UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 5 शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द)

UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 5 शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द) सम्पूर्ण हल

शिक्षा का उद्देश्य (डॉ०  सम्पूर्णानन्द)
UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 4
UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 4

लेखक पर आधारित प्रश्न

1– डॉ– सम्पूर्णानंद का जीवन परिचय देते हुए इनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए ।।

उत्तर— लेखक परिचय- दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान, प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री व मर्मज्ञ साहित्यकार डॉ० सम्पूर्णानन्द का जन्म 1 जनवरी, सन् 1890 ई० को काशी के एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में हुआ था ।। इनके पिता का नाम श्री विजयानन्द था ।। इन्होंने बी– एस– सी– की परीक्षा क्वीन्स कॉलेज, वाराणसी तथा एल– टी– की परीक्षा ट्रेनिंग कॉलेज, इलाहाबाद से उत्तीर्ण की ।। ‘प्रेममहाविद्यालय’, वृन्दावन में ये अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए ।। इसके उपरान्त डूंगर कॉलेज, बीकानेर में इन्होंने ‘प्रधानाचार्य’ के पद को सुशोभित किया ।। सन् 1921 में महात्मा गाँधी के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम से प्रेरणा प्राप्त करके ये स्वतन्त्रता-आन्दोलन में कूद पड़े, जिस कारण कई बार इन्हें जेल-यात्रा भी करनी पड़ी ।। सन् 1926 में पहली बार कांग्रेस के टिकट पर विधान-सभा सदस्य चुने गए ।। सन् 1937 ई० में इन्होंने उत्तर प्रदेश के शिक्षामन्त्री के पद को सुशोभित किया ।। ये सन् 1954 ई० से सन् 1960 ई० तक दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे ।। सन् 1962 ई० में राजस्थान के राज्यपाल के पद को सुशोभित किया ।। सन् 1967 ई० में राज्यपाल के पद से मुक्त होने के बाद आप मृत्युपर्यन्त काशी विद्यापीठ के कुलपति रहे ।। 10 जनवरी, सन् 1969 ई० को काशी में ही इनका देहावसान हो गया ।।

डॉ० सम्पूर्णानन्द को हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी के साथ ही उर्दू व फारसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था ।। इतिहास, राजनीति, ज्योतिष, योग, विज्ञान व दर्शन इनके प्रिय विषय थे ।। राजनैतिक कार्यों में संलग्न रहते हुए भी इन्होंने अपना अध्ययन का क्रम जारी रखा ।। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सर्वोच्च उपाधि ‘साहित्य-वाचस्पति’ इन्हें प्रदान की गई ।। ‘समाजवाद’ नामक इनकी कृति पर हिन्दी-साहित्य सम्मेलन द्वारा इन्हें ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया गया ।।

कृतियाँ– इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ निम्नलिखित हैं

निबन्ध संग्रह– पृथ्वी से सप्तर्षि मण्डल, अन्तरिक्ष यात्रा, भाषा की शक्ति, चिद्विलास, ज्योतिर्विनोद ।।

राजनीति और इतिहास- मिस्त्र की राज्यक्रान्ति, चीन की राज्यक्रान्ति, आर्यों का आदिदेश, समाजवाद, अन्तर्राष्ट्रीय विधान, काशी का विद्रोह, भारत के देशी राज्य, सम्राट हर्षवर्धन ।।

सम्पादन– ‘मर्यादा’ हिन्दी मासिक, ‘टुडे’ अंग्रेजी दैनिक ।।

जीवनी– देशबन्धु चितरंजन दास, महात्मा गाँधी ।।

धर्म– नासदीय सूक्त की टीका, ब्राह्मण सावधान, गणेश ।।

फुटकर निबन्ध– जीवन और दर्शन ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? Bharat varsh Unnati kaise ho sakti hai

अन्य कृतियाँ- पुरुष सूक्त, स्फुट विचार, अधूरी क्रान्ति, भारतीय सृष्टि क्रम विचार, व्रात्यकाण्ड, हिन्दू देव परिवार का विकास, वेदार्थ प्रवेशिका ।।

2– डॉ० सम्पूर्णानन्द की भाषा-शैली की विशेषताएँबताइए तथा हिन्दी साहित्य में उनका स्थान बताइए ।।

उत्तर— भाषा शैली- डॉ० सम्पूर्णानन्द गम्भीर विषयों पर लेखनी चलाने वाले विद्वान रहे हैं; अत: इनकी भाषा-शैली प्रौढ़ व गम्भीर है ।। सम्पूर्णानन्द जी की भाषा सामान्यतः शुद्ध साहित्यिक भाषा है ।। इनकी भाषा में संस्कृत की तत्सम शब्दावली की प्रधानता है ।। इसका रूप शुद्ध, परिष्कृत और साहित्यिक है ।। अत्यन्त गम्भीर विषयों का विवेचन करते समय इनकी भाषा क्लिष्ट हो गई है ।। इनकी भाषा में मुहावरों व कहावतों का प्रयोग नहीं के बराबर है ।। अपवादस्वरूप कहीं-कहीं ‘गम गलत करना’, ‘धर्मसंकट में पड़ना’ आदि मुहावरों के प्रयोग मरुभूमि में नखलिस्तान सा दिखाई देता है ।।

सामान्यतया सम्पूर्णानन्द जी उर्दू के प्रयोग से बचे है, फिर भी उर्दू के प्रचलित शब्द इनकी भाषा में कहीं-कहीं मिल ही जाते है ।। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्णानन्द जी भाषा की दृष्टि से एक पारंगत साहित्यकार थे ।। डॉ० सम्पूर्णानन्द जी के निबन्धों के विषय प्रायः गम्भीर होते हैं; अतः इनकी शैली अधिकांशतः विचारात्मक है ।। इसमें इनके मौलिक चिन्तन को वाणी मिली है ।। इस शैली में प्रौढ़ता तो है ही; गम्भीरता, प्रवाह और ओज भी है ।। इनके धर्म, दर्शन और आलोचना संबंधी निबन्धों में गंवेषणात्मक शैली के दर्शन होते हैं ।। नवीन खोज और चिन्तन के समय इस शैली का प्रयोग हुआ है ।। विषय की स्पष्टता के लिए इन्होंने अनेक स्थलों पर व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग किया है ।। इसमें भाषा सरल, संयत, शुद्ध और प्रवाहमयी है ।। वाक्य प्राय: छोटे हैं ।। कहीं-कहीं ये सूक्ति-कथन भी करते चलते हैं; यथा – “एकाग्रता ही आत्मसाक्षात्कार की कुंजी है ।। ‘

इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं ये उद्धरण भी देते हैं ।। कुछ स्थलों पर इनकी शैली में भावात्मकता और आलंकारिकता आ गई है ।। कुल मिलाकर डॉ० सम्पूर्णानन्द की शैली विचारप्रधान, पाण्डित्यपूर्ण, प्रौढ एवं परिमार्जित है ।। हिन्दी साहित्य में स्थान- डॉ० सम्पूर्णानन्द हिन्दी के प्रकाण्ड पण्डित, कुशल राजनीतिज्ञ, मर्मज्ञ साहित्यकार, भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के ज्ञाता, गम्भीर विचारक तथा महान शिक्षाविद् आदि के रूप में जाने जाते हैं ।। इनके निबन्धों का हिन्दी-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान हैं ।। अपने विषय की सर्वप्रथम कृति होने के कारण, इनकी कई कृतियाँ अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं ।। एक मनीषी साहित्यकार के रूप में इनकी सेवाओं के लिए सम्पूर्ण हिन्दी-साहित्य जगत सदैव इनका ऋणी रहेगा ।।

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1– निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

(क) अध्यापक और समाज — — —- — — — — — — का उद्देश्य है ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘डॉ० सम्पूर्णानन्द’ द्वारा लिखित निबन्ध संग्रह ‘भाषा की शक्ति’ से ‘शिक्षा का उद्देश्य’ नामक निबन्ध से उद्धृत है ।।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने शिक्षा के उद्देश्य के निर्धारण पर प्रकाश डाला है ।।

व्याख्या- लेखक का विचार है आज अध्यापक और समाज के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि शिक्षा किसलिए दी जाए ? शिक्षा देने का उद्देश्य क्या हो ? शिक्षा के उद्देश्य के निर्धारण के पश्चात् ही विद्यार्थियों को पढ़ाए जाने वाले विषयों का निर्धारण सम्भव है ।। लेखक का मानना है कि शिक्षा देने का उद्देश्य स्वयं में स्वतंत्र नहीं है, अर्थात् किसी एक बिन्दु को लेकर शिक्षा के उद्देश्य का निर्धारण नहीं किया जा सकता है ।। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के जीवन के उद्देश्य से जुड़ा है, यह जीवन का उद्देश्य पुरुषार्थ से सम्बद्ध है इसलिए पुरुषार्थ का निर्धारण होने के बाद ही शिक्षा के उद्देश्य का निर्धारण किया जा सकता है ।। लेखक स्पष्ट करते हुए कहता है कि पुरुषार्थ की सफलता के लिए ही शिक्षा देना शिक्षा का उद्देश्य है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) भाषा- सरल ।। (2) शैली- विवेचनात्मक ।। (3) वाक्य-विन्यास- सुगठित, (4) शब्द चयनविषय-वस्तु के अनुरूप ।।

(ख) पुरुषार्थ दार्शनिक– — — — — — — — — — – — — — — — — — — — — कठिन हो जाएगा ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- विद्वान् लेखक ने मानव-जीवन के पुरुषार्थ को जानने से पहले, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक व्यापक दार्शनिक मत स्वीकार करने की प्रेरणा दी है ।।

व्याख्या- लेखक का विचार है कि मानव-जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य पुरुषार्थ की प्राप्ति है ।। पुरुषार्थ चार माने गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ।। इनमें सबसे बड़ा पुरुषार्थ मोक्ष है; अत: मानव-जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति करना है ।। पुरुषार्थ का सम्बन्ध दर्शन से है और दर्शन का जीवन से गहरा सम्बन्ध है ।। जीवन से सम्बन्ध रखने वाला दर्शन थोड़े-से विद्यार्थियों द्वारा पढ़ने योग्य विषय नहीं है, अपितु वह जीवन की प्रत्येक विचारधारा का नाम है ।। प्रत्येक समाज को अपने जीवन को व्यवस्थित रूप प्रदान करने के लिए एक व्यापक विचारधारा को स्वीकार करने की आवश्यकता है; जैसा कि आज के समाज में दिखाई भी दे रहा है ।। जाति के नाम पर, क्षेत्र और भाषा के नाम पर, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के नाम पर, प्रगतिशील और पिछड़ों के नाम पर सबके लिए अलग-अलग नीतियाँ निर्धारित हो रही हैं ।। कहीं भी समग्रता के दर्शन नहीं होते; चारों ओर अव्यवस्था फैली हुई है ।। अगर कोई एक निश्चित दार्शनिक मत स्वीकार किया जाए तो सारी कठिनाईयाँ दूर हो सकती है ।। अत: समाज के स्थायित्व और व्यवस्था के लिए कोई ऐसा दार्शनिक आधार स्वीकार करना चाहिए, जो सबको मान्य हो और सब पर समान रूप से लागू हो, कहीं भी तुष्टीकरण न दिखाई दे ।।

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साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक ने सामाजिक व्यवस्था के लिए एक समान दार्शनिक विचारधारा को अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया है और इसे राजनीति, समाज और परिवार सभी के लिए अनिवार्य तत्व स्वीकार किया है ।।

(2) अवसरवादिता और कल्पित उपयोगिता के आधार पर कोई भी समाज-व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकती ।। (2) भाषा- विषय के अनुरूप गम्भीर तथा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली ।। (4) शैली- विवेचनात्मक ।। (5) भावसाम्य- दर्शन का जीवन से गहरा सम्बन्ध दर्शाते हुए डॉ० राधाकृष्णन लिखते हैं कि “दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं; जीवन को बदलना है ।। “

(ग) आत्मा अजर– — — — — —– — — — — — — — — — — — — — — दुःख होता है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने भारतीय दर्शन, विशेषकर श्रीमद्भगवतगीता के आधार पर आत्मा के स्वरूप का चित्रण किया है ।।

व्याख्या- लेखक कहता है कि आत्मा न कभी मरती है, न बूढ़ी होती है ।। वह अजर-अमर है, शाश्वत है ।। इस आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अक्षय आनन्द का भण्डार है ।। यदि हम आत्मा को केवल अनन्त ज्ञान का भण्डार ही कहें तो भी पर्याप्त है; क्योंकि जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ शक्ति होती है और जहाँ ज्ञान और शक्ति होते हैं, वहाँ आनन्द का भण्डार होता है ।। आत्मा को जानने-पहचानने से चिरस्थायी आनन्द की प्राप्ति होती है और परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है ।। अत: आनन्द चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आत्मा का ज्ञान होना चाहिए, जो आत्म-चिन्तन द्वारा ही सम्भव है ।। अपनी बात स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है कि यह जीव अज्ञान के कारण आत्मा के अनन्त ज्ञान, शक्ति और आनन्दमय स्वरूप को भूला हुआ है ।। जीव को ऐसा अनुभव होता है, जैसे उसमें ज्ञान की कमी है ।। ज्ञान के अभाव में वह अपने को अल्पशक्ति वाला समझने लगता है ।। परिणामस्वरूप वह आनन्द से रहित होकर दुःखी हो जाता है ।। इस प्रकार वह अपने स्वरूप को न पहचानकर आजीवन दुःख भोगता रहता है ।। अपने स्वरूप को जानकर ही जीव को आनन्द प्राप्त हो सकता है; अतः आत्मज्ञान कराना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक के विचारों का स्रोत श्रीमद् भगवद् गीता में वर्णित; “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः” आत्मा का स्वरूप है ।। (2) भाषा- परिमार्जित शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली ।। संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है ।। (3) शैली- विचारात्मक ।। (4) वाक्य-विन्यास- सुगठित ।। (5) शब्द-चयन- विषय-वस्तु के अनुरूप ।। (6) भावसाम्यआत्मा अनन्त ज्ञान, शक्ति और आनन्द का भंडार है ।।

कबीर ने भी लिखा है कि

अपने अजर-अमर स्वरूप को न जानने के कारण प्रायः मनुष्य भयभीत होता है

कबीर मैं तो तब डरौं, जो मुझ ही में होय ।। मीच बुढ़ापा आपदा, सब काहू में सोय॥

(घ) आत्म-साक्षात्कार का — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — उत्पन्न किया जाय ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति के आत्मसाक्षात्कार हेतु योगाभ्यास की दृष्टि से शिक्षक व समाज की भूमिका का उल्लेख किया गया है ।।

व्याख्या- लेखक ने अनुसार व्यक्ति का प्रमुख पुरुषार्थ; शक्ति, ज्ञान एवं आनन्द से परिपूर्ण अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना है ।। अपनी आत्मिक शक्तियों का ज्ञान ही आत्मसाक्षात्कार कहलाता है और आत्मसाक्षात्कार का प्रमुख साधन योग का अभ्यास करना है ।। योगाभ्यास एक आध्यात्मिक साधना है, जिसके माध्यम से व्यत्तिक्त का चित्त एकाग्र हो जाता है तथा वह अपनी आत्मिक शक्तियों को पहचानने और उनका विकास करने में समर्थ होने लगता है, परन्तु योगाभ्यास सिखाने के लिए राज्य अथवा विद्यालय विशेष सहायक सिद्ध नहीं हो सकते ।। जिसमें जिज्ञासा और लगन होगी, वह स्वयं ही एक दिन योगाभ्यास सिखाने वाले श्रेष्ठ गुरु की खोज कर लेगा ।। समाज और शिक्षक तो व्यक्ति की इतनी ही सहायता कर सकते हैं कि वे उसके लिए अनुकूल वातावरण उत्पन्न कर दें अथवा उसके लिए आवश्यक साधन आदि सुलभ कराकर इस दिशा में उसे प्रेरित करें ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) आत्मसाक्षात्कार के लिए योगाभ्यास को ही सर्वोपरि साधन बताया गया है ।। (2) योगाभ्यास जैसी परम उपयोगी आध्यात्मिक विद्या को सीखने में व्यक्ति के अपने प्रयास ही अधिक सहायक हो सकते हैं ।। (3) भाषा- शुद्ध संस्कृतनिष्ठ, परिष्कृत एवं बोधगम्य ।। (4) शैली- विवेचनात्मक ।। (5) भावसाम्य- लेखक का मत है कि कोरे उपदेशों से नहीं, वरन् कठिन परिश्रम व स्वाध्याय से ही जीवन का अमृत प्राप्त होता है ।। कहा भी गया है कथनी मीठी खाँड सी, करनी बिष की लोय ।। कथनी तजि करनी करै, बिष से अमरित होय॥

(ङ) यह अध्यापक का — — — — — — — — — — — — — — — — न करना उपेक्षा है ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? Bharat varsh Unnati kaise ho sakti hai

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- मनुष्य का मूल उद्देश्य है आत्मसाक्षात्कार ।। प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने आत्मसाक्षात्कार के उपायों का विवेचन किया है ।।

व्याख्या- अध्यापक का दायित्व है कि वह छात्र में एकाग्रता का गुण उत्पन्न करे ।। चित्त की एकाग्रता से ही आत्मसाक्षात्कार सम्भव होता है ।। चित्त की एकाग्रता का उपाय यह है कि छात्रों में सात्विक भाव उत्पन्न किए जाएँ ।। जब छात्र के मन में मित्रता, करुणा, उपेक्षा तथा प्रसन्नता का भाव जाग्रत हो जाएगा, तभी वह निष्काम भाव से कर्म में प्रवृत्त हो सकेगा ।। जब छात्र दूसरे के सुख को देखकर सुखी होने लगे तो समझना चाहिए कि उसमें मैत्रीभाव उत्पन्न हो गया है, जब वह दूसरों के दुःख को देखकर दुःख का अनुभव करे तो यह मानना चाहिए कि उसमें करुणा का भाव जाग्रत हो गया है, जब वह दूसरे के अच्छे कार्यों को देखकर प्रसन्नता के साथ-साथ उसको प्रोत्साहित भी करने लगे तो समझना चाहिए कि उसमे प्रसन्नता का भाव उत्पन्न हो गया है और जब वह किसी दुष्ट व्यक्ति के बुरे कर्मों का विरोध करते हुए भी उस दुष्ट व्यक्ति से शत्रुता न करे तो समझना चाहिए कि उसमें उपेक्षा का भाव उत्पन्न हो गया है ।। जैसे-जैसे व्यक्ति में मैत्री, करुणा, प्रसन्नता और उपेक्षा के भाव जाग्रत होते जाते हैं, वैसे-वैसे उसके मन से ईर्ष्या और द्वेष की भावना कम होती जाती है ।। ऐसी स्थिति में उसमें एकाग्रता उत्पन्न होती है और एकाग्रता उत्पन्न होने पर ही उसे आत्मसाक्षात्कार हो सकता है ।। साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक की मान्यता है कि चित्त की एकाग्रता से ही आत्मसाक्षात्कार सम्भव है ।। आत्मसाक्षात्कार की ऐसी ही मनःस्थिति की ओर संकेत करते हुए तुलसी ने भी लिखा है-


तुलसी ममता राम सो, समता सब संसार ।।
राग न रोष न दोष-दुःख, दास भए भव-पार॥ (2) भाषा-संस्कृतनिष्ठ और परिमार्जिता ।। (3) शैली- विवेचनात्मक ।।

(च) निष्कामिता की — — — — — — — — — — — – — — — — — — — — — साक्षात्कार हो जाता है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में विभिन्न उदाहरण देकर निष्काम कर्मयोग के स्वरूप का प्रतिदान किया गया है ।।

व्याख्या- मैत्री, करुणा, प्रसन्नता और उपेक्षा का भाव जाग्रत हो जाने पर व्यक्ति में निष्काम भावना उत्पन्न होती है ।। निष्काम कर्म का अर्थ है-फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करना ।। इस सात्विक भाव के लिए यह आवश्यक है कि अपनी अपेक्षा दूसरे व्यक्तियों का अधिक ध्यान रखा जाए ।। छात्रों में प्रारंभ से ही परोपकार, लोक-कल्याण, जीव-सेवा एवं दूसरों की सेवा हेतु भावना उत्पन्न की जाए ।। ऐसी भावना उत्पन्न होने पर मनुष्य आत्मसाक्षात्कार करते हुए परम आनन्द का अनुभव करता है ।। जब मनुष्य सच्चे मन से समाज-सेवा करता है तो उसे महान् आनन्द का अनुभव होता है ।। जब हम किसी भूखे को अन्न देते हैं, जलते हुए या डूबते हुए को संकट से बचा लेते हैं अथवा किसी रोगी की सेवा-शुश्रुषा करते हैं तो हम ‘मैं’ और ‘पर’ के संकुचित भावों से ऊपर उठ जाते हैं ।। उस समय हमें अपनी आत्मा की झलक दिखाई देती है ।। वास्तव में यही क्षण आत्मसाक्षात्कार का क्षण होता है ।। पर-सेवा की यह तन्मयता जितनी प्रबल होगी और जितने अधिक समय के लिए होगी, उतने ही अधिक समय के लिए साक्षात्कार भी संभव हो सकेगा ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) यहाँ निष्काम कर्मयोग का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है ।। (2) यदि व्यक्ति में पर-सेवा की भावना जाग्रत हो जाए तो आज के सारे अनाचार और दुराचार स्वयं समाप्त हो जाएंगे ।। (3) भाषा- शुद्ध साहित्यिक और गम्भीर भावों को सरलता से समझाने में भी सक्षम है ।। (4) शैली- विवेचनात्मक ।। (5) भावसाम्य- निष्कामी व्यक्ति की तो उपस्थिति मात्र से भी कल्याण की प्राप्ति होती है ।। सन्त कबीर ने भी कहा है
कबिरा संगत साधु की, ज्यों गंधी का बास ।।
जो गंधी कछु दे नहीं, तो भी बास सुबास॥

(छ) चित्त को छुद्र—- — — — — — — — — — प्रेम उत्पन्न करें ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में विद्वान् लेखक ने बताया है कि काव्य, कला, संगीत तथा प्रकृति-निरीक्षण के द्वारा मन को शुद्ध रखा जा सकता है और तुच्छ वासनाओं पर विजय पाई जा सकती है ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? Bharat varsh Unnati kaise ho sakti hai

व्याख्या- लेखक कहता है कि नीच लोग वासनाओं में लिप्त रहते हैं ।। इन वासनाओं से मुक्ति पाने का एक सुगम मार्ग हैकला, संगीत और काव्य का निरन्तर अभ्यास करना ।। इन कलाओं में तल्लीनता के कारण उत्पन्न आनन्द के प्रभाव से सारे मानसिक तनाव स्वतः समाप्त हो जाते हैं ।। उस समय मनुष्य की इन्द्रियाँ सांसारिक भोगों के क्षणिक आनन्द को भूलकर आत्मा के सनातन आनन्द में लीन हो जाती हैं और सभी प्रकार के तुच्छ भाव दूर हो जाते हैं ।। मनुष्य को प्रकृति के निरीक्षण से भी यही आनन्द प्राप्त होता है ।। प्रकृति का उपयोग केवल निम्न श्रेणी के काव्य में ही काम-वासना जगाने के लिए होता है, किन्तु अन्य सभी स्थलों पर प्रकृति मनुष्य के हृदय को शांति और आनन्द प्रदान करती है ।। ऐसी दशा में अध्यापकों का नैतिक उत्तरदायित्व यह है कि वे प्रकृति के सौन्दर्य के प्रति छात्रों में प्रेम-भाव उत्पन्न करें ।। उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए कि सौन्दर्य-प्रेम भी निष्काम होता है ।। यह सौन्दर्य-प्रेम भी इस प्रकार का होना चाहिए कि मनुष्य तन्मय होकर अपने अहंकार को भूल जाए ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक ने बताया कि है कि कलाओं के अभ्यास से और प्रकृति के सौन्दर्य से मन बुरी वासनाओं से मुक्त हो जाता है और उसे दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है ।। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का भी ऐसा ही मत है ।। इसलिए अध्यापक का कर्त्तव्य है कि वह छात्र में सौन्दर्य के प्रति निष्काम प्रेम-भाव उत्पन्न करें ।। (2) भाषा- संस्कृतनिष्ठ शुद्ध खड़ी बोली ।। भाषा में बोधगम्यता का गुण विद्यमान है ।। (3) शैली- विवेचनात्मक ।। (4) भावसाम्य- साहित्य, संगीत और कला ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती हैं ।। भर्तृहरि ने इन सबसे विहीन मनुष्य को साक्षात् पशु कहा है- “साहित्य-संगीत-कला विहीनः, साक्षात् पशुः पुच्छविषाण-हीनः ।। “

(ज) धर्म का तात्पर्य — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — का आदेश होता है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में सभी प्रकार के कल्याणकारी कार्यों को धर्म बताया गया है ।।

व्याख्या- इस गद्यांश में लेखक ने कहा है कि धर्म का अर्थ पूजा-पाठ नहीं है, अपितु वे सभी कार्य धर्म के अंतर्गत आते हैं, जिनमें कल्याण की भावना अन्तर्निहित होती है ।। जब पूरे समाज का कल्याण होता है, तब उस सम्पूर्ण के साथ व्यक्ति का अपना कल्याण भी स्वतः ही हो जाता है ।। समाज के बिना मानवीय गुणों का विकास असंभव तो है ही, साथ ही ऐसे अनेक सुख-भोग हैं, जिन्हें मनुष्य समाज के बिना प्राप्त कर ही नहीं सकता ।। जिस समाज में हम जी रहे हैं, उसमें पशु, पक्षी, मनुष्य, वनस्पतियाँ और देवता भी हैं ।। इसलिए सबके कल्याण का ध्यान रखते हुए ही कर्त्तव्यों का निर्धारण करना चाहिए ।। सभी धर्मशास्त्र भी व्यक्ति को यही उपदेश देते हैं कि हमें अपने किसी भी कार्य को करने से पूर्व समाज के हित का ध्यान अवश्य रखना चाहिए ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक विद्यार्थियों में वास्तविक धर्म, बुद्धि एवं विवेक जाग्रत करने का पक्षधर है ।। (2) समाज के कल्याण में भी व्यक्ति का कल्याण निहित है, इस तथ्य को स्पष्ट करने का सार्थक प्रयास किया गया है ।। (3) भाषा- प्रवाहपूर्ण, परिमार्जित खड़ी बोली ।। (4) शैली- विचारात्मक ।। (5) वाक्य-विन्यास- सुगठित ।। (6) शब्द-चयन- विषय-वस्तु के अनुरूप एवं उपयुक्त ।।

(झ) अच्छे उपाध्याय के– — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — अधिक उन्नत हो ?

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प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापक की महत्ता और उसकी भूमिका पर प्रकाश डाला गया है ।।

व्याख्या- लेखक कहता है कि योग्य, प्रशिक्षित और सदाचारी अध्यापक के पास रहकर शिक्षा ग्रहण करके स्नातक की उपाधि प्राप्त करने वाला शिष्य सदैव सत्य और प्रेम का उपासक होता है ।। निज नवीन तथ्यों, विशेषकर सत्य के अनुसंधान में उसकी विशेष रूचि होती है ।। उसके मन में सदैव इस संसार को और अधिक जानने-समझने और निकटता से देखकर कल्याणकारी तत्वों की खोज की जिज्ञासा बनी रहती है ।। अपनी इस जिज्ञासा के शमन के लिए वह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है ।। जो कोई भी स्रोत उसकी जिज्ञासा को शान्त करने में रंचमात्र भी सहायता पहुँचाता है, उसके मन में उसके प्रति अत्यधिक आदर होता है ।। इसके अतिरिक्त उसके हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति नम्रता, प्रेम और भाईचारे की भावना विद्यमान होती है ।। अनसूया (किसी से ईर्ष्या-द्वेष न करना) की भावना के कारण सम्पूर्ण संसार के प्रति वह ममत्व रखता है ।। तप, त्याग, संयम और परिश्रम उसके जीवन-सूत्र होते हैं और उसके जीवन का मूलाधार होते हैं ।। वह सौन्दर्य की उपासना करनेवाला एवं अन्याय, अत्याचार तथा दुराचार का कट्टर विरोधी होता है ।। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ अथवा त्याग के साथ जीवन का भोग करने को ही वह अपना धर्म मानता है ।। त्याग की एकमात्र भावना ही उसके जीवन का प्रेरणस्रोत होती है ।। उसका सदैव यही प्रयास रहता है कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर सर्वोत्तम सभ्यता और संस्कृति का विकास हो, प्रत्येक समाज उन्नति के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करें ।। लेखक कहता है कि मेरा कहने का आशय यह कदापि नहीं है कि योग्य अध्यापक पूरे संसार को संन्यासी बना दे, वरन् यह है कि गृहस्थ भी अपने उत्तरदायित्वों का भली-भाँति सोच-समझकर निर्वाह करें और अध्यापक उन दायित्वों को सोचने-समझने और उनके निर्वहन की योग्यता उनमें विकसित करें ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) यहाँ यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि योग्य गुरु का शिष्य निश्चित ही योग्य होता है ।। (2) भाषा- शुद्ध, सरल, संस्कृतनिष्ठ एवं बोधगम्य, (3) शैली- विचारात्मक ।। (4) भावसाम्य- सद्गुरु की महत्ता स्पष्ट करते हुए कबीरदास जी ने अन्यत्र स्वयं कहा है


सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार॥

(8) इसका तात्पर्य यह — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — आत्मोन्नति करेंगे ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि छात्रों के चरित्र को विकसित करने के लिए अध्यापक और समाज ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक हैं ।। अध्यापक और समाज द्वारा इस दिशा में सत्प्रयास करने से अनेक लोग अपनी त्रुटियों से शिक्षा पाकर सन्मार्ग की ओर अवश्य बढ़ेंगे ।।

व्याख्या- विद्वान् लेखक ने कहा है कि चरित्रवान् नागरिक ही एक सभ्य, सुसंस्कृत और उन्नत समाज का निर्माण कर सकते हैं तथा वे सांसारिक गतिविधियों के साथ धर्म का समन्वय करके अधर्म को नष्ट कर सकते हैं ।। गृहस्थ लोगों पर भी धर्म-पालन का उत्तरदायित्व संन्यासियों के समान ही होता है ।। व्यापार, शासन एवं परिवार का संचालन सन्यासी नहीं, अपितु गृहस्थ ही करते हैं और धर्म-पालन अर्थात् कर्त्तव्य-पालन को यहाँ भी प्रमुख स्थान दिया जाता है; अत: अध्यापक का दायित्व है कि वह सत्य-प्रेमी, सौन्दर्य-प्रेमी, संयमी, कर्मनिष्ठ एवं विनम्र नागरिक बनाने का प्रयत्न करे ।। लेखक ने यह भी स्पष्ट किया है कि
यद्यपि प्रत्येक गृहस्थ के धार्मिक होने का दावा नहीं किया जा सकता, उसमें भी पारस्परिक सृदृढ़ता अथवा आसक्ति का भाव हो सकता है तथापि इतना अवश्य है कि एक अच्छा अध्यापक और समाज के चरित्रवान व्यक्ति, उन्हें दुर्गुणों से बचाने का प्रयास कर सकते हैं ।। ऐसा भी नहीं है कि अध्यापक के प्रयत्नमात्र से ही समाज में सभी सदाचारी बन जाएँगे, पर इतना तो अवश्य होगा कि अनेक लोग कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग पर आ जाएँगे और अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान कर सकेंगे ।। कुछ लोग मार्ग से भटक सकते हैं, गिर सकते हैं, कुछ भूल कर सकते हैं, परन्तु वे अपनी भूलों से ही कुछ सीखकर उन्नति भी अवश्य करेंगे ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) चरित्र के विकास को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना गया है ।। (2) लेखक का मत है समाज में रहने वाले व्यक्ति अनेक प्रकार की भूल करते हैं, लेकिन महान व्यक्ति वे ही होते हैं जो अपनी भूलों से शिक्षा लेते हैं तथा भविष्य में भूल न करने का संकल्प भी लेते हैं ।। (3) भाषा- सरल, सुबोध एवं परिमार्जित साहित्यिक हिन्दी ।। (4) शैली- विचारात्मक ।।

(ट) साधारणः शिक्षक– — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — — से ऊँचे होंगे ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने शिक्षक के भावों को योगी के समान बताते हुए कहा है कि शिक्षक को नि:स्वार्थ भाव से शिष्य में ज्ञान का विकास करते हुए उसे अपने कर्त्तव्य-मार्ग की ओर अग्रसर करना चाहिए ।।

व्याख्या- सामान्यता एक शिक्षक का आचार और व्यवहार एक योगी के समान होना चाहिए ।। जिस प्रकार एक योगी निष्काम और नि:स्वार्थ भाव से समाज के समक्ष संसार के गूढ़ रहस्यों से आवरण हटाता है, भौतिक ऐश्वर्य का त्याग करके समाजोत्थान का कार्य करता है तथा ज्ञान का प्रचार-प्रसार ही उसका मुख्य लक्ष्य होता है; उसी प्रकार शिक्षक को भी नि:स्वार्थ भाव से शिष्यों में ज्ञान का विकास करना चाहिए ।। अनेक जन्म-जन्मान्तरों के पश्चात् मानव-जीवन प्राप्त होता है, ऐसा पौराणिक मत है ।। मानव-जीवन को उन्नत बनाने के लिए अध्यापक द्वारा शिष्य को कर्त्तव्य-मार्ग की ओर प्रेरित कर उसके चरित्र का विकास करना है, जिससे उसे भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण किया जा सके ।। गुरु का प्रभाव शिष्य पर आजीवन दिखाई देता है ।। गुरु और शिष्य दोनों के माध्यम से ही सुव्यवस्थित समाज और राष्ट्र का निर्माण सम्भव है ।। भारतीय साहित्य में कर्म को ही प्रधान माना गया है और कहा गया है कि कर्महीन व्यक्ति को अधोगति प्राप्त होती है ।। इस जन्म के पुनीत कर्मों का फल मनुष्य के भविष्य में जन्म लेने को भी प्रभावित करता है ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक की अभिव्यक्ति में दार्शनिक उच्चता के दर्शन होते हैं ।। (2) भाषा- संस्कृतनिष्ठ शुद्ध खड़ी बोली ।। (3) शैली- विवेचनात्मक ।। (4) भावसाम्य- अध्यापक अथवा गुरु के विषय में यह शास्त्रानुमोदित तथ्य है कि गुरु एक धोबी की भाँति शिष्यरूपी कपड़े को चेतना की शिला पर इस प्रकार धो देता है कि उसकी चेतना असीम उज्जवल हो उठती है


गुरु धोबी सिष कापड़ा, साबुन सिरजनहार ।।
सुरति सिला पर धोइए, निकसै जोति अपार॥

(ठ) यह आदर्श बहुत — — — — — — — — — — — — — — सबका काम नहीं है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? Bharat varsh Unnati kaise ho sakti hai

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने दार्शनिक धरातल पर शिक्षक के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है ।।

व्याख्या- डॉ० सम्पूर्णानन्द एक अध्यापक के आदर्श कर्त्तव्य पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि एक अध्यापक को अपने शिष्य से प्रेम तथा सहानुभूति का व्यवहार करते हुए उसे उसके परम पुरुषार्थ की प्राप्ति करानी चाहिए ।। लेखक कहते हैं कि यह आदर्श बहुत ऊँचा है, किन्तु अध्यापक का पद भी इस आदर्श से कम ऊँचा नहीं है; अर्थात् अध्यापक का पद तो संसार में सर्वोच्च है ।। जो व्यक्ति अपने इस पद की उच्चता का ध्यान न रखते हुए केवल वेतन का लालची बना रहता है और इसी के लिए अध्यापन-वृत्ति करता है, तो ऐसे व्यक्ति को अध्यापक बनने का कोई अधिकार नहीं ।। अध्यापक के कर्त्तव्यों का मूल्य रुपयों में नहीं मापा जा सकता ।। उसके आदर्श कर्त्तव्य तो अमूल्य हैं, भला दूसरे का कल्याण करके उसे परम पुरूषार्थ की प्राप्ति कराने का मूल्य भी कोई चुना सकता है ? UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

अध्यापक बनने की योग्यता पर प्रकाश डालते हुए लेखक कहता है कि प्राचीन काल में धर्मगुरु और पुरोहित की योग्यता रखने वाला व्यक्ति ही शिक्षक होता था ।। वह महान् विद्वान् और तपस्वी हुआ करता था ।। वह धन-लोलुपता से कोसों दूर रहता था ।। अपने शिष्यों का कल्याण करने हेतु उनका सर्वांगीण विकास करने की निष्काम भावना जिस व्यक्ति में हुआ करती थी, उसे ही अध्यापक के पद का भार उठाने के योग्य समझा जाता था ।। वास्तव में अपने शिष्य को आत्मा-परमात्मा आदि का ज्ञान प्राप्त करने योग्य बनाना तथा अपने यजमान को दिव्यलोकों की अनुभूति के लिए तैयार करना, प्रत्येक गुरु अथवा धर्माचार्य द्वारा सम्भव नहीं है ।। एक विद्वान् , तपस्वी, परिश्रमी, कर्त्तव्यपरायण तथा सदाचारी गुरु ही इस आदर्श की प्राप्ति में सफल हो सकता है ।। लेखक वर्तमान व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि आज वैसे तपस्वी नहीं रहे, जो निष्काम भाव से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर सकें, किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि आज के शिक्षक अपने कर्तव्यों से मुख मोड़ लें ।। हम शिक्षकों को आज भी शिक्षक के प्राचीन आदर्श को अपने सामने रखकर ही अपने दायित्वों का निर्वाह करने का निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए ।।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) भाषा- शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली ।। (2) शैली- विवेचनात्मक ।। (3) भाव-साम्य- लेखक ने स्वार्थहीन शिक्षा देने पर बल देते हुए यह सिद्ध किया है कि लोभी अध्यापक अपना यश, मान, धर्म सभी कुछ खो बैठता है ।। कहा भी गया है

आब गयी आदर गया, नैनन गया सनेह ।।
ये तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कछु देह॥

(क) पुरुषार्थदार्शनिक विषय है, पर दर्शन का जीवन से घनिष्ठ संबंध है ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘डॉ० सम्पूर्णानन्द’ द्वारा लिखित निबंध ‘शिक्षा का उद्देश्य’ से अवतरित है ।।

प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में यह स्पष्ट किया गया है कि दर्शन का प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से अटूट संबंध है ।।

व्याख्या- पुरुषार्थ का अर्थ जीवन के लिए निर्धारित किए गए प्रमुख उद्देश्यों से है ।। ये उद्देश्य हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ।। इनका निर्धारण दर्शन के आधार पर किया गया है ।। इस प्रकार पुरुषार्थ का अध्ययन दार्शनिक विषय से संबंधित है ।। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इन उद्देश्यों की जानकारी केवल दर्शन का अध्ययन करने वालों के लिए ही आवश्यक है ।। इसका कारण यह है कि दर्शन और जीवन का अभिन्न संबंध है; अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार के दार्शनिक विषयों को महत्व प्रदान करना चाहिए ।।

(ख) आत्मा अजर और अमर है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। — UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

प्रसंग- पुरातन भारतीय संस्कृति के श्रेयस्कर तथ्यों के रूप में इस सूक्ति को उद्धृत किया गया है ।।

व्याख्या- पुरातन भारतीय संस्कृति ने अपने लिए जो श्रेयस्कर आधार ढूँढ़ निकाले थे, वे आज भी पहले जितने ही शाश्वत और श्रेष्ठ हैं ।। ऐसा ही एक आधार आत्मा के स्वरूप के विषय में ढूँढ निकाला गया था कि आत्मा न तो कभी बूढ़ा होता है और न कभी मरता है ।। वास्तव में बुढ़ापा और मृत्यु शरीर के विषय हैं, आत्मा के नहीं ।। यह तथ्य जितना शाश्वत पहले था, उतना ही आज भी है और कल भी रहेगा ।। यह आत्मा ज्ञान, शक्ति और आनन्द का भंडार है ।। जो इसके स्वरूप को जान लेता है, वहीं आनन्द, सुख और शक्ति से परिपूर्ण हो जाता हैं ।।

(ग) आत्म-साक्षात्कार का मुख्य साधन योगाभ्यास है ।। सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- इस सूक्ति-वाक्य में योगाभ्यास के महत्व पर प्रकाश डाला गया हैं ।। व्याख्या- मर्मज्ञ साहित्यकार ने कहा है कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य, छात्रों को आत्म-साक्षात्कार के योग्य बनाना ही होना चाहिए ।। उनके अनुसार छात्रों को अपने ज्ञानमय स्वरूप का सही बोध हो जाना ही आत्म-साक्षात्कार है ।। विद्वान् लेखक ने कहा है कि यदि अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानकर परम आनन्द को प्राप्त करना है तो इसके लिए योगाभ्यास करना होगा ।। योगाभ्यास के लिए अध्यापक या समाज अनुकूल वातावरण तो उत्पन्न कर सकता है, पर इसके लिए साधक को अपना गुरु स्वयं ही ढूँढ़ना पड़ेगा ।।

(घ) पुरुषार्थ को सामने रखकर ही चरित्र सँवारा जा सकता है ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- इस सूक्ति में पुरुषार्थ के महत्व के प्रकाश में शिक्षा के उद्देश्य को बताया गया है ।।

व्याख्या- विद्वान् लेखक का कहना है कि मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य ही पुरुषार्थ (मोक्ष) कहलाता है ।। इस उद्देश्य या पुरुषार्थ को प्राप्त करना ही शिक्षा का उद्देश्य होता हैं ।। इस उद्देश्य की प्राप्ति सदाचरण से होती है और सदाचरण ही सच्चरित्र का निर्माण करता है ।। जब इस उद्देश्य पर हमारी दृष्टि रहेगी, तभी हम अपने चरित्र का विकास भी कर सकेंगे ।। यह उद्देश्य हैआत्मस्वरूप को पहचानकर मुक्ति प्राप्त करना ।।

(ङ) एकाग्रता ही आत्म-साक्षात्कार की कुंजी है ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा करते हुए डॉ० सम्पूर्णानन्द ने बताया है कि शिक्षक को अपने छात्रों में चित्त की एकाग्रता का अभ्यास विकसित करना चाहिए ।।

व्याख्या- डॉ० सम्पूर्णानन्द का मत है कि आत्मदर्शन के लिए एकाग्रता परम आवश्यक है ।। एकाग्रता धारण करने पर ही मानव को आत्मज्ञान की प्राप्ति हो सकती है ।। बिना एकाग्रता के आत्म साक्षात्कार सम्भव नहीं है ।। मानव-मन अनेक प्रकार की वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए भटकता है, किन्तु उसे वास्तविक आनन्द प्राप्त नहीं हो पाता ।। इसलिए आत्मसाक्षात्कार हेतु किसी एक लक्ष्य को निर्धारित करके ही आगे बढ़ना होगा ।।

(च) निष्कामिता की कुंजी यह है कि अपना ख्याल कम और दूसरों का ज्यादा किह जाय ।

संदर्भ— पहले की तरह

प्रसंग- निष्काम कर्मयोग की चर्चा करते हुए लेखक ने निष्काम भावना को प्राप्त करने का मार्ग बताया है ।।

व्याख्या- मैत्री, करुणा, प्रसन्नता और उपेक्षा का भाव जागृत हो जाने पर ही निष्काम भावना उत्पन्न होती है ।। निष्काम कर्म का अर्थ है-फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करना ।। इस सात्विक भाव की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि अपनी अपेक्षा दूसरे व्यक्तियों का अधिक ध्यान रखा जाए ।।

(छ) बुद्धि की जड़ तभी दृढ हो सकती है जब चित्त में सत्य के लिए निर्बाध प्रेम हो ।।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 2 महाकवि माघ का प्रभात वर्णन

प्रसंग- इस सूक्ति में बताया गया है कि खोज एवं आलोचनात्मक अध्ययन पर आधारित धर्म-बुद्धि का विकास तभी हो सकता है, जब व्यक्ति के चित्त में सत्य के प्रति लगाव हो ।।

व्याख्या- व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायण बनाने तथा दूसरों के साथ सह-आचरण की दिशा में प्रेरित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें धर्म-बुद्धि का विकास किया जाए और धर्म-बुद्धि का विकास तभी सम्भव है, जब हमारे हृदय में सत्य के प्रति प्रेम का भाव स्थायी रूप से विद्यमान् रहे ।। सभी शास्त्र इस प्रेम को उत्पन्न कर सकते हैं ।। निर्भीक वातावरण का शोधपरक एवं आलोचनात्मक बुद्धि के आधार पर सत्य की खोज की प्रवृत्ति धर्म-बुद्धि का विकास करती है ।। वास्तव में सत्य ही हीरा है, शेष सभी काँच ।। कबीर ने कहा भी है–


कबीर लज्जा लोक की, बोलै नाही साँच ।।
जानि बूझ कंचन तजै, क्यों तू पकरै काँच॥

(ज) भूल करना बुरा नहीं है, भूल को भूल न समझना ही बड़ा दुर्भाग्य है ।। सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में यह भाव निहित है कि व्यक्ति से भूल होना स्वाभाविक है, परन्तु भूलवश किए गए अनुचित कार्यों को भी सही समझते रहना व्यक्ति का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है ।। ।।

व्याख्या- लेखक का कथन है कि समाज और शिक्षकों के समन्वित प्रयासों का परिणाम यह होगा कि लोग सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित होंगे ।। अपने सत-प्रयासों के मार्ग से वे अनेक बार पथभ्रष्ट भी होंगे, परन्तु वे शीघ्र ही अपनी भूलों को पहचान जाएंगे और उन पर प्रायाश्चित कर पुनः सन्मार्ग पर चलने का प्रयास करेंगे ।। किसी भी व्यक्ति से भूल होना स्वाभाविक है, परन्तु यदि वह व्यक्ति अपनी भूल को समझकर उस पर प्रायश्चित करने का प्रयास न करे तो यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है ।।


अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न—- UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 5 शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द)


1– ‘शिक्षा का उद्देश्य’निब्ध का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।

उत्तर— प्रस्तुत निबन्ध ‘शिक्षा का उद्देश्य’ में डॉ० सम्पूर्णानन्द ने प्राचीन आदर्शों को विशेष महत्व देते हुए शिक्षा के उद्देश्य पर अपने मौलिक विचार व्यक्त किए हैं ।। लेखक कहता है कि आज अध्यापक और समाज के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि शिक्षा किसलिए दी जाए ? शिक्षा देने का उद्देश्य क्या है ? तभी विद्यार्थियों को पढाए जाने वाले विषयों का निर्धारण सम्भव है ।।

लेखक का मानना है कि शिक्षा देने का उद्देश्य स्वयं में स्वतंत्र नहीं है ।। यह मनुष्य के जीवन के उद्देश्य से जुड़ा है, इसलिए पुरुषार्थ का निर्धारण होने के बाद ही शिक्षा का उद्देश्य निर्धारित किया जा सकता है ।। लेखक कहता है पुरुषार्थ का संबंध दर्शन से है और दर्शन का संबंध जीवन से ।। दार्शनिक सिद्धान्तों के अभाव में समाज का संचालन नहीं हो सकता ।। प्रत्येक समाज को कोई-न-कोई दार्शनिक मत स्वीकार करना होता है, क्योंकि इसी मत के आधार पर ही उस समाज की राजनैतिक, सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था संभव होती है ।। जिस समाज में किसी दार्शनिक मत के आधार पर व्यवस्था नहीं की जाती तथा केवल अवसरवादिता तथा उपयोगिता के आधार पर समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास किया जाता है, उस समाज को अपने संचालन में अनेक प्रकार की कठिनाईयों का समाना करना पड़ता है ।। ऐसी स्थिति में एक विभाग के आदर्श दूसरे के आदर्श से टकराएँगे, जो अन्ततः सम्प्रदायिकता का रूप ले लेती है ।। यह कठिनाई दार्शनिक सिद्धान्तों के आधार पर विचार करने से ही दूर हो सकती है ।।

आज समाज में दिखावट का तमाशा सा लगा हैं चोरी करना बुरी लत है, परन्तु दूसरे देश का शोषण करना बुरा नहीं है ।। झूठ बोलना बुरा है, परन्तु राजनीति के क्षेत्र में झूठ बोलना बुरा नहीं है ।। घरवालों, स्वदेशी व विदेशियों के साथ व्यवहार करने का अलग-अलग तरीका, ऐसे ही अनेकों आचारों का समूह बना है ।। इसलिए सोच-विचार करके दार्शनिक मत स्वीकार कर सबके प्रति समान व्यवहार किया जाए ।। प्राचीन भारत में वर्ण और आश्रम इसी प्रकार स्थापित किया गया था ।। वर्तमान समय में रूस ने मार्क्सवाद को ही सब नियमों का केन्द्र बनाया हुआ है ।। इन सा हो जाती है ।। नियमों को बनाने से समाज एक सूत्र में बँध जाता है और आदर्शों के आपस में टकराने की संभावना कम हो जाती है ।। लेखक कहते हैं कि आत्मा न कभी मरती है न बूढ़ी होती है ।। यह अजर-अमर शाश्वत है ।। इस आत्मा में अनन्त ज्ञान, शक्ति और अक्षय आनन्द का भंडार है ।। आत्मा को पहचानने से चिरस्थायी आनन्द की प्राप्ति होती है और परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है ।। लेखक कहता है कि जीव अज्ञान के कारण आत्मा के अनन्त ज्ञान, शक्ति और आनन्दमय स्वरूप को भूला हुआ हैं ज्ञान के अभाव में वह अपने को अल्पशक्ति वाला समझने लगता है ।। फलस्वरूप वह आनन्द से रहित होकर दुःखी हो जाता है ।। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसका कुछ खो गया है परन्तु क्या खो गया है उसे यह समझ में नहीं आता ।। उस खोई वस्तु की वह निरन्तर खोज करता रहता है ।। UP Board class 11 Hindi Solution Chapter 5 शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द)

यद्यपि उसे इन विषयों में अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन नहीं हो पाते और कोई भी विषय उसकी जिज्ञासा को तुष्ट नहीं कर पाता ।। बिना आत्मज्ञान के आनन्द की प्राप्ति हो ही नहीं सकती ।। आत्मज्ञान की प्राप्ति करना मनुष्य का पुरुषार्थ है और मनुष्य को इस पुरुषार्थ के योग्य बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य है ।। लेखक के अनुसार व्यक्ति का प्रमुख पुरुषार्थ अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना है ।। अपनी आत्मिक शक्तियों का ज्ञान ही आत्मसाक्षात्कार कहलाता है और आत्मसाक्षात्कार का प्रमुख साधन योग का अभ्यास करना है ।। योगाभ्यास एक आध्यात्मिक साधना है, जिसके माध्यम से व्यक्ति का चित्त एकाग्र हो जाता है ।। योगाभ्यास सिखाने के लिए राज्य अथवा विद्यालय विशेष सिद्ध नहीं हो सकते ।। जिसमें लगन होगी वही श्रेष्ठ गुरु की खोज कर पाएगा ।। परन्तु समाज व अध्यापक तो उसके लिए अनुकूल वातावरण उत्पन्न कर, आवश्यक साधन उलपब्ध कराकर उसे इस दिशा में प्रेरित करें ।।

लेखक कहते हैं कि चरित्र का विकास पुरुषार्थ के द्वारा ही किया जा सकता हैं प्रत्येक विद्यार्थी की आत्मा स्वयं को ढूँढ़ती है, पर उसे इसका आभास नहीं होता ।। जब उसे कोई अभिलाषित वस्तु मिल जाती है तो उसका मन सुख अनुभव करता है परंतु कुछ समय बाद वह किसी दूसरी वस्तु की इच्छा करता है ।। जब एक वस्तु की अभिलाषा अधिक मनुष्य करते है तो उनमें टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।। किसी एक मनुष्य को उसका लाभ उठाने से द्वेष, क्रोध की भावना बढ़ती है ।। लेखक कहता है कि अध्यापक का यह दायित्व है कि वह छात्र में एकाग्रता का गुण उत्पन्न करें ।। चित्त की एकाग्रता से ही आत्मसाक्षात्कार सम्भव है ।। ।। इसे उत्पन्न करने के लिए छात्रों के मन में सात्विक भाव उत्पन्न किए जाए ।। जब उनके मन में, मित्रता, करुणा, उपेक्षा का भाव जागृत हो जाएगा, तभी वह निष्काम भाव से कर्म में प्रवृत हो सकेगा ।। दूसरे के सुख में सुखी होना, मैत्रीभाव उत्पन्न होना तथा किसी का दुःख देखकर दुःखी होने पर उसमें करुणा का भाव जागृत हो जाएगा ।। किसी को अच्छा कार्य करते देखकर प्रसन्न होकर उसे प्रोत्साहित करने से प्रसन्नता का भाव जागृत होगा और जब वह किसी व्यक्ति के बुरे कर्मों का विरोध करते हुए भी उससे शत्रुता न करें तब उसमें उपेक्षा का भाव जागृत हो जाएगा ।।

जैसे-जैसे ये भाव जागेंगे उससे ईर्ष्या-द्वेष की भावना कम हो जाएगी ।। निष्काम कर्म का अर्थ है-फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करना ।। इसके लिए आवश्यक है कि अपनी अपेक्षा दूसरों का ख्याल अधिक रखा जाए ।। छात्रों में प्रारंभ से ही परोपकार, लोक-कल्याण, जीव सेवा एवं दूसरों की सेवा हेतु पुरूषार्थ की भावना उत्पन्न की जाए ।। जब हम किसी भूखे को अन्न देते हैं, जलते या डूबते हुए को बचाते हैं या किसी रोगी की सेवा करते हैं तो हम मैं और पर के भावों से ऊपर उठ जाते हैं ।। UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? Bharat varsh Unnati kaise ho sakti haiतब हमें अपनी आत्मा की झलक दिखाई पड़ती है ।। पर-सेवा की भावना जितनी प्रबल व जितने अधिक समय तक होगी, उतने ही अधिक समय के लिए आत्मसाक्षात्कार भी संभव हो सकेगा ।। लेखक कहता है कि संसार अनेक प्रकार के प्रलोभनों और विषय-वासनाओं से भरा पड़ा हैं कला इन प्रलोभनों और वासनाओं से मुक्त होने का महत्वपूर्ण साधन है ।। सांसारिक वासनाओं से मुक्ति पाने के लिए मानव को साहित्य, संगीत और चित्रकला में अपना मन लगाना चाहिए ।। जिस समय मानव इन कलाओं में आनन्द प्राप्त करता हैं, उस समय उसके सारे तनाव दूर हो जाते हैं और हृदय अध्यात्म की ओर प्रवृत्त हो जाता है ।। बहुत से कवि प्रकृति का प्रयोग कामोद्दीपन के लिए करते हैं, किन्तु प्रकृति वास्तव में शांत रस को उद्दीप्त करती है ।। अध्यापक को अपने छात्रों में प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति निष्काम प्रेमभाव जागृत करना चाहिए ।। सौन्दर्य के प्रति जो वास्तविक प्रेम होता है वह भी निष्काम होता है ।। सौन्दर्य का प्रत्यक्ष स्वरूप यह है कि जब द्रष्टा स्वयं को भूलकर उसमें ही लीन हो जाए ।।

लेखक कहता है कि शिक्षक को छात्र के चरित्र का विकास इस प्रकार करना चाहिए कि उसमें मैं और तू की भावना समाप्त हो जाए ।। सेवाभाव व अच्छे ढंग से किए कार्यों से संघर्ष की भावना समाप्त हो जाए ।। एक वस्तु की प्राप्ति के लिए समाज में कलह न हो ।। प्राचीन आचार्य इसलिए ही धर्म की शिक्षा देते हैं ।। धर्म का अर्थ पूजा-पाठ नहीं है, अपितु वे सभी कार्य धर्म के अंतर्गत आते हैं, जिनमें कल्याण की भावना अन्तर्निहित होती है ।। मनुष्य का कल्याण तभी हो सकता है जब समाज का कल्याण होगा ।। मनुष्य के अनेकों गुणों का विकास केवल समाज में रहकर ही संभव है और मनुष्य अनेक सुखों को केवल समाज में ही भोग सकता है ।। इसलिए सबको ध्यान में रखकर ही कर्त्तव्यों का निर्धारण करना चाहिए ।। यह हमारा कर्त्तव्य है कि जिस संस्कृति को हमारे पूर्वज छोड़ गए है उसका लोप न होने पाए तथा वह हमारी आने वाली पीढ़ी में पहुँचाई जाए ।।

लेखक कहते है कि सबके प्रति उचित कर्त्तव्य का पालन ही धर्म है ।। कर्त्तव्य की यही भावना धर्म-बुद्धि है ।। अगर यह भावना सबमें प्रविष्ट कर जाए तो सम्पूर्ण विवाद ही नष्ट हो जाए ।। किन्तु यह तभी सम्भव है, जब मन में सत्य के प्रति प्रेम हो ।। सभी शास्त्र इस प्रेम को उत्पन्न कर सकते हैं किन्तु शर्त यह है कि उसे औषधि की तरह ऊपर से न पिलाया गया हो अर्थात् सिर्फ रटाया न गया हो ।। लेखक कहता है कि योग्य, प्रशिक्षित और सदाचारी अध्यापक के पास रहकर शिक्षा ग्रहण करके स्नातक की उपाधि प्राप्त करने वाला शिष्य सदैव सत्य और प्रेम का उपासक होता है ।। उसके मन में सदैव संसार को अधिक जानने-समझने ओर निकटता से देखकर कल्याणकारी तत्वों की खोज की जिज्ञासा बनी रहती है ।। इसके अतिरिक्त उसके हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति नम्रता, प्रेम और भाईचारे की भावना विद्यमान् रहती है ।। वह हर प्रकार के अन्याय, दुराचार का कट्टर विरोधी होता है ।।

लेखक कहता है कि सन्यासी तपस्वी होता है, वह धर्म तथा त्याग का पालन करता है, किन्तु सद्गृहस्थ भी पूरी तरह धार्मिक होता है और उस पर भी धर्म का पूरा भार होता है ।। यद्यपि प्रत्येक गृहस्थ के धार्मिक होने का दावा नहीं किया जा सकता, उनमें भी परस्पर रागात्मक तथा द्वेषात्मक संबंध अथवा आसक्ति का भाव हो सकता है, तथापि इतना अवश्य है कि एक अच्छा अध्यापक और समाज के चरित्रवान व्यक्ति उन्हें दुगुर्गों से बचाने का प्रयास कर सकते हैं ।। हमें यह बात भली प्रकार जान लेनी चाहिए कि गलतियाँ होना बुरी बात नहीं है, दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि गलतियाँ करके भी उन पर पश्चाताप न किया जाए ।। लेखक कहता है कि जिस प्रदेश अथवा क्षेत्र में हर समय लड़ाई-झगड़े, दंगे-फसाद होते रहते हैं वहाँ तनान व्याप्त रहता है ।। इसी प्रकार जिन घर परिवारों में आजीविका के सुनिश्चित साधन न हो और उनमें मूलभूत आवश्यकताओं का सदैव अभाव बना रहता हो, जहाँ पिता शराबी तथा माता दुराचारिणी हो या माँ-बाप में मारपीट अथवा गाली-गलौच होती रहती है ऐसे परिवारों के बच्चे कभी संस्कारवान नहीं हो सकते ।। ऐसे विकृत मानसिकता वाले बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण नहीं हो सकता ।।

सामान्यतः एक शिक्षक का व्यवहार एक योगी के समान होना चाहिए ।। जिस प्रकार योगी निष्काम भाव से संसार के गूढ़ रहस्यों से आवरण हटाता है, उसी प्रकार शिक्षक को भी नि:स्वार्थ भाव से शिष्यों में ज्ञान का विकास करना चाहिए ।। मानव जीवन को उन्नत बनाने के लिए अध्यापक द्वारा शिष्यों को कर्त्तव्य-मार्ग की ओर प्रेरित कर उसके चरित्र का विकास करना चाहिए, जिससे उन्हें भौतिक, दैविक और अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण किया जा सके ।। लेखक कहता है कि एक शिक्षक का आर्दश समाज में बहुत ऊँचा है ।। वह समाज को शिक्षित करता है ।। जो व्यक्ति अपने पद की उच्चता का ध्यान न रखते हुए केवल वेतन का लालची बना रहता है तथा इसके लिए कर्म करता है, ऐसे व्यक्ति को अध्यापक बनने का कोई अधिकार नहीं ।। अध्यापक के कर्तव्यों का मूल्य रुपयों में नहीं आंका जा सकता ।। वास्तव में अपने शिष्य को आत्मा-परमात्मा आदि का ज्ञान प्राप्त करने योग्य बनाना तथा अपने यजमान को दिव्यलोकों के लिए तैयार करना प्रत्येक गुरु अथवा धर्माचार्य द्वारा संभव नहीं है ।। लेखक कहता है कि आज वैसे तपस्वी नहीं रहे, जो निष्काम भाव से अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सके ।। हम शिक्षकों को अपने सामने प्राचीन शिक्षकों का आदर्श रखकर अपने दायित्वों के निर्वाह करने का निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए ।।

2– पाठ के आधार पर बताइए कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य क्या है ?


उत्तर– डॉ० सम्पूर्णानन्द के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य पुरुषार्थ की सफलता के लिए शिक्षा देना है ।। शिक्षा का उद्देश्य स्वयं में स्वतंत्र नहीं है अर्थात् किसी एक बिन्दु को लेकर शिक्षा के उद्देश्य का निर्धारण नहीं किया जा सकता है ।। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के जीवन के उद्देश्य से जुड़ा है ।। यह जीवन का उद्देश्य पुरुषार्थ से सम्बद्ध है इसलिए पुरुषार्थ का निर्धारण होने के बाद ही शिक्षा के उद्देश्य का निर्धारण किया जा सकता है ।।

3– पाठ के आधार पर बताइए कि अध्यापक को छात्र के चरित्र का विकास किस प्रकार करना चाहिए ?

उत्तर— अध्यापक का दायित्व है कि वह छात्र के चरित्र का विकास करने के लिए उसमें एकाग्रता का गुण उत्पन्न करें ।। इसके लिए छात्रों में सात्विक भाव उत्पन्न किए जाएँ ।। छात्रों में मैत्री, करुणा, उपेक्षा तथा प्रसन्नता के भाव उत्पन्न करें तथा निष्काम प्रवृत्ति जागृत करें ।। जैसे-जैसे व्यक्ति में मैत्री, करुणा, प्रसन्नता तथा उपेक्षा के भाव जागृत होते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मन में ईर्ष्या और द्वेष की भावना कम होती जाती है ।। छात्रों के चरित्र का विकास करने के लिए अध्यापक को उनके मन में ‘मैं’ और ‘पर’ की भावना समाप्त कर ‘स्व’ की भावना जागृत करनी चाहिए जिससे वे दूसरों के सुख में सुखी, दुःख में दुःखी तथा बुरे व्यक्तियों के प्रति शत्रुता का भाव न रखे और अपना व समाज का विकास कर सकें ।।

4– अध्यापक को छात्र में किस प्रकार के भाव जागृत करने के लिए समाज के सहयोग की आवश्यकता होती है ?

उत्तर— अध्यापक को छात्र में कल्याण का भाव जागृत करने के लिए समाज के सहयोग की आवश्यकता है, क्योंकि हमारा कल्याण समाज से पृथक नहीं है ।। यदि हमें अपना हित करना है तो हमें समाज का भी हित करना होगा ।। समाज के बिना मानवीय गुणों का विकास असंभव तो है ही, साथ ही ऐसे अनेक सुख-भोग हैं जिन्हें मनुष्य समाज के बिना प्राप्त नहीं कर सकता ।।

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