UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 4 आचरण की सभ्यता

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 4 आचरण की सभ्यता सम्पूर्ण हल

आचरण की सभ्यता   (सरदार पूर्णसिंह)

पाठ- 4 आचरण की सभ्यता (सरदार पूर्णसिंह)


लेखक पर आधारित प्रश्न


1– सरदार पूर्णसिंह का जीवन-परिचय देते हुए हिन्दी में उनका स्थान बताइए ।।


उतर– – लेखक परिचय- प्रसिद्ध निबन्धकार सरदार पूर्णसिंह का जन्म 17 फरवरी, सन् 1881 ई० को एबटाबाद, पंजाब के ‘सलहड़’ नामक ग्राम में हुआ था ।। यह स्थान अब पाकिस्तान में है ।। इनके पिता सरदार करतार सिंह भागर सरकारी कर्मचारी थे ।। कानूनगो पिता को सरकारी कार्य से तहसील में प्रायः घूमते रहना पड़ता था, अत: बच्चों की देखरेख का कार्य प्राय: माता को ही करना पड़ता था ।। पूर्णसिंह ने मैट्रिक तक की शिक्षा रावलपिण्डी में प्राप्त की तथा लाहौर से इण्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की ।। रसायनशास्त्र के विशेष अध्ययन के लिए सन् 1900 में ये जापान गए और वहाँ इम्पीरियल यूनिवर्सिटी में तीन वर्ष तक अध्ययन किया ।। जापान में ही ये स्वामी रामतीर्थ के सम्पर्क में आए ।। उनके व्याख्यानों से पूर्णसिंह बहुत प्रभावित हुए तथा संन्यास लेकर उन्हीं के साथ वापस भारत आ गए ।। कुछ समय बाद स्वामी रामतीर्थ की मृत्यु हो गई और पूर्णसिंह के विचार परिवर्तित हो गए ।।

इन्होंने गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया और देहरादून के इम्पीरियल फॉरेस्ट इन्स्टीट्यूट में सात सौ रुपए मासिक वेतन पर अध्यापक हो गए ।। परन्तु अपनी स्वतन्त्र प्रकृति के कारण ये अधिक समय तक इस नौकरी को नहीं निभा सके ।। वहाँ से त्यागपत्र देकर ये ग्वालियर चले गए ।। वहाँ भी ये अपना मन नहीं लगा सके और पंजाब में जड़ाँवाला नामक स्थान पर रहकर कृषि-कार्य करने लगे ।। क्रान्तिकारियों से भी इनका सम्पर्क रहता था ।। ‘देहली षड्यन्त्र’ के अभियोग में मास्टर अमीरचन्द के साथ इन्हें भी पूछताछ के लिए बुलाया गया; लेकिन इन्होंने उनसे अपना सम्बन्ध होना स्वीकार नहीं किया ।। मास्टर अमीरचन्द स्वामी रामतीर्थ के परम भक्त और इनके गुरुभाई थे ।। उनके प्राणों की रक्षा के लिए पूर्णसिंह ने न्यायालय में झूठा बयान दिया था ।। सच्चे अर्थों में ये राष्ट्रीय-जागरण के अग्रदूत व एक महापुरुष थे, जिन्होंने लाक्षणिक एवम् भावात्मक निबन्धों की रचना करके हिन्दी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान दिया ।। 31 मार्च, सन् 1931 ई० को यह महान् साहित्यकार मात्र 50 वर्ष की आयु में सदैव के लिए इस असार-संसार से विदा हो गया ।।


हिन्दी साहित्य में स्थान– मात्र छह निबन्ध लिखकर ही सरदार पूर्णसिंह हिन्दी-निबन्धकारों की प्रथम पंक्ति में गिने जाते हैं ।। सच्चे अ र्थों में ये एक साहित्यिक निबन्धकार थे ।। पूर्ण सिंह हिन्दी व पंजाबी भाषा के पाठकों में समान रूप से लोकप्रिय हुए ।। अपने महान् दार्शनिक व्यक्तित्व एवं विलक्षण कृतित्व के लिए ये सदैव स्मरणीय बने रहेंगे ।। इनके निधन से हिन्दी एवं पंजाबी साहित्य की जो क्षति हुई, उसकी पूर्ति असम्भव है ।।


2– सरदार पूर्णसिंह की कृतियों तथा भाषा-शैली का वर्णन कीजिए ।।
उतर– – कृतियाँ- इनकी सबसे अधिक रचनाएँ अंग्रेजी में हैं ।। पंजाबी भाषा में भी इन्होंने काफी लिखा है ।। मात्र छ: निबन्धों की रचना करके हिन्दी-गद्य-साहित्य क्षेत्र में आपने प्रसिद्धि प्राप्त की ।। आपके जो छ: निबन्ध उपलब्ध हैं, वे इस प्रकार हैं

1– कन्यादान 2– आचरण की सभ्यता 3– सच्ची वीरता 4– मजदूरी और प्रेम 5– पवित्रता 6– अमेरिका का मस्त योगी वॉल्ट ह्विटमैन ।।

भाषा-शैली– सरदार पूर्णसिंह की भाषा में विषय को मूर्तिमान करने की अद्भुत क्षमता है ।। एक सफल चित्रकार की भाँति ये शब्दों की सहायता से एक परिपूर्ण चित्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं ।। इनकी भाषा शुद्ध खड़ी बोली है, किन्तु इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ फारसी और अंग्रेजी के शब्द भी यथास्थान प्रयुक्त हुए हैं ।। इन्हें किसी शब्द-विशेष से मोह नहीं है ।। ये तो उसी शब्द का प्रयोग कर देते हैं, जो शैली के प्रवाह में स्वाभाविक रूप से व्यक्त हो जाता है ।। सरदार पूर्णसिंह की शैली की अपनी विशेषताएँ हैं इसे उनकी निजी शैली भी कह सकते हैं ।। इनकी शैली में भावात्मक, वर्णनात्मक और विचारात्मक शैलियों का मिला-जुला रूप मिलता है ।। सरदार पूर्णसिंह ने प्राय: भावात्मक निबन्ध लिखे हैं, इसीलिए उनकी शैली में भावात्मकता और काव्यात्मकता मिलती है ।। यहाँ तक की इनके विचार भी भावुकता में लिपटे हुए दृष्टिगत होते हैं ।। विषय की गम्भीरता के साथ इनकी शैली में विचारात्मकता का गुण भी देखने को मिलता है ।। ऐसे स्थानों पर संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है और वाक्य भी लम्बे हो गए हैं ।।

पूर्णसिंह जी द्वारा प्रयुक्त वर्णनात्मक शैली अपेक्षाकृत अधिक सुबोध और सरल है ।। इसमें वाक्य छोटे-छोटे हैं और विषय का चित्रण बड़ी मार्मिकता के साथ हुआ है ।। यह शैली अधिक प्रभावमयी और हृदयग्राहिणी भी है ।। अपने कथन को स्पष्ट करने से पहले पूर्णसिंह उसे सूत्र में कह देते हैं और फिर उसकी व्याख्या करते हैं ।। इनके ये सूत्र-वाक्य सूक्तियों का-सा आनन्द प्रदान करते हैं ।। पूर्णसिंह जी के निबन्धों के विषय प्रायः गम्भीर हैं, फिर भी इनमें हास्य और व्यंग्य का पुट आ ही गया है ।। पूर्णसिंह जी अपनी शैली में कोई साधारण वाक्य लिखकर, उससे मिलते-जुलते कई वाक्य उपस्थित कर देते हैं ।। इससे इनकी शैली अधिक मनोरम हो गई हैं ।। ये अपनी शैली में अपनी भावनाओं का चित्रण रहस्यमय ढंग से करते हैं ।। इसके लिए इन्होंने शब्दों की लाक्षणिक शक्ति का आश्रय लिया है ।। परिणामस्वरूप इनकी शैली भावों का भण्डार बन गई है ।।



1– निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) विद्या,कला, कविता ………………………….हो जाता हैं ।।


सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘सरदार पूर्णसिंह द्वारा लिखित ‘आचरण की सभ्यता’ नामक निबंध से उद्धृत है ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने आचरण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है और इसे ही सर्वोत्तम बताया है ।।


व्याख्या– सरदार पूर्णसिंह का कहना है कि आचरण की सभ्यता विद्या, कला, कविता, साहित्य, धन-सम्पदा और राज-पद से अधिक प्रकाशयुक्त है ।। आचरण की सभ्यता को प्राप्त करने वाला एक निर्धन मनुष्य भी राजाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है; अर्थात् अपने सदाचरण से उन्हें प्रभावित करता है और सम्मान का पात्र बन जाता है ।। आचरण में अपूर्व शक्ति है, जो व्यक्ति को कुछ से कुछ बना देती है ।। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में आचरण का पालन करता हो और कला, साहित्य व संगीत में भी रुचि रखता हो तो मात्र आचरण की पवित्रता के कारण ही उसे इन कलाओं में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हो जाती है ।। उसके इन गुणों में चार चाँद लग जाते हैं ।।

आचरण के कारण ही उसका स्वर अधिक मधुर हो जाता है, उसके ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल जाता है अर्थात् व्यक्ति प्रकाण्ड ज्ञानवान् हो जाता है और चित्रकार के चित्र मुख से कुछ न कहते हुए भी सब कुछ कह देते हैं उस समय एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि बोलने वाला अर्थात् वक्ता कुछ नहीं कह पाता और लिखने वाले की लेखनी भी रुक जाती है ।। आशय यह है कि आचरण की सभ्यता के प्रभाव को वाणी या लेखनी दोनों के द्वारा ही अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता ।। आचरण की सभ्यता से युक्त मूर्तिकार के सम्मुख सदैव नयी छवि उपस्थित रहती है, जिसके समस्त अंगप्रत्यंग नवीन होते हैं और उसे चहुँ ओर नवीनता के ही दर्शन होते हैं ।। आशय यह है कि व्यक्ति आचरण की सभ्यता के कारण सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्यों में अपने को लगा देता है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) भाषा- प्रवाहपूर्ण एवं परिमार्जित खड़ी बोली ।।
(2) शैली- कवित्वपूर्ण एवं भावात्मक ।।
(3) वाक्य-विन्यास- सुगठित ।।
(4)शब्द-चयन- विषय-वस्तु के अनुरूप ।।

(ख) आचरण की सभ्यतामय…………………….. अंगहो जाता है ।।


सन्दर्भ
– पूर्ववत् ।।

प्रसंग– प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने अत्यधिक प्रभावी ढंग से आदर्श आचरण के महत्व का प्रतिपादन किया है ।। लेखक को ‘कथनी’ से ज्यादा ‘करनी’ में विश्वास है ।।

व्याख्या– आचरण की भाषा का कोई लिखित ग्रन्थ नहीं है और न ही उसका कोई शब्दकोष उपलब्ध है ।। आचरण की भाषा सदैव मूक रहती है और उसका प्रयोग व्यवहार के माध्यम से ही किया जा सकता है ।। आचरण के कोश में नाममात्र के लिए भी शब्द नहीं है ।। वस्तुत: उसके सभी पृष्ठ पूरी तरह कोरे है ।। इसकी ध्वनि मूक है ।। सभ्यता का आचरण स्वयं को व्यक्त करता हुआ भी अव्यक्त और मौन रहता है; आकर्षक राग गाता हुआ भी राग के अन्दर विद्यमान रहता है ।। इसके मीठे वचनों में उसी प्रकार की मूक भावना पाई जाती है, जिस प्रकार किसी बच्चे की तोतली बोली में एक आकर्षक मौन छिपा रहता है ।। उसकी बोली स्पष्ट न होने पर भी उसकी सभी बातें स्पष्ट हो जाती है ।। सभ्य आचरण के चार प्रमुख व्याख्यान हैं- नम्रता, दया, प्रेम और उदारता ।। व्यवहार में लाने पर इन तत्वों का जितना अधिक और स्थायी प्रभाव पड़ता है, उतना इन तत्वों के वर्णन से नहीं पड़ सकता ।। इस प्रकार आचरण की भाषा मौन होकर भी आत्मा का एक अनन्य अंग बन जाती है; अर्थात् सदाचरण मनुष्य की आत्मा को स्थायी रूप से प्रभावित करता है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने अत्यन्त सशक्त रूप में आचरण के प्रभाव को दर्शाया है ।।
(2) भाषाआलंकारिक एवं प्रवाहमयी ।।
(3) शैली- कवित्वपूर्ण एवं भावात्मक ।।
(3) वाक्य- विन्यास- सुगठित ।।
(4) शब्द-चयनविषय-वस्तु के अनुरूप ।।
(5) विचार-सौंदर्य- उपदेशों का उतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना शिष्ट एवं उदार व्यवहार का पड़ता है ।।

(ग) मौनरूपी व्याख्यान…………… ……………..घुसकर देखो ।।


सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- आचरण में निहित मौन भाषा की तुलना सामान्य भाषा से करते हुए लेखक ने उच्च आचरण की श्रेष्ठता सिद्ध की है ।।


व्याख्या– आचरण की मौन भाषा का सम्बन्ध हृदय अथवा आत्मा से है ।। आचरण के मौन कथन का महत्व बहुत अधिक है ।। इसकी भाषा बहुत शक्तिशाली, अर्थयुक्त और प्रभावशाली होती है ।। इसके प्रभाव और बल के समक्ष कोई भी मातृभाषा, साहित्य की भाषा अथवा किसी भी देश की भाषा कमजोर ही सिद्ध होती है ।। संसार की प्रत्येक लौकिक भाषा की तुलना में आचरण की मौन भाषा का अलौकिक स्थान है ।। इसका कारण यह है कि संसार की अन्य भाषाएँ तो मनुष्य द्वारा निर्मित हैं, जबकि आचरण की भाषा प्राकृतिक है ।। यदि थोड़ा-सा भी विचार करके देखें तो पाएंगे कि आचरण की मौन भाषा का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप में हमारे हृदय पर पड़ता है ।। इसका रूप भले ही प्रकट न हो, किन्तु सम्बन्धित व्यक्ति पर इसका चुम्बकीय प्रभाव अवश्य पड़ता है ।।

वस्तुत: वही कथ्य व्याख्यान कहलाने का अधिकारी होता है, जो सबके हृदयों की सोच, लगन ओर मन के लक्ष्य का परिवर्तित कर देने की सामर्थ्य रखता हो ।। इस मौन व्याख्या का महत्व व्यक्ति को तब दृष्टिगत होता है, जब वह पूर्ण गंभीरता के साथ अपने अथवा किसी दूसरे के आचरण की तटस्थ विवेचना करता है ।। उस समय व्यक्ति को अनुभव होता है, मानो उसकी नाड़ी की एक-एक धड़कन उसके हृदय में आचरण की महत्ता के एक-एक फूल को पिरोकर उसे अलंकृत कर देना चाहती है ।। चन्द्रमा की मौन हँसी तथा तारों का मौन कटाक्ष का प्रभाव तभी लगाया जा सकता है, जब किसी कवि के दिल में घुसकर देखा जाएँ कि इतना मौन व्यवहार एक कवि के मन में कितने भाव उत्पन्न करता है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) यहाँ मानवीय प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है ।।
(2) हृदय से किया गया सद्व्यवहार निश्चय की दिव्य और ईश्वरीय होता है ।।
(3) यहाँ संसार की लिखित भाषाओं और आचरण की मौन भाषा का तुलनात्मक विवेचन किया गया है ।।
(4) भाषा- परिष्कृत, प्रवाहमयी और आलंकारिक ।।
(5) शैली- भावात्मक ।।
(6) वाक्य-विन्यास- सुगठित ।।
(7) शब्द-चयन- विषय वस्तु के अनुरूप ।।

(घ) बर्फ का दुप्पटा ……. …..पर जमा दे ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- लेखक ने स्पष्ट किया है कि आचरण का निर्माण आकस्मिक रूप में नहीं होता, वरन् लम्बी और कठिन साधना के पश्चात् ही आचरण की सभ्यता का निर्माण ठीक उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार प्रकृति ने शताब्दियों की साधना के बाद हिमालय का निर्माण किया है ।।

व्याख्या– जिस प्रकार हिमालय अपने सिर पर बर्परूपी साफा बाँधकर अपने महिमामय स्वरूप की घोषणा करता है और जिस प्रकार अपनी ऊँची चोटी पर पवित्र कलश यात्रा धारण करने वाला मन्दिर अपनी दिव्यता का उद्घोष करता है, उसी प्रकार आचरण भी महिमामय और दिव्य होता है ।। जिस प्रकार हिमालय और ऊँचे मन्दिर का निर्माण एक दिन में नहीं हो सकता, उसी प्रकार श्रेष्ठ आचरण भी लंबी साधना के पश्चात् ही प्राप्त होता है ।। श्रेष्ठ आचरण का निर्माण किसी मदारी या जादूगर द्वारा, दर्शकों को धोखा देकर क्षणभर में उगाए हुए आम के वृक्ष की भाँति नहीं होता, इसके निर्माण में शताब्दियों का समय लगता है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) भाषा- लालित्यपूर्ण आलंकारिक ।।
(2) शैली- भावात्मक शैली में आचरण की तुलना हिमायल एवं मंदिर से की गई है ।।
(3) वाक्य-विन्यास- सुगठित,
(4) शब्द चयन- विषय वस्तु के अनुरूप ।।

(ङ) किसी का आचरण………………….अर्थ नहीं रखते ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग– प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने स्पष्ट किया है कि किसी महापुरुष के सदाचरण अथवा किसी आकस्मिक व्यक्तिगत अनुभूति के प्रभावस्वरूप ही व्यक्ति के आचरण में परिवर्तन होता है ।।

व्याख्या– लेखक ने स्पष्ट किया है कि मनुष्य का आचरण किसी भी परिस्थिति के झोंके से टकराकर बदल सकता है, किन्तु साहित्य एवं उपदेशात्मक शब्दों के लगातार प्रयोग मनुष्य के आचरण पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते ।। हाँ, किसी भी आकस्मिक अनुभूति से आचरण अवश्य प्रभावित हो सकता है ।। आचरण का यह प्रभाव वैसे ही होता है, जैसे फूल की पंखुड़ियों के स्पर्श से आनन्दपूर्ण रोमांच उत्पन्न हो जाता है या जल की शीतलता क्रोध एवं विषय-वासना को शांत कर देती है या सूर्य की किरणें सोए हुए जीव को जगा देती हैं, परन्तु आचरण के लिए कोई उपदेश अथवा कोई नीतिवाक्य ठीक वैसा ही निरर्थक होता है, जैसे अंग्रेजी भाषा में कारलायल जैसे विद्वान का लिखा हुआ व्याख्यान भी बनारस के पण्डितों के लिए व्यर्थ के शोरगुल से अधिक कुछ भी नहीं होगा ।। उसी प्रकार ज्ञानहीन लोगों के लिए भाप के इंजन से निकलने वाली फप-फप की आवाज कुछ नहीं है ।। ये आवाज तो इसका अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के लिए अर्थ रखती है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) प्रस्तुत पंक्तियों में सटीक उदाहरणों का प्रयोग करके आचरण को प्रभावित करने वाले तत्वों पर प्रकाश डाला गया है ।।
(2) भाषा- लालित्यपूर्ण और साहित्यिक ।।
(3) शैली- भावात्मक ।।
(4) विचार-सौन्दर्य- प्रकृति से तो सदाचरण की प्रेरणा मिल सकती है, परन्तु उपदेशों से नहीं ।।

(च) मनुष्य का जीवन …………………… लिप्त रहे हों ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति के आचरण का निर्माण करने में न केवल अच्छे विचार एवं व्यवहार ही सहायक होते हैं, वरन् बुरे विचार, बुरे आचरण, दुःखद स्थितियाँ आदि भी व्यक्ति के आचरण का निर्माण करने की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं ।।


व्याख्या– लेखक के अनुसार मानस के विशाल जीवन में सभी प्रकार के अच्छे और बुरे कारक उसके आचरण का निर्माण करने में सहायक होते हैं ।। सभी प्रकार के ऊँच-नीच व भले-बुरे की भावना पर आधारित विचार, धनाढ्यता व निर्धनता की स्थिति तथा उन्नति व अवनति आदि का, व्यक्ति के आचरण का निर्माण करने में महत्वपूर्ण योगदान होता है ।। बुरे विचार प्रत्येक स्थिति में अहितकर सिद्ध नहीं हुआ करते; अर्थात् अपवित्रता में भी आचरण के विकास की सम्भावना विद्यमान रहती है ।। जो पाप जान-बूझकर नहीं किया गया हो, उस पाप को करने वाला यदि प्रायश्चित करके महान् बन सकता है तो इस दृष्टि से अपवित्रता का भी उतना ही महत्व है जितना कि पवित्रता का प्रारंभ में अपवित्रता का भाव रखने वाला व्यक्ति यदि बाद में पवित्रता पर आधारित जीवन व्यतीत करने लगता है तो उसे पवित्रता की शक्ति की गहन अनुभूति होनी प्रारंभ हो जाती है ।।

इस प्रकार इस संसार में जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह आचरण के निर्माण की दृष्टि से सहायक ही सिद्ध हो रहा है ।। व्यक्ति की आत्मा भी सामान्यतः उसे उन्हीं कार्यों को करने के लिए प्रेरित करती है, जो बाह्य पदार्थों के संयोग के प्रतिबिम्बित होते हैं ।। जिन व्यक्तियों को हम पवित्रात्मा कहते हैं, वे न मालूम कितनी अपवित्रताओं को त्यागकर ही पवित्र बन सके हैं ।। जिन व्यक्तियों को हम सभ्य कहते हैं तथा जिनके जीवन में पवित्रता ही सब कुछ है क्या मालूम पूर्व में वह किन-किन बुरे और अपवित्र कर्मों में लिप्त रहा हो ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने व्यक्ति के आचरण का निर्माण करने में अच्छाई एवं बुराई दोनों का ही सापेक्ष महत्व बताया है ।।
(2) भाषा- सरस साहित्यिक एवं प्रवाहमयी ।।
(3) शैली- भावात्मक एवं लाक्षणिक ।।
(4) वाक्य विन्यास- सुगठित
(5) शब्द चयन- विषय-वस्तु के अनुरूप
(6) विचार सौन्दर्य- सभी अच्छे बुरे विचारों को आचरण के विकास में सहायक माना गया है ।।
(7) भावसाम्य- नीत्शे ने भी कहा है कि, “जिन्हें आकाश की ऊँचाइयाँ छुनी हों, उन्हें पाताल की गहराईयों से भी परिचित होना पड़ता है ।। “

(छ) वह आचरण जो………………………………………………………… गौरवान्वित नहीं करता ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने आचरण की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि धर्म और सम्प्रदाय; प्रेमपूर्ण आचरण के अभाव में परस्पर द्वेष, हिंसा और अत्याचार ही फैलाते हैं ।।


व्याख्या– लेखक कहता है कि संसार में अनेक धर्म और सम्प्रदाय हैं ।। उन सभी के धर्म-ग्रन्थों में अनेकानेक उपदेश भरे हैं, किन्तु उनके अनुयायी उन उपदेशों के अनुरूप आचरण नहीं करते ।। लोग किसी धर्म का आचरण करते समय उसकी बाहरी क्रियाओं पर तो ध्यान देते हैं, पर उसके वास्तविक उपदेशों की ओर ध्यान नहीं देते ।। धर्म की बाहरी क्रियाएँ धर्म का असली स्वरूप नहीं हैं ।। धर्म-ग्रन्थों में उपदेशों से भी कुछ बातें हैं, जिन्हें शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता ।। ये बातें सभ्य आचरण से संबंधित हैं ।। सभ्य आचरण के अभाव में हमारे तथाकथित धर्म और सम्प्रदाय हमारे मन में विद्वेष और घृणा उत्पन्न करते हैं ।। यही कारण है कि धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे रहे हैं ।। चारों ओर हिंसा और अत्याचार का बोलबाला रहा है ।। मनुष्य का मनुष्य के प्रति प्रेम नहीं; क्योंकि हमारे हृदय में पवित्रता नहीं है ।। मनुष्य किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय का अनुयायी बनकर महान् नहीं होता, वह अपने अच्छे आचरण से ही महान् बनता है; अत: किसी धर्म को धारण करने से किसी व्यक्ति का सम्मान नहीं होता है, किन्तु आचरणशील मनुष्य को पाकर ही कोई धर्म गौरवान्वित होता है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) वही धर्म श्रेष्ठ है, जो सभ्य आचरण सिखाता है ।।
(2) प्रेमपूर्ण आचरण के अभाव में बाहरी कर्मकाण्ड पर आधारित धर्म आपसी द्वेष, घृणा और हिंसा उत्पन्न करते हैं ।।
(3) मनुष्य का महत्व आचरण के कारण होता है, धर्म के कारण नहीं ।।
(4) भाषा- साहित्यिक, संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली ।।
(5) शैली- भावात्मक ।।

(ज) आचरण का विकास ………………………………………………………. स्वयं ही बनाई थी ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग– लेखक की मान्यता है कि आचरण का विकास करना ही हमारे जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए ।। उस व्यक्ति के लिए कोई भी धर्म अथवा सम्प्रदाय कल्याणकारी नहीं हो सकता, जो सदाचरण से रहित है ।।

व्याख्या– मानव जीवन की उन्नति के लिए आचरण का विकास परम आवश्यक है ।। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का महान् उद्देश्य आचरण का विकास ही होना चाहिए ।। आचरणहीन व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता, इसलिए उन्नत जीवन के लिए आचरण का विकास करना ही होगा ।। व्यक्ति अथवा संपूर्ण मानव-जाति के आचरण को विकसित करने के लिए शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विद्यमान विभिन्न प्रकार के साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए ।। आचरण के विकास के लिए हमें उन सभी कर्मों को धर्म के अंतर्गत स्वीकार करना होगा, जो आचरण का विकास करते हैं ।। तात्पर्य यह है कि आचरण के विकास की जो प्रणाली है, उसे धर्म के अंतर्गत स्वीकार करके ही हम जीवन-पथ पर सफलतापूर्वक अग्रसर हो सकते हैं ।। यहाँ लेखक ने महात्मा गाँधी जैसे महान् पुरुषों का उदाहरण देते हुए कहा है कि ऐसे महात्मा किसी पूर्व निर्मित सड़क के द्वारा अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचे अपितु उन्होंने अपने आचरण से स्वयं ही अपना मार्ग प्रशस्त बनाया ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने आचरण के विकास हेतु आवश्यक साधनों पर प्रकाश डाला है ।।
(2) भाषा- परिष्कृत एवं परिमार्जित ।।
(3) शैली- विचारप्रधान एवं विवेचनात्मक ।।
(4) भाव-साम्य- महाभारत में भी कहा गया है कि “चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए ।। चरित्र से हीन व्यक्ति मृतक तुल्य है ।। “

(झ) जब साहित्य, संगीत ……………………………………………………………………………………….उसे जगा सका ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- यहाँ लेखक ने आचरण को मानव-उन्नति का कारण बताते हुए, विलासिता को मानव के पतन का कारण बताया है ।।

व्याख्या– रोमवासी बहुत परिश्रमी और वीर थे और अपने देश की रक्षा के लिए निरन्तर सन्नद्ध रहते थे ।। उनका जीवन घोड़ों की पीठ पर बैठे-बैठे ही व्यतीत होता था, किन्तु जब से रोमवासियों में आलस्य की प्रवृत्ति पनपी, जब वे केवल संगीत, साहित्य और कला में डूब गए, जब उन्होंने घोड़ों की पीठ को त्याग दिया और जब जंगलों तथा पहाड़ों की स्वच्छ वायु में व्यतीत होने वाले कठोर जीवन से उनका मन फिर गया, तभी से रोमवासियों का पतन प्रारंभ हो गया ।। रोम विषय-भोग में ऐसा डूबा, आलस्य में ऐसा सोया कि कि आज तक उससे मुक्त न हो सका ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने कर्मठता को उन्नति एवं विलासिता को अवनति का कारण बताते हुए चरित्र और आचरण में कर्मठता को महत्व देने की प्रेरणा दी है ।।
(2) भाषा- प्रभावपूर्ण एवं परिमार्जित ।।
(3) शैली-विचारप्रधान एवं विवेचनात्मक ।।

(ञ) आचरण का रेडियम………………………………………………………………………………………. वह मिल सकता है?
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- लेखक ने आचरण को बहुत मूल्यवान् और परिश्रम-साध्य बताया है ।। इस बहुमूल्य आचरण की प्राप्ति कठोर साधना
और दृढ़ इच्छा शक्ति से होती है ।।

व्याख्या– लेखक के अनुसार रेडियम एक बहुमूल्य और प्रकाशयुक्त धातु होती है, जिसे बड़े प्रयत्न से प्राप्त किया जाता है ।। हमारा आचरण भी रेडियम की तरह बहुत मूल्यवान और प्रकाशवान है ।। आचरण चाहे किसी व्यक्ति विशेष का हो, चाहे समाज का और चाहे विश्व समुदाय का; उसका निर्माण बड़ी कठिनाई और परिश्रम से होता है ।। जैसे रेडियम का एक कण समुद्र के अत्यधिक जल को उड़ाकर हाथ लगता है, उसी प्रकार सत् आचरण की प्राप्ति भी सारी प्रकृति को खाक बनाए बिना, उसे भाप बनाकर उड़ाए बिना नहीं होती है ।। वेदान्तशास्त्रियों के समान सृष्टि को मिथ्या या माया कहने से हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।।

आचरण की प्राप्ति के लिए तो प्रकृति की आन्तरिक स्थिति में प्रवेश कर अपने अहं को मिटाकर, आचरण के तत्व को निकालकर मिथ्या प्रकृति को उड़ा देना होगा ।। तात्पर्य यह है कि प्रकृति में जो सारभूत तत्व है, उसे ग्रहण कर असार तत्व को छोड़ देना है, किन्तु यह काम सरल नहीं है ।। यह समुद्र मन्थन जैसा दुष्कर और कष्टसाध्य काम है ।। जब देवताओं और राक्षसों ने समुद्र को मथा, तब कहीं थोड़ा-सा अमृत मिल पाया था ।। ठीक इसी तरह सारे विश्व के कण-कण को टटोलने के बाद आचरणरूपी स्वर्ण बहुत कम मात्रा में मिल सकेगा ।। आलसियों के लिए तो आचरण प्राप्ति की कल्पना भी असंभव है ।।


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) आन्तरिक प्रकृति से तात्पर्य दया, शील, स्नेह, करुणा आदि सद्गुणों तथा मिथ्या प्रकृति से तात्पर्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया आदि विकारों से है ।।
(2) भाषा- शुद्ध साहित्यिक और अलंकृत ।।
(3) शैली- आलंकारिक, विवेचनात्मक और कवित्वपूर्ण ।।
(4) वाक्य-विन्यास- सुगठित ।।
(5) शब्द चयन- विषय-वस्तु के अनुरूप ।।


(ट) हिन्दुओं का संबंध …………………………….ओर जा रहे हैं ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने आचरण एवं समाज के उत्थान के लिए कठोर भौतिक कर्तव्यों की पृष्ठभूमि के महत्व को स्पष्ट किया है ।।


व्याख्या– लेखक सरदार पूर्णसिंह जी का कहना है कि हिन्दुओं की अवनति का मुख्य कारण उनको अतीत का गौरव में खोए रहना है ।। यदि उनका सम्बन्ध किसी प्राचीन असभ्य जाति के साथ होता तो उनके वर्तमान वंश में भी ऐसे मनुष्य होते जो अधिक बलशाली होते ।। इनमें ऋषि भी होते और पराक्रमी वीर भी, सामान्य भी होते तो धैर्यशाली वीर पुरुष भी ।। परन्तु आजकल हिन्दू लोग अपना पूर्वज ऋषियों; जिनकी गाथाएँ उपनिषदों-पुराणों में उपलब्ध हैं; के पवित्र और प्रेम-जीवन को जानकर अहंकार के भाव से भरे हुए प्रसन्न हुए जा रहे हैं ।। लेकिन उनके त्यागयुक्त जीवन का अनुकरण करने की शक्ति इनमें दिखाई नहीं पड़ रही है ।। इसी का परिणाम है कि ये दिन-प्रतिदिन पतन के गर्त में गिरते जा रहे हैं और इन्हें अपने उत्थान के लिए भी कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ रहा है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने रेडियम के रूपक के माध्यम से, आचरण के महत्व को स्पष्ट किया है ।।
(2) भाषा- साहित्यिक और परिष्कृत ।।
(3) शैली- विवेचनात्मक ।।

(ठ) आचरण की सभ्यता …………………………………………………………..मनुष्य का स्वदेश है ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक द्वारा आचरण का स्वरूप और उसका व्यापक क्षेत्र स्पष्ट किया गया है ।।


व्याख्या– आचरण की सभ्यता की अपनी निराली विशेषता होती है, उसमें किसी प्रकार का द्वन्द्व, वैर या विरोध नहीं होता ।। शरीर, मन और मस्तिष्क में शांति रहती है ।। उसमें न तो विद्रोह का भय होता है और न ही युद्ध की चिन्ता सर्वत्र सुख-शांति का राज्य रहता है ।। वहाँ ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी का भी भेदभाव देखने को नहीं मिलता, अपितु एक आनन्दमय समरसता के दर्शन होते हैं; प्रेम और एकता का साम्राज्य होता है ।। वहाँ ईश्वरीय भावों से परिपूर्ण मानव-प्रेम को ही महत्व दिया जाता है ।। आचरण की ऐसी सभ्यता जब आती है, तब नीले आकाश से वेदमन्त्र सुनाई देते हैं, ज्ञान का सूर्योदय होता है और विकसित कमल के समान नर-नारियों के हृदय खिल जाते हैं ।। उनके हृदय में ईर्ष्या, घृणा, द्वेष और शत्रुता के भाव लुप्त हो जाते हैं और उनके हृदय करूणा, प्रेम, उदारता आदि सद्भावों से भर जाते हैं ।। चारों ओर प्रभात जैसा सरस और सुखद वातावरण व्याप्त हो जाता है ।। नारद जी की वीणा का मधुर और मोहक स्वर सुनाई देने लगता है, ध्रुव के शंख की ध्वनि वातावरण को आनंद से भर देती है और प्रह्लाद का नृत्य हमारे जीवन में उल्लास भर देता है ।। शिव का डमरू चेतना उत्पन्न कर देता है और कृष्ण की बाँसुरी का मधुर स्वर प्रेम ।। जहाँ ऐसी ध्रुव-धीरता हो, ऐसा प्रेम, सद्भाव और आत्मीयता हो तथा जहाँ ऐसी समरसता और आह्लाद हो, वही आचरण की सभ्यता का सुनहरा देश है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) आचरणशील देश में प्रेम और सद्भाव का वातावरण रहता है ।। लड़ाई-झगड़े, ऊँच-नीच और अमीरी-गरीबी का भेदभाव नहीं होता ।।
(2) आचरण की सभ्यता से प्रेम, उल्लास, स्फूर्ति और पवित्रता का वातावरण व्याप्त हो जाता है ।।
(3) प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक के उदात्त विचारों का प्रकाशन हुआ है ।।
(4) भाषा- सरल, सहज और सरस खड़ी बोली ।।
(5) शैली- काव्यमयी, अलंकृत और भावात्मक ।।
(6) उपमा-विधान- विभिन्न प्रकार की उपमाओं का प्रयोग लेखक ने ऐसे सुन्दर ढंग से किया है कि भाषा का प्रवाह कहीं भी अवरुद्ध नहीं होता ।।

2– निम्नलिखित सूक्तिपरक वाक्यों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) आचरण की सभ्यता मय भाषा सदा मौन रहती है ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘सरदार पूर्णसिंह’ द्वारा लिखित ‘आचरण की सभ्यता’ नामक निबन्ध से अवतरित है ।।

प्रसंग– प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में सहृदय लेखक ने अत्यधिक प्रभावी ढंग से आदर्श आचरण के महत्व का दिग्दर्शन कराया है ।। लेखक को ‘कथनी’ से ज्यादा ‘करनी’ में विश्वास है ।।

व्याख्या– आचरण की भाषा का कोई लिखित ग्रन्थ नहीं है और न ही उसका कोई शब्दकोश ।। आचरण की भाषा सदैव मूक और इसका प्रयोग व्यवहार के माध्यम से ही किया जाता है ।। आचरण के कोश में नाममात्र के लिए भी कोई शब्द नहीं है ।। वस्तुत: उसके सभी पृष्ठ पूरी तरह कोरे हैं ।। इसकी ध्वनि मूक है ।। सभ्यता का आचरण स्वयं को व्यक्त करता हुआ भी अव्यक्त और मौन रहता है तथा आकर्षक राग गाता हुआ भी राग के अन्दर ही विद्यमान रहता है ।। इसके मीठे वचनों में उसी प्रकार की मूक भावना निहित रहती है, जिस प्रकार किसी बच्चे की तोतली बोली में एक आकर्षक मौन छिपा रहता है ।। बोली स्पष्ट न होने पर भी उस बच्चे की सभी बातें स्पष्ट हो जाती है ।।

(ख) आचरण के मौन व्याख्यान से मनुष्य को एक नया जीवन प्राप्त होता है ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति के अंतर्गत यह स्पष्ट किया गया है कि सदाचारी व्यक्ति का ही दूसरों के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है ।।
व्याख्या- लेखक का मत है कि सदाचार सम्बन्धी पुस्तकों का अध्ययन करने से अथवा उपदेशकों के व्याख्यान सुनकर कोई भी व्यक्ति सदाचारी नहीं बन सकता ।। यदि कोई व्यक्ति आदर्श आचरण करता है तो ऐसे सदाचारी व्यक्ति का आचरण, दूसरों को अवश्य प्रभावित करता है ।। ऐसा व्यक्ति अपने मुख से कुछ भी न कहे तो भी उसके आचरण से सम्बन्धित विभिन्न क्रियाकलाप, मौन रूप से दूसरों को प्रभावित करते हैं ।। इस प्रकार शब्द की अपेक्षा व्यक्ति का आचरण ही दूसरों को प्रेरित करने तथा उनके जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने की दृष्टि से अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध होता है ।।

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन सम्पूर्ण हल

(ग) सूखे काष्ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में लेखक का कहना है कि सदाचरण से निर्जीव में भी जीवन का संचार हो जाता है ।।

व्याख्या- सरदार पूर्णसिंह ने आचरण की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि बड़ी-बड़ी बातें करना, पुस्तकें लिखना, दूसरों को उपदेश देना आदि आसान बातें हैं, किन्तु ऊँचे आदर्शों को अपने आचरण में उतारना अत्यन्त कठिन है ।। सामान्यजन पर सबसे अधिक प्रभाव सभ्य आचरण का ही पड़ता है ।। परिश्रम, प्रेम और सरल व्यवहार ही इसका पैमाना है ।। यदि कोई व्यक्ति ऐसा आचरण करता है तो वह दूसरों को प्रभावित अवश्य करता है ।। ऐसा व्यक्ति यदि अपने मुख से कुछ भी नहीं कहता, तो भी उसके मौन का प्रभाव दूसरों पर अवश्य पड़ता है और नये-नये विचार स्वत: ही स्पष्ट होने लगते हैं ।। निर्जीव पेड़-पौधे में भी जीवन का संचार हो जाता है; अर्थात् वे हरे-भरे दिखाई देने लगते हैं और सूखे कुओं में भी जल भर जाता है ।। लेखक के कहने का आशय यह है कि व्यक्ति का सदाचरण ही दूसरों को प्रेरित करने, उनके जीवन में उचित परिवर्तन करने की दृष्टि से अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध होता है ।।

(घ) प्रेम की भाषा शब्दरहित है ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- लेखक के विचार से प्रेम और सदाचरण मौन स्थिति में ही अपना प्रभाव डालते हैं ।। इन्हें प्रकट करने के लिए किसी भाषा की आवश्यकता नहीं होती ।।


व्याख्या– प्रेम को शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता ।। प्रेम तो मानव के व्यवहार और उसकी चेष्टाओं से ही प्रकट हो सकता है ।। हमारे ललाट की रेखाएँ, हमारे नेत्र और हमारे कपोल अपनी भिन्न-भिन्न मुद्राओं से हमारे हृदय के भावों को व्यक्त कर देते हैं ।। जीवन का सार-तत्व भी शब्दों की सीमा से परे हैं, उसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता ।। मानव का सदाचार न तो लम्बे-लम्बे व्याख्यानों से प्रकट किया जा सकता है और न किसी धार्मिक क्रिया के माध्यम से ही उसे व्यक्त किया जा सकता है ।।

(ङ) आचरण भी हिमालय की तरह ऊँचे कलशवाला मन्दिर है ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- सरदार पूर्णसिंह ने प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में आचरण सम्बन्धी कतिपय विशिष्ट गुणों का उल्लेख करने के लिए आचरण की तुलना हिमालय से की है ।।


व्याख्या- हिमायल का निर्माण धीरे-धीरे बहुत समय में हुआ है; अतः उसका स्थायित्व विश्वसनीय है ।। हिमालय सर्वोच्च है और मन्दिर के समान पवित्र भी ।। बर्फ की चोटियों से ढका हिमालय अत्यन्त सुन्दर है ।। आचरण भी दीर्घकाल में निर्मित होने वाले मानव-व्यक्तित्व के महान् एवं पवित्र ऊँचे कलश वाले मन्दिर की भाँति है, अतः वह हिमालय के समान ही स्थायी और विश्वसनीय है ।।

(च) पुस्तकों में लिखे हुए नुस्खों से तो और भी अधिक बदहजमी हो जाती है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- यहाँ लेखक ने यह स्पष्ट कने का प्रयास किया है कि मनुष्य के आचरण के निर्माण में धर्मोपदेश तथा शास्त्र-वचनों का कोई विशेष महत्व नहीं होता ।।


व्याख्या- आदर्श आचरण का विकास पुस्तकों में लिखे नियमों अथवा उपदेशों के अध्ययनमात्र से सम्भव नहीं है; क्योंकि पुस्तकें भाषा पर आधारित होती हैं और उनमें दी गई विषय-वस्तु तर्क-वितर्क पर, जबकि आचरण में न तो तर्क-वितर्क का महत्व है और न ही पुस्तकीय भाषा का ।। यहाँ तो केवल व्यक्ति का व्यवहार ही आचरण की भाषा का काम करता है ।। शब्दों पर आधारित पुस्तकें तो साधारण जीवन व्यतीत करने वालों को ही सन्तुष्ट कर सकती हैं, सभ्य आचरण के निर्माण में इनका कोई विशेष महत्व नहीं होता ।। पुस्तकों में निहित वह ज्ञान व्यक्ति के जीवन में और अधिक भ्रान्ति उत्पन्न कर उसे भटका देता है ।।


(छ) आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्य है ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।


प्रसंग- इस सूक्ति-वाक्य में आचरण को जीवन का परम उद्देश्य बताकर उसकी महत्ता को प्रतिपादित किया गया है ।।


व्याख्या– विद्वान् लेखक ने प्रस्तुत सूक्तिपरक वाक्य में कहा है कि मानव-जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य चरित्र का विकास करना है ।। इसके लिए हमें प्रकृति से, हृदय से, शरीर से और आध्यात्मिक जीवन से जो कुछ भी पोषक तत्व मिलें, उन्हें संग्रहीत करना चाहिए ।। इसके बाद अपनी विशिष्ट रीति से अपने आप को ढालकर आदर्श बनाना चाहिए ।। आचरणहीन व्यक्ति कदापि उन्नति नहीं कर सकता, अतएव उन्नत जीवन के लिए आचरण का विकास करना ही होगा ।।

(ज) पवित्र अपवित्रता उतनी ही बलवती हैं, जितनी कि पवित्र पवित्रता ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में आचरण का निर्माण करने वाले तत्वों पर प्रकाश डाला गया है ।।

व्याख्या- सरदार पूर्ण सिंह ने प्रस्तुत सूक्ति में बताया है कि अपवित्रता में भी आचरण के विकास की संभावना विद्यमान रहती है ।। मनुष्य के विशाल जीवन में आचरण के विकास में नाना प्रकार के ऊँच-नीच और भले-बुरे विचार, अमीरी-गरीबी, उन्नतिअवनति ये सभी बातें सहायता पहुँचाती हैं आचरण के विकास में पवित्र पवित्रता जो सहायता देती है, वही सहायता पवित्र अपवित्रता भी देती है ।। गरीब और निम्न कुल में पले और निम्न कार्यों को करने वाले व्यक्ति भी अपने आचरण का उसी प्रकार विकास कर सकते हैं, जिस प्रकार ऊँचे कुल में पले अमीर एवं उच्च कार्यों को करने वाले व्यक्ति करते हैं ।। मनुष्य चाहे जिस परिस्थिति में पला हो, वह अपने आचरण का विकास कर सकता है ।। जिस प्रकार कोयला सैकड़ों वर्षों तक जमीन में दबे रहने के पश्चात् हीरे का रूप ले लेता है, उसी प्रकार व्यक्ति की चेतना भी क्रमशः पवित्र होती रहती है ।।

(झ) संसार की खाक छानकर आचरण का स्वर्ण हाथ आता है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- लेखक का मत है कि सारे विश्व की खाक छानने पर ही मनुष्य को मूल्यवान् आचरण का एक-आध कण प्राप्त हो पाता है ।।

व्याख्या- जिस प्रकार स्वर्ण क्षेत्र के अपरिमित धूल-कणों को छानने के बाद थोड़े-से स्वर्ण की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व की खाक छानने पर ही मनुष्य को आचरणरूपी मूल्यवान् स्वर्ण प्राप्त हो सकता है ।। निश्चय ही आलस्य में बैठे रहने पर हम आचरण को प्राप्त नहीं कर सकते ।। वस्तुतः इसके लिए कठोर एवं सतत् परिश्रम अपेक्षित है ।।

(ञ) मानसिक सभ्यता के होने पर ही आचरण-सभ्यता की प्राप्ति सम्भव है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में आचरण की सभ्यता के विकास हेतु मानसिक सभ्यता की आवश्यकता पर बल दिया गया है ।।

व्याख्या- लेखक ने अनुसार आचरण की सभ्यता अथवा सदाचरण; किसी भी प्रकार की विद्या, कला, साहित्य अथवा राजत्व से भी अधिक श्रेष्ठ है ।। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना सर्वोपरि लक्ष्य, आचरण की सभ्यता के विकास को ही निर्धारित करना चाहिए ।। आचरण की सभ्यता का विकास, मानसिक सभ्यता के विकसित होने पर ही सम्भव हो पाता है ।। मानसिक सभ्यता का तात्पर्य है- वैचारिक रूप से आदर्श विचारों को अपने मन में स्थान देना और प्रेम, करूणा व सहयोग आदि की भावनाओं का विकास करना ।। मानसिक सभ्यता का उदय होने पर धीरे-धीरे मन की द्वन्द्वात्मक स्थिति समाप्त हो जाती है; अर्थात् मन स्थिर हो जाता है और व्यक्ति में श्रेष्ठ आचरण का विकास हो जाता है ।।


अन्य परीक्षोपयोगीप्रश्न
UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ

1—- ‘आचरण की सभ्यता’ निबन्ध का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।
उतर– – ‘आचरण की सभ्यता’ सरदार पूर्णसिंह द्वारा लिखित एक भावात्मक निबन्ध है ।। लेखक का कहना है कि आचरण की सभ्यता विद्या, कला, कविता, साहित्य, धन-सम्पदा और राज-पद से अधिक प्रकाशयुक्त है ।। आचरण की सभ्यता को प्राप्त करने वाला एक निर्धन मनुष्य भी राजाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है ।। आचरण में वह अपूर्व शक्ति है, जो व्यक्ति को कुछ से कुछ बना देती है ।। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में आचरण का पालन करता हो और कला, साहित्य व संगीत में भी रुचि रखता हो तो मात्र आचरण की पवित्रता के कारण ही उसे इन कलाओं में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हो जाती है ।। आचरण के कारण ही उसका स्वर अधिक मधुर हो जाता है, उसके ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल जाता है ।। उस समय ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि बोलने वाला अर्थात् वक्ता कुछ नहीं कह पाता और लिखने वाले की लेखनी ही रुक जाती है ।। आचरण की सभ्यता से युक्त मूर्तिकार के सम्मुख सदैव नई छवि उपस्थित रहती है ।।


लेखक कहते हैं कि दूसरे व्यवहारों की तरह आचरण की भी अपनी एक भाषा होती है, किन्तु वह भाषा मौन की होती है ।। इसका दूसरे मनुष्य पर गुप्त प्रभाव पड़ता है ।। आचरण के कोश में नाममात्र को भी शब्द नहीं है ।। उस कोश के पन्ने बिलकुल कोरे हैं ।। यह सभ्य आचरण राग की भाँति मधुर प्रभाव उत्पन्न करता है ।। विनय, दया, प्रेम, उदारता आदि गुणों से सभ्याचरण प्रकट हो जाता है, इन सात्विक गुणों के द्वारा वह दूसरों के मन को जीत लेता है ।। अतः इन गुणों को सभ्य आचरण का मौन व्याख्यान कहा जाता है ।। सदाचरण आत्मा पर प्रभाव डालकर धीरे-धीरे मनुष्य की आत्मा को अपने रंग को रंग लेता है ।। इस सदाचरण का न कोई रंग, न कोई आकार और न ही कोई दिशा है ।। आत्मा के सदाचरण से ही इसकी सुगंध फैलती है ।। सदाचरण से मन और हृदय की भावनाएँ परिवर्तित हो जाती है ।। आचरण की एक बूंद विश्व को भिगो देती है ।। सदाचरण के द्वारा निर्जीव में भी जीवन का संचार हो जाता है ।। सूखे कुएँ जल से भर जाते हैं ।। लेखक कहता है कि सदाचारी मनुष्य अपने श्रेष्ठ आचरण से दूसरों को प्रभावित करता है ।। आचरण की मौनरूपी भाषा बहुत ही शक्तिशाली, प्रभावपूर्ण और सार्थक होती है, इसका जितना प्रभाव पड़ता है, उतना मातृभाषा, साहित्य की भाषा या किसी अन्य देश की भाषा का नहीं पड़ता ।। केवल आचरण की भाषा दिव्य और आलौकिक है ।।

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ


अतः आचरण की भाषा के सामने संसार की सभी भाषाएँ तुच्छ, प्रभावहीन और फीकी है ।। कहने का आशय यह है कि व्यक्ति का आचरण ऐसा होना चाहिए कि लोग उससे प्रभावित होकर उसका अनुकरण करने के लिए प्रेरित हो ।। चन्द्रमा की मौन हँसी तथा तारों के मौन कटाक्षों का प्रभाव तो केवल किसी कवि के हृदय में झाँककर ही अनुभव किया जा सकता है ।। लेखक कहता है कि प्रेम को शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता ।। मनुष्य के नेत्र, कपोल अथवा माथे की विभिन्न चेष्टाएँ या मुद्राएँ ही हृदय के भाव को व्यक्त कर देती है, जो आचरण, प्रभावकारी, स्थायी और शील से युक्त होता है, वही सभ्य आचरण होता है ।। वह वेद, कुरान आदि धार्मिक ग्रन्थों या धर्मोपदेशों से भी व्यक्त नहीं होता है ।। इसे प्राप्त करने के लिए जीवन की गहराई में प्रवेश करना पड़ता है, विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है तथा अपने मन पर नियन्त्रण करना पड़ता है ।। जिस प्रकार सुनार अपने हथौड़े की मंद-मंद चोट से सुन्दर आभूषण गढ़ता जाता है, वैसे ही प्रकृति के कार्यकलाप तथा मनुष्य का मधुर एवं विनम्र व्यवहार ही किसी के भी आचरण को सँवारता है ।।

लेखक का कहना है कि बर्फ से ढका हुआ हिमालय पर्वत इस समय अति सुन्दर, अति ऊँचा और गौरवशाली दिखाई देता है ।। किन्तु इसका निर्माण एक-दो दिन में ही नहीं हो गया, उसके निर्माण में प्रकृति को अनगिनत वर्षों तक कठोर परिश्रम करना पड़ा है ।। प्रकृति ने अनगिनत सदियों तक इसे बड़े प्रयत्न से सँवारा है, तब कहीं यह गर्वोन्नत हिमालय बन पाया है ।। सभ्याचरण भी हिमालय की तरह ऊँचे कलश वाला मन्दिर है ।। आचरण का निर्माण मदारी का जादू नहीं है, जो दर्शकों को धोखा देकर क्षण भर में ही अपनी हथेली पर आम का पेड़ उगा देता है ।।

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ


इसके निर्माण में अनन्त समय लगता है ।। सूर्य, चन्द्रमा, तारागण और पृथ्वी को बने हुए इतना समय बीतने के बाद भी, आज तक आचरण के सुंदर रूप के पूर्ण दर्शन नहीं हो सके ।। लेखक कहते हैं कि पुस्तकों में लिखे उपदेशों तथा नियमों के अध्ययन से आचरण का विकास संभव नहीं है ।। सारे वेदों को पढ़कर भी आचरण का विकास नहीं हो सकता ।। ईश्वर की भाषा भी मौन है और वह भी आचरण के द्वारा अपने आपको व्यक्त करता है ।। वह शब्द और भाषा से परे की चीज है जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है ।। पुस्तकीय ज्ञान किसी मनुष्य को उच्चकोटि का ज्ञान तो प्राप्त करा सकता है, किन्तु उसे सदाचारी भी बना दे, यह आवश्यक नहीं ।। यह सब कार्य तो किसी का सदाचरण ही कर सकता है ।। लेखक ने स्पष्ट किया है कि मनुष्य का आचरण किसी प्राकृतिक पदार्थ को देखकर तो बदल सकता है, किन्तु पुस्तकीय ज्ञान अथवा उपदेशों के लगातार प्रयोग भी उसके आचरण पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता ।। इसका प्रभाव ऐसा होता है जैसे- फूल की पंखुड़ियों के स्पर्श से आनन्दपूर्ण रोमांच उत्पन्न होता है या शीतल जल क्रोध एवं विषय-वासना को शांत कर देता है, अथवा बर्फ को देखकर मन पवित्र हो जाता है ।। परन्तु आचरण के लिए कोई उपदेश ठीक वैसे ही बेकार है-जैसे अंग्रेजी भाषा में कारलायल जैसे विद्वान का लिखा हुआ कोई व्याख्यान बनारस के पण्डितों के लिए शोरगुल से अधिक नहीं है ।।
हम पर सदाचरण का सदैव प्रभाव पड़ता है ।।

यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म या जाति की कन्या की रक्षा के लिए अपने प्राणों को दाँव पर लगा दे तो उसके आचरण की मौन भाषा सभी व्यक्तियों को समझ आ जाती है ।। प्रेम के आचरण को सभी स्वयं ही समझ लेते हैं ।। मनुष्य के आचरण को सही रूप में ढ़ालने के लिए अमीरी-गरीबी और ऊँच-नीच के अलावा अच्छे-बुरे विचारों एवं परिस्थितियों का समान रूप से योगदान होता है ।। यदि जीवन की पवित्र पवित्रता आचरण को अच्छा रूप देती है तो पवित्र पवित्रता आचरण को सँवारने में भी सहयोग करती है ।। लेखक कहते हैं कि धर्म-ग्रन्थों में अनेकानेक उपदेश भरे हैं, किन्तु उनके अनुयायी उन उपदेशों के अनुरूप आचरण नहीं करते ।। सभ्य आचरण के अभाव में हमारे धर्म और सम्प्रदाय हमारे मन में विद्वेष और घृणा उत्पन्न करते हैं ।। इसी कारण चारों और अत्याचार और हिंसा का बोलबाला हो रहा है ।। मनुष्य का मनुष्य के प्रति प्रेम नहीं, क्योंकि हमारे हृदय में पवित्रता नहीं है ।। मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य आचरण का विकास करना है ।। आचरण के विकास को सम्पूर्ण पर्यावरण प्रभावित करता है, चाहे वह पर्यावरण प्राकृतिक हो या शारीरिक ।। धर्म ही मनुष्य के आचरण की उन्नति करता है, अतः आचरण के विकास के लिए धर्म की व्यापक व्यवस्था करनी पड़ेगी ।। प्रत्येक मनुष्य का कुछ न कुछ कर्त्तव्य होता है, लेकिन उस कर्त्तव्य को धर्म से जोड़ना परमावश्यक है ।। आचरणशील महात्माओं ने स्वयं का मार्ग बनाया तथा लोगों का मार्ग प्रशस्त किया ।।
UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ

हमें भी प्रतिदिन अपने जीवन को स्वयं बनाना होगा और अपनी जीवन रूपी नैया को बनाकर इसे चलाना होगा ।। पूर्णसिंह जी कहते हैं कि यदि कोई लोहार अपना कार्य भली-भाँति करता है तो यही ज्ञान उसके लिए पर्याप्त है यदि वह मोक्ष मार्ग को नहीं पहचानता तो कोई बात नहीं, वह उसके लिए आवश्यक भी नहीं है ।। वे कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपना आचरण ठीक रखता है ।। अपने कर्तव्यों का पालन भली भाँति करता है, उसकी आत्मा पवित्र है और उसके कर्म शुद्ध है तो उसके लिए इतना ही पर्याप्त है उसे अध्यात्मिकता और दर्शन के गूढ़ रहस्यों को जानने से कोई प्रयोजन नहीं ।। लेखक कहता है कि मैं कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं करता परन्तु मैं अपनी खेती, हल, बैलों को प्रात:काल उठकर प्रणाम करता हूँ यही मेरे लिए पर्याप्त है ।। यदि कोई मेरे साथ धोखा करे तो उससे मुझे कोई हानि नहीं होती ।। लेखक कहता है कि रोमवासी वीर और परिश्रमी थे परन्तु जब वे साहित्य, संगीत जैसी कलाओं में सीमा से अधिक डूब गए, तब वे आलसी और लम्पट बन गए ।। इससे उनका पतन हो गया ।।


इसके विपरीत ऐंग्लो-सैक्सन जाति के यूरोपवासियों का जीवन सदैव परिश्रमी रहा जिससे वे उन्नति के शिखर पर पहुँच गए ।। लेखक कहता है कि धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को सदा ही कमर बाँधकर तैयार रहना होगा ।। जिस प्रकार रेडियम जैसी बहुमूल्य और प्रकाशयुक्त धातु को बड़े प्रयत्नों से प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार आचरण का निर्माण भी बड़ी कठिनाई और परिश्रम से होता है ।। आचरण की प्राप्ति के लिए तो प्रकृति की आन्तरिक स्थिति में प्रवेश कर अपने अहं को मिटाकर, आचरण के तत्व को निकालकर मिथ्या प्रकृति को उड़ा देना होगा ।। सारे विश्व के कण-कण को टटोलने के बाद आचरणरूपी स्वर्ण बहुत कम मात्रा में मिल सकेगा ।। आलसियों के लिए आचरण प्राप्ति की कल्पना भी असम्भव है ।। लेखक कहता है कि यदि हिन्दु किसी प्राचीन असभ्य जाति के होते तो उनके वर्तमान वंश में भी ऐसे मनुष्य होते जो बलशाली होते ।। इनमें ऋषि, पराक्रमी वीर, सामान्य, धैर्यशाली वीरपुरुष भी होते ।।

परन्तु आजकल हिन्दु लोग अपने पूर्वजों के पवित्र और प्रेममय जीवन को जानकर अहंकार के भाव भरे हुए प्रसन्न हुए जा रहे हैं ।। लेकिन उनके त्यागयुक्त जीवन का अनुकरण करने की शक्ति इनमें दिखाई नहीं पड़ रही है ।। इसी कारण इनका पतन होता जा रहा है ।। प्राचीनकाल में यूरोप के लोग असभ्य थे, परन्तु आजकल हम असभ्य बन गए हैं ।। अपने समाज को ज्ञान-विज्ञान की चरम सीमा पर पहुँचाना और सदा ऋषियों को उत्पन्न करने योग्य समाज का निर्माण करना ही जीवन के नियमों का पालन करना है तथा कठोर परिश्रम और कर्तव्यों का अनुपालन करना ही श्रेष्ठ जीवन शैली है ।। लेखक कहते हैं कि धर्म के आचरण की उपलब्धि दिखावटी आडम्बरों-आचरणों से नहीं होती, यदि ऐसा होता तो भारत के समस्त निवासी अब तक सूर्य के समान विशुद्ध आचरण से सम्पन्न हो गए होते ।।


व्यक्ति प्राकृतिक सौन्दर्य का दिव्य आनन्द तभी ले सकता है जब वह आत्मिक रूप से सन्तुष्ट हो ।। लेखक कहता है कि जब व्यक्ति प्राकृतिक रूप से सभ्य होगा तभी उसके अन्दर मानसिक सभ्यता उत्पन्न होगी ।। यदि हमारा व्यवहार सभी के प्रति विनम्र है तो ही हमारे अन्दर विनम्रता विकसित होगी, अन्यथा नहीं और इस मानसिक सभ्यता की स्थिरता भी तब ही रहेगी ।। जब तक निर्धन पुरुष पाप कर्म करके अपना पेट भरता है तब तक धनवान पुरुष के शुद्ध आचरण की परीक्षा नहीं हो सकती क्योंकि यदि धनवान को पूर्ण मनुष्य बनना है तो उसे अपने आचरण को सुन्दर और श्रेष्ठ बनाना होगा ।। आचरण की सभ्यता की अपनी विशेषता निराली है ।। उसमें किसी प्रकार का बैर, द्वन्द्व नहीं होता ।। शरीर, मन और मस्तिष्क में शांति रहती है ।। वहाँ कोई भी भेदभाव नहीं मिलता, अपितु एक आनन्दमय समरसता के दर्शन होते हैं ।। आचरण की ऐसी सभ्यता जब आती है तब नीले आकाश से वेदमन्त्र सुनाई देते हैं, ज्ञान का सूर्योदय होता है और कमल की तरह नर-नारियों के हृदय खिल जाते हैं ।। चारों ओर प्रभात जैसा वातावरण हो जाता है ।। नारद की वीणा का मधुर मोहक स्वर सुनाई देने लगता है ।। जहाँ ऐसी ध्रुव वीरता हो प्रेम, सद्भाव और आत्मीयता हो तथा जहाँ ऐसी समरसता और आह्लाद हो वहीं आचरण की सभ्यता का सुनहरा देश है ।।


2– लेखक के अनुसार आचरण की सभ्यता का देश निराला है ।। इस निराले देश की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
उतर– – लेखक ने आचरण की सभ्यता के देश को इसलिए निराला कहा है क्योंकि इस देश में किसी प्रकार का द्वन्द्व, वैर या विरोध नहीं होता ।। शरीर, मन और मस्तिष्क में शांति रहती है ।। उसमें न तो विद्रोह का भय रहता है और न ही युद्ध की चिन्ता ।। चारों ओर सुख-शांति का राज्य रहता है ।। वहाँ ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी का भी भेदभाव देखने को नहीं मिलता अपितु एक आनन्दमय समरसता के दर्शन होते हैं ।। प्रेम और एकता का साम्राज्य होता है ।। वहाँ तो तुच्छ स्वभाव से परे, ईश्वरीय भावों से परिपूर्ण मानव-प्रेम को ही महत्व दिया जाता है ।।


3– ‘आचरण की सभ्यता’निबन्ध के माध्यम से लेखक क्या सन्देश देना चाहता है?
उतर– आचरण की सभ्यता निबन्ध के माध्यम से लेखक आचरण के विभिन्न पक्षों का वर्णन कराकर मानव-जीवन में उसके महत्व पर प्रकाश डालना चाहता है ।। लेखक संदेश देता है कि सदाचरण अपूर्व वस्तु है ।। जिस व्यक्ति को आचरण का यह भंडार मिल जाता है उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता ।। सदाचरण सभी विधाओं, कलाओं, साहित्य एवं राजत्व से भी श्रेष्ठ है ।। सदाचरण की मौन भाषा मन के विभिन्न क्रिया-कलापों से स्वयं प्रकट होती है ।। सदाचरण के निर्माण में दीर्घकाल लगता है ।। इस प्रकार सदाचरण की प्राप्ति आसानी से नहीं होती ।। आचरण की सभ्यता के विकसित होने पर मानव में मानसिक सभ्यता का उदय होता है और समस्त द्वन्द्व स्वयं समाप्त हो जाते हैं ।। इस निबन्ध के माध्यम से लेखक ने सर्वनात्मक एवं रचनात्मक कार्यो में लगने का भी संदेश दिया है ।।

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