up board class 10 hindi full solution chapter 1 सूरदास काव्य खण्ड के सभी पदों की हिंदी में सन्दर्भ सहित व्याख्या
up board class 10 hindi full solution chapter 1 सूरदास काव्य खण्ड अवतरणों की हिंदी में सन्दर्भ सहित व्याख्या
पद – 1
चरन-कमल बंद हरि राई ।।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंधै, अंधे कौ सब कुछ दरसाई॥
बहिरौ सुनै, गूंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंद तिहिं पाई ॥
शब्दार्थ –
हरि = श्रीकृष्ण, पंगु = लँगडा, लंधै = लाँघ लेता है, गूंग = गूंगा, रंक = दरिद्र,, पाई = चरण।।
सन्दर्भ – यह पद्य खण्ड श्री सूरदास द्वारा रचित हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘पद’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।
प्रसंग – इस पद्य में खण्ड में भक्त कवि सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की चरणों की वन्दना की है ।
व्याख्या – भक्तों में सर्वश्रेष्ठ भक्त शिरोमणि सूरदास श्रीकृष्ण के कमलरूपी चरणों की वन्दना करते हुए कहते हैं, कि इन चरणों की कृपा सर्वोपरि है। इनकी कृपा हो जाने पर एक लँगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ सकता है। और अन्धे को सब कुछ दिखाई देने लगता है । इनके चरणों के प्रभाव के कारण बहरा व्यक्ति भी सुनने लगता है , और गूंगा पुनः बोलने लगता है। किसी दरिद्र व्यक्ति पर श्रीकृष्ण के चरणों की कृपा हो जाय तो वह राजा बनकर अपने सिर पर राजमुकुट धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि ऐसे दयालु करुना के सागर प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ ।
काव्यगत सौन्दर्य-
1.श्रीकृष्ण के चरणों को श्री कृष्ण से भी महान बताया है। कवि का भक्ति-भाव अनुकरणीय है ।
2.भाषा – साहित्यिक ब्रज भाषा ।
3.शैली – मुक्तक
4.छन्द – गेय पद।
5.रस – भक्ति।
6.शब्दशक्ति –लक्षणा।
7.गुण – प्रसाद।
8.अलंकार – चरन-कमल में रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार।
पद – 2
अबिगत-गति कछु कहत न आवै ।
ज्यौं गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै ॥
परम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै ।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानैं जो पावै ॥
रूप-रेख-गुन जाति-जुगति-बिनु, निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातें, सूर सगुन-पद गावै ॥
शब्दार्थ –
अबिगत =निराकार ब्रह्म । गति = दशा । अंतरगत = हृदय में । भावै = अच्छा लगता है । परम = बहुत अधिक। अमित = अधिक। तोष = सन्तोष। उपजावै = उत्पन्न करता है । अगम = पहुँच से बाहर। अगोचर = जो इन्द्रियों से परे हो । रेख = आकृति। जुगति = युक्ति। निरालंब = बिना किसी सहारे के। धावै = दौड़े। तातै = इसलिए। सगुन = सगुण ब्रह्म ।
सन्दर्भ – यह पद्य खण्ड श्री सूरदास द्वारा रचित हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘पद’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।
प्रसंग–इस पद्य खण्ड में सूरदास जी ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना में आने बाली कठिनाई का वर्णन किया है | तथा सगुण ईश्वर अर्थात श्रीकृष्ण भगवान की लीला के गान को ही श्रेष्ठ बताया है ।
व्याख्या – भक्त शिरोमणि सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म का वर्णन करना बहुत कठिन है । उसकी स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।उस निर्गुण ब्रह्म की उपासना का आनन्द किसी भक्त के लिए उसी प्रकार अवर्णनीय है, जिस प्रकार गूंगे व्यक्ति के लिए मीठे फल का स्वादका बखान करना । जिस प्रकार गूँगा व्यक्ति मीठे फल के स्वाद को मुंह से कहकर प्रकट नहीं कर सकताहै, वह मन-ही-मन उसके आनन्द का अनुभव करता है, उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे मुख द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकताअर्थात उसकी महत्ता का बखान नहीं किया जा सकता | यद्यपि निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से अत्यधिक आनन्द प्राप्त होता है और उसके उपासक को उससे असीम सन्तोष भी प्राप्त होता है, परन्तु वह हर एक व्यक्ति की सामर्थ्य से बाहर की बात है क्योंकि उसको इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता। निर्गुण ब्रह्म का न कोई रूप है, न कोई आकृति, न उसकी कोई निश्चित विशेषता है, न उसकी जाति है और न वह किसी जतन से प्राप्त किया जा सकता है । ऐसी स्थिति में भक्त का मन बिना किसी आधार के कहाँ भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म सभी प्रकार से पहुँच के बाहर है । इसीलिए सभी प्रकार से विचार करने के बाद ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद गाना अधिक उचित समझा है। अर्थात श्री कृष्ण ही हम सबके लिए ब्रह्म है |
काव्यगत सौन्दर्य-
उस निराकार ईश्वर की उपासना को कठिन तथा सगुण श्री कृष्ण की उपासना को सरल बताया गया है ।
भाषा – साहित्यिक ब्रज।
शैली – मुक्तक
छन्द – गेय पद।
रस – भक्ति और शान्त।
अलंकार – अगम-अगोचर तथा जाति-जुगत में अनुप्रास अलंकार | सब विधि ……………… पद गावे में “हेतु अलंकार” है |
गुण – प्रसाद ।
पद-3
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन, बिम्ब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥
कनक-भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-कर प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु को दूध पियावति ॥
शब्दार्थ –
[मनिमय = मणियों से युक्त। कनक = सोना। पकरिबैं = पकड़ने को। धावत = दौड़ते हैं। निरखि = देखकर। राजत = सुशोभित होती हैं। दतियाँ = छोटे-छोटे दाँत। तिहिं = उनको। अवगाहत = पकड़ते हैं। कर-पग = हाथ और पैर। राजति = शोभित होती है। बसुधा = पृथ्वी। बैठकी = आसन। साजति = सजाती हैं। अँचरा तर = आँचल के नीचे ।
सन्दर्भ – यह पद्य खण्ड श्री सूरदास द्वारा रचित हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘पद’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।
प्रसंग — इस पद्य खण्ड में कवि ने मणियों से युक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है।
व्याख्या-
भक्त शिरोमणि कवि सूरदास जी श्रीकृष्ण के सौन्दर्य एवं बाल-लीलाओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बालक कृष्ण अब घुटनों के बल चलने लगे हैं । राजा नन्द का आँगन सोने का बना हुआ है और उसमें मणियांजड़ी हुई है । उस आँगन में श्रीकृष्ण घुटनों के बल चलते हैं, तो किलकारी मारकर भी हँसते हैं और अपना प्रतिबिम्ब पकड़ने के लिए दौड़ते हैं। जब वे किलकारी मारकर हँसते हैं तो उनके मुख में आगे के दो दाँत शोभा देते हैं। उन दाँतों के प्रतिबिम्ब को भी वे पकड़ने का प्रयास करते हैं । उनके हाथ-पैरों की छाया उस सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत होती है, मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल के आसन सजा दिये हों अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ-पैरों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछा हुआ हो । श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती हैं और बाबा नन्द को बार-बार वहाँ बुलाती हैं। इसके बाद माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालकश्री कृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती हैं ।
काव्यगत सौन्दर्य –
1.प्रस्तुत पद्य खण्ड में श्रीकृष्ण की सहज स्वाभाविक बाल-लीलाओं का सुन्दर और मनोहारी वर्णन किया गया है ।
2.भाषा – मधुर ब्रज भाषा।
3.शैली – मुक्तक।
4.छन्द – गेय पद।
5.रस – वात्सल्य।
6.गुण–प्रसाद और माधुर्य
7.अलंकार-‘किलकत कान्ह’, ‘द्वै दतियाँ’, ‘प्रतिपद प्रतिमनि’ में अनुप्रास अलंकार ‘कमल-बैठकी’ में रूपक अलंकार , ‘करि-करि’, ‘पुनि-पुनि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ।
पद-4
मैं अपनी सब गाय चरैहौं।
प्रात होत बल कैं संग जैहौं, तेरे कहैं न रैहौं ॥
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहुँ डर नहिं लागत ।
आजु न सोव नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत ॥
और ग्वाल सब गाय चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौं ।
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं दैहौं ।
शब्दार्थ –
जैहौं = जाऊँगा। गाइनि = गायों के। नैकहुँ = थोड़ा-भी। सोइ रहौ = सो जाओ। जान मैं दैहौं = मैं जाने देंगी।
सन्दर्भ – यह पद्य खण्ड श्री सूरदास द्वारा रचित हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘पद’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।
प्रसंग — इस पद्य खण्ड में कवि ने मणियों से युक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है।
व्याख्या – सूरदास जी श्री कृष्ण की बल लीलाओं का वर्णन करते हुए कहते है कि श्री कृष्ण अब बड़े हो रहे है एक दिन श्री कृष्ण अपनी माता से कहते है कि हे माता में अपनी सब गायें चराऊँगा । सबेरा होने पर बलदाऊ दादा के साथ जाऊँगा, तेरे कहने से भी (घर) नहीं रहूँगा । ग्वालबालों तथा गायों के बीच में रहने से मुझे तनिक भी भय नहीं लगता है । नन्दबाबा की शपथ ! आज (मैं) सोऊँगा नहीं, रातभर जागता रहूँगा । दूसरे गोप बालक तो गाय चरायेंगे और मैं घर बैठा रहूँ, सूरदास जी कहते हैं (माता बोलीं) – हे श्याम, अब तुम सो जाओ, सबेरे मैं तुम्हें जाने दूँगी ।
काव्यगत सौन्दर्य– 1.प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण की सहज स्वाभाविक हाव-भावपूर्ण बाल-लीलाओं का सुन्दर और मनोहारी चित्रण हुआ है।
2.भाषा-सरस मधुर ब्रज।
3.शैली-मुक्तक।
4.छन्द– गेय पद।
5.रस-वात्सल्य।
6.अलंकार-अनुप्रास
7.गुण-माधुर्य।
पद- 5
मैया हौं न चरैहौं गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसों, मेरे पाईं पिराइ ॥
जौं न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौंहँ दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥
मैं पठेवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥
शब्दार्थ- हौं = मैं । सिगरे = सम्पूर्ण । पिराई = पीड़ा । पत्याहि = विश्वास। सौंहें = कसम। रिसाइ = गुस्सा।। ।। पठवति = भेजती हूँ। रिंगाइ = दौड़ाकर।अति बालक = छोटा बच्चा |
सन्दर्भ – यह पद्य खण्ड श्री सूरदास द्वारा रचित हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘पद’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।
प्रसंग-इस पद्य खण्ड में श्रीकृष्ण माता यशोदा से ग्वाल-बालों की शिकायत करते हुए कह रहे हैं कि में अब गाय चराने के लिए नहीं जाऊंगा |
व्याख्या -श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते है कि बाल-स्वभाव के अनुरूप श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता, मैं अब गाय चराने नहीं जाऊँगा । सभी ग्वालबाल मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं । इधर से उधर दौड़ते दौड़ते मेरे पाँवों में पीड़ा होने लगी है। यदि तुम्हें मेरी बात का विश्वास न हो, तो बलराम को अपनी सौगन्ध दिलाकर पूछ लो। यह सुनकर माता यशोदा ग्वाल-बालों पर भुत गुस्सा करती हैं और उन्हें गाली देती हैं । सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा कह रही हैं कि मैं तो अपने पुत्र को केवल मन बहलाने के लिए वन में भेजती हूँ और ये ग्वाल-बाल उससे इधर-उधर दौड़ाकर गायों को घिरवाते रहते हैं ।
काव्यगत सौन्दर्य
1.प्रस्तुत पद्य खण्ड में बालक कृष्ण की दु:ख भरी शिकायत और माता यशोदा के बात्सल्य प्रेम का बहुत ही स्वाभाविक चित्रण किया है |
2.भाषा – सरल , स्वाभाविक ब्रज।
3.शैली – मुक्तक।
4.छन्द – गेय पद।
5.रस – वात्सल्य
7.अलंकार – पाइँ पिराइ तथा सूर स्याम में अनुप्रास अलंकार।
8.गुण-माधुर्य।।
How to download online Ayushman Card pdf 2024 : आयुष्मान कार्ड कैसे ऑनलाइन डाउनलोड करें
संस्कृत अनुवाद कैसे करें – संस्कृत अनुवाद की सरलतम विधि – sanskrit anuvad ke niyam-1
Garun Puran Pdf In Hindi गरुण पुराण हिन्दी में
Bhagwat Geeta In Hindi Pdf सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दी में
Pingback: up board class 10 hindi full solution chapter 2 Tulasidas van path par - UP Board INFO
soordas ki rachana soorsaagar se li gayi hai sandarbh me likh dena
Pingback: UP BOARD CLASS 10 HINDI FULL SOLUTION CHAPTER 3 रसखान - UP Board INFO
Pingback: up board class 10 hindi syllabus 2020-2021 - UP Board INFO
Pingback: up board class 10 hindi solution - UP Board INFO