Up board class 11 hindi sanskrit khand chapter 3 sadacharopadesh संस्कृत दिग्दर्शिका तृतीयः पाठः सदाचारोपदेशः सम्पूर्ण हल

Up board class 11 hindi sanskrit khand chapter 3 sadacharopadesh संस्कृत दिग्दर्शिका तृतीयः पाठः सदाचारोपदेशः

तृतीयः पाठः सदाचारोपदेशः


निम्नलिखित पद्यावतरणों का ससन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए


1 — संगच्छध्वं ……………………………………… उपासते ।।
{शब्दार्थ- संगच्छध्वं = साथ-साथ चलो, संवदध्वम् = साथ-साथ बोलो, सं वो मनांसि जानताम् वो मनांसि सञ्जानताम् = अपने मनों को मिलकर जानो, भागं = (अपने) कर्त्तव्य कर्म के अंशों को, सञ्जनानां=ज्ञानपूर्वक, उपासते = पूजा करते थे }

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सदाचारोपदेशः’ नामक पाठ से उद्धृत है ।।

अनुवाद- मिलकर चलो (अर्थात् मिलकर कार्य करो) ।। मिलकर बोलों (अर्थात् काम करने से पहले परस्पर परामर्श करो) तुम सब लोग अपने मनों को मिलकर जानों (अर्थात् आपस में विचारों की एकता स्थापित करो) ।। जिस प्रकार प्राचीनकाल में देवगण आपस में मिल-जुलकर तथा एक स्थान पर बैठकर (अर्थात् परस्पर परामर्शपूर्वक) अपने-अपने कर्त्तव्य कर्म के अंश
को करते थे(वैसे ही मिल-जुलकर तुम लोग भी करो) ।।

2 — कुर्वन्नेवेह………. ……………………………… ……..लिप्यते नरे ।।
{शब्दार्थ- कुर्वन्नेवेह = कुर्वन + एव् + एह = इस संसार में कर्म करते हुए ही, जिजीविषेच्छतं समाः> जिजीविषेत्+ शतम् + समाः = सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे, एवं = इस प्रकार, नान्यथेतोऽस्ति =न + अन्यथा + इतः + अस्ति = इससे अलग नहीं है

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 5 स्वयंवर-कथा, विश्वामित्र और जनक की भेंट (केशवदास) free pdf

अनुवाद- (मनुष्य को) इस संसार में (शास्त्रानुकूल) त्यागपूर्वक कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए ।। इस प्रकार (धर्मानुसार त्यागपूर्वक कर्म करने से) मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता ।। इसे छोड़ (कर्म-बन्धन से बचने का) अन्य कोई (उपाय) नहीं है ।।

3 — आचाराल्ल भते…………………………………………. चेह च ।।
{शब्दार्थ- आचाराल्लभते > आचारात् + लभते = सदाचार से प्राप्त करता है, ह्यायुः>हि+ आयुः = आयु को, श्रियम् = धन को, प्रेत्य= मृत्यु के बाद परलोक में, चेह= च+इह= और इस लोक में }

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

अनुवाद– सदाचार से मनुष्य (लम्बी) आयु प्राप्त करता है, सदाचार से लक्ष्मी (धन) प्राप्त करता है, सदाचार से इस लोक और परलोक में कीर्ति (यश) प्राप्त करता है ।।


4 — ये नास्तिका……………………………………………… गतायुषः ।।
{शब्दार्थ– नास्तिकाः = ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास न करने वाले, निष्क्रियाः = आलसी, गुरुशास्त्रातिलङ्घिन: > गुरु-शास्त्र+अतिलङ्घिनः = गुरु और शास्त्रों का उल्लघंन करने वाले, गतायुषः = कम आयु वाले }

सन्दर्भ– पूर्ववत् ।।

अनुवाद– जो मनुष्य ईश्वर को न मानने वाले, आलसी, गुरु और शास्त्रों के वचनों का उल्लंघन करने वाले, धर्मविहीन एवं दुराचारी होते हैं, उनकी आयु कम हो जाती है और वे मरे हुए के समान होते हैं ।।

5 — ब्राह्म मुहूर्ते………………………………………………….. कृताञ्जलिः ।।
{शब्दार्थ– बुध्येत = जागना चाहिए, चानुचिन्तयेत् = च + अनुचिन्तयेत् = और चिन्तन करना चाहिए, उत्थायाचम्य = उत्थाय+ आचम्य=उठकर और आचमन करके, कृताञ्जलिः =हाथ जोड़कर

सन्दर्भ– पूर्ववत् ।।

अनुवाद– (मनुष्य को) ब्राह्ममुहूर्त में (सूर्योदय के समय के एक घण्टे पूर्व) जाग जाना चाहिए ।। धर्म कर्त्तव्य और धन(आय के साधनों) का चिन्तन करना चाहिए ।। (फिर शय्या से) उठकर तथा आचमन (कुल्ला) करके, हाथ जोड़कर पूर्व सन्ध्या (प्रातः सन्ध्या) के लिए बैठ जाना चाहिए ।।

6 — अक्रोधनः ……………………………….. ………………जीवति ।।
{शब्दार्थ– अक्रोधनः = क्रोध न करने वाला, सत्यवादी = सत्य बोलने वाला, भूतानामविहिंसक = भूतानाम् + अविहिंसक जीवों की हिंसा न करने वाला, अनसूयुः = निन्दा न करने वाला, अजिह्मः=कुटिलता से रहित; सरलचित्त }

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

अनुवाद– क्रोध न करने वाला, सत्य बोलने वाला, जीवों की हिंसा न करने वाला, दूसरों से ईर्ष्या न करने वाला एवं कुटिलता
से रहित (सरलचित्त) व्यक्ति सौ वर्ष तक जीता है (अर्थात् दीर्घायु होता है) ।।

7 — अकीर्तिं विनयो…………………………हन्त्यलक्षणम् ।।
{शब्दार्थ- अकीर्तिम् = अपयश को, हन्त्यनर्थं = हन्ति + अनर्थम् = अनर्थ का नाश करता है, हन्त्यलक्षणम् = हन्ति + अलक्षणम् = दोषों या बुरे लक्षणों का नाश करता है

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 5 स्वयंवर-कथा, विश्वामित्र और जनक की भेंट (केशवदास) free pdf

अनुवाद- विनम्रता अपयश को नष्ट करती है, पराक्रम (पुरुषार्थ) अनर्थ (आपत्ति) को नष्ट करता है ।। क्षमाशीलता सदा क्रोध
को नष्ट करती है और सदाचरण (समस्त) अशुभों को नष्ट कर देता है ।।

8 — अभिवादनशीलस्य……………………यशो बलम् ।।
{शब्दार्थ- अभिवादनशीलस्य = अभिवादन करने की आदत वाले का, वृद्धोपसेविन: > वृद्ध + उपसेविनः = वृद्धों की सेवा करने वाले का, वर्द्धन्ते = बढ़ते हैं }

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

अनुवाद- (अपने बड़ों को) प्रणाम करने वाले तथा नित्य बड़े-बूढ़ों की सेवा करने वाले की आयु, विद्या, यश और बल-इन चारों की (उत्तरोत्तर) वृद्धि होती है ।।

9 — वृत्तं यत्नेन …………………………. हतोहतः ।।
{शब्दार्थ- वृत्तं = आचरण या चरित्र, वित्तमायाति >वित्तम+आयाति = धन आता है, याति= चला जाता है, अक्षीणः = हानि न होना, वित्ततः = धन से, वृत्ततस्तु> वृत्ततः+तु= किन्तु चरित्र से, हतोहतः= हत:+ हतः = मरे हुए के समान सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।

अनुवाद- चरित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि) धन तो आता-जाता रहता है ।। धन नष्ट होने से व्यक्ति की कोई (विशेष) हानि नहीं होती, किन्तु चरित्र नष्ट होने से व्यक्ति मरे हुए के समान हो जाता है ।।

विशेष- अंग्रेजी की सूक्ति से तुलनीय-If wealth is lost nothing is lost, if health is lost something is lost, if character is lost everything is lost


10 — सत्येन रक्ष्यते ……………………………………………………………….. वृत्तेन रक्ष्यते ।।
{शब्दार्थ- रक्ष्यते = रक्षा की जाती है, योगेन = (निरन्तर) प्रयोग से, मृजया = स्वच्छता; सफाई से, वृत्तेन = चरित्र से } सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। अनुवाद- सत्य से धर्म की रक्षा होती है, प्रयोग (निरन्तर अभ्यास) से विद्या की रक्षा होती है, स्वच्छता से रूप की रक्षा होती है, (और) चरित्र से कुल की रक्षा होती है ।।

सूक्ति व्याख्या संबंधी प्रश्न
निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए

1 — संगच्छध्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम् ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सदाचारोपदेश’ नामक पाठ से अवतरित है ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में पारस्परिक एकता का भाव विकसित करने पर बल दिया गया है ।।

व्याख्या– इस संसार में प्राप्ति अथवा उपलब्धि की दृष्टि से सभी फल ईश्वराधीन हैं ।। इसलिए व्यक्ति को मन, वचन और कर्म से एक-दूसरे का साथ देना चाहिए, क्योंकि संसार के सभी प्राणी उसी एक परमात्मा के अंश है ।। अतः हमें एक-दूसरे के हित में सहभागी होते हुए, एक-दूसरे के साथ मधुर वाणी का प्रयोग करते हुए और एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए, पारस्परिक एकता की भावना का विकास करना चाहिए ।। किसी से ईर्ष्या-द्वेष का भाव रखना अथवा स्वार्थवश केवल अपने ही हित का चिन्तन करते रहना हमारी अज्ञानता का ही परिचायक है ।।

2— कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।।
सन्दर्भ
– पूर्ववत् ।।
अनुवाद– प्रस्तुत सूक्ति में निष्काम भाव से कार्य करने की प्रेरणा दी गई है ।।
व्याख्या- इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए ।। बिना कर्म किए, आलसी जीवन जीना व्यर्थ है, किन्तु कर्म भी अनासक्त भाव से करना चाहिए ।। उसमें फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए ।। फल की आसक्ति के बिना कर्म करने वाला मनुष्य निश्चय ही दीर्घायुष्य को प्राप्त होता है ।। ऐसे व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया के झूठे छल-प्रपंच अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर पाते ।।

3– आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् ।।
सन्दर्भ
– पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में सदाचार के सुपरिणाम बताए गए है ।।


व्याख्या– सदाचार से व्यक्ति दीर्घ आयु प्राप्त करता है (क्योंकि बुरी आदतों से ही व्यक्ति का स्वास्थ्य नष्ट होता है) ।। सदाचारी का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा तो उसकी आयु बढ़ना स्वाभाविक है ।। सदाचार से व्यक्ति धनार्जन करता है, क्योंकि सदाचारी का हर व्यक्ति विश्वास कर सकता है ।। इसलिए वह धनोपार्जन का जो भी साधन अपनाता है, उसमें उसे सभी का सहयोग मिलता है ।। फलतः धनार्जन में सुविधा होती है ।। इसके साथ ही अच्छे आचार-विचार के कारण वह व्यसनों में भी धन नहीं फूंकता ।। सदाचारी की सर्वत्र प्रशंसा होने से उसे इस लोक में तो यश मिलता ही है और सदाचार के कारण पुण्यसंचय होने से उसे परलोक में भी शाश्वत शांति प्राप्त होती है ।। विशेष- सदाचरण से इहलोक और परलोक दोनों सँवरते हैं, इसलिए सभी को सदाचारी बनाना चाहिए ।। आचारहीन व्यक्ति को तो वेद भी पवित्र नहीं करते- ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः ।। ‘


4 — आचारात् कीर्तिमाप्नोति ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में सदाचार के सुपरिणाम बताए गए हैं ।।
व्याख्या- सदाचार मनुष्य का एक महत्वपूर्ण गुण है ।। इससे उसे अनेक लाभ होते हैं ।। सदाचारी मनुष्य सभी के साथ अच्छा व्यवहार करता है ।। फलस्वरूप उसे सभी का आशीर्वाद प्राप्त होता है, जिससे उसे दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है ।। सदाचार से मनुष्य धन भी प्राप्त करता है, क्योंकि सदाचार के कारण समाज में उसका सम्मान होता है तथा अन्य व्यक्ति उसके कथन पर विश्वास करते हैं ।। वह इस संसार में भी यश पाता है तथा मरकर परलोक में भी कीर्ति प्राप्त करता है ।। कीर्ति की सभी लोग कामना करते हैं ।। अपयश के पात्र का सर्वत्र मरण ही होता है और कीर्ति सम्पन्न मनुष्य सदा जीवित रहता है ।। कहा भी गया है “कीर्तियस्य स जीवति ।। ” अतः प्रत्येक व्यक्ति को सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए ।।

5 — अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
अनुवाद- जो लोग धर्मविहीन और दुराचारी होते हैं, उनकी आयुष्य कम हो जाती है ।। वस्तुतः धर्म ही मनुष्य को पाप करने से रोकता है ।। जिस व्यक्ति के मन से धर्म का भय निकल जाता है, वह किसी भी प्रकार का अनाचरण करने से नहीं हिचकता ।। सबसे पहले उसकी प्रवृत्ति दुर्व्यसनों में होती है, जिससे वह स्वयं को नष्ट कर लेता है और दूसरों को कष्ट देने से उनके अभिशाप से तेजोहीन हो जाता है ।। इस प्रकार अन्तत: बल, बुद्धि और तेज से हीन होकर वह नष्ट हो जाता है ।। अतः दीर्घायुष्य प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को धर्मज्ञ और सदाचारी होना चाहिए ।। कहा भी गया है- “आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् ।। “

6—- अनसूयुरजिह्मश्च शतं वर्षाणि जीवति ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग– प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि क्रोधरहित, सत्यवादी, अहिंसक, निन्दा न करने वाला तथा सरल प्रकृति का व्यक्ति दीर्घायु होता है ।।
व्याख्या- क्रोध मनुष्य का परम शत्रु है ।। क्रोधी व्यक्ति न केवल दूसरों का मन दुखाता है; अपितु वह अपनी भी हानि करता है ।। क्रोधी व्यक्ति समाज में आदर और प्रेम से वंचित हो जाता हैं ।। उसके स्वभाव के कारण अपने भी पराए हो जाते हैं ।। क्रोध स्वास्थ्य की भी हानि करता है ।। सत्य और अहिंसा महान् गुण हैं ।। सत्य का पालन मन, वचन और कर्म से करना चाहिए ।। सत्य बात को गोपनीय रखना भी असत्य बोलने के समान ही है ।। अहिंसा परम धर्म है ।। इसका पालन भी मन, वचन और कर्म से करना चाहिए ।। नीच प्रकृति वाले व्यक्ति दूसरे की निन्दा करते हैं, वे उसके गुणों में भी दोष ढूँढ़ते हैं ।। पर निन्दा उनके हृदय को सुख देती है; किन्तु सज्जन इससे दूर ही रहता है ।। निन्दा करने वाले का कहीं भी आदर नहीं होता ।। सरल स्वभाव स्वयं में एक महान् गुण है ।। व्यक्ति अपनी सज्जनता से दूसरों को भी अपना बना लेता है ।। समाज में उसका सम्मान होता है ।। वास्तव में क्रोधहीन, सत्यभाषी, हिंसा न करने वाला, किसी की निंदा न करने वाला तथा सज्जन व्यक्ति सौ वर्ष तक जीता है ।। इन गुणों के कारण ही उसे दीर्घाय प्राप्त होती है ।।

8– अकीर्तिं विनयो हन्ति ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग– इस सूक्ति में विनय अर्थात् विनम्रता के लाभ बताए गए हैं ।।
व्याख्या- विनय या विनम्रता मनुष्य का आभूषण है ।। विनम्रता से व्यक्ति को यश मिलता है ।। सभी उसकी प्रशंसा करते हैं और यदि कभी किसी कारणवश उसे कुछ अपयश मिला भी तो वह समाप्त हो जाता है ।। लोग उसे भूल जाते हैं या क्षमा कर देते हैं ।। विनय का सम्बन्ध वाणी और कर्म दोनों से होता है ।। अतः व्यवहार एवं वाणी दोनों में ही विनयभाव होना चाहिए ।। भारतीय साहित्य में भी विनय का बहुत महत्व बताया गया है ।। यदि कोई विद्वान तो है, किन्तु विनयी नहीं हैं तो उसकी विद्या शोभायुक्त नहीं होती ।। कहा भी गया है कि “विद्या विनयेन शोभते ।। “

8 — हन्त्यनर्थं पराक्रमः ।।
सन्दर्भ
– पूर्ववत् ।।
प्रसंग– इस सूक्ति में बताया गया है कि पराक्रम से ही अनर्थों की समाप्ति होती है ।।
व्याख्या- समाज में किसी के भी साथ अनर्थ की संभावनाएँ सदैव बनी रहती हैं ।। इसका कारण स्वजनित हो सकता है, परजनित हो सकता है अथवा प्राकृतिक भी ।। इतना निश्चित है कि इस अनर्थं को टालने के लिए पराक्रम की आवश्यकता होती है ।। पराक्रम से ही मनुष्य अपने ऊपर आने वाली बड़ी से बड़ी विपत्ति को भी नष्ट कर देता है ।।

9 — हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधम् ।।
सन्दर्भ
– पूर्ववत्
प्रसंग– इस सूक्ति में बताया गया है कि क्षमा भाव से ही क्रोध की समाप्ति होती है ।। व्याख्या- क्षमा सदैव मनुष्य के क्रोध को नष्ट कर देती है ।। क्षमा का भाव मन में उत्पन्न होते ही व्यक्ति का अहंकार समाप्त होने लगता है ।। इससे उसके मन में दोषी व्यक्ति के प्रति दया एवं सहानुभूति का भाव विकसित हो जाता है ।। परिणामस्वरूप उसका क्रोध समाप्त हो जाता है और क्रोध से उत्पन्न होने वाले अनेकानेक कष्टों से भी उसे मुक्ति मिल जाती है ।।

10 — चत्वारितस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।। प्रसंग- यहाँ अभिवादनशीलता और बड़े-बूढ़ों की सेवा को सर्वांगीण उन्नति का साधन बताया गया है ।।

व्याख्या– बड़ों का आदर सत्कार करने और नित्य प्रति सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं; क्योंकि इन गुणों से युक्त व्यक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होती है, जिससे वह मरकर भी जीवित रहता है ।। गुरुजनों की कृपा होने पर वह विद्या में निपुण हो जाता है और विपत्ति में ऐसे व्यक्ति की सभी सहायता करते हैं ।। अपने से बड़ों का आदर करना विनम्रता का द्योतक है ।। वस्तुतः हम महानता के समीप तभी होते हैं जब हम विनम्र होते हैं ।। विनम्रता बड़ों के प्रति कर्त्तव्य है, बराबर वालों के प्रति विनयसूचक है और छोटों के प्रति कुलीनता की द्योतक है ।।

11 — सत्येन रक्ष्यते धर्मों ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत्
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में सत्य को धर्म का रक्षक बताया गया है ।।


व्याख्या– प्राचीन भारतीय वाङ्मय के अनेकानेक पृष्ठ सत्य की महत्ता सिद्ध करते हैं ।। कबीरदास जी कहते हैं कि साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।। जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप॥ अर्थात् सत्य बोलने वाले व्यक्ति के हृदय में ही ईश्वर का निवास होता है ।। सत्य की इतनी अधिक महत्ता है, इसीलिए पुराणों, उपनिषदों में भी ‘सत्यं वद धर्मं चर’, ‘सत्यमेव जयते’ आदि कहकर सत्य की महत्ता प्रतिपादित की गई है ।। महात्मा गाँधी का सम्पूर्ण जीवन ही सत्य के आग्रह पर अवलम्बित था और सत्य के बल पर ही वे देश को स्वतंत्र कराने में भी सफल हुए ।। महाभारत में एक स्थल पर युधिष्ठिर यक्ष के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि “धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्’ अर्थात् धर्म का तत्व गुफा में निहित है, यानि बहुत गूढ़ है ।। इसे जानना किसी भी सामान्य नागरिक के वश में नहीं ।। ऐसी स्थिति में किसी सामान्य व्यक्ति से धर्म की रक्षा की अपेक्षा ही कैसे की जा सकती? इसीलिए कहा गया कि ‘सत्येन रक्ष्यते धर्मों’, अर्थात् सत्य से धर्म की रक्षा होती है ।। आशय यह है कि यदि व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में सत्य का आचरण करता है, सत्य बोलता है, तो वह निश्चित ही धर्मानुसार आचरण करता है ।। इसलिए व्यक्ति को हर परिस्थिति में सत्य का अवलम्ब लेना चाहिए, कभी भी स्वयं को सत्य से अलग नहीं करना चाहिए ।।

12 — आत्मनः प्रतिकूलानि परेषांन समाचरेत् ।।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।।
प्रसंग- हमें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसी विषय में प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है ।।

व्याख्या– व्यक्ति को अपने जैसा ही दूसरों को भी समझना चाहिए ।। जो कार्य हमारे लिए हानिकारक हैं, वे दूसरों के लिए भी हानिकारक ही होंगे ।। ऐसा समझकर हम ऐसे काम दूसरों के लिए न कर, जो हम स्वयं अपने लिए दूसरों से नहीं चाहते ।। इस प्रकार के आचरण से व्यक्ति सभी का प्रिय होकर प्रशंसा का पात्र बनता है और संसार में बहुत उन्नति करके यशस्वी और सुखी बनता है ।। कहा भी गया है कि- “आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ।। “

पाठ पर आधारित प्रश्न उत्तर

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में दीजिए

1 — अस्माकं जीवनं कीदृशं भवेत्?
उ०- अस्माकं जीवनं मधुमत् भवेत् ।।


2 — अकीर्ति कः हन्ति?
उ०- अकीर्तिं विनयो हन्ति ।।


3 — मनुष्य आचारात् किं किं लभते?
उ०- मनुष्य आचारात् आयुः श्रियम्, कीर्ति, बलं च लभते ।।

4 — नरः ब्रह्म मुहूर्त उत्थाय किं कुर्यात्?
उ०- नरः ब्रह्मे मुहूर्ते उत्थाय धर्मम् अनुचिन्तयेत् ।।


5 — धर्मः केन रक्ष्यते?
उ०- धर्मः सत्येन रक्ष्यते ।।


6 — कुलं केन रक्ष्यते ।।
उ०- कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ।।


7 — यत्नेन किं संरक्षेत?
उ०- यत्नेन वृत्तं संरक्षेत् ।।

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8 — रूपं केन रक्ष्यते?
उ०- रूपं मृजयेन रक्ष्यते ।।
9 — सदाचारस्य किं महत्त्वम् ?
उ०- मनुष्यः सदाचारात् आयुः, श्रियम् , कीर्ति च लभते इति सदाचारस्य महत्त्वम् अस्ति ।।
10 — अहं वाचा कीदृशं वदामि?
उ०- अहं वाचा मधुमत् वदामि ।।


11 — धर्मस्य कः सारः अस्ति?
उ०- “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्” इति धर्मस्य सारः ।।
12 — अभिवादनशीलस्य कानि वर्द्धन्ते ।।


उ०- अभिवादनशीलस्य आयुर्विद्यायशोबलमिति चत्वारि वर्द्धन्ते ।।
13 — केजनाः गतायषुः भवन्ति?

उ०- नास्तिकाः, निष्क्रियाः, गुरुशास्त्रातिलविनः, अधर्मज्ञाः, दुराचाराश्च गतायुषः भवन्ति ।।
14 — कः शतं वर्षाणि जीवति?
उ०- अक्रोधनः, सत्यवादी, अहिंसकः, अनसूयुः, सरलचित्तश्च शतायुः भवति (शतं वर्षाणि जीवति) ।।
15 — वृत्तनाशेन का हानिः?
उ०- वृत्तनाशेन मनुष्य: मृतकतुल्यो भवति ।। up board class 11 hindi sanskrit khand chapter 1 vandana संस्कृत दिग्दर्शिका प्रथमः पाठः वन्दना


संस्कृत अनुवाद संबंधी प्रश्न—-निम्नलिखित वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कीजिए


1 — सत्य के द्वारा धर्म की रक्षा करनी चाहिए ।।
अनुवाद- सत्येन धर्मस्य रक्षेत् ।।
2 — चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए ।।
अनुवाद-चरित्रस्य यत्नपूर्वकं रक्षेत् ।।
हमें ब्रह्म मुहूर्त में उठना चाहिए ।।
अनुवाद-वयं ब्रह्म मुहूर्ते उत्तिष्ठयाम् ।।
सदाचार से यश प्राप्त होता हैं ।।
अनुवाद- सदाचारत् यशः प्राप्नोति ।।
5 — प्रतिदिन प्रातःकाल भ्रमण करना चाहिए ।।
अनुवाद-नित्यं प्रात:काले भ्रमणं कुर्यात् ।।
अपने प्रतिकूल व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए ।।
अनुवाद- स्वयं प्रतिकूले व्यवहारे अन्यस्य सह न कुर्यात् ।।
7 — सहनशीलता से क्रोध का नाश होता है ।।
अनुवाद- सहनशीले क्रोधस्य हन्ति ।।
8–व्यायाम हमारी रोगों से रक्षा करता है ।।
अनुवाद- व्यायामः अस्माकं रोगेण रक्षति ।।
9 — विनम्रता अपयश का विनाश करती है ।।
अनुवाद-विनयः अकीर्तिम् हन्ति ।।
10 — धर्म का सार सुनकर मन में धारण करो ।।
अनुवाद-धर्मस्य सारं श्रुत्वा हृदये धार्यं कुरु ।।

संस्कृत व्याकरण संबंधी प्रश्न


1 — निम्नलिखित शब्दों में सन्धि-विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम भी बताइए
आचाराल्लभते, धर्माथौ, ह्यायुः, चाप्यवधार्यताम्, वित्तमायाति, वृद्धपसेविनः, कुर्वन्नेवेह ।।


उ०- सन्धि शब्द सन्धि-विच्छेद सन्धि का नाम
आचारालभते आचारात् + लभते लत्व सन्धि
धर्माथौ धर्म + अर्थों दीर्घ सन्धि
ह्यायुः हि + आयुः यण सन्धि
चाप्यवधार्यताम् च + अपि + अवधार्यताम् दीर्घ, यण सन्धि
वित्तमायाति वित्तम् + आयाति अनुस्वार सन्धि
वृद्धोपसेविनः वृद्ध + उपसेविनः गुण सन्धि
कुर्वन्नेवेह कुर्वन् + न + एव + इह गुण सन्धि up board class 11 hindi sanskrit khand chapter 1 vandana संस्कृत दिग्दर्शिका प्रथमः पाठः वन्दना

2 — रेखांकित पदों में नियम निर्देशपूर्वक विभक्ति स्पष्ट कीजिए
(क) आश्रमम् अभितः वनम् अस्ति ।।
उत्तर— रेखांकित पद आश्रमम में द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है क्योंकि अभित: (चारों ओर या सभी ओर), परितः (सभी ओर), समया (समीप), निकषा(समीप), हा(शोक के लिए प्रयुक्त शब्द), प्रति (ओर, तरफ) शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है ।।
(ख) शिक्षक कक्षाम् प्रति गच्छति ।।
उ०- रेखांकित पद कक्षाम् में भी द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है क्योंकि अभितः (चारों ओर या सभी ओर), परितः (सभी ओर),
सौं, सर्वे, समया(समीप), निकषा (समीप), हा (शोक के लिए प्रयुक्त शब्द), प्रति (ओर, तरफ) शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है ।।
(ग) वृक्षात् पतितं पत्रम् आनय ।।
उ०- रेखांकित पद वृक्षात् में पञ्चमी विभक्ति प्रयुक्त हुई है ।। क्योंकि स्वयं से अलग करने वाले अर्थात् ध्रुव (मूल) में पञ्चमी
विभक्ति होती है ।।

(घ) भिक्षुकः नेत्रेण काणः अस्ति ।।
उ०- रेखांकित पद नेत्रेण में तृतीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है क्योंकि जिस अंग में विकार होने से शरीर विकृत दिखाई दे, उस
विकारयुक्त अंग में तृतीया विभक्ति होती है ।।
(ङ) रामेण सह मोहन गच्छति ।। ।।
उ०- रेखांकित पद रामेण में तृतीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है क्योंकि सह के योग में अप्रधान (अर्थात् जो प्रधान क्रिया के कर्ता का साथ देता है) में तृतीया विभक्ति होती है ।।


3 — जिस प्रकार प्रतिकूलानि’शब्द में प्रति’उपसर्ग है ।। प्रति’ उपसर्ग से बनने वाले कुछ शब्द लिखिए ।।
उ०- ‘प्रति’ उपसर्ग से बनने वाले शब्द हैं
प्रतिवाद, प्रतिकार, प्रतिशोध, प्रतिकूल, प्रतिदिन, प्रतिफल, प्रतिलोभ, प्रतिध्वनि, प्रत्युपकार आदि ।।

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