ राम! मेरी कोई भी मनोकामना शेष नहीं, अब तो मुझे अकण्टक राज्य भी प्राप्त हो गया है ।। आपने अपना वासस्थान (कुटिया) वृक्ष के नीचे बनाकर जंगलों में वास कर लिया है अब मेरी कौन-सी मनोकामना शेष रह गई है ।। पिता ने तडप-तपड़कर अपना शरीर त्याग दिया ।। क्या फिर भी मेरी कोई अभागी मनोकामना शेष रह गई है ।। भरत विलाप करते हुए कहते हैं कि इसी अपयश के लिए क्या मेरा जन्म हुआ था? मेरी मानसिक और चारित्रिक हत्या स्वयं मेरी जननी ने ही कर दी ।। हे भाई! जिस व्यक्ति का संसार एवं घर नष्ट हो गया हो, तब उसकी कौन-सी इच्छा शेष रह सकती है? मुझे तो स्वयं से ही विरक्ति हो गई है, और जिसे विरक्ति हो जाए, उसकी इच्छा और क्या हो सकती है ।।

भरत के वचनों को सुनकर श्रीराम ने उन्हें खींचकर अपने हृदय से लगा लिया और आँसू बरसाते हुए कहा कि जिसके उच्च विचारों को जन्म देनेवाली माता ही नहीं समझ सकी, उसके हृदय की थाह किसी दूसरे को कैसे मिल सकती है? श्रीराम की यह बात सुनकर अचानक कैकेयी राम से कहती है कि अगर यह सच है कि मैं भरत को नहीं समझ पाई तो तुम अब घर को वापस लौट चलो ।। जिसे सुनकर सभा के लोग चौंक गए ।। उन्होंने रानी को देखा, जो सफेद वस्त्र धारण किए ऐसी लग रही थी, मानो कुहरे से ढकी चाँदनी हो ।। यद्यपि कैकेयी निश्छल व शांत बैठी थी परन्तु उसके मन में विभिन्न विचार उठ रहे थे ।। जो पहले सिंहनी की भाँति थी, वह अब गोमुखी गंगा के समान शांत, शीतल और पवित्र हो उठी थी ।। कैकेयी ने राम से कहा कि यह सत्य है कि मैं भरत को जन्म देने के बाद भी नहीं पहचान पाई ।। सभी व्यक्ति मेरी इस बात को सुन ले ।।

राम ने भी अभी इसी बात को स्वीकार किया है ।। इसलिए तुम्हें वन भेजने में उसका कोई हाथ नही है, तुम मेरे अपराधों की सजा भरत को क्यों देते हो, इसलिए तुम मुझे जो चाहे दण्ड दे दो, क्योंकि मैं ही वास्तविक अपराधी हूँ, परन्तु घर लौट चलो ।। यद्यपि शपथ (सौगन्ध) खाना दुर्बलता का प्रतीक है, परन्तु मेरे पास इसके अलावा दूसरा उपाय नहीं हैं ।। मैं शपथ खाकर कहती हँ कि मुझे भरत ने नहीं उकसाया था ।। यदि कोई यह प्रमाणित कर दे तो मैं अपने पति के समान ही अपने पुत्र को भी खो दूँ ।।

कैकेयी सभा से कहती है कि मुझे अपने मन के भावों को व्यक्त कर लेने दो ।। यदि मेरी बात में कोई सार हो तो आप ग्रहण कर लें, अन्यथा नही ।। अब यह संभव नहीं है कि पहाड़ जितना अपराध करने के बाद, मैं राई जितना तुच्छ पश्चात्ताप भी न करूँ ।। उस समय तारों से जड़ी हुई चाँदनी रात ओस-कणों के रूप में आँसुओं की वर्षा कर रही थी और नीचे मौन सभा अपने हृदय को थपथपाते हुए रो रही थी ।। जिस रानी ने उल्कापात करके अयोध्या के समाज को नष्ट कर दिया था, वही आज रात्रि के अन्धकार में प्रकाश बिखेर रही थी ।। उसने अपने पश्चात्ताप से सबके मन में खेद के भाव भर दिए थे ।। कैकेयी कहती है मन्थरा दासी का इतना साहस नहीं था कि वह मेरा मन बदल सके ।। वास्तव में मेरा मन ही अविश्वासी हो गया था ।। कैकेयी अपने मन से कहती है कि तेरे अंदर ही घर में आग लगाने वाले भाव जागृत हुए थे, इसलिए तू ही उसमें जल ।।

परन्तु क्या मेरे मन में ईर्ष्या के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव नहीं था? क्या मेरे वात्सल्य का कोई मूल्य नहीं? जो मेरा पुत्र भी पराया हो गया है ।। भले ही तीनों लोक मुझपे थूकें, या मेरी निंदा करें परंतु हे राम! मेरी तुमसे विनती है कि भारत की माता होने का गौरव मुझसे न छीना जाए ।। अभी तक यह कहावत प्रसिद्ध थी कि भले ही पुत्र कुपुत्र हो सकता है, परन्तु माता कुमाता नहीं होती ।। परन्तु मेरे दुष्कृत्यों को देखकर अब सब यही कहेंगे कि पुत्र तो पुत्र ही रहा परन्तु माता कुमाता हो गई ।। मैंने तो बस भरत का ऊपरी रूप ही देखा, उसके दृढ़ हृदय को नहीं देख पाई बस कोमल शरीर ही देख पाई ।। मैंने इसके पारमार्थिक स्वरूप को नहीं देखा और अपना स्वार्थ साधना चाहा ।। जिस कारण आज मेरा जीवन बाधाग्रस्त है ।। युगों-युगों तक यह कहानी चलती रहेगी कि रघुकुल मैं भी एक रानी अभागिन थी ।। जन्म-जन्मांतर तक अब मेरी आत्मा यही सुनेगी कि धिक्कार है उस रानी कैकेयी को, जिसे महास्वार्थ ने घेर लिया था ।।

राम कैकेयी की बात का खण्डन करते हुए राम कहते हैं कि वह माता धन्य है जिसने भरत जैसे भाई को जन्म दिया ।। राम के वचन सुनकर सभा में उपस्थित जनसमुदाय भी पागलों की तरह चिल्लाने लगा ।। कैकेयी कहती है कि मैंने जिस पुत्र के लिए अपयश कमाया मैंने तो उसे भी खो दिया ।। मैंने अपने स्वर्ग-सुखों को भी उस पर वार दिया और तुमसे भी तुम्हारा अधिकार (राज्य) ले लिया परन्तु हे राम! आज वही पुत्र दीन-हीन होकर रुदन कर रहा है ।। वह पकड़े हिरन की तरह भयभीत है ।। चन्दन के समान शांत स्वभाव वाला मेरा पुत्र आज अंगारे के समान प्रचण्ड हो रहा है ।। मेरे लिए इससे बड़ा क्या दण्ड हो सकता है? कैकेयी कहती है मैंने तो अपने हाथ-पैर मोहरूपी नदी में डाल दिए थे मेरा यह कार्य ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न या पागलपन में करता है ।। मैं अपने अपराध के लिए किसी दण्ड से भयभीत नहीं हूँ ।।

आज गंगा और वरुणा भी मेरे लिए नरक की वैतरणी के समान है ।। मैं चिरकाल तक नरक की पीड़ा सह सकती हूँ, परन्तु स्वर्ग की दया मेरे लिए नरक के दण्ड से भी कठोर होगी ।। हे राम! मैंने तुम्हें अपने हृदय को वज्र से भी कठोर बनाकर वन भेजा ।। अब मेरे हृदय की भावनाओं का विचार करते हुए अधिक मत रूठो और घर वापस चलो ।। इसके अलावा यदि मैं कुछ कहूँगी तो कोई विश्वास नहीं करेगा ।। हे राम! मुझे यह (भरत) प्यारा है और तुम भरत को प्रिय हो इसलिए मुझे तुम दुगने प्रिय हो इसलिए तुम मुझसे अलग रहने का विचार न करो ।। भले ही मैं भरत के गुण अवगुण न जान पाऊँ परन्तु तुम इसे अपने से भी अधिक प्रेम करते हो ।। तुम दोनों भाइयों का जैसा प्रेम सभी के सामने प्रकट हुआ है उससे मेरा पाप भी पुण्य के सन्तोष में बदल गया है ।। मैं तो स्वयं कीचड़ के समान हूँ किन्तु मेरी कोख से भरत जैसा कमल उत्पन्न हुआ है ।। आगे आनेवाली ज्ञानीजन तुम्हारे और भरत के प्रेम का उदाहरण देकर तुम्हारी और भरत की श्रेष्ठता सिद्ध करेंगे और मुझे अपराधिनी सिद्ध करके गर्व से स्वयं का मस्तक ऊँचा करेंगे ।। मैं तो बस इतना जानती हूँ कि मैं एक माता हूँ और माँ के अधीर हृदय में तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है इसलिए मैं चाहती हूँ कि तुम मेरी गोद अर्थात् स्नेह से दूर न होओ, अत: बिना कोई तर्क दिए तुम अब अयोध्या लौट चलो ।।

2 . स्वपठित अंश के आधार पर कैकेयी का चरित्र-चित्रण कीजिए ।।

उत्तर – – कैकेयी अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी थी ।। उन्होंने राजा दशरथ से पूर्व में प्राप्त दो वर माँगे जिसमें उसने राम को 14 वर्ष का वनवास तथा भरत के लिए राज्य माँगा परन्तु भरत राज्य स्वीकार नहीं करते ।। कैकेयी के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
(i) वात्सल्यमयी माता- कैकेयी भरत की वात्सल्यमयी माता थी ।। वह भरत के प्रेम के कारण ही राम के लिए वनवास माँगती है जो राज्य को उत्तराधिकारी थे ।। वह भरत को अयोध्या का राजा बनाना चाहती थी ।।

(ii) आदर्श व्यक्तित्व- कैकेयी चित्रकूट में सभा के बीच में अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करते हुए एक आदर्श प्रस्तुत करती है ।। कैकेयी सभा में कहती है कि मैंने स्वार्थ के वशीभूत होकर ही यह अपराध किया था ।। (iii) समाज-भीरू- कैकेयी एक सामाजिक स्त्री है ।। अपने अपराध का बोध होने पर वह राम से कहती है कि आने वाले युगों में मुझे लोग कुमाता कहकर पुकारेंगे ।। तथा मेरे स्वार्थ के कारण मुझे कलंकिनी सिद्ध करके गर्वित होंगे ।।
(iv) दृढनिश्चयी- कैकेयी एक दृढ़ निश्चयी नारी है ।। वह अपने अपराध को सभा के बीच में दृढ़ता के साथ स्वीकार करती है ।। वह राम से कहती है कि वह अब वापस अयोध्या लौट चले ।।

(v) स्पष्टवक्ता-कैकेयी एक स्पष्टवक्ता महिला है ।। वह चित्रकूट की सभा में स्पष्ट रूप से कहती है कि मैं भरत को केवल ऊपरी मात्र ही जान पाई, उसके परमार्थिक स्वरूप को नहीं जान सकी ।। वह कहती है कि उसने जो अपराध किया है उसकी दोषी वह स्वयं है ।। मंथरा दासी का इतना साहस नहीं था कि वह उसको बहला (उकसा) सके ।।

3 . ‘गीत’ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।

उत्तर – – ‘गीत’ कविता में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला शरद्-ऋतु का स्वागत करते हुए अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! देख खंजन पक्षी आ गए हैं ।। मेरे प्रियतम ने अपने नेत्र इस ओर किए हैं ।। चारों ओर धूप के रूप में प्रियतम के तन की गर्मी फैली हुई है ।। उनके मन की सरसता के कारण सरोवर कमल के फूलों से खिल उठे हैं ।। वहाँ वन में प्रियतम घूम रहे होंगे और उनकी मन्द गति का स्मरण कराने के लिए ये हंस उठकर यहाँ आ गए हैं ।। प्रियतम वन में मुझे याद करके मुस्कुराए होंगे तभी तो कमल खिल उठे हैं ।। और लाल रंग के बन्धूक के फूल प्रियतम के अधरों के समान लगते हैं ।।

उर्मिला शरद् का स्वागत करती हुई कहती है कि मैंने बड़े भाग्य से तुम्हारे दर्शन पाए हैं ।। आकाश ने भी तुम्हारे स्वागत में ओस रूपी मोती न्योछावर किए हैं और मैं तुम्हें आँसूरूपी अर्घ्य प्रस्तुत करती हूँ ।। उर्मिला शिशिर ऋतु से कहती है कि तू पर्वतों और वनों में मत जाना ।। तुझे जितना पतझड़ चाहिए, वह मैं तुम्हें अपने नन्दवन रूपी शरीर से दे दूँगी ।। यदि तुझे दूसरों को कँपाना प्रिय है तो तुझे जितनी भी कँपकँपी चाहिए तू मेरे शरीर से ले ले ।। वह कहती है कि हे शिशिर! यदि तुझे पीलापन चाहिए तो मेरे मुख से ले ले ।। यदि तू मेरे मनरूपी बर्तन में आँसू भी जमा दे तो मुझे स्वीकार हैं मैं उसे मोती समझकर सँभाल कर रख लँगी ।। मेरी हँसी तो चली गई है, क्या मैं अपने इस जीवन में रो भी न सकूँ ।। मैं यह जानने को आतुर हूँ कि हँसना और रोना दोनों छिन जाने के बाद मेरे इस भावरूपी संसार में फिर क्या हलचल शेष रह जाएँगी ।। ।।

उर्मिला कामदेव से प्रार्थना करती है कि हे कामदेव! तुम मुझे अपने पुष्प बाणों से मत घायल करो ।। तुम वसन्त के मित्र हो, इसलिए मुझ पर विष की वर्षा मत करो ।। तुम्हारे प्रहार से मुझे व्याकुलता मिलती है, और तुम विफल होते हो इसलिए अब अधिक श्रम मत करो और अपनी थकान दूर कर लो ।। मैं कोई भोग-विलास की इच्छा करने वाली नारी नहीं हूँ जो तुम अपना जाल फैला रहे हों ।। यदि तुममें शक्ति है तो शिव-नेत्र के समान बाधाओं को भस्म करने वाले मेरे सिंदूर बिन्दु की ओर देखो ।। उर्मिला कहती है कि यदि तुम्हें रूप-सौन्दर्य पर घमंड है तो तुम इसे मेरे पति लक्ष्मण पर वार दो क्योकि तुम उनके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हो ।। यदि तुम्हे अपनी पत्नी रति पर घमंड है तो मेरे चरणों की धूल को उसके सर पर रख दो ।।

उर्मिला कहती है कि मेरे मन में बार-बार यही विचार आता है कि मैं यह सब धन-धाम छोड़कर उसी प्रकार वन मे रहूँ जैसे मेरे प्रियतम रहते हैं ।। मैं अपने प्रिय के व्रत में बाधा नहीं बनना चाहती, इसलिए मैं उनके निकट रहकर भी दूर रहूँगी ।। मैं चाहती हूँ कि मेरी विरह-व्यथा यों ही बनी रहे, परन्तु उसका समाधान भी होता रहे ।। मेरे मन में यही आता है कि प्रियतम के दर्शन करके मैं आनंदित भी होती रहूँ और विरह के कारण विलाप भी करूँ ।। मैं अपने प्रिय के समीप रहते हुए उन्हें थोड़ी-थोड़ी देर में झुरमुट में से देख लूँ ।। जिस मार्ग से वह चले जाए उस मार्ग की धूल में लेटकर आनंद प्राप्त करूँ ।। इस प्रकार प्रियतम अपनी साधना में लगे रहें ।। उर्मिला संसार को सन्देश देती हुई कहती हैं कि हे मनुष्यों! इस संसार में धन और वैभव के लिए उत्पात और संघर्ष करना उचित नहीं ।। जीवन में प्रेम की ही विजय होती है, धन की नहीं ।।

काव्य-सौन्दर्य से सम्बन्धित प्रश्न

1 . “पाया तुमने . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . तथापि अभागा?”पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का प्रयोग हुआ है ।।

2 . “यह सच है . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . तुम्हारी मैया ।। ” पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक अलंकारों का प्रयोग हुआ है ।।

3 . “सौ बार धन्य . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . लाल की माई ।। “पंक्ति में निहित रसव उसका स्थायी भाव बताइए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्ति में वीर रस है जिसका स्थायी भाव उत्साह है ।।

4 . “शिशिर,न . . . . . . . . . . . भाव-भुवन में ।। “पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।।
उत्तर – – काव्य-सौन्दर्य- 1 . उर्मिला का सात्विक प्रेम अति कोमल मनोभावों के साथ त्यागोन्मुख है; अत: आदरणीय है, 2 . भाषा
शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली, 3 . रस- विप्रलम्भ शृंगार, 4 . छन्द- गेयपद, 5 . शब्द-शक्ति- लक्षणा और व्यंजना, 6 . गुण माधुर्य, 7 . अलंकार-रूपक, उपमा तथा श्लेष, 8 . शैली- मुक्तक ।।

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