UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 10 उद्धव प्रसंग, गंगावतरण (जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’) free solution

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 10 उद्धव प्रसंग, गंगावतरण (जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’)

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UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 10
उद्धव प्रसंग, गंगावतरण (जगन्नाथदास 'रत्नाकर')


1 — जगन्नाथदास रत्नाकर’ का जीवन परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य में इनके योगदान पर प्रकाश डालिए ।।

उत्तर— कवि परिचय- ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ का जन्म सन् 1866 ई० में काशी के एक वैश्य परिवार में हुआ था ।। रत्नाकर जी के पिता पुरुषोत्तमदास; भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के मित्र और फारसी भाषा के साथ ही हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे ।। रत्नाकर जी की शिक्षा का आरम्भ उर्दू एवं फारसी भाषा के ज्ञान से हुआ ।। इसके बाद इन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी का अध्ययन किया ।। स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् इन्होंने क्वींस कॉलेज में प्रवेश लिया ।। सन् 1891 ई० में इन्होंने स्नातक की डिग्री प्राप्त की ।। सन् 1900 ई० में इनकी नियुक्ति अवागढ़ (एटा) के खजाने के निरीक्षक के पद पर हुई ।। दो वर्ष पश्चात् ये वहाँ से त्यागपत्र देकर चले आए तथा सन् 1902 ई० में अयोध्या-नरेश प्रतापनारायण सिंह के निजी सचिव नियुक्त हुए ।। अयोध्यानरेश की मृत्यु के बाद ये उनकी महारानी के निजी सचिव के रूप में कार्यरत रहे और सन् 1928 ई० तक इसी पद पर आसीन रहे ।। हरिद्वार में 21 जून सन् 1932 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया ।। हिन्दी साहित्य में योगदान- रत्नाकर जी के काव्य में भावुकता एवं आश्रयदाताओं की प्रशस्ति के साथ ही सहृदयता का भाव भी मुखरित हुआ ।। इन्होंने ‘साहित्य-सुधानिधि’ और ‘सरस्वती’ के सम्पादन में योगदान दिया ।।

इन्होंने ‘रसिक मण्ड’ के संचालन तथा ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना एवं विकास में भी अपना योगदान दिया ।। इनका काव्य-सौष्ठव एवं काव्यसंगठन नवीन तथा मौलिक है ।। रत्नाकर जी के काव्य में युगीन प्रभाव तथा आधुनिकता का समन्वय है, जो कि समकालीन कवियों अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ और मैथिलीशरण गुप्त की भाँति उनकी कथा-काव्य रचना में भी दिखाई देता है ।। रत्नाकर जी द्वारा पौराणिक विषयों के साथ ही देशभक्ति की आधुनिक भावनाओं को भी वाणी प्रदान की गई ।। रत्नाकर जी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनकी रचनाओं में हमें प्राचीन और मध्ययुगीन समस्त भारतीय साहित्य का सौष्ठव बड़े स्वस्थ, समुज्ज्वल और मनोरम रूप में उपलब्ध होता है ।। जिस परिस्थिति और वातावरण में इनका व्यक्तित्व गठित हुआ था, उसकी स्पष्ट छाप इनकी साहित्यिक रचनाओं में झलकती है ।। निश्चित ही रत्नाकर जी हिन्दी साहित्यकोश के जगमगाते नक्षत्रों में से एक हैं ।। उनकी आभा चिरकाल तक बनी रहेगी ।। इनके अमूल्य योगदान के कारण हिन्दी काव्य-साहित्य सदैव इनका ऋणी रहेगा ।।

2 — जगन्नाथ रत्नाकर’ जी की रचनाओं का उल्लेख कीजिए ।।
उत्तर— रचनाएँ- रत्नाकर जी ने काव्य और गद्य दोनों ही विधाओं में साहित्य-रचना की है ।। ये मूल रूप से कवि थे; अतः इनकी
काव्य-कृतियाँ ही अधिक प्रसिद्ध हैं ।। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं
समालोचनादर्श- यह अंग्रेजी कवि पोप के समालोचना सम्बन्धी प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थ ‘एसेज ऑन क्रिटिसिज्म’ का हिन्दी अनुवाद है ।।
हिंडोला- यह सौ रोला छन्दों का अध्यात्मपरक शृंगारिक काव्य है ।। उद्धव शतक- घनाक्षरी छन्द में लिखित प्रबन्ध-मुक्तक-दूतकाव्य ।।
हरिश्चन्द्र- भारतेन्दु जी के ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक पर आधारित खण्डकाव्य है ।। इसमें चार सर्ग हैं ।।
कलकाशी- यह काशी से सम्बन्धित है ।। 142 रोला छन्दों का वर्णनात्मक प्रबन्ध-काव्य है, जो कि अपूर्ण है ।। रत्नाष्टक- देवताओं, महापुरुषों और षड्ऋतुओं से सम्बन्धित 16 अष्टकों का संकलन हैं ।।
श्रृंगारलहरी- इसमें शृंगारपरक 168 कवित्त-सवैये हैं ।। गंगालहरी और विष्णुलहरी- ये दोनों रचनाएँ 52-52 छन्दों के भक्ति-विषयक काव्य हैं ।।
वीराष्टक- यह ऐतिहासिक वीरों और वीरांगनाओं से सम्बन्धित 14 अष्टको का संग्रह है ।।
प्रकीर्ण पद्यावली- यह फुटकर छन्दों का संग्रह है ।। गंगावतरण- यह 13 सर्गों का आख्यानक प्रबन्ध-काव्य है ।।
इनके अतिरिक्त रत्नाकर जी ने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है, जिनके नाम हैं- दीपप्रकाश, सुधाकर, कविकुलकण्ठाभरण, सुन्दर-शृंगार, हिम-तरंगिनी, हम्मीर हठ, नखशिख, रस-विनोद, समस्यापूर्ति, सुजानसागर, बिहारी रत्नाकर, तथा सूरसागर (अपूर्ण) ।। ।।


3 — जगन्नाथदास रत्नाकर जी की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए ।।
उत्तर— भाषा-शैली- रत्नाकर जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा है, जिसमें शब्द-सौन्दर्य और अर्थ-गाम्भीर्य अपने उत्कर्ष पर है ।। ब्रजभाषा में इन्होंने अरबी-फारसी के शब्दों को भी सहज रूप से प्रयोग किया है ।। इतना ही नहीं इन्होंने संस्कृत की पदावली के साथ-साथ काशी में बोली जाने वाली भाषा से भी शब्दों को लेकर ब्रजभाषा के साँचे में ढाल दिया है ।। इनकी भाषा की एक विशेषता उसकी चित्रोपमता भी है ।। ये अपने भावों को इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि आँखों के सम्मुख एक सजीव और गत्यात्मक चित्र उपस्थित हो जाता है ।। भाषा का बिम्बमय प्रयोग इनके काव्य की विशेषता है ।। अपनी काव्य-रचनाओं में रत्नाकर जी ने प्रबन्धात्मक और मुक्तक दोनों प्रकार की शैलियों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया है ।। चित्रात्मक, आलंकारिक और चमत्कृत शैली के प्रयोग ने इनके भावों को सहज अभिव्यक्ति प्रदान की है ।।

रत्नाकर जी भावों के कुशल चितेरे हैं ।। इन्होंने मानव-हृदय के कोने-कोने में झाँककर भावों के ऐसे चित्र प्रस्तुत किये हैं कि हृदय गद्गद हो जाता है ।। अपनी काव्य-रचनाओं में रत्नाकर जी ने केवल शृंगार रस का ही चित्रण नहीं किया है; वरन् इनके काव्य में करुणा, उत्साह, क्रोध, घृणा, वीर, रौद्र, भयानक, अद्भुत आदि रसों का भी यथार्थ चित्रण हुआ है ।। श्रृंगार के संयोग पक्ष की अपेक्षा वियोग पक्ष के चित्रण में इनकी मार्मिकता अधिक परिलक्षित होती है ।। इनका सर्वाधिक प्रिय छन्द कवित्त है ।। अपने काव्यों में इन्होंने प्रायः दो छन्दों- रोला तथा घनाक्षरी का प्रयोग किया है ।। इनके अतिरिक्त छप्पय, सवैया, दोहा आदि छन्दों के प्रयोग भी यत्र-तत्र दृष्टिगत होते हैं ।। रत्नाकर जी ने अनुप्रास के अतिरिक्त यमक, रूपक, वीप्सा, श्लेष, उत्प्रेक्षा, पुनरुक्तिप्रकाश, विभावना आदि अलंकारों के उत्कृष्ट प्रयोग किये है ।। अलंकार प्रयोग की दृष्टि से ये सांगरूपक के सम्राट हैं ।। इनकी मुक्तक रचनाओं के संग्रह शृंगारलहरी, गंगालहरी, विष्णुलहरी, रत्नाष्टक आदि में यह आलंकारिक शोभा और भी स्वच्छन्द रूप से दृष्टिगत होती है ।। रीतिकालीन अलंकारवादियों से इतर रत्नाकर जी की विशिष्टता यह है कि उनकी भाँति इनका सौन्दर्य-विधान बौद्धिक व्यायाम की सृष्टि नहीं करता, वरन् आन्तरिक प्रेरणा से सहज प्रसूत जान पड़ता है ।।

1 — निम्नलिखित पद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) भेजे मनभावन ………………………………………………कहन सबैलगीं ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ द्वारा रचित ‘उद्धव शतक’ से ‘उद्धव प्रसंग’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग- गोपियों को जब यह ज्ञात हुआ कि उद्धव उनके प्रिय श्रीकृष्ण का कोई सन्देश लाए हैं तो उनके मन में अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का सन्देश जानने की उत्कण्ठा इस रूप में जाग उठी

व्याख्या- मनभावन श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए उद्धव के आगमन की सूचना ब्रज के गाँवों में जिस समय व्याप्त हुई, उसी समय गोपिकाओं के झुण्ड-के-झुण्ड दौड़-दौड़कर नन्द के द्वार पर आने लगे ।। अपने कमलरूपी चरणों के पंजों पर उचक-उचककर और श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गए पत्र को देखकर गोपियों का हृदय क्षोभ (विकलतामिश्रित उत्कण्ठा) से भर उठा और सभी ‘हमको क्या लिखा है ? हमारे लिए कृष्ण ने क्या लिखा है ? हमारे लिए कृष्ण ने क्या सन्देश दिया है?’ कहने लगीं ||
काव्य सौन्दर्य- (1) जब व्यक्ति की उत्सुकता चरमसीमा पर पहुँच जाती है तो चुप नहीं रह पाता, वरन् पूछने के लिए विवश हो ही जाता है ।। इस छन्द में इसी उत्सुकता का अत्यन्त चित्रात्मक वर्णन हुआ है ।। (2) भाषा- ब्रजभाषा ।। (3) अलंकारअनुप्रास, रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश, वीप्सा एवं पदमैत्री ।। (4) रस- विप्रलम्भ शृंगार ।। (5) शब्दशक्ति- लक्षणा ।। (6) गुणमाधुर्य ।। (7) छन्द-मनहरण घनाक्षरी ।।

(ख) चाहत जो………………………………………….बस्यौ रहै ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग-इन काव्य-पंक्तियों में उद्धव गोपियों को अपने ज्ञान और योग-मार्ग की साधना समझाते हैं ।।

व्याख्या- उद्धव गोपियों से कहते हैं कि यदि तुम श्यामसुन्दर के साथ इच्छानुसार संयोग चाहती हो तो सदैव योग की साधना में अपने हृदय को लीन रखो ।। तुम सदैव योग-साधना द्वारा वृत्तियों को अन्तर्मुखी करके अर्थात् सांसारिक विषयों से मन तथा इन्द्रियों को हटाकर हृदय में एकाग्रचित्त होकर ध्यान लगाओ ।। हृदय-तल में जाग्रत ब्रह्म ज्योति में ध्यान लगाओ; क्योंकि वह ब्रह्म हृदयरूपी सुन्दर कमल में स्थित है ।। तुम अपनी आत्मा को परमात्मा में इस प्रकार लीन कर दो कि जिससे जड़ और चेतन की क्रीड़ा को (तटस्थ भाव से) देखकर वह निरन्तर आनन्दित होती रहे ।। तुम मोह के वशीभूत होने से क्षुब्ध होकर अपने हृदय के अन्दर जिसके वियोग की अनुभूति कर रही हो, वह तो निरन्तर सभी के हृदय में निवास करता है ।।

काव्य सौन्दर्य- (1) उद्धव निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार के लिए की जाने वाली योग-साधना के उपदेश द्वारा गोपिकाओं का वियोगजनित दुःख दूर करना चाहते हैं ।। (2) भाषा- ब्रज ।। (3) छन्द- मनहरण घनाक्षरी ।। (4) रस- शान्त ।। (5) शब्द-शक्तिलक्षणा ।। (6) गुण- प्रसाद ।। (7) अलंकार- ‘हिय-कंज’ में रूपक है ।। अनुप्रास की मंजुल छटा दर्शनीय है ।।

(ग) कान्ह-दूत ………………………………………………………………………….बिचारी की ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- उद्धव ने अपने उपदेश में ब्रह्मवाद और आत्मा तथा परमात्मा की अभेदता का प्रतिपादन किया ।। गोपिकाएँ उसका विरोध करती हुई उन्हें अपने अस्तित्व के विनाश का कारण मानती हैं ।।

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव से पूछती हैं कि हे उद्धव! आप ब्रजबालाओं की बुद्धि को बदलने का प्रण लेकर तथा श्रीकृष्ण के दूत बनकर यहाँ आए हैं अथवा ब्रह्म के दूत के रूप में आए हैं ? कहने को तो आप श्रीकृष्ण के दूत बनकर यहाँ आए हैं, फिर भी आप ब्रह्म की ही चर्चा कर रहे हैं ।। हे उद्धव! आप प्रेम की रीति को नहीं जानते, इसीलिए आप अनाड़ियों और बुद्धिहीनों जैसा व्यवहार करके अन्याय कर रहे हैं ।। आपके कहने के अनुसार यदि हमने श्रीकृष्ण और ब्रह्म को एक ही मान भी लिया तो भी हमें यह अभेदता (एकत्व) का विचार अच्छा नहीं लगता ।। आप तो स्वयं जानते हैं कि समुद्र में बूंद के मिल जाने पर समुद्र की असीमता में तो कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, परन्तु अशक्त और अकिंचन बूंद का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा ।। समुद्र में कुछ बूंदे मिल जाएँ अथवा न मिलें, उससे समुद्र के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; किन्तु यदि बूंद समुद्र में मिल जाएगी तो उसका अस्तित्व निश्चय ही समाप्त हो जाएगा ।। इसी प्रकार यदि हम ब्रह्म की आराधना करती हैं तो उसमें लीन होकर अपना अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, जबकि श्रीकृष्ण की आराधना करते हुए हमारा अस्तित्व बना रहेगा ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) यहाँ गोपियों ने आत्मा तथा परमात्मा की अभेदता को अस्वीकार कर अद्वैतवाद का विरोध किया है ।। (2) गोपियों के हृदय की सरलता और कथन की व्यंग्यात्मकता द्रष्टव्य है ।। (3) भाषा- ब्रजभाषा ।। (4) अलंकार- अनुप्रास, यमक, श्लेष, पदमैत्री एवं दृष्टान्त ।। (5) रस-विप्रलम्भ शृंगार ।। (6) शब्दशक्ति- लक्षणा और व्यंजना ।। (7) गुण- माधुर्य ।। (8) छन्द- मनहरण घनाक्षरी ।।


(घ) चिंता-मनि मंजुल ………………………………………………………………लखिबौ कहौ ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियों द्वारा अपनी तर्कबुद्धि के आधार पर योग-साधना को निरर्थक सिद्ध किया गया है ।। वे कृष्णभक्ति को छोड़कर निराकार ब्रह्म की उपासना करने को तैयार नहीं है ।। UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 6 भक्ति और श्रृंगार (कविवर बिहारी)

व्याख्या- गोपियाँ कहती हैं- हे उद्धव! आप सुन्दर चिन्तामणि (कृष्ण-भक्ति) को धूल की धाराओं (भस्म रमाने) में फेंककर मनरूपी काँच के दर्पण को सभालकर रखने के लिए कहते हैं ।। आप समस्त कामनाओं की पूर्ति करनेवाली कृष्णभक्ति का त्याग करके हमें भस्म रमाने का उपदेश दे रहे हैं ।। आप वियोग की अग्नि को बुझाने के लिए हमें वायु-भक्षण (प्राणायाम) करने को कहते हैं ।। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार वायु के सम्पर्क से अग्नि नहीं बुझती अपितु और भी भड़क उठेगी ।। उसी प्रकार प्राणायाम करने से वियोग की आग शान्त नहीं होगी वरन् और अधिक भड़क उठेगी ।। जिस ब्रह्म को आप नितान्त रूपरहित तथा रसरहित सिद्ध कर चुके हैं, उसी के रूप का ध्यान करने तथा उसके रसास्वादन के लिए कहते हैं; अर्थात् एक ओर तो आप यह कहते हैं कि ब्रह्म निराकार तथा रसहीन है और दूसरी ओर आप उसके रूप का ध्यान करने तथा उसका रसास्वादन करने को कहते हैं ।। इन दोनों बातों में आखिर क्या साम्य है ? इतने बड़े विश्व में खोजने पर भी नहीं पाया जा सकता, उसे आप नेत्र बन्द करके त्रिकूट चक्र में देखने के लिए कहते हैं ।। भाव यह है कि आँखे खोलकर खोजने पर भी जिसे नहीं देखा जा सकता, उसे आँख बन्द करके कैसे देखा जा सकता है ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) कृष्णभक्ति के सामने योग-साधना को तुच्छ और निरर्थक सिद्ध किया गया है ।। (2) उद्धव की युक्तियों के आधार पर ही उनके कथनों का खण्डन किया गया है ।। इस खण्डन के माध्यम से गोपियों की तर्कबुद्धि प्रकट हुई है ।। (3) मुहावरों का सुन्दर प्रयोग द्रष्टव्य है ।। (4) भाषा- ब्रजभाषा ।। (5) अलंकार- श्लेष, रूपक, अनुप्रास एवं विरोधाभास ।। (6) रस- शृंगार ।। (7)शब्दशक्ति – लक्षणा एवं व्यंजना ।। (8) गुण- माधुर्य ।। (9) छन्द-मनहरण घनाक्षरी ।।

(ङ) ऊधौ यहै सूधौ……………………………………………………….तिहारी हैं ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- गोपियों को कृष्ण के दर्शन के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं सुहाता ।। इसलिए वे उद्धव के हाथों कृष्ण को सन्देश भेजती हैं ।। इसी का वर्णन इस पद में हुआ है ।।

व्याख्या- हे उद्धव! हम ब्रज की भोली-भाली बालाएँ छल-कपट की बनावटी बातें नहीं जानती, इसलिए कृष्ण से हमारा सीधा-सा सन्देश कह देना कि आपकी कृपा तो असीम है (आप तो अपने भक्तों के अपराधों को हृदय में लाते ही नहीं) और हमारी अपराध करने की क्षमता (सामर्थ्य) बहुत अल्प है; अर्थात् हम कितने ही अपराध करें, आप अपनी असीम कृपा के कारण हमें क्षमा कर देंगे, ऐसा हमारा विश्वास है ।। आप हमें अन्य जो चाहे दण्ड दें, किन्तु अपने दर्शनों के आनन्द से वंचित न करें, यही हम दीन-अबलाओं की प्रार्थना है; क्योंकि चाहे हम भली हैं या बुरी हैं, लज्जाशील है या निपट निर्लज्ज हैं, हमें जो चाहें वह समझें; परन्तु एक बात निश्चित है कि हम जैसी भी हैं आपकी सेविकाएँ हैं, जिसके कारण समस्त अपराधों के बावजूद हम आपकी कृपा की अधिकारिणी है ।।

काव्य सौन्दर्य- (1) गोपियों का कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम समर्पण की भावना के साथ व्यक्त हुआ है ।। (2) अभिलाषा और दैन्य संचारी भावों का चित्रण है ।। (3) भाषा- ब्रज ।। (4) रस- शृंगार ।। (5) छन्द- मनहरण घनाक्षरी ।। (6) गुण- माधुर्य ।। (7) शब्दशक्ति- लक्षणा और व्यंजना ।। (8) अलंकार- अनुप्रास (वर्णों की आवृत्ति होने से),-दरस-रस’ में यमक; पदमैत्री ।।

(च) प्रेम-मद-छाके……………………………….राधिका पठाई है ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- जब उद्धव गोकुल से मथुरा के लिए प्रस्थान करते है, तो वे अत्यन्त प्रेम-विहल है ।। प्रेमाधिक्य से उनकी दशा बड़ी विचित्र दिखाई गई है ।। UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 6 भक्ति और श्रृंगार (कविवर बिहारी)

व्याख्या-जिस प्रकार शराबी के पैर ठीक से जमीन पर नहीं पड़ते, उसका शरीर शिथिल हो जाता है तथा नेत्रों में आलस्य-सा दिखाई देता है, उसी प्रकार प्रेम-रस का आकण्ठ पान किये हुए उद्धव के पैर कहीं-के-कहीं पड़ रहे थे ।। उनके सारे अंग शिथिल हो गये थे तथा नेत्रों में मादकता छा गयी थी ।। कविवर रत्नाकर कहते हैं कि उद्धव इस प्रकार भौंचक्के-से चले आ रहे थे, मानो किसी भूली बात को याद कर रहे हों ।। वे आए थे इस अभिमान के साथ कि मैं गोपियों को अपनी वाणी से सन्तुष्ट कर दूँगा, परन्तु गोपियों की बात सुनकर उनका सारा अहंकार दूर हो गया ।। कहने का आशय यह है कि ब्रज से आते हुए उद्धव की स्थिति बहुत विचित्र हो रही है ।। उद्धव के एक हाथ में माता यशोदा द्वारा दिया हुआ मक्खन सुशोभित हो रहा था तथा दूसरे हाथ में राधा द्वारा भेजी गयी बाँसुरी ।। वे इन उपहारों के प्रति अत्यधिक आदर-भाव के कारण उन्हें पृथ्वी पर नहीं रख रहे थे ।। प्रेमाधिक्य के कारण उनके नेत्रों से जो आँसू उमड़ रहे थे, उन्हें वे बार-बार अपने कुरते की बाँहों से पोछ रहे थे; क्योंकि हाथ तो घिरे थे और हाथों को खाली करने के लिए वे उपहारों को पृथ्वी पर रखना नहीं चाहते थे ।।

काव्य सौन्दर्य- (1) व्यक्ति की आस्था दृढ़ न हो तो उसकी पराजय निश्चित है ।। ज्ञानी उद्धव ब्रज-गोपिकाओं के असीम प्रेम से प्रभावित होकर ज्ञानी से पूर्णतः भक्त बन गये ।। इसका बड़ा ही सुन्दर चित्रण प्रस्तुत छन्द में मिलता है ।। (2) कविवर रत्नाकर अनुभवी-योजना के कौशल के लिए विख्यात हैं ।। यहाँ अंग-शैथिल्य, पैरों का डगमगालना, अश्रु, भौंचक्कापन आदि से उद्धव का चित्र सजीव हो उठा है ।। (3) भाषा- ब्रजभाषा ।। (4) छन्द- मनहरण घनाक्षरी ।। (5) रस- शान्त ।। (6) अलंकार- उत्प्रेक्षा, रूपक तथा अनुप्रास ।।

(छ) छावते कुटीर……………………………………………………………………धरते नहीं ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रेमोन्मत्त उद्धव पर गोपियों तथा ब्रजवासियों के प्रभाव एवं उनके प्रति असीम प्रेम का चित्रण किया है ।।

व्याख्या- उद्धव ब्रजभूमि से लौटकर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे नाथ! हम तो यमुना नदी के रमणीक किनारे पर ही कहीं अपनी कुटिया बना लेते और उस अनुपम रेतीले किनारे को छोड़कर कभी भी कहीं किसी और स्थान को न जाते ।। हम उस गम्भीर प्रेम-कथा को छोड़कर न तो अपने कानों से किसी अन्य रसपूर्ण कथा को सुनते और न ही अपनी जिह्वा से किसी अन्य रस-भरी कथा सुनाते ।। गोपियों तथा ग्वाल-बालों के उमड़ते हुए अश्रुओं को देखकर तो हम प्रलय के आगमन से भी भयभीत नहीं होते ।। भाव यह है कि गोपियों का अश्रु-प्रवाह प्रलय से भी अधिक भयावह प्रतीत होता था ।। उद्धव कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण! यदि हमारे मन में आपको सजग करने की अभिलाषा न होती तो हम ब्रजभूमि को छोड़कर इधर पैर नहीं रखते; अर्थात् यहाँ कभी लौटकर न आते ।।

काव्य सौन्दर्य- (1) ब्रजभूमि के प्रति कवि का असीम अनुराग व्यक्त हुआ है ।। (2) उद्धव पर ब्रज का अमिट प्रभाव दर्शाया है ।। (3) उद्धव ने ज्ञान के स्थान पर प्रेम को अधिक प्रभावी तत्त्व के रूप में स्वीकार लिया है ।। (4) भाषा- ब्रजभाषा ।। (5) अलंकारअनुप्रास, प्रतीप एवं लोकोक्ति ।। (6) शैली- चित्रोपम ।। (7) रस- करुण एवं शान्त ।। (8) शब्दशक्ति – अभिधा एवं लक्षणा ।। (9) गुण- प्रसाद ।। (10) छन्द- मनहरण घनाक्षरी ।। (11) भावसाम्य- ब्रज में निवास करने की ऐसी ही कामना कवि रसखान ने भी व्यक्त की है- ‘मनुष्य हौं तो वही रसखान, बसौ ब्रजगोकुल गाँव के ग्वारन ।। ‘

(ज) निकसि कमंडल……………………………सब गरजे ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘जगन्नाथ-दास ‘रत्नाकर’ द्वारा रचित आख्यानक प्रबन्ध काव्य ‘गंगावतरण’ से ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग- इन पंक्तियों में ब्रह्माजी के कमण्डल से पृथ्वी की ओर आती हुई गंगाजी की शोभा का वर्णन हुआ है ।। UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 6 भक्ति और श्रृंगार (कविवर बिहारी)

व्याख्या- ब्रह्मा के कमण्डल से निकलकर गंगा की धारा उमड़कर आकाशमण्डल को भेदती तथा वायु को चीरती हुई प्रचण्ड वेग से नीचे को दौड़ पड़ी ।। उसकी धमक से अर्थात् वेगपूर्वक गिरने के धक्के से अतीव भयंकर शब्द हुआ, जिसने तीनों लोक डर गये ।। ऐसा लगा मानो प्रलयकालीन मेघ एक साथ मिलकर गरज उठे हों ।।
काव्य-सौन्दर्य- (1) कवि ने प्रचण्ड वेग से धरती की ओर आती गंगा का चित्र-सा खड़ा कर दिया है, जिसमें तदनुरूप कठोर ध्वनि वाली शब्दावली (खंडति, बिहंडति, तरजे, गरजे आदि का प्रयोग बड़ा उपयुक्त है ।। (2) भाषा- ब्रज ।। (3) रस- वीर ।। (4)शब्द-शक्ति – लक्षणा ।। (5) गुण-ओज ।। (6) अलंकार- अनुप्रास और उत्प्रेक्षा ।। (7) छन्द-रोला ।।

(झ) स्वाति-घटा …………………………..छबि छाई ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- यहाँ कवि ने ब्रह्माजी के कमण्डल से अपार वेग के साथ निकलती गंगा का ओजपूर्ण वर्णन किया है ।। व्याख्या- आकाश से धरती पर उतरती हुई गंगा की श्वेत धारा को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो मोतियों की आभा से परिपूर्ण स्वाति-नक्षत्र के मेघों का समूह घुमड़ रहा हो अथवा सुन्दर श्वेत ज्योति धरती की ओर झुकती हुई चली आ रही हो ।। गंगा के निर्मल जल में मछलियों, मगरमच्छों और जल-सों की चंचल चमक ऐसे शोभा पा रही थी, मानो चंचलता से परिपूर्ण बिजली चमचमा रही हो ।।

काव्य सौन्दर्य- (1) गंगा की जलधारा का आलंकारिक चित्रण हुआ है ।। (2) कवि ने ‘मुक्ति-पानिप’ कहकर गंगा की मोक्षदायिनी शक्ति का भी संकेत किया है ।। (3) भाषा- ब्रजभाषा ।। (4) अलंकार- उत्प्रेक्षा, श्लेष, सन्देह एवं अनुप्रास ।। (5) रस- शान्त और वीर ।। (6) गुण- ओज ।। (7) छन्द- रोला ।।

(ञ) रुचिर रजतमय…………………………………………………………..आनंद-बधाए ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।। प्रसंग- प्रस्तुत काव्य-पंक्तियों में आकाश से पृथ्वी पर गिरती गंगा की पवित्र धारा की अनुपम शोभा का वर्णन किया गया है ।। व्याख्या- आकाश से पृथ्वी पर अवतरित होती गंगा की पवित्र धारा ऐसी मनोहर लगती है, जैसे किसी ने आकाश में कोई अत्यन्त विशाल तम्बू तान दिया हो ।। उस धारा से झरती जल की बूंदे ऐसी शोभा पा रही हैं, जैसे उस तम्बू में लटकी मोतियों की झालरें (मालाएँ) झिलमिला रही हों ।। लगता है उस तम्बू के नीचे देवताओं की स्त्रियों के समूहों ने आनन्द-मनाने के लिए रागरंग के सभी साजो-सामान जमाए हैं ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) चॅदावे के रूप में गंगा की धारा के वर्णन की कल्पना में कवि की प्रतिभा दर्शनीय है ।। (2) भाषाब्रजभाषा ।। (3) शैली- प्रबन्धात्मक ।। (4) अलंकार- उपमा एवं अनुप्रास ।। (5) रस- शान्त ।। (6) छन्द- रोला ।। (7) गुणप्रसाद ।। (8) शब्दशक्ति- अभिधा ।।

(ट) कुबहूँ सु-धार ……………………………………………………….रासि उसावत् ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- यहाँ कवि ने ब्रह्माजी के कमण्डल से अपार वेग के साथ निकलती गंगा का ओजपूर्ण वर्णन किया है ।। व्याख्या- गंगाजी की सुन्दर धारा बड़ी तेजी के साथ धरती की ओर दौड़ी और हर-हर शब्द की ध्वनि करती हुई हजार योजन तक लहराती चली गई ।। ऐसा प्रतीत हुआ मानो ब्रह्मारूपी चतुर किसान मन के अनुकूल वायु पाकर अपने पुण्य के खेत में उत्पन्न हीरे की फसल को हवा में उड़ाकर उसका कूड़ा-करकट अलग कर रहा हो ।।UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 6 भक्ति और श्रृंगार (कविवर बिहारी)
काव्य-सौन्दर्य-1 — ‘उसावत’ शब्द का प्रयोग बड़ा सार्थक है ।। किसान अपनी फसल की ओसाई करके हवा में भूसे को उड़ाते हैं, जिससे अनाज नीचे गिर जाता है ।। यहाँ हीरारूपी अन्न धरती पर गिर रहा है और भूसेरूपी फुहारें इधर-उधर छितरा रही हैं ।। 2 — ब्रह्मारूपी किसान द्वारा हीरे की फसल उगाने की अपूर्व कल्पना प्रशंसनीय है ।। (3) भाषा- ब्रजभाषा ।। (4) अलंकार- रूपक, उत्प्रेक्षा एवं शब्दमैत्री ।। (5) शब्दशक्ति- लक्षणा ।। (6) गुण- ओज ।। (7) छन्द-रोला ।।

(ठ) कृपानिधान ………………………………………….सिमटि समानी ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- यहाँ शिवजी द्वारा गंगा को पत्नी के रूप में स्वीकार करने तथा गंगा के स्त्री-सुलभ संकोच का सुन्दर वर्णन हुआ है ।।

व्याख्या- गंगा के हृदय की कोमल प्रेम-भावना को कृपालु शंकरजी तुरन्त जान गये ।। उन्होंने गंगा को पत्नी के रूप में स्वीकार कर उसे अपने सिर पर स्थान देकर सम्मानित किया ।। उधर गंगा को नारी-सुलभ संकोच की अनुभूति होती है और वह अपने शरीर को सिकोड़कर, सुख का अनुभव करती हुई लजाती है और शिव के जटा-जूटरूपी हिमालय पर्वत के घने वन में सिमटकर छिप जाती है ।।
काव्य-सौन्दर्य- (1) गंगा के नारी-सुलभ प्रेम, संकोच और लज्जा का सुन्दर निरूपण हुआ है ।। (2) भाषा- ब्रज ।। (3) शैली प्रबन्ध ।। (4) अलंकार- मानवीकरण ।। (5) छन्द- रोला ।।

2 — निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) कान्ह-दूत कैधों ब्रह्म-दूत ह्वै पधारे आप ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ द्वारा रचित ‘उद्धव प्रसंग’ शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग- इस सूक्ति में उद्धव द्वारा गापियों को ब्रह्मवाद का उपदेश दिए जाने पर गोपियों की प्रतिक्रिया का चित्रण किया गया है ।।

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव से कहती है कि आप प्रेम की रीति को जाने बिना हमें ब्रह्म का उपदेश दिए चले जा रहे हैं ।। हम तो एकमात्र श्रीकृष्ण के प्रेम में ही अनुरक्त है, वही हमारे सबकुछ हैं ।। वे उद्धवजी से व्यंग्यपूर्ण भाव में पूछती हैं कि आप ब्रजबालाओं की बुद्धि को बदलने का प्रण लेकर और श्रीकृष्ण के दूत बनकर यहाँ आए हैं अथवा ब्रह्म के दूत के रूप में आए हैं ।। कहने को तो आप श्रीकृष्ण के दूत बनकर आए हैं, फिर भी आप निरन्तर केवल ब्रह्म की ही चर्चा किए जा रहे हैं ।।

(ख) जैहें बनि बिगरिन बारिधिता बारिधि कौं
बूदता बिलैहै बूंद बिबस बिचारी की ।।

सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- इस सूक्ति में गोपियों ने अद्वैतवाद का इसलिए खण्डन किया है कि इसे स्वीकार करने पर उनका अपना ही अस्तित्व, खतरे में पड़ जाएगा ।। UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 6 भक्ति और श्रृंगार (कविवर बिहारी)

व्याख्या- गोपियाँ कहती हैं कि बूंद और समुद्र के आपस में मिलने से समुद्र के अस्तित्व पर कोई आँच नहीं आएगी, वह ज्यों का त्यों बना रहेगा, किन्तु समुद्र में मिल जाने से बेचारी बूंद का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा ।। गोपियों के कथन का आशय यह है कि ब्रह्म तो विशाल समुद्र की भाँति है और हम हैं मात्र बूंद ।। ब्रह्म में हमारे मिल जाने से उसकी महत्ता में तो किसी प्रकार का अंतर नहीं पड़ेगा, किन्तु हमारा तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा, जो हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है ।। हम अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहती हैं, क्योंकि हमें अपना अस्तित्व बनाए रखने में ही लाभ है ।। यदि हमने स्वयं को ब्रह्म में मिला दिया तो हम कृष्ण के प्रेम की अनुभूति कैसे कर सकेंगी ।।

(ग) एवे बड़े बिस्तमाँहि हेरै हूँन पैये जाहि ताहि त्रिकूटि में नैन पूँदिलखिबौ कहौ ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- इस सूक्ति में गोपियों द्वारा ब्रह्म की निस्सारता और उद्धव को अज्ञानी सिद्ध करने के तर्कपूर्ण प्रयास का अनुपम चित्रण किया गया है ।।

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव की ब्रह्मवादिता और ज्ञानमार्ग पर चलने की सलाह पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं कि जो ब्रह्म रूप और रस से रहित है, उसके रूप का उपदेश आप हमें क्यों दे रहे हैं ।। साथ ही जिस ब्रह्म को इतने विशाल विश्व में खोजने पर भी नहीं पाया जा सकता, उसे त्रिकुटी जैसे छोटे-से स्थान में नेत्र मूंदकर प्राप्त करने का उपदेश देते हो ।। तुम्हारी ये सभी बातें तुम्हारे अज्ञानी होने का प्रमाण देती हैं ।।
(घ) भली हैं बुरी हैं औ सलज्ज निरलज्ज हूँ हैं जो कहौ सो हैं पै परिचालिका तिहारी हैं ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- यहाँ ‘रत्नाकर’ जी ने गोपियों की सरलता और प्रेम की अनन्यता का स्वाभाविक चित्रण किया है ।। व्याख्या- प्रेम से वशीभूत गोपियाँ स्वयं को श्रीकृष्ण की दासी बताती हैं और समर्पित भाव से कहती हैं कि हम अच्छी हैं या बुरी, निर्लज्ज है या लज्जाशील; जैसा भी हैं आपकी ही हैं ।। हम आपकी सेविकाएँ हैं ।। सेविकाओं से भूल भी हो सकती है, परन्तु स्वामी उनकी भूलों को क्षमा कर ही देते हैं ।। गोपियाँ कहती हैं कि हमें विश्वास है कि इसी प्रकार आप भी हमारी भूलों को क्षमा कर देंगे ।।

अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न


1 — ‘उद्धव-प्रसंग’ कविता का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।
उत्तर— ‘उद्धव-प्रसंग’ कविता जगन्नाथ ‘रत्नाकर’ जी के काव्य गन्थ ‘उद्धव शतक’ से लिया गया है, जिसमें कवि ने गोपिकाओं की विरह स्थिति तथा व्याकुलता का वर्णन किया है ।। कवि कहते हैं कि जब ब्रज में गोपियों ने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गए उद्धव के आने का समाचार सुना तो वे दौड़कर नंद जी के द्वार पर पहुँच गई वे अपने पंजों पर उचक-उचककर कृष्ण द्वारा भेजे गए पत्र को देखकर व्याकुल हो उठी ।। सभी उत्सुकतावश उद्धव से पूछने लगी कि कृष्ण ने हमारे लिए क्या सन्देश लिखा है ? उद्धव गोपियों से कहते हैं कि यदि तुम श्रीकृष्ण का संयोग (मिलन) चाहती हो तो अपने हृदय में योग की साधना रखो ।। तुम अपनी आत्मा को ब्रह्म में इस प्रकार मग्न करो, जिससे जड़ और चेतन का आनन्द प्रकट होता रहे ।। अज्ञानवश तुम क्षुब्ध होकर जिसके वियोग का अनुभव करती हो वह तो सभी के हृदय में सदैव विद्यमान रहता है ।। उद्धव द्वारा कृष्ण का योग सम्बन्धी कठोर सन्देश अपने कानों से सुनकर कोई गोपी काँपने लगी, कोई अपने स्थान पर ही जड़वत हो गई ।। कोई क्रुद्ध हो गई, कोई बड़बड़ाने लगी और कोई विलाप करने लगी, कोई व्याकुल व शिथिल हो गई, कोई पसीने से भीग गई, किसी की आँखों में पानी भर गया, तो कोई अपना कलेजा थामकर खड़ी रह गई ।।

गोपियाँ उद्धव से पूछती हैं कि आप श्रीकृष्ण के दूत बनकर आए हैं या ब्रह्म के, जो आप ब्रजबालाओं की बुद्धि को बदलने का प्रण लिए हुए हैं, परन्तु हे उद्धव! आप प्रीति की रीति को नहीं जानते, इसलिए आप अनाड़ियों और बुद्धिहीनों जैसा व्यवहार कर रहे हो ।। यदि हम आपके कहे अनुसार मान लें कि कृष्ण और ब्रह्म एक ही हैं तो भी हमें यह अभेदता का विचार अच्छा नहीं लगता क्योंकि बूंद और समुद्र के एकत्व से समुद्र की समुद्रता में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, किन्तु समुद्र में मिलने से बूंद का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा ।। गोपियाँ उद्धव से कहती है कि आप हमें सुन्दर चिन्तामणि (कृष्ण) के प्रेम को फेंककर ब्रह्मज्ञानरूपी काँच को मनरूपी दर्पण में संभालकर रखने को कह रहे हो ।। आप वियोग की अग्नि को बुझाने के लिए हमें वायु-भक्षण (प्राणायाम) करने का कहते हैं, जिस निर्गुण ब्रह्म को आप स्वयं ही रूप और रस विहिन सिद्ध कर चुके हैं, उसी के रूप का ध्यान करने और उसका रस चखने को कहते हैं ।। इतने बड़े विश्व में खोजने पर भी जिसे नहीं पाया जा सकता, उसे आप नेत्र बंद करके त्रिकूट चक्र में देखने के लिए कह रहे हैं ।। गोपियों उद्धव से कहती है कि यदि मथुरा से योग (मिलन) की शिक्षा देने आए हैं तो फिर वियोग की बातें मत कीजिए ।। यदि आपने हम पर दया करके हमारे दुःखों को दूर करने के लिए दर्शन दिए हैं तो वियोग की बातों से हमारे दुःखों को मत बढ़ाइए ।। ऐसी बातों से हमारा मन टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा इसलिए ऐसे कठोर वचनरूपी पत्थर मत चलाइए ।। एक मनमोहन (श्रीकृष्ण) ने तो हमारे मन में बसकर हमें उजाड़ दिया आप अनेक मनमोहनों को हमारे मन में मत बसाओ ।।

गोपियाँ कहती हैं- हे उद्धव! श्रीकृष्ण को हमारा सीधा सा सन्देश दे देना कि ब्रजबालाएँ छल-कपट की बनावटी बातें नहीं जानती हैं ।। उनसे कहना उनके अपराध क्षमा करने की सीमा असीम है और हमारे अपराध करने की सीमा अल्प ।। इसलिए हमें विश्वास है कि वे हमें क्षमा कर ही देंगे ।। जो भी ताडनाएँ (सजा) आपके (श्रीकृष्ण) मन को अच्छे लगे वे हमें दे दीजिए परंतु अपने दर्शनों से हमें वंचित न करे क्योंकि हम अच्छी हैं या बुरी, लज्जाशील है, या लज्जाहीन, परन्तु हम तो बस आपकी ही सेविकाएँ (दासी) हैं ।। उद्धव को विदा देने के लिए सभी गोपियाँ इधर-उधर दौड़ने लगी ।। कोई श्रीकृष्ण के लिए मयूर पंख, प्रेम से रोते हुए कोई गुंजों की माला, कोई भावों से भरकर मलाईदार दही, कोई मट्ठा लाई ।। नंद ने पीताम्बर, यशोदा ने ताजा मक्खन तथा राधा ने बाँसुरी श्रीकृष्ण के लिए लाकर दी ।। जब उद्धव ब्रज से मथुरा के लिए चले तो सभी ब्रजवासियों ने उन्हें भावपूर्ण विदाई दी, उनके प्रेम-रस का आकण्ठ पान किए हुए उद्धव के पैर कहीं-के-कहीं पड़ने लगे ।। उनके सभी अंग शिथिल हो गए ।।

उस समय उद्धव इसी प्रकार चले आ रहे थे कि मानो किसी भूली हुई बात को याद कर रहे हो ।। उनके एक हाथ यशोदा माता का दिया हुआ मक्खन तथा दूसरे हाथ में राधा जी की बाँसुरी सुशोभित थी, जिसके कारण वे अपने नयनों में आने वाले आँसुओं को अपने कुरते की बाँहों से पोछ रहे थे ।। मथुरा पहुँचने पर उद्धव के ब्रज की धूलि से धूसरित पवित्र शरीर को कृष्ण अत्यन्त आतुरता से लिपटाए जा रहे हैं ।। उद्धव को प्रेम-मद में मद देखकर कृष्ण उनकी काँपती हुई भुजा को पकड़ लेते हैं, और उन्हें स्थिर करते हैं ।। श्रीराधा के दर्शनरूपी रस का पान करने के कारण आँसुओं से उमड़ते उद्धव के नेत्रों को देखकर श्रीकृष्ण के नेत्र भी पुलकित हो उठते हैं और उन आँसुओं की एक बूंद पृथ्वी पर न पड़ने देकर वे अपने वस्त्र से पोंछ-पोंछकर अपने नेत्रों से लगाए जा रहे हैं ।। उद्धव श्रीकृष्ण से कहते है कि यदि गोपियों की प्रेममायी दशा से अवगत कराकर आपको उनकी अपेक्षा न करके शीघ्र दर्शन देने की चेतावनी देने का विचार मेरे मन में न होता तो मैं इधर कभी न आता ।। वहीं यमुना किनारे कुटिया बनाकर निवास करने लगता ।।

2 — ‘रत्नाकर’ जी ने ‘उद्धव शतक’ में ज्ञान और योग पर प्रेम और भक्ति की विजय दिखलाई है ।। ” अपने पठित अंश के आधार पर इस कथन की पुष्टि कीजिए ।।
उत्तर— ‘रत्नाकर’ जी ने ‘उद्धव शतक’ काव्य ग्रन्थ में उद्धव के ज्ञान और योग पर गोपियों के प्रेम और भक्ति की विजय दिखलाई है ।। गोपियों की भक्ति से निर्गुण ब्रह्म के उपासक उद्धव भी सगुण ब्रह्म की उपासना करने लगे और उन्हें भी गोपियों के विरह में विरह की पीड़ा का अनुभव हुआ ।। इसलिए ही उद्धव कृष्ण से कहते हैं कि वे गोपियों को अपने दर्शन अवश्य दें वरन् उनके अश्रु प्रवाह से प्रलय आ जाएगी ।।

3 — ‘गंगावतरण’ कविता का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।


उत्तर— ‘गंगावतरण’ कविता कवि जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ जी के काव्य ग्रन्थ ‘गंगावतरण’ से संकलित है ।। इसमें गंगा नदी के पृथ्वी पर पर्दापण का कवि ने सुन्दर चित्रण किया है ।। कवि कहते हैं कि ब्रह्मा जी के कमण्डल से निकलकर गंगा की धारा बड़े उल्लास और वेग के साथ आकाशमण्डल को चीरती हुई, वायु को भेदती हुई तीव्र वेग के साथ दौड़ चली ।। उसके वेग पूर्ण गिरने की धमक से तीनों लोक डर गए ।। जैसे अनेक महामेघ एक साथ मिलकर गरज उठे हो ।। गंगा की धारा अपने वेग से पवनरूपी परदे को फाड़ती हुई तथा स्वर्गलोक के बादलों को घिसती हुई, शोर करती हुई राजा सगर के पुत्रों के दाह को शांत करने के लिए पृथ्वी की ओर वेगपूर्वक चली ।। आकाश से धरती पर उतरती गंगा ऐसी प्रतीत होती है जैसे स्वाति-नक्षत्र के मेघों का समूह घुमड़ रहा हो ।। गंगा के निर्मल जल में मछलियों, मगरमच्छों एवं जलसों की चंचल चमक ऐसी लग रही थी जैसे चंचलता से युक्त बिजली चमक रही हो ।। आकाश से धरती की ओर आती गंगा चाँदी का तना हुआ तम्बू सा प्रतीत होती है ।। उस धारा से झरती पानी की बूंदें उस तम्बू की झालर दिखाई पड़ रही है ।। लगता है उस तम्बू के नीचे देवताओं की स्त्रियों ने आनन्द मनाने के लिए राग-रंग के सभी साजोसामाना एकत्र किए हो ।। गंगा की सुन्दर धारा हर-हर की ध्वनि करती हई हजारों योजन तक लहराती हई तीव्र गति से पृथ्वी की ओर दौड़ी ।। उस समय ऐसा प्रतीत हआ, मानो ब्रह्मारूपी चतुर किसान मन के अनुकूल वायु पाकर अपने पुण्य के खेत में उत्पन्न हीरे की फसल को हवा में उड़ाकर उसका कूड़ा-करकट अलग कर रहा हो ।।


इस प्रकार दौड़ती, धंसती, ढलती, ढुलकती और सुख प्रदान करती गंगा ऐसी प्रतीत हुई मानो वह पृथ्वी से स्वर्ग के लिए सीढ़ी का निर्माण कर रही हो ।। उसमें अत्यधिक वेग, शक्ति, पराक्रम तथा ओज की उमंग भरी है ।। और वह हर-हर करती हुई भगवान् शंकर के सामने पहुंच गई ।। शिव के अनुरूप एवं तेजस्वी रूप का वर्णन पाकर गंगा धन्य हो गई ।। उसके शरीर के प्राण पराए हो गए अब वह शिव की धरोहर ही रह गए ।। गंगा का सारा क्रोध समाप्त हो गया तथा अब गंगा के मन में रुक्षता के स्थान पर प्रेम की स्निग्धता आ गई थी ।। भगवान् शिव ने भी गंगा के हृदय की भावना को पहचान लिया और उसे अपनी प्रियतमा स्वीकार करते हुए उसे अपने सिर पर स्थान दिया ।। ऐसी दशा में गंगा संकोचवश अपने अंगों को सिकोड़ती हुई-सी सुखपूर्वक प्रवाहित होने लगी तथा सिमटकर सघन हिमालय की चोटी के समान शिव की जटाओं में विलीन हो गई ।।

काव्य-सौन्दर्य से संबंधित प्रश्न


1 — “आए हौ सिखावन ……………………….बसावौ ना ।। “पंक्तियों में निहित रस व उसका स्थायी भाव लिखिए ।।
उत्तर— प्रस्तुत पंक्तियों में श्रृंगार रस का प्रयोग हुआ है जिसका स्थायी भाव रति है ।।
2 — ‘कीजैन दरस-रस बंचित बिचारी हैं ।। “पंक्ति में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए ।।
उत्तर— अनुप्रास एवं यमक ।।
3 — “भेजे मनभावन …………………………………………….कहन सबै लगीं ।। ” पंक्तियों में किस छंद का प्रयोग हुआ है ?
उत्तर— प्रस्तुत पद्यांश में मनहरण घनाक्षरी छंद का प्रयोग हुआ है ।।
4 — “निकसि कमंडल…………………………………………….सब गरजै ।। ” पंक्तियों में किस छंद का प्रयोग हुआ है ?
उत्तर— प्रस्तुत पद्यांश में रोला छंद का प्रयोग हुआ है ।।
5 — “कृपानिधान …………………………………….सिमटि समानी ।। ” पद्यांश का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।।
उत्तर— काव्य सौन्दर्य- 1 — गंगा के नारी सुलभ-प्रेम, संकोच और लज्जा का सुंदर निरूपण हुआ है ।।
2 — भाषा- ब्रज, 3 — शैली
प्रबन्ध, 4 — अलंकार- मानवीकरण, 5 — छन्द- रोला ।।

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