up board class 10 full solution social science chapter 36 भूमि संसाधन (महत्व, विभिन्न उपयोग, मानव जीवन पर प्रभाव-मृदा के संदर्भ में)

up board class 10 full solution social science chapter 36 भूमि संसाधन (महत्व, विभिन्न उपयोग, मानव जीवन पर प्रभाव-मृदा के संदर्भ में)

इकाई-2 (ख): भौतिक संसाधन एवं उनका दोहन
पाठ–36 भूमि संसाधन (महत्व, विभिन्न उपयोग, मानव जीवन पर प्रभाव-मृदा के संदर्भ में)
लघुउत्तरीय प्रश्न
प्रश्न — 1. भूमि किसे कहते हैं? भूमि की दो विशेषताएँ लिखिए।
उ०- भूमि सामान्य रूप से धरती की ऊपरी सतह को कहा जाता है, जो मानव की कार्यस्थली है। भूमि के अंतर्गत वे सभी पदार्थ और शक्तियाँ सम्मिलित हैं, जो प्रकृति ने हमें पृथ्वी-तल पर, पृथ्वी के नीचे तथा पृथ्वी के ऊपर नि:शुल्क प्रदान किए हैं, जैसे- खनिज पदार्थ, नदियाँ, समुद्र, वर्षा, वनस्पति, जलवायु, हवा, धूप, पर्यावरण, प्रकाश आदि। भूमि की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं(i) भूमि की मात्रा निश्चित और सीमित है, उसे घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता है। (ii) भूमि-प्रकृति का निःशुल्क उपहार है। श्रम तथा पूँजी व्यय करने पर वह मूल्यवान बन जाती है।
प्रश्न — 2. काली मिट्टी भारत के किन दो राज्यों में सर्वाधिक पायी जाती है?
उ०- काली मिट्टी भारत के महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्य में सर्वाधिक पायी जाती हैं।

भारत की जलोढ़ मिट्टी की प्रमुख तीन विशेषताएँ लिखिए। उ०- भारत में पाए जाने वाली जलोढ़ मिट्टी की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) जलोढ़ मिट्टी में उर्वरकता तथा जीवांश अधिक पाए जाते हैं।
(ii) इस मिट्टी में पोटाश, सूचना तथा फास्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(iii) जलोढ़ मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
प्रश्न — 4. जलोढ़ मिट्टी का निर्माण कैसे होता है? खादर और बाँगर क्षेत्र में अंतर बताइए।
उ०- नदियों द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों से बहाकर लाई गई जीवांश युक्त मिट्टी से जलोढ़ मिट्टी का निर्माण होता है।
खादर व बांगर क्षेत्र में अन्तर- खादी क्षेत्र में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से नवीन काँव या जलोढ़ मिट्टी बिछती रहती है। इस क्षेत्र की मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अधिक होती है। इस क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी बांगर क्षेत्र से अधिक उर्वर होती है। जबकि बांगर क्षेत्र में नदियों की बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता। इस क्षेत्र की मिट्टी को पुरातन काँप या जलोढ़ मिट्टी कहते हैं। इस क्षेत्र की मिट्टी में कहीं-कहीं कंकड़ भी पाए जाते हैं। बांगर क्षेत्र का मिट्टी की अपेक्षा कम उर्वर होती है।
प्रश्न — 5. जलोढ़ मिट्टी और काली मिट्टी के अंतर को स्पष्ट कीजिए।
उ०- जलोढ़ मिट्टी और काली मिट्टी में अंतर

जलोढ़ मिट्टी
काली मिट्टी
i) इस मिट्टी का निर्माण नदियों द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों से नदियों द्वारा बहाकर लाई गई जीवांश युक्त मिट्टी द्वारा हुआ है।(i) इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से हुआ है
(ii) इस मिट्टी का रंग हल्का भूरा होता है। (ii) इस मिट्टी का रंग काला होता है।
(iii) इस मिट्टी में पोटाश, फास्फोरस, चूना एवं जीवांशों की मात्रा अधिक होती है। (iii) इस मिट्टी में लोहा, मैग्नीशियम, चूना, एल्यूनिनियम,तथा जीवांशों की मात्रा अधिक होती है।
(iv) इस मिट्टी में गन्ना, गेहूँ, चावल, जूट, तंबाकू आदि उगाया जाता है।(iv) इस मिट्टी में कपास, सब्जियाँ, फल, जवार बाजरा, मूंगफली और सोयाबीन आदि फसलें उगायी जाती हैं।
जलोढ़ मिट्टी और काली मिट्टी में अंतर

6… जलोढ़ मिट्टी और लैटराइट मिट्टी के अंतर को स्पष्ट कीजिए ।
उ०- जलोढ़ मिट्टी और लैटराइट मिट्टी में अंतरजलोढ़ मिट्टी

जलोढ़ मिट्टीलैटराइट मिट्टी
i) इस मिट्टी का रंग हल्का भूरा होता है।(i) लैटाइट मिट्टी का रंग लाल व पीले रंग का मिश्रण
होता है
ii) यह मिट्टी बारीक तथा चिकने कणों से युक्त होती (ii) यह मिट्टी कंकड़ तथा पत्थर के टुकड़ों से युक्त होती है |
(iii) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फास्फोरस के अंश मात्रा बहुत कम होती है। (iii) इस मिट्टी में चूना, फास्फोरस तथा नाइट्रोजन की अधिक पाए जाते हैं।
(iv) यह मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ है।(iv) यह मिट्टी जलोढ़ मिट्टी की अपेक्षा कम उपजाऊ
(v) यह मिट्टी मुख्य रूप से गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी डेल्टाई क्षेत्रों में पाई जाती है(v) यह मिट्टी मुख्य रूप से दक्कन के पठारी क्षेत्र में पाई जाती है
(iv) इस मिट्टी में मुख्य रूप से गन्ना, गेहूँ, चावल, जूट, | रबड़ तथा कहवा आदि फसलें उगाई जाती हैं।(iv) इस मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, गन्ना, काजू, चाय, _ तम्बाकू, पटसन आदि फसलें उगायी जाती हैं।
जलोढ़ मिट्टी और लैटराइट मिट्टी में अंतर

प्रश्न—-7 काली मिट्टी और लैटराइट मिट्टी में क्या अंतर पाया जाता है?
उ०- काली मिट्टी और लैटराइट मिट्टी में अंतर

काली मिट्टीलैटराइट मिट्टी
(i) इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे के जमाव के बाद निर्मित चट्टानों के अपरदन से हुआ है।(i) इस मिट्टी का निर्माण 200 सेमी० से अधिक वार्षिक वर्षा वाले पर्वतीय ढालों पर लाल रंग की चट्टानों के अपरदन से हुआ है।
ii) यह काली, चिकनी और बारीक कणों से युक्त मिट्टी है।(iii) यह लाल, मोटे कणों से युक्त कंकरीली मिट्टी है।
(iii) इस मिट्टी में लोहा, मैग्नीशियम, जीवांश, चूना तथा| नाइट्रोजन तथा पोटाश का अभाव होता है।iii) इस मिट्टी में चूना, फास्फोरस, मैग्नीशियम, ऐल्यूमीनियम अधिक मात्रा में पाया जाता है।
(iv) कपास, चावल, सब्जियाँ, फल, मूंगफली, तंबाकू,सोयाबीन आदि इस मिट्टी की प्रमुख फसलें हैं।(iv) चाय, कहवा, काजू, चावल, रबड़ आदि इस मिट्टी की प्रमुख फसलें हैं।
काली मिट्टी और लैटराइट मिट्टी में अंतर
  1. भूमि के कोई दो उपयोग लिखिए।
    उ०- भूमि के दो उपयोग निम्नलिखित हैं
    (i) भूमि का उपयोग प्राथमिक उद्योग कृषि, पशुपालन, वन-व्यवसाय आदि में किया जाता है।
    (ii) बिजली, कोयला, तेल, ईंधन तथा ऊर्जा के संसाधनों के विकास में भूमि का उपयोग किया जाता है।
  2. भूमि संरक्षण क्यों आवश्यक है? कोई दो कारण लिखिए।
    उ०- भूमि किसी राष्ट्र के लिए प्रकृति द्वारा प्रदत्त सर्वश्रेष्ठ एवं अमूल्य उपहार है। भूमि ही राष्ट्र के आर्थिक विकास की
    आधारशिला है। अतः इतनी उपयोगी राष्ट्रीय धरोहर का संरक्षण नितांत आवश्यक है। भूमि संरक्षण की आवश्यकता के दो
    कारण निम्नलिखित हैं
    (i) भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि ही भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। अतः अर्थव्यवस्था को सुदृढ़
    बनाने के लिए मृदा संरक्षण करना आवश्यक है।
    (ii) भूमि उपयोग को सही तथा वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने के लिए इसका संरक्षण आवश्यक है।
  3. मृदा संरक्षण के तीन उपाय लिखिए।
    उ०- मृदा संरक्षण के तीन उपाय निम्नलिखित हैं
    (i) पर्वतीय ढालों में सीढ़ीदार खेत बनाकर तथा भूमि कटाव का नियंत्रण करके मृदा संरक्षण किया जा सकता है।
    (ii) खेतों की मेढ़बंदी तथा चकबंदी द्वारा भूरक्षण पर रोक लगाकर, मृदा संरक्षण किया जा रहा है।
  4. भूमि संसाधन से क्या तात्पर्य है? इसका महत्व लिखिए।
    उ०- भूमि संसाधन- भूमि संसाधन प्रकृति द्वारा प्रदान वह अमूल्य तथा श्रेष्ठतम उपहार है, जिस पर समस्त वनस्पतियों और जीवधारियों का जीवन निर्भर करता है। भूमि संसाधन का महत्व- भूमि उत्पादन का प्राथमिक तथा अनिवार्य उत्पादन है भूमि के बिना कोई भी उत्पादन कार्य संभव नहीं है। उत्पादन कार्य में भूमिका वही स्थान है जो बच्चे के जन्म में माता का होता है। इसलिए धरती को माता कहकर पुकारा जाता है। भूमि संसाधन का महत्व निम्नवत् है(i) जीवधारियों के जीवन का आधार
    (ii) आर्थिक विकास का आधार (iii) प्राथमिक उद्योगों का आधार
    (iv) शक्ति के साधनों का आधार (v) औद्योगिक विकास का आधार
    (vi) व्यापार का आधार (vii) परिवहन तथा संचार के साधनों का आधार (viii) रोजगार का आधार
  5. मृदा अपरदन के किन्हीं तीन कारणों पर प्रकाश डालिए।
    उ०- मृदा अपरदन के तीन कारण निम्नलिखित हैं
    (i) मूसलाधार वर्षा के कारण मिट्टी की मुलायम परत कटकर भूमि कटाव का कारण बनती है । (ii) वृक्षों के अंधाधुंध कटान के कारण भूमि का हरित आवरण नष्ठ को जाने से, वह मृदा अपरदन या कटाव का शिकार
    बन जाती है। __ (iii) भूमि का अत्यधिक ढालू होना भी मृदा अपरदन का मुख्य कारण है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न — 1. भारत में पाई जाने वाली मिट्टियों का वर्गीकरण कीजिए तथा उनके महत्व एवं विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। उ०- भारत की मिट्टियों का वर्गीकरण (प्रकार)- प्रकृति ने भारत को मिट्टियों के इंद्रधनुषी प्रकारों से संपन्न बनाया है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार यहाँ 19 प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए भारत की मिट्टियों का स्थूल वर्गीकरण निम्नवत् किया जा सकता है(i) जलोढ़ या काँप मिट्टी- नदियों द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों से बहाकर लाई गई जीवांश युक्त मिट्टी अथवा जलोढ़ मिट्टी, कछारी या दोघट मिट्टी कहा जाता है। नदियाँ प्रतिवर्ष अपनी बाढ़ से नवीन जलोढ़ मिट्टी का निर्माण करती हैं, जिसे खादर कहा जाता है, जबकि जिन भागों में बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाने के कारण पुरानी काँप मिट्टी पाई जाती है, उसे बाँगर कहते हैं। नदियों के डेल्टाई भागों में बारीक तथा चिकने कणों से युक्त जो मिट्टी मिलती है उसे डेल्टाई जलोढ़ मिट्टी कहते हैं। (क) जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्र- भारत में 7.68 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र पर जलोढ़ मिट्टी का विस्तार है। गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी का मैदान जलोढ़ मिट्टी का प्रधान क्षेत्र है। जलोढ़ मिट्टी पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल राज्यों में मुख्य रूप से पाई जाती है। गंगा नदी, महानदी, कृष्णा नदी तथा कावेरी नदी के डेल्टाओं में डेल्टाई जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है। (ख) जलोढ़ मिट्टी की विशेषताएँ- जलोढ़ मिट्टी में कुछ खास विशेषताएँ पाई जाती हैं, जो निम्नलिखित हैं
(अ) जलोढ़ मिट्टी में उर्वरकता तथा जीवांश अधिक पाए जाते हैं।

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

(ब) इस मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरस के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(स) इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।
(द) यह मिट्टी उपजाऊ होने के साथ-साथ गहराई तक पाई जाती है।
(य) शुष्क क्षेत्र की मिट्टी में क्षारीय तत्व पाए जाते हैं।
(र) खादर क्षेत्र की जलोढ़ मिट्टी प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ों से उर्वरता प्राप्त करती रहती है।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- जलोढ़ मिट्टी अपने उपजाऊपन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध होती है। इसमें बिना खाद दिए भी फसलें उगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मिट्टी में मुख्य रूप से चावल, जूट, गन्ना, गेहूँ, तंबाकू, पटसन तथा चाय आदि की फसलें उगाई जाती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल तथा जूट उत्पादन के लिए धनी हैं।
(ii) काली या रेगुर मिट्टी- इस मिट्टी का रंग काला होता है तथा यह देखने में कठोर दिखाई पड़ती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले लावे तथा राख आदि के जमने से होता है। काले रंग के कारण इसे काली या रेंगुर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी बारीक कणों के मिश्रण से बनी होने के कारण नमी को अधिक समय तक सोखकर सुरक्षित रखने की क्षमता रखती है, यही कारण है कि काली या रेगुर मिट्टी को कपास की मिट्टी कहा जाता है।
(क) काली मिट्टी के क्षेत्र- भारत में काली मिट्टी का मुख्य क्षेत्र दक्कन के पठार में पाया जाता है। काली मिट्टी भारत के 5 लाख वर्ग किमी० से अधिक क्षेत्र पर विस्तृत है। मुख्य रूप से काली मिट्टी का विस्तार गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा बुंदेलखंड में पाया जाता है। (ख) काली मिट्टी की विशेषताएँ- काली मिट्टी अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के माध्यम से पहचानी जाती
है(अ) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ब) इस मिट्टी में नमी धारण करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।
(स) जल के संयोग से यह मिट्टी चिपचिपी तथा सूखने पर एकदम कठोर हो जाती है।
(द) शुष्कता के कारण इस मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। (य) कठोर होने पर भी यह मिट्टी जुताई करते ही भुरभुरी बन जाती है।
(र) इस मिट्टी में विद्यमान जीवांश की पर्याप्त मात्रा इसे उर्वरक बनाती है।
(ल) इस मिट्टी में लौह, पोटाश, मैग्नीशियम, ऐल्युमिनियम तथा चूने के अंश अधिक पाए जाते हैं।
(व) काली मिट्टी में नाइट्रोजन के अंश कम होते हैं।
(ग) उपयोगिता या महत्त्व- काली या रेगुर मिट्टी फसलें उत्पादन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह जिन क्षेत्रों में पाई जाती है, उनके लिए कृषि की जीवनरेखा बन कर उभरी है। इस मिट्टी में कपास, सोयाबीन, चावल, गन्ना, तंबाकू, ज्वार, बाजरा तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं। काली या रेगुर मिट्टी की मुख्य उपज कपास है। काली मिट्टी ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में कपास जैसी व्यापारिक फसल उगाकर इन राज्यों में आर्थिक विकास की गंगा बहा दी हैं।
(iii) लाल तथा पीली मिट्टी- लाल तथा पीली मिट्टियों का जन्म उन लौह अंश युक्त शैलों से होता है, जिनमें जल या नमी के संयोग से जंग लग जाती है। जंग लगी शैलों के टूटे-फूटे कणों से लाल या पीले रंग की मिट्टियाँ बन जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियों का निर्माण विविध परतें जमने के कारण होता है अतः इनमें परतें दृष्टिगोचर होती हैं। लाल और पीली मिटटियाँ भारत के लगभग 6 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पाई जाती हैं। लाल और पीली मिट्टियाँ अनुपजाऊ होती हैं, अतः इस मिट्टी में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मूंगफली, मक्का, दलहन, कहवा आदि तथा घाटियों में गन्ने की फसलें उगाई जाती है।
(iv) लैटराइट मिट्टी- इस मिट्टी का रंग लाल एवं पीले रंग का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कंकड़ और पत्थर के टुकड़ों
से युक्त होती है। लैटराइट मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा बहुत कम होती है। कहीं-कहीं इस
मिट्टी में चिकनी तथा बारीक कणों वाले अवसाद भी मिलते हैं। यह मिट्टी दक्कन के पठार पर लगभग 1.22 लाख

वर्ग किमी० क्षेत्र में पाई जाती है। लैटराइट मिट्टी में चावल, गन्ना, काजू, चाय, रबड़ तथा कहवा की फसलें उगाई
जाती हैं। लैटराइट मिट्टी से युक्त पर्वतीय ढाल चाय के बागानों के क्षेत्र बन गए हैं।
(v) मरुस्थलीय मिट्टी- बलुई मिट्टी को मरुस्थलीय मिट्टी कहते हैं। यह बालू युक्त मिट्टी लवणता और क्षारीय गुणों
से युक्त होती है। यह मिट्टी मुलायम और प्रवेश्य होती है, अर्थात् यह जल को एकदम सोख लेती है। यह नमी धारण करने में असफल रहती है। बलुई मिट्टी को पवन के झोकें एक स्थान से उड़ाकर दूसरे स्थान पर जमा कर देते हैं। भारत में इस मिट्टी का विस्तार लगभग 1.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर मिलता है। मरुस्थलीय मिट्टी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात राज्यों में पाई जाती है। मरुस्थलीय मिट्टी में ज्वार, बाजरा, मूंग, उड़द, तिलहन तथा मूंगफली की फसलें उगाई जाती हैं।
(vi) पर्वतीय मिट्टी- पर्वतीय क्षेत्रों में कंकड़, पत्थर तथा बालु युक्त जो मिट्टी पाई जाती है, उसे पर्वतीय मिट्टी कहा जाता है। पर्वतीय मिट्टी में चने की मात्रा अधिक पाई जाती है। यह मिट्टी जलोढ, टर्शियरी, लावा, मैग्मा तथा डोलोमाइट तत्वों से युक्त होती है। यह मिट्टी कम उपजाऊ होती है। भारत में इस मिट्टी का विस्तार लगभग 2.80 लाख वर्ग किमी० क्षेत्रफल पर पाया जाता है। पर्वतीय मिट्टी जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम तथा पश्चिम बंगाल राज्यों में पाई जाती हैं। इस मिट्टी में चीड़ व साल के पेड़ और चावल, आलू तथा चाय की फसलें खूब उगाई जाती हैं।
प्रश्न—2. काली मिट्टी का वर्णन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत कीजिए(क) क्षेत्र (ख) विशेषताएँ (ग) उपयोगिता
उ०- उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न—3 जलोढ़ मिट्टी से आप क्या समझते हैं? उसका वर्णन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत कीजिए(क) क्षेत्र (ख) विशेषताएँ
(ग) उत्पादित फसलें
उ०- उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।
प्रश्न—4. भूमि उपयोग से आप क्या समझते हैं? भारत में भूमि उपयोग के प्रारूप पर प्रकाश डालिए।
उ०- भूमि उपयोग- उपयोगिता, स्थिति तथा उर्वरता के आधार पर भूमि को विविध कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। भूमि
को विविध कार्यों के लिए काम में लाना ही भूमि उपयोग कहलाता है। भूमि उपयोग किसी राष्ट्र के लोगों की आर्थिक अनुक्रियाओं का दिग्दर्शन करा देता है। भारत में भूमि का उपयोग अत्यंत विषम और अवैज्ञानिक है। भारत में भूमि उपयोग के निम्नलिखित स्वरूप पाए जाते हैं(i) कृषि भूमि- कृषि भारत का राष्ट्रीय व्यवसाय है अतः भारत में 51% भूमि का उपयोग कृषि कार्य करने में किया जाता है। भारत की 65% जनशक्ति लगभग 16.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर कृषि करके अपनी आजीविका कमाती है। विश्व में भारत कृषि के अंतर्गत सर्वाधिक भूमि उपयोग करने वाला देश है। देश की 125 करोड़ जनसंख्या का भरण-पोषण करने के लिए कृषि योग्य भूमि का विस्तार करने का प्रयास किया जा रहा है, परंतु उद्योगों, कारखानों और आवासों ने कृषि भूमि के क्षेत्रफल को बढ़ने से रोक दिया है।
(ii) वन भूमि- भारत में पहले 33% भूमि वनों के अंतर्गत थी परंतु कृषि, उद्योग और आवासों ने वन भूमि उपयोग को घटाकर लगभग 19.2% कर दिया है। वन मानव के लिए बहुत उपयोगी हैं। वन वर्षा के जल को मिट्टी के अंदर रिसने में सहायक होते हैं, जिससे जल का सरंक्षण होता है। वन मृदा का भी संरक्षण करते हैं। जिससे बाढ़ों पर नियंत्रण होता है। परंतु, उद्योग, कृषि एवं आवासों के कारण अन्य देशों की अपेक्षा भारत में वन भूमि का क्षेत्र अत्यंत कम है।
(iii) चरागाह भूमि- भारत में पशुपालन का धंधा कृषि के सहायक धंधे के रूप में चलाया जाता है। पशुओं को स्वच्छंद रूप से चराने के उपयोग में आने वाले हरे घास के विस्तृत मैदान चरागाह कहे जाते हैं। भारत की 4.3% भूमि का उपयोग ही चरागाहों के रूप में होता है। भारत में विश्व के सर्वाधिक पशु पाए जाते हैं, उनकी तुलना में चरागाह भूमि अत्यंत कम है। चरागाह भूमि को बढ़ाने की आवश्यकता है, परंतु कृषि-भूमि विस्तार के प्रयास घास के मैदानों को छोटा करते जा रहे हैं।
(iv) बंजर और परती भूमि- खेती, चरागाह तथा वन उगने के अनुपयुक्त भूमि बंजर भूमि के नाम से जानी जाती है।
पर्वतीय ढाल, पठारी क्षेत्र, मरुस्थल तथा कंकड़-पत्थर युक्त कृषि के अयोग्य भूमि को बंजर भूमि कहा जाता है। वह भूमि जो बेकार पड़ी है, परंतु भविष्य में तकनीकी द्वारा उसे खेती के योग्य बनाया जा सकता है, परती भूमि कहलाती है। भारत में लगभग 24% भूमि बंजर तथा परती भूमि है। परती भूमि को एक दो साल खाली छोड़कर बार-बार खेती के लिए प्रयोग में लाया जाता है। सिंचाई, उर्वरक तथा उन्नत किस्म के बीजों का उपयोग करके परती भूमि का खेती के लिए सदुपयोग किया जा सकता है।


प्रश्न—5. भूमि की किन्हीं पाँच विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उ०- भूमि की विशेषताएँ या लक्षण (Characteristics of Land)- भूमि की प्रमुख विशेषताएँ निम्न है
(i) सीमित पूर्ति- भूमि की मात्रा निश्चित तथा सीमित है। भूमि के परिमाण को घटाया अथवा बढ़ाया नहीं जा सकता।
हवा, प्रकाश, खनिज पदार्थ आदि जो प्रकृति ने प्रदान किए हैं, मनुष्य उनमें कोई वृद्धि नहीं कर सकता। इसी प्रकार किसी क्षेत्र की जलवायु में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया जा सकता। मनुष्य केवल भूमि के स्वरूप में परिवर्तन कर सकता है ।
(ii) प्रकृति की निःशुल्क देन- जल, वायु, खनिज पदार्थ, वन संपत्ति आदि को प्राप्त करने के लिए समाज को कुछ भी खर्च या त्याग नहीं करना पड़ा है; ये सब प्रकृति से निःशुल्क प्राप्त हुए हैं।
(iii) अनाशवान- मनुष्य भूमि को न तो उत्पन्न कर सकता है और न ही उसे नष्ट कर सकता है। भूमि की उर्वरता को तो
कम या नष्ट किया जा सकता है, किन्तु उसका अस्तित्व अविनाशी है। भूमि के स्वरूप को तो बदला जा सकता है,
किंतु उसे समाप्त नहीं किया जा सकता।
(iv) अचल या गतिहीन- भूमि का स्थान नहीं बदला जा सकता, अर्थात् इसे एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर नहीं ले जाया जा सकता। उदाहरणार्थ, हिमालय पर्वत को भारत से उठाकर जापान में नहीं ले जाया जा सकता। इसी प्रकार पर्वतीय क्षेत्रों की जलवायु को मैदानों में नहीं ले जाया जा सकता; अर्थात् भूमि का स्थानान्तरण संभव नहीं है।
(v) विविधता- भिन्न-भिन्न स्थानों की भूमि भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। कहीं की भूमि उपजाऊ है तो कहीं की बंजर है। कहीं पर नदियाँ व समुद्र में तो कहीं पर पहाड़ हैं। कहीं की मिट्टी काली है कहीं की पीली। किसी क्षेत्र में अधिक सर्दी पड़ती है तो कहीं अधिक गर्मी। इस विवधता के कारण भूमि की उपजाऊ-शक्ति में विभिन्नता पाई जाती है।
प्रश्न6. मृदा संरक्षण से आप क्या समझते हैं? मृदा संरक्षण के उपाय लिखिए।
उ०- मृदा संरक्षण- मृदा किसी राष्ट्र के लिए प्रकृति का दिया हुआ सर्वश्रेष्ठ तथा अमूल्य उपहार है। मृदा ही वह संसाधन है, जो राष्ट्र के राजकोष को भरने का प्रमुख स्रोत बनती है। इतनी उपयोगी राष्ट्रीय धरोहर का संरक्षण नितांत आवश्यक हो जाता है। मृदा संरक्षण का सामान्य अर्थ है- मिट्टी की उपादेयता को बनाए रखना। दूसरे शब्दों में, “भूमि के उपयोगी तत्वों और उर्वरता की सुरक्षा कर उसे भावी उपयोग के लिए ठीक-ठीक बनाए रखना ही मृदा संरक्षण है।” मृदा संरक्षण ही वह महामंत्र है, जिसे फूंककर मृदा को भावी पीढ़ी के लिए उपयोगी और उर्वरक बनाए रखा जा सकता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यदि हरित क्रांति को सफल बनाना है, तो भूसरंक्षण को एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में अपनाना होगा। भूसंरक्षण की आवश्यकता- मृदा राष्ट्र के आर्थिक विकास की आधारशिला है। इस आधारशिला को सुरक्षित रखकर ही सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का स्थायी भवन खड़ा किया जा सकता है। भूसंरक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है
i) भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि ही भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है, अत: अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए मृदा का संरक्षण करना आवश्यक है।
(ii) कृषि भारतीय राष्ट्रीय आय का 28% प्रदान करती है अतः भूमि को संरक्षित करके ही राष्ट्रीय आय को स्थिर बनाए रखा जा सकता है।
(iii) मिट्टी की रेंगती हुई मृत्यु अर्थात् कटाव को रोकने के लिए उसका संरक्षण करना ही एकमात्र उपाय है। (iv) पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए मृदा संरक्षण की नितांत आवश्यकता है।
(v) भूमि उपयोग को सही तथा वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने के लिए भूमि का संरक्षण आवश्यक है।
(vi) भारत की 125 करोड़ जनसंख्या का समुचित भरण-पोषण संभव बनाने के लिए भूमि का संरक्षण करना नितांत आवश्यक हो गया है
(vii) भारत की आने वाली पीढ़ी तक भूमि के उपयोगी स्वरूप को बनाए रखने के लिए, भूमि संरक्षण संजीवनी बन जाएगा।

भूसंरक्षण के उपाय- भूमि संरक्षण का अर्थ और आवश्यकता जान लेने के पश्चात् उसके संरक्षण के उपाय खोजना आवश्यक हो जाता है। भूमि संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं(i) पर्वतीय ढालों में सीढ़ीदार खेत बनाकर तथा भूमि के कटाव पर नियंत्रण करके भूमि का संरक्षण किया जा सकता है।
(ii) खेतों की मेढ़बंदी तथा चकबंदी द्वारा भूसंक्षरण पर रोक लगाकर, भूमि का संरक्षण हो सकता है।
(iii) खेतों की मेढ़ों पर वृक्ष लगाकर तथा भूसंक्षरण पर प्रभावी नियंत्रण करके भूसंरक्षण किया जा सकता है।
(iv) ढालू भूमि में भूमि को ढाल के विरुद्ध जोतने की व्यवस्था करके तथा जल निकासी के उचित उपाय अपनाकर भूमि
का संरक्षण किया जा सकता है।
(v) झूमिंग कृषि से वनों तथा भूमि का विनाश होता है, उस पर प्रतिबंध लगाकर भूमि का संरक्षण किया जा सकता है।
(vi) वृक्षारोपण द्वारा वन क्षेत्र बढ़ाकर तथा हरित पट्टी का निर्माण करके, भूसंक्षरण को रोककर भूमि का संरक्षण करना
संभव हो सकेगा।
(vii) परती भूमि में हरे चारे वाली फसलें उगाकर तथा उसकी उर्वरता और गुणवत्ता बढ़ाकर भूमि का संरक्षण किया जा सकता है।
(viii) नदियों पर बाँध तथा उचित तटबंध बनाकर उनमें आने वाली बाढ़ों से भूमि का संरक्षण किया जा सकता है। (ix) खेतों में पशुओं की अनियंत्रित चराई पर प्रभावी रोक लगाकर तथा भूक्षरण को रोककर भूमि का संरक्षण किया जा
सकता है। भूमि में रासायनिक, उर्वरकों, कीटनाशकों का प्रयोग सीमित करके, अत्यधिक सिंचाई करने पर नियंत्रण करके तथा कंपोस्ट और जैविक खाद का प्रयोग करके भूमि का संरक्षण किया जा सकता है। मिट्टी सोना है, मिट्टी चंदन है, मिट्टी सुरक्षित रहेगी तो देश की अर्थव्यवस्था सुरक्षित रहेगी। आइए मिट्टी संरक्षण को एक राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाकर इस महान कार्य में हम सब भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें।

  1. भूमि संसाधन क्या है? भूमि संसाधन का महत्व स्पष्ट कीजिए।
    उ०- भूमि संसाधन- भूमि सामान्य रूप से धरती की ऊपरी उस सतह को कहा जाता है, जो मानव की कार्यस्थली है। भूमि के अंतर्गत वे सभी नि:शुल्क उपहार आते हैं, जो प्रकृति ने हमें पृथ्वी पर, पृथ्वी के नीचे तथा पृथ्वी के ऊपर प्रदान किए हैं। भूमि में मृदा, खनिज, वनस्पति तथा पर्यावरण सभी सम्मिलित हैं। भूमि में श्रम, तकनीकी तथा पूँजी का विनिवेश करके उसे संसाधन बनाया जाता है। प्रो० एस०के० रुद्र के शब्दों में, “भूमि में वे समस्त शक्तियाँ सम्मिलित हैं, जिन्हें प्रकृति निःशुल्क उपहारों के रूप में प्रदान करती है।”; जैसे
    (i) पृथ्वी की सतह पर मैदान, नदियाँ, पर्वत, पठार, झील, झरने समुद्र और प्राकृतिक वनस्पति; जैसे- घास, वन, पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियाँ और विभिन्न जीव-जंतु, पशु-पक्षी भूमि का ही भाग हैं।
    (ii) पृथ्वी के ऊपर मिलने वाली प्राकृतिक शक्तियाँ- प्रकाश, हवा, जलवायु, गर्मी, सर्दी, धूप, वर्षा आदि।
    (iii) पृथ्वी के नीचे पाए जाने वाले खनिज तथा चट्टानें- कच्चा लोहा, सोना, चाँदी, कोयला, ताँबा, तेल आदि।
    भूमि वास्तव में मानव जीवन का आधार है, क्योंकि भूमि उसे भोजन, वस्त्र तथा आवास की सुविधाएँ उपलब्ध कराती है। भूमि संसाधन का महत्व- भूमि का अर्थ और लक्षण जान लेने के पश्चात उसके महत्व पर विचार करना आवश्यक है। भूमि का महत्व निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है
    (i) भूमि मानव मात्र के जीवन का आधार है। भूमि के बिना कोई भी उत्पादन कार्य संभव नहीं। उत्पादन कार्य में यह माता
    की भाँति मानव का पालन पोषण करती है।
    (ii) भूमि प्राथमिक उद्योग कृषि, खनन, पशुपालन, वन-व्यवसाय तथा मछली पकड़ने के धंधों के विकास का मूलाधार है। (iii) किसी देश का आर्थिक विकास मुख्यत: वहाँ पर पाए जाने वाले प्राकृतिक संशाधनों अर्थात् भूमि पर निर्भर करता है।
    भूमि उपजाऊ मृदा, खनिज संपदा, वन, जल आदि उपलब्ध कराकर आर्थिक विकास का माध्यम बनती है।
    (iv) भूमि काष्ठ, ईंधन तथा ऊर्जा के संसाधन, बिजली, कोयला, तेल आदि देकर उद्योग, परिवहन तथा व्यापार के विकास में अमूल्य योगदान देती है।
    (v) भूमि उपजाऊ मृदा के रूप में कृषि को सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। कृषि उपजें मानव का पालन-पोषण करने के साथ-साथ उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध कराकर उनका भी पोषण करती है।

(vi) मनुष्य को रोजगार प्रदान करने में भूमि का महत्वपूर्ण स्थान है। खेती, वन तथा खानों में 70% से अधिक जनसंख्या
रोजगाररत है।

भूक्षरण ( भूमि का कटाव) क्या है? इसके कारण और निवारण के उपाय सुझाइए।
उ०- भूक्षरण या मृदा अपरदन या भूमि कटाव- भूक्षरण या भूमि कटाव की समस्या मृदा को अनुपयोगी तथा दुर्बल बनाने
वाला एक रोग है। अपरदन के विविध कारकों द्वारा मिट्टी की ऊपरी मुलायम परत को हटाने की प्रक्रिया, भूक्षरण या भूमि का कटाव कहलाता है। भूक्षरण को मिट्टी की रेंगती हुई मृत्यु कहा जाता है, क्योंकि यह धीरे-धीरे उपजाऊ भूमि को अनुपजाऊ बना डालता है। भूक्षरण के कारण भूमि ऊबड़-खाबड़ बनकर फसलों के लिए बेकार हो जाती है। भूक्षरण समतल रूप में तथा नालीदार होता है। भारत में लगभग 5 करोड़ हेक्टेअर भूमि-क्षेत्र भूक्षरण से प्रभावित है। अकेली गंगा नदी प्रतिवर्ष लगभग 30 करोड़ टन मिट्टी बहाकर बंगाल की खाड़ी में डालती है। इसी प्रकार नदियों के तटों पर कटाव के कारण विशाल भूमि क्षेत्र बीहड़ क्षेत्र बनकर रह गया है। इन बीहड़ों में अनाज की नहीं डाकुओं के रूप में अपराध की फसलें उगती हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में चंबल के बीहड़ इसी प्रकार बने हैं। भूक्षरण या भूमि के कटाव के कारण- भूक्षरण या भूमि के कटाव के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं
(i) मूसलाधार वर्षा के कारण मिट्टी की मुलायम परत कटकर भूक्षरण या भूमि कटाव का कारण बनती है।
(ii) वृक्षों के अंधाधुंध कटान के कारण भूमि का हरित आवरण नष्ट हो जाने से, वह भूक्षरण या कटाव का शिकार बन जाती है।
(iii) भूमि का अत्यधिक ढालू होना भी भूक्षरण का मुख्य कारण बन जाता है।
(iv) खेतों को जोतकर खुला छोड़ देने से तीव्र पवन के झोंके भुरभुरी मुलायम मिट्टी को उड़ाकर ले जाते हैं और अपने पीछे भूक्षरण का रूप छोड़ जाते है।
(v) वर्षा ऋतु में खेतों को परता छोड़कर उसे भूक्षरण के लिए वर्षा के हवाले कर दिया जाता है।
(vi) खेतों में पशुओं के अनियंत्रित ढंग से नियमित चराने तथा उनके तीव्र खुरों से मुलायम भूमि कट जाने से भी भूक्षरण
होता है। (vii) मुलायम तथा रेतीली मिट्टी में भूक्षरण तथा कटाव की समस्या स्वत: बढ़ जाती है।
भूक्षरण रोकने के उपाय- भूक्षरण मिट्टी के लिए रेंगती हुई मृत्यु है। मिट्टी को इस मृत्यु से बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए
(i) वृक्षारोपण विशाल स्तर पर करके तथा भूमि पर हरित आवरण बनाकर भूक्षरण का निराकरण किया जा सकता है।
(ii) खेतों की उचित ढंग से मेढ़बंदी करके मिट्टी को कटाव जैसे शत्रु से बचाया जा सकता है।
(iii) ढालू भूमि में ढाल के विपरीत जुताई करके जल प्रवाह में बाधा डालकर भूक्षरण को रोका जा सकता है।
(iv) ढालू भूमि में वैज्ञानिक ढंग से जल निकासी की उचित व्यवस्था करके भूक्षरण को रोका जा सकता है।
(v) वर्षा ऋतु में खेतों को जोतकर तथा भली तरह पाटा लगाकर मिट्टी को ठीक से दबा देना चाहिए।
(vi) खेतों को परता नहीं छोड़ना चाहिए, वरन् उसमें हरी चारे वाली फसलें उगाई जानी चाहिए। इससे भूक्षरण तो रुकेगा ही,
साथ ही उसकी उर्वरता में भी वृद्धि होगी। (vii) खेतों में पशुओं की अनियंत्रित चराई पर एकदम रोक लगा देनी चाहिए।
(viii) भूक्षरण संभावित क्षेत्रों में नदियों के तटबंध बनाकर, बाढ़ों को रोककर भूक्षरण को रोका जा सकता है।
(ix) भूक्षरण के कारण भूमि में बने गड्डों को समतल बनाकर, भूक्षरण के रोग का उचित इलाज किया जा सकता है।
(x) कटावयुक्त भूमि को पुनः कृषि योग्य बनाकर भूक्षरण की समस्या को सुलझाया जा सकता है।
भारत सरकार द्वारा देहरादून, कोटा, जोधपुर तथा बेल्लारी नगरों में भू-अनुसंधानशालाएँ स्थापित करके तथा चकबंदी
द्वारा छोटी-छोटी जोतों को बड़े चक में बदलकर भूक्षरण को रोकने की व्यवस्था की गई है

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