UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 3 भरत-महिमा, कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका (गोस्वामी तुलसीदास) free pdf

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भरत-महिमा, कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका (गोस्वामी तुलसीदास)
अभ्यास प्रश्न कवि पर आधारित प्रश्न


1 — तुलसीदास जी का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए ।।


उत्तर — कवि परिचय– रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में सन् 1497 ई० में माना गया है ।। इनके जन्म स्थान एवं जन्म तिथि के विषय में विद्वानों में मतभेद है ।। अन्ततः साक्ष्यों के आधार पर इनका जन्म संवत् 1554 वि० (सन् 1497 ई०) सही प्रतीत होता है ।। इनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद हैं ।। ‘मूल गोसाईंचरित’ एवं ‘तुलसीचरित’ में इनका जन्म-स्थान राजापुर बताया गया है ।। शिवसिंह सेंगर और रामगुलाम द्विवेदी भी गोस्वामी जी का जन्म-स्थान राजापुर ग्राम को मानते हैं ।। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान ‘सोरों’ नामक स्थान को मानते हैं, जबकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है कि ‘सूकरछेत’ को भ्रमवश ‘सोरों’ मान लिया गया है ।। (‘सूकरछेत्र’ गोंडा जिले में सरयू के किनारे एक पवित्र तीर्थ है) ।। इनका जन्म श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था ।। जन्म के समय ही इनके मुख में दाँत थे ।।

जन्म के समय ये रोये नहीं, बल्कि इनके मुख से ‘राम’ शब्द उच्चरित हुआ, जिससे इनका नाम ‘रामबोला’ पड़ गया ।। जन्म के दूसरे ही दिन इनकी माँ ‘हुलसी’ का निधन हो गया ।। अकल्याण का सूचक मानकर इनके पिता (आत्माराम दूबे) ने इन्हें त्याग दिया था ।। इनका पालन-पोषण ‘चुनियाँ नामक दासी ने किया ।। कुछ समय पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई, जिससे बालक तुलसीदास अनाथ हो गए ।। अनाथ तुलसी को स्वामी नरहरिदास जैसे गुरु का वरदहस्त प्राप्त हो गया ।। तुलसीदास गुरु जी से जो भी सुन लेते थे, वह उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था ।।

‘रत्नावली’ नामक रूपवती कन्या से इनका विवाह हुआ ।। एक बार वह मायके गई हुई थी ।। तुलसीदास भी वहीं जा पहुँचे ।। उनकी पत्नी ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा- जितनी आसक्ति तुम्हें मेरे इस शरीर के प्रति है, उससे आधी भी यदि ईश्वर के प्रति होती, तो तुम्हारा बेड़ा पार हो जाता ।। ये शब्द तुलसीदास को लग गए ।। वे तुरन्त वहाँ से चल दिए और प्रयाग जाकर गृहस्थ वेश का परित्याग करके साधु बन गए ।।

काशी में प्रहलाद घाट पर ये एक ब्राह्मण के घर रहने लगे, जहाँ उनमें कवित्व शक्ति उत्पन्न हुई ।। वे संस्कृत में पद्य रचना करने लगे, परन्तु उनके लिखे सभी पद्य रात्रि में लुप्त हो जाते थे ।। एक दिन तुलसीदास को स्वप्न में शिवजी ने कहा- ‘तुम अयोध्या जाकर हिन्दी में काव्य-रचना करो ।। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी ।। ‘ तब ये काशी से अयोध्या आ गए ।। संवत् 1631 ई० में रामनवमी के दिन तुलसीदास जी ने अवधी भाषा में श्रीरामचरितमानस‘ की रचना प्रारम्भ की ।। दो वर्ष, सात माह और छब्बीस दिन में यह महाकाव्य पूर्ण हुआ ।। जनश्रुतियों के आधार पर तुलसीदास जी अब असीघाट पर रहते थे, तब एक दिन ‘कलियुग’ मूर्त रूप धारण करके उनके पास आया व उन्हें डराने लगा ।। तुलसीदास ने हनुमान जी का ध्यान किया तो हनुमान जी ने इन्हें विनय के पद रचने के लिए कहा; तब इन्होंने ‘विनय-पत्रिका’ की रचना की ।। संवत् 1680 वि० (सन् 1623 ई०) में श्रावण मास की कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को असीघाट पर ‘राम’ नाम का जाप करते हुए तुलसीदास जी परम तत्त्व में विलीन हो गए ।। इस विषय में यह दोहा प्रसिद्ध है –


संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर ।।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर ॥

इनके निधन की तिथि अधिकतर विद्वानों द्वारा ‘श्रावण शुक्ला सप्तमी’ के स्थान पर ‘श्रावण कृष्णा तीज शनि’ मानी गई है ।। रचनाएँ- श्रीरामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्णगीतावली, दोहावली, जानकी-मंगल, पार्वती मंगल, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, रामाज्ञा-प्रश्नावली, हनुमानबाहुक तथा रामललानहछू आदि इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं ।।

2 — तुलसीदास जी की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए ।।
उत्तर— – भाषा-शैली- तुलसी ने ब्रज एवं अवधी दोनों ही भाषाओं में रचनाएँ कीं ।। उनका महाकाव्य ‘श्रीरामचरितमानस’ अवधी भाषा में लिखा गया है ।। विनय-पत्रिका, गीतावली और कवितावली में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है ।। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा के प्रभाव में विशेष वृद्धि हुई है ।। तुलसी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों को अपनाया है ।।


श्रीरामचरितमानस‘ में प्रबन्ध शैली, ‘विनय-पत्रिका’ में मुक्तक शैली तथा ‘दोहावली’ में कबीर के समान प्रयुक्त की गई साखी शैली स्पष्ट देखी जा सकती है ।। यत्र-तत्र अन्य शैलियों का प्रयोग भी किया गया है ।। तुलसी ने चौपाई, दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, बरवै, छप्पय आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया है ।। तुलसी के काव्य में अलंकारों का प्रयोग सहज-स्वाभाविक रूप में किया गया है ।। इन्होंने अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिपेक, अनन्वय, श्लेष, सन्देह, असंगति एवं दृष्टान्त अलंकारों के प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में किए हैं ।। तुलसी जी के काव्य में विभिन्न रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है ।। यद्यपि उनके काव्य में शान्त रस प्रमुख है, परन्तु शृंगार रस की अद्भुत छटा भी दर्शनीय है ।। इसके अतिरिक्त करुण, रौद्र, वीभत्स, भयानक, वीर, अद्भुत एवं हास्य रसों का भी प्रयोग किया गया है ।। तुलसी का काव्य गेय है ।। इसमें संगीतात्मकता के गुण सर्वत्र विद्यमान है ।।

व्याख्या संबंधी प्रश्न

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 3 भरत-महिमा

1 — निम्नलिखित पद्यावतरणों की ससन्दर्भ कीजिए


(क) चलत पयादें………………… ……………………….. कलपतरू जामा ।।


सन्दर्भ
– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ महाकाव्य से ‘भरत महिमा’ नामक शीर्षक से लिया गया है है ।।
प्रसंग– भरत जी छोटे भाई शत्रुघ्न और अयोध्यावासियों के साथ रामचंद्र जी को वन से वापस लौटा लाने के लिए पैदल ही चले जा रहे हैं ।। मार्ग की वनवासिनी स्त्रियाँ जब उनको देखती हैं तो वे अपने भाग्य को सराहने लगती है, जो कि उन्हें भरत जैसे पवित्र और पावन भाई के दर्शन हुए ।। इन पद्यों में इसी का मनोहारी वर्णन किया गया है ।।

व्याख्या– वनवासिनी स्त्रियाँ परस्पर चर्चा करती हुई कहती हैं कि भरत जी अपने पिता द्वारा दिए गए राज्य को त्यागकर पैदल ही कन्द-मूल फल खाते हुए श्रीरामचंद्र जी को मनाने के लिए जा रहे हैं ।। उन भरत जी के समान भला आज कौन है? अर्थात् उनके समान त्यागी, अनुरागी, विरागी और भगवान् का भक्त और कौन हो सकता है? स्त्रियाँ कहती हैं कि भरत जी का भ्रातृत्व-भक्ति से परिपूर्ण आचरण बड़ा पावन है, उसको कहने और सुनने से व्यक्ति के समस्त दुःख और दोष दूर हो जाते हैं ।। हे साख! उनके विषय में जो कुछ और जितना भी कहा जाए, वह थोड़ा ही है ।।


श्रीराम के भाई भरत के जैसा भाई भला कोई अन्य कैसे हो सकता है? अर्थात् उनके जैसा इस संसार में कोई नहीं है ।। छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरत जी को देखकर हम सब भी उन सौभाग्यशाली स्त्रियों में सम्मिलित हो गई हैं, जिन्होंने उनके दर्शन करके स्वयं को धन्य कर लिया है ।। इस प्रकार भरत जी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर वे सब स्त्रियाँ अपने मन में पछताती हैं और कहती हैं कि कैकेयी जैसी माता भरत जैसे पुत्र योग्य नहीं है ।। कोई स्त्री कहती है कि इसमें रानी कैकेयी का कोई दोष नहीं है, यह सब तो विधाता का किया हुआ है, जो कि हमारे भी अनुकूल है, तभी तो हमें उनके दर्शन हो पाए हैं ।। अन्यथा कहाँ हम लोक और वेद की मर्यादा से हीन, निम्न-कुल तथा कर्म दोनों से मलिन एवं तुच्छ स्त्रियाँ हैं, जो कि वन्य प्रान्त के बुरे गाँवों में निवास करती हैं और कहाँ यह महान् पुण्यों के परिणामस्वरूप उनके पावन दर्शन ।। ऐसा ही आनन्द और आश्चर्य उस वन्य प्रान्त के प्रत्येक गाँव में हो रहा है, मानो रेगिस्तान में कल्पतरु उग आया है ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) भरत जी की भ्रातृत्व-भक्ति की पावनता को व्यक्त करने में तुलसीदास जी को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है ।। (2) भाषा- अवधी ।। (3) शैली- गेय प्रबंधात्मक ।। (4) अलंकार- अनुप्रास और उत्प्रेक्षा ।। (5) रस- शान्त ।। (6) छन्द- दोहा एवं चौपाई ।।


(ख) सनमानि सुर……………………………………….. स्नेह जला ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में भरत के आगमन से वन्य-जीवन में मची व्याकुलता का सुन्दर वर्णन किया गया है ।।

व्याख्या– श्रीराम प्रात:स्नान के पश्चात् देवताओं और मुनियों की वन्दना करके बैठ गए और उत्तर दिशा की ओर देखने लगे ।। उन्होने देखा कि उत्तर दिशा के आकाश में धूल छाई है तथा उस दिशा से पक्षी और हिरन आदि जीव अत्यधिक व्याकुल होकर प्रभु के आश्रम में भागे चले आ रहे हैं ।। तुलसीदास कहते हैं कि यह सब देखकर प्रभु राम इसका कारण जानने के लिए अपने स्थान से उठ खड़े हुए और उनका मन आश्चर्यचकित हो गया ।। उसी समय कोल-भीलों आदि ने आकर सब समाचार कहे कि भरत जी सेना सहित उनसे मिलने आ रहे हैं ।। कोल-भीलों के ये सुन्दर वचन सुनकर श्रीराम जी का मन आनन्द से भर गया तथा तन पुलकित हो गया ।। साथ ही श्रीराम जी के शरद्- ऋतु के कमल के समान सुन्दर नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए ।।


काव्य-सौन्दर्य- (1) वन्य जीवन की व्याकुलता का स्वाभाविक और चित्ताकर्षक वर्णन किया गया है ।। (2) श्रीराम जी के भ्रातृ-प्रेम को अभिव्यक्ति प्रदान की गई है ।। (3) भाषा- अवधी ।। (4) शैली- गेय प्रबन्धात्मक ।। (5) अलंकार- अनुप्रास ।। (6) रस- शान्त ।। (7) छन्द- हरिगीतिका एवं सोरठा ।।

(ग) भरतहि होइ…………………………………………………………….बिनसाइ ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- यहाँ भरत जी के निर्लिप्त स्वभाव के विषय में श्रीराम जी का दृढ़ विश्वास व्यक्त हुआ है ।।


व्याख्या– अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या, ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने वाला ।। क्या कभी काँजी की बूंदों से क्षीरसागर नष्ट हो सकता (फट सकता) है? अर्थात् अयोध्या का राज्य भरत जी के लिए तुच्छ वस्तु है ।। उसे प्राप्त करके भरत को अहंकार नहीं हो सकता ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत अंश में भरत का महिमामय चरित्र दर्शाया गया है ।। (2) श्रीराम जी का भरत पर अविचल विश्वास व्यक्त हुआ है ।। (3) भाषा- अवधी ।। (4) शैली- प्रबन्ध-काव्य की वर्णनात्मक शैली ।। (5) छन्द- दोहा ।। (6) रस- शान्त ।। (7) गुण- प्रसाद ।। (8) अलंकार- अनुप्रास और दृष्टान्त ।।

(घ) मिलि सपेम…………………… …………………………. प्रनामु करि ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लक्ष्मण एवं सीता से भरत, शत्रुघ्न, केवट और गुरुओं के मिलने का मनोरम चित्रण किया गया है ।।

व्याख्या– श्रीराम अत्यन्त प्रेम के साथ अनुज शत्रुघ्न से मिलकर फिर केवट से प्रेमसहित मिले ।। साथ ही भरत जी प्रणाम करते हुए लक्ष्मण जी से अत्यधिक प्रेम के साथ मिले ।। भरत जी से गले मिलने के उपरान्त लक्ष्मण जी अपने छोटे भाई शत्रुघ्न से अत्यन्त उमंग के साथ मिले और फिर उन्होंने बहुत सम्मान से निषादराज को अपने गले से लगाया ।। तदुपरान्त दोनों भाइयों भरत और शत्रुघ्न ने वहाँ उपस्थित मुनिगणों की वन्दना की और अभीप्सित आशीर्वाद प्राप्त करके अत्यधिक आनन्द प्राप्त किया ।।

फिर भरत जी ने छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ प्रेम में उमगकर अत्यधिक अनुराग और श्रद्धा के साथ सीता जी के चरण-कमलों की धूल को अपने सिर पर धारण करके उन्हें बारबार प्रणाम किया ।। तब सीता जी ने प्रणाम करते दोनों भाइयों को उठाकर अपने कर-कमलों से उनके सिर का स्पर्श करके अपने पास बैठाया और उन दोनों को उनके मन के अनुरूप आशीष प्रदान किया ।। उनके स्नेह में मग्न दोनों भाइयों को अपने शरीर की सुध-बुध ही नहीं रही ।।


सीता जी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर उनके मन की शंकाएँ और भय समाप्त हो गए और वे सब प्रकार से निश्चित हो गए कि राम-सीता तथा लक्ष्मण उनसे क्रुद्ध नहीं है ।। उस समय न तो किसी ने कुछ कहा और न ही किसी ने कुछ पूछा ।। सबके मन केवल प्रेम से परिपूर्ण थे एवं अपनी गति से रहित थे ।। उसी समय केवट ने धीरज धारण करते हुए अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके श्रीराम जी से विनती की ।।

काव्य सौन्दर्य- (1) ‘प्रेम भरा मन निज गति ठूछा’ के द्वारा तुलसीदास जी ने मनों को अपनी गति से रहित दिखाकर चित्रकूट में उपस्थित लोगों को प्रेम-भावना को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया है ।। (2) भाषा- अवधी ।। (3) शैली- गेय प्रबन्धात्मक शैली ।। (4) अलंकार- ‘पद पदुम परागा’, ‘कर कमल परसि’ में रूपक तथा सम्पूर्ण पद्य में अनुप्रास ।। (5) रस- संयोग-शृंगार ।। (6) छन्द- दोहा एवं चौपाई ।।

(ङ) नाथ-नाथ…………………………………………..……….को जग माहीं ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में उस समय का मनोहारी वर्णन हुआ है, जब केवट से श्रीराम ने यह सुना कि उनसे मिलने के लिए माताएँ, गुरुजन और अन्य नगर-निवासी भी आए हैं तो श्रीराम यह सुनकर उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ते हैं ।।

व्याख्या– केवट ने श्रीराम से विनती की कि हे प्रभु! मुनियों के स्वामी मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी के साथ माताएँ, नगर-निवासी, सेवक, सेनापति और सभी मंत्री आपके वियोग से व्याकुल होकर आपसे मिलने आए हैं ।। केवट के मुख से गुरुओं के आगमन की बात सुनकर शील के समुद्र श्रीराम शत्रुघ्न को सीता जी के पास छोड़कर, धीरता और धर्म की धुरी एवं दीनदयालु श्रीराम उसी समय अत्यधिक वेग के साथ उनसे मिलने के लिए चल पड़े ।। गुरु वशिष्ठ जी को देखकर छोटे भाई लक्ष्मण सहित प्रभु श्रीराम प्रेम से भरकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करने लगे ।। तब मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी ने दौड़कर उन्हें गले से लगा लिया ।।

इस प्रकार वे अत्यधिक प्रेम से उमंगकर दोनों भाइयों से मिले ।। उनके प्रेम से पुलकित केवट ने अपना नाम लेकर दूर से ही उन्हें दण्डवत प्रणाम किया ।। केवट को राम का मित्र जानकर महर्षि वशिष्ठ जी उससे बरबस ऐसे मिले, मानो उन्होंने भूमि पर लोटते हुए प्रेम को उठाकर अपनी भुजाओं से समेट लिया हो ।। भगवान राम की भक्ति समस्त मंगलों की मूल (जड़) है, इस प्रकार से सराहना करते हुए देवता लोग आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे और कहने लगे कि इस केवट के समान नीच कोई नहीं है और इन मुनि वशिष्ठजी के समान इस संसार में कोई श्रेष्ठ नहीं है, फिर भी प्रभु की भक्ति के परिणामस्वरूप वह नीच केवट वशिष्ठजी के प्रेम का कृपामात्र बन गया ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) प्रभु राम की भक्ति की महिमा का वर्णन करते हुए यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि उनकी भक्ति के द्वारा कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठता को प्राप्त कर सकता है ।। उनकी भक्ति में ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है ।। (2) भाषा- अवधी ।। (3) शैली- गेय प्रबन्धात्मक शैली ।। (4) अलंकार- रूपक, उत्प्रेक्षा एवं अनुप्रास ।। (5) रस- शान्त एवं भक्ति ।। (6) छन्द- दोहा एवं चौपाई ।। (7) गुण- प्रसाद ।।

(च) बालधी बिसाल…. ………………………………………………………. ……. नगर प्रजारी है ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘कवितावली’ ग्रन्थ से ‘कवितावली’ ‘लंका दहन’ शीर्षक से लिया गया है है ।।
प्रसंग- इस अवतरण में तुलसीदास जी ने हनुमान जी द्वारा किए गए लंका-दहन के भयानक दृश्य का सजीव वर्णन किया है ।।

व्याख्या– हनुमान जी की विशाल पूँछ से निकलती हुई भयंकर अग्नि की लपटों का समूह ऐसा होता था, मानो लंका को निगलने के लिए काल ने अपनी जिह्वा फैला दी हो अथवा आकाश-गंगा में अनेक पुच्छल तारे भरे हुए हों अथवा वीर रस ने स्वयं वीर का रूप धारण करके अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाल ली हो ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि यह इन्द्र का धनुष है या बिजलियों का समूह है या सुमेरु पर्वत से अग्नि की भयंकर नदी प्रवाहित हो चली है ।। हनुमान जी के उस विकराल रूप को देखकर निशाचर और निशाचरियाँ व्याकुल होकर कहने लगी कि पहले तो इस वानर ने अशोक-वाटिका को उजाड़ा था और अब नगर को जला रहा है ।। अब भगवान् ही हमारा रक्षक है ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) हनुमान जी पूँछ से निकलती हुई आग की लपटों का सुन्दर चित्रण किया गया है ।। (2) भाषा- ब्रज ।। (3) शैली- मुक्तक ।। (4) रस- भयानक ।। इस पद में जितने अप्रस्तुत लाए गए हैं, उन सबमें सुरेस चाप को छोड़कर रूप-सादृश्य के साथ-साथ संहारक-धर्म भी विद्यमान है, जिससे भयानक रस और भी पुष्ट हो जाता है ।। (5) छन्द- घनाक्षरी ।। (6) गुण- ओज ।। (7) अलंकार- उत्प्रेक्षा से पुष्ट सन्देह अलंकार, मानवीकरण (बीररस बीर तरवारि-सी उधारी है) तथा अनुप्रास ।।

(छ) हाट, बाट,कोट ………………………………… न लागिहैं ॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘कवितावली’ ग्रन्थ से ‘कवितावली’ ‘लंका दहन’ शीर्षक से लिया गया है है ।।
प्रसंग — इन पंक्तियों में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने लंका-दहन के समय लंका में मचे हा-हाकार का मनोरम वर्णन किया है ।।

व्याख्या– हनुमान जी ने बाजार, मार्ग, किले, अटारी, घर, दरवाजे एवं गली-गली में दौड़-दौड़कर भयंकर आग प्रज्जवलित कर दी ।। उस आग से पीड़ित होकर सब दुःखभरी आवाज से एक-दूसरे को सहायता के लिए पुकारते हैं, किन्तु वहाँ कोई किसी को नहीं सँभाल रहा, सब अपनी-अपनी रक्षा करने में लगे हैं ।। जो जहाँ है वह वहीं व्याकुल होकर अपनी जान बचाने के लिए भाग चला है ।। हनुमान जी बार-बार अपनी पूँछ को घुमाकर झाड़ते हैं, जिससे चिंगारियाँ बूंदों के समान झड़ रही हैं, मानो वे लंका को पिघलाकर उसकी चाशनी बनाकर उन बूंदियों को उसमें पागेंगे ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि लंका की ऐसी दशा को देखकर राक्षसियाँ व्याकुल होकर कहने लगी कि अब लंका में कोई भी राक्षस चित्र के भी वानर से छेड़छाड़ नहीं करेगा ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) लंका-दहन के समय की व्याकुलता का स्वाभाविक वर्णन किया गया है ।। (2) भाषा- ब्रजभाषाा ।। (3) शैली- मुक्तक ।। (4) अलंकार- पद और स्वर मैत्री के साथ-साथ अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, उत्प्रेक्षा एवं अतिशयोक्ति ।। (5) रस- भयानक ।। (6) छन्द- घनाक्षरी ।। (7) गुण- ओज ।।

(ज) बीथिका बाजार प्रति . ………………………… जाहि रोकिए” ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- इस पद में लंकावासियों के मन में व्याप्त भय का मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है ।।


व्याख्या– गलियों, बाजारों, अटारियों, घरों, दरवाजों तथा दीवारों पर सर्वत्र वानर-ही-वानर दृष्टिगोचर हो रहे है ।। नीचे-ऊपर और दिशा-विदिशा में सर्वत्र वानर-ही-वानर दिखाई पड़ते हैं, मानो तीनों लोक वानरों से भर गए हों ।। भयवश जब आँखें बन्द करते हैं तब हृदय में वानर दिखाई देते हैं और जब हृदय में वानर को देखकर आँखें खोलते हैं तो सामने भी वानर ही खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं ।। भयभीत होकर जहाँ कहीं दौड़ जाते हैं, वहाँ वानर के अतिरिक्त और कुछ भी होगा, यह कौन कह सकता है? कुछ लोग कहते हैं कि तब तो हमारा कहना किसी ने नहीं माना; जिस-जिसको रोकते थे, वही चिढ़ जाता था; अर्थात् जब हम यह कहते थे कि यह कोई साधारण वानर नहीं, अपितु रामदूत है, तो कोई सुनता ही नहीं था ।। अब यह विपत्ति उसी मूर्खता का दुष्परिणाम है ।।

काव्य सौन्दर्य- (1) लंका में हनुमान जी का आतंक इतने भयंकर रूप में फैला हुआ था कि निशाचरों को सर्वत्र वानर-हीवानर दृष्टिगत होते थे ।। कवि को हनुमान जी द्वारा फैलाए गए आतंक के चित्रण में पूर्ण सफलता मिली है ।। (2) भाषा- ब्रज ।। (3) शैली- मुक्तक ।। (4) रस- भयानक ।। (5) गुण- ओज ।। (6) छन्द- घनाक्षरी ।। (7) अलंकार- अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा, वीप्सा और अतिशयोक्ति ।।

(झ) मेरो सब पुरुषारथ…………जानि प्रचारे ॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘गीतावली’ ग्रन्थ से ‘गीतावली’ शीर्षक से लिया गया है है ।।


प्रसंग- इन पंक्तियों में लंका-युद्ध के समय लक्ष्मण के मेघनाद-शक्ति लग जाने पर श्रीराम के विलाप और उनकी मार्मिक दशा का चित्रण हुआ है ।।


व्याख्या– श्रीराम एक सामान्य व्यक्ति के समान विलाप करते हुए उपस्थित जनों के समक्ष कहते हैं कि मेरा संपूर्ण पुरुषार्थ ..थक चुका है ।। विपत्ति को बाँटनेवाली भाईरूपी भुजा (लक्ष्मण) के बिना अब मैं किसका विश्वास करूँ? वे सुग्रीव को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे सुग्रीव! सुनो ।। मैं सच कहता हूँ कि मुझसे विधाता ने मुँह फेर लिया है ।। इसीलिए इस विपरीत समय में, जबकि युद्ध का संकट उपस्थित है, मैंने लक्ष्मण जैसे भाई को खो दिया है ।। अब क्या होगा? सब वानर तो वनों और पर्वतों पर चले जाएंगे और मैं अपने भाई का साथी बन जाऊँगा; अर्थात् मेरी भी मृत्यु हो जाएगी ।। यह सोचकर मेरी छाती भर आती है कि अब उस विभीषण का क्या होगा, जिसे मैंने राजा बनाने का वचन दिया है ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु श्रीराम के करुण वचनों को सुनकर सारे भालू और वानर हृदय से दुःखी हो गए ।। तब जाम्बवान् ने अवसर को पहचानकर हनुमान जी को बुलाया और उनसे विचार-विमर्श किया ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) श्रीराम के भ्रातृ-प्रेम और उनकी विरहजनित दशा का मार्मिक चित्रण हुआ है ।। (2) श्रीराम के मर्यादा पुरुषोत्तम रूप और उनकी वचनबद्धता की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई हैं ।। (3) भाषा- शुद्ध, साहित्यिक, मधुर व प्रसादयुक्त ब्रजभाषा ।। (4) रस-करुणा ।। (5)अलंकार- अनुप्रास व रूपक ।। (6) गुण- माधुर्य ।। (7)शब्द-शक्ति – लक्षणा ।। (8) छन्द- गेयपद ।।

(ञ) हृदय-घाउ……………………. ………….खीरै-नीरै ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– संजीवनी बूटी के प्रभाव से चेतना प्राप्त करके उठे लक्ष्मण जी अपने स्वास्थ्य के प्रति चिन्ता प्रकट करने वालों से कहते हैं कि मुझे अपने तन के अस्तित्व का कोई ज्ञान नहीं है और न ही किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव हो रहा है ।। यह सभी प्रकार का अनुभव श्रीराम को हो रहा होगा ।। आप लोग उन्हें से पूछे ।।

व्याख्या– संजीवनी बूटी के प्रयोग से सचेत होने पर जब लक्ष्मण जी से उनकी पीड़ा आदि के विषय में पूछा गया तो उन्होंने प्रेम से पुलकित हो शरीर के कष्ट को भूलकर कहा कि मेरे हृदय में तो केवल घाव ही हैं, उनकी पीड़ा तो रघुनाथ जी को है ।। जैसे तोते से कोई पाठ के अर्थ की चर्चा करे, वैसे ही आप लोग बार-बार मुझसे क्या पूछते हैं? हीरे के द्वारा शोभा, सुख, हानि और लाभ- ये सब तो राजा को ही होते हैं, हीरे की तो केवल कान्ति और कीमत ही होती है ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि लक्ष्मण जी के ये वचन सुनकर बड़े-बड़े धैर्यवान भी धैर्य धारण नहीं कर सकते ।। श्रीराम और लक्ष्मण के प्रेम की उपमा दूध और पानी से भी कैसे दी जाए जो मिलकर एकमेक हो जाते है; अर्थात यह उपमान भी हलका ही बैठता है ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) लक्ष्मण जी की आदर्श भ्रातृ-भक्ति एवं श्रीराम के प्रति सच्चा सेवाभाव ध्वनित होता है ।। (2) भाषाब्रज ।। (3) शैली- मुक्तक-गीति ।। (4) छन्द- गेयपद ।। (5) रस-संयोग शृंगार ।। (6) शब्द-शक्ति – अभिधा और लक्ष्मणा ।। (7) गुण- प्रसाद ।। (8) अलंकार- रूपक, उपमा, अनुप्रास और व्यतिरेक (अन्तिम पंक्ति में) ।। (9) भावसाम्य- जिस प्रकार भक्त में भगवान झलकते हैं, उसी प्रकार श्रीराम में लक्ष्मण के ही प्राण है; यथा


निराकार की आरसी, साधो ही की देहि ।।
लखा जो चाहै अलख को, इनही में लखि लेहि ॥

(ट) हरो चरहिं…………………………………….. रघुनाथ ॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित काव्य ग्रन्थ ‘दोहावली’ से ‘दोहावली’ नामक शीर्षक से लिया गया है है ।।
प्रसंग- इस नीति-विषयक दोहे में कवि ने संसार के प्राणियों की स्वार्थपरता का वर्णन किया है ।।

व्याख्या– गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में जब वृक्ष हरे-भरे होते हैं, तब पशु-पक्षी इन्हें चर लेते हैं ।। वे ही वृक्ष जब सूख जाते हैं तो लोग उन्हें जलाकर तापने लगते हैं और उन वृक्षों पर जब फल लगते है तो लोग हाथ फैलाकर उनसे फल ले लेते हैं ।। इस प्रकार प्राणी सब प्रकार से अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं ।। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि परमार्थ के मित्र तो केवल श्रीरघुनाथ जी ही हैं, जो हर समय प्रेम करते है और दीन-स्थिति में तो विशेष रूप से प्रेम करते हैं ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) गोस्वामी जी ने वृक्षों के माध्यम से संसार के प्राणियों की स्वार्थी प्रवृत्ति का चित्र अंकित किया है ।। (2) यहाँ जगत् के प्रति वैराग्य तथा भगवान राम के प्रति अनुराग की प्रेरणा दी गई है ।। (3) राम की अहेतुकी कृपा की ओर संकेत है ।। (4) भाषा- ब्रजभाषा ।। (5) शैली- मुक्तक ।। (6) अलंकार- अन्योक्ति ।। (7) रस- शान्त ।। (8) शब्द-शक्ति- लक्षणा तथा व्यंजना ।। (9) गुण- प्रसाद ।। (10) छन्द- दोहा ।। (11) भावसाम्यं- स्वार्थपरता के सम्बंध में तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस’ में भी कहा है-


सुर-नर मुनि सबकी यहु रीति ।।
स्वारथ लाभ करहिं सब प्रीति ॥

(ठ) चरन चोंच ………………………………… तेहि काल ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- इस दोहे में कवि ने बगुले और हंस के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि बनावट न तो कभी छिप सकती है और न ही वह वास्तविकता का स्थान ले सकती है ।।

व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि बगुला हंस बनने के लिए अपनी चोंच, अपने पैरों और अपनी आँखों को रँगकर लाल कर ले तथा हंस जैसी चाल चलने लगे तो भी वह हंस नहीं हो सकता ।। दूध और पानी को अलग-अलग करते समय उसका बगुला होना प्रकट हो जाएगा; क्योंकि वह हंस का ‘नीर-क्षीर-विवेकी’ गुण धारण नहीं कर सकता ।। अन्योक्ति से इसका अर्थ यह होगा कि दृष्ट व्यक्ति यदि सज्जन व्यक्ति के रूप, रंग, वेषभूषा आदि को धारण कर भी ले तो वह सज्जन नहीं हो सकता; क्योंकि एक ओर तो दुष्ट अपनी दुष्टता से बाज नहीं आता और दूसरी ओर वह सज्जनों के गुणों को भी ग्रहण नहीं कर सकता ।।


काव्य-सौन्दर्य- (1) गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्पष्ट किया है कि दुष्ट व्यक्ति ऊपर से चाहे कितना भी प्रयास करे कि वह सज्जन दिखाई दे, किन्तु दुष्टता प्रकट हो ही जाती है ।। (2) तुलसीदास जी ने ढोंगी और पाखंडी व्यक्तियों पर गहरा व्यंग्य किया है ।। (3) भाषा- ब्रज ।। (4) शैली- मुक्तक ।। (5) अलंकार- अन्योक्ति एवं अनुप्रास ।। (6) रस- शान्त ।। (7) शब्दशक्ति- लक्षणा ।। (8) छन्द- दोहा ।। (9) भावसाम्य- कबीर ने भी कपट वेशधारी और स्वयं को सज्जन सिद्ध करने वाले व्यक्तियों का उपहास करते हुए लिखा है
साधु भया तो क्या भया, माला महिरी चार ।।
बाहर भेस बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥

(ड) जो सुनि समुझि ……………………….. उचित नहोइ ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में यह स्पष्ट किया गया है कि जान-बूझकर कुमार्ग पर लगे हुए व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने की चेष्टा करना निरर्थक है ।।

व्याख्या– जो सही मार्ग के बारे में सुनकर और समझकर भी अनीतिपूर्ण कार्यों में लगा रहता है, जो जान बूझकर भी अनुचित कार्य करता रहता है और जो जागते हुए भी सोता रहता है; अर्थात् जो अपने ज्ञान चक्षुओं को खोलने का प्रयास ही नहीं करता; तुलसीदास जी के मतानुसार ऐसे व्यक्ति को उपदेश देकर जगाने का प्रयास करना व्यर्थ ही सिद्ध होता है ।। ऐसे व्यक्तियों को कितना ही उपदेश दे दीजिए, वे सन्मार्ग पर नहीं आते ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) सबकुछ जानकर भी जो अनुचित मार्ग पर लगा हुआ है, ऐसा व्यक्ति किसी गंभीर हानि के पश्चात् ही सही मार्ग पर आ पाता है ।। इसलिए ऐसे व्यक्तियों के समक्ष सदाचारपूर्ण उपदेशों का कोई महत्व नहीं होता है ।। (2) भाषाब्रजभाषा ।। (3) अलंकार- अनुप्रास ।। (4) रस- शान्त ।। (5) शब्द-शक्ति- लक्षणा ।। (6) गुण- प्रसाद ।। (7) छन्द- दोहा ।।

(ढ) मंत्री,गुरु अरु………………………………….. बेगिही नास ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- कवि कहता है कि मंत्री, वैद्य और गुरु कटु होने पर भी हित की बात कहें, तभी मनुष्य का भला होता है ।।

व्याख्या– यदि मंत्री, वैद्य और गुरु अप्रसन्नता के भय से या स्वार्थ- साधन की आशा से हित की बात न कहकर हाँ में हाँ ।। मिलाने लगते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है ।।


काव्य-सौन्दर्य- (1) यह एक सामाजिक सत्य है कि मंत्री, गुरु और वैद्य को किसी भी दबाव में न आकर सही परामर्श देना चाहिए ।। यदि मंत्री चापलूसी करेगा तो राज्य का, गुरु करेगा तो धर्म का और वैद्य करेगा तो शरीर का नाश हो जाएगा ।। (2) भाषा- ब्रज ।। (3) छन्द- दोहा ।। (4) रस-शान्त ।। (5) शब्द-शक्ति- लक्षणा और व्यंजना ।। (6) गुण- प्रसाद ।। (7) अलंकारयथाक्रम ।। (8) शैली- मुक्तक ।।

(ण) तुलसी पावस……………………………………….. पूछिहैं कौन ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- इस दोहे में अन्योक्ति के माध्यम से तुलसीदास जी ने यह व्यक्त किया है कि जब समाज में ढोगियों का सम्मान तथा गुणवानों की अवमानना होती हैं तो गुणवान् मौन धारण कर लेते हैं अथवा तटस्थ हो जाते हैं ।।

व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि वर्षा-ऋतु में कोयल यह समझकर चुप हो जाती है कि अब तो मेंढक टर्राएँगे और उनकी टर्र-टर्र के आगे हमारी मधुर वाणी कौन सुनेगा; अर्थात् बुरा समय आने पर ढोंगियों और गुणहीनों की ही चलेगी, गुणवानों का सम्मान नहीं होगा ।। इसीलिए वे तटस्थ भाव से चुप ही हो जाते हैं ।।


काव्य-सौन्दर्य- (1) दुष्टों की शक्ति बढ़ जाने पर सज्जनों की बात कोई नहीं सुनता, यह बात सर्वसत्य है ।। (2) भाषाब्रजभाषा ।। (3) शैली- मुक्तक ।। (4) अलंकार- अन्योक्ति ।। (5) रस- शान्त ।। (6) शब्द-शक्ति- अभिधा एवं लक्षणा ।। (7) गुण- प्रसाद ।। (8) छन्द- दोहा ।।

(त) ऐसी मूढ़ताया ………………….निज पन की ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित काव्य-ग्रन्थ ‘विनय-पत्रिका’ से ‘विनय-पत्रिका’ नामक शीर्षक से लिया गया है है ।।
प्रसंग- तुलसी यहाँ अपनी दीनता प्रदर्शित करते हुए श्रीराम से अपने उद्धार की प्रार्थना करते हैं ।।


व्याख्या– तलसीदास जी कहते हैं कि यह मन कछ ऐसी मर्खता कर रहा है कि यह श्रीराम की भक्तिरूपी गंगा को त्यागकर विषयरूपी ओस की बूंदों के द्वारा अपनी प्यास बुझाना चाहता है ।। इसका यह व्यवहार ऐसा ही है जैसे प्यासा पपीहा धुंएं के गुब्बार को देखकर उसे मेघ समझ लेता है और पानी के लिए उसी की ओर टकटकी लगाकर देखने लगता है, परन्तु उसको निराश ही होना पड़ता है; क्योंकि वहाँ से उसे न पानी मिलता है और न उसकी प्यास ही तृप्त हो पाती है ।। इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण व्यवहार से आँखों को भी उसी प्रकार व्यर्थ ही अपार कष्ट होता है, जिस प्रकार मूर्ख बाज भूमि पर पड़े काँच अथवा दीवार में अपनी परछाई देखकर उस प्रतिबिम्ब को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझता है और भूख से व्याकुल होने के कारण उस पर टूट पड़ता है ।। ऐसा करते हुए उसको ध्यान ही नहीं रहता है कि वहाँ टक्कर मारने पर उसके मुख (चोंच) की ही हानि हो जाएगी ।। हे कृपा के सागर प्रभु! मैं अपने इस मन के दोषपूर्ण एवं तुच्छ कर्मों का वर्णन कहाँ तक करूँ? आप अन्तर्यामी हैं, इसलिए आप मुझ सेवक के मन की बात को भली प्रकार जानते हैं ।। अन्त में तुलसीदास जी श्रीराम से अपने उद्धार की प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! शरणागत का उद्धार करने की अपनी प्रतिज्ञा पर विचार करते हुए आप इस भयंकर दुःख से मेरा उद्धार कीजिए ।।

काव्य-सौन्दर्य- (1) इस पद में गोस्वामी जी ने जीव के अज्ञानपूर्ण व्यवहार का वर्णन करके यह बताने का प्रयत्न किया है कि हम लोग स्वार्थ-सिद्धि के लिए जो भी कार्य करते हैं, उसमें प्रायः हानि ही उठानी पड़ती है ।। (2) भाषा- ब्रजभाषा ।। (3) शैलीमुक्तक ।। (4) अलंकार- रूपक, उदाहरण, भ्रान्तिमान, अनुप्रास और रूपकातिशयोक्ति ।। (5) रस- शान्त ।। (6) शब्दशक्तिलक्षणा ।।

(7) गुण- प्रसाद ।।

(8) छन्द- गेयपद ।।

(9) भावसाम्य- यह बहुत ही प्रसिद्ध पद है ।।
इस प्रकार के व्यवहारों का वर्णन सूरदास जी ने भी किया है; यथा

(i) परम गंग को छाँड़ि पियासौ दुरमति कूप खनावै ।।
(ii) अपुनपौ आपुन ही बिसर्यो ।।
जैसे स्वान काँच मंदिर में भ्रमि-भ्रमि पूँकि मर्यो ॥

(थ) अब लौं नसानी ………………………………. पद-कमल बसैहों ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- तुलसीदास जी ‘विनय-पत्रिका’ के इस पद में प्रतिज्ञा करते हैं कि अब तक तो मैंने अपना जीवन सांसारिक विषय-भोगों में नष्ट किया है, किन्तु अब आगे से भगवद्भक्ति को छोड़ अन्य कोई कार्य नहीं करूंगा ।।

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व्याख्या- अब तक तो मेरी करनी बिगड़ चुकी, पर अब आगे से सँभल जाऊँगा ।। अब तक तो मैंने अपने जीवन को नष्ट कर लिया, परन्तु अब नष्ट नहीं करूँगा, मैं संभल गया हूँ ।। रघुनाथ जी की कृपा से संसाररूपी रात्रि बीत चुकी है; अर्थात् सांसारिक प्रवृत्तियाँ दूर हो रही हैं ।। अब जागने पर (विरक्ति उत्पन्न होने पर) फिर कभी बिछौना न बिछाऊँगा; अर्थात् सोने की तैयारी न करूंगा, सांसारिक मोह-माया में न फंसूंगा मुझे राम-नामरूपी सुन्दर चिन्तामणि प्राप्त हो गई है, उसे सदा हृदय में रखूगा, रघुनाथ जी का जो श्याम-सुन्दर पवित्र रूप है, उसकी कसौटी बनाकर उस पर अपने चित्तरूपी सोने को करूंगा; अर्थात् यह देखेंगा कि भगवत्स्वरूप के ध्यान पर मेरा मन कहाँ तक ठीक-ठीक जमता है ।। जब तक मैं मन का गुलाम रहा, तब तक इन्द्रियों ने मेरा खूब उपहास किया, पर अब मन तथा इन्द्रियों को अपने वश में कर लूँगा, जिससे आगे मेरी हँसी न हो ।। मैं अपने मन को रघुनाथ जी के चरणों में इस प्रकार लगा दूँगा जैसे भौंरा इधर-उधर फूलों पर न जाकर प्रणपूर्वक अपने को कमल-कोश में बसा लेता है ।। भाव यह है कि इस मन को सब ओर से मोड़कर केवल श्रीरघुनाथ जी के ही चरणों का सेवक बनाऊँगा ।।

काव्य-सौन्दर्य– (1) गोस्वामी तुलसीदास जी की जगत् के प्रति विरक्ति और श्रीराम जी के प्रति अनुराग मुखर हुआ है ।। (2) रामनामरूपी ‘चिन्तामणि’ वह दिव्य मणि है, जो समस्त कामनाओं को पूरा करने वाली है ।। (3) भाषा- ब्रज ।। (4) छन्द- गेय-पद ।। (5) रस शान्त ।। (6) शब्द-शक्ति – लक्षणा ।। (7) गुण- प्रसाद ।। (8) अलंकार- रूपक और अनुप्रास ।। (9) शैली- मुक्तक ।।

2 — निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए


(क) भायप भगति भरत आचरनू ।। कहत सुनत दुख दूषण हरनू ॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘भरत महिमा’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग– प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में भरत के आचरण का वर्णन हुआ है ।।


व्याख्या– गोस्वामी तुलसीदास जी का कहना है कि भरत का आचरण प्रेम, भक्ति और भ्रातृत्व (भाईचारे) का आचरण है ।। इसका वर्णन करने और सुनने से सभी दुःख दूर हो जाते हैं ।। आशय यह है कि भरत का राम के प्रति भ्रातृ प्रेम तो है ही साथ ही, उनकी राम के प्रति भक्ति भी है ।। भरत और राम का संबंध ऐसा है जैसा भक्त और भगवान का होता है ।। साथ ही उनमें भाईचारा भी हैं ये तीनों ही मिल-जुलकर कुछ ऐसे हो जाते हैं, जिसका यदि व्यक्ति एक-दूसरे से वर्णन करते हैं या हो रहा वर्णन सुनते हैं, तो वर्णन करने और सुनने वाले दोनों के ही समस्त दुःख दूर हो जाते हैं ।।

(ख) भरतहि होइन राजमदु, बिधि हर-हर पद पाइ ॥
सन्दर्भ
– पहले की तरह ।।
प्रसंग– इस सूक्ति में श्रीराम द्वारा भरत की महानता का उल्लेख किया गया है ।।
व्याख्या– श्रीराम लक्ष्मण को समझाते हुए कहते हैं कि भरत इतने महान् हैं कि उन्हें यदि ब्रह्मा, हरि और शिव का पद भी प्राप्त हो जाए तो भी उन्हें राज-मद नहीं हो सकता है ।। श्रीराम भरत जी की महिमा को उजागर करते हुए कहते हैं कि जब इतने उच्चपद को प्राप्त करके भी भरत में अभिमान नहीं आ सकता तो अयोध्या का राज्य प्राप्त कर उनके अभिमान से ग्रस्त हो जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है ।।

(ग) कबहुँ कि काँजी सीकरनि, छीरक्षिंधु बिनसाइ ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में क्षीरसागर और काँजी के उद्धरण द्वारा श्रीराम ने भरत की महिमा वर्णित की है ।।


व्याख्या– तुलसीदास जी ने भरत के चरित्र का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार काँजी के छींटे मारने से क्षीरसागर अर्थात् दूध का समुद्र नहीं फट सकता, उसी प्रकार भरत को राजमद प्रभावित नहीं कर सकता ।। इस उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि कुछ लोग अपनी तुच्छ प्रकृति के कारण, दोषारोपण द्वारा किसी महान् और शीलवान् व्यक्ति के चरित्र का हनन नहीं कर सकते ।।

(घ) मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई ।। होइ न नृपमदु भरतहिं भाई ॥
सन्दर्भ
– पहले की तरह ।।

प्रसंग– प्रस्तुत पंक्ति में तुलसीदास जी ने भरत के चरित्र की सुदृढ़ता को स्पष्ट किया है ।।

व्याख्या– श्रीराम लक्ष्मण को भरत के सच्चात्र्यि से परिचित कराते हुए कहते हैं कि हे लक्ष्मण! भले ही मच्छर फूंक मारकर सुमेरु पर्वत को उड़ा दे, किन्तु यह किसी भी स्थिति में संभव नहीं कि भाई भरत को राजसत्ता का अहंकार हो जाए और जिसमें चूर होकर वह हम पर ससैन्य आक्रमण कर दे ।।


(ङ) जौंन होत जग जनम भरत को ।। सकल धरमधुर धरनिधरत को ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।

प्रसंग– प्रस्तुत सूक्ति में तुलसीदास जी भरत की महिमा का गान कर रहे हैं ।।


व्याख्या– श्रीराम के वनवास के समय उनसे मिलने के लिए जाते समय भरत जी के मन में अनेकानेक शंकाएँ उत्पन्न होती हैं कि कहीं प्रभु श्रीराम मुझसे नाराज होकर चले न जाएँ ।। इसीलिए कवि शिरोमणि तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में यदि भरत का जन्म न होता तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता; अर्थात् जितनी सूक्ष्म दृष्टि से भरत अपने धर्म का पालन करते हैं, उतनी सूक्ष्म दृष्टि से धर्म का पालन कौन कर सकता है? तात्पर्य यह है कि कोई नहीं ।।

(च) जगजस भाजन चातकमीना ।। नेम पेम निज निपुन नबीना ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– चित्रकूट जाते भरत जी रामप्रेम को चातक और मछली के प्रेम की अपेक्षा हलका बताते हैं ।।
व्याख्या– संसार में चातक और मछली ही यश के पात्र हैं; क्योंकि वे अपने प्रेम के नियम को नित्य नया बनाए रखने में निपुण हैं ।। चातक स्वाति की बूंद को छोड़कर दूसरा जल नहीं पीता, चाहे प्यास से उसके प्राण ही क्यों न निकल जाएं और मछली जल से बिछुड़ते ही प्राण त्याग देती है ।। ऐसा ही एकनिष्ठ और सतत रहने वाला प्रेम आदर्श प्रेम है ।।

(छ) “चित्रहूँ के कपिसौं निसाचरन लागिहैं ।।
सन्दर्भ
– प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘कवितावली’ शीर्षक के लंका दहन से अवतरित है ।।

प्रसंग- हनुमान जी ने अपनी पूँछ में लगी आग से संपूर्ण लंका में आग लगा दी है ।। सभी राक्षस-राक्षसी अत्यन्त घबराए हुए और परेशान हैं ।। उनकी इसी घबराहट और व्याकुलता का वर्णन इस पंक्ति में हुआ है ।।

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व्याख्या- हनुमान जी ने अपनी पूँछ में लगी आग से लंका के प्रत्येक बाजार, घर, मार्ग, अटारी, किला, दरवाजे आदि में भयंकर आग लगा दी ।। राक्षस-राक्षसियों को अपनी जान बचाने के लिए न कोई मार्ग दिख रहा है और न उपाय सूझ रहा है ।। अब उन्हें अपनी गलती का अहसास हो रहा है कि उन्होंने हनुमान की पूँछ में आग लगाकर कितना बड़ा अनर्थ किया है ।। वे पछताते हुए कहते हैं कि आगे फिर कभी कोई लंका में ऐसी गलती नहीं करेगा ।। आगे से कोई सचमुच के वानर से तो क्या चित्र में बने वानर से भी किसी प्रकार की कोई छेड़छाड़ नहीं करेगा ।।


(ज) “लेहि दससीस अब बीख चख चाहिरे” ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में हनुमान जी के द्वारा संपूर्ण लंका में आग लगा देने के बाद लंकानिवासी राक्षसगणों के व्याकुल हो उठने और अपने राजा रावण को कोसने का वर्णन किया गया है ।।

व्याख्या– लंकानिवासी राजा रावण को कोसते हुए कह रहे हैं कि हे दस मुखों वाले रावण! अब तुम अपने सभी मुखों से लंकानगरी के विनाश का यह स्वाद स्वयं चखकर देखो ।। इस विनाश को को अपनी बीस आँखों से भलीभाँति देखो और अपने मस्तिष्क से विचार करो कि तुम्हारे द्वारा बलपूर्वक किसी दूसरे की स्त्री का हरण करके कितना अनुचित कार्य किया गया है ।। अब तो तुम्हारी आँखें अवश्य ही खुल जानी चाहिए; क्योंकि तुमने उसके पक्ष के एक सामान्य से वानर के द्वारा की गई विनाशलीला का दृश्य अपनी बीस आँखों से स्वयं देख लिया है ।।

(झ) हृदय-घाउ मेरे, पीर रघुबीरै ॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘गीतावली’ शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग- इस सूक्ति में लक्ष्मण अपने तथा राम के अटूट प्रेम सम्बन्ध पर प्रकाश डालते हैं ।।


व्याख्या- लक्ष्मण जी शक्ति लगने के बाद मूर्च्छित हो जाते हैं, तब उनका संजीवनी द्वारा उपचार किया जाता है और उनकी चेतना लौट आती है ।। जब वहाँ उपस्थित लोग उनसे उनके स्वास्थ्य के विषय में पूछते हैं, तब वह उनसे कहते हैं कि मुझे हुआ ही क्या था? शक्ति-प्रहार से मेरे हृदय में घाव अवश्य हुआ था, किन्तु उसकी पीड़ा मुझे नहीं हुई, शक्ति-प्रहार की वास्तविक पीड़ा तो रघुवर श्रीराम को हुई; क्योंकि हम दोनों के शरीर पृथक-पृथक अवश्य हैं, किन्तु उनमें हृदय एक ही धड़कता है ।। मेरे घाव की पीड़ा का अनुभव तो श्रीराम को हुआ है; अत: आप उन्हीं से इसके विषय में पूछिए ।।

(ज ) तुलसी स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ ॥
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘दोहावली’ से अवतरित है ।। प्रसंग- इस सूक्ति में सांसारिक सम्बन्धों को स्वार्थमय बताते हुए केवल श्रीराम की भक्ति को ही परमार्थ का सर्वोपरि साधन सिद्ध किया गया है ।।

व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में सभी मित्र और सम्बन्धी स्वार्थ के कारण ही सबसे सम्बन्ध रखते हैं ।। जिस दिन हम उनके स्वार्थ की पूर्ति में असमर्थ हो जाते हैं, उसी दिन सभी व्यक्ति हमें त्यागने में देर नहीं लगाते ।। इसी प्रसंग में तुलसी ने कहा है कि श्रीराम की भक्ति ही परमार्थ का सबसे बड़ा साधन है और श्रीराम ही बिना किसी स्वार्थ के द्वारा के हमारा हितसाधन करते हैं ।।

(ट) क्षीर-नीर बिबरन समय,बक उघरत तेहि काल ॥
सन्दर्भ
– पहले की तरह ।।
प्रसंग– इस सूक्ति में बगुले व हंस के उदाहरण द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि मूर्ख व्यक्ति कितना ही आडम्बर क्यों न रच ले, परन्तु अवसर आने पर मूर्ख और विद्वान् की पहचान हो ही जाती है ।।


व्याख्या– बगुले नामक पक्षी के पैर, चोंच और आँख हंस के समान होते हैं तथा बगुले की चाल भी हंस जैसी होती है ।। इसलिए दोनों के रंग-रूप तथा हाव-भाव देखकर यह पहचानना कठिन हो जाता है कि इनमें कौन बगुला है तथा कौन हंस, लेकिन जब दूध और पानी को अलग करने का अवसर आता है तो बगुले का भेद खुल जाता है ।। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि मूर्ख और विद्वान दोनों के रंग-रूप, वेशभूषा तथा हावभाव एक-से हो तो उनकी पहचान करना कठिन होता है ।। लेकिन जब गुणों के प्रदर्शन अथवा बोलने का अवसर आता है तो मूर्ख और विद्वान की पहचान हो ही जाती है ।।

(ठ) होइ कुबस्तु-सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में कवि ने संगति के प्रभाव का वर्णन किया है ।।

व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि चन्द्र-सूर्यादि ग्रह, औषध जल, वायु और वस्त्र ये चीजें कुयोग (अर्थात् अनुचित योग) पाकर कुवस्तु (अर्थात् बुरी-हानिकारक व वस्तु) तथा सुयोग (अर्थात् उचित योग) प्राप्त कर सुवस्तु (अर्थात् अच्छीलाभदायक) वस्तु बन जाती है ।। उदाहरण के लिए शुभग्रह तीसरी, छठी, ग्यारहवीं राशियों में शुभफलदायक तथा चौथी, आठवीं, बारहवीं, राशियों पर अशुभ फलदायक हो जाते हैं ।। औषध मधु आदि का ठीक योग पाकर लाभदायक और खट्टे आदि के योग से हानिकारक हो जाती है ।। जल सुगन्ध, शीतलता आदि के योग से सुस्वादु और दुर्गन्धादि के योग से कुस्वादु हो जाता है ।। हवा भी सुगन्ध के योग से अच्छी और दुर्गन्ध के योग से बुरी हो जाती है ।। इसी प्रकार वस्त्र भी सुन्दर रंग आदि के संयोग से सुन्दर और गन्दगी, मैल आदि के योग से भद्दे हो जाते हैं ।। आशय यह है कि संगति ही मनुष्य को बिगाड़ती और सुधारती है तथा मनुष्य अच्छी संगति पाकर अच्छा और बुरी संगति पाकर बुरा बन जाता है ।।

(ङ) अब तौ दादुर बोलिहैं, हमैं पूछिहैं कौन ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– इस सूक्ति में तुलसीदास जी कहते हैं कि दुर्जनों का बोलबाला हो जाने पर सज्जन मौन धारण कर लेते हैं ।।


व्याख्या– वर्षाकाल में कोयल यह सोचकर मौन हो जाती है कि अब तो अनेक मेढ़क इकट्ठे होकर टर्राएँगे, जिससे उसके मधुर स्वर को कोई नहीं सुन पाएगा ।। इसी प्रकार बुरा समय आने पर दुर्जनों की ही चलती है, उस समय सज्जन की बात कोई नहीं सुनता ।। साथ ही दुष्टजन बहुत जल्दी संगठित हो जाते हैं, जिनकी संगठन-शक्ति के आगे शिष्टजन अकेले पड़ जाते हैं ।।

(ढ) परिहरिरामभगति-सुरसरिता आस करत ओसकन की ॥


सन्दर्भ
– प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक काव्यांजलि’ के ‘गोस्वामी तुलसीदास’ द्वारा रचित ‘विनय पत्रिका’ शीर्षक से लिया गया है है ।।
प्रसंग– इस सूक्ति में गोस्वामी तुलसीदास जी मानव-मन की मूर्खता का वर्णन करते हैं ।।


व्याख्या– यह मन इतना मूर्ख है कि वह श्रीराम जी की कृपारूपी गंगा को त्यागकर ओस की बूंदों की इच्छा करता फिरता है; अर्थात् वह भगवदानन्द को छोड़कर क्षणिक विषयानन्द की ओर दौड़ता है ।। तात्पर्य यह है कि जीव अपने अज्ञानपूर्ण व्यवहार से अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए भी कार्य करते हैं, उनमें प्रायः उन्हें हानि ही उठानी पड़ती है ।।

(ण) अब लौंनसानी अब न नसैहों ॥
सन्दर्भ- पहले की तरह ।। UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 3 विनय, वात्सल्य, भ्रमर-गीत (सूरदास)
प्रसंग- इस सूक्ति में सद्ज्ञान होने पर अपनी आयु व्यर्थ में व्यतीत न करने और उसे ईश्वर-भक्ति में लगाने का भाव व्यक्त किया गया है ।।
व्याख्या- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मैंने अब तक अपनी आयु को व्यर्थ के कार्यों में ही नष्ट किया है, परन्तु अब मैं अपनी आयु को इस प्रकार नष्ट नहीं होने दूंगा ।। भाव यह है कि अब उनके अज्ञानान्धकार की रात्रि समाप्त हो चुकी है और उन्हें सद्ज्ञान प्राप्त हो चुका है; अत: वे मोह-माया में लिप्त होने के स्थान पर ईश्वर की भक्ति में ही अपना समय व्यतीत करेंगे और ईश्वर से साक्षात्कार करेंगे ।।

(त) मन-मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद-कमल बसै हौं ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह ।।
प्रसंग– गोस्वामी तुलसीदास जी अपने आराध्य श्रीराम के परम और अनन्य भक्त हैं वे उनके दास और सेवक है ।। विविध देवीदेवताओं की स्तुति करने के बाद उन्होंने अन्त में यही कहा है कि ‘माँगत तुलसीदास कर जोरे ।। बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ ‘ अर्थात् मैं यह वरदान माँगता हूँ कि श्रीराम और सीता जी मेरे हृदय में निवास करें ।।

व्याख्या– प्रस्तुत पंक्ति में भी उन्होंने श्रीराम के प्रति अपने इसी दीनतापूर्ण समर्पण-भावना को स्वर दिया है और स्पष्ट रूप से कहा है कि उनके मनरूपी भ्रमर ने यह प्रण कर लिया है कि वह श्रीराम के चरण-कमलों में ही निवास करेगा ।। अपनी इस अनन्यता का चित्रण तुलसी ने इस दोहे में भी किया है UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 3 विनय, वात्सल्य, भ्रमर-गीत (सूरदास)
एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास ।।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥

अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न


1 — ‘भरत-महिमा’ के आधार पर भरत की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।।


उत्तर— – ‘भरत-महिमा’ के आधार पर भरत के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं

(i) भातृत्व प्रेमी- भरत का अपने बड़े भाई राम से अटूट प्रेम है ।। जिसके कारण वे श्रीराम को मनाने पैदल ही फलाहार करते हुए चित्रकूट की ओर जाते हैं ।। उन्हें श्रीराम के दर्शन की लालसा थी जिसके कारण वे तीव्र गति से चले जाते थे ।।


(ii) त्यागी– भरत जी उच्च कोटि के त्यागी है ।। राज्य प्राप्त होने के बाद भी वे उसे त्यागकर अपने बड़े भाई श्रीराम और लक्ष्मण को मनाने के लिए चल देते हैं ।।


(iii) निराभिमानी– भरत जी में लेशमात्र भी अभिमान नहीं है ।। जब लक्ष्मण जी भरत को सेना के साथ देखकर यह आशंका व्यक्त करते है कि सम्भवतः भरत राम को मारकर निष्कंटक राज्य करना चाहते हैं तब राम उनके इस गुण का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु, महादेव का पद पाकर भी भरत को अभिमान नहीं हो सकता ।।


(iv) धर्मानुरागी– भरत एक धर्मानुरागी व्यक्ति थे ।। समस्त देवता भी परस्पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि यदि इस संसार में भरत का जन्म न हुआ होता तो इस धरती पर सम्पूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता? अर्थात् इतनी निष्ठा और श्रद्धा से अन्य कोई धर्म का पालन नहीं कर सकता ।।


(v) शंकामग्न– ‘भरत-महिमा’ में श्रीराम से मिलने जाते समय भरत के हृदय में अनेकों शंकाएँ उठती है कि कहीं श्रीराम मुझे माता कैकेयी से मिला हुआ न मान लें या मेरा आगमन जानकर श्रीराम, लक्ष्मण व सीता जी सहित इस स्थान को छोड़कर उठकर कहीं अन्यत्र न चले जाएँ ।।


2 — ‘कवितावली'(लंका दहन) का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत शीर्षक तुलसीदास जी द्वारा रचित काव्य ग्रन्थ ‘कवितावली’ से लिया गया है ।। जिसमें कवि ने हनुमान जी द्वारा जलाई जा रही लंका का और लंकावासियों की व्याकुलता का अद्भुत वर्णन किया है ।। कवि कहते हैं कि हनुमान जी की विशाल पूँछ से भयंकर अग्नि की लपटें उठ रही थी ।। जिसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानों लंका को निगलने के लिए काल ने अपने जिह्वा फैला दी हो अथवा आकाश गंगा में पुच्छल तारे भर गए हों या वीर रस ने स्वयं वीर के रूप में परिवर्तित होकर अपनी तलवार बाहर खींच ली हो ।। आग की लपटों से परिपूर्ण वह लाल-नीली पूँछ ऐसी लग रही थी जैसे इन्द्र धनुष चमक रहा हो, अथवा बिजलियों का समूह हो अथवा सुमेरु पर्वत से आग की नदी प्रवाहित हो गई हो ।।

हनुमान जी के इस रूप को देखकर राक्षस-राक्षसी व्याकुल होकर कह रहे थे अभी तक तो इस बन्दर ने अशोक वाटिका उजाड़ी थी, अब नगर को जला रहा है ।। हनुमान जी ने बाजार, मार्ग, किले, अटारी, घर, दरवाजे एवं गली-गली में दौड़कर भयंकर आग लगा दी ।। सभी लोग व्याकुल होकर चिल्लाने-पुकारने लगे ।। हनुमान जी बार-बार अपनी पूँछ को घुमाकर छाड़ते जिससे आग की चिनगारियाँ बूंदों की तरह झड़ती ।। लंका की ऐसी दशा को देखकर राक्षसियाँ व्याकुल होकर कहने लगी कि अब लंका में कोई भी राक्षस चित्र में बने वानर से भी छेड़छाड़ नहीं करेगा ।। लंका की दसों दिशाओं में भयंकर अग्नि की लपटें दहकने लगी ।। चारों ओर धुएँ से सब लोग बेचैन हो गए ।। उस धुएँ के कारण कौन किसे पहचाने? आग के कारण सबके शरीर जल रहे थे और सभी व्याकुल होकर पानी के लिए लालायित थे ।। सब नष्ट हुए जाते हैं और पुकारते हैं कि हे भाई! हमें बचाओ ।।

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पति स्त्री से कहता है कि तुम भाग जाओ, स्त्री पति से कहती है कि स्वामी आप भागिए पिता पुत्र से तथा पुत्र पिता से भागने के लिए कहता है ।। लोग व्याकुल होकर कहते हैं कि रावण! अब अपनी करतूत का फल दसों शीशों की बीसों आँखों से भली-भाँति देख लो ।। लंकावासियों को गलियों, बाजारों, अटारियों, दरवाजों, घरों तथा दीवारों पर सब जगह बन्दर ही दिखाई पड़ते हैं ।। जैसे ऊपरनीचे तीनों लोकों में बन्दर ही बन्दर है ।। यदि लोग आँख बंद करते हैं तो अपने हृदय में, और आँख खोलते हैं तो सामने बन्दर दिखाई देते हैं ।। वे कहते हैं कि जब समझाते थे कि इसे मत छेड़ों तो किसी ने कहा नही माना, बल्कि जिसे छेड़ने से रोकते थे, वही चिढ़ जाता था ।। यह विपत्ति उसी कहना न मानने का दुष्परिणाम है ।।

3 — तुलसीदास द्वारा रचित ‘गीतावली’ के आधार पर श्रीराम-लक्ष्मण के अपूर्व प्रेम का चित्रण कीजिए ।।


उत्तर— कवि ने श्रीराम एवं लक्ष्मण के प्रेम का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है ।। लक्ष्मण को लंका-यद्ध के समय मेघनाद की शक्ति लग जाने पर श्रीराम विलाप करते हुए कहते हैं कि मेरा सारा पुरुषार्थ थक गया है ।। विपत्तियों को बाँटने वाला अपने भाईरूपी भुजा (लक्ष्मण) के बिना अब मैं किसका विश्वास करूँ ।। वे सुग्रीव को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे सुग्रीव! सुनो विधाता ने सचमुच मेरी ओर से मुँह मोड़ लिया है ।। इसलिए युद्ध के इस विपत्तिकाल में मुझे मेरे भाई लक्ष्मण ने छोड़ दिया है ।। जिस कारण युद्ध में मेरी हार होगी ।। अब मैं भी अपने भाई का साथी बन जाऊँगा अर्थात् मेरी भी मृत्यु हो जाएगी ।। संजीवनी बूटी के प्रभाव से सचेत होने पर जब लक्ष्मण जी से सब उनकी पीड़ा के विषय में पूछने लगते हैं तो वे कहते हैं कि आप लोग मुझसे पीड़ा के बारे में क्या पूछते हैं पूछना है तो श्रीराम से पूछिए, क्योंकि मेरे हृदय में तो केवल घाव ही हैं उसकी पीड़ा तो श्रीराम को ही है ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि लक्ष्मण की बात सुनकर स्वयं धैर्य भी धैर्य धारण नहीं कर पाता ।। श्रीराम और लक्ष्मण का प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि उनको दूध और पानी की उपमा भी नहीं दी जा सकती ।। क्योंकि दूध और पानी को हंस अलग-अलग कर सकता है ।। परंतु राम-लक्ष्मण कभी अलग-अलग नहीं हो सकते ।।

4 — ‘दोहावली’ में संकलित दोहों से जो नीति संबंधी शिक्षा मिलती है, उस पर प्रकाश डालिए ।।
उत्तर— – तुलसीदास जी कहते हैं कि प्राणी सब प्रकार से अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते हैं, परमार्थ के मित्र तो केवल श्रीराम ही हैं, जो हर समय प्रेम करते हैं और दीन-स्थिति में तो विशेष रूप से प्रेम करते हैं ।। आत्मसम्मान की रक्षा करना, माँगना और फिर भी प्रियतम से प्रेम का नित्य नवीन होना- ये तीनों बातें तभी शोभा देती हैं, जब चातक की प्रेम पद्धति को अपनाया जाए ।। जिस प्रकार चातक स्वाति नक्षत्र के मेघ का दिया जल चोंच उठाकर पीता है और यदि मेघ जल न भी दे तो उसका प्रेम नहीं घटता, उसी प्रकार माँगते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना और नित्य प्रेम बढ़ाते जाना- ये तीनों बातें एक साथ मिलनी दुर्लभ हैं ।। दुष्ट व्यक्ति यदि सज्जन व्यक्ति के रूप, रंग, वेशभूषा आदि को धारण कर भी ले तो भी वह सज्जन नहीं हो सकता; क्योंकि एक ओर तो वह दुष्टता नहीं छोड़ता और दूसरी ओर सज्जनों के गुणों को भी ग्रहण नहीं कर सकता ।।


तुलसीदास जी कहते हैं सब लोग अपने लिए भले होते हैं और अपनी भलाई करना चाहते हैं परंतु इनमें श्रेष्ठ वे व्यक्ति होते हैं जो सभी को भला मानकर, उनकी भलाई करने में लगे रहते हैं ।। ऐसे व्यक्तियों की ही सज्जन व्यक्तियों के द्वारा सराहना की जाती है ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति सब बात सुन समझकर भी (जान-बूझकर) अनीति में लगा रहता है उसको उपदेश देना या जगाने का प्रयास करना व्यर्थ है ।। ऐसे व्यक्तियों को कितना ही उपदेश दे लीजिए, वे सन्मार्ग पर नहीं आते ।। तुलसीदास जी के अनुसार राजा ऐसा होना चाहिए कि जब वह प्रजा से कर वसूले तो प्रजा को पता तक न चले किन्तु जब वह उस धन से प्रजा के लिए हितकर काम करे तो सबको पता चले ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि राजा को गुरु, मंत्री, चिकित्सक के परामर्श का सम्मान करना चाहिए ।। उनसे बलपूर्वक अपनी इच्छानुसार कार्य कभी भी नहीं करना चाहिए ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब बुरा समय आता है तब ढोंगियों और दुर्जनों की ही चलती है, गुणवानों का सम्मान नहीं होता ।। इसलिए वे तटस्थ भाव से चुप हो जाते हैं ।।

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प्रश्न 4 — विनय-पत्रिका’ तुलसीदास जी के हृदय का प्रत्यक्ष दर्शन है ।। इस आधार पर तुलसीदास जी की भक्ति-भावना पर प्रकाश डालिए ।।


उत्तर— – ‘विनय-पत्रिका’ के माध्यम से तुलसीदास जी ने अपनी भक्ति-भावना प्रदर्शित की है ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि क्या कृपालु रघुनाथ जी की कृपा से मैं कभी संतों जैसा स्वभाव प्राप्त कर सकूँगा या जो कुछ मिल जाए, उसी में संतुष्ट रहूँगा ।। सदा दूसरों की भलाई में तत्पर रहूँगा ।। अपना अपमान होने पर भी कभी क्रोध नहीं करूँगा ।। किसी से सम्मान प्राप्त करने की इच्छा न करूंगा ।। दूसरों के गुणों का तो बखान करूँगा परंतु उनके दोष नहीं कहूँगा अर्थात् क्या कभी हरि-भक्ति प्राप्ति का मेरा मनोरथ पूरा होगा ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरा यह मन कुछ ऐसी मूर्खता कर रहा है कि यह श्रीराम की भक्तिरूपी गंगा को त्यागकर विषयरूपी ओस की बूंदों के द्वारा अपनी प्यास बुझाना चाहता है ।। हे कृपा के सागर प्रभु श्रीराम! मैं अपने मन के दोषपूर्ण एवं तुच्छ कर्मों का वर्णन कहाँ तक करूँ? आप अन्यामी हैं, इसलिए आप मुझ सेवक के मन की बात को भली प्रकार जानते हैं ।। तुलसीदास श्रीराम से अपने उद्धार की प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! शरण में आए भक्त का उद्धार करने की अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए आप इस दुःख से मेरा उद्धार कीजिए ।। तुलसीदास जी श्रीराम से प्रार्थना करते हैं कि हे हरि! आप मेरे भारी भ्रम को दूर कीजिए ।।

यह संसार मिथ्या, असत्य है, जब तक आपकी कृपा नहीं होती यह सत्य नहीं प्रतीत होता है ।। मैं जानता हूँ इन्द्रियों के विषय नाशवान् है विषय-सुख क्षणिक है ।। इतने पर भी इस संसार में छुटकारा नहीं मिल पाता ।। इसी प्रकार माया में पड़कर लोग अनेक यातनाएँ भोग रहे हैं, साथ ही उन्हें दूर करने के उपाय भी करते हैं, परंतु बिना आत्मज्ञान के इससे छुटकारा पाना संभव नहीं ।। वेद, गुरु संत सभी ने एक स्वर में कहा है कि यह दृश्यमान जगत सदा दुःख-रूप है ।। जब तक कि इसे त्यागकर रघुनाथ का भजन नहीं किया जाता, तब तक कौन समर्थ है, जो आवागमन के चक्र से मुक्त हो सके ।। तुलसीदास जी अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि रघुनाथ जी की कृपा से संसाररूपी रात्रि समाप्त हो गई है ।। अब जागने पर (विरक्ति भाव उत्पन्न होने पर) मैं दोबारा सांसारिक मोह में नहीं फतूंगा ।। मुझे तो समस्त चिन्ताओं का विनाश करने वाली रामनामरूपी चिन्तामणि प्राप्त हो गई है ।। उसे सदैव हृदय में रगा ।। अब मैंने प्रण कर लिया है कि मेरा मनरूपी भ्रमर श्रीरघुनाथ जी के चरणरूपी कमल कोश के भीतर ही निवास करें, जिससे वह उड़कर कही अन्यत्र न जाने पाए ।।

काव्य-सौन्दर्य से संबंधित प्रश्न


1 — “चलत पयादें ………………………. को आजु ॥ “पंक्तियों में प्रयुक्त छन्द, रस तथा उसका स्थायी भाव बताइए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में दोहा छन्द, शान्त रस है जिसका स्थायी भाव निर्वेद है ।।
2 — “भेटेउ लखन ………………………… प्रनामुकरि ॥ ‘पंक्तियों में प्रयुक्त रस, अलंकार तथा छन्द का नाम लिखिए ।। उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में शृंगार रस, अनुप्रास अलंकार तथा चौपाई छन्द है ।।
3 “बालधी बिसाल…………………पुजारी है ॥ “पंक्तियों में प्रयुक्त छन्द तथा रस का नाम बताइए ।।
उत्तर— – प्रस्तुत पंक्तियों में घनाक्षरी छन्द तथा भयानक रस प्रयुक्त हुआ है ।।


4 — “लपट कराल …………………….. चाहि रे ॥ “पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।।
उत्तर— काव्य-सौन्दर्य- (1) गोस्वामी जी ने चारों ओर लगी आग के कारण उत्पन्न घबराहट का स्वाभाविक चित्रोपम वर्णन किया है ।। अंतिम पंक्ति में रावण के प्रति लंकावासियों की खीझ दर्शनीय है ।। (2) भाषा- ब्रज ।। (3) शैली- मुक्तक ।। (4) रस- भयानक ।। (5) गुण- ओज ।। (6) छन्द- घनाक्षरी ।। (7) अलंकार- अनुप्रास की छटा, पुनरुक्ति प्रकाश, वीप्सा ।


5 — “मान राखिबो……………………….. मत लेहु ॥ “पंक्तियों में निहित अलंकार तथा छन्द का नाम बताइए ।।
उत्तर – प्रस्तुत पंक्तियों में अन्योक्ति और अनुप्रास अलंकार तथा दोहा छन्द का प्रयोग हुआ है ।।
6 — “ग्रह भेषज…………………………….. सुलच्छन लोग ॥ “पंक्तियों में निहित अलंकार तथा रस का नाम लिखिए ।।
उत्तर — प्रस्तुत पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार तथा शान्त रस है ।।

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